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आत्मतत्व-विचार
मात्र में पार कर जाता है और कोई उसे रोक नहीं सकता । इसीलिए वह राजलोक के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चाहे जहाँ जा सकती है।
आत्मा का प्रवास, आत्मा का ससार-परिभ्रमण कब शुरू हुआ, यह वर्षों की संख्या में नहीं बताया जा सकता । लाख वर्ष पहले भी उसका ससार-परिभ्रमण चालू था , करोड वर्ष पहले भी चालू था और अरब वर्ष पहले भी चालू था। अर्थात्, वह ससार में अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहा है।
सोना जैसे पहले से ही मिट्टी से मिला हुआ होता है, उसी प्रकार आत्मा अनादिकाल से कर्म से लिप्त है और उसका कर्म-बन्धन प्रति समय चालू ही है ; इसलिए उसका फल भोगने के लिए उसे देह धारण करना पड़ता है । जब कर्म का नवीन बंध होना रुक जाता है और सत्ता में रहे हुए कर्म खिर (नष्ट) जाते है, तब उसे नवीन जन्म धारण नहीं करना पड़ता। उस समय वह अपनी स्वाभाविक ऊर्च गति से लोक के अग्रभाग में पहुँच जाता है और सिद्धगिला के अग्रभाग में विराजकर मोक्ष के अअयअनन्त सुख का उपभोक्ता बन जाता है । तब इस महान् प्रवासी का प्रवास पूरा होता है और वह एक ही स्थान पर अनन्तकाल तक स्थिर रहता है ।
* यहाँ निमिप मात्र शब्द का प्रयोग वस्तुस्थिति सरलता से समझ में आ जाये इसलिए किया हैं । वास्तव में तो आत्मा निमिष के असंख्यातवें भाग यानी एक, दो या तीन समय में ही अपने गतव्य स्थान पर पहुंच जाती है । आत्मा की इस गति को विग्रहगति कहते हैं। आत्माकी स्वाभाविक गति ऊर्ध्व हैं, यह बतलाया जा चुका है।