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आत्मतत्व-विचार
और नरक
नारकी यह उनका क्रम है। इनमें देवता की गति सबसे उत्तम की गति सबसे कनिष्ठ है।
६ पर्याप्तियाँ आत्मा चौरासी लाख योनियो मे परिभ्रमण करता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि, वहाँ उस उस जाति का शरीर तैयार रहता है, जिसमें वह प्रवेश करता है, बल्कि उसका अर्थ यह है कि वहाँ उत्पन्न होकर अपने कर्मानुसार देह की रचना करता है। उसके लिए शास्त्रकारो ने ६ पर्याप्ति का जो क्रम बताया है, वह बराबर लक्ष में रखने योग्य है । यह पर्याप्तियो में पहली आहार-पर्याप्ति है, दूसरी शरीर-पर्याप्ति है, तीसरी इन्द्रिय-पर्याप्ति है, चौथी श्वासोच्छवास-पर्याति है, पाँचवीं भाषा-पर्याप्ति है और छठी मनपर्याति है।
पर्याप्ति का अन्तरग कारण कार्मण-योग है और वाह्य कारण पुद्गलग्रहण है। पुद्गल में रहनेवाली परिगमन-गक्ति को उपयोग में लेने की जीव की शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं।
पूर्व स्थान पर अपनी देह छोडकर अपनी नयी आनुपूर्वी, गति, जाति आदि नामकर्म-रूप कार्मण शरीर के अनुसार नवीन जन्म-क्षेत्र में पहुँचकर स्वजाति योग्य देह धारण करने के लिए जीव जिस शक्ति के द्वारा पुद्गल ग्रहण करता है, उसे आहार-पर्याप्ति कहते है। आहार-पर्याप्ति आदि पर्याप्तियो को सत्र जीव दूसरे जन्म में आते ही शुरू करते हैं। उनमे आहार-पर्याति पहले समय में ही पूरी हो जाती है और बाकी पर्याप्तियाँ अन्तर्मुहूर्त मे पूर्ण हो जाती है।
आहार-पर्याप्ति के द्वारा ग्रहण किये हुए और खल-रस रूप हुए पुद्गल में से खल ( असार ) पुद्गल को छोड़कर दूसरे सार पुद्गल को धातु-रूप-परि