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आत्मा की अखण्डता
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का आत्मा स्वात्मप्रदेशो द्वारा सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हो जाता है, क्योकि एक आत्मा के प्रदेश लोकाकाश के वरावर है ।
उसके बाद पॉचवे समय में, अन्तराल में समय में पूरे हुए आत्मप्रदेशका सहरण होता है; छटे समय मंथान के अर्द्ध भाग के आत्मप्रदेशो का सहरण होता है; सातवे समय में कपाट का सहरण कर लेते हैं और आठवे समय मे द डाकार प्रदेश का सहरण कर लेते हैं और तत्र आत्मा पूर्ववत् सम्पूर्ण शरीरस्थ हो जाता है । यह केवली - समुद्घात पूर्ण हो जाने पर केवली भगवत अन्तर्मुहूर्त जी कर मन-वचन काया का निरोध कर मोक्षगामी बनते है ।
एक शरीर में आत्मा कितनी ?
अब यह जान लेना जरूरी है कि, एक शरीर में एक आत्मा भी रहती हैं और अनन्त आत्माएँ भी रहती है। अपने शरीर में और गायभैम-घोड़ा - हाथी के शरीर में भी एक आत्मा होती है। मछली- मेंढकपतंगा-कुद्रा-कीडी-मकोडी आदि के शरीर में भी एक आत्मा होती है । उसी तरह प्रत्येक वनस्पति में जड़, पत्ते, बीज, छाल, लकड़ी, फल आदि अगो में एक आत्मा होती है, परन्तु साधारण वनस्पति में एक शरीर मं अनन्त आत्माएँ होती है। वहाँ उसका माप अंगुल का असख्यातवाँ भाग होता है ।
'इतनी आत्माएँ एक साथ कैसे रहती होगी ? वे आपस में टकराती होगी या नहीं ? परस्पर संघर्ष होता होगा या नहीं ? वे एक दूसरे के अमर से खडित होती होगी या नहीं ?' आदि प्रश्न आपके मन मे उठते होंगे । उनका अभी समाधान करेगे । जैसे एक कमरे में अनेक दीपको का प्रकाश साथ रह सकता है, वैसे ही एक शरीर में अनन्त आत्माएँ साथ रह सकती है | इन दीपको के प्रकाश एक ही कमरे में साथ रहते
हुए भी जैसे परस्पर टकराते नहीं है, परस्पर संघर्ष नहीं करते, एक दूसरे
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