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श्रात्मा एक महान प्रवासी
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृहणाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ -~-जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रो को छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार देहधारी आत्मा, पुराने शरीरो को छोड़कर नये शरीर धारण करती है।
आत्मा की एक देहधारण करके छोड़ने तक की क्रिया को हम 'भव' या 'अवतार' कहते है । इस 'भव' या 'अवतार' का प्रारम्भ गर्भधारण या जन्म से होती है और अन्त मरण से आता है। अर्थात् आत्मा जन्मा और मरा ये शब्द औपचारिक है। जन्म और मरण देह के होते है, आत्मा के नहीं।
___ आत्मा कभी भी जन्मी नहीं है । वह 'अज' कहलाती है और कभी भी नाग को प्राप्त नहीं होती, वह 'अविनागी' या 'अमर' कहलाती है। वह 'अरूपी' है, इसलिए गस्त्रों से उसका छेदन-भेदन नहीं हो सकता, अग्नि द्वारा उसका जलन-प्रज्वलन नहीं हो सकता ; पानी से भीगता नहीं, पवन से सूखता नहीं । वह चाहे जैसी कटोर दीवारों या पहाड़ो को निमिप
१ भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में निम्न पक्तियाँ आती है
नैन छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैन दहति पावक ।
न चैन क्लेदयत्यापो, न शोपयति मारुत ॥ -~-इस आत्मा को शस्त्र छेदते नहीं, इसे अग्नि जलाती नहीं, इमे पानी भिगोता नहीं और पवन सुखाता नहीं।