Book Title: Shastrasara Samucchay
Author(s): Maghnandyacharya, Veshbhushan Maharaj
Publisher: Jain Delhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतरागायनम : एक श्री माघनंद्याचार्य विरचित - शास्त्रसार समुच्चय ___- . I Am, हिन्दो टोकाकार परमपूज्य विद्यालंकार श्री १०८ प्राचार्य वेशभूषण जी मुनिमहाराज ... . प्रकाशक : श्रीमति जैन, धर्मपत्नी श्री राजेन्द्र कुमार जैन ११-कीलिंग रोड़, नई देहली १००० प्रति ] बीर निर्वाण सम्वत् २४८४ मूल्य ५ रुपये Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशनीय वक्तव्य उत्तरी भारत के सौभाग्य से जयपुर-अलबर-फिरोजपुर-गुड़गांवा आदि अनेक स्थानों में धर्म प्रभावना करते हुए बाल ब्रह्मचारी विद्यालंकार परम पूज्य १०८ प्राचार्य श्री देशभूषण जी महाराज का दिनांक २६-५-१६५५ रविवार को प्रातःकाल भारतवर्ष को राजधानी देहली में शुभागमन हुा। समस्त जन समाज ने आनन्द में विभोर होकर गद्गद् हृदय से भक्ति भाव पूर्वक महाराज जी का स्वागत किया। देहली को समाज को महाराज जी के दर्शन पाकर तथा उनके कल्याणकारी उपदेश सुनकर अत्यन्त धर्म लाभ मिला । संक्षिप्त परिचय:-प्राचार्य श्री देशभूषण जी महाराज का जन्म संवत् १९६५ में बम्बई प्रान्त के बेलगांव जिले में कोयलपुर नामक ग्राम में हुआ था। आपके पिता जी का नाम श्री सत्यगौड़ तथा माताजी का अक्कावती था । माताजी इस संसार को प्रसार जानकर आपको तीन मास की ही प्रायु में छोड़ कर चल बसीं। पिता जी ने भी अधिक मोह न रक्खा और ६ (नो) वर्ष पश्चात् वे भो परलोक सिधार गये । माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् आपका पालन-पोषण मापकी नानी जी ने किया । आपने सोलह वर्ष की आयु में हो कानड़ी और महाराष्ट्री भाषानों का विद्याध्ययन कर लिया। जिस समय आप १६ वर्ष के हुए अापके मामाजी ने प्रापका विवाह करने का विचार किया, परन्तु संयोगवश श्री जैकीति जी मुनि महाराज का आपके ग्राम में शुभागमन हुआ । मुनि महाराज का निमित्त और उपदेश मिलते ही आप में धर्म भावना जाग्रत हो गई और गुरु के चरणों में तन मन लगा दिया । गुरुजी ने सबसे पहले अभक्ष पदार्थों का त्याग कराया पौर अष्टमूल गुण धारण कराये। कुछ दिन बाद गुरु जी के साथ ही श्री सम्मेद शिखर जी की यात्रा को चले गये। गुरु जी के साथ रहने पर दिन-प्रति दिन धर्म की ओर ध्यान लगने लगा और मुनि दीक्षा लेने की इच्छा प्रगट की-परन्तु बाल्य अवस्था होने के कारण और श्रावकों के विरोध करने पर आपको रामटेक तीर्थ पर सर्व प्रथम ऐलक दीक्षा दी गई । परन्तु आपके भाग्रह करने पर एक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माह पश्चात् ही श्री १०८ जैकीर्ति जी महाराज ने कुन्थलगिरि पर आपको मुनि दीक्षा दे दी । आापको प्राचीन ग्रन्थों के अनुवाद तथा जैन साहित्य के प्रसार का बहुत हो ध्यान रहता है । आपने अनेक प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों का अनुवाद किया है तथा अनेक ग्रन्थों का सम्पादन किया है। भरतेश वैभव-भावनासार अपराजितेश्वर शतक -दशलक्षरण धर्म-नर से नारायण इत्यादि २ | श्री भूवलय आज से लगभग १२-१३ सौ वर्ष पूर्व आचार्य श्री कुमुदेन्दु नामक एक महान् विद्वान् ऋषि का भारतवर्ष में आभिर्भाव हुआ-उन्होंने एक ऐसे ग्रन्थराज की रचना को जिसमें अंकों को प्रयोग में लाया गया । इस ग्रन्थ में एक भी अक्षर नहीं है । सारा भूवलय ग्रन्थ नौ अंकों तथा एक बिंदी से बना है। इस ग्रन्थ में उस काल की प्रचलित ७१८ भाषाओं · का साहित्य पाया जाता है । अनेक भाषाओं के ज्ञाता आचार्य श्री १०८ देशभूषण जी महाराज अपना अमूल्य समय लगाकर इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करने में प्रयत्नशील हैं । इस ग्रन्थ को विशालता का अनुभव इससे लगाया जा सकता है कि केवल हिन्दी भाषा में अनुवाद करने में ही कम से कम पांच सात वर्ष लगेंगे। इस ग्रन्थ में से अनेक अन्य ग्रन्थों के निकलने की भी सम्भावना है । इस कार्य के पूर्ण होने से समाज का अवश्य ही एक बड़ा उपकार होगा । बेहली चातुर्मास के समय श्री १०८ श्राचार्य देशभूषण जी महाराज द्वारा "शास्त्र सारसमुचय" ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद किया गया है श्राशा है धर्म प्रेमी महानुभाव इस ग्रन्थ को पढ़कर धर्म लाभ उठायेंगे । इस ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद करने में पं० श्रजित कुमार जी शास्त्री मुलतान वाले तथा पं० रामशंकर त्रिपाठीची वस्ती ने विशेष सहयोग दिया है। अतः उनके लिए धन्यवाद | २५-११-१६५७ वशेशर नाथ जैन पहाड़ी धीरज देहली Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द देहली भारतवर्ष की राजधानी है। आज स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद तो रहली का बहुत ही विशिष्ट स्थान है। समस्त धर्मों के धर्मगुरु प्रायः सदैव ही बिहली में विद्यमान रहते हैं। देहली के सौभाग्य से गत तीन वर्षों से पूज्य इमाचार्य १०८ विद्यालंकार श्री राम जी महाराज का देसी बायुमास हो रहा है । पूज्य आचार्य श्री कानड़ी संस्कृत तथा हिन्दी भाषा के एक उच्च कोटि के विद्वान हैं साथ ही आपको अंग्रेजी का भी ज्ञान है । आचार्य श्री को जैन धर्म प्रभावना की एक अद्वितीय लगन है। अब तक आप कितने ही ग्रन्थों का पिनुवाद तथा कितनी ही मूल पुस्तकें जैन धर्म पर लिख चुके हैं। आपके द्वारा अनुवादित रत्नाकर शतक, भरतेश वैभव, अपराजितेश्वर शतक अधिक प्रसिद्ध हैं। ! पूज्य प्राचार्य श्री माधनन्दी विरचित प्रस्तुत कानड़ी ग्रन्थ 'शास्त्रसार समुच्चय' एक अद्वितीय जैन धर्म ग्रन्थ है जिसमें चारों अनुयोगों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन है । प्राचार्य श्री द्वारा सर्व प्रथम इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद किया गया जो आपके सन्मुख है। प्राचार्य श्री ने इस ग्रन्थ के अनुवाद में हो इस चातुस का अधिक समय व्यतीत किया है। जैन साहित्य के प्रति आपकी यह अपूर्व सेवा है जिसके लिए जैन समाज प्रापका सदैव ऋणी रहेगा। | इस ग्रन्थ के अतिरिक्त इस वर्ष चातुर्मास में प्राचार्य श्री ने अपना बाको । समय श्री भ्रूवलय महान् ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद में व्यतीत किया है। ग्रन्थराज । श्री भूवलय संसार का एक निराला ग्रन्थ है जो प्राचार्य श्री कुमुदेन्दु जी ने अंकों में निर्माण किया है । भूवलय ग्रन्थ का प्रकाशन एक ऐसा कार्य होगा जो | संसार में जैन धर्म की प्राचीनता तथा महत्व को दीपक के समान प्रकाश में लाएगा । इस ग्रन्थ के प्रकाशन का कार्य भूवलय ग्रन्थ प्रकाशन समिति ने अपने ऊपर लिया है। उसके संस्थापक भी प्राचार्य थी ही हैं। उस ग्रन्थ का मंगलप्रामृत शीध्र प्रकाशित होगा। आचार्य श्री जगत को एक महान विभूति हैं । भापके देहली चातु। मसि से जैन जनता ने नहीं वरंच अजैन जनता ने भी बहुत धर्म लाभ उठाया Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। भारत के सुप्रसिद्ध व्यापारी तथा आर्य धर्म शिरोमणि श्री युगलकिशोरबिड़ला तो आप को अपने धर्मगुरु के रूप में सदैव ही पूजते रहे हैं 1 ग्रा उपदेशों से प्रभावित होकर कांग्रेस अध्यक्ष श्री देबर भाई, श्री निजलिस मुख्यमन्त्री मैसूर राज्य, सुप्रीम कोर्ट के जज, भारत राज्य मन्त्रीगण अनेकों अन्य ख्याति प्राप्त महान व्यक्ति प्रापको सेवा में धर्म लाभ प्रार हेतु, आपके उपदेश श्रवण को प्राते रहें हैं। श्री जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना है। पूज्य प्राचार्य श्री सदैव ही हमारे मार्गप्रदर्शक रहें। जैन समाज, श्रीमति । धर्मपत्नी श्री राजेन्द्र कुमार जी जन-११ कीलिंग रोड नई देहली की अल अाभारी हैं। जिनकी अोर से इस ग्रन्थ की १००० प्रतियां प्रकाशित की। रही हैं । आपको धर्मनिष्ठा तथा दानशीलता अनुकरणीय है । प्रादीश्वरप्रसाद जैन एम ए. मन्त्री श्री भूवलय ग्रन्थराज प्रकाशन समिति २० अक्तूबर १६५७ जैन मित्र मण्डल, धर्मपुरा देहली। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द संसारसागर में आत्मा को डुबाने वाला प्रज्ञान (मान की कमी) तथा कुज्ञान [मिथ्याज्ञान] है और संसार से पार करने वाला सज्ज्ञान है। वैसे तो मनुष्य पढ़ लिखकर लौकिक ज्ञान में बहुत निपुण हो जाते हैं जैसे कि आपकल भौतिक विज्ञान में पाश्चात्य देशों के विज्ञानवेत्ता अणुबम उद्जनबम.आदि बना कर बहुत कुछ उन्नति कर चुके हैं किन्तु उस सूक्ष्म विशाल ज्ञान से मात्मा को कुछ पोषण नहीं मिलता। वह महान ज्ञान तो हिरोशिमा, मागासीका जैसे जापान के विशाल नगरों को क्षणभर में विध्वंस करने में निमित्तकारण बन गया है। प्राध्यात्मिक ज्ञान ही प्रात्मकल्याण का साधन है। सततस्मरणीय पूज्यतम तीर्थंकरों ने उसी आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार किया यद्यपि उन्होंने परमाणु आदि जड़ पदार्थों का सूक्ष्म विवेचन भी अपने दिव्य उपदेश में स्पष्ट किया है परन्तु उनका संकेत मुख्यरूप से आध्यात्मिक ज्ञान की ओर रहा । उसी आध्यात्मिक ज्ञान को अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की शिष्य परम्परा ने प्रथनिबद्ध करके जगत्कल्याण के लिए सुरक्षित रखा। उन्होंने भगवान महावीर की वाणी को चार अनुयोगों में विभक्त करके भिन्नभिन्न अनुयोगों की अक्षरात्मक रचना की। परन्तु श्री माघनन्दि आचार्य ने सूत्रात्मक शास्त्रसार समुच्चय ग्रन्थ में उन चारों अनुयोगों को संक्षेप में रखकर अनुपम रचना संसार के सामने रक्खी। उसी शास्त्रसार समुच्चय नन्थ की टीका श्री मारिणश्यनन्दि आचार्य ले की है जोकि संभवतः संस्कृत भाषा में होगी। एक कानड़ी टीका किसी अज्ञातनामा विद्वान ने की है जोकि अच्छी सुगम एवं उपयोगी है। उसकी उपयोगिता अनुभव करके हमने उसका हिन्दी अनुवाद कर दिया है। ग्रन्थ की अन्य मूल लिखित प्रति न मिल सकने से मन्थ का मिलान न किया जा सका, प्रतः अनेक गाथाओं एवं श्लोकों की अशुद्धियों का ठीक संशोधन होने से रह गया है । ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए श्रीमति जैन धर्मपत्नी श्री राजेन्द्र कुमार जी जैन ११-कीलिंग रोड न्यू देहली ने आर्थिक व्यय करके सज्ज्ञान के प्रसार में सहयोग दिया है उनका यह प्रार्थिक दान उनके मुक्ति के कारणभूत पुण्यानुबंधका कारण है। धनका सदुपयोग विश्वकल्याण के कारणभूत सत्कार्यों में व्यय करना ही है । श्रीमति जैन की यह उदारभावना और भी प्रगति करे और Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने स्वस्थ प्रसन्न जीवन से स्वपर कल्याण करमे में अग्नसर रहें, ऐसा हमारा शुभाशीर्वाद है। इस ग्रन्थ के सम्पादन में पं. अजितकुमार जी शास्त्री, सम्पादक जनगजट तथा पं० रामशंकर जी त्रिपाठी वस्तो ने अच्छा सहयोग दिया है । एवं अनेक स्थलों पर मल्लिका विशालमती ने सहायता की है, एतदर्थ उन्हें भी शुभाशीर्वाद है। हमारे सामने सुननार सिवान गनुवाद का भी महान कार्य है, उसमें भी हमारा पर्याप्त समय तथा उपयोग इसी अवसर पर लगा रहा, साथ हो उन दिनों में बिहार भी होता रहा, इस कारण शास्त्र सार समुच्चय के अनुवाद कार्य में त्रुटियां रह जाना सम्भव है विद्वान गरा उन अटियों को सुधार कर अपन कर्तव्य का पालन करें, ऐसा हमारा अनुरोध है । - भगवान महावीर का शासन विश्वव्यापी हो मानव समाज दुगुण दुराचार छोड़कर सन्मामैगामी बने और विश्व की अगान्ति दूर हो, हमारी यही भावना है। [आचार्य श्री १०८] देशभूषण [जी महाराज] [दिल्ली चातुर्मास] शास्त्रसार समुच्चय प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'शास्त्रसार समुच्चय' जिसका विषय उसके नाम से स्पष्ट है। इस ग्रन्थ में प्राचार्य महोदय ने उन सभी विषयों की चर्चा की है जिनको जानने की अभिलाषा प्रत्येक श्रावक को होती है । इसमें ज्योतिष, वैद्यक-जैसे लौकिक विषयों की भी चर्चा की गई है । ग्रन्थ की टीका कानडी भाषा में की गई है । सूत्रों के रचयिता प्राचार्य माधनन्दि योगीन्द्र हैं । जो वस्तु-तत्व के मर्मज्ञ, महान् तपस्वी और योग-साधना में निरत रहते थे। इतना ही नहीं किंतु ध्यान और अध्ययन प्रादि में अपना पूरा समय लगाते थे । और कभी-कभी भेदविज्ञान द्वारा प्रात्मस्वरूप को प्राप्त करने तथा आत्म-प्रतीति के साथ स्वरूपानुभव करने में जो उन्हें सरस अानन्द आता था उसमें वे सा सराबोर रहते थे । जब कभो उपयोग में अस्थिरता पाने का योग बनता तो आचार्य महोदय तत्त्वचितन और मनन द्वारा उसे स्थिर करने का प्रयत्न करते । और फिर ग्रन्थ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनादि शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करने थे 1 आपके नाम के साथ लगी हुई योगीन्द्र उपाधि प्रापकी कठोर तपश्चर्या एवं आत्म-साधना का जयघोष कर रही है। आप कनड़ी भाषा के साथ संस्कृत भाषा के विशिष्ट विद्वान थे। और संक्षिप्त तथा सार रूप रचना करने में दक्ष थे । माघनन्दो नाम के अनेक विद्वान और प्राचार्य हो गए हैं। उनमें वे फोन हैं और गुरूपरम्परा क्या है ? यह विचारणीय है । इस ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि प्रस्तुत माधनन्दि योगोन्द्र (मूलसंघ बलात्कार गरण) के गुरु विद्वान श्री'कुमुदेन्दु थे। यह कुमुदेन्दु प्रतिष्ठा-कल्प टिप्पण के भी कर्ता थे । प्रतः इनका समय संभवत: विक्रम की १२ बी १३ वीं शताब्दी होना चाहिए । एक माधनन्दी कुमुदचन्द्र के शिष्य थे, जो माघनन्दि श्रावकाचार तथा शास्त्रसार समुच्चय के कनाड़ी टीकाकार हैं। कर्नाटक कवि चरित के अनुसार इनका समय ईस्वीसन् १२६० (वि० सं० १३१७) है। शास्त्रसार समुच्चय के कर्ता माधनन्दि योगीन्द्र इन से पूर्ववर्ती हैं । अर्थात् उनका समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है । अापकी यह अनुपम वृति संक्षिप्त स्पष्ट और अर्थगाम्भीर्य को लिए हुए है। इस ग्रन्य में प्रथमानुयोग, चरणनुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग के साथ अनगार (मुनि) और श्रावक के धर्म तथा कर्तव्य का अच्छा विवेचन किया गया है । ग्रन्थ की टीका की भाषा कनाडी होने से वह तभाषा-भाषियों के लिये तो उपयोगो है ही, किन्तु प्राचार्य श्री १०८ देशभूषण जी महाराज द्वारा हिन्दी टीका हो जाने से वह हिन्दी भाषा-भाषी जनों के लिये भी उपयोगी हो गया है। श्री प्राचार्य ने जब इस ग्रन्थ का अध्ययन किया था, उसी समय से इस को टीका करने का उनका विचार था, परन्तु पर्याप्त साधन सामग्री के अनुकूल न होने से वे उसे उस समय कार्य रूप में परिणत नहीं कर सके थे। किन्तु भारत को राजधानी दिल्ली में उनका चातुर्मास होने से उन्हें वह सुयोग मिल गया, और वे अपने विचार को पूर्ण करने में समर्थ हो सके हैं । पूज्यवर प्राचार्य श्री की मातृ-भाषा हिन्दी न होने पर भी उनका यह हिन्दी अनुवाद सुरुचि पूर्ण है। साथ ही, भाषा सरल और मुहावरेदार हैं और नन्थ के हाई को स्पष्ट करने में पूरा परिश्रम किया गया है । प्राचार्य श्री का उक्त कार्य अभिनन्दनीय है। आशा है, प्राचार्य महाराज भविष्य में जनता का ध्यान जिनवाणी के संरक्षण की ओर आकर्षित करने को कृपा करेंगे 1 -परमानन्द जैन शास्त्री Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्य संसार में भ्रम, अज्ञान, असत्धारणा, प्राध्यात्मिक अन्धकार हैं, जैसे सूर्य अस्त हो जाने पर नेत्रों को बाहरी पदार्थ रात्रि के गहन अन्धकार में दिखाई नहीं देते, ठीक उसी तरह गह्न अज्ञान अन्धकार में ज्ञान का अधिपति आत्मा स्वयं अपने आपको नहीं देख पाता। किन्तु सोभाग्य है कि सदा रात्रि का प्रन्धकार नहीं बना रहता, कुछ समय पीछे सूर्य-उदय के साथ प्रकाश अवश्य हुआ करता है, इसी तरह अशान अन्धकार भी संसार में सदा व्याप्त नहीं रहता, उस आध्यात्मिक अन्धकार को दूर करनेवाला शान-सूर्य भी कभी दित होता ही है जिसके महान प्रकाश में अज्ञान धारणाएं, फैले हुए भ्रम और असत् श्रद्धा बहुत कुछ दूर हो जाती है, असो ज्ञान-प्रकाश में सांसारिक विविध दुःखों से पीड़ित जोव सन्मार्ग का अवलोकन करके गहन संसार वनको पार करके अजर अमर बन जाया करते हैं। जिस तरह दिन और रात्रि की परम्परा सदा से चली आ रही है, शान-प्रकाश और अज्ञान-अन्धकार फैलने की परम्परा भी सदा से खली आ रही है । ज्ञान-प्रकाशक तीर्थकर जब प्रगट होते हैं तब जगत में ज्ञान की महान ज्योति जगमगा उठती है और जब उनका निर्वारण हो जाता है सब धीरे-धीरे बह ज्योति बुझकर अज्ञान फैल जाता है । - इस युग की अपेक्षा भरतक्षेत्र में सबसे पहले सत्ज्ञान के प्रकाशक अनुपम दिवाकर आदि जिनेश्वर भगवान ऋषभनाथ सुषमादुःषमा काल के अन्तिम चरण में प्रगट हुए। उन्होंने अपने अनुपम ज्ञान बल से पहले समस्त किंकर्तव्य-विमूढ जनता को जीवन-निर्वाह की विधियां-असि, मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य, विद्या प्रादि कलाऐं सिखाई। अपनी ब्राह्मी पुत्री को अक्षर विद्या और लघुपुत्री सुन्दरी को अंक-विद्या सिखलाई, इस प्रकार लिखने पढ़ने का सूत्रपात किया ! अपने भरत, बाहुबली आदि उदीयमान महान पुत्रों को नाट्य, राजनीति, मल्ल युद्ध आदि कलानों में निपुण किया। भगवान ऋषभ नाथ ने अपने यौवन काल में स्वयं निष्कण्टक न्याय नीति से राज्य शासन किया तथा प्रायु के अन्तिम चरण में अपने राज-सिंहासन पर भरत को बिठा कर स्वयं मुनि-दीक्षा लेकर योग धारण किया। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस तरह उन्होंने अपने गृहस्थ-पाश्रम में जनता को सबसे प्रथम समस्त कलाएं सिखलाई थी, इसी प्रकार घर परिवार से विरक्त होकर नग्न दिगम्बर रूप धारण करने के अनन्तर सबसे पहले उन्होंने मुनि चर्याका प्रादर्श भी उपस्थित किया । उस योगि-मार्ग में उन्हें एक हजार वर्ष तक मौन भाव से कठोर तपस्या करने के पश्चात् जब केवल ज्ञान प्राप्त हुआ तब वे इस युगके सबसे प्रथम वीतराग सर्वज्ञ प्रहंत परमात्मा बने । उस समय उन्होंने सबसे प्रथम जनता को संसार से पार होकर मुक्ति प्राप्त करने का सन्मार्ग प्रदर्शन किया, कर्मबन्धन, कर्म-मोचन, पारमा, परमात्मा, जीवनजीव आदि पदार्थो का यथार्थ स्वरूप अपनी दिव्य-ध्वनि द्वारा बतलाया । आर्य-क्षेत्र में सर्वत्र विहार करके समवशरण द्वारा धर्म का प्रचार तथा तत्व ज्ञान का प्रसार किया । जनता में प्राध्यात्मिक रुचि उत्पन्न की। इस प्रकार वे सबसे पहले धर्म-उपदेष्टा प्रख्यात हुए। प्रसिद्ध वैदिक दिगम्बर ऋषि शुकदेव जी से जब पूछा गया कि 'पाप अन्य अवतारों को नमस्कार न करके ऋषभ-अवतार (भगवान ऋषभ नाथ) को ही नमस्कार क्यों करते हैं ? तो उन्होंने उत्तर दिया कि 'अन्य अवतारों ने संसार का मार्ग बतलाया है, किन्तु ऋषभ देव ने मुक्ति का मार्ग बतलाया है, अतः मैं केवल ऋषभदेव को नमस्कार करता हूँ।' । भगवान ऋषभनाथ ने दीर्घ काल तक धर्म-प्रचार करने के अनन्तर कैलाश पर्वत से मुक्ति प्राप्त की। इस प्रकार वे प्रथम तीर्थकर हुए। उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत पहले चक्रवर्ती सम्राट् हुए, उनके ही नाम पर इस देश का नाम 'भारत' प्रसिस हुना। भगवान ऋषभनाय के मुक्त हो जाने पर उनकी शिष्य-परम्परा सत्वउपदेश तथा धर्म-प्रचार करती रही । फिर भगवान अजितनाथ दूसरे तीर्थंकर हुए उन्होंने राज-शासन करने के पश्चात् मुनि-दीक्षा लेकर अहंत-पद प्राप्त किया । तदनन्तर भगवान ऋषभनाथ के समान ही महान धर्म प्रचार और तात्विक प्रसार किया। भगवान अजितनाथ के मुक्त हो जाने पर क्रमशः शम्भव नाथ, अभिनन्दननाथ आदि तीर्थंकर क्रमशः होते रहे 1 बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ हुए इनके समय में राम, लक्ष्मण, रावण प्रादि हुए। बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ हुए । नारायण कृष्ण इनके चचेरे भाई थे, कौरव पाएडव इनके समय में हुए हैं ! तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ और अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर हुए । इनमें से श्री वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ और महावीर ये पांच तीर्थकर बाल ब्रह्मचारी हुए हैं। सभी तीर्थकुरों ने अपने समय में धर्म तथा सत्ज्ञान का महान प्रचार किया है। समस्त तोर्थट्टरों का तात्विक उपदेश एक ही समान रहा क्योंकि सत्य एक ही प्रकार का होता है, उसके अनेक भेद नहीं हुमा करते । अत: जैसी कुछ वस्तु-व्यवस्था भगवान ऋषभनाथ के ज्ञान द्वारा अवगत होकर उनकी दिव्य-ध्वनि से प्रगट हुई वैसा ही वस्तु-कथन भगवान महावीर द्वारा हुया। . भगवान महावीर के मुक्त हो जाने पर भगवान महावीर के चार शिष्य केवल ज्ञानी (सर्व) हुए । श्री इन्द्र-भूति गौतम गरमधर, सुधर्म गणधर तथा जम्बू स्वामी अनुबद्ध केवलो हुए और श्रीधर अननुबद्ध केवली हुए हैं। जो कि कुण्डल गिरि से मुक्त हुए । इनके पश्चात् भरत क्षेत्र में केवल-ज्ञानसूर्य अस्त हो गया । तब भगवान महावीर का तात्विक प्रचार उनकी शिष्यपरम्परा ने किया। चार केवलियों के बाद नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवद्धन और भद्रबाहु ये पांच द्वादशांग वेत्ता श्रुत-केवली हुए। भद्रबाहु प्राचार्य के पश्चात् श्रुत-केवल-ज्ञान-सूर्य भी अस्त हो गया। इन पांचों का समय सी वर्ष है। तदनन्तर विशाश, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, वृतिषण, विजय, बुद्धिल, गङ्गदेव और सुधर्म, ये ग्यारह यति ग्यारह अंग दशपूर्व के वेत्ता हुए । इन सबका काल १८३ वर्ष है। तदनतः श्री नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्र वसेन और कंस ये पांच मुनिवर ग्यारह अंग के लाता हुए। ये सब २२० वर्षों में हुए । फिर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु, और लोहार्य ये चार मुनिराज आचारांग के धारक हुए । ये ग्राचारांग के पूर्ण ज्ञाता थे, शेष १० अंग, १४ पूर्वो का इन्हें एकदेश ज्ञान था। इनके पीछे श्री धरसेन तथा गुणधर आचार्य हुए है। श्री धरसेनाचार्य ने अपना मायुकाल सन्निकट जानकर अन्य साधु संघ से श्री पुष्पदन्त भूतबली नामक दो मेधादी मुनियों को अपने पास बुलाया और उन्हें सिद्धान्त पढ़ाया । सिद्धान्तमें पारमत करके उन्हें अपने पास से विदा कर दिया । श्री धरसेनाचार्य गिरिनगर (मिरनार) के निकट चन्द्रक गुफा में रहते थे जोकि अब तक विद्यमान है। श्री पुष्पदन्त भूतबली आचार्य ने षड्लण्ड आगम को और श्री पुणधर प्राचार्य ने कसाय-पाट्टष्ट अन्म की रचना की। सम्भवतः षट्खण्ड भागम से पहले कसाय-पाहुड़ की रचना हुई है 1 श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य अपने आपको Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशांगता श्री भद्रबाहु श्राचार्य का शिष्य लिखते है, इस दृष्टि से उनका समय श्री पुष्पदन्त, भूतबली से भी पहले का बैठता है किन्तु चारों भ्राचार्य विक्रम की दूसरी शताब्दी के माने जाते हैं, प्रतः श्री कुन्दकुन्दाचार्य का समय विचारणीय है । इस प्रकार भगवान वीरप्रभु का उपदिष्ट सैद्धान्तिक ज्ञान प्रविच्छिन गुरु-परम्परा से श्री घरसेन, गुणधर, पुष्पदन्त भूतबली, कुन्दकुन्द आचार्य को प्राप्त हुआ और उन्होंने ( धरसेन प्राचार्य के सिवाय) आगम-रचना प्रारम्भ की । श्वेताम्बरीय आगम रचना विक्रम सं० ५१० में बल्लीपुर में श्री देवगिरिण क्षमाश्रम के नेतृत्व में हुई । श्री गणधर, पुष्पदन्त भूतबली, कुन्दकुन्द प्राचार्य के अनन्तर ग्रन्थ निर्माण की पद्धति चल पड़ी। तदनुसार श्री उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद यतिवृषभ, अकलंकदेव, वोरसेन, जिनसेन श्रादि श्राचार्यों ने गुरु परम्परा से प्राप्त ज्ञान के अनुसार विभिन्न विषयों पर विभिन्न ग्रन्थों को रचना की । उन ग्रन्थों में प्रायः किसी एक ही अनुयोग का विषय-विवरण रक्खा गया है । कर्णाटक कविचरित के अनुसार संवत् १३१७ में श्री कुमुदचन्द्र प्राचार्य के शिष्य श्री माघनन्दी प्राचार्य हुए इन्होंने चारों अनुयोगों को सूत्र- निबद्ध करके शास्त्रसार-समुच्चय ग्रन्थ की रचना की है। इसमें संक्षेप से चारों अनुयोगों का विषय आ गया है। इस ग्रन्थ की एक टीका माणिक्यनन्दि मुनि ने की है संभवत: वह संस्कृत भाषा में होगी। कनड़ी टीका एक अन्य विद्वान ने बनाई है । ग्रन्थ के अन्त में जो प्रशस्ति के पद्य हैं उनसे उस विद्वान का नाम 'चन्द्रको ति' प्रतीत होता है श्रीर संभवतः वह गृहविरत महाव्रती मुनि थे, उन्हों ने यह टीका निल्लिकार (कर्णाटक प्रान्त) नगर के भगवान अनन्तनाथ के मंदिर में श्रश्विन सुदी १० ( विजया दशमी) को लिखी है । यह टीका अच्छे परिश्रम के साथ लिखी गई है, अच्छा उपयोगी पयनीय विषय इसमें मंकलित किया गया है। किस संवत् में यह लिखी गई, यह छत नहीं हो सका । यह टीका कर्णाटक लिपि में प्रकाशित हो चुकी है। प्रकाशक को एक प्रति के सिवाय अन्य कोई लिखित प्रति उपलब्ध न हो सकी, जिससे कि वह दोनों प्रतियों का मिलान करके संशोधन कर लेते, इस कठिनाई के कारण टीका में निबद्ध अनेक श्लोक और गाथाऐं अशुद्ध छप गई हैं। अस्तु । इसी ठोका की उपयोगिता का अनुभव करके सततज्ञानोपयोगी विद्यालङ्कार आचार्य देशभूषण जी महाराज ने इस वर्ष चातुर्मास में इस कनड़ी का का हिन्दी अनुवाद किया है। एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना कितना श्रम-साध्य कठिन कार्य है इसको भृक्त पोगी हो समझ सकते हैं। फिर भी ४२४ पृष्ठ प्रमाण इस टीका का अनुवाद महाराज ने स्वल्प समय में कर ही डाला। इसके साथ हो वे महान पद्मुत ग्रन्थ भूवलय के अनुवाद और सम्पादन में भी पर्याप्त योग देते रहे। इस तरह उनके कठिन श्रम को विद्वान हो आंक सकते हैं । इस ग्रन्थ के सम्पादन में मैंने भी कुछ योग दिया है । असाता वंश नेत्र पीड़ा, इन्फ्ल्यु जा ( श्लेष्म ) ज्वर तथा वायु पीड़ा-ग्रस्त होने के कारण मुझे लगभग डेढ़ मास तक शिवाम करना पड़ा, ग्रन्य का सम्पादन, प्रकाशन उस समय भी चलता रहा, शतः उस भाग को में नहीं देख सका । अन्य मूल प्रति उपलब्ध न होने से संशोधन का कार्य मेरे लिए भी कठिन रहा । बहुत सी गाथाएँ तथा संस्कृत श्लोक तिलोपपण्यत्ति, गोम्मटसार मादि ग्रन्थों से मिलान करके शुद्ध कर लिए गये; जिन उद्धृत पद्यों के विषय में मूल ग्रन्थ का पता न लग सका उनको ज्यों का त्यों रखदेना पड़ा अतः विद्वान इस कठिनाई को दृष्टि में रखकर पुटियों के लिए क्षमा करें। ग्रन्थ इससे भी अधिक सुन्दर सम्पादित होता किन्तु प्रकाशकों की नियमित स्वल्प समय में ही प्रकाशित कर देने की हरणा ने अधिक-समय-साध्य कार्य स्वल्प समय में करने के कारण वैसा न होने दिया । प्रस्तु । प्रजितकुमार शास्त्री सम्पादक जैन गजट, दिल्ली। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमानुयोग विषय १ मंगलाचरण २ काल के भेद ३ कल्पवृक्ष ४ चौदह कुलकर ५ सोलह भावन! ६. चौबीस तीर्थंकर ७ भगवान महावीर के पीछे ८ तीर्थंकरों के अतिशय दीक्षा कल्याणक १० ज्ञान कल्याक ११ मोक्ष कल्याणक करणानुयोग १६ नरक १७ मध्य लोक १८ हाई द्वीप १९ ऊर्ध्वलोक, देव-भेद २० ज्योतिष देव २१ ज्योतिष विचार विषय-सूची २२ मुहूर्त २३ वैमानिक देव पृष्ठ ३ १२ समवशरण १३ बारह चक्रवर्ती ७० १४ बलभद्र नार प्रतिनारायण ७४ १५ ग्यारह रुद्र ७६ ११ १६ १८ ४० ४५ ४६ ५७ ६० ६२ ७६ ८८ ९२ १०६ ११२ १२० १३३. ૨૪: 3 चरणानुयोग विषम २४ पांच लब्धि २५ सम्यग्दर्शन २६ २५ दोष २७ ग्यारह प्रतिमा २८ आठ मूलगुण २६ बारह व्रत ३० प्रतिचार ३१ श्राश्रम ३२ छह कर्म ३३ मुनियों के भेद ३४ मरणनिमित्त ज्ञान ३५ सल्लेखना ३६ यतिधर्म ३७ महाव्रत ३८ समिति ३६ श्रावश्यक आदि ४० छयालीस दोष ४१ बाईस परिषद पृष्ठ ४५ श्रार्तध्यान ४६ रौद्रध्यान ४७ धर्मध्यान ४५ शुक्लध्यान १५६ १५६ १७३ १८२ १६२ १९३ २०६ २१४ २१६ २१८ २१६ २२५ २३३ २३६ २३७ २३८ २४७ २५२ ४२ बारह सप २५४ ४३ कौन सी भक्ति कहाँ की जाय २५८ ४४ दश भक्ति २६२ २८३ २८५. २६६ ३०२ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ विषय ४६ पाठ ऋद्धियाँ ५० पांच प्रकार के मुनि ५१ प्राचार ५२ समाचार ५३ सात परम स्थान द्रव्यानुयोग ५४ द्रव्य ५५ अस्तिकाय ५६ सात्त तत्व ५७ नो पदार्थ ५६ चार निक्षेप २६ ज्ञान ६० मतिज्ञान ६१ श्रुतज्ञान ६२ अवधि, मनपर्यय ६३ नय ६४ सप्तभंगी ६५ पांच भाव ६६ गुरगस्थान ६७ जीव समास ६८ चौदह मार्गणा ३०६ ६५ श्या ३७० ३११ ७० सम्यक्त्व ३१२ ७१ पुद्गल ३७७ ३१७७२ आकाशा २७८ ३२२ ७३ काल ३७१ ७४ पासव, ३८१ ३२६ ७५ बन्ध के कारण ३८१ ३३४ ७६ पाठ कर्म ३३६ ७७ गुणस्थान-कम से बन्ध ३६२ ३३७ ७८ कम-उदय ३६५ ७६ उदीरणा ३६६ ३३८ ० कर्मों का सत्त्व ३६१ ३२९ ८१ बन्ध उदय सत्व विभंगी की ३४१ संदृष्टि ३४८ ८२ कर्मों की १० दशायें ३४५ ८३ संवर ४०४ २५४ ८४ निर्जरा ४०४ ८५ मोक्ष ४०५ ८६ तीन प्रकार का पारमा ३६१ २७ सिद्धों के १२ अनुयोग ८८ अन्तिम प्रशस्ति ४२५ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्री वीतरागाय नमः ॥ मगर दिल का जिस क्षेत्र श्री माघनंद्याचार्यविरचित शास्त्रसारसमुच्चय कानड़ी टीका श्री प्राचार्य १०८ देशभूषण जी महाराज के द्वारा हिंदी भाषानुवाद मंगला चररण श्री विबुधवद्यजिनरं केवल चित्सुखद सिद्धपरमेष्ठिगळं ॥ भावजजयिसाधुगळं भाविसि पोडमट्ट पडेवेनक्षयसुखमं ॥ अर्थ---मैं (माघनंद्याचार्य) प्रविवश्वर सुख की प्राप्ति के लिये, चतुर्निकाय देवों द्वारा वंदनीय श्री श्ररहंत तथा आत्मसुख में रमण करने वाले सिद्ध परमेष्ठी, आत्म तत्व की साधना में तल्लीन रहने वाले आचार्य, उपाध्याय और साधु ऐसे पंच परमेष्ठियों को नमस्कार करता हूं । इस प्रकार मंगलाचरण करके ग्रंथकार प्राचार्य श्री माघनंदी शास्त्र रचना करने की प्रतिज्ञा करते हैं कि- मैं श्री वीर भगवान् के द्वारा कहे गये शास्त्रसार समुन्यम की वृत्ति को कहूंगा। जो वृत्ति संपूर्ण संसारी जीवों के लिये सार सुख प्रदान कर अनंत गुण संपत्ति को देने वाली होगी । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) विषयकषायद्यवधान दावानलदह्यमान पंचप्रकार संसारकांतार परिभ्रमण भयभीत निखिल निकठ विनयजनं निरन्तराविनश्वर परम ल्हाद सुखसुदारसमनेबयसुत्तमि'मासुखामृतानुभूतियं निजनिरंजन परमात्मस्वरूप प्राप्तियिल्लदागदा सहजशुद्धात्मस्वरूपप्राप्तियुं अमे. दरत्नत्रययाराधने यिदिल्लदागदु । प्रा सहज शुद्धात्मस्वरूपरुचिपरिछित्ति निश्चलानुभूतिरूपे निश्चयरत्नत्रया नुष्ठान, तद्बहिरंग सहकारिकारणभूत भेवरत्ननयलधियिल्ल दागदु । तबहिरंग रत्नत्रयप्राप्तियु चेतनाचेतनादि स्वपर पदार्थ सम्यवद्धान ज्ञानवताद्यनुष्ठानगुणा गळिल्लददिदरे उंटागुवदिल्ला। तद्गुणविषयभूत सुशास्त्र विल्लादिदरिल्ला सुशास्त्र, वीतराग सर्वज्ञप्रणीतमप्पुदरिदं ग्रन्थकारं तदादिल्लिा मंगत्नार्थमभेदरत्नत्रय भावनाफाभूतानंतचतुष्टयात्मक अर्हत्परमेश्वरं गेद्रव्यभाव नमस्कारमाडिदपेनतेने अर्थ-दावानल ( जंगल में मीलों तक फैली हुई भयानक अग्नि) के समान विषय कषाय इस संसार वन में संसारी जीवों को जलाया करते हैं। उसी संताप से संतप्त संसारी जीव शांति सुस्त्र की खोज में इधर-उधर { चारों गतियों को चौरासी लाख योनियों में ) भटकते फिरते हैं, उस सांसारिक दुःख से भयभीत निकट भव्य जीव, अविनाशी परमाल्हादस्वरूप सुख पाने की उत्कंठा रखता है। परन्तु वह अनन्त अविनश्वर सुख शुद्ध निरंजनात्मस्वरूप (परमात्मा का स्वरूप) प्रगट होने पर मिलता है। उस सरल शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्ति अभेद रत्नत्रय के बिना नहीं हो सकती, उसे चाहे अभेद रत्नत्रय कहो या निश्चय रत्नत्रय कहो वह शुद्धात्मरुचि, परिचय और निश्चल अनुभूति रूप होती है। वह निश्चय रत्नत्रय, उस बहिरंग कारण भूत भेद रत्नत्रय की प्राप्ति के बिना नहीं हो सकता और वह बहिरंग रत्नत्रय चेतना चेतनादिक स्वपरपदार्थ के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और व्रतानुष्ठान गुण बिना नहीं हो सकता। जिसका अनिवार्य निमित्त कारण सम्यक् शास्त्र का अध्ययन है वह सुशास्त्र श्री वीतराग सर्वज्ञप्रणीत होने के कारण ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के आदि में मंगल निमित्त, मेद रत्नत्रय भावना फलभूत अनन्त चतुष्टयात्मक अरहंत परमेष्ठी को द्रव्य भाव पूर्वक नमस्कार किया है। वह इस प्रकार है कि... Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) श्री मलम्रामरस्तोमं प्राप्तानंसचतुष्टयं ।। नत्वा जिनाधिपं वक्ष्ये शास्त्रसारसमुच्चयं ।। अर्थ--श्रीमन्-समवसरणादि बहिरंग लक्ष्मी से युक्त और (नम्रामस्स्तोमं) चतुनिकाय के देव इन्द्रादिक उनके द्वारा पूजनीय, तथा (प्राप्तानन्त चतुष्टयं) अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुस्त्र, और अनन्त वीर्य स्वरूप अनन्तचतुष्टयात्मक अन्तरंग सम्पत्ति से पुक्त ऐसे (जिनाधिपं) अनेक भवग्रहण विषयव्यसन प्रापण हेतु कर्मारातीन जयतीति जिनः, इस व्युत्पत्ति से युक्त जिन भगवान मोक्षलक्ष्मी के अधिपति अर्थात् ईश को (नत्वा) द्रव्यभावात्मक नमस्कार करके शास्त्रसारसमुच्चयं ) परमागम के सार भूत समूह को (वक्ष्येहम्) से संक्षेप मैं कहूंगा । इस शास्त्र में प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग, ऐसे चारों अनुयोगों का वर्णन है इसलिए शास्त्रसार समुच्चय सार्थक नाम है। प्रथमानुयोग प्रय त्रिविधः कालः ॥१॥ अर्थ—इस प्रकार मंगल निमित्त विशेष इष्ट देवता को नमस्कार करने के माद कहते हैं कि विविधः कालः अनन्तानन्तरूप अतीतकाल से भी अनन्त गुरिणत अनागतकाल, समायादिक वर्तमान काल, इस प्रकार से काल तीन प्रकार के होते हैं। द्विविधः ॥२॥ अर्थ--पांच भरत और पांच ऐरावतों की अपेक्षा से शरीर की ऊंचाई बल और प्रायु आदि की हानि से युक्त दस कोडाकोड़ी सागर प्रमाण वाला अवसर्पिणी काल तथा उत्सेध प्राय बलादि की वृद्धिवाला दशकोडाकोड़ी सागर प्रमारण उत्सर्पिणीकाल है । इस प्रकार काल के दो मेद हो जाते हैं। षड्विधोवा ॥३॥ ____ अर्थ--सुषम सुषमा, १ सुषमा, २ सुषम दुःषमा, ३ दुःषम सुषमा, ४ दुःषमा, ५ अतिदुःषमा ६ ऐसे अवसर्पिणी काल के छः मेद हैं । इस प्रकार इनसे सलटे प्रति दुःषमा १ दुःषमा २ दुःषमसुषमा ३ सुषम दुःषमा ४ सुषमा ५ सुषम सुषमा ६ ये उत्सपिणी के छः भेद हैं। . इस अवसर्पिर्णी में सुषम सुषमा नाम का जो प्रथम काल है वह चार कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण प्रवर्तता है, इसमें उत्तम भोग भूमि को सी प्रवृत्ति होती है । उस Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग के स्त्री पुरुष ६००० हजार धनुष को ऊंचाई वाले तथा तीन पल्योपम आयु वाले और तीन दिन के बाद बदरी फल के प्रमाण आहार लेने वाले होते हैं । उन के शरीर को कांति बाल सूर्य के समान होती है । समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन तथा ३२ शुभ लक्षणों से युक्त होते हैं । मार्दव और आर्जव गुरण से युक्तबेसत्य सुकोमल सुभाषा भापी होते हैं, उनकी बोली मृदु मधुर वीणा के माद के समान होती है, वे ९००० हजार हाथियों के समान बल से युक्त होते हैं। क्रोध लोभ, मद, मात्सर्य और मान से रहित होते हैं, सहज १, शारीरिक २ प्रागंतुक ३ दुःख से रहित होते हैं। संगीत प्रादि विद्याओं में प्रवीण होते हैं, सुन्दर रूप वाले होते हैं, सुगंध निःस्वास वाले होते हैं तथा मिथ्यात्वादि चार गुरणस्थान वाले हति है, उपशमादि सभ्यत्व के धारक होते हैं, जघन्य कापोत पीत, पद्म, और शुक्ल लेश्या रूप परिणाम वाले होते हैं, निहार रहित होते हैं, अनपवर्त्य आयु वाले होते हैं, जन्म से ही बालक कुमार यौवन और मरण पर्याय से युक्त होते हैं, रोग शोक खेद और स्वेद प्रादि से रहित, भाई बहिन के विकल्प से रहित, परस्पर प्रेमवाले होते हैं । आपस में प्रेम पूर्वक दंपति भावको लेकर अपने समय को बिताते हैं । अपने संकल्प मात्र से हो अपने को देने वाले दश प्रकार के कल्पवृक्षों से भोगोपभोग सामग्नी प्राप्तकर भोगते हुए आयु व्यतीत करते हैं, जब अपने आयु में नव महीने का समय शेष रह जाता है तब वह युगल एकबार गर्भ धारण कर फिर अपनी आयु के छ महीने बाकी रहें उसमें देवायु को बांधकर मरण के समय दोनों दंपति स्वर्ग में देव होते है। जो सम्यग्दष्टि जीव होते हैं वे सब तो सौधर्म आदि स्वर्ग में और मिथ्या दृष्टि जीव भवनत्रिक में जाकर पैदा होते हैं, यहाँ पर छोड़ा हुआ युगल का शरीर सुरन्त ही प्रोस के समान पिघल जाता है, उनके द्वारा उत्पन्न हुए स्त्री पुरुष के जोड़े तीन दिन तक तो अंगुष्ठ को चूसते रहते हैं, तीन दिन के बाद रेंगने लगते हैं फिर तीन दिन बाद चलने लगते हैं, फिर तीन दिन बाद उनका मन स्थिर हो जाता है फिर तीन दिनों बाद यौवन प्राप्त होता है फिर तीन दिन बाद कथा सुनने वाले होते हैं फिर तीन दिन बाद सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होते हैं। इस प्रकार २१ दिन में संपूर्ण कला संपन्न हो जाते है । कनाड़ी पद्यपळिरुळोडेयर्बडव । पगे केळेयाळरसुजाति भेदविषस ॥ पंगणं मळिमागि तगु ।ळ्दगालिका गच्चुविनितुमिल्ला महियौळ् ।।१।। अर्थ-उस भूमि में रात और दिनका, गरीब और अमीर आदि का भेद Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं होता हैं । विष सपं समूह अकाल वर्षा तूफान दावानल इत्यादि उस भूमि में नहीं होता है, पुनः पंचेन्द्रिय सम्मूर्छन विकलेंद्रिय प्रसैनी पद्रिय अपर्याप्त जीव तथा जलचर जीव वहां नहीं होते हैं 1 स्थलचर और नभचर जाति के जीव युगल रूप से उत्पन्न होते हैं क्योंकि उस क्षेत्र में स्वभाव से परस्पर विरोध रहित तथा वहां पर होनेवाले सरस स्वादिष्टि तरा पत्रपुष फलादिको खाकर अत्यंत निर्मल पानी को पीकर तीन पल्यापम कालतक जीकर निज आयु अवसान काल में सुमरण मे मरकर देव गति में उपत्म होते हैं । सुषमा (मध्यम भोग भूमिका) काल मध्यम भोग भूमि का काल तीन कोडाकोड़ी सागरोपम होता है, सो उत्सेध आयु और बल आदि क्रमशः कम कम होते आकर इस काल के शुरू में दो कोस का शरीर दो पल्योपम आयु दो दिन के अंतर से फल मात्र आहार एकबार ग्रहण करते हैं, पूर्ण चंद्र के प्रकाश के समान उनके शरीर को कांति होती है, जन्म से पांच दिन तक अंगुष्ठ चूसते हुए क्रमशः ३५ दिन में संपूर्ण कला संपन्न होते हैं। बाकी और बात पूर्व की भांति समझना । सुषम बुषमा (अघन्य भोग भूमिका) काल यह जघन्य भोग भूमि का काल यानी तीसरा काल दो कोड़ा कोड़ी सागर का होता है, सो उत्सेध आयु तथा बल क्रम से कम होते होते इस काल के आदि में एक कोस का शरीर एक पल्योपम आयु और एक दिन अंतर से आँवला प्रमारण एक बार आहार लेते हैं । प्रियंगु (श्याम) वर्ण शरीर होता है। जन्म से सात दिन तक अंगुष्ठ चूसते हुए उनचास दिन में सर्वकला संपन्न बन जाते हैं, बाकी सब पूर्ववत् समझना ।।३। इस प्रकार यह अनवस्थित भोगभूमि का क्रम है। चौथा दुषमा सुषम काल ___ यह चौथा अनवस्थित कर्म भूमि का काल ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ा कोड़ी सागरोपम प्रमाण का होता है । सो क्रमशः घटकर इस काल के आदि में ५०० धनुष शरीर कोड़ पूर्व प्रमित प्रायु प्रति दिन आहार करने वाले पंच वर्ण शरीर महाबल पराक्रम शाली अनेक प्रकार के भोग को भोगने वाले धर्मानुरक्त हो कर प्रवर्तन करने वाले इस काल में त्रेसठशलाका पुरुष क्रम से उत्पन्न होते हैं, । पाँचवा दुषम काल जोकि २१ हजार वर्ष का होता है । उस काल के स्त्री पुरुष प्रारम्भ में १२० वर्ष की आयु वाले सात हाथ प्रमाण शरीर वाले रूक्षवर्ण बहु पाहारी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम ताकत वाले शौचा चार से हीन, भोगादि में ग्रासक्त रहने वाले होते हैं ऐसे इस पंचम कालके अन्त में अंतिम प्रतिपदा के दिन पूर्वाग्रह में धर्म का नाश, मध्याह्न में राजा का नाश और अपराएह में अग्नि का नाश काल स्वभाव से हो जाएगा । छटवो अति दुषमा काल यह काल भी २१ हजार वर्ष का होता है सो आयु काय और बल कम होते होते इस छठे काल के प्रारम्भ में मनुष्यों शरीर की ऊंचाई दो हाथ की के आयु बीस वर्ष तथा धूम्र वणं होगा, निरंतर प्राहार करने वाले मनुष्य होंगे तथा इस छठे काल के अन्त में पन्द्रह वर्ष की आयु और एक हाथ का शरीर होगा। इस काल में षट् कर्म का प्रभाव, जाति पाति का अभाव, कुल धर्म का अभाव इत्यादि होकर लोग निर्भय स्वेच्छाचारी हो जावेंगे, वस्त्रालंकार से रहित नग्न विचरने लगेंगे मछली आदि का श्राहार करने वाले होंगे पशु पक्षो के समान उनकी जीवन चर्या होगी पति पत्नो का भी नाता नहीं रहेगा ऐसा इस छठे काल के अंत में जब ४६ दिन बाकी रहेंगे तब सात रोज तक तीक्ष्ण वायु चलेगी सात दिन अत्यन्त भयंकर शीत पड़ेगी सात दिन वर्षा होगी फिर सात दिन विष की दृष्टि होगी इसके बाद सात दिन तक अग्नि को वषां होगो जिससे कि भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्य खंडों में क्षुद्र पर्वत उपसमुद्र छोटी छोटी नदियाँ ये सब भस्म होकर संपूर्ण पृथ्वी समतल हो जावेगी और सात दिन तक रज और धुवाँ से आकाश व्याप्त रहेगा। इस प्रकार इन क्षेत्रों में चौथा पांचवा और छठा इन तीनों कालों में अनवस्थित कर्म भूमि होगी इसके अनन्तर जिस प्रकार शुक्लपक्ष के बाद कृष्णा पक्ष आता है उसी प्रकार अक्सप्रणी के। बाद उत्सर्पणी काल का प्रारंभ होता है जिसमें सबसे पहले अति दुषमा काल प्रारंभ होता है । प्रति दुषमा काल ____ इस काल में मनुष्यों की प्रायु १५ वर्ष और उत्सेध एक हाथ की होगी जो कि क्रमश: बढ़ती रहती है । इस काल के प्रारंभ में संपूर्ण आकाश धूम्रसे आच्छादित होने से पहिले के समान सात दिन तक लगातार पुष्करदृष्टि फिर सात दिन तक क्षीर वृष्टि, सात दिन तक घृतवर्षा, सात दिन तक इच्क्षुरस की वर्षा होकर पूर्व में विजयार्घ पर्वत की विशाल गुफा में विद्याधर और देवों के द्वारा सुरक्षित रखे हुए जीवों में से कुछ तो मर जाते हैं बाकी जो जीवित रहते हैं वे सब निकल कर बाहर आते हैं और वे अति मधुर मिष्टिान्न के समान होने वाली मृत्तिका के प्राहार को करते हुए वस्त्रालंकार से रहित होकर Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूम्रवर्ण वाले मनुष्य जीवन पाकर क्रमशः बढ़कर दो हाथ के शरीर वाले हो जाते हैं ।। १ ।। पुनः दुःषम काल यह काल भी २१००० हजार वर्ष का होता है । इस काल के मनुष्य क्रम से बढ़कर सात हाथ की ऊचाई युक्त शरीर वाले हो जाते हैं बाकी सब कम पूर्वोक्त प्रकार से समझ लेना। इसी प्रतिपंचम काल के अंत में जब एक हजार वर्ष बाकी रहते हैं तब मनु लोग कुलकर उत्पन्न होकर तत्कालोचित सक्रियाओं का उपदेश करते हैं । प्रति दुःषम सुषम काल यह काल ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ा कोड़ी सागर का होता है। इस युग के मनुष्य पूर्वोक्त आयु काय से बढ़ते बढ़ते जाकर अंत में ५०० सौ धनुष की ऊंचाई ने शरीरवाले और एक करोड़ पूर्व की प्रायु वाले होते हैं। चउविसबारसतिगुणे तिथयरा छत्ति खंडभरहवही । तिक्काले होंति हातेवं ठिसलाकपुरिसाते ॥१॥ शेष ध्याख्यान पूर्ववत् समझना चाहिये । इस प्रकार ये तीनों काल अनवस्थित कर्म भूमि वाले होते हैं । पुनः सुषम दुःषमा चोथा, सुषमा पांचवां तथा सुषम सुषमा छठा इस प्रकार ये तीन काल अनवस्थित जघन्य, मध्यम और उत्तम भोगभूमि रूप में आते हैं जिनका प्रमाण दो कोड़ा कोड़ो सागर, तीन कोड़ा कोड़ी सागर और चार कोड़ा कोड़ी सागर का होता है जिन कालों में मनुष्य तथा स्त्रियां भी एक दो और तीन कोस की ऊंचाई के शरीर वाले तथा एक दो और तीन पल्य की आयु वाले होते हैं। दो-तीन दिन के बाद बदरीफल के प्रमाण एक बार पाहार को कर ने वाले होते हैं । प्रियंगु समान शरीर. चंद्रमा के समान शरीर और बालसूर्य के समान शरीर वाले होते है। कल्प वृक्षों द्वारा प्राप्त भोगोपभोग को भोगने वाले होते हैं। __मिथ्यात्वादि चार गुणस्थान वाले होते हैं । सम्यक्त्व सहितं होते हैं और संपूर्णक्रम पूर्वोक्त प्रकार होकर उनके शरीर की ऊंचाई आयु बल बढकर क्रम से बलशाली होते हैं। किन्तु इन्हीं पंच भरत और पंच ऐरावत क्षेत्र के विजयाचं पर्वत की श्रेणियों में तथा मलेच्छ खंडों में भी दु:पम सुषमा नाम का काल शुरु से अंत तक एव अंत से आदि तक हो ऐसी हानि वृद्धि होती है । इस प्रकार Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) उत्सपिणी से अवसर्पिणी तक तथा अवसर्पिणी से उत्सपिणी होते हुए। अनंतानंत कल्पकाल क्रम से प्रवर्तते रहते हैं। ॥शविघकल्पद्रुमाः ॥४॥ गृाहाँगरभोजनांग ३भाजनांम ४पानांग ५वस्त्रांग ६भूषणाँग ७माल्यांग दीपांग ज्योतिराँग १०तूर्यांग । इस प्रकार के कल्प वृक्ष उस भोग भूमि के जीवों को नाना भोगोपभोग सामग्री देते रहते हैं । जेसे आगे कहा भी है हाटभिसिसमन्वित । नाटकशालेगळ विविघसौंदगळ कों। डाटमनेमेरदुनिच्छ । पाटिसुवुदु मिथुनततिगेगृहमहिजातं ॥२॥ अनतिशय सौख्यभाजन- मेनिसुव भाजनयिवप्पुदेवते कन-। कनकमरिणखचितबहभा-जनंगळं भाजनांगतरुकोडुतिक्कु ॥३॥ अमदिन सवियोष्ठसवि । समनेनिसुन सेजाबलायुरारोग्य सज-। तमनमृतान्नमनोल्दिी- गुमागळं, भोजनांग कल्पावनिजं ॥४॥ कुडिवडेसोक्किसदनु ना- डिसखु मनक्केल्लंप नोवुधुरतमं । पडेयनघवेनिसुबमधुगळ । नेडेमडगवे कुडुगुमुचित मांगकुजं ॥५॥ पळि चित्रावळिभोगं । पळि बिडे देवांगब वसनंगळनें ॥ घळियिपुदोमंडिपळकन । परिणहतनेने पोल्तुविषदवसनांगकुजं ॥६॥ मघमधिप जादिपोंगे-। दगेमल्लिगेयेंब पलवु पूमालेगळं ॥ अगेयरिदुनीयुगुमा-। लेगानं पोल्तुदग्रमाल्यमहीजं ॥७॥ मकुटं केसर क-। रणकुतलकोप्पुसरिगे दुसरं मरिणमु-॥ द्रिकेतिसरमेंब भूषा-। निकायम भूषणांगतरु कुडुतिक्कु ॥८॥ आपोत्तु मरिणदीपक-।ळापोयज्योतिगळं दिशा मंडलमं ॥ व्यापिसुत्तिरेसोगियसुत्रु । दीपांग ज्योतिरंग कल्पकुजंगळ् ॥६॥ अतिसूदुरवदायिगळं । ततधनसुषिरावनत वाद्य गर्ने । मतमरेदोल गिपुदुदं । पाडगेदुमवार्यवीर्यतूर्यक्सजं ॥१०॥ अर्थ-स्वणं की बनी हुई दीवाल से युक्त ऐसी नाट्यशाला, बड़े सुन्दर दरवाजों से युक्तमहल, इत्यादि नाना प्रकार के मकान जो कि उन भोगभूमि के मिथुन को इद्रिय सुखदायक हो उन सबको देनेवाले गृहोम जाति के कल्प वृक्ष हैं ॥ १ ॥ अत्यन्त सुख देने वाले स्वर्ण और मणियों से बने हुए नाना प्रकार के Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरतन देने वाले भाजनांग जाति के कल्प वृक्ष हैं ॥ २ ॥ स्वर्गीय अमृतमय भोजन के समान, तेज बल प्रायु और आरोग्य दायक ऐसे अमृतान्न को देने वाले भोजनांग जाति के कल्प वृक्ष हैं ।। ३ ।। पीने में स्वादिष्ट, शारीरिक बल बर्द्धक पाप को नष्ट कर मन को पवित्र करने वाला तथा प्रमाद को भी हरने वाला ऐसा समयोचित मधुर पेय पदार्थ जिनसे मिलता है, ऐसे पानांग जाति के वृक्ष हैं ।। ४ ।। अनेक प्रकार की मरिणयों से जड़े हुये, ज्यादा कीमती रेशम आदि के बने मन और इन्द्रियों को भाने वाले देवोपनीत वस्त्रों के समान मनोहर वस्त्रों को देने वाले वस्त्रांग जाति के कल्प वृक्ष हैं ।।५।। शरीर की शोभा को बढ़ाने वाले अत्यन्त मनोहरकेयूर कुण्डल मुद्रिका कर्ण, फूल मकुट, रत्नहारादिक को अर्थात् मनवांछित नाना प्रकार के आभूषणों को देने वाले भूषणांग जाति के वृक्ष हैं ॥ ६ ।। अति लुभावने वाली सुगंध को देने वाले जाति जूही, चंपा, चमेली, आदि नाना प्रकार के फूलों की माला को मालाकार के समान समयानुसार संपन्न कर देने वाले मालांग जाति के कल्प वृक्ष हैं ।।७।। दशों दिशाओं में उद्योत करने वाले मरिणमय नाना प्रकार के दीपकों को। हर समय प्रदान करते हैं ऐसे दीपांग जाति के कल्प वृक्ष हैं ||८|| भोग भूमियों के मन को प्रसन्न करने वाली ज्योति को निरंतर फैलाने वाले ज्योतिरंग जाति के कल्प वृक्ष हैं ।।६।। अति समतुल अावाज करने वाले घन भुषिर तथा वितत जाति के अनेक प्रकार के बादित्रों को देने वाले, ध्वनि से मन को उत्साह तथा वीरत्व पैदा करने वाले वाद्याँग जाति के कल्प वृक्ष हैं ॥१०॥ 1 गाथा-अवसप्परिण उस्सप्पिरिण कालच्छिय रहटघटेयरणायेण ।। होति प्रणतातो भरहैरावदखिदिम्मिपुडं ॥२॥ - अर्थ- भरत और ऐरावत इन दोनों प्रकार के क्षेत्रों में अरहट के घट के समान उत्सपिरगी के बाद अवसर्पिणी तथा अवसपिणी के बाद फिर उसपिणी इस प्रकार निरंतर अनंतानंत काल हो गये हैं और आगे होते रहेंगे। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) श्रवसंप्पणी उस्स्प्परगीकालसलाया असखपरिवत ॥ हु' डावसम्परिगसापेक्काजामेदितिय चिम्मामि ॥ ३ ॥ इस प्रकार श्रवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल असंख्यात बीत जाने के बाद एक हुडावसर्पिणी काल होता है। अब उसी के चिन्ह को बतलाते हैं । तस्सपि सुषम दुस्समकालस्सदिदिमिदोवा ॥ श्रवसेसे पिवड दिपासउबहुवियदिय जोव उप्पत्ति ॥४॥ अर्थ - उसमें सुषम दुःखमा काल के समय में त्र होकर धूप पड़ती है जिससे विकलेंद्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है । कप्पतरूणा विरामोवा गारोहोदि कम्मभूमिये ॥ तक्काले जायंते पढमजिरो पढमचक्कीय ॥ ५ ॥ चकिस्सविजय भंगो रिणच्बुदिगमणे थोव जीवाणं ॥ चक्कहरा उदिजागं हवेयिवं सस्स उप्पत्ति ॥६॥ अर्थ -- कल्प वृक्षों का विराम होते ही तत्काल प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न होते हैं । चक्रवर्ती की विजय में भंग होता है । तथा उस चक्रवर्ती के निमित्त से ब्राह्मणों की उत्पत्ति होती है । फिर तीर्थंकर तथा वह चक्रवर्ती निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। एवं आगे भी तीर्थकर चक्री आदि होते रहते हैं । दुस्सम सुसमो तिसद्विपमारण सलायपुरुसाय ॥ नवमादिसोलसते संतसुतिव्वे सुदमवोच्छे हो ॥७॥ अर्थ- दुःसम सुषमा काल में क्रमश: ( ६३ ) शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं । वहां नवम तीर्थकर के बाद सोलहवें तीर्थकर तक धर्म की हानी होती है । इन सात तीर्थंकरों के समय में क्रम से, श्रात्रा पल्य, पल्य का चतुर्थांश, पल्य का द्विभाग पल्य का त्रिभाग, पल्य का द्विभाग फिर पत्र का चतुर्थभाग में तो धर्म के पढ़ने वाले सुनने वाले और सुनाने वाले होते हैं। इसके बाद पढ़ने वाले और सुनने तथा सुनाने वाले न होने के कारण धर्म विछिन्न होता है । एक्करस होंति रुद्दाकलहपिहना र दोयरग वसंखा ॥ सत्तम तेबीसन्तिमतित्थय राचजवसग्गो Hell, अर्थ-- इस कालमें एकादश रुद्र होते हैं, तथा कलह प्रिय नव नारद होते हैं, और सातवें तेईसवें तथा चौबोसवें तीर्थंकर को उपसर्ग होता है ! Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) तय चटु पंचमे सक्काले परम दुम्महायसारा ॥ विविह कुदेव कुलिंगि सत्तकत्थ पामित्था ॥६॥ चंडाल सबर पारणा पुलिंद गाहल चिलाल पहुडिकुला ॥ दुस्समकाले afer नकक्की होंति चावाला ॥ १० ॥ प्रचिठि अरगाउठ्ठि भूवडिड वज्ञ श्रग्गिपमुहाय ॥ विहारखानोटा विद ॥ ११ ॥ अर्थ - - तृतीय चतुर्थ पंचम काल में श्री जैन धर्म के नाशक कई प्रकार के कुदेव कुलिंग दुष्ट पापिष्ट ऐसे चंडाल शबर पान नाहल चिलातादि कुल बाले खोटे जीव उत्पन्न होते हैं । तथा दुःखम काल में कल्कि और उपकल्कि ऐसे ४२ जीव उत्पन्न होते हैं । तथा अति वृष्टि अनावृष्टि भूवृद्धि बानि इत्यादि अनेक प्रकार के दोष तथा विचित्र भेद उत्पन्न होते हैं । और इस भरत क्षेत्र के हुडावसर्पिणी के तृतीय काल के अंत का ग्राठवां भाग बाकी रहने से कल्प वृक्ष के बीर्य की हानि रूप में कर्म भूमि की उपपत्ति का चिन्ह प्रगट होने से उसकी सूचना को बतलाने वाले मनुनों के नाम बतलाते हैं । ॥ चतुर्वक्ष कुलकराः इति ॥५॥ अर्थ -- इस जंबू द्वीप के भरत क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतिभूति १ सन्मति २ क्षेमंकर ३ क्षेमंधर ४ सीमंकर ५ सीमंधर ६ विमल वाहन उचक्षुष्मान यशस्वी ६ अभिचंद्र १० चंद्राभ ११ मरुदेव १२ प्रसेनजित १३ नाभिराज ऐसे चौदह कुलंकर अथवा मनु पूर्वभव में विदेह क्षेत्र में सत्पात्र को विशेष रूप से आहार दान दिया। उसके फल से मनुष्यायु को बांधकर तत्पश्चात् क्षायिक सम्यक्त को प्राप्त करके वहां से लाकर इस भरत क्षेत्र के क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर कुछ लोग अवधिज्ञान से और कुछ लोग जातिस्मरण से में हानि उत्पन्न होती है उसके स्वरूप को समझते हैं । वे कल्प वृक्ष की सामर्थ्य इस प्रकार हैं: - ये सभी कुलकर पूर्व भव में विदेह क्षेत्र में क्षत्रिय राज कुमार थे, मिथ्यात्व दशामें इन्होंने मनुष्य श्रायु का बंध कर लिया था। फिर इन्होंने मुनि आदिक सत्पात्रों को विधि सहित भक्ति पूर्वक दान दिया, दुःखी जीयों का दुःख करुणा भाव से पूर किया । तथा केवली श्रुत केयली के पद मूल में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया। विशिष्ट वान के प्रभाव से ये भोगभूमि में उत्पन्न हुए । इनमें से अनेक कुलकर पूर्वभव में अवधि ज्ञानी थे, इस भवमें भी अवधिज्ञानी हुए । श्रतः अपने समयके लोगों की कठिनाइयों का प्रतिकार अवधि ज्ञान से जानकर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) उनकी समस्या सुलझाई और कुलकर अरधिज्ञानी तो नहीं थे किंतु विशेष ज्ञानी थे, जाति स्मरण के धारक हुए थे उन्होंने उस समय कल्प वृक्षों की हानि के द्वारा लोगों की कठिनाइयों को जानकर उनका प्रतीकार करके जनता का कष्ट दूर किया। कुलंकरों का दूसरा नाम मनु भी है। इसका खुलासा इस प्रकार है:-- सूष म दु:षमा नामक तीसरे कालमें पल्य का पाठवां भाग प्रमाण समय जब शेष रह गया तब स्वर्ण समान कांति वाले प्रतिश्रुति कुलंकर उत्पन्न हुए। उनकी प्रायु पल्यके दशवें भाग १ प्रमाण थी उनका शरीर अठारासौ १८०० धनुप ऊंचा था और उनकी देवी (स्त्री) स्वयंप्रभा थी। उस समय ज्योतिरांग कल्पवृक्षों का प्रकाश कुछ मंद पड़ गया था इसलिये सूर्य और चंद्रमा विस्ताई देने लगे, सुमन का 'पौर सूर्याई दिये वह आषाढ़ की पूर्णिमा का दिन था । यह उस समय के लिये एक अद्भुत विचित्र घटना थी, क्योंकि उससे पहले कभी ज्योतिरांग कल्पवृक्षों के महान प्रकाश के कारण सूर्य चन्द्र आकाश में दिखाई नहीं देते थे। इस कारण उस समय के स्त्री पुरुष सूर्य चन्द्र को देखकर भय भीत हुए कि यह क्या भयानक चीज दीख रही है, क्या कोई भयानक उत्पात होनेवाला है। ' तब प्रतिश्रुति कुलकर ने अपने विशेष ज्ञान से जानकर लोगों को समझाया कि ये आकाश में सूर्य चंद्र नामक ज्योतिषी देवों के प्रभामय विमान हैं, ये सदा रहते हैं। पहले ज्योतिरांग कल्पवृक्षों के तेजस्वी प्रकाश से दिखाई नहीं देते थे किंतु अब कल्प वृक्षोंका प्रकाश फीका हो जाने से ये दिखाई देने लगे हैं । तुम को इनसे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं, ये तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं करेंगे। प्रतिश्रुति के आश्वासन भरी बात सुनकर जनता निर्भय, संतुष्ट हुई । प्रतिधुति का निधन हो जाने पर तृतीय काल में जब पल्य का अस्सीवां भाग शेष रह गया तब दुसरे कुलकर सन्मति उत्पन्न हुए । उनका शरीर १३०० सी धनुष ऊंचा था और आयु पल्य के सो कर भाग प्रमाण थी, उनका शरीर सोने के समान कांति वाला था। उनकी स्त्री का नाम यशस्वती था । उनके समय में ज्योतिरांग [तेजांग] कल्पवृक्ष प्राय: नष्ट हो गये अतः उनका प्रकाश बहुत फीका हो जाने से ग्रह, नक्षत्र तारे भी दिखाई देने लगे । इन्हों पहले स्त्री पुरुषों ने कभी नहीं देखे थे, अतः लोग इन्हें देखकर बहुत घबराए कि यह क्या कुछ है, क्या उपद्रव होने वाला है। तब सन्मति कुलकर ने अपने विशिष्ट ज्ञान से जानकर जनता को समझाया कि सूर्य चन्द्रमा के समान ये भी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एत ज्योतिषी देवों के विमान हैं, ये सदा आकाश में रहते हैं। पहले कल्प वृक्षों के तेजस्वी प्रकाश के कारण दिखाई न देते थे, अब उनकी ज्योति बहुत फीकी हो जाने से ये दिखाई देने लगे हैं । ये तारे तुमको कुछ हानि नहीं करेंगे। सन्मति की विश्वास रमक बात सुनकर लोगों का भय दूर हुआ और उन्होंने । सन्मति का बहुत आदर सत्कार किया ॥ शा सन्मति की मृत्यु हो जाने पर पल्यके ८०० वें [] भाग बीत जाने पर तीसरे कुलकर 'क्षेमङ्कर' उत्पन्न हुए उनकी आयु [प ] पल्य थी, शरीर ८०० धनुष ऊंचा था और उनका रंग सोने जैसा था। उनकी देवी पत्नी] का नाम 'सुनन्दा' था। उनके समय में सिंह, बाघ आदि जानवर दुष्ट प्रकृति के हो गये, उनकी भयानक आकृति देखकर उस समय स्त्री पुरुष भयभीत हुए । तब क्षेमङ्कर कुल- . कर ने सबको समझाया कि अब काल दोष से ये पशु सौम्य शान्त स्वभाव के नहीं रहे, इस कारण ग्राप पहले की तरह इनका विश्वाग न करें, इनके साथ क्रीड़ा न करें, इनसे सावधान रहें । क्षेमङ्कर की बात सुनकर स्त्री पुरुष सचेत और निर्भय हो गये । ३ ।। क्षेमङ्कर कुलकर के स्वर्ग चले जाने पर पल्यके ८ हजारवें [br] भाग बीत जाने पर चौथे कुलकर 'क्षेमन्धर' नामक मनु [कुलकर] हुए । उनका शरीर ७७५ धनुष ऊंचा था और उनकी आयु पल्यके दश हजारवें [ ] भाग प्रमाण थी, उनकी देवी 'विमला' नामक थी। ___इनके समय में सिंह, बाघ अादि और अधिक क्रूर तथा हिंसक बन गये, इससे जनता में बहुत भारी व्याकुलता और भय फैल गया । तब क्षेमन्धर मनु ने इन हिंसक पशुत्रों की दुष्ट प्रकृति का लोगों को परिचय कराया और डंडा प्रादि से उनको दूर भगा कर अपनी सुरक्षा का उपाय बतलाया तथा दीपकजाति के कल्पवृक्ष की हानि भी हो जाने से दीपोद्योत करने का उपाय भी बतलाया, जिससे स्त्री पुरुषों का भय दूर हुआ ।।४॥ क्षेमन्धर मनु के स्वर्गवास हो जाने पर पल्यके ८० हजार [ ] भाग व्यतीत हो जाने पर पांचवें कुलकर 'सीमङ्कर' उत्पन्न हुए । इनका शरीर ७५० धनुष ऊंचा था और प्रायु पल्यके एक लाखवें भाग प्रमारण थी। । उनकी देवी का नाम 'मनोहरी' था । इस मनु ने उस समय के लोगों को वृक्षों की सीमा बताई ॥ ५ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) सीमङ्कर कुलकर के स्वर्ग चले जाने पर 'सीमधर' नामक छठे कुलकर हुये । इनका शरीर ७२५ धनुष ऊंचा और आयु पल्यके दश लाख भाग प्रमाण थी, इनकी देवी 'यशोधरा' थी। इस मनु ने उस समय के लोगों . को भिन्न-भिन्न रहने की सीमा बतलाई और निराकुल करके, आपस की कलह मिटाई ।।६।। सीमङ्कर मनु के स्वर्गारोहण के बाद पल्यके अस्सी लाख- भाग प्रमाण समय बीत जाने पर 'विमलबाहन' नामक सातवें कुलकर उत्पन्न हुए । इनकी प्रायु पत्यके एक करोड़वें हिस्से थी, और शरीर ७०० धनुष ऊंचा था। इनकी देवी का नाम 'सुमती' था । ___ इन्होंने स्त्री पुरुषों को दूर तक आने जाने की सुविधा के लिये हाथी घोड़े प्रादि वाहनों पर सवारी करने का ढंग समझाया ७ सातवें कुलकर बिमलवाहन के स्वर्गारोहण के पश्चात् पल्यके आठ करोड़वें and भाग बीत जाने पर आठवें मनु 'चक्षुष्मान्' उत्पन्न हुए । उनकी प्रायु पल्यके दस करोड़वें भाग प्रमाण थी और शरीर की कद ६७५ धनुष थी। उनकी देवी का नाम था वसुन्धरा ॥७॥ ___ इनसे पहले भोगभूमि में बच्चों [लड़की लड़के का युगल] के उत्पन्न होते ही माता पिता की मृत्यु हो जाती थी, वे अपने बच्चों का मुख भी न देख पाते थे किन्तु पाठवें कुलकर के समय माता पिताओं के जीवित रहते हुए बच्चे उत्पन्न होने लगे, यह एक नई घटना थी जिसको कि उस समय के स्त्री पुरुष जानते न थे, अतः वे आश्चर्यचकित और भयभीत हुए कि यह क्या मामला है। तब 'चक्षुष्मान् कुलकर ने स्त्री पुरुषों को समझाया कि ये तुम्हारे पुत्र पुत्री हैं, इनसे भयभीत मत होतो, इनका प्रेम से पालन करो, ये तुम्हारी कुछ हानि नहीं करेंगे । कुलकर की बात सुनकर जनता का भय तथा भ्रम दूर हुआ और उन्होंने कुलकर की स्तुति तथा पूजा की ।। ८ ।। युगळेगळ्पुटिसि तागुलिसिपितृयुगं सत्तुस्वर्ग गळोळ् पु। । टुगुमिल्लिदित्तळेळु कतिपयविनदोळ्मककुळं नौडिसावे । यदुगुमौगळ् कर्म भूमि स्थितिमोगसिदि बालकालोकदिए । ब्बेगमल्लेदित्त कालस्थितियनवर्गति व्यक्तमपंतुपेऴ्वं ॥२॥ पाठवें कुलकर की मृत्यु हो जाने के बाद पल्यके प्रस्सी करोड़वें भाग farrusoo.] समय बीत जाने पर वें कुलकर 'यशस्वी' हुए । उनका शरीर Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) ६५० धनुष ऊंचा था और प्रायु पल्यके सौ करोड़वें भाग प्रमाण थी। उनकी मी. का नाम कान्तमाला था। यशस्वी कुलकर ने यह एक विशेष कार्य किया कि उस भोगभूमिज स्त्री युवषों के जीवन काल में ही उनके सन्तान होने लगी थी, उन लड़के लड़कियों के माम रखने की पद्धति चालू की ॥६॥ । नौचे कुलकर के स्वर्गवास हो जाने पर पल्टके E. करोडो भाग समय गीत जाने पर दशवें अभिचन्द्र मनु हुए। उनके शरीर की ऊंचाई छःसौ पच्चीस २५ धनुष थी और आयु एक करोड़ से भाजित पल्यके बराबर थी। उनकी स्त्री का नाम श्रीमती था। ET इन्होंने बच्चों के लालन-पालन की, उनको प्रसन्न रखने की, उनका रोना बन्द कराने की विधि स्त्री पुरुषों को सिखाई । रात्रि में बच्चों को चन्द्रमा अदिसला कर क्रीड़ा करने का उपदेश दिया तथा बच्चों को बोलने का अभ्यास भी अनुपम कराने की प्रेरणा की ।१० दशवें कुलंकरके स्वर्ग जाने के बाद आठ हजार करोड़वें भाग [८०००, ०००००० ] प्रमाण पल्य बीत जाने पर चन्द्राम नामक ग्यारहवें कुलंकर उत्पन्न हुए। उनका शरीर ६०० सौ धनुष ऊंचा था और आयु पल्यके [१००००, ००००००० ] दस हजार करोड़ में भाग समान थी। उनकी पत्नी सुन्दरी प्रभावती थी। इस मनुके समय बच्चे कुछ अधिक काल जीने लगे सो उनके जीवन के वर्षों को सीमा बतलाई और निराकुल किया ॥ ११ ॥ - चन्द्राभ कुलकर के स्वर्ग जानेके पश्चात् अस्सी हजार करोड़ से भाजित [२०, ४००, ०००००००] पल्य का समय बीत जाने पर मरुदेव नामक बारहवें कुलंकर उत्पन्न हुए 1 उनकी आयु एक लाख करोड़ से भाजित पल्यके बराबर और शरीर (५७५) धनुष ऊंचा था। उनकी पत्नी का नाम सत्या था । इनके समय में पानी खूब बरसने लगा जिससे ४० नदियां पैदा होगई, उनको नाव मादि के द्वारा जलतर उपाय बतलायी ॥ १२ ।। - मरदेवका निधन हो जाने पर [ १०, ०००००, ००००००० [दसलाख करोड़ से भाजित पल्य प्रमाण समय बीत जानेपर प्रशेनजित नामक तेरहवें कुलकर पेंदाहुए । उनकी प्रायु दशलाख करोड़ [ १०, ०००००, ००००० ..] से भाजित पत्यके बराबर थी उनका शरीर ५५० धनुष ऊँचा था, । उनकी स्त्री का नाम अमृतमती था । इन्होंने प्रसूत बच्चे के उपर की जरायु को Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकालने के उपाय का उपदेश दिया ।। १३ ॥ प्रशेनजित के स्वर्ग चले जाने पर । (८०, ०००००, ०००००००) वे भाग पल्य बीत जाने पर चौदहवें कलंकर नाभिराग जग्पन्न दुपा ! उनका शरीर ५२५ धनुष्य ऊंचा था और उनकी आयु एक करोड़ पूर्व (१, ०००००००) की थी। उनकी महादेवी का नाम मरुदेवी था ||१४|| नाभिराय के समय उत्पन्न होने वाले बच्चों का नाभी में लगा हुआ नाल आने लगा। उस नाल को काटने की विधी बतलाई। सिवाय इनके समझ में भोजनाग कल्प वृक्ष नष्ट हो गये जिससे जनता भूख से व्याकुल हुई तब नाभि राय ने उनको उगे हुए पेड़ों के स्वादिष्ट फल खाने तथा धान्य को पकाकर खाने की एवं ईख को पेल कर उसका रस पीने की उपाय बताई। इसलिए उस समय के लोक उन्हें हक्ष्वाकुहस सार्थक नाम से भी कहने लगे। ताकी इक्ष्वाकु वंश चालु हुा । इन्हीं के पुत्र प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभनाथ हुए। जो की १५ वे कुलकर तथा ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती सोलहवें मनु हुए। हादंडमय्वरोळ् हा । मादंड मनुगलय्वरोळ् हामादिग्भेद ।। प्रदंडमपवरोळादुदु । भरतावनीश सनुवंडं ॥१॥ अर्थ-प्रथम कुलकर से लेकर आंठवे कुलकर तक प्रजा को रक्षार्थ 'हा' यह दंड नियत्त हुआ, इसके बाद के पांच मनुनों में यानि दशवे कुलकर तक 'हा' और 'मा' ये दो दंड तथा इसके बाद पांच मनुबो तक-यानी ऋषम देव भगवान तक की प्रजा में हा, मा और धिक् ये तीन दंड चले फिर भरत चक्रवर्ती के समय में तनु दंड भी चालू हो गया था । इसी प्रकार १ कनक २ कनकप्रम ३ कनकराज ४ कनकध्वज ५ कनक पुगव ६ नलिन ७ नलिनप्रभ ८ नलिन राज इ नलिनध्वज १० नलिनपुगव ११ पद्म १२ पद्म प्रभ १३ पदम राज १४ पद्मध्वेज १५ पद्मपुगव और सोलहवे महापड़ । यह सोलह कुलकर भविष्य काल में उत्सर्पिणी के दूसरे काल में जब एक हजार वर्ष वाकी रहेगे तब पैदा होगे। ___ अब आगे नौ सूत्रों के द्वारा तीर्थकरो की विभूति और उनकी वलीका वर्णन करेगे। षोडशभावनाः॥१६॥ कर्म प्रकृतियों में सबसे अधिक पुण्य प्रकृति (तीर्थ कर) प्रकृति के बंध कराने को कारण रूप सोलह भावनायें हैं। तीर्थकर प्रकृति का बंध करने वाले के विषय में गोमटसार कर्मकांड में बतालाया है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) पढमुषसमिये सम्मे सेसातिये अविरवादिचत्तारि तित्थयरबंधपारंभया परा केवलिदुगंते ॥६॥ यानि-प्रथम उपशम सम्यक्त्व अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्तत्व, क्षायोपशम या क्षायिक सम्यक्त्व वाला पुरुष चौथे गुण स्थान से सातवें गुरगस्थान तक के किसी भी गुणस्थान में केवलो या श्रुत केथलो के निकट तोर्थकर प्रकृति के बंध का प्रारम्भ करता है। जिस व्यक्ति की ऐसी प्रबल शुभ भावना हो कि (मैं समस्त जगतवर्ती जोबों का उद्धार करू, समस्त जीवों को संसार से छुडाकर मुक्त कर दूं ) उस किसी एक बिरले मनुष्य के ऊपर युक्त दशा में निम्न लिखित सोलह भावनामों के निमित्त से तीर्थकर प्रकृति का बंध होना है ! १ दर्शन विशुद्धि २ विनय संपन्नता ३ अतिचार रहित शीलवत ४ अभी. क्षण ज्ञानोपयोग ५ संवेग ६ शक्ति अनुसार त्याग ७ शक्ति अनुसार तप साधु समाधि ६ वैय्यावत करण १० अरहत भक्ति ११ प्राचार्य भक्ति १२ बहु श्रुत भक्ति १३ प्रवचन भक्ति १४ प्रावश्यक का परिहारणि १५ मार्ग प्रभावना १६ प्रवचन वात्सरय ।। विषेश विवेचन- शंका, काक्ष, बिचिकित्सा, सूढदृष्टि, अनुपगहन, अस्थिति करण, अप्रभावना, अवात्सल्य, ये आठ दोष, कुल मद जातिमद, बलगर, ज्ञानमद, तपमद, रूपमद, धनमद, अधिकारमद, ये पाठ मद, देवमूढ़ता, मुरूमूढ़ता, लोकमूढ़ता ये मूढ़ताए हैं । तथा छः अनायतन, बुगुरू, कुगुरू भक्ति, कुदेव, कुदेव भक्ति, कुधर्म, कुधर्म, सेवक, ऐसे सम्यग्दर्शन के ये पच्चीस दोष हैं इन दोषों से रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन का होना सो दर्शनविशुद्धि भावना है । देव शास्त्र, गुरू, तथा रत्नत्रय का हृदय से सन्मान करना विनय करना विनय संपन्नता है । व्रतों तथा व्रतों के रक्षक नियमों (शीलों) में अतीचार रहित होना शील व्रत भावना है। सदाज्ञान प्रभ्यास में लगे रहना अभीक्षण ज्ञानोपयोग है। धर्म और धर्म के फल से अनुराग होना संवेग भावना है। अपनो शक्ति को न छिपाकर अंतरंग बहिरंग तप करना शक्तितम त्याग है। अपनी शक्ति के अनुसार आहार, अभय, औषध और ज्ञान दान करना शक्ति तम् त्याग है। साधुओं का उपसर्ग दूर करना, अथवा समाधि सहित वीर मरण. करना साधु समाधि है। ती त्यागी साधर्मों की सेवा करना, दुःखी का दुःख दूर करमा वैययावत Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण हैं। परस्त भगवान की भक्ति करना अरहत भक्ति है। मुनि संघ के नायक प्राचार्य की भक्ति करना आचार्य भक्ति है। उपाध्याय परमेष्ठि की भक्ति करना बहुश्रु त भक्ति है। जिनवाणी की भक्ति करना प्रवचन भक्ति है। छै आवश्यक कमी को सावधानी से पालन करना आवश्यक परिहारिणी है। जैनधर्म का प्रभाव फैलाना मार्ग प्रभावना है। साधर्मीजन से अगाध प्रेम करना प्रवचन वात्सल्य है । इन सोलह भावनाओं में से दर्शन विशुद्धि भावना का होना परमावश्यक है। दर्शन विशुद्धि के साथ कोई भी एक दो तीन चार प्रादि भावना हो या सभी भावना हों तो तीर्थकर प्रकृती का बंध हो सकता है। अब तीर्थंकरों के विषय में ग्रन्थकार सूत्र कहते हैं चतुर्विशति स्तीर्थकराः॥७॥ अर्थ-भरत ऐरावत क्षेत्र में दुःषमा सुषमा काल में कम से चौबीस तीर्थकर होते है। १ श्री वृषभ नाथ २ श्री अजित नाथ ३ श्री संभव नाथ ४ श्री अभिनंदननाथ ५ सुमती नाथ ६ पद्मप्रभु ७ सुपार्श्वनाथ ८ चंद्रप्रभु ६ पुष्प दंत १० शीतल नाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासु पूज्य १२ विमल नाथ १४ अनंत नाथ १५ धर्मनाथ १६ शांति नाथ १७ कुथनाथ १८ अरहनाथ १६ मल्लि नाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाय मी २२ नेमिनाथ २३ पार्श्वनाथ २४ महादीर । ये इस भरत क्षेत्र के वर्तमान युग { इस हुंडावसपिसी ) के चौबीस तीर्थकर हैं। अतीतकाल के भौबीस तीर्थंकरों के नाम निम्न लिखित हैं १ श्री निर्वाण २ सागर ३ महासाधु ४ विमल प्रभु ५ श्रीधर ६ सुदत्त ७ अमलप्रभ ८ उतर ६ अंगीर १० सन्मती ११ सिंधु १२ कुसमांजली १३ ११३ शिवगरण १४ उत्साह १५ ज्ञानेश्वर १६ परमेश्वर १७ विमलेश्वर १५ यशोधर १६ कृष्णमति २० ज्ञानमति २१ शुध्यमति २२ श्री मद्र २३ पद्मकान्त २४ प्रत्तीकान्त । आगामी काल में होने वाले तीर्थंकरों के नाम निम्नलिखित हैंमहापद्म २ सुरदेव ३ शुपार्श्व ६ स्वयंप्रभ ५ सर्वात्म भूत ६ देवपुत्र ७ कुलपुत्र ८ उदक ६ पौष्टिल १० जयकीति ११ मुनि सुव्रत १२ अरनाथ १३ निःपाप १४ निःकषाय १५ विमल १६ निर्मल १७ चित्रगुप्त १८ समाधि गुप्त १६ स्वयंभू २० पनिवर्तक २१ जय २२ विमल २३ देवपाल २४ अनन्तीयं । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १a ) अब इस भरत क्षेत्र के पानी की भाप गम से कहते है श्रादिनाथ भगवान वृषभ देव के पूर्व १० भव यह है— जयवर्मा, २ महाबलविद्याघर ३ ललितांग देव ४ बज्जंघराजा ५ भोग भूमिया ६ श्री घर ७ सुविध (नारायण) = अच्युत स्वर्गका इन्द्र ६ वज्रनामि चक्रवर्ती इस भव में सोलह कारण भावना के बल से तीर्थंकर प्रकृतिका बंध किया, वहां से चयकर भरत क्षेत्र के सुकौशल देश की अयोध्या नगरी में अन्तिम कुलकर नाभिराजा के यहां मरूदेवी माता के कोख से प्रथम तीर्थंकर के रूप में जन्म लिया। आप का शरीर ५०० धनुष ऊंचा था, आयु चौरासी लाख पूर्व थी शरीर का रंग तपे हुए सोने के समान था । शरीर में १००८ शुभ लक्षण थे । ऋषभ नाथ नाम रखा गया । वृषभनाथ तथा आदिनाथ भी आपके दूसरे नाम है । आपके दाहिने पैर में बैल का चिह्न या इस कारण ग्रापका बैलका चिह्न प्रसिद्ध हुआ और इसलिये नाम भी वृषभनाथ पड़ा । 1 आपका २० लाख पूर्व समय कुमार अवस्था में व्यतीत हुप्रा । श्रापका ( यशश्वती और सुनंदा ) नामक दो राज पुत्रियों से विवाह हुआ । ६३ लाख पूर्व तक राज किया । श्रापकी राणी यशस्वती के उदर से भरतादि Se पुत्र तथा ब्राह्मी नामक एक कन्या हुई और सुनन्दा रानी से बाहुबली नामक एक पुत्र और सुन्दरी नामक कन्या हुई । आपने राज्य काल में जनता को खेती बाड़ी, व्यापार मस्त्र शस्त्र 'चलाना, वस्त्र बनाना, लिखना पढ़ना, अनेक प्रकार के कला कौशल श्रादि सिखलाए | अपने पुत्र भरत को नाट्य कला, बाहुबली को मल्ल विद्या, ब्राझि को अक्षर विद्या, सुन्दरी को अक विद्या तथा अन्य पुत्रों को अश्व विद्या, नीति आदि सिखलाई । राज ८३,०००००लाख पूर्व श्रायु बीत जाने पर राज सभा में नृत्य करते हुए निलांजना नामक अप्सरा की मृत्यु देखकर आपको संसार, शरीर और विषध भोगों से वैराग्य हुआ तब भरत को राज्य देकर आपने पंच मुष्टियों से केशलोच करके सिद्धों को नमस्कार करके स्वयं मुनि दीक्षा ली । छै मास तक श्रात्म ध्यान में निमग्न रहे। फिर छः मास पीछे जब योग से उठे तो आप को लगातार छः मास तक विधि अनुसार ग्राहार प्राप्त नहीं हुआ । इस तरह एक वर्ष पीछे हस्तिनापुर में राजा श्रेयांस ने पूर्वभव के स्मरण से मुनियों को आहार देने की विधि जानकर आपको ठीक विधि से ईख के रस द्वारा पारना कराई। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) एक हजार वर्ष तपस्या करने के बाद प्रापको केवल ज्ञान हुा । तदनंतर १,००० हजार वर्ष कम १०.०.००० लाख पुर्व तक आप समस्त देशों में बिहार करके धर्म प्रचार करते रहे । अापके उपदेश के लिए समवशरण नामक विशाल सभा मंडप बनाया जाता था । अन्त में आपने फैलाश पर्वत से पर्यकासन (पलथी) से मुक्ति प्राप्त की। विशेषार्थ-आपका ज्येष्ठ पुत्र भरत, , भरत क्षेत्र का पहला चक्रवर्ती था उस ही के नाम पर इस देश का नाम भारत प्रख्यात हुआ । आपका दूसरा पुत्र बाहुबली प्रथम कामदेव था तथा चक्रवर्ती को भी युद्ध में हराने वाला महान बलवान था। उसने मुनि दीक्षा लेकर निश्चल खड़े रह और एक वर्ष तक निरा हार रहकर तपस्या की और भगवान वृषभनाथ से भी पहले मुक्त हुआ । भगवान वृषभनाथ का पौत्र (नाति, पोता) मरीचि कुमार अनेक भव बिताकर अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर हुआ । आपकी पुत्री ब्राह्मी, सुन्दरी आर्यिकाओं की नेत्री थी। आपके वृषभ सैन आदि ८४ गगधर थे। आप सुषमा दुषमा नामक तीसरे काल में उत्पन्न हुए और मोक्ष भी तीसरे ही काल में गए । जनता को आपने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, इन तीन वर्गों में विभाजित करके सबको जीवन निर्वाह की रीति बतलाई। इस कारण आपको प्रादि ब्रह्मा तथा १५ वां कुलकर भी कहते हैं ॥ १ ॥ अजित नाथ भगवान वृषभ नाथ के मुक्त हो जाने के अनन्तर जब ५० लाख करोड़सागर का समय बीत चुका, साकेतपुर अयोध्या के राजा जितशत्रु की महाराणी इंवसेना के उदर से द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ का जन्म हुआ । पूर्ववर्ती तीसरे भव में ये राजा विमलवाहन थे । राजा विमलवाहन ने मुनि अवस्था में तीर्थकर प्रकृति का बंध किया था। वहां से विजय नामक अनुत्तर विमान का अहमीन्द्र हुआ। और अमीन्द्र प्रायु समाप्त कर अजितनाथ तीर्थकर हुआ, इनका शरीर ४५०: धनुष ऊंचा था, स्वर्ण जैसा रंग था । ७२,००००० लाख पूर्व की आयु थी, पर में हाथी का चिन्ह था। आपने अपने यौवन काल में राज्य किया, फिर विरक्त होकर केले के वृक्ष के नीचे मुनि दीक्षा ली और तपश्चरण करके केवल ज्ञान प्राप्त किया । अापके सिंहसेनादि ५२ गणधर थे और प्रकुब्जादि प्रायिकाएं थीं महायक्ष रोहिनी यक्षिणी थी। आपने सम्मेद शिखर से मुक्ति प्राप्त की । भगवान अजितनाथ के समय में सगर नामक दूसरे चक्रवर्ती हुए। जो कि तपश्चरण करके मुक्त हुए। जित शत्रु नामक दूसरा रुद्र भी आपके समय में हुमा ।। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकलानगोता संभवनाथ क्षेमपुर के राजा विमल ने संसार से विरक्त होकर मुनि दीक्षा ली। कठोर तप किया तथा सोलह कारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया । फिर प्रथम ग्रेवक विमान में सुदर्शन नामक अहमिन्द्र देव हुआ । वहां से प्राधु समाप्त करके भगवान अजितनाथ की मुक्ति से ३०,००००० लाख करोड़ सागर बीत जाने पर श्रावस्ति के इक्ष्वाकु शी राजा विजितारी की राणी सुशेना के गर्भ में पाया और तीसरे तीर्थकर संभव नाथ के रूप में जन्म लिया। प्रापका रंग स्वर्ण सरीखा था। आपका शरीर ४०० धनुष्य ऊंचा और आयु ६०,००००० लाख पूर्व की थी । आपके पग में घोड़े का चिन्ह था बहुत समय तक राज्य करके विरक्त होकर शाल्मली वृक्ष के नीचे मुनिपद ग्रहण किया । तपस्या करके केवल ज्ञान प्राप्त किया । आपके चारु दत्त प्रादि १०५ गणधर थे, धर्म श्री आदि प्रायिकाएं थी । श्री मुख यक्ष और प्रज्ञप्ति अक्षरगी थी। सम्मेद शिखर से प्रापने मुक्ति प्राप्त की ॥ ३॥ अभिनन्दन नाथ जब संभवनाथ तीर्थंकर का काल १,००,००,००,०००००० करोड़ पूर्व परिवर्तन कर रहा था उस समय महा लचर नामक अनुत्तर विमान का अहमिन्द्र पाकर साकेत नगर के संवर नामके राजा तथा उनकी सिद्धार्थी रानी के गर्भ से अभिनन्दन नाम के तीर्थकर का जन्म हुआ। उन अभिनन्दन तीर्थंकर की प्रायु ५०,००००० लाख पूर्व की थी। तथा उनके शरीर की ऊंचाई ३५० धनुष थी और उनके शरीर का रंग सोने के समान था । शाल्मली के वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग अर्थात् ध्यान में स्थित होकर अन्त में धातिया कर्म को मष्ट करके केवल ज्ञान प्राप्त किया और मोक्ष पाया। इन तीर्थकर के साथ वनचव आदि १०३ गणधर तथा मेरुषेणा आदि अर्यिकाऐं हुई । योश्वर यक्ष, और बत्रसूखला नाम श्री यक्षणी बन्दर लालन्छन सहित अभिनन्दन तीर्थंकर अपने समवसरण द्वारा देश विदेश विहार करते हुए सम्मेद पर्वत पर आकर मोक्ष पद को प्राप्त हुए ।। ४ ।। सुमतिनाथ उन अभिन-दन तीर्थंकर का काल नव करोड़ लक्ष्य ( ९०००००,०००) लाल सागरोपम व्यतीत होते समय में पंचानुत्तोरो में से बंजयन्त विमान का रतिषेण अहमेन्द्र आकर साकेत राजधानी के राजा मेघ रन तथा उनकी रानी मंगला देवी से सुमति नाथ नामक तीर्थकर उत्पन्न हुमा । उनकी प्राह चालीस लाख Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ } (४०,००००० ) पूर्व थी और उनके शरीर का उत्सेष ३०० धनुष का था, रंग स्वर्ण मय था । प्रियंगु वृक्ष के नीचे इन तीर्थंकर ने केवल ज्ञान प्राप्त किया था । इनके समवशरण में वज्रनाम इत्यादि ११६ गणधर थे, अनन्त मती श्रादि अर्यिकाएं थी, तु वरयक्ष पुरुषदत्ता यक्षणी थी । चक्रवाक नाम के पक्षी के चिन्ह सहित भगवान् सुमति नाथ तीर्थकर अपने समवशरण सहित अनेक देश विहार करते हुये अन्त में सम्मेद शिखर पर आकर मोक्ष पद को प्राप्त हुए ||५॥ पद्मप्रभु उस सुमतिनाथ तीर्थंकर का काल जब २० सहस्त्र कोटि ( ६०००,००००००००) प्रर्वतन कर रहा था। उस काल में उपरिम प्रवेयक से अपराजित चरनाम हुनकर के राजा तथा उनकी रानी सुशीमा के गर्भ से पद्मप्रभु तीर्थंकर के रूप में जन्म लिया। इनकी प्रायु ३० लाख ( ३०,००००० ) पूर्व थी । तथा २५० धनुष ऊंचे शरीर वाले थे । इनका शरीर हरित वर्ण का था । इन्होंने सिरीश नाम के वृक्ष के नीचे घातिया कर्म को नष्ट करके केवलज्ञान पाया । उस केवल ज्ञान प्राप्ति के समय इनके साथ १११ गणधर तथा रति रादि मुख्य आर्यिकाएं थी और कुसुमयक्ष मनोवेगा यक्षणी, कमल लांछनतथा भगवान् अपने समवशरण सहित विहार करते हुए सम्मेद शिखर पर अपने सम्पूर्ण कर्म की निर्जरा करके मोक्ष पद को प्राप्त हुए ।। ६ ।। सुपार्श्वनाथ उन पदुम प्रभु तीर्थङ्कर का काल ६. : करोड सागर प्रमाण [१०००, ०००००००] प्रर्वतते समय मध्यम ग्रेवेयक से नन्दि शेरणा वर नामक भद्रविमान के हिमिन्द्र ने आकर वाराणसी नगर के राजा सुप्रतिष्ठ तथा उनकी रानी पृथ्वी देवी की कुक्षी से सुपार्श्व नाथ नाम के तीर्थङ्कर उत्पत्र हुए । उन सुपाएव नाथ तीर्थङ्कर की आयु २० लक्ष [२०,००००० ] पूर्व थी, और उनके शरीर की ऊंचाई २०० धनुष थी। शरीर का रंग हरित वर्ण का था और उन्होंने नागपाद वृक्ष के नीचे तप करके केवल ज्ञान प्राप्त किया तथा पंचानवें गणधर वल आदि तथा मीन श्री आदिक अर्यिकाएँ, परनन्दी यक्ष कालियज्ञणी तथा स्वस्तिक लांछन सहित अपने समवशरण से देश में विहार करते हुए सम्मेदपर्वत पर आकर सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष गये ॥ ७ ॥ चन्द्रप्रभु जब सुपार्श्व तीर्थंकर का काल नौ सौ करोड़ सागर [२००,००००००० Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चल रहा था उस समय श्री वर्म, श्रीधर देव, अजितषण चक्रवती, अच्युतेन्द्र पद्मनाभराजा होकर पंचानुत्तर के बैजयन्त विमान में उत्पत्र हुए अहमिन्द्र देव ने आकर चन्द्रपुर नामक नगर के महाषेण राजा की रानी लक्ष्मणा देवी की कोख से चन्द्रप्रभु नामक तीर्थङ्कर के रूप में जन्म लिया । उन तीर्थङ्कर की आयु दस लाख [१०,०००००] पूर्व थी भौर शरीर की ऊंचाई १५० धनुष तथा रंग धवल वर्ण था। नाग कुज वृक्ष के नीचे महान तप के द्वारा घातिया कर्म की निर्जरा करके केवलज्ञान प्राप्त किया । उनके साथ उदात्त अादिक तिरानवें गणधर थे । वरुण श्री आदि अनेक अयिकाएँ थीं । विजय यक्ष और ज्वालामालिनी यक्षिणी थी। भगवान् का लांछन चन्द्र था। इन चन्द्रप्रभ भगवान ने अपने समवशरण सहित सम्मेद पर्वत पर पाकर सम्पूर्ण कर्म नष्ट करके सिद्ध पद पाया ।। ८ ।। पुष्पदत्त जिस समय चन्द्र प्रभ तीर्थयार का काल नौ करोड़ सागरोमम चल रहा था उस समय महापद्मचर नाम का प्राणतेन्द्र पाकर काकन्द्रीपुर के राजा सुग्रीव की रानी जयरामा की कोख से पुष्पदन्त तीर्थकर हुए । उनकी प्रायु दो लाख की पूर्व थी । शारीर की ऊंचाई सौ धनुष ऊंची थी। शरीर का वर्ण श्वेत था। नागफणी वृक्ष के मूल में तपश्चरण कर चारों घातिया नष्ट कर केवल ज्ञान की प्राप्ति की । उस समय उनके समवशरण में विदर्भ आदि ८८ गणधर तथा घोषिति, विनयती आदिक अजिकाएं थी । और अजिलयक्ष महाकाली यक्षिणी मगरलांछन सहित अपने समवशरण के साथ विहार करते हुए सम्मेद शिखर पर जाकर सम्पूर्ण कर्मों का क्षय किया । इन्हीं के समय में रुद्र नाम का तीसरा का हुया ॥॥ शीतलनाथ उन सुविधि नाथ पुष्पदत्त तीर्थङ्कर का काल जब नौ करोड़ सागरोपम चल रहा था उस समय इस काल के अन्त में पल्योपम का चतुर्थ भाग काल बाकी रहते हुए धर्म की हानि होने लगी । उसी समय में पद्मगुल्म चर का देव पारणेन्द्र विमान से प्राकर भद्रलापुर के राजा दृढ़रथ तथा उनकी रानी सुनन्दा देवी की कोख से शीतलनाथ तीर्थंकर के रूप में उत्पन्न हुआ। उनकी पायु एक लक्ष पूर्व थी। यहां कोई प्रश्न करेगा कि पूर्व का प्रमाण क्या है ? तो इसके विषय में कहा है कि 'सुरसरिणगण घनन । भरदंबुद मेघ पवन जलद पथंपु। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कर शरखरम गिरियु, परमार्थ पूर्वशंखयतिपति मतदौल ॥ सत्तर लाख ५६ हजार करोड़ वर्ष का एक पूर्व वर्ष होता है । उनको कंचाई नब्बे धनुष की थी। उनके शरीर का रंग हरा था। बेलपत्र झाड़ के नीचे तपश्चर्या करके केवल ज्ञान प्राप्त किया और उनके साथ सतासी गणधर धरणी श्री नाम की मुख्य अजिका भी थीं। ब्रह्मयक्ष, माणवी यक्षिणी और भगवान् का श्री वृक्ष लांछन [चिन्ह ] था । आपने समवशरण सहित अनेक देशों में भ्रमण करते हुए सम्मेद शिखर से मोक्ष प्राप्त किया उसकाल में विष्वाण नाम का चौथा रुद्र हुआ ॥ १० ॥ श्रेयांसनाथ जब शीतल नाथ तीर्थङ्कर का छत्तीस लाख छब्बीस हजार वर्ष से मिला हुआ एक करोड़ सागरोपम के अन्त में बचा हुना अर्ध पल्योपम काल में जब धर्म की हानि होने की सम्भावना होने लगी उस समय में नलिन प्रभ नाम का देव अच्युत कल्प के पुष्पोत्तर विमान से आकर सिंहपुर के विष्णु देव राजा उनकी राणी वेणदेवी की कोख से अंशांसनाथ तीर्थकर हुए । उनकी प्रायु चौरासी लाख वर्ष थी और अस्सी धनुष ऊँचाई थी । सुवर्णमयी शरीर था। तुम्पूर्ण [शिरीश [ नाम के वृक्ष के नीचे तपश्चर्या करके मोक्ष फल प्राप्त किया। उस समय उनके साथ मुख्य कुन्थु आदि [७७] गणाधर थे और धारणा नाम की मुख्य अजिका थी। यक्षेश्वर यक्ष थे और गौरी यक्षिणी गेंडा का चिन्ह था। ऐसे श्रेयांस नाथ तीर्थकर ने अनेक देशों में समवशरण सहित विहार कर सम्मेद शिखर पर जाकर मोक्ष फल प्राप्त किया ॥ ११ ॥ उस श्रेयांसनाथ तीर्थङ्कर के काल में विजय नृप नाम के प्रथम राम और त्रिपृष्ट केशव, महाशुक्र कल्प से आकर पोदनपुर के अधिपति प्रजा-पाल महाराजा के पुत्र उत्पन्न हुया । और पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान वृद्धि को प्राप्त होते समय उनकी वृद्धि दूसरे प्रश्वग्नीव नाम के विद्याधर को सहन न होने के कारण उनके ऊपर अाक्रमण कर अपने चक्र के द्वारा मारना चाहा । सो उस चक्र से ही राम केशव ने अश्वग्रीव को मार कर भरत के तीन खंड को अधीन करके उसको भोगते हुए शंख चक्र गदा शक्ति धनु दंड असि [तलवार] इत्यादि सात रत्नों के अधिपति केशव हुए, हल मूसल गदारत्न माला विधान इत्यादि . चार रत्नों के अधिपति राम हुये । सुख से राज भोग करते हुये प्रानन्द के साथ साथ समय व्यतीत करने लगे । लो कुछ दिन पश्चात् केशब कृष्ण लेश्या के Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) परिणाम की उत्कृष्टता से मरणकर सातवें नरक को प्राप्त हो गया । त्रिदृष्ट के बाद विजय नामक राम ने घोर तपश्चरण द्वारा मोक्ष पद प्राप्त किया । वासुपूज्य पुष्करार्द्ध दोष के वत्सकावती देश के अन्तर्गत रत्नपुर का शासन करने वाला धर्म-प्रिय न्यायी राजा पद्मोत्तर था, वह वहां के तीर्थंकर युगन्धर का उपदेश सुन कर संसार से विरक्त हुआ और राजपाट पुत्र को देकर मुनि हो गया । उसने अच्छा तप किया तथा सोलह कारण भावनाओं को भा कर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया और आयु के अन्त में समाधि से मरण किया । तदनन्तर के महाशुक्र स्वर्ग का इन्द्र हुआ । स्वर्गे की श्रायु जब समाप्त हुई तब चम्पापुर राजा वासुपूज्य की रानी जयावती को कोख में श्राकर उसने १२ वें तीर्थंकर वासुपूज्य के रूप में जन्म लिया । भगवान् श्रेयांसनाथ की मुक्ति से उन ५४ सागर समय पीछे भगवान वासुपूज्य का जन्म हुआ । इनका शरीर कमल के समान लाल रंग का था। इनकी प्रायु ७२ लाख वर्ष की थी, शरीर ७० धनुष ऊंचा था। पैर में भैंसे का चिन्ह था । इन्होंने अपना विवाह नहीं किया 1 बाल ब्रह्मचारी रहे और कुमार अवस्था में मुनि पद धारण किया । तपश्चरण करके जब अरहंत पद पाया तब समवशरण द्वारा सर्वत्र विहार करके धर्म का पुनरूद्धार किया। उनके श्रर्म प्रादि ६६ गणवर थे तथा सेना श्रादि श्रायिकायें थीं । कुमार यक्ष, गांधारी यक्षिणी, महिष का चिन्ह था । अन्त में आपने चम्पापुरी से मुक्ति प्राप्त की। भगवान वासुपूज्य के समय में अचल नामक बलभद्र, द्विपुष्ठ नामक नारायण और तारक नाम प्रतिनारायण हुए | १२ | विमलनाथ - धातकी खरड में रम्यकावती देश के अन्तर्गत महानगर का राज्य करने वाला राजा पद्मसेन बहुत प्रतापी था। बहुत दिन राज्य करके वह स्वर्गगुप्त नामक केवल ज्ञानी का उपदेश सुनकर राज पाट छोड़ मुनि बन गया और विशुद्धि आदि भावनाओं के द्वारा उसने तीर्थंकर कर्म का बन्ध किया । फिर वह मानव शरीर छोड़कर सहस्रार स्वर्ग का इन्द्र हुआ। वहां की १८ सागर की आयु जिता कर कम्पिला नगरी के राजा कृतवर्मा की रानी जयश्यामा के उदर से विमलनाथ नामक १३ वां तीर्थंकर हुआ । भ० विमलनाथ का जन्म भगवान् वासुपूज्य से ३० सागर पोछे हुआ इसी समय के अन्तर्गत उनकी ६० लाख वर्ष की प्रायु भी है। उनका शरीर का रंग स्वर्ण के समान था । उनके पैर में का मिन्ह पा. !. in Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) भगवान विमलनाथ ने यौवन अवस्था में बहुत दिन तक राज्य किया फिर संसार से विरक्त होकर मुनिग्रत धारण किया । तीन वर्ष तक तपस्या करने वे अनंतर उन्हें केवल ज्ञान हुआ तब समवशरण द्वारा सर्वत्र धर्म प्रचार किया उनके मन्दर प्रादि ५५ गणधर थे और पद्मा आदि एक लाख ३ हजा प्रायिकायें थीं। वैगेटनी यक्षिणी, सन्मुख यक्ष था। भगवान विमलनाथ के समय में धर्म नामक बलभद्र और स्वयम्भू नामव तीसरा नारायण तथा मधु नामक प्रतिनारायण हुआ है ।१३। अनन्तनाथ (अनन्तजित) धातकी खंड में अरिष्ट नगर के स्वामी राजा पद्मरथ बड़े सुख रे राज्य कर रहे थे। एक बार उनको भगवान स्वयंप्रभु के दर्शन करने का अवस मिला। भगवान का दर्शन करते ही उनका मन संसार से विरक्त है गया, अतः वे अपने पुत्र धनरथ को राज्य भार देकर मुनि बन गये । बहुत कार तक तप करते रहे । १६ भावनाओं के कारण तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया अन्त में समाधि-मरण करके सोजद स्वर्ग हद विमा : स्वर्ग बाईस सागर की प्रायु समाप्त करके अयोध्या के अधिपति महाराज सिंहसेन के .महारानी जयश्यामा के उदर से जन्म लिया । आपका नाम अनन्तजित या अनन्तनाथ रक्खा गया। भगवान विमल नाथ को मुक्ति के समय से अब तक ६ सागर तथा पौन पल्य समय बीत चुक था पाप की आयु के बीस लाख वर्ष भी इसमें सम्मिलित हैं। आपका शरी सूवर्ण वर्ण था। ऊंचाई ५० धनुष थी। पर में सेहो का चिन्ह था । प्रापन यौवन काल में आपका राज्याभिषेक हुआ। बहुत समय तक निष्कंटक राप किया । एक दिन आकाश से बिजली गिरते देखकर आप को वैराग्य हो गय अत: सिद्धों को नमस्कार करके आप मुनि बन गये। तत्काल पाप को मनःपर्य ज्ञान हो गया और दो वर्ष तपश्चरण करने के अनन्तर पाप को विश्व शायकेवलज्ञान हुमा । अापके जय प्रादि ५० गणधर हुए सर्वश्री आदि एक लाम ८ हजार प्रायिकायें थीं, पाताल यक्ष अनन्तमति यक्षिणी थी। समवशर द्वारा समस्त देशों में धर्म प्रचार करके आयु के अन्त में सम्मेद शिखर पर्व से मुक्त हुए ।१४। अनन्त चतुर्दशी व्रत अचिन्त्य फल दायक अनन्त चतुर्दशी व्रत की विधि निम्नलिखित है. भाद्रपद सुदी चतुर्दशी को उपवास करे तथा एकान्त स्थान में अप Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२ ) प्रातिहार्य सहित अनन्तनाथ भगवान को प्रतिमा सुन्दर मंडप में विराजमान करे उसका अभिषेक करे। तथा 'ॐ नमःअहते भगवते त्रैलोक्यनाथाय परीक्षण रोषकल्मषाय दिव्यतेजोमूर्तये अनन्त तीर्थंकराय अनन्त सुखप्रदाय नमः ।' इस मन्त्र को पढ़कर अष्ट द्रव्य से भगवान का पूजन करे । चौदह प्रकार के धान्यों के पुञ्ज रखकर चौदह प्रकार के पुष्पों और चौदह प्रकार के फलों से पूजा करे । चौदह प्रकार के सूत से बना हुआ चौदह गांठों वाले जनेऊ (यज्ञोपवीत) को चन्दन केसर कपूर मिलाकर रंगे और उस यज्ञोपवीत को 'ॐ नमः अहंते भगवते त्रैलोक्यनाथाय अनन्तज्ञान दर्शनवीर्य सुखात्मकाय स्वाहा' मंत्र के द्वारा पूजा करे । चौदह जल धारा, चौदह तिलक, चौदह मुट्ठी चावल, चौदह पुष्य, चौदह सुपारी, धूप, १४ पान द्वारा पूजन करे तथा "ॐ ह्रीं अनन्ततीर्थकराय उ० ह्रां ह्रीं ह्र: ह्रीं ह्र: असिग्राउसा मम सर्वशान्ति क्रांति तुष्टि पुष्टि सौभाग्य मायुरारोग्यमिष्ट सिद्धि कुरु कुरु सर्वविध्न परिहरं कुरु कुरु नमः वषट स्वाहा” मंत्र पढ़कर अर्घ चढ़ाना चाहिए। तत्पश्चात् ॐ ऐं द्रीं द्वा क्लीं अर्ह मम सर्वशान्ति कुरु कुरु वषट् स्वाहा ।" मन्त्र पढ़कर जनेऊ गले में पहन लेना चाहिए तथा राखी अपने हाथ में या कान में बांध लेनी चाहिये । 'ऊँ. ह्रीं अहं नमः सर्व कर्म बन्धन विनिर्मुताय अनन्ततीर्थक गय अनन्त सुखप्रदाय स्वाहा' मंत्र पढ़कर पुराना जनेऊ उतार देना चाहिए। तदनन्तर देव शास्त्र गुरु की पूजन करे चौदह सौभाग्यवती स्त्रियों को चौदह प्रकार के फल भेंट करे रात्रि जागरण करे। दूसरे दिन नित्यनियम क्रिया करके पारणा करे । इस प्रकार १४ वर्ष तक करके उद्यापन करे । उद्यापन में यथा शक्ति अन्न वस्त्र प्रादि का दान करना चाहिए । चौदह दम्पत्तियों (पति पतनियों) को घर में भोजन कराना चाहिये, वे गरीब हों तो उन्हें वस्त्र भी देने चाहिये । १४ शास्त्रों की पूजा करके मंदिर में देना चाहिए, चौदह प्रा. चार्यों की पूजा करना चाहिए, १४ प्रायिकानों को वस्त्र देना चाहिये। मंदिर में चौदह प्रकार की सामग्री भेंट करनी चाहिये । चार प्रकार के संघ को आहार देना चाहिये । चौदह मुठ्ठी चावल भगवान के समाने चढ़ाने चाहिये। ___इस प्रकार अन्नत चतुर्दशी व्रत के करने तथा उद्यापन करने की विधि है। भगवान अनन्तनाथ के समय में चौथे बलभद्र (नारायण के बड़े भाई) मुप्रभ और पुरुषोत्तम नारायण तवा मधुमुदन नामक प्रतिनारायण हुए । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) धर्मनाथ धातकी खण्ड के वत्स देश में सुसीमा महानगर का स्वामी राजा दशरथ बहुत पराक्रम के साथ राज्य करता था। एक दिन वैशास्त्र सुदी पूरणेमाणी को चन्द्रग्रहण देखकर संसार की अस्थिरता का उसे बोध हुआ, अतः अपने पुत्र महारथ को राज्य भार सौंप कर पाप महाव्रती साधु बन गया। संयम धारण कर लेने पर १६ कारण भावनाओं का चिन्तवन करके तीर्थंकर प्रकृति बांधी । समाधि के साथ वीर मरण करके वह सवार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ। वहां ३३ सागर का दीर्घ काल बिता कर रत्नपुर के शासक राजा भानु को रानी सुप्रभा के गर्भ में पाया । ह मास पीछे १५ वें तीर्थंकर धर्मनाथ के रूप में जन्म लिया । भगवान अनन्तनाथ के मुक्त होने से १० लाख वर्ष कम चार सागर का समय अब तक बीत चुका था। भगवान धर्मनाथ की आयु १० लाख वर्ष थी। शरीर ४५ धनुष कंचा था। शरीर का वर्ण सुवर्ण-जैसा था, पैर में बज्रदण्ड का चिन्ह था । यौवनकाल में बहत समय तक राजसुख भोगा । एक दिन उल्कापात (बिजली गिरना) देखकर उन्हें वैराग्य हो गया, अतः राज सम्पदा छोड़ कर साधु-दीक्षा स्वीकार की। उसी समय उन्हें मनःपर्यय ज्ञान प्रकट हो गया। तदनन्तर एक वर्ष पीछे उन्हें केवलज्ञान हो गया । तब समवशरण द्वारा अनेक देशों में महान धर्म प्रचार किया। आपके अरिष्टसेन आदि ४७ गणधर थे और सुव्रता प्रादि ६२४०० अयिकायें, हजारों विविध ऋद्धिधारी साधु थे। किन्नर यक्ष, परभृती यक्षिणी थी। अन्त में पाप सम्मेद शिखर पर्वत से मुक्त हुए। __इनके समय में पांचवें बलभद्र सुदर्शन तथा पुरुषसिंह नामक नारायण और निशुम्भ नामक प्रतिनारायण हुए हैं। इन ही धर्मनाथ तीर्थंकर के तोर्थ काल में तीसरे चक्रवर्ती मघवा हुए हैं।१५॥ शान्तिनाथ इस जम्बूद्वीपवर्ती विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश है उस देश में पुण्डरीकिणी नामका एक सुन्दर निशाल नगर है । वहां पर घनरथ नामक राजा राज्य करता था। उसके वेयक से च्युत होकर मेघराज नामक पुत्र हुआ वह बड़ा प्रभावशाली, पराक्रमी, दानो, सौभाग्यशाली और गुरगी था 1 उसने अपने पिता से प्राप्त राज्य का शासन बहुत दिन तक किया । उसने जब तीर्थकर का उपदेश सुना तो उसको भात्मसाधना के लिये उस्साह हुना, इस कारण घर बार राजपाट छोड़कर मुनि बन गया। मुनि अवस्था में उसने पोशकारण भाव Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ } नानों का चिन्तवन किया जिससे उसने तीर्थकर प्रकृति का उपार्जन किया । आयु के अन्तिम समय प्रायोपगमन संयास धारण कर अनुत्तर विमान में अहमिद्र हुअा। वहां पर ३३ सागर की सुखमयी प्रायु समाप्त करके हस्तिनापुर में राजा विश्वसेन की रानी ऐरादेवी के उदर से सोलहवें तीर्थङ्कर शांतिनाथ के रूप में जन्म धारण किया । भगवान धर्मनाथ से एक लाख वर्ष तथा पौन पल्य कम तीन सागर का समय बीत जाने पर भगवान शान्तिनाथ का जन्म हुआ था। उनकी आयु एक लाख वर्ष की थी, शरीर सुवर्ण के से रंग का था, पैर में हिरण का चिन्ह था और शरीर को ऊंचाई ४० धनुष थी। पच्चीस हजार वर्ष का कुमार काल बीत जाने पर उनके पिता ने भगवान शान्तिनाथ का राज्य अभिषेक किया। २५ हजार वर्ष राज्य कर लेने के बाद वे दिग्विजय करने निकले । दिग्विजय करके भरत क्षेत्र के पांचवें चक्रवर्ती सम्राट बन गये । २५ हजार वर्ष तक चक्रवर्ती साम्राज्य का सुख भोग करते हए एक दिन उन्होंने दर्षण में अपने शरीर के दो साकार देखे, इससे उनकी रुचि संसार की ओर से हट गई और राज्य त्याग कर महाव्रती साघु हो गये । सोलह वर्ष तक तपश्चरग करने के पश्चात् उनको केवल ज्ञान हुमा । तब समवशरण द्वाग महान धर्म प्रचार किया । चक्रायुध आदि उनके ३२ गरणधर थे। ६२ हजार अनेक प्रकार की ऋद्धियों के धारक मुनि तथा हरिषेण आदि साठ हजार तीन सौ अर्यिकायें उनके संघ में थीं अन्त में सम्मेद शिखर से सर्व कर्म नष्ट करके मुक्त हुए । इनका गरुड यक्ष और महामानसी यक्षी थी ।१६। कुन्थुनाथ जम्बूद्वीपवर्ती पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्स, नामक एक देश है । उस देश के सुसीमा नगर में एक महान बलवान सिंहथ नाम का राजा राज्य करता पा एक दिन उसने अाकाश से गिरती हुई बिजली देखी, इससे उसको वैराग्य हो गया । विरक्त होकर उसने साधु अवस्था में १६ कारण भावनामों का चिन्तवन किया जिससे तीर्थङ्कर प्रकृति का बंध किया । अन्त में वीर मरण करके सर्वार्थ सिद्ध का देव हुना। वहां ३३ मागर की आयु बितारक हस्तिनापुर में महाराजा शूरसेन की महारानी श्रीकान्मा के उदरसे १७वें तीर्थकर कुन्भुनाथ नामक तेजस्वी पुत्र हुम्मा । भगवान शान्तिनाथ के मोक्षगमन से ९५ हजार वर्ष कम प्राधा पल्य समय बीत जाने पर भगवान कुन्थुनाष का जन्म हुआ था इनकी प्राशु ६५ हजार Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०) वर्ष की थी, ३५ धनुष ऊंचा शरीर सुवर्ण वर्ण था 1 बकरे का चिन्ह पैर में था। भगवान कुन्थुनाथ ने २३७५० वर्ष कुमार अवस्था में बिताए फिर इतने समय तक ही राज्य किया तदनन्तर दिग्विजय करने निकले और छ: खंड जीतकर भरत क्षेत्र के चक्रवर्ती सम्राट बने । बहुत समय तक चक्रवर्ती सम्राट बने रहकर पूर्व भव के स्मरण से इनको बैगम्य हुया । १६ वर्ष तपस्या करके अर्हन्त पद प्राप्त किया। तब समवदारगा में अपनी विध्यध्वनि से मुक्ति मार्ग का प्रचार किया। आपके स्वयम्भू आदि ३५ गणधर थे, ६० हजार सब तरह को मुनि थे, भाविता आदि ६० हजार ३०० अयिकायें थीं। गंधर्व यक्ष, जया यक्षी थी । अन्त में आपने सम्मेद शिखर से मोक्ष प्राप्त की ।१७। अरनाथ जम्बूद्वीप में बहने वाली सीता नदी के उत्तरी तट पर कच्छ नामक एक देश है उसका शासन राजा बनपति करता था । उसने एक दिन तीर्थकर के समवशरण में उनकी दिव्य वाणी सुनी । दिव्य उपदेश सुनते ही वह संसार से विरक्त होकर मुनि हो गया। तब उसने अच्छी तपस्या की और सोलह भावनाओं का चिन्तवन करके तीर्थङ्कर पद का उपार्जन किया । आयु के अन्त में समाधिमरण करके जयन्त विमान में अहमिन्द्र हुप्रा । तेतीस सागर अहमिन्द्र पद के सुख भोग कर उमने हस्तिनापुर के सोमवंशी राजा सुदर्शन की महिमाभयो रानी मित्रसेना के गर्भ में प्राकर श्री अरनाथ तीर्थङ्कर के रूप में जन्म ग्रहण किया। भगवान अरनाथ के शरीर का वर्ण सुवर्ण समान था । जब एक हजार करोड़ चौरासी हजार वर्ष कम पल्य का चौथाई भाग समय भगवान कुन्थुनाथ को मोक्ष होने के बाद से बीत चुका था तब श्री अरनाथ का जन्म हुग्रा था । उनका शरीर ३० धनुष ऊंचा था, पैर में मछली का चिन्ह था । उनकी आयु चौरासी हजार वर्ष की थी । २१ हजार वर्ष कुमार अवस्था में व्यतीत हए। २१ हजार वर्ष तक मंडलेश्वर राजा रहे फिर ६ खंडों की विजय करके २१ हजार वर्ष तक चक्रवर्ती पद में शासन किया। तदनन्तर पारद कालीन बादलों को विघटता देखकर वैराग्य हुअा । अतः राज्य त्याग कर मुनि हो गये । १६ वर्ष तक तपश्चरण करते हुए जब बीत गये तब उनको केवल ज्ञान हुना। फिर समवशरण में विराजमान होकर भव्य जनता को मुक्त पथ का उपदेश दिया । इनके कुम्भार्य शादि तीग गग्गधर तथा सब प्रकार के ६० हजार मुनि और यक्षि यानि एक हजा' आर्यिका भगवान के संघ में थीं। महेन्द्र Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यक्ष विजया यक्षी थी। सर्वत्र विहार करते हुए महान धर्म प्रचार किया और अन्त में सम्मेद शिखर पर्वत से मोक्ष प्राप्त की। भगवान् अरनाथ के पीछे किन्तु उनके तीर्थ समय में ही परशुराम का घातक किन्तु स्वयं लोभ-वश समुद्र में अपने पूर्व जन्म के शत्रु ( रसोइया ) देव द्वारा मरने वाला सुभौम चक्रवर्ती हुया है। प्रथा उनके ही तीर्थ काल में नन्दिषेण नामक छठा बलभद्र, पुण्डरीक नाराबरण और निशुम्भ नामक प्रति नारायण हुआ है ।११ श्री मल्लिनाथ . जम्बू द्वीप-वर्ती सुमेरू पर्वत के पूर्व में कच्छकावतो देशान्तर्गत बीतशाक नामक सुन्दर नगर है उसका शासक लैंथ वग नामक राजा राज्य करता था। एक दिन उसने बनविहार के समय बिजली से एक बट वृक्ष को गिरते देखा इससे उसे वैराग्य हो गया और वह अपने पुत्र को राज्य देकर मुनि हो गया । मुनि अवस्था में उसने तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्ध किया। तपश्चरण करते हुए समाधि के साथ प्राण त्याग किया और अपराजित नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुआ, तेतीस सागर की आयु जब वहां समाप्त हो गई तब बंग देश की मिथिला नगरी में इक्ष्वाकुवंशी राजा कुम्भ की रानी प्रजावती के गर्भ में आया और मास पश्चात् श्री मल्लिनाथ तीर्थ कर के रूप में जन्म लिया। भगवान अरनाय की मुक्ति के ५५ हजार वर्ष कम एक हजार करोड़ वर्ष व्यतीत हो जाने पर श्री मल्लिनाथ भगवान का जन्म हुआ। आप सुबर्ण वर्ण के थे, २५ घनुष ऊंचा शरीर था, पचपन हजार वर्ष को आयु थी दाहिने पैर में कलश का चिन्ह था। जब उन्होंने यौवन अवस्था में पर रक्खा तो उनके विवाह की तैयारी हुई । अपने नगर को सजा हुआ देखकर उन्हें पूर्व भव के अपराजित विमान का स्मरण हो पाया, अतः संसार की विभूति अस्थिर जानकर विरक्त हो गये और अपना विवाह न कराकर कुमार काल में उसी समय उन्होंने मुनि दीक्षा ले ली। छः दिन तक तपश्चरण करने के अनन्तर ही उनको केवल ज्ञान हो गया। फिर अच्छा धर्म प्रचार किया । उनके विशाख अादि १२८ गणधर थे । केवल ज्ञानी आदि विविध ऋद्धिधारक ४० हजार मुनि और बन्दुषणा आदि आर्यिकायें उनके संघ में थीं। कुवेर यक्ष अपराजिता यक्षी थी कलश चिन्ह था अन्त में वे सम्मेदशिखर से मुक्त हुए। इनके तीर्थ काल से पद्म नामक चक्रवर्ती हुआ है तथा इनके ही तीर्थ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) काल में सातवें बलभद्र नन्दिमित्र, नारायण दत्त और बलि नामक प्रनिनारायण हुआ है ।१६। श्री मुनिसुव्रतनाथ अंग देश के चम्पापुर का प्रतापी राजा हरिवर्मा राज्य करता था। एक बार उसने अपने उद्यान में पधारे हुए अनन्त वीर्य से संसार की असारतासूचक धर्म-उपदेश सुना । उसके प्रभाव से उसे प्रात्म-रुचि हुई और वह सब परिग्रह त्याग कर मुनि बन गया । मुनि चर्या का निर्दोष पालन करते हुए उसने सोलह भावनाओं का चिन्तवन करके सर्वोत्तम तीर्थकर प्रकृति का बंध किया । अन्त में वीरमरण करके वह प्रारणत स्वर्ग का इन्द्र हुमा । वहां पर २० सागर की दिव्य सम्पदानों का उपभोग किया तदनन्तर मगध देश के राजग्रह नगर के शासक हरिवंशी राजा समित्र की महारानी सोमा के गर्भ से बीसवें तीर्थकर श्री मुनिसुव्रतनाथ के रूप में जन्म लिया । भगवान मल्लिनाथ के मुक्ति समय से ५३ लाख ७० हजार वर्ष का समय बीत जाने पर श्री मुनि सुयतनाथ का जन्म हुमा था। शरीर का वर्ण नीला था, ऊंचाई २० धनुष थी और प्रायु ३० हजार वर्ष की थो । दाहिने पैर में कछुए का चिन्ह था। भगवान मुनिसुव्रतनाथ के साढ़े सात हजार वर्ष कुमार काल में व्यतीत हुए और साढ़े सात हजार वर्ष तक राज्य किया। फिर उनको संसार से वैराग्य हुआ, उनके साथ एक हजार राजाओं ने भी मुनि दीक्षा ग्रहण की। ११ मास तक तपश्चरण करने के पश्चात उनको केवल ज्ञान हो । तष लगभग ३० हजार वर्ष तक समवशरण द्वारा विभिन्न देशों में विहार करके धर्म प्रचार करते रहे । इनके मल्लि आदि १८ गराधर थे। केवल-ज्ञानी, अवधिज्ञानी आदि सब तरह के ३० हजार मुनि और पुष्पदन्ता आदि ५० हजार प्रायिकायें उनके साथ थीं। वरुण यक्ष बहु, रूपिणी यक्षी, कच्छप चिन्ह था अन्त में सम्मेद शिखर से उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। भगवान मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ काल में हरिषेण चक्रवर्ती हुआ है सथा पाठवें बलभद्र राम, नारायण लक्ष्मण और प्रति नारायण रावण हुआ है ।२०। भगवान नमिनाथ वत्स देव के कौशाम्बी नगर में सिद्धार्थ नामक इक्ष्वाकुवंशी राजा राज्य करता था । एक दिन उसने महाबल कवली से धर्म-उपदेश सुना जिससे Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) उसको वैराग्य हो गया । वह मुनि दीक्षा लेकर तपस्या करने लगा । दर्शनविशुद्धि श्रादि १६ भावनाओं द्वारा उसने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया । आयु के अन्त में समाधिमरत किया और अपराजित नामक प्रनुत्तर विमान में अहमिन्द्र उत्पन्न हुआ। वहाँ उसने ३३ सागर की आयु व्यतीत की। तदनन्तर मिथिला नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्रीय महाराजा विजय की महारानी वप्पिला के उदर से २१वें तीर्थंकर श्री नमिनाथ के रूप में जन्म लिया । भगवान् मुनिसुव्रतनाथ के बाद ६० लाख वर्ष तीर्थकाल बीत जाने पर भगवान् नमिनाथ का जन्म हुआ था। उनकी श्रायु दस हजार वर्ष थी, शरीर १५ धनुष ऊंचा था, वर्ण सुवर्ण के समान था, चिन्ह नीलकमल का था ! भगवान् नमिनाथ का ढाई हजार वर्ष समय कुमार काल में और ढाई हजार वर्ष राज्य शासन में व्यतीत हुश्रा, तदनन्तर पूर्व भवका स्मरण भाकर उन्हें वैराग्य हो गया तब मुनि दीक्षा लेकर वर्ष तक तपस्या की तदनन्तर उनको € केवल ज्ञान हुआ । उस समय देश देशान्तरों में विहार करके धर्म प्रचार करते रहे। उनके संघ में सुप्रभार्य आदि १७ गरधर, २० हजार सब तरह के मुनि श्री मङ्गिनी यादि ४५ हजार अर्यिकाएं थीं । भ्रकुटि यक्ष चामुंडी यक्षी, नीलोत्पल चिन्ह था अन्त में भगवान् नमिनाथ ने सम्मेद शिखर से मुक्ति प्राप्त की ।। २१ । भगवान नेमिनाथ NA I । जम्बू द्वीपवर्ती पश्चिम विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्तर तट पर सुगन्धिला देश है । उसमें सिंहपुर नगर का यशस्वी, प्रतापी और सौभाग्यशाली राजा अपराजित शासन करता था उसको एक दिन पूर्वभव के मित्र दो विद्याधर मुनियों ने श्राकर प्रबुद्ध किया कि अब तेरी श्रायु केवल एक मास रह गई हैं, कुछ आत्म-कल्याण करले । अपराजित अपनी आयु निकट जानकर मुनि होगया। मुनि होकर उसने खूब तपश्चर्या की श्रायु के अन्त में समाधिमरण कर सोलहवें स्वर्ग का इन्द्र हुआ । वहाँ से च्युत होकर हस्तिनापुर के राजा श्रीचन्द्र का पुत्र सुप्रतिष्ठ हुा । राज्य करते हुए सुप्रतिष्ठ ने एक दिन बिजली गिरती हुई देखी, इससे संसार को क्षणभंगुर जानकर मुनि हो गया । मुनि अवस्था में उसने तीर्थकर प्रकृति का बन्ध किया और आयु के अन्त में एक सास का संन्यास धारण करके जयन्त नामक ग्रनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुआ। वहाँ पर तैंतीस सागर की आयु बिताकर द्वारावती के यदुवंशी राजा समुद्रविजय की रानी शिवादेवी की कोख से रखें तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथ के रूप में उत्पन्न हुआ । भगवान नेमिनाथ का शरीर नील कमल के समान नीले वर्णं का था, एक Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हजार वर्ष की आयु थी और शरीर की ऊंचाई दश धनुष थी, उनके पैर में शंख का चिन्ह था । वे भगवान नमिनाथ के मुक्त होने के चार लाख ९६ हजार वर्ष पीछे उत्पन्न हुए थे। युवा हो जाने पर उनका विवाह सम्बन्ध जूनागढ़ के राजा उग्रसेन (ये कंस के पिता उग्रसेन से भिन्न थे) की गुगावती युवती परमसुन्दरी सुपुत्री राजमती के साथ निश्चित हुया । बड़ी धूमधाम से अापकी बरात जूनागढ़ पहुंची। वहां पर कृष्ण ने भावान नेमिनाथ को वैराग्य उत्पन्न कराने , के अभिप्राय से बहुत से पशु एक बाड़े में एकत्र करा दिये थे। ये पगु करुणचीत्कार कर रहे थे । भगवान नेमिनाथ को अपने रश्रवाहक से ज्ञात हुया कि इन पशुओं को मार कर मेरी बरात में आये हाए कुछ, मांसभक्षी लोगों की लोलुपता पूर्ण की जायगी । यह बात विचार कर उनको तत्काल वैराग्य हो गया और वे तोरण द्वार से लौट गये। उन्होंने जूनागढ़ के समीपवर्ती गिरनार पर्वत पर संयम धारण कर लिया । राजमती भी आयिका हो गई। ५६ दिन तपश्चर्या करने के बाद भगवान नेमिनाथ को केवल ज्ञान हो गया । तदन्तर सर्वत्र विहार करके धर्म प्रचार करते रहे। उनके संघ में वरदत्त आदि ११ गरगधर, १८ हजार सब तरह के मुनि और राजमती आदि ४० हजार आर्यिकायें थीं । सर्वाहिक यक्ष आम्रकुस्मांडिनी यक्षी व शस्त्र का चिह्न था। वे अन्त में गिरनार से उनके समय में उनके चचेरे भाई हवें बलभद्र बलदेव तथा नारायण कृष्ण और प्रतिनारायण जरासन्ध हुए हैं ॥ २२ ।। भगवान् पार्श्वनाथ इसी भरत क्षेत्र में पोदनपुर के शासक राजा अरविन्द थे। उनकर सदाचारी विद्वान् मंत्री मरुभूति था। उसकी स्त्री वसुन्धरी बड़ी सुन्दर थी। मरूभूति का बड़ा भाई कमठ बहुत दुराचारी था। वह वसुन्धरी पर आसक्त था। एक दिन मरुभूति पोदनपुर से बाहर गया हुया था। उस समय प्रपंच बनाकर कमठ ने मरुभूति की स्त्री का शीलभंग कर दिया। राजा अरविन्द को जब कमठ का दुराचार मालूम हुआ तो उन्होंने कमठ का मुख काला करके गधे पर बिठाकर राज्य से बाहर निकाल दिया। कमठ एक तपस्वियों के आश्रम में चला गया वहाँ एक पत्थर को दोनो हाथों से उठाकर खड़े होकर वह तप करने लगा । मरुभूति प्रेमवश उससे मिलने आया तो कमठ ने उसके ऊपर वह पत्थर पटक दिया। जिससे कुचल कर मरुभूति मर गया। मरुभूति मर वार दूसरे भव में हाथी हुआ और कमठ मर कर सर्प हुआ। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस सर्प ने पूर्व भव का वैर विचारकर उस हाथी की सूड़ में काट लिया हाथी में शान्ति, से शरीर त्याग कर सहस्रार स्वर्ग में देव पर्याय पाई । सर्प मरकर पांचवें नरक में गया मरुभूति का जीव १६ सागर स्वर्ग में रहकर विदेह क्षेत्र में विद्याधर राजा का पुत्र रश्मिदेग हुअा । कमठ का जीव नरक से निकल कर विदेह क्षेत्र में अजगर हुआ । रश्मि वेग ने नौवन अवस्था में मुनि दीक्षा लेली । संयोग से कमठ का जीब अजगर उन ध्यानमग्न मुनि के पास आया तो पूर्वभव' का वर विचार कर उनको खा गया। रश्मिवेग मुनि मर कर सोलहवे स्वर्ग में देव हुए। कमठ का जीव अजगर मर कर छते नरक में गया। मरुभूति का जीव स्वर्ग की आयु समाप्त करके विदेह क्षेत्र में राजा वज्रवीर्य का पुत्र बचनाभि हा बज्रनाभि ने चक्र रत्न से दिविजय कर के चक्रवर्ती सम्राट का पद पाया । बहुत समय तक राज्य करने के बाद वह फिर संसार से विरक्त होकर मुनि बन गया कमठ का जीव नरक से निकल कर इसी विदेह क्षेत्र में भील हुआ । एक दिन उसने ध्यान में मग्न बज्रनाभि मुनि को देखा तो पूर्व भव का वर विचार कर उनको मार डाला । मुनि मरकर मध्यम ग्रंबेयक के देव हुए । कमठ का जीव . भील मर कर नरक में गया। मरुभूति का जीव अहमिन्द्र की आयु समाप्त करके अयोध्या के राजा बज्रबाहु का प्रानन्द नामक पुत्र हुया । आनन्द ने राज पद पाकर बहुत दिन तक राज्य किया। फिर अपने सिर वा सफेद बाल देख कर मुनि दीक्षा लेली । मुनि दशा में अच्छी तपस्या की और तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया । कमठ का जीव नरक से आकर सिंह हुआ था । उसने इस भव में पूर्व वैर विचार कर आनन्द मुनि का भक्षण किया । मुनि संन्यास से शरीर त्याग कर प्राणत स्वर्ग के इन्द्र हुए । सिंह मरकर शम्बर नामक असुर देव हुआ। , मरुभूति के जीव ने प्रागत स्वर्ग की प्राय समाप्त करके बनारस के इक्ष्वाकुवंशी राजा अश्वसेन की रानी ब्राह्मी ( वामादेवी ) के उदर से २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के रूप में जन्म लिया। भगवान नेमिनाथ के ८३ हजार सात सौ पचास वर्ष बीत जाने पर भगवान पार्श्वनाथ का जन्म हुआ था । भगवान पारवनाथ की आयु १०० वर्ष की थी। उनका शरीर हरित रंग का था। नौ हाथ की ऊंचाई थी, पैर में सर्प का चिन्ह था । जब वे १६ वर्ष के हुए तब हाथी पर सवार होकर गंगा के किनारे सैर कर रहे थे । उस समय उन्होंने एक तापसी को अग्नि जलाकर तपस्या करते हुये देखा । भगवान पार्श्वनाथ को अवधि ज्ञान से ज्ञात हुआ कि एक जलती हुई लकड़ी के भीतर सर्प सर्पिणी भी जल रहे हैं । उन्होंने तापसी से यह बात कही । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तापसी ने क्रोध में आकर जब कुल्हाड़ी से वह लकड़ी फाड़ी तो सचमुच मरणोन्मुख नाग नागिनी उसमें से निकले। भगवान पार्श्वनाथ ने उनको णमोकार मंत्र सुनाया । नाग नागिनी ने शान्ति से णमोकार मंत्र सुनते हुए प्राण त्यागे और दोनों मर कर भवनवासी देव देवी धरणीन्द्र पद्यावती हुए। राजकुमार पार्श्वनाथ ने अपना विवाह नहीं किया और यौवन अवस्था में ही संसार से विरक्त होकर मुनि दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान हो गया। चार मास पीछे एक दिन जब वे ध्यान में बैठे हुए थे तब कमठ का जीव असुर देव उधर होकर आकाश में जा रहा था। भगवान पार्श्वनाथ को देखकर उसने फिर' पूर्व भवों का वैर विचार कर भगवान के ऊपर बहुत' उपद्रव ( उपसर्ग ) किया । उस समय धरणीन्द्र पद्यावती ने आकर उस असुर को भगा कर उपसर्ग दूर किया, उसी समय भगवान को केवल ज्ञान हुआ। तब समवशरण द्वारा समस्त देशों में धर्मप्रचार करते रहे । उनके स्वयम्भू आदि १० गणधर थे, सब तरह के १६ हजार मुनि और सुलोचना प्रादि १६ हजार आयिकाएं उनके संघ में थीं । धरणेन्द्र यक्ष पद्यावती यक्षी, सर्प का चिन्ह था । अन्त में अापने सम्मेद शिखर से मुक्ति प्राप्त की ॥ २३ ।। भगवान बद्धमान (महावीर) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में बहने वाली सोता नदी के उत्तरी तट पर पुष्कलावती देश है । उस देश में पुण्डरीकिणी नगरी है। उस नगरी के निकट मधु नामक एक बन है । उस बन में 'पुरूरवा' नामक एक भील रहता था। उसकी स्त्री का नाम 'कालिका' था । जंगली जानवरों को मार कर उनका मांस खाना पुरूरवा भील का मुख्य काम था। एक बार उस वन में 'सागरसेन' मुनि श्रा निकले, पुरूरवा ने दूर से उन्हें देखकर हिरण समझा और उनको मारने के लिए धनुष पर वारण चढ़ाया । उसी समय उसकी स्त्री ने उसे रोक दिया और कहा कि वे तो एक तपस्वी मुनि हैं। पुरूरवा अपने अपराध को क्षमा कराने के लिए मुनि महाराज के पास पहुंचा । मुनि महाराज ने आत्मा को उन्नत करने • वाला धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुनकर पुरूरवा ने शराब, मांस, शहद खाना छोड़ दिया। प्राचरण सुधार लेने के कारण बह मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । देव की आयु समाप्त करके वह भील का जीव भगवान ऋषभनाथ के ज्येष्ठ पुरः चक्रवर्ती भरत का 'मरीचि' नामका पुत्र हुआ। जब भगवान ऋषभनाथ ने साधु दीक्षा ली थी तब मरीचि भी उनके • साथ मुनि बन गया था, परन्तु कुछ समय पीछे वह तपश्चरण में भ्रष्ट होकर Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) संन्यासी बन गया और उसने मिथ्यामत चलाया। कठोर तप करने से ची स्वर्ग का देव हुआ । फिर उसने क्रम से 'जटिल' नामक ब्राह्मण, सौधर्म स्वः का देव, अग्निसहामित्र, सनत्कुमार स्वर्ग का देव, कौशिक, महेन्द्र स्वर्ग का देव भारद्वाज ब्राह्मण हुआ फिर महेन्द्र स्वर्ग का देव हया । तदनन्तर बस स्थाव जीवों में जन्म-मरण करता हुआ वही पुरूरवा भील का जीव संसार में भ्रमर करता रहा । फिर शुभ कर्म के उदय से बेदपाठी ब्राह्मण हुआ । फिर क्रम' महेन्द्र स्वर्ग का देव, विश्वनन्दि राजा, महाशुक्र का देव, श्रिपृष्ट नारायण होक सातवें नरक गया । वहां से निकल कर सिंह हुया । सिंह की पर्याय में उसे अरिष्जय नामक मुनि से उपदेश प्राप्त हुआ वहां समाधि-मरण करके सिंहवज देव हुआ। फिर ऋम से कनकध्वज विद्याध कापिष्ठ स्वर्ग का देव, हरिषेण राजा, महाशुक्र का देव, प्रियमित्र राजा, सहस्त्रा स्वर्ग का देव हुया । देव पर्याय समाप्त करके नन्दन नाम का राजा हुआ । उर भव में उसने दर्शनविशुद्धि प्रादि सोलह कारण भावनाओं का पाराधन किय जिनसे तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध किया । फिर समाधि-मरण करके सोलह स्वर्ग का इन्द्र हुआ। तदनन्तर देव प्रायु समाप्त करके कुण्डलपुर के ज्ञातवंशीय राजा सिद्धाय की रानी त्रिशला (वैशाली के गणतंत्र शासक राजा चेटक की पुत्री) की कोख से चौबीसवें तीर्थंकर 'वर्द्धमान' के रूप में जन्म लिया । यह समय भगवान पार्श्वनाथ से २५० वर्ष पीछे का था। भगवान बर्द्धमान के वीर, महावीर सन्मति, अतिवीर ये चार नाम प्रसिद्ध हुए। इनकी आयु ७२ वर्ष की थी। हाथ ऊंचा शरीर था, सोने का-सा रंग था । पैर में सिंह का चिन्ह था । यौवन अवस्था आने पर कलिंग के राजा जितशत्रु की सर्वाङ्ग सुन्दरी कन्या यशोदा में साथ विवाह करने की तैयारी जब राजा सिद्धार्थं करने लगे, तो भगवान् महावीन ने विवाह करना स्वीकार न किया, बाल-ब्रह्मचारी रहे । ३० वर्ष की आयु में महानती दीक्षा ली 1 १२ वर्ष तक तपश्चरण करने के बाद आप को केवल ज्ञान हुआ । फिर ३० वर्ष तक सब देशों में विहार करके अहिंसा धर्म का प्रचार किया जिससे पशु यज़ होने बन्द हो गये । आपके इन्द्रभूति गौतम, वायुभूति, अग्नि भूति, सुधर्मा, मौर्य, मंडिपुत्र, मैत्रेय, अकम्य, अानन्द, अचल और प्रभाव ये ११ गणधर थे, चन्दना आदि आयिकाएं थीं। मातंग यक्ष और सिद्धायनी यक्षिणी पी । सिंह का चिन्ह था । अन्त में आपने पावापुरी से मुक्ति प्राप्त की। आपके . समय में सात्यकि नामक ११वां रुद्र हुमा ॥ २४ ॥ - --- - --- Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) कतिपय विशेष बातें . वीरमथ वर्द्धमान सन्मतिनाथ चहृति महावीरम् । हरिपितरर्थ संगम चारण धरिण कृताभि दानर्माभवन्दे ॥ अर्थ-शिशु समय में भी १००८ कलशों के जल का अभिषेक सहन कर लेने के कारण इन्द्र ने अन्तिम तीर्थंकर वा वीर नाम रम्ला । उत्पन्न होते ही माता-पिता का वैभव, पराक्रम बढ़ता गया इस कारण वीर प्रभु का दूसरा नाम 'वर्द्धमान' प्रसिद्ध हुअा । सञ्जय, विजय, नामक चारणऋद्धि धारी मुनियों का संशय बालक वीर प्रभु के दर्शन से ही दूर के ग स कारण उनका नाम 'सन्मति' प्रख्यात हुआ । भयानक सर्प से भयभीत न होने के कारण उनका नाम अतिबीर या महावीर प्रसिद्ध हुआ। श्यामी पार्श्व सुपाश्चों द्वौ नीलाभौ नेमिसुबतौ । चन्द्र दन्तौ सितौ शोणी पद्मपूज्यो पदे-पदे ।। अर्थ--सुपार्श्वनाथ तथा पार्श्वनाथ तीर्थकर हरित थे, मुनिसुव्रतनाथ और नेमिनाथ नीलवर्ण थे । चन्द्रप्रभु और पुष्पदन्त का शरीर सफेद था। पद्मप्रभु और वासुपूज्य का रंग लाल था । शेषा षोडश हेमाभा कुमारा: पञ्च दीक्षका । वासु पूज्यजिनो मल्लिनमिः पाश्वोऽथ सन्मतिः ॥ शेष १६ तीर्थकरों के शरीर का वर्ण सुवर्ण का सा था। वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ पार्श्वनाथ और महाबीर ये पांच तीर्थकर बाल ब्रह्मचारी थे कुमार अवस्था में ही इन्होंने मुनि दीक्षा ली थी। (१) (१) श्वेताम्बरीय प्रन्थों में भी पाँच तीर्थङ्कर बाल ब्रह्मचारी माने हये हैं। आवश्यकनियुक्ति में लिखा है-- वीर अरिङ्कनेमि पास मल्लिच वास पुज्जच । पए मुतूण जिरी अवसमा आसि राजाणो ॥ २२१ ॥ रायकुलेसुधि जाता विसुद्भधसेसु खत्तिय कुलेसु । ण्यथि काभिसेया कुमार कालम्मि पबद्या ।। २२२ ॥ अर्थ--महावीर, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, मल्लिनाथ और वासुपूज्य ये पांच तीर्थङ्कर विशुद्ध क्षत्रिय राजकुल में उत्पन्न हुन और कुमार अवस्था में ही मुनि दीक्षित हुए । इन्होंने न तो विवाह किया, न इनका राज्य-अभिषेक हुआ। शेष सभी तीर्थंकरों का विवाह तथा राज्य अभिषेक हुश्रा पीछे उन्होंने प्रवृज्या, अर्थात मुनि दीक्षा ली। __'या य इस्थि आभिसया' का अर्थ टिप्पणी में लिखा है 'स्त्री पाणिग्रहण इत्यादि Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) वीरोनाथ कुलोदभूतः पार्श्वस्तूग्रवंशतः । हरिवंशाम्बराओं द्वौ नेमीशमुनिसुव्रतौ ॥ धर्म कुन्थ्वरतीर्थशाः कुरुवंशोद भवास्त्रयः । इक्ष्वाकु कुलसंभूताः शेषाः सप्तेतेशजिनाः ।। भगवान महावीर नाथ-बंश में उत्पन्न हुए। उग्र वंश में भगवान पार्श्वनाथ का जन्म हुआ। मुनिसुग्रतनाथ तथा नेमिनाथ हरिवंश रूपी आकाश में सूर्य के समान हुए । धर्मनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ तीर्थकर कुरुवंश में हुए । शेष १७ तीर्थंकर इक्ष्वाकु वंश में हुए। वृषभस्य वासु पूज्यस्य नेमेः पर्यत्रबन्धतः । कायोत्सर्ग स्थिताना त् सिद्धिः शेष जिनेशिनाम् ।। अर्थ-भगवान ऋषभनाथ, वासु पूज्य और नेमिनाथ की मुक्ति पर्यतः श्रासन (पद्मासन) से हुई। शेष समस्त तोर्थंकरों को मुक्ति खड्गासन (खड़े आसन) से प्राप्त हुई। __तीर्थकरों को अवगाहमा धण तण तंगो तित्थे पंचसयं पण्णदपणूणममं । अट्ठसु पंचसु अट्ठसु पासदुर्ग रणवयसत्तकरा ॥८०४॥ त्रिलोक सारअर्थ---श्री ऋषभनाथ आदि तीर्थङ्करों के शरीर को अवगाहना (ऊंचाई)। क्रम से ५००, ४५०, ४००, ३५०, २५७, २००, १५०, १००, ६०, ८० ७०, ६०, ५०, ४५, ४०, ३५, ३०, २५, २०, १५,१०, धनुष, ६ हाथ, ७ हाथ है। प्रायु-प्रमाण तित्थाऊ चुलसीदी विहत्तरीसहि नरगसु दसहोणं । विगि पुटवलक्खयंत्तौ चुलसीदि निसत्तरी सट्ठी ।। १०५ ।। तीसदसएक्कलक्खा पणणवदी चदुरसीदिपवण्णं ।। तीसं दसिगिसहस्सं सयबावत्तरि सया कमसोः ॥८०६॥ त्रिलोक-सार रहिता इत्यर्थः । यानी-स्ती परिणयना और राज्य अभिषेक से रहित उक्त ५ तीर्थहर . थे। इससे यह भी सिद्ध होता है भगवान मल्लिनाथ पुरुष थे अन्यथा उनके लिये 'पुरुष पाणिग्रहण रहिता' वाक्य का प्रयोग होता । अन्ध रवेताम्बरीय भागमःप्रन्थों में भी ५ तीर्थकर पाल अझचारी माने गये है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) अर्थ-८४ लाख, ७२ लाख, ६० लाख, ५० लाख, ४० लाख, ३० लाख, १० लाख, वर्ष, ६५ हजार, ८४ हजार, ५५ हजार, ३० हजार, १० हजार, १ हजार, १०० और ७२ वर्ष की आयु क्रम से श्री ऋषभनाथ आदि तीर्थङ्करों की है। तदिये तुरिसे काले तिवास अडमास पक्खपरिसेसे । वसहां वीरो सिद्धो कक्किमरोछट्ट काल पारंो ।। यानी--तीसरे [सुषमा दुःषमा] में ३ वर्ष ८ मास १५ दिन शेष रहने पर श्री ऋषभनाथ मुक्त हुए । चौथे काल [दुःषमा सुषमा] में तीन वर्ष ८ मास १५ दिन शेष रहने पर भगवान महावीर मुक्त हुए। पंचम काल दुःषमा में ३ वर्ष ८ मास १५ दिन बाकी रहने पर प्रतिम कल्की का मरण होवेगा फिर छटा काल प्रारम्भ होगा। भगवान महावीर के पश्चात अंतिम तीर्थंकर श्री वीर प्रभु जिरा दिन मुक्त हुए उसी दिन श्री गौतम गणधर को केवल ज्ञान हुआ । जब गौतम गणधर सिद्ध हुए तत्र सुधर्मा गाधर को केवल ज्ञान हुा । जब सुधर्मा स्वामी मुक्त हुए तब धी जम्बूस्वामी को केवल ज्ञान हुआ । जम्बूस्वामी के मुक्त हो जाने पर अनुबद्ध ( क्रमसे, लगातार ) केवल ज्ञानी और कोई नहीं हुआ। गौतमादिक केवलियों के धर्म प्रवर्तन का काल पिण्ड रूप से ६२ वर्ष है ।। अननुबद्ध अंतिम केवली श्रीधर कुण्डलगिरि से मुक्त हुए हैं। चारण ऋद्धिधारक मुनियों में अंतिम ऋषि सुपावचन्द्र हुए हैं । प्रज्ञाश्रमणों में अंतिम वज्रयश और अवधिज्ञानियों में अंतिम ऋषि श्री नामक हुए हैं। मुकुटबद्ध राजाओं में जिन दीक्षा लेने वाला अन्तिम राजा चन्द्रगुप्त मौर्य हुमा है । भगवान महावीर के मुक्त हो जाने पर श्री नंदी, नदिमित्र, अपराजित, । गोवर्द्धन तथा भद्रबाहु ये पांच द्वादशांग (११ अंग १४ पूर्वो के) वेत्ता श्रुत केवली हुए हैं । इनका समुदित काल १०० वर्ष है। भद्रबाहु आचार्य के बाद श्रुतकेवली कोई नहीं हुआ। श्री विशाख, प्रोष्ठित क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म ये ११ मुनि ११ अंग, ६ पूर्वधारी हुए हैं । इनका समुदित समय १८३ वर्ष है। _तदनन्तर नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कैस ये ५ प्राचार्य म्यारह अंगधारक हुए । इनका समुदित काल २२० वर्ष है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) तत्पश्चात् सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु, लोहार्य ये चार प्राचार्य प्राचारोग के पूर्णवेत्ता तथा शेष ११ अंग १४ पूर्वो के एकदेश (अपूर्ण) वेत्ता (जानकार) पे । इन सबका समुदित काल ११८ वर्ष है । इस प्रकार ६२+ १००+१८३+ २२०+११५ - ६५३ वर्ष हुए। इसके १०८२ वर्ष पीछे इस 'शास्त्रसार समुच्चय' ग्रन्थ की रचना हुई। धार्मिक प्रवृत्ति के कारण भूत भगवान महावीर का श्रुततीर्थ ( सिद्धांत ज्ञान) २०३१७ (बीस हजार तीन सौ सत्रह्)वर्ष तक चलता रहेगा फिर न्युच्छिन (लुप्त) हो जायगा । इस समय में मुनि, प्रायिका, श्रावक, श्राविका रूप चातुवर्ण्य संघ जन्म लेता रहेगा परन्तु जनता क्रोधी, अभिमानी, पापी, अविनीत, पुद्धि, भयातुर, ईर्ष्यासु होती जायनी । शक राजा पणछस्सय वस्सं पणमासजुदं गमिय वीररिणम्वुझ्दो। सगराजो तो कक्की यदुवतियमहिम सगमास ।।८५०॥ त्रिलोकसार अर्थ-भगवान महावीर के निर्वाण होने के पश्चात् ६०५ वर्ष ५ मास बीत जाने पर शक राजा हुआ । उस शक राजा से ३६४ वर्ष ७ मास पीछे कल्की राजा हुना। अथवा तिलोयपण्णत्ती के मतानुसारधीरजिणे सिद्धिगदे चउसद इगिसद्वि बास परियाणे । कालम्मि अदिकते उप्यण्णो एत्थ सकरात्रो ।।१४६६॥ अर्थ-श्री वीर जिनेश्वर के मुक्त हो जाने पर ४६१ वर्ष पीछे शंक राजा हुआ शक राजा की उत्पत्ति के समय के विषय में काष्ठासंघ, द्रविड़ संघ तथा श्वेताम्बरीय ग्रन्थकारों का विभिन्न मत है। वीसुत्तरवाससदे विसनो वासारिण सोहिऊरण तदो। इगिवीस सहसहि भजिदे पाऊरण खयबड़ी ।।१५००॥ सकरिणवास जुदाणं चडसदइगिसठ्ठ वास पहुदीणं । घसजुददोसयहरिदे लद्धं सोहेज्ज विडणसट्ठी ॥१५०१॥ तिलोय पण्णत्ती। अर्थ-पंचम काल दुःषमा २१ हजार वर्ष का है। उसमें मनुष्यों को उत्कृष्ट प्रायु १२० वर्ष की तथा जघन्य प्रायु २० वर्ष की है । अत: उस्कृष्ट प्रायु १२० वर्ष में से जघन्य प्रायु २० वर्ष घटाकर २१ हजार में भाग Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *F: (४) देने पर (१२० - २०-२१७०७:२३) प्रायु की हानि वृद्धि का मारण होता है। :: ..:: : शक राणा के वर्षों से सहित ५६१: वर्ष प्रादि को २१० से भाग देने पर जो लब्धि प्रावें उसको १२० में से कम करने पर जो शेष रहे इतना उस राजा के समय में प्रवर्तमान उत्कृष्ट प्रायु का प्रमाण है । यह युक्ति अन्य सब राजाओं में से प्रत्येक के समय में भी जाननी चाहिये। xहुण्डावसर्पिणी के कारण कुछ हेर फेर हो जाता है। ६०+ १५५+ ४०+३०+६०+१००+४०+२४२+२३१+४२ = १००० वर्ष। ___ आचारांगधरों के पश्चात् दो सौ पचहत्तर वर्षों के व्यतीत होने पर कल्की नरपति को पट्ट बांधा गया था । ६८३+२७५+४२ - १००० बर्ष । तदनन्तर वह कल्की प्रयल पूर्वक अपने योग्य जनपदों को सिद्ध करके लोभ को प्राप्त होता हुआ मुनियों के आहार में से भी प्रापिण्ड को शुल्क रूप में मांगने लगा। तब श्रमण (मुनि) अग्रपिण्ड को देकर और 'यह अन्तरायों का काल है', ऐसा समझकर (निराहार) चले गये। उस समय उनमें से किसी एक को अवधि ज्ञान उत्पन्न हो गया । इसके पश्चात् किसी असुरदेव ने अवधि ज्ञान से मुनिगणों के उपसर्ग को जानकर और धर्म का द्रोही मानकर उस कल्की को मार दिया। तब अजितंजय नामक उस कल्की का पुत्र 'रक्षा करों' इस प्रकार कह कर उस देव के चरणों में गिर पड़ा । तब वह देव 'धर्म पूर्वक राज्य करों' इस प्रकार कह कर उसकी रक्षा में प्रवृत्त हुआ । इसके पश्चात् दो वर्ष तक लोगों में समीचीन 'धर्म की प्रवृत्ति रही। फिर क्रमशः काल के माहात्म्य से वह प्रतिदिन हीन होती चली गई। ___ इसी प्रकार पंचमकाल में एक १०००, एक १००० वर्ष बीतने पर एक कल्की तथा पांच सौ ५०० पांच सौ ५०० वर्ष बीतने पर एक-एक उपकल्की होता रहता है। प्रत्येक कल्की के प्रति एक एक दुःषमाकालवर्ती साधु को अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उसके समय में चातुर्वर्ण्य संघ भी अल्प हो जाते हैं । . उस समय पूर्व में बांधे हुए पापों के उदय से चाण्डाल, शबर: श्वपत्र, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलिन्न, नाहल (म्लेच्छविशेष) और किरात प्रभृति, सथा दीन, अनाथ, क्रूर और जो नाना प्रकार की व्याधि एवं वेदना से युक्त हैं, हाथों में खप्पर सथा. भिक्षा पात्र को लिए हुए हैं, और देशान्तर गमन से संतप्त है, .ऐसे बहुत से मनुष्य दीखते हैं। __ इस प्रकार दुःषमाकाल में धर्म, आयु और ऊंचाई प्रादि कम होती जाती है। फिर अन्त में विषम स्वभाव वाला इक्कीसवां कल्की उत्पन्न होता है। उसके समय में वीरांगज नामक एक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा. अग्निदत्त ( अग्निल ) और पंगुश्री नामक श्रावक-युगल ( श्रावक-श्राविका ) होते हैं। वह कल्की आज्ञा से अपने योग्य जनपदों को सिद्ध करके मंत्रिबरों से कहता है कि ऐसा कोई पुरुष तो नहीं है जो मेरे वश में न हो ? तब मंत्री निवेदन करते हैं कि हे स्वामिन् ! एक मुनि आप के वश में नहीं है । तब कल्की कहता है कि कहो वह अविनीत मुनि कौन है ? इसके उत्तर में मंत्री कहते हैं कि हे स्वामिन् ! सकल अहिंसाव्रत का आधारभूत बद्द मुनि शरीर की स्थिति के निमित्त दूसरों के घर द्वारों पर काय दिखलाकर मध्याह्नकाल में अपने हाथों में विघ्नरहित शुद्ध भोजन ग्रहण करता है । इस प्रकार मंत्री के वचन सुनकर वह कल्की कहता है कि वह अहिंसावत का धारी पापी कहां जाता है, यह तुम स्वयं सर्वप्रकार से पता लगायो। उस पात्मघाती मुनि के प्रथम पिण्ड को शुल्क के रूप में ग्रहण करो । तत्पश्चात् (कल्की की आज्ञानुसार) प्रथम पिण्ड के मांगे जाने पर मुनीन्द्र तुरन्त उसे देकर और अन्तराय जान कर वापिस चले जाते हैं तथा अवधि ज्ञान को प्राप्त करते हैं। प्रसन्नचित्त होते हुए अपने संघ को कहते हैं कि अब दुःषमाकाल का अन्त पा चुका है, तुम्हारी और हमारी तीन दिन की आयु शेष है और यह अन्तिम कल्की है। तब वे चारों जन चार प्रकार के आहार और परिग्रहादिक को जन्मपर्यन्त छोड़कर संन्यास को ग्रहण करेंगे। वे सब कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष के अन्त में प्रर्थात् अमावस्या के दिन सूर्य के स्वाती नक्षत्र के ऊपर उदित रहने पर सन्यास ले करके, समाधिमरण को प्राप्त करेंगे। सोहम्मे जायते कत्तिय अमवास सादि पूर्वकण्हे । इगिजल हिटिदी मुनिणों सेतिए साहियं पल्वं ।।८६०।। -.... - . ... .. . ... ....m Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) अर्थ- कार्तिककी श्रमावस्या के पूर्वापहमें वीर मरण करके बे मुनि, आर्यिका श्रावक श्राविका, सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न होंगे। वहां मुनि की एक सागर और शेष तीनों की आयु कुछ अधिक पल्प प्रमारण होगी । तब्बासरस्स आदीमज्भले धम्मराय अग्मीरणं । खास तत्तो मण्डला लागा मच्छादि आहारा ॥ ८६१ ॥ यानी -उस दिन प्रातः धर्म का, दोपहर को राजा का तथा सायं (शाम की) श्रग्नि का नाश हो जावेगा । मनुष्य नंगे फिरने लगेंगे और मछली आदि खाकर भूख मिटावेंगे । योग्गल इस खादो जलणे धम्मे गिरासर हदे । सुरवइणा गरिदे सयलो लोम्रो हवे अन्धो ॥ ६३२|| अर्थ--: -उस समय लकड़ी श्रादि ज्वलनशील पदार्थ अत्यन्त रूखे होने के कारण अग्नि नहीं जलेगी । धार्मिक जन न रहने से धर्म निराश्रित हो जाने से नष्ट हो जावेगा और असुर इन्द्र द्वारा अन्यायी राजा का मरण हो जाने पर समय ती पथ ऋष्ट (श्री) हो जावेगी । एस्थ मुदारियदुगं रियतिरक्याद जगासमेत्य हवे । यो जलदाइमेहा भू रिंगसारा रारा तिब्बा ||८६३ ॥ त्रिलोकसार | अर्थ -- उस समय मरकर जीन पहले दूसरे नरक में जावेंगे और नरक पशु से निकले हुए जीव ही यहां उत्पन्न होवेंगे। बादल थोड़ा जल बरसावेंगे, पृथ्वी निस्सार हो जावेगी और मनुष्य तीव्र कषायी हो जावेंगे । अस्तु मिरचीस कक्की उवकषको तेत्तिया य धम्मारण । सम्मति धम्मदोहा जलरिगहि उनमारण आइजुदा ॥। १५३४ ॥ -तिलोय पण्णत्ती इस प्रकार धर्म द्रोही २१ कल्की और २१ उपकल्की मर कर पहले नरक में पैदा होते हैं वहां एक सागर की उनकी श्रायु होती है । चतुस्त्रिंशदतिशयाः ||६॥ अर्थ - तीर्थंकरों के ३४ अतिशय होते हैं । असाधारण व्यक्तियों से जो विलक्षण प्रद्भुत बातें : होती हैं उन्हें अतिशय कहते हैं । ऐसे अतिशय तीर्थंकरों के जन्म के समय १० होते हैं और केवल ज्ञान हो जाने के अनन्तर १० अतिशय स्वयं होते हैं तथा १४ अतिशय देवों द्वारा सम्पन्न होते हैं। इस प्रकार समस्त ३४ अतिशय होते हैं । स 멋 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) जन्म के १० अतिशय १ तीर्थकर के शरीर में पसीना बाना, २ मामूब न होना, ५ दूध के समान सफेद खून होना, ४ समचतुरस्र संस्थान (शरीर के समस्त अंग उपांग ठीक होना, कोई भी अंग उपांग छोटा या बड़ा न होना), ५ वज्रऋषभनाराच संहनन (शरीर की हड्डी, उनके जोड़ और उनकी कीलें बच के समान दृढ़ होना), ६ अत्यन्त सुन्दरता, ७ मिष्ट परमप्रिय भाषा, ८ शरीर में सुगन्धि, ६ अतुल्य बल और १० शरीर में १००८ शुभ लक्षण । ये १० प्रतिशय तीर्थकर में जन्म से ही होते हैं। केवल ज्ञान के समय के १० प्रतिशय १ तीर्थकर को केवल ज्ञान हो जाने पर उनके चारों ओर १००-१०० योजन (४००-४०० कोस) तक सुकाल होता है । प्रतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल नहीं होता, २ आकाश में (पृथ्वी से ऊपर अघर) चलना, ३ एक मुख होते हुए भी उसका चारों ओर दिखाई देना, ४ उनके शरीर में स्वेद नहीं रहता, न उनके शरीर से किसी जीव का घात होता है, ५ उन पर किसी भी देव, मनुष्य, पशु तथा अचेतन पदार्थ द्वारा उपसर्ग नहीं होता, ६ भूख नहीं लगती, प्रतः भोजन नहीं करते, ७ समस्त ज्ञान विद्याओं का प्राप्त होना, ८ नाखून और बालों का न बढ़ना, ६ नेत्र प्राधे खुले रहना, पलकें न झपकना, १० शरीर की छाया न पड़ना। देवकृत १४ प्रतिशय १ अद्धमागधी भाषा (तीर्थकर की निरक्षरी ध्वनि को मगध देवो द्वारा समस्त श्रोताजनों की भाषा रूप कर देना), २ पास पास के जाति-विरोधी जीवों का भी भित्र भाव से रहना, ३ समस्त दिशात्रों का धुपा, धुन्ध, धूल से रहित होकर निर्मल होना, ४ आकाश का साफ होना, ५ तीर्थंकर के निकटवर्ती वृक्षों पर सब ऋतुओं के फल फूल आ जाना, ६ पृथ्वी का दर्पण की तरह साफ होना, ७ सुगन्धित वायु चलना, ६ सुगन्धित जल वर्षा, ह चलते समय भगवान् के चरणों के नीचे आगे पीछे तथा चारों ओर ७-७ स्वर्ण कमलों (४६) का बनते जाना, १० आकाश में जय जयकार शब्द होना, ११ समस्त जीवों का आनन्दित होना, १२ भगवान के आगे १००० पारों का धर्म चक्र चलाना, १३ कलश, दर्पण, छत्र, चमर, ध्वजा, पंखा, स्वास्तिक, भारी इन पाठ मंगल द्रव्यों का साथ रहना । १४ पृथ्वी पर कांटे, ककड़ी आदि पर में चुभने वाले पदार्थ न रहना । ये १४ अतिशय केवल ज्ञान होने के बाद देवों द्वारा होते हैं। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच महाकल्पाणानि ॥ १६ ॥ तीर्थकरी क र महाकल्पारण होते हैं (1) गर्भावतरण, (२) जन्माभिषेक, (३) निष्क्रमण (दीक्षा ग्रहण), (४) केवलज्ञान और (५) निर्वाण । सम्वसिद्धिठारगा अवइणण। उसहधम्मपदितिया। विजयादरणजिया चंदप्पहवाइजयंता दु ।।५२२॥ अपराजिताभिधारणा अरणमिमल्लीनो नेमिणाहोह । सुमई जयंतठारणा प्रारगजुगलाय सुविहिसीलसया ॥५२३॥ पुष्फोत्तराभिधाणा प्रांतसेयंसवट्ठमारणजिरणा । विमला य सहाराराक्षार कप्पा य सुवदापासा ॥५२४॥ हेट्ठियमज्झिमजबरिम गेवज्जादागदा महासत्ता । सभवसुपासपउमा महसुक्का वासपुरजजिणे ॥५२५॥ (चौ० प्र०)सिलोण्पणपति समस्त देव इन्द्र जो देखने वाली जनता को तथा अपने आपको भी कल्याण कारक (पुण्य बन्ध करने वाला) महान उत्सव करते हैं वह काल्याशाक' कहलाता है। ऐसे महान उत्सव तीर्थंकरों के जीवन में ५ बार होते हैं [१] गर्भ में प्राते समय, [२] जन्म के समय, [६] महाव्रती दीक्षा लेते समय, [४] केवल ज्ञान हो जाने पर तथा [५] मोक्ष हो जाने के समय । तीर्थकर के अपनी माता के गर्भ में प्राने से ६ मास पहले सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र का आसन कम्पायमान होता है । तब वह अवधिज्ञान से ६ मास पश्चात् होने वाले तीर्थंकर के गर्भावतरण को जानकर श्री. ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी प्रादि ५६ कुगारिका [ प्राजन्म कुमारी रहने वाली ] देवियों को तीर्थंकर की माता का गर्भशोधन करने के लिए भेजता है तथा कुबेर को तीर्थंकर के माता पिता के घर पर प्रतिदिन तीन समय साढ़े तीन करोड़ रत्न बरसा की प्राज्ञा देता है जोकि जन्म होने तक [१५ मास] बरसते रहते हैं । छः मास पीछे जब तीर्थंकर माता के गर्भ में पाते हैं तब माता को रात्रि के अन्तिम पहर में निम्नलिखित १६ स्वप्न दिखाई देते हैं--- १ हाथी, २ बैल, ३ सिंह, ४ लक्ष्मी, ५ दो माला, ६ चन्द्र, ७ सूर्य, ६ दो मछलियां, ह जल से भरे हुए दो सूवर्ण कलश, १० कमलों से भरा हुअा तालाब ११ समुद्र १२ सिंहासन १३ देव विमान १४ धरणीन्द्र का । भवन, १५ रत्नों का ढेर, १६ अग्नि । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किस किस तीर्थकर का गर्भावतरण किस किस स्थान से हुआ ... उसे बतलाते हैं अर्थ-ऋषभनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ सर्वार्थसिद्धि से चयकर माता के गर्भ में पाये । अभिनन्दननाथ, अजितनाथ विजय दिमान से, चन्द्रप्रभ वैजयन्त से, अरनाथ, मल्लिनाथ, नमिनाथ, और नेमिनाथ अपराजित विमान से सुमतिनाथ, जयन्त विमान से, पुष्पदन्त और शीतलनाथ क्रमश धारणयुगल से, अनन्तनाथ, श्रेयांसनाथ, वर्तमान पुष्मोत्तर विमान से, विमलनाथ सतार स्वर्ग से, मुनिसुव्रतनाथ प्रान्त स्वर्ग से, पार्श्वनाथ प्रागत स्वर्ग से, संभवनाथ अधो न वेयक से, सुपार्श्वनाथ मध्यम ग्रे बेयक से, पद्मप्रभ ऊर्ध्व ग्रेधेयक से तथा वासुपूज्य भगवान महा शुक्र विमान से अवतीर्ण हुए। गर्भावतरण की तिथि ऋषभनाथ तीर्थधर अयोध्या नगरी में मरुदेवी माता के गर्भ में प्राषाढ़ कृष्णा द्वितीया उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में आये । २ ज्येष्ठ मास अमावस्या को रोहिणी नक्षत्र में अजितनाथ तीर्थङ्कर गर्भ में आये। ३ फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को मगसिर नक्षत्र में सम्भवनाथ तीर्थङ्कर का गर्भावतरण हुआ। ४ बैसास्त्र सुदी षष्ठी विशाखा नक्षत्र में अभिनन्दन तीर्थकर का गर्भ कल्याण हुआ। ४५ श्रावण सुदी द्वितीया मघा नक्षत्र में सुमतिनाथ भगवान् गर्भ में पाये । ६ माघ सुदी एकादशी चित्रा नक्षत्र में पद्मनाथ तीर्थङ्कर का गर्भ कल्याएक हुआ। .. ७ भाद्र पद शुक्ल अष्टमी विशाखा नक्षत्र में सुपार्श्वनाथ तीर्थङ्कर का गर्भ कल्याणक हुआ। ८ चैत्र सुदी पंचमी ज्येष्ठा नक्षत्र में चन्द्रप्रभु भगवान का गर्भ कल्याणक हुना। ६ फाल्गुन सुदी नवमी मूल नक्षत्र में पुष्पदन्त भगवान गर्भ में आये । १० चैत्र कृष्णा अष्टमी पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में शीतलनाथ तीर्थङ्कर का गर्भ कल्याणक हुआ। ११ ज्येष्ठ कृष्णा षष्ठी श्रवण नक्षत्र में श्रेयांसनाथ तीर्थङ्कर का गर्भ कल्याएक हुआ। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) १२ आषाढ़ कृष्णा षष्ठो शतभिषा नक्षत्र में वासुपूज्य भगवान का गर्भ कल्याणक हुआ। ___ १३ ज्येष्ठ सुदी दशमी उत्तरा भाद्रपद में विमलनाथ भगवान का गर्भावतरण हुआ। ___ १४ कार्तिक सुदी प्रतिपदा में अनन्तनाथ भगवान का गर्भावतरण हुआ ! १५ बैशाख कृष्णा त्रयोदशी के दिन रेवती नक्षत्र में धर्मनाथ भगवान का गर्भावतरण हुआ। १६ भाद्रपद सुदी सप्तमी भरणी नक्षत्र में शान्तिनाथ भगवान का गर्भ कल्याणक हुआ। १७ श्रावण सुदी दशमी कृतिका नक्षत्र में श्री कुन्थुनाथ भगवान का गर्भावतरण हुआ। १८ फाल्गुन शुक्ला तृतीया रेवती नक्षत्र में परनाथ भगवान गर्भ में आये। १९ चैत्र शुक्ला प्रतिपदा अश्विनी नक्षत्र में मल्लिनाथ भगवान् गर्भ में आये। ___ २० श्रावण सुदी द्वितीया को श्रवण नक्षत्र में मुनिसुव्रत तीर्थकर का गर्भावतरण हुआ। २१ आसोज वदी द्वितीया अश्विनी नक्षत्र में नभिनाथ तीर्थकर का गर्भावतरण हुआ। २२ कार्तिक सुदी षष्ठो उत्तराषाढ़ नक्षत्र में नेमिनाथ तीर्थङ्कर का गर्भावतरण हुआ । २३ बैशाख कृष्णा द्वितीया, विशाखा नक्षत्रमें श्री पार्श्वनाथ भगवान का गर्भावतरण हुआ । २४ प्राषाढ़ सुदी षष्ठी उत्तरा नक्षत्र में महावीर भगवान का गर्भावतरण हुआ। जन्मतिथि ऋषभनाथ तीर्थंकर अयोध्या नगरी में, मरुदेवी माता, एवं नाभिराय पिता से, चैत्र कृष्णा नवमी के दिन, उत्तराषाढा नक्षत्र में उत्पन्न हुए। . अजित जिनेन्द्र साकेत नगरी में पिता जितशत्र एवं माता विजया से माघ के शुक्लपक्ष में दशमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न हुए। संभवनाथ श्रावस्ती नगरी में पिता जितगिरी और माता सुसेना से मगासिर मास की पूर्णमासी के दिन ज्येष्ठा मक्षत्र में उत्पन्न हुए। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) अभिनन्दन स्वामो साकेतपुरी में पिता संबर और माता सिद्धार्थ से माघशुक्ला द्वादशी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में उत्पन्न हुए । सुमतिनाथ तीर्थकर साकेतपुरी में पिता मेघप्रभु और माता मंगला से . श्रावणशुक्ला एकादशी को मघा नक्षत्र में उत्पन्न हुए। पद्मप्रभु तीर्थंकर ने कौशाम्बी पुरी में पिता घरण और माता सुसीमा. से आसोज कृष्णा त्रयोदशी के दिन चित्रा नक्षत्र में अवतार लिया । ___ सुपारर्वदेव वाराणसी ( बनारस ) नगरी में माता पृथ्वी और पिता सुप्रतिष्ठ से ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में उत्पन्न हुये । चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र चन्द्रपुरी में पिता महासेन और माता लक्ष्मीमती (लक्ष्मणा) से पोपकृष्णा एकादशी को मानुराधा नक्षत्र में अवतीर्ण हुए। . भगवान् पुष्पदन्त काकन्दा भगरा में माता रामा और पिता सुग्रीव से मगसिर शुक्ला प्रतिपद् के दिन मूल नक्षत्र में उत्पन्न हुये। शीतलनाथ स्वामी भद्दलपुर में [भद्रिकापुरी में] पिता दृढ़रथ और। माता नन्दा से भाघ के कृष्ण पक्ष की द्वादशी के दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में उत्पन्न हुए। भगवान् श्रेयांस सिंहपुरी में पिता विष्णु नरेन्द्र और माता वेणुदेवी से फाल्गुन शुक्ला एकादशी के दिन श्रवण नक्षत्र में अवतीर्ण हुए। . . वासुपूज्य भगवान् चम्पा नगरी में पिता वसुपूज्य राजा और माता विजया से फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी के दिन विशाखा नक्षत्र में उत्पन्न हुए । भगवान् विमलनाथ कपिलापुरी में पिता कृतवर्मा और माता जयश्यामा से माघ शुक्ला चतुर्दशी के दिन पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में उत्पन्न हुए। ... भगवान अनन्तनाथ अयोध्यापुरी में माता सर्वयशा और पिता सिंहसेन से ज्येष्ठकृष्णा द्वादशी को रेवती नक्षत्र में अवतीर्ण हुए । धर्मनाथ तीर्थकर रत्नपुर में पिता भानु नरेन्द्र और माता सुनता से माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन पुष्प नक्षत्र में उत्पन्न हुए। ___भगवान् शान्तिनाथ हस्तिनापुर में माता ऐरा और पिता विश्वसेन से ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन भरणी नक्षत्र में उत्पन्न हुए। कुन्थुनाथ जिनेन्द्र हस्तिनापुर में माता श्रीमती और पिता सूर्यसेन से वैशाख शुक्ला प्रतिपदा को कृतिका नक्षत्र में अवतीर्ण हुए । भगवान् अरनाथ हस्तिनापुर में माता मित्रा और पिता सुदर्शन राजा से भगसिर शुक्ला चतुर्दशी के दिन रोहिणी नक्षत्र में अवतीर्ण हुए .. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) मल्लिनाथ जिनेन्द्र मिथिलापुरी में माता प्रभावती और पिता कुम्भ से मगसिर शुक्ला एकादशी को अश्विनी नक्षत्र में उत्पन्न हुए । भगवान मुनिसुव्रत राजगृह में पदम और वायुमिड राजा से श्रासोज शुक्ला द्वादशी के दिन श्रवण नक्षत्र में उत्पन्न हुए । नमिनाथ स्वामी मिथिलापुरी में पिता विजयनरेन्द्र और माता वप्रिला से आषाढ़ शुक्ला दशमी के दिन अश्विनी नक्षत्र में अवतीर्ण हुए। नेमि जिनेन्द्र शौरीपुर में माता शिवदेवी और पिता समुद्र विजय से वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को चित्रा नक्षत्र में अवतीर्ण हुए । भगवान पार्श्वनाथ वाराणसी नगरी में पिता अश्वसेन और माता मिला [ बामा ] से पौष कृष्ण एकादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में उत्पन्न हुए । भगवान महावीर कुण्डलपुर में पिता सिद्धार्थ और माता प्रियकारिणी से शुक्खा त्रयोदशी के दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में उत्पन्न हुए । तीर्थंकरों का वंश थन धर्मनाथ, अरनाथ और कु थुनाथ ये तीन तीर्थंकर कुरुवंश में उत्पन्न हुये। महावीर और पार्श्वनाथ क्रम से नाथ और उग्र वंश में भुनिसुव्रत और नेमिनाथ यादव वंश [ हरिवंश ] में तथा अवशिष्ट लीर्थकर इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न हुए । भव्य जीवों के पुण्योदय से भरतक्षेत्र में अवतीर्ण हुये इन चौबीस तीर्थंकरों को जो भव्य जीव मन, वचन तथा कार्य से नमस्कार करते हैं, वे भोक्ष सुख को पाते हैं । केवल ज्ञानरूप वनस्पति के कंद और तीर्थ के प्रवर्तक चौबीस जिनेन्द्रों का जो भक्ति भाव से प्रवृत्त होकर अभिनन्दन करता है, बांधा जाता है । उसको इन्द्र का पट्ट तीर्थंकरों के जन्म काल का वर्णन सुषमदुःषमा नामक काल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष माठ मास श्रीर एक पक्ष शेष रहने पर भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ भगवान ऋषभदेव की उत्पत्ति के पश्चात् पचास करोड़ सागरोपम और बारह लाख वर्ष पूर्व के बीत जाने पर अजितनाथ तीर्थंकर का अवतार हुआ । अजितनाथ की उत्पत्ति के पश्चात् बारह लाख वर्ष पूर्व सहित तीस करोड़ सागरोपमों के बीत जाने पर भगवान संभवनाथ की उत्पति हुई । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) संभव जिनेन्द्र की उत्पत्ति के पश्चात् दस लाख पूर्व सहित दस लाख करोड़ सागरोपमों के बीत जाने पर अभिनन्दन भगवान ने अवतार लिया। अभिनन्दन स्वामी की उत्पत्ति के पश्चान् दस लाख पूर्व सहित नौ लाख करोड़ सागरोपम के बीत जाने पर सुमति जिनेन्द्र की उत्पत्ति हुई। सुमतिनाथ तीर्थकर के जन्म के पश्चात् दस लाख पूर्व सहित नब्बे हजार करोड़ सागरोपमों के बीत जाने पर पद्मप्रभु का जन्म हमा। पद्मप्रभु के जन्म के पश्चात् दस लाख पूर्व सहित नौ हजार करोड़ सागरोपमों का समय अतिक्रमण होने पर भगवान सुपार्श्वनाथ का जन्म हुआ। सुपार्श्वनाथ की उत्पत्ति के पश्चात् दस लाख पूर्व सहित सौ सागरोपमों के बीत जाने पर चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र की उत्पत्ति हुई। चन्द्रप्रभु की उत्पत्ति से आठ लाख पूर्व सहित नब्बे करोड़ सागरोपमों का विच्छेद होने पर भगवान पुष्पदन्त की उत्पत्ति हुई। __ पुष्पदन्त की उत्पत्ति के अनन्तर एक लाख पूर्व सहित नौ करोड़ सागरोपमों के बीतने पर शीतलनाथ तीर्थकर ने जन्म लिया। शीतलनाथ की उत्पत्ति के पश्चात् सौ सागरोपम और एक करोड़ पचास लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व सहित करोड़ सागरोपमों के प्रतिक्रान्त होने पर श्रेयांस जिनेन्द्र उत्पन्न हुए। ____भगवान श्रेयांस की उत्पत्ति के पश्चात् बारह लाख वर्ष सहित पौवन सागरोपमों के व्यतीत हो जाने पर वासुपूज्य तीर्थंकर ने अवतार लिया। वासुपूज्य भगवान की उत्पत्ति के अनन्तर बारह लाख वर्ष अधिक तीस सागरोपमों के व्ययीत हो जाने पर भगवान अनन्तनाथ उत्पन्न हुए। अनन्त स्वामी के जन्म के पश्चात् बीस लाख वर्ष अधिक चार सागरोपमों के बीतने पर धर्मनाथ प्रभु ने जन्म लिया। धर्मनाथ' की उत्पत्ति के पश्चात् पौन पल्प कम और नौ लाख वर्ष सहित तीन सागरोपमों के बीत जाने पर शान्तिनाथ भगवान ने जन्म लिया । ___ भगवान शान्तिनाथ के जन्म के पश्चात् पाँच हजार वर्ष अधिक प्राधे पल्य बाद कुन्थुनाथ जिनेन्द्र उत्पन्न हुए । कुन्थुनाथ की उत्पत्ति के पश्चात् ग्यारह हजार कम एक हजार करोड़ वर्ष से रहित पाव पल्य के बीतने पर अर जिनेन्द्र उत्पन्न हुए । अर जिनेन्द्र की उत्पत्ति के पश्चात् उनतीस हजार अधिक एक हजार करोड़ वर्षों के बीतने पर मल्लिनाथ भगवान का जन्म हुआ। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) भगवान् मल्लिनाथ की उत्पत्ति के पश्चान् पच्चीस हजार अधिक अर्थात् चौवन लाख वर्षों के बीत जाने पर भगवान सूबत जिनेन्द्र की उत्पत्ति हुई। भगवान् सुव्रत की उत्पत्ति के पश्चान् बीस हजार अधिक छ: लाग्ख वर्ष प्रमाण काल के व्यतीत होने पर नमिनाथ जिनेन्द्र का जन्म हुआ। नमिनाथ की उत्पत्ति के पश्चात् नौ हजार अधिक पांच लाख वर्षों के व्यतीत होने पर भगवान् नेमिनाथ की उत्पत्ति हुई। नेमिनाथ तीर्थङ्कर की उत्पत्ति के पश्चात् चौरासी हजार छ: सौ पवास वर्षों के व्यतीत होने पर भगवान् पार्श्वनाथ की उत्पत्ति हुई । भगवान् पार्श्वनाथ की उत्पत्ति के पश्चात् दो सौ अठत्तर वर्षों के बीत जाने पर वर्द्धमान तीर्थङ्कर का जन्म हुआ। लोगों को आनन्दित करने वाला यह तीर्थंकरों के अन्तराल काल का प्रमाण उनकी कर्मरूपी अर्गला को नष्ट करके मोक्षपुरी के कपाट को उद्घादित करता है। जिस समय तीर्थंकर का जन्म होता है उस समय विना बजाये स्वयं शंख भेरियों से भवन वासी देव और व्यंतर देव नगाड़ों की ध्वनि से, ज्योतिष देव सिंह नाद की ध्वनि से तथा कल्पवासी देव घण्टा नादों से भगवान का जन्म समय रामझ कर अपने-अपने यहाँ और भी अनेक बाजे बजाते हैं। कल्पवासी आदि देव तीर्थकर का जन्म समझ कर उसी समय अपने सिंहासन से उतर कर प्रागे सात कदम चल कर सम्पूर्ण अंगोग झुकाकर नमस्कार करते हैं। इसके बाद सभी देव अपने स्थान से चलकर तीर्थकर की जन्म भूमि में प्राते है । और बालक रूप तीर्थकर को ऐरावत हाथी पर बैठा कर महामेरु पर्वत पर ले जाते हैं वहां पर पान्डूक शिला में विराजमाम करते देवों द्वारा हाथों-हाथ क्षीर समुद्र से लाये गये जल से अभिषेक करते हैं। इस प्रकार देवेन्द्र ने जन्माभिषेक किया और वृत्य कृत्य हुा । भगवान के शरीर में निःस्वेद (पसीना न पाना) आदि १० अतिशय होते है। गाथा धम्मार कुन्थु कुदवस्त जाता । माहोग्गवासा सुबवरि पासो। सुसुम्भ दोजादव वंश जम्मा । नेमीय इक्खाकुल विशेषों ॥ अर्थ---धर्मनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ ये तीन कुरु वंश में उत्पन्न हुए सुपार्श्व और पार्व नाथ जी नाथ वंश में उत्पन्न हुए। नमि और नेमि नाथ || यादव वंश में उत्पन्न हुए। शेष इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए । न... Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) दीक्षा कल्याणक तीर्थंकरों को किसी भी प्रकार की व्याधि, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग तथा विष, शस्त्र, आदि जनित दुःख नहीं होता है, न उनको और किसी तरह का कष्ट होता है 1 वे अपना कुमार काल बिता कर जव यौवन अवस्था में श्राते हैं तब उनका विवाह होता है । तत्पश्चात् युवराज पद पा लेने के बाद उनका राज्याभिषेक होता है धीर निष्कण्टक राज शासन करते हैं। राजसुख भोगते हुए उनको किसी कारण संसार, शरीर तथा विषय भोगों से वैराग्य होता है तब उनकी भावना होती हैं कि fages गतियो दारणदुम्मार दुःख खाणीओ । परमाणम तनयानं रिगभ्वाहणं प्रवच्छामो ॥ अर्थ संसार चतुर्गति भ्रमण रूप है। इन चारों गतियों में जीव को प्रत्यन्त दारुण दुःख प्राप्त होता है। ऐसा सोचकर संसार से उदासीन होते हुए भगवान जब वैराग्य को प्राप्त होते हैं । तब वे लौकान्तिक देव आकर कहते हैं कि हे देवाधिदेव ! इस समय आपने संसार को असार समझ कर अपनी इष्ट सिद्धि प्राप्त करने का निश्चय किया, सो श्लाघनीय हैं, श्राप धन्य हैं । इस प्रकार उनको अनेक प्रकार से सम्बोधन करते हुए देव कहते हैं कि--हे भगवान ! आज हमारा सौभाग्य का दिन है कि हम आपके दर्शन कर इस जन्म को सफल करते हुए आपके महाप्रसाद को प्राप्त हुए। इस प्रकार के लौकान्तिक देव भगवान के ऊपर कल्प वृक्ष के पुष्पों की वृष्टि करके चले जाते हैं । गांधा - धारवननेमि सेसाते विशतेषु तित्तथरां । वियरिगय चोदपुरेसुंखे हति जिरांदा विक्खाया ॥ उसी समय समस्त देव, इन्द्र, विद्याधर, भूचर राजा श्रादि एकत्र होकर दीक्षा का उत्सव करते हैं। एक सुन्दर दिव्य पालकी में तीर्थंकर विराजमान होते हैं । उस पालकी को पहले भूचर राजा उठाकर कुछ दूर चलते हैं । तत्पश्चात् 'विवार लेकर चलते हैं । फिर देव अपने कंधों पर लेकर बड़े हर्ष उत्सव के साथ प्राकाश में चलते हैं। नगर से बाहर किसी उद्यान या वन में किसी वृक्ष के नीचे भगवान स्वच्छ शिला पर बैठते हैं और अपने शरीर के समस्त वस्त्र श्राभूषण उतार देते हैं। अपने शिर के बालों का पांच भुट्टियों से लोंच करके सिखों को नमस्कार करते हैं और स्वयं महाव्रत धारण करके मुनि दीक्षा लेकर ध्यान में निमग्न हो जाते हैं । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) दीपा नगर दारवदोए होमी सेसा तेवीस तेसु तित्थयरा। रिणयरिणयजाद पुरेसुगिण्हंति जिरिंगददिक्खाई॥ ६४३। वि० ५० ५० प्र० चौबीस तीर्थंकरों में से भगवान नेमिनाथ ने द्वारावती से दीक्षा ली और शेष तीर्थंकरों ने अपने अपने जन्म वाले नगर से मुनि दीक्षा ली। दीक्षा-तिथि १ चैत्र सुदी नवमी उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में ऋषभदेव को मध्याह्न काल में दीक्षा हुई। . २ माघ शुक्ला नवमी को रोहिणी नक्षत्र में अपराल काल में भगवान अजित नाथ की दीक्षा हुई। ३ मगसिर सुदी पन्द्रह ज्येष्ठा नक्षत्र में अपराह्न काल में श्री सम्भवनाथ का दीक्षा कल्याणक हुआ। ४ माघसुदी द्वादसी को पुनर्वसु नक्षत्र में पूर्वाह्न काल में अभिनन्दन नाथ की दीक्षा हुई। ५ पैशाख सुदी नवमी को मघा नक्षत्र में पूर्वान्ह काल में सुमति नाथ तीर्थंकर की दीक्षा हुई। ६ कार्तिक सुदी तेरह चित्रा नक्षत्र अपराह्न काल में पद्म प्रभु की दीक्षा हुई। ७ ज्येष्ठ सुदी द्वादसी पूर्वाह्न काल विशाखा नक्षत्र में सुपारचं नाथ की दीक्षा हुई। ८ पौष कृष्णा एकादशी अपराह्न काल अनुराधा नक्षत्र में चन्द्र प्रभु की दीक्षा हुई। ६ मगसिर सुदी एकम अपराह्न काल अनुराधा नक्षत्र में पुष्पदन्त भगवान की दीक्षा हुई। १० माघ सुदी द्वादशी को अपराह्न काल के समय पूर्वाषाढा नक्षत्र में शीतल नाथ की दीक्षा हुई । ११ फाल्गुन वदी एकादशी पूर्वाह्न काल श्रवण नक्षत्र में श्रेयांस नाथ की दीक्षा हुई। . १२ फाल्गुन सुदी चौदस अपराह्न काल में विशाखा नक्षत्र में एक उपवास पूर्वक वासुपूज्य भगवान की दीक्षा हुई । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) १३ माघ सुदी चौथ अपराह्न काल उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में विमलनाथ की दीक्षा हुई। १४ ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी अपराह्न काल में रेवती नक्षत्र में अनन्त नाथ की दीक्षा हुई। १५ भाद्र पद सुदी तेरह पुष्य नक्षत्र में अपराल काल में धर्म नाथ की दीक्षा हुई। . १६ ज्येष्ठ कृष्णा चौदस के दिन अपराह्न काल में भरणी नक्षत्र में शान्सिनाथ की दीक्षा हुई। १७ बैशाख सुश रकम इशिका न अपराह्न काल में कुन्थु नाथ भगवान की दीक्षा हुई। . १८ मगसिर सुदी दशमी अपराह्न काल में रेवती नक्षत्र में प्ररनाथ भगवान को दीक्षा हुई। १६ मगसिर सुदी एकादशी अपरान्ह काल में अश्विनी नक्षत्र में मल्लिनाथ की दीक्षा हुई। २० बैशाख सुदी दशमी अपरान्ह काल श्रवण नक्षत्र में मुनिसुव्रत भगवान की दीक्षा हुई। २१.प्राषाढ़ सुदी वशमी अपरान्ह काल अश्विनी नक्षत्र में नमिनाथ तीर्थकर की दीक्षा हुई।। २२ चैत्र सुदी षष्टी अपरान्ह काल श्रवण नक्षत्र में नेमिनाथ तीर्थकर की दीक्षा हुई। २३ पौष कृष्ण एकादशी पूर्वान्ह काल विशाखा नक्षत्र में पार्श्व नाथ तीर्थकर की दीक्षा हुई। २४ मगसिर सुदी दशमी अपरान्ह काल उत्तरा नक्षत्र में श्री वर्द्धमान की दीक्षा हुई। ___ इस प्रकार चौबोस तीर्थंकरों के दीक्षा का समय वर्णन किया । अब भागे जिस तीर्थकर के साथ में जितने राजकुमारों ने दीक्षा ली यह भी बतलाते हैं। वीक्षा समय के साथी वासु पूज्य भगवान के साथ ६७६ राजकुमारों ने दीक्षा ली थी। ... मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ तीर्थंकरों के साथ ३-३ सौ राजकुमारों ने दीक्षा ली थी। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर स्वामी ने अकेले ही दीक्षा ली थी। बाकी १६ तीर्थंकरों के दीक्षा लेते समय प्रत्येक के साथ एक-एक हजार राजाओं ने दीक्षा ली थी। जिस समय तीर्थंकर दीक्षा लेते हैं उस समय संसार में अपने से बड़ा अन्य व्यक्ति न होने के कारण स्वयं ही 'ऊं नमः सिद्धेभ्यः' कह कर दीक्षा लेते हैं। उन्हें तत्काल मन: पर्यय ज्ञान प्राप्त हो जाता है । दीक्षा कल्याणक के एक वर्ष बाद इक्षुरस' से भगवान् ऋषभदेव ने पारणा की । बाकी तीर्थंकरों ने दूध से चौथे दिन में पारणा की। समस्त तीर्थंकरों की पारणा के समय उत्कृष्ट १२ करोड़ ५० लाख तथा [कम से कम ] ५ लाख २५ हजार रत्नों की वृष्टि हुई । दाता के परिणाम के अनुसार ही रत्नों की वृष्टि कम अधिक होती है । इसके सिवाय सुगन्ध जल वृष्टि, पुष्प वृष्टि प्रादि पांच पाश्चर्य तीर्थंकर के भोजन करते समय होते हैं । तत्पश्चात् वे तपस्या करने वन पर्वत श्रादि एकान्त स्थान में चले जाते हैं अथवा मौनपूर्वक देश देशान्तरों में विहार करते रहते हैं । छद्मस्यकाल उसहावीसु वासा सहस्स वारस चउद्दसहरसा। वीस छदुमत्यकालो छच्चिय पउमप्पहे मासा ॥६७५ वासारिण राव सुपासे मासा चन्दप्पहम्मितिणि तदो। चदुतिदुबक्का तिदुइगि सोलस चउवगाचउकवी वासा ।६७६। मल्लिजिणे छद्दिवासा एक्कारस सुव्वदे जिणे मासा । गमिसाहे रणव मासा दिरणारिण छप्पण्ण एमिजिणे ।६७७। पासजिणे चउमासा वारस यासारिण वटुमाजिणे। एत्तिय मेते समये केवलगार उप्पण्णं । ६७८ । तिलोयपण्णति (च. प्र.) मुनि दीक्षा लेने के अनन्तर भगवान ऋषभनाथ आदि २४ तीर्थकर छद्मस्थ अवस्था [ केवल ज्ञान होने से पूर्व दशा ] में निम्नलिखित समय तक रहे-- अर्थ-भगवान ऋषभनाथ को मुनि दीक्षा लेने के अमन्तर १००० वर्ष तक केवल ज्ञान नहीं हुमा यानी तब तक वे छद्मस्थ रहे। अजितनाथ १२ वर्ष , संभवनाथ १४ वर्ष , अभिनन्दन नाथ १८ वर्ष, सुमतिनाथ २० वर्ष', पद्मप्रभ ६ मास, सुपार्श्वनाथ ६ वर्ष, 'चन्द्रप्रभ ३ मास, पुष्पदन्त ४ वर्ष, शीतलमाथ सि Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ वर्ष, श्रेयांसनाथ दो वर्ष, वासुपूज्य १ वर्ष, विमलनाथ ३ वर्ष, मनन्तनाथ २ वर्ष, धर्मनाथ १ वर्ष, शान्तिनाथ १३ वर्ष', कुन्थुनाथ १६ वर्ष', परनाथ १६ वर्ष, मल्लिनाथ ६ दिन, मुनि सुव्रतनाथ ११ मास, नमिनाथ ६ मास, नेमिनाथ ५६ दिन, पार्श्वनाथ ४ मास और महावीर १२ वर्ष तक छट्मस्थ अवस्था में रहे । इतने समय तक उनको केवल ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ। तीर्थंकरों को केवल ज्ञान होने को तिथि [१] फागुन सुदी एकादशी उत्तराषाढा नक्षत्र में प्रादिनाथ भगवान को केवल ज्ञान हुआ। [२] पीप सुदी एकादशी रोहिणी नक्षत्र में अजितनाथ भगवान को केवल ज्ञान हुआ। [३] कार्तिक वदी पंचमी मृगिसरा नक्षत्र में संभवनाथ भगवान को केरल ज्ञान हुआ। [ ध सुदी : ४ - नार में भिनन्दन भगवान को केवल शान हुआ। [५] वंशाख सुदी १० मघा नक्षत्र में सुमतिनाथ को केवल शान हुआ। [६] वैशाख सुदी १० चित्रा नक्षत्र में पदमप्रभु भगवान को केवल ज्ञान हुआ। [७] फागुन सुदी सप्तमी विशाखा नक्षत्र में सुपार्श्वनाथ को ज्ञान हुआ। [८] फागुन कृष्णा सप्तमी अनुराधा नक्षत्र में चन्द्र प्रभु भगवान को केवल ज्ञान हुआ। [६] कार्तिक सुदी तृतीया मूल नक्षत्र में सुविभनाथ [पुष्पदन्त] भगवान को केवल ज्ञाम हुआ। [१०] पौष सुदी १४ पूर्वा पाला नक्षत्र में शीतलनाथ भगवान को केवल ज्ञान हुआ। [११] माघ वदी अमावस्या श्रवण नक्षत्र में श्रेयांसनाथ भगवाम को केवल ज्ञान की उत्पत्ति हुई । [१२] माघ सुदी द्वितीया को विशाखा नक्षत्र में वासु पूज्य भगवान को केवल ज्ञान हुआ। [१३] माघ सुदी छट उत्तरा भाद्रपद में विमलनाथ भगवान को केवल ६.ान प्राप्त हुआ। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] चैत्र वदो प्रमावस्या के दिन रेवती नक्षत्र में अनन्त नाथ भगवान को केवल ज्ञान हुआ । [१५] पौष सुदी पूर्णिमा के दिन पुष्य नक्षत्र में धर्मनाथ भगवान को केवल ज्ञान हुआ। [१६] पौष शुक्ला दशमी के दिन भरणी नक्षत्र में शान्तिनाभ भगवान को केवल ज्ञान हुआ। . [१६] चत्र मास शुक्ल तृतीया को कृतिका नक्षत्र में कुघुनाथ भगवान को केवल ज्ञान हुआ। [१८] कार्तिक सुदी द्वादशी को रेवती नक्षत्र में अरनाथ भगवान को केवल ज्ञान हुआ। [१६] पौष मास कृष्णा द्वितीया को पुनर्वसु नक्षत्र में मल्लिनाथ भगवान को केवल शान हुआ। - [२०] वैशाख कृष्ण नवमी को श्रवण नक्षत्र में मुनि सुव्रत भगवान को केवल ज्ञान हुआ। - [२१] मगसिर सुदी एकादशी अश्विनी नक्षत्र में नमिनाथ भगवान को केवल ज्ञान हुआ। - [२२] आसोज सुदी प्रतिपदा चित्रा नक्षत्र में नेमिनाथ को केवल ज्ञान ................ .. हमा, [२३] चैत्र कृष्णा चतुर्थी विमाा नक्षत्र में पार्श्वनाथ भगवान को केवल ज्ञान हुआ। [२४] वैशाख सुदी दशमी को हस्त नक्षत्र में भगवान महावीर को केवल ज्ञान हुआ। प्रादिनाथ, श्रेयांसनाय, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, और पाश्र्वनाथ भगवान को पूर्वान्हकाल [दोपहर से पहले] में केवलज्ञान हुया। शेष १६ तीर्थंकरों को अपरान्हकाल (दोपहर पीछे) में चतुर्थ कल्याणक हुमा ।। नव लब्धि केवल ज्ञान के उदय होते ही अर्हन्त भगवान को ९ लब्धियाँ प्राप्त होती हैं-१ ज्ञानाबरण कर्म के क्षय होने से, क्षायिकज्ञान, दर्शनावरण के क्षय होने से क्षायिक दर्शन, मोहनीय के क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व, चारित्रमोहनीय के क्षय होने से सायिक चारित्र, दानान्तराय कर्म के क्षय होने से अगणित जीवों को निर्मल तत्वोपदेश रूप शानदान तथा अभयदान करने रूप क्षायिकदान, लाभान्तराय के क्षय से बिना कवलाहार Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ( ५६ ) [ भोजन ] किये भी शरीर को स्वस्थ रखने वाली अनुपम पुदुगलवर्न गाओं के प्राप्त होने रूप क्षायिक लाभ, भोगान्तराय के नष्ट हो जाने से देवों द्वारा पुष्प वृष्टि आदि क्षायिक भोग, उपभोगान्तराय के क्षय होने से दिव्य सिंहासन, लहू, रहर, मनवेश आदि के होने रूप क्षायिक उपभोग और बोयोन्तराय -के क्षय हो जाने से लोकालोक-प्रकाशक अनन्त ज्ञान को सहायक अनन्त बल प्रगट होता है। इसका क्षायिक ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य [बल ] ये लब्धियां केवल ज्ञानी अवस्था में होती हैं। श्राविर्भूत अनन्त ज्ञान दर्शन सुख वीर्यं सम्यक्त्व चारित्र दान लाभ भोग उपभोग आदि अनन्त गुणमय, स्फटिक मणिराम निर्मल, सूर्य बिम्ब सम देदीप्यमान परमोदारिक शरीर धारी, निरामय, निरञ्जन, निर्विकारः शुद्धस्वरूप, दोषकालातीत निष्कलंक सहन्त देव को नमस्कार है । भोगान्तराय के क्षय से अनंत भोग यानी पुष्प वृष्टि इत्यादि अनन्त भोग की प्राप्ति होती है । उपभोगान्तराय के क्षय से अनन्त भोग की प्राप्ति, सिंहासन, छत्रत्रय, चौसठचमर अष्ट प्रातिहार्य, परिकर समम्वित समवशरणविभूति और वीर्यान्तराय कर्म के नाश से अनन्त वीर्य, अनन्त सुख, अनंत श्रवगाहक, अनंत अवकाश, अव्या-वाधत्व इत्यादि गुण उत्पन्न होते हैं । इस · प्रकार भगवान् के परम आरहंत नाम का चौथा कल्यानक हुआ । - Home r आविभू तानन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, विरति क्षायिकसम्यक्त्व, दान, लाभ, भोगोपभोग श्रादि अनंत गुणात्वादि, हात्म सवात्कृत सिद्धस्वरूपः, स्फटिक मरिण के और सूर्य बिम्ब के समान देदीप्यमान जो शरीर परिमाए होकर भी ज्ञान से व्याप्त शुद्ध रूप स्वस्तिता शेष, प्रमेयत्व प्राप्त विश्वरूप, निर्गताशेष, मयत्वतो, निरामयः, विगत्ताशेष, पापांजन पुंजत्व रूप निरंजन दोषकलातीतत्वतो निष्कलंक: स्तेभ्यो नमः | इस प्रकार सयोग केवली गुण स्थान का सूक्ष्म किया प्रतिपाती नामक तृतीय शुक्ल ध्यान के बाद प्रयोग केवली गुणस्थान में पंच ह्रस्वस्वरोच्चारण प्रमाण काल में निराश्रव द्वार वाले समस्त शीलगुण मणिभूषण वाले होकर मूलोत्तर कर्मप्रकृति स्थित्यनुभाग प्रदेश दयोदोरण सब को व्युपरत किया निवर्तिनाम का चतुर्थ शुक्ल ध्यान से सम्पर कर्म को नाश करके सिद्धत्व को प्राप्त किया है । अब जिस दिन मोक्ष गये उस दिन को बताते हैं । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) मोक्ष कल्याणक केवल ज्ञान हो जाने पर भाव मन नहीं रहता अतः चित्त का एकाग्र रहने रूप ध्यान यद्यपि नहीं रहता किन्तु फिर भी कर्म निर्जरा की कारागभूत सूक्ष्म क्रिया केवल ज्ञानी के होती रहती है । वही सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती नामक तीसरा शुक्लध्यान है । केवल ज्ञानी की प्रायु मब अ, इ, उ, ऋ, लू, इन पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण काल के बराबर रह जाती है । तब उनकी शरीर वचन योग की क्रिया बन्द हो जाती है । यही बौदहवाँ प्रयोग केवली गुणस्थान है और इस तरह योगनिरोध से होने वाला शेष चार अघाती कर्मों [वेदनीय, प्रायु, नाम, गोत्र] का नाश कराने वाला व्युपरत क्रिया निवृत्ति नामक चौथा शुक्ल ध्यान होता है। पांच ह्रस्व [एक मात्रा वाले] अक्षरों के उच्चारण योग्य स्वल्प काल तक चौदहवें गुरणस्थान में रहने हो परनाद सापरत शे? लाई नष्ट होने से पूर्ण मुक्ति हो जाती है। तदनन्त र यह लोक के सबसे ऊंचे स्थान पर सदा के लिये विराजमान हो जाते हैं । उस समय उनका नाम सिद्ध हो जाता है। मोक्ष हो जाने पर देवगए पाकर महान उत्सव करते हैं वह मोक्ष कल्याणक है। अब तीर्थंकरों के मोक्ष कल्याणक की तिथियाँ बतलाते हैं - १ माघ कृष्णा चौदश के दिन पूर्वाग्रह समय उत्तराषाढ नक्षत्र में आदिनाथ भगवान १००० मुनियों के साथ मोक्ष गये। २ चैत्र सुदी पंचमी को पूर्वाण्ह काल में भरणी नक्षत्र में अजितनाथ तीर्थकर मोक्ष गये। ३ चैत्र सुदी छठ को अपरान्ह काल में मृगशिरा नक्षत्र में संभवनाथ सीर्थकर मोक्ष गये। ४ वंशाख सुदी सप्तमी को पूर्वाण्ह कालमें पुनर्वसु नक्षत्र में अभिनंदन नाथ का मोक्ष हुई। ५ चैत्र शुक्ला दशमी को अपराण्ड्काल में मघा नक्षत्र में सुमतिनाथ को मोक्ष हुई। ६ फागुन कृष्णा चौथ को अपराम्ह काल में चित्रा नक्षत्र में पद्म प्रभु को मोक्ष हुई। ७ फागुन वदी षष्ठी को पूर्वाहकाल में अनुराधा नक्षत्र में ५०० 'मुनियों के साथ सुपाश्र्वनाथ भगवान को मोक्ष हुई । ८ भाद्रपद सुदी सप्तमी को पूर्वाग्रहकाल में ज्येष्ठा नक्षत्र में चन्द्रप्रभु भगवान को मोक्ष हुई। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ प्रासोज सुदी अष्टमी को अपराण्ह काल में मूल नक्षत्र में सुमिति नाथ भगवान को मोक्ष हुई। १० कार्तिक सुदी पंचमी पूर्वाह समय में पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में शीतलनाथ भगवान मोक्ष गये। ११ श्रावण सुदी पूर्णिमा को पूर्वाह काल धनिष्ठा नक्षत्र में श्री श्रेयांसनाथ भगवान को मोक्ष हुई । १२ फाल्गुन वदी पंचमी को अपराहकाल अश्विनी नक्षत्र में ६०१ मुनियों के साथ वासुपूज्य भगवान को मोक्ष पद प्राप्त हुआ। १३ प्राषाढ़ सुदी अष्टमी को अपराह काल उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में ६०० मुनियों के साथ विमलनाथ मोक्ष पद को प्राप्त हुये। १४ चै कृष्णा अमावस्या को अपराह्न काल रेवती नक्षत्र में अनन्तनाथ भगवान ७०० मुनियों के साथ मोक्ष गये। १५ ज्येष्ठ वदी चतुर्दशी को पुष्य नक्षत्र पूर्वाह काल में ८०२ मुनियों के साथ धर्मनाथ भगवान् मोक्ष गये। १६ ज्येष्ठ वदी चौदश को अपराण्ह काल और भरणी नक्षत्र में शांतिनाथ तीर्थङ्कर ६०० मुनियों के साथ मोक्ष गये। १७ वैशाख सुदी प्रतिपदा को कृतिका नक्षत्र और अपराहकाल में १००० मुनियों के साथ कुन्थुनाथ भगवान् मोक्ष गये १८ चैत्रकृष्ण अमावस्या अपराह्न कालरेवती नक्षत्र में अरनाथ भगवान मोक्ष गये। १६ फाल्गुन वदी पंचमी को अपराहकाल में भरणी नक्षत्र में ५०० मुनियों के साथ मल्लिनाथ भगवान मोक्ष गये। २० फाल्गुन वदी द्वादशी को अपराह्न काल में श्रवण नक्षत्र में मुनिसुव्रत तीर्थकर ने मोक्षपद पाया । २१ वैशाख कृष्णा चौदस को पूर्वाह्नकाल और अश्विनी नक्षत्र में नमिनाथ तीर्थङ्कर ने मोक्ष पाई। २२ आषाढ वदी अष्टमी को अपराह्न काल चित्रा नक्षत्र में नेमिनाथ भगवान् ६३६ मुनियों के साथ मोक्ष गये । २३ श्रावण सुदी सप्तमी को अपराह्न काल विशाखा नक्षत्र में पायनाथ भगवान ३६ भुनियों के साथ मोक्ष गये ।। २४ कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी प्रातः समय के स्वाति नक्षत्र में भगवान महावीर ने मोक्ष पद प्राप्त किया। जिन तीर्थङ्करों के साथ मोक्ष जाने वाले मुनियों की संख्या नहीं लिखी उन सब के साथ एक एक हजार मुनि मोक्ष गये हैं। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा... .. सूत्रः— LC (६) घातिचतुष्टयाष्टादशदोषरहिताः ॥१०॥ अर्थ---ज्ञानावरण, दर्शनावरण. मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिया कर्म हैं । क्षुधा, तृष्णा, भय, द्वेष, राग, मोह, चिन्ता, वृद्धावस्था, रोग, मरण, स्वेद, खेद, मद, रति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद ऐसे १८ दोष हैं । इस प्रकार १८ दोष और ४ घातिया कर्मों से रहित केवली अर्हन्त होते हैं । -गाथा... सूत्र- कालवसादोजोखवाया य दुस्समय काले । अविनदुनेदाविय असूय कोतसयपायेण ॥ सत्तचरणहमदहं संजुत्तोसंगार उसहि । कलहपियारागितो कुरो कोहाणु घोलोहि ॥ नारयति रयदुधावरछाव बुभउजोए घाति उतियं । साहरणं चतिसट्टिपयडिरिंगमुक्कोजिरगो जयऊ ॥ हतपाभिरु रोसोरागो चिंताजरारुजामच्च । खेदसेदं मदोरह मोह जगुठभेग रित्पानोखिदा ।। समवशरणैकादश भ्रमयः ॥११॥ · अब आगे समवशरण में होने वाली ग्यारह भूमियां बताई जाती हैं । घरनिविडं द्वादश यो, जन विस्तृत मिन्द्रनीलमणिमय मतिरुतं । धनवकृतं नेलसिदुदु, घरणपथ दोळ समवशरण भूमिविभागं ॥ १२ ॥ वह समवशरण इस भूमंडल से ५००० धनुष ऊपर जाकर आकाश में सूर्य और तारागण के समान प्रतीत होता है। उसकी चारों दिशाओं में पादलैप औषधि के समान मरिमय २० हजार सीढ़ियों की रचना रहती है। वह समवशरण १२ योजन के विस्तार में होता है। जिसकी प्रांगन भूमि इन्द्र नीलमरिण निर्मित होती है । वह समवशरण अनुपम शोभा सहित होता है । जिसके अग्रभाग में प्रासाद चैत्य भूमि १, जलखातिका २, वल्लीवन ३, उपवन ४, ध्वजा माला कुवलय भूमि ५, कल्प वृक्ष भूमि ६ भवन सन्दोह (समूह) भूमि ७, Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) द्वादशगरण परिष्कृत पवित्रतर क्षेत्र प्रथम पीठ, द्वितीय पीठ १०, तथा सिंह विष्टरवाली तृतीय पीठ भूमि ११, इस प्रकार कुल ११ भूमियां उस समयशरण में होती हैं । उसमें सबसे पहले धुलिशाल कोट बना रहता है। जो कि पंचवर्ण रत्नों के चूर्ण से बना हुआ होता है। जिसके चारों भोर चार दरवाजे होते हैं। उन दरवाजों में से होकर जब भीतर आगे बढ़ें तो वहां मार्ग में सबसे पहले मानस्तम्भ आते हैं जो कि चारों दिशाओंों में चार होते हैं । हरेक मानस्तम्भ चारों श्रोर चार दरवाजों वाले ३ परकोटों से घिरा हुआ होता है । वह वहां ३ पीठिकामरान वेदी पर बना रहता है। उसके चारों और चार सरोवर बने रहते हैं । उन एक-एक सरोवर के प्रति ४२ कुण्ड होते हैं । उन मानस्तम्भों में मस्तक के ऊपर चारों दिशाओं में चार बिम्ब होते हैं, जिनका इन्द्रादिक देव निरन्तर अभिषेक किया करते हैं । उन मानस्तम्भों को देखकर दुरभिमानी मिथ्यादृष्टी लोगों का मान गलित हो जाता है । इसीलिये उनको मानस्तम्भ कहते हैं । उसके बाद प्रासाद चैत्यभूमि आती है। यहां पर एक चैत्यालय होता है, जो कि वापी, कूप, तड़ाग तथा वन खण्ड से मंडित पांच-पांच प्रासादों से युक्त होता है । यह सब रचना दो गव्यूति के विस्तार में होती है ॥ १ ॥ उसके आगे वेदी आती है, जो कि चांदी की बनी हुई होती है । श्रौर मरियों से बने हुये सोपानों की पंक्ती से युक्त होती है। जिसके चारों और चार द्वार सुवर के बने हुये रहते हैं। उन गोपुरों के ऊपर ज्योतिष्क देव द्वारपाल का काम करते हैं । उस वेदी के भीतर की ओर जब कुछ ग्रागे चलें तो जल की भरी हुई खातिका प्राती । वह खातिका नाना प्रकार की सुवर्णमय सीढ़ियों से युक्त होती है । उस खाई में कमल खिले हुये होते हैं और हंस चक्रवाकादिक जलचर जीव मधुर शब्द करते हुये किलोल करते रहते हैं । उसी में सुर, विद्याघर वगैरह भी जलक्रीड़ा करते रहते हैं । उस खाई के दोनों तटों पर नाना प्रकार के लता मंडप बने रहते हैं । वह खाई १ योजन के विस्तार में होती है । इसके आगे रजत की बनी हुई और मरियों से जड़ित ऐसी सोपान पंक्ति से युक्त १ सुवर्णमय वेदी प्राती है। जिसके चारों ओर चार दरवाजे होते हैं, जिनके ऊपर ज्योतिष्क देव द्वारपाल का काम करते हैं । इसके प्रागे १ योजन विस्तार में वल्ली वन आता है। जिसमें पुन्नाग, तिलक, बकुल, माधवी कमल इत्यादि नाना प्रकार की लतायें सुशोभित होती । उनलतानों के ऊपर गन्ध-लुब्ध भोरे मंडराते रहते हैं । उसी बल्ली वन में Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगन्धयुक्त फूल वाले लता मण्डप बने हुये होते हैं। जिन में सुर-मिथुन क्रीडा करते रहते हैं । इसके आगे सुवर्णमय परकोटा पाता है जो कि रजत और मरिणयों से बने हुये सोपानों से युक्त होता है । उसके चारों ओर चारों द्वारों पर यक्षकुमार द्वारपाल का काम करते हैं । फनाड़ी श्लोक.--- त्रिदश मिथुन प्रसंगदि । उदित महाराग विहंगकुल निस्थाद पु-।। रिदे से वशोक सप्त। च्छद चंपक चूतवनचतुष्टय मक्कु ॥१३॥ अशोक, सप्तच्छद, क तथा ग्राम ये वन होते हैं। इन वनों में इसो नाम वाला एक-एक चैत्य-वृक्ष भी होता है । जोकि चार दरवाजों वाले तीनतीन परकोटों से युक्त और ३ पीठ के ऊपर प्रतिष्ठापित होता है। जिसके मूल भाग में चारों दिशाओं में अर्हन्त भगवान के बिम्ब विराजमान होते हैं, जोकि पाठ प्रकार के प्रातिहार्यो से सुशोभित हुआ करते हैं। इन चैत्यवृक्षों के परिकर स्वरूप मन्दार, मेरु, पारिजात, ताल, हिन्ताल, तमाल, जम्बू, जम्बीर प्रादि नाना प्रकार के वृक्ष तथा कृत्रिम नदी क्रीड़ागिरि, लताभवन आदि आदि की रचना होती है । इन कृतगिरियों के ऊपर मन्द मन्द पवन से हिलती हुई ध्वजायें भी हैं । इसके आगे चलने पर दोनों भागों में ६२ नाट्यशालायें होती हैं, जोकि चन्द्रमा के समान सफ़ेद बर्ण तथा तीन तीन खंड वाली होती हैं। एक एक नाट्यशाला में बत्तीस बत्तीस नाटक स्थल होते हैं जिसके प्रत्येक स्थल में बत्तीस बत्तीस नर्तकियां नृत्य करती हुई भगवान का यश गान करती हैं। इन नाट्यशालाओं के समीप धूप-घट होते हैं। जिनमें से कालागर वगैरह धूप का धुआँ निकलकर दो कोस तक फैलता रहता है । यह उपवन भूमि एक योजन विस्तार में होती है। इसके आगे एक स्वर्ण वेदिका पाती है, जिसके चारों तरफ चार दरवाजे होते हैं । जोकि सुवर्ण और मरिगमय सोपानों से युक्त तथा यक्ष नामक द्वारपालों से संरक्षित होते हैं। इसके तीसरे भाग में आगे जाकर ध्वजस्थल पाता है। गजसिंह वृषभ गरुड़ा । म्युजमाला हंसचक्रशिखि वस्त्र मोह । ध्वजवु तत्परिवार । ध्वज ध्वजभूमियोळ् विराजिसुत्तिकुंम् ॥१४॥ गज, सिंह, वृषभ, गरुड़, अम्बुजमाला, हंस, चक्र, शिखि ( मयूर ), वस्त्र तथा ब्रीहि इन दस प्रकार के चिन्हों से चिन्हित Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D ( ६५ ) ध्वजायें होती हैं। चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में इन दस प्रकार की ध्वजाओं में से एक-एक प्रकार की ध्वजा एकसी प्राठ २ होती हैं । जो सुवर्ण के स्तम्भों में लगी हुई होती हैं और मन्द मन्द वायु से हिलती रहती हैं । उन ध्वजदंडों की ऊंचाई २५ धनुष और मोटाई ८८ अंगुल की होती है । इह के एक महाध्वजा के प्रति एकसौ आठ २ क्षुद्र ध्वजायें हुआ करती हैं । ये महाध्वजायें चारों दिशाओं की मिलकर कुल ४३२० होती हैं । और इनको क्षुद्र ध्वजायें ४६६५६० होती हैं | सब ध्वजायें मिलाकर ४७०८८० हो जाती हैं । इसके आगे एक स्वर्णमय परकोटा श्राता है। जिसके चारों ओर ४ दरवाजे होते हैं । जिनमें स्वर्ण और मणियों से बनी हुई सीढ़ियाँ लगी रहती हैं । वहाँ पर नागेन्द्र नामक देव द्वारपाल का कार्य करते हैं । कानडी श्लोक: देवोत्तर कुरुगळकल्पावनिजातंगळे ल्लमिदलन्तदक । स्पायनिज के इल्लेने, देवरकल्पावनीतलंसोगमिगु ॥१५॥ उसके प्रागे कल्प वृक्षों का वन आता है । उन वनों में कल्पनातीत शोभा वाले दस प्रकार के कल्प वृक्ष होते हैं जोकि नाना प्रकार की लता वल्लियों से वेष्टित रहते हैं । उसमें कहीं कमल होते हैं, कहीं कुमुद खिले हुये होते हैं, जहाँ देव विद्याधर मनुष्य क्रीड़ा किया करते हैं, ऐसी कीड़ा - शालायें होती हैं । इस कल्प-वृक्षों संतानक, और तीन कोटों से युक्त चारों दिशाओं में कहीं पर उत्तम जल से भरी हुई वापिकाय होती हैं। के वन में पूर्वादिक चारों दिशाओं में क्रम से नमेरु, मन्दार, पारिजात नामक चार सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं । ये वृक्ष भो श्री लोन मेखलाओं से मुक्त होते हैं । जिनके मूल भाग में चार प्रतिमायें होती हैं। जोकि बन्दना करने मात्र से भव्यों के पापों को नष्ट कर देती हैं । इन सिद्धार्थं वृक्षों के समीप में ही नाट्यशाला, खूप कुंभादि सर्वं महिमा पूर्वोक्त कथनानुसार होती है। यह कल्पवन एक योजन विस्तार में होता है। अब इसके आगे एक स्वर्णमय वेदी बनी हुई होती है । यह भी पूर्वोक्क प्रकार चारों ओर चार दरवाजों से युक्त होती है। इसके आगे भीतर की ओर भवन भूमि प्राती है । जहाँ पर सुरमिथुन गोत नृत्य जिनाभिषेक, जिन स्तवन वगेरह करते हुए प्रसन्नता पूर्वक रहते हैं । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र: ( ६६ ) द्वादश गराः ॥ १२ ॥ इसके आगे इन्द्र नील मणिमय सोपानों से युक्त एक स्फटिकमय कोट आता है उसके भी चारों ओर चार दरवाजे होते हैं। वहाँ कालीदेव द्वारपाल का काम करते हैं, जिसके अन्दर की ओर जाकर स्फटिक मणिमय सोलह भिसियों से विभाजित चारों दिशाओं में १२ कोठे होते हैं । जिनमें ये बारह गए होते हैं । सबसे पहले सर्वज्ञ वीतराग भगवान के दायीं ओर अपने कर कमलों को जोड़कर गणधर देव, पूर्वधारी, विक्रिया ऋद्धिधारी, अवधिज्ञानी मनः पर्ययज्ञानी, वादी मुनि, शिष्य मुनि ऐसे सात प्रकार के ऋषियों का समूह होता है । वहाँ से प्रागे कल्पवासिनी देवियां रहती हैं । 1 उसके आगे आर्यिका व श्राविका समूह होता है। इसके आगे वीथी है । उसके आगे ज्योतिषी देवियाँ होती हैं । उसके आगे व्यन्तरी देवियाँ होती हैं । उसके आगे भवन वासिनो देवियाँ होती हैं। तत्पश्चात् दूसरी बीथी आ जाती है । उसके आगे व्यन्तरदेय, ज्योतिष्क देव, भवन वामी देव होते है । तदनन्तर तीसरी वीथी आ जाती है। इसके बाद कल्पवासी देव होते हैं । इसके बाद चक्रवर्ती, मुकुट-वद्ध मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, भूवर, खेचर इत्यादि सभी तरह के मनुष्य होते हैं। उसके ग्रागे सिंह, व्याघ्र, सर्प सरिसृप, हाथी, घोड़े, महिष मेष, मुसा, बिलाव, विविध भाँति के पक्षी ऐसे तिर्यञ्च योनि के जीव परस्पर विरोध से रहित उपशान्त भाव से मिलकर एक हो स्थान में रहते हैं । इसके बाद चौथी बोथी श्रा जाती है। यह एक कोश के विस्तार में प्रदक्षिणारूप गरम भूमि होती है । श्लोक -- कल्पवनितार्या, ज्योतिर्वन भवनबुवति भुववनजा । ज्योतिष्क कल्पदेवा नरतियंचो वसन्ति वेष्टनुपूर्वम् ||२|| इसका अर्थ ऊपर दिया है । उसके आगे इन्द्र नील मरिणमय सोपान से सुशोभित वैमानिक देव, द्वारपाल के द्वारा विराजित चार प्रकार के गोपुर सहित स्फटिकमय वेदिका शोभायमान है । वह इस प्रकार हैं । श्लोक कानड़ी में: अनुपमबैडूर्य, कनककन शत्सर्वरल मप्पें । धनुगळुनाकु क्रमविं, दनाल्कुमुत्सेधमध्य पीठ त्रपदोऴ् ।। १७ ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) वहां से आगे चारों दिशाओं में धर्मचक्र को धारण किये हुये यक्षेन्द्र के द्वारा अनेक प्रकार के प्रष्ट द्रव्यों से पूजनीय तथा अत्यंत मनोहर देवों के साथ पूजनीय ७५० धनुष विस्तार वाला अर्थात् विष्कम्भ वाला भगवान का प्रथम पाठ है। उसके ऊपर अनेक प्रकार की ध्वजानों तथा अर्चनाओं से अलंकृत पूर्व सिंहासन के समान अर्थात् पूर्व पीठ के समान अत्यन्त विस्तार वाला द्वितीय पीठ है। उसके ऊपर १००० धनुष विस्तार वाला सूर्य विम्ब के किरण के समान मूल से लेकर ६०० दंड चौड़ाई और १०० धनुष ऊंचाई वाली गंध कुटी है । परमात्मा के चरम शरीर के अंतरंग युक्त सुगंध परम सुशोभित त्रिभुवननाथ भगवान का नोट है। आगे भगवान के पाठ महा प्रातिहार्य का वर्णन करते है-- सूत्र:-- अष्ट महाप्रातिहार्याणि ॥१३॥ श्लोक कनाड़ी श्रीमदशोक मुषकोंडे , पूमळेपर भाषे विष्टिरं यमरीज । भामंडलंत्रिलोक, स्वामित्वद लांछनं गरणानकसहितं ॥१७॥ अर्थात् भगवान के पीछे अशोक वृक्ष, ऊपर तीन छत्र, पुष्प वृष्टि, सात सौ अठारह भाषा, चमर, भामंडल, सिंहासन दुन्दुभि आठ प्रातिहार्य हैं। अठारह महाभाषायें गाथा-- प्रवरसमाभासा खुल्लयभासाय सयाई सत्त तहा । अक्खरमणक्वरप्पय सएगीजीवारण सयलभासाओ ॥३८।। एदासु भासासू तालुवदंतोळकंठवावारे। परिहरिय एक्ककालं भबजणे दिव्यभासित्त ॥३६। . पगदीए अक्खलियो संझसिदयम्मि एवमुहसारिण । रिपस्सरदि णिरुवमाणो दिव्वझुणी जाव जोयणमं ॥४०॥ प्रवसेसकालसमये गणहरदेविदचक्कवट्टीयं । पण्हाणरूवमत्थं दिवझणी न सत्तभंगीहि ॥४१॥ सिय अस्थि रणस्थि उभयं अब्बेतव्यं पुणेवि तत्तिदियं । दबबम्हि सत्तभंगी प्रादेसवसेए संभवादि ॥४२॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खव्व पंच अत्थी सत्तवि तच्चाय एवपयत्थाय । रायशिक्खेवपमारणं दिव्वझणी भण्इ भव्बारणं ॥४३॥ जिगवंदणा पयट्ठा पल्लासंखेज्ज भागपरिमाणं । चित तिविविह जीवा इक्केके समवसरणेसु ॥४४॥ अर्थ-अठारह महाभाषा, सात सौ छोटी भाषा तथा संशी जीवों को और भी अक्षरात्मक (अक्षरों से लिखने योग्य), अनक्षरात्मक भाषाएं हैं उन सभी भाषाओं में तालु, दांत, मोठ, कण्ठ को बिना हिलाये चलाये भगवान की कारणी भव्य जीवों के लिये प्रगट होती है । भगवान की वह दिव्य ध्वनि स्वभाव से (तीर्थकर प्रकृति के उदय से बचन योग से, बिना इच्छा के) असवलित (स्पष्ट) अनुपम तीनों सन्ध्या कालों में है मुहर्त तम निकलती है और १ योजन तक जाती है। शेष समय में गणधर, इन्द्र तथा चक्रवर्ती के प्रश्न करने पर भी दिव्य ध्वनि सात भंगमय खिरती है । __ स्यात्, अस्ति, स्यात् नास्त्,ि स्यात् अस्ति नास्ति, स्यात् प्रवक्तव्य, स्यात् अस्ति प्रवक्तव्य, स्यात् नास्ति प्रवक्तव्य और स्यात् आस्ति नास्ति अबक्तव्य' ये सात भंगी पदार्थों में आदेश (जिज्ञासा) के वश से होती हैं। छह द्रध्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्व, नौ पदार्थ, प्रमाण, नय, निक्षेप्प प्रादि भविष्य भगवान की दिव्य ध्वनि भव्य जीवों को प्रतिपादन करतो है। जिनेन्द्र भगवान की बन्दना के लिये समवशरण में आये हुए अनेक प्रकार के जीव पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं । समवशरण के प्राकार वेदिका और तोरण की ऊंचाई भगवान के शरीर से चार गुणी होती है। (कनड़ी छंद) मिलिर्व पताके इनेसेघव, ट्टले इन्देशमानमप्प विस्तृत वेदी । कुल मसमानं विस्तृत, विलसत् प्राकारमुनिरंतर मेसेगुं ॥१८॥ अर्थात् मानस्तंभ, प्रासाद, चैत्यालय, चैत्यवृक्ष, ध्वज दंड, गोपुरद्वार, कृतगिरि, नवस्तुप और लक्ष्मी मंडप ये सभी १२ गण देह के प्रमाण हैं । और भीतर तथा बाहर के सम्पूर्ण, गोपुरों में नव निधि से शोभित उचित अष्ट, मंगल द्रव्य वगैरह प्रत्येक १०० होते हैं। नैसर्प, पिंगल, भाजुर, मारणपक, संद, पांडुक, कालश्री, बरतत्व, तथा तेजोद्भासि महाकाल ये नव निधियाँ हैं। अष्ट मंगल द्रव्य गाथा--- - अर्थ-तीन छत्र, चमर, दर्पण, भृगार, पंखा, पुष्प माला व्रतकलश, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) स्वस्तिक (साथिया) झारी ये आठ मंगल द्रव्य हैं । और धूलि प्राकार के बाहरी तरफ १०० मरकत मणि के बंदन वार ( तोरण ) लाइन से प्रागे सौ सौ होती है । और उमका विस्तार गव्यूति प्रमाण होता है । वीथी (गली) में धूलि प्राकाररों से गंधर्व व्यंतर देवों की वेदिका तथा स्फटिकमय दीवाल है। इस प्रकार विविध भाँति के अतिशयों से युक्त समवशरण में--- श्लोक-- तत्रच मर्जत्युन्म च विद्वेषो नैव मम्मथोन्मावः। रोगान्तक बुभुक्षा पीडाच न विद्यते काचित् ॥ अर्थ-जन्म, मरण, कोप, कामोद्क, रोग, व्यसन, निद्रा, भूख, प्यास इत्यादि पीड़ा जीवों को नहीं होती। और अभव्य तथा असैनी जीव समवशरण में कभी नहीं जाते । मिथ्या--दृष्टि जीवों को समवशरण में प्रवेश करते ही सम्यग्दर्शन हो जाता है । गूगा समवशरण में जाते ही बोलने लगता है, अंधा देखने लगता है, बहरा समवशरण में जाकर सुनने लगता है। लूले लंगड़े समवशरण में जाते ही ठीक तरह से चलने लगते हैं। पागलों का पागलपन वहां जाकर दूर हो जाता है, कोढ़ी जैसे महारोगी का शरीर समवशरण में प्रवेश करते ही निरोग होकर सुन्दर बन जाता है। विष वाले प्राणी समवशरण में जाते ही निर्विष हो जाते हैं। व्याधि-पीड़ित जन समवशरण में जाते ही सर्व व्याधियों से मुक्त हो जाते हैं। अग ( घाव-जख्म ) वाले लोग यहाँ जाकर प्रण से रहित हो जाते हैं । आपस के विरोधी जीव समवलरण में जाते ही मित्र के समान हो जाते हैं, जिन जीवों का आपस में विरोध होता है और सदा लड़ते झगड़ते हैं चे यदि समवशरण में पहुंच जाये तो उसी समय विरोध छोड़ कर मित्र बन जाते हैं। सिंह, और हाथी, बिल्ली और चूहा, मेंढक, और सर्प इत्यादि जाति-विरोधी जीव भी अपने अपने वैर को छोड़ कर आपस में बच्चों के समान प्रेम करने लगते है। और पुन:--- श्लोक कानड़ी में । . नुत धर्म कथन मल्लदे हितकर संदर्म कार्यमल्लदे विपुलो। न्नत धर्म चिन्तेयल्लदे शतविवुधधपन सभेयोमिल्लुळ धेनु । अर्थ-भगवान के समवशरण में जितने भी जीव बैठे होते हैं ये अपने सम्पूर्ण विकारों से रहित होकर सद्धर्म कथाओं को सदा चिन्तवन करते रहते हैं। सौ इन्द्रों से बन्दनीय त्रिभुवन नाथ भगवान के समवशरण में धर्म कथा या उत्तम ..धर्म कार्य के सिवाय अन्य कोई कार्य नहीं होता। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) श्लोक कानड़ी मेंचित्रातपत्रवि पत्र बनस्थाळियमिलिसे गगन देसेयं । चित्रसे तिरीट किरणं, दानिशत् विवशपतिगळंतेळतंदर ॥२०॥ यणगन्धाक्षत्कुसुम्दि एनुमचरुदीपधपफलसंकुल दि ॥२१॥ जिनपतिपूजोत्सवकर मादि ब्वात्रिंशतदिन्द्र रन्तकतवर ॥२२॥ उपर्युक्त समवशरण की विभूति भगवान के उपभोगान्तराय कर्म के क्षय से होती है। ऐसे जिनदेव की आराधना भव्य जीवों को सदा करते रहना चाहिए। सूत्र अनंत चतुष्टयमिति ॥१४॥ अर्थ-अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य ये अनंत चतुष्टय हैं। १ जिस ज्ञान का अन्त नहीं है उसे अनंत ज्ञान कहते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान व्यवहार नय से लोकालोक को प्रत्यक्ष रूप से जानता है और निश्चय नय से अपने शुद्धात्म स्वरूप को जानता है। २ जिस दर्शन का अंत नहीं है या विनाश नहीं है और जो व्यवहार नय से लोकालोक को प्रत्यक्ष रूप से देखता है तथा जो निश्चय नय से शुद्ध स्वरूप को देखता है वह अनंत दर्शन है। ३ जिस सुख का अंत नहीं है वह अनंत सुख या अतीन्द्रिय सुख है। ४ जिस वीर्य का नाश नहीं है वह अनंत वीर्य है । वही अनंत सबल और वहीं अनंत शक्ति है । उपर्युक्त अनन्त चतुष्टयों के धारक चौबीस तीर्थंकर परम देवों ने अपने शेप सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट करके अनंत गुण परिपूर्ण शुद्धात्म भावना के फल को प्राप्त किया तथा ऐसे सिद्ध-साध्य, बुद्ध बोध, कृत कृत्य, इत्यादि विशेषणों से मुक्त उन सिद्ध परमेष्ठियों को मैं नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार कहा हुआ भी है कि-- ____ शुद्ध चतन्यपिडाय सिद्धाय सुखसंपदे । धिमलागमासाध्याय नमोस्तु परमेष्ठिने ॥ इस प्रकार नव सूत्रों के द्वारा तीर्थकर की विभूति का वर्णन किया गया। अब आगे पांच सूत्रों के द्वारा चक्रवर्ती की विभूति का वर्णन करते हैं। द्वादश चक्रयतिन :- ॥१५॥ १ श्रीसेन, २ पुंडरीक, ३ वचनाभि, ४ वजदत्त, ५ घनघोष, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ चारुदत्त, ७ श्रीदत्त, ८ सुवर्णभद्र, ६ सूवल्लभ, १० गुणपाल, ११ धर्मसैन, १२, कीर्तिघोष, ये अतीत काल के १२ चक्रवर्ती हैं। १ भरत, २ सगर, ३ मधवा, ४ सनत्कुमार, ५ शांति, ३ कुथु, ७ परह, ८ सुभौम, ६ महापद्म, १० हरिसेन, ११ जय सेन, १२ ब्रह्मदत, ये बारह चक्रवर्ती वर्तमान काल के हैं। १ भरत, २ दीर्घदन्त, ३ मुक्तदन्त, ४ गूढदन्त, ५ श्री सेन, ६ श्री भूति, ७ श्री कान्त, ८ पप, ६ महापद्म १० चित्र वाहन ११ विमल वाहन, और १२ अरिष्टसेन ये भावी काल के चक्रवर्ती हैं। १ वर्तमान काल के चक्रवतियों में भरत ५०० धनुष ऊंचे शरीर वाले और ५४००००० पूर्व वर्ष आयु वाले थे। २ समर चक्रवर्ती का शरीर ४५० धनुष प्रमाण और ७२०८००० पूर्ष वर्ष आयु थी। ३ मघवा चक्रवर्ती का शरीर साड़े बयालिस धनुष प्रमाण और ५००००० वर्ष आयु थी। ४ सनतकुमार चक्रवती का शरीर ४२ धनुष प्रमाण और ३००००० वर्ष आयु थी। ५ शान्तिनाथ चक्रवर्ती का शरीर ४० घनुष प्रमारण और १००००० वर्ष आयु थी। ६ कुथुनाथ चक्रवर्ती का शरीर ३५ धनुष प्रमाण और ६५००० वर्ष प्रमाण वायु थी। ७ अरह चक्रवर्ती का शरीर ३० धनुष और ८४००० वर्ष प्रमाण प्रायु थी। ८ सुभौम चक्रवर्ती का शरीर २८ धनुष प्रमाण और ६०००० वर्ष प्रमाण प्रायु थी। ६ महापद्म चक्रवर्ती का शरीर २२ धनुष और ३०००० वर्ष प्रमारण आयु थी। १० हरिषेण चक्रवर्ती का शरीर २० धनुष और १०००० वर्ष प्रमाण भायु थी। ११ जयसेन चक्रवर्ती का शरीर १५ धनुष प्रमाण और ३००० वर्ष आयु थी। १२ ब्रह्ममदत्त चक्रवर्ती का शरीर ७ धनुष प्रमाण और ७०० वर्ष पायु यो। . ... -- - -- - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . इन सभी चक्रवतियों का शरीर स्वर्णमय था। सूत्र सप्तांगालि तर राजा, ग्रामाधिपति, जनपद, दुर्ग, भंडार, षडंगवल तथा मित्र, ऐसे चक्रवर्ती के सात अंग होते हैं। षडंग बल ये हैं..--चक्रवल, ८४००.०० भद्र हाथी, उतने ही रथ, १८ करोड़ उत्तम नस्ल के घोड़े, ८४ करोड़ वीर भट, अनेक देव बल, अनेक विद्याधर इस प्रकार षडंग बल होता हैं। सूत्र--- चतुर्दश रत्नानि ॥१७॥ चक्र, छत्र, असि, दंड, मरिण, काकनी और चमं ये सात रत्न अचेतन हैं। गृहपति, सेनापति, गजपति, अश्व, स्थपति, पुरोहित तथा स्त्री रल, ये सात चेतन रत्न हैं । इस प्रकार इन चौदह रत्नों को महा रत्न कहते हैं । और इनकी एक-एक हजार यक्ष रक्षा करते हैं। अब आगे उनकी शक्ति को बतलाते हैं। चक्रवर्ती के प्रति यदि कोई प्रतिकूल हो जाता है तो उसका सिर चक्ररल के द्वारा उसी समय हाथ में आ जाता है । सम्पूर्ण धूप, वर्षा, धूलि, अोले, तथा वनादि की बाधा को दूर करने के लिये छत्र रत्न होता है । ३-चक्रवर्ती के चित्त को प्रसन्न करने वाला असि रत्न होता है । ४-०४८ कोस प्रमाण समस्त सेना को भूमि के समतल करने वाला दह रत्न होता है। ५ जो इच्छा हो उसे पूरा करने वाला मरिण रत्न होता है । ६ जहाँ अंधेरा पड़ा हो वहाँ चन्द्र सूर्य के प्राकार को प्राप्त कर प्रकाय करने वाला काकिनी रत्न होता है। ७ नदी नद के ऊपर कटक को पार करने के लिये चर्म रत्न होता है। ८ राज भवन की समस्त व्यवस्था करने के लिए गृहपति रत्न होता है । प्रायं खंड के अतिरिक्त पांच म्लेच्छ खंडों को जीतने वाला सेनापति • रत्न होता है। १० चक्री के जितने भी हाथी हैं उनको जीतकर हस्तगत करने वाला सबसे मुख्य हाथी गज रत्न होता है। ११ तिमिश्रगुफा के कपाट स्फोटन समय में जब उसमें से ज्बाला । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकलती है तब चक्रवर्ती को तुरन्त ही बारह योजन उछालकर दूर ले जाने बाला अश्व रस्न है। . १२ चक्रवर्ती की इच्छानुसार प्रासाद आदि को बनाकर तदनुकूल सहायता करने वाला स्थपति रत्न होता है। १३ चक्रवर्ती के अन्तःपुर में जो ९६००० स्त्रियाँ होती हैं वे सभी अपने-अपने मन में यह मानती रहें कि शाम से लेकर सुबह तक चश्वर्ती महाराज तो मेरे पास रहे, इस प्रकार की अद्भुत् विक्रिया शक्ति के धारक चक्रवर्ती की कामवासना को शान्त कर देने वाला स्त्री रत्न होता है । १४ सम्पूर्ण कटक सैन्य को धर्म कर्मानुष्ठान से चलाने वाला पुरोहित रत्न होता है । चक्रवर्ती के साढ़े तीन करोड़ बंधुवर्ग और संख्यात सहस्र पुत्र, पुत्रियाँ, ३६१ शारीरिक वैद्य तथा ३६१ रसोश्या होते हैं । और एक एक रसोइया ३६० दिन तक ढाई द्वीप में रहने वाली दिव्यौषधि को अन्नपानादि में गिलाकर ग्रास बनाता है। फिर ३२ ग्रासों में से केवल एक ग्रास निकालकर ४८ योजन प्रमाण में रहने वाली समस्त सेना को खाने को देता है और उसे खाकर पानी पीते ही जब सभी को अजीर्ण हो जाता है तब बह ग्रास चक्रवर्ती के खाने योग्य परिपक्व होता है। ऐसे ३२ ग्रासों को चक्रवर्ती प्रतिदिन पचाने वाला होता है। - उन प्रासों में से स्त्री रत्न, गजरत्न, अश्वररन, केवल एक एक ग्रास को पचा सकते हैं। अब चक्रवर्ती की इन्द्रियों की शक्ति को बतलाते है। १२ योजन की दूरी पर यदि कोई भी वस्तु गिर जाये तो उसकी आवाज चक्रवर्ती कर्ण द्वारा सुन सकते हैं । ४७२६३ साधिक योजन तक के विषय को देखता है । प्राण और स्पर्शन इन्द्रिय से ६० योजन जानता और सूघता है। ३२ चमर २४ शंख, उतनी ही, भेरी पटह, यानी १२ मेरी और १२ पट होते हैं। इन सम्पूर्ण की द्वादश योजन तक ध्वनि जाती है । इनके साथ १६००० मगपति ( मंग रक्षक) देव होते हैं। ३२००० मुकुट-वद्ध, इतनी ही नाट्य शाला, उतनी ही संगीत शाला, उतने ही देश, वृत वृतान्त तक आदि होते हैं । ६६ करोड़ ग्राम, चार द्वार वाले प्राकार वाले ७५ हजार नगर, नदी वेष्ठित १६ हजार गांव, पर्वत वेष्ठित २४ हजार खर्वड, प्रत्येक ग्राम के लिए ५०० मुख्य, ४०० मडंव, रत्न योगी नाम के ४८ हजार पट्टन (नगर) हैं । समुद्र और खातिका से घिरा हुमा ६६ हजार द्रोण मुख नगर होते हैं । १६ हजार वाहन हैं । चारों . ओर से घिरे हुए हैं २८ हजार किले होते हैं । अन्तर द्वीप ५६ हैं। ६०० प्रत्यन्तर . हैं । ७०० प्रत्यंतर कुक्षि निवास अटवी हैं । ८०० कषा है। ३ करोड़ गाय Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (e) हैं। १ करोड़ स्थान हैं। १ लाख करोड़ भैसे हैं । १० हजार म्लेच्छ राजानी के द्वारा चक्रवर्ती सुशोभित होता है । सत्र नव निधयः ॥१८॥ प्रत्येक एक एक हजार यक्ष देवों से राशि नौनिधियां होती हैं। १-तीनों ऋतुओं के योग्य द्रव्य को देनी वाली काल निधि है । २ नाना प्रकार के भोजन विशेषता को देने वाली महाकाल निधि होती है। ३ प्रत्येक गोधूमादि सम्पूर्ण धान्य को देने वाली पाण्डु निधि है । ४ असि, मूसल, इत्यादि नाना आयुध को देने वाली माणवक निधि है। ५ तत, वितत, धन, सूशिर भेद बालेवादित्रों को देने वाली शंख निधि है। ६ अनेक प्रकार के महल मकान आदि को देने वाली नैसर्प निधि है । ७ स्वर्गीय वस्त्रों की स्पर्धा करने वाले बेशकीमती वस्त्र को देने वाली पद्म निधि है। ८ स्त्री पुरुषों को उनके योग्य आभरण देने वाली पिंगल निधि है। ६ वन, बंडूर्य, मरकत मानिक्य, पद्म राग, पुप्प राग आदि को देने वाली सर्वरल निधि है। इन निधियों में से चक्रवर्ती की प्राज्ञानसार चाहे जितनी भी चीज निकाल ली जाय तो भी अटूट रहती हैं। सूत्र-- __ दशांगभोगानि ॥१६॥ दिव्य नगर, दिव्य भोजन, दिव्य भोजन, दिव्य शयन, दिव्य नाट्य, दिव्य प्रासन, दिव्य रत्न, दिव्य निधि, दिव्य सेना, दिव्य वाहन ऐसे दशांग भोग चक्रवर्ती की विभूतियां हैं। मागे नव बलदेव का वर्णन करने के लिए सूत्र कहते हैं । नव बलवेवाः ॥२०॥ यह नव बलदेव इस प्रकार हैं । १ श्री कान्त, ३ शान्त चित्त, ३ वर बुद्धि, ४ मनोरथ, ५ दयामूर्ति, ६ विपुल कीर्ति ७ प्रभाकर, ८ संजयंत, ६ जयंत, ये अतीत काल के बलदेव है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · (**) रथ, विजय, अचल, सुधर्म, सुत्रम, सुदर्शन, नंदिमित्र, राम, पद्म यह वर्तमान काल के बलदेव हैं । गाया सगसिदि दुसुद सूरां, संगति सस्सतर सभा लहि । सह पट्टितिस संतरसहस चारसय माहू थले । श्रर्थ - विजय की ८७ लाख, अचल की ७७ लाख, सुषमं को ६७ लाख, सुप्रभ की ३७ लाख, सुदर्शन की १७ लाख, नंदिमित्र को ३७ हजार, राम की १२ हजार पद्म की १२ हजार वर्ष आयु है । सूत्र - वासुदेव प्रतिवासुदेवनारदाश्चेति ॥२१॥ काकुस्थ, बरभद्र, समुद्र, संसृष्ट, वरवीर, शंत्रुजय, दमितारि, प्रिय दर्शन और विमल वाहन यह अतीत काल के नव वासुदेव है । निसुभ, विद्यतप्रभ धरणीशिख, मनोवेग, चित्रवेग, दृढरथ, वज्रजंघ विद्यदंग, प्रहलाद ऐसे प्रतीति काल के प्रति वासुदेव हैं । त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषवर, पुडरीक, दत्तनारायण, कृष्ण यह वर्तमान काल के वासुदेव हैं । अश्वनीव, तारक, मेरक, निसुंरंभ, मधुकैटभ, बली, प्रहरण, राबण, जरासंध यह वर्तमान काल के नव प्रतिवासुदेव हैं । प्रति नारायण नंदि नंदी मित्र, नन्दन, नंदिभूति, बल, महावल, अतिबल, त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ यह भावी काल के नव वासदेव है । नारायण भविष्यत् १ - श्री कंठ, २ - हरिकंठ, ३-नीलकंठ, ४- अश्व कंठ, ५- सुकंठ, ६ - शिखिकंठ, ७-प्रश्वग्रीव, ८--हयग्रीव, ६- मधुर ग्रीव, ये भावी काल के नव प्रतिदासुदेव हैं । भविष्यत् (१) भीम (२) महा भीम (३) २ (४) महारुद्र (५) काल ( ६ ) महाकाल (७) दुर्मुख ( 5 ) नरकमुख (६) अधोमुख ये नव नारद वर्तमान काल के हैं। अब उनकी प्रायु बताते हैं । गाथा शेयादिपनस्वहरि पन छट्टरदुगविरहमति दुगनचके बट्टाट्टमसू विहग बिरहिनेमि काल जोक्यन्नोह ॥ समय चुलसिदिवितरि सट्ठितिस दशलक्खपण सठि । बतीसौ खोरेकं सहस माउस्स मध्य चक्कीमस् ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ६ ) अर्थ-५४ लाख, ७२ लाख, ६० लाख, ३० लाख, १० लाख, ६५ हजार, ३२ हजार १२ हजार और १०००वर्ष अर्थ चक्रवर्ती की आयु क्रमशः होती है । अब इनकी उत्सेध [चाई] को कहते हैं। गाथा सीटीसत्तरिसठी पणापपताल ऊातीसारिंग । वावोससोलवसघणु केसित्तिवयामि उच्छेहो ॥४७॥ अर्थ-८०, ७०, ६०, ५०, ४५, २६, २२, १६, १० धनुष नारायण के शरीरों की क्रमशः ऊंचाई है। गाथा एवे नव पडिसतूररावारण हत्थेहि वासुदेवारणं रिणय चक्केहि रोस सभाहदा नतिरिणरय खिदि ।।४।। अवंगा वासुदेवायुनिनिदाना भवान्तरे। प्रयोगाश्च विदुर्वासुकेशवाः प्रतिशत्रवः ॥ पढमे सत्तमिवणे, परगछट्टिमपच्च विगवो दत्तो। नारायणो चउत्थि कसिनो तवियग्गव अपापा । अर्थ----ये प्रतिनारायण युद्ध में नारायण के द्वारा चक्र से मारे जाते हैं और नरक को जाते हैं ॥४८॥ अर्थ-बलदेवों में पाठ मोक्षगामी हैं । अन्त के बलदेव ब्रह्मकल्प से पाकर कृष्ण जन्न भावो तीर्थकर होंगे उनके वहां समवशरण में प्रमुख गणधर होंगे । तदनन्तर मोक्ष जावेंगे । नारायण प्रतिनारायण नरक जाते हैं ॥४६॥ अर्थ--पहला नारायण सातवें नरक में, ५ नारायण छटे नरक में, एक पांचवें में, एक चौथे नरक में और प्रतिम नारायण तीसरे नरक में गया है। प्रतिनारायण भी इसी प्रकार नरक गये हैं ॥५०11 . . गाथा- कलहप्पिया कदापि धम्मररावासुदेवसमकाला भम्भारिणरयगदे हिसादेसेन गच्छति ॥५०॥ अर्थ-नारद कलहप्रिय होते हैं, ब्रह्मचारी होते हैं, कुछ उनको धर्म से भी राग होता है । नारायणों के समय में होते हैं । और मर कर सरक जाते हैं। सूत्र :-- एकादश रुद्राः ।। २२ ॥ भीमथली, जिस शत्रु, रुद्र, विश्वानल, सुप्रतिष्ठ, अचल, पुंडरीक, अजितंधर, अजितनाभि, पीठ, सात्यकि, यह ११ रुद्र हैं। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (we) सूत्र— उसहब काबे पढमदुसत्वररायो, सत्तसूवि दिपौ उदिसू । पौडो संति जिनिदे वीरे सच्चइ सुदों जावो ॥५१॥ परणसया पण्णुनसयं पञ्चसुदसहिणं नम रचउदोसं । caste धनुष्सेहे सच्चयेतनयस्स सत्त करा ॥५२॥ इनका उत्सेष ५००, ४५०, १००, ६०, ८०, ७०, ६०, ५०, २८,२४, धनुष है। अंतिम रूद्र की ऊंचाई सात हाथ है | गाया- तेस्रिविनीत रोयगि लम्वो पुग्वारिखवालसक्खाऊ मलसिवि सिट्ठेसबस हीरणवतिविस्सरण व सठि ॥५३॥ इन रुद्रों की आयु को क्रम से कहते हैं । ८३ लाख पूर्व आयु, ७१ लाख पूर्व, २ लाख पूर्व, १ लाख पूर्व, ८४ लाख वर्ष, ६० लाख वर्ष, ५० लाख ४० लाख वर्ष २० लाख वर्ष, १० लाख वर्ष ६६ P वायु है । गाथा यज्जारणपादपढने दिट्टपणट्ठसंजमा भव्वो । कदिचि भवेसिज्झति हुगई दुक्खमसंममहिमादो || ५४॥ पढमा माघवी मरणे पण मघवी श्रमो दुरिट्ठमहेन्दो । श्रजनं पवष्णो मे सुच्चई जो चोदो ॥ ५५॥ अर्थ--- २ - प्रमद, रसद, ३ - प्राकाम ४ - कामद, ५-भव दूर, ६- मनोभव ७-मार, ८--काम, ε--रुद्र, १०- गज यह भावी काल के ११ रुद्र हैं। गाया- काले जिनवराणं चउवौसारणं हवंति चडवीसा । ते बाहुवलिप्पमुद्दा कद्दमपाणि रुपमायारी ॥ ५६ ॥ तिस्थयरातप्पियरा केशिवल चविरुद्दारद्दा | कुलकर अंगज पुरुषा भग्वा सिज्झत्ति नियमेरा || ५७ ॥ अर्थ---- इस प्रकार ऊपर कहे हुए पुरुषों में सभी तीर्थंकर मोक्ष जाते हैं । तीर्थंकरों के माता पिता कुलकर, कामदेव, बलदेव, ये सभी ऊगामी होते हैं । वासुदेव प्रति वासुदेव नारद रुद्र ये अधोगामी होते हैं । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती में कोई ऊर्ध्वगामी होते हैं। कोई कोई अधोगामी होते हैं । वेसठ शलाका भव्य होते हैं। भेदाभेद रलत्रयात्मक धर्म को धारण कर उसी भव से स्वर्ग जाने तफ जो कथा कही जाती है उसे अर्थाख्यान कहते हैं । मोक्ष जाने तक जो कथा है वह चारित्र कहलाती है। तीर्थंकर और चक्रवर्ती के कथानक को पुराण कहते हैं। समन्त भद्र प्राचार्य ने भी ऐसा ही कहा है:---- प्रथमानुयोगमाख्यान चरित'पुराणमपि पूण्य । बोध समाधि निधानं बोवति बोध: समीचीनः ॥ पंच मन्दिर के पूर्वापर विदेह क्षेत्र में ऐसे तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव महान पुरुष सभी काल में होते रहते हैं। भरत ऐरावत क्षेत्र में १८ कोड़ाकोड़ी सागर काल बीत जाने पर द्विगुण .६३ शलाका पुरुष दो कोडाकोड़ी काल के अन्दर पैदा होते हैं। कहा भी है :---- जिनसमपट्टविदा समकाले सुन्नायट्ठिमेरचिदा । उभयजिनत्तरजादा सन्नेया चक्क हर रुद्दा ॥५८। पण रणजिनखदुति जेना, सुन्न दुज्जेरण गगन जुगल जेन खदुगम ।। जेन कज्जेण खदुजेणा क्यड्डिजयोतिषशालया नेया ।।५६॥ चक्कि दुग मत्थसुरणं, हरिपए छह चरिक केशि नव केशि । अडुिनभच्चक्कि हरिनभ, चक्कि हरिचक्कि सुरागण दुर्ग ॥६०।। रुद्गच्छ सुराणा सत्तह रागगग जुगरणमिसागय । पएणदनभाणितत्तो, सन्भयि तरणों महावीरे ॥६॥ यह भगवान जिनेन्द्र के अन्तराल काल में होने वाले चमवर्ती इत्यादि की गाथा है। श्री माघनंद्याचार्य बिरचित शास्त्र सार समुच्चय का प्रथमानुयोग नाम का पहला अध्याय समाप्त हुप्रा । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करणानुयोगः I परम श्री जिन पतियं । स्मरियिसि भव्य पेल्वेरणां कन्नडद ॥ करणानुयोग मंभुव । भुवनत्रयेक हितमंनुतमं ॥१॥ अर्थ- वीतराग जिनेंद्र भगवान् का स्मरण करके तीन लोक में हितकारी भव्य जीवों को हिंदी भाषा में कररणानुयोग शास्त्र के विवेचन को कहूँगा ! अथ त्रिविधो लोकः ॥ १॥ अर्थ-धोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक इस प्रकार यह तीन लोक है । free देखिये उधर दीखने वाले अनंत ग्राकाश के बीच अनादि निधन अकृत्रिम स्वाभाविक नित्य सम्पूर्ण लोक आकाश है । जिसके अन्तर में जीवाजीवादि सम्पूर्ण द्रव्य भरे हुए हैं। जोकि नीचे से ऊपर तक चौदह राजु ऊंचा है । पूर्व से पश्चिम में नीचे सात राजु चौड़ा, सात राजु की ऊंचाई पर प्राकर मध्यलोक में एक राजु चौड़ा, फिर क्रमश: फैल कर साढ़े दस राजू की ऊंचाई पर पाँच राजु होकर क्रमशः घटता जाकर अन्त में एक राजु चौड़ा रह गया है । दक्षिण से उत्तर में सब जगह साल राजु है । जो घनोदधि, घनोनील और तनुवात नाम वाले तीन वातवलयों से वेष्टित है । नीचे में सात राजु ऊंचाई बाला अधोलोक है जिसमें भवनवासी देव और नारकी रहते हैं । द्वीप समुद्र का आधार, महा मेरु के मूलभाग से लेकर ऊर्ध्वं भाग तक एक लाख योजन ऊंचा मध्यम लोक है । स्वगदि का आधार भूत पंचचूलिका मूल से लेकर किंचित न्यूत सप्त रज्जु ऊंचाई वाला ऊर्ध्वलोक हैं । ऐसे तीन लोक के बीच में एक रज्जु विस्तार चौदह राजु ऊंचाई वाली बस नाली है । सप्त नरकाः ॥२॥ अर्थ - रत्न, शर्करा, बालुका, पंक, धूम, तम, वाले सात नरक हैं । इनका विस्तार इस प्रकार है । महातम इन नामों aria वाताकाश प्रतिष्ठित एक एक रज्जु की ऊंचाई के विभाग .से विभक्त होकर लोकांत तक विस्तार वाली ये मद्दा भूमियाँ हैं । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०) गाथा २--- रयनप्पहासिहा, खरभागापंकापबहुल भागोति । सोलस चौरासिदि जोयन सहस्स वाहल्ला ॥१॥ प्रर्थ—खर भाग १६ हजार योजन है । पंक भाग ८४ हजार योजन और अन्बहुलभाग ८० हजार है । अव्हुल भाग ६० पोजन है कुल १ लाख के ऊपर ५० हजार योजन वाला रत्नं प्रभा है। उससे नीचे की भूमियाँ क्रमश:--३२००० हजार २८००० हजार २४००० हजार २०००० हजार १६००० हजार पाठ हजार बाहुल्य ऊंचाई वाली है । और सप्तम नरक के नीचे के भाग से लेकर १००० योजन प्रमाण को छोड़कर प्रस्तार क्रम से बिल हैं। एकोमपंचाशत् पटलानि ॥३॥ सात नरकों के अंतर्गत रहने वाले ४६ पटल इस प्रकार से हैं। १ सीमान्त, २ निरय, ३ रौरव, ४ भ्रान्त, ५ उद्भ्रान्त, ६ सम्भ्रान्त, ७ असम्भ्रान्त, ८ विभ्रान्त, ६ अस्त, १० त्रसित, ११ वक्रान्त, १२ अवकान्त, १३ धर्म यह पहिले नरक में १३ इन्द्रक हैं। १ ततक, २ स्तनक, ३ वनक, ४ मनक, ५ खडा, ६ डिका, ७ जिह्वा, ८ जिव्हक, हनोल, १० लोलक, ११ लोलवत्त, १२ पटल वंशा नाम की दूसरी पृथ्वी में हैं। १ तप्त, २ तपित, ३ तपण ४ तापण, ५ निदाथ, ६ उज्वलका, ७ प्रज्वलिका, संज्वलिका, ६ संप्रज्वालिका ये नव पटल मेघा नाम की तीसरी पृथ्वी में हैं। १ पार, २ मार, ३ तार, ४ वर्चस्क, ५ तम ६ फडा ७ फजाय, यह सात इन्द्रक अंजना नाम की चौथी पृथ्वी में हैं। १ तदुक, २ भ्रमक, ३ झषक, ४ अन्ध, ५ तमिथ, यह पाँच इन्द्रक अरिष्टा नामक नरक में हैं। हिम, वार्धम लल्लक, यह तीन इन्द्रक मधवा नाम की छठी पृथ्वी अवधिस्थान नाम के इन्द्रक माधवी नाम की सातवीं पृथ्वी में है। पटल के मध्य में इन्द्रकं होते हैं। उन इन्द्रकों की प्रा0 विशामों में Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत तु विनारि प प शुरिएका द विषु ग 9. नेपाि VTLT ही के म मध्ये कर प्रयो पंचक सारे को साय यो स्विक रास पट म धान्या स्यारिटले स सर्व क करें: धो पर मेन्येषं य स्पदे स्वा यु याशि सम्य २ समी मायुः माई मे राजस भावी सौधुर्वे ज्ञान सिपमा समर मामी पर्नियामिनीम स्वसि श्रमवासितचाधमैय भूकम बाजारतं ॥ मसाले कामः ॥ २ ॥ मध्यमा धन् परमश्के म संप्रमेन इनका पति को लोत निजामानि रस्मा निः सुसुप्तह नजिि प ' ॐ ि 30 २४ 66666462 B1 . ४६ सुरम ३३ ३॥ 자 축제 ema धरा VI २ मुख तुरख श 9 २ द gha पेप० न२००० को नक मटा रगुत ००० मन प सहसा पर झलना A-1 दि प Fautafi greens मा परला १-शिकि नयंख्य Ind रनर नामसम्य १६-० जागरूपय GU... 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श्ररिण वद्धानि ॥४॥ रत्नप्रभा के १३ पटलों में ४४२० श्रेणि बद्ध हैं । वंशा में २६०४, मेघा में १४७६, और अंजना के सात पटलों में ७०० श्रेणि वद्ध हैं। अरिष्टा के पांच पटलों में २६०, मघवा के तीन पटलों में ६०, और महातमा के एक पटल में ४ श्रं रिण वद्ध है । इनके नाम पूर्वादि दिशाओं में काल, महाकाल, रौरव, श्रम, महारौरव, आदि हैं। यह सभी मिलकर ९६०४ श्ररिए वद्ध होते हैं । इन श्रेणिवद्धों के बोच में प्रकीर्णक बिल कितने हैं, सो श्रागे के सूत्र द्वारा कहते हैं । क्ष त्र्यशीतिलचन अतिसहस्रत्रिशसनपंचाशत्प्रकीकाः ||५|| १ घर्मा में २६६५५६२ प्रकीर्णक हैं । २ वंशा में २४३७३०५ प्रकीर्णक हैं । ३ मेघा में १४६६५१५ प्रकीर्णक हैं । ४ अंजना में ६६९२६३ प्रकीर्णक है । ५ अरिष्टा में २६६७३५ प्रकीक हैं । ६ मघवी में ६६६३२ प्रकीक हूँ. । ७ माघवी में प्रकीर्णक होते हैं । " इनके सम्पूर्ण प्रकीर्णक मिलकर ८३६०३४७ होते हैं। इनके मन्दर विल की संख्या बताने को सूत्र कहते हैं । चतुरशीतिलक्षविजानि ॥६॥ श्रर्थ १--धर्मा में ३० लाख बिल हैं । २ वंशा में २५ लाख बिल हैं । ३ मेघा में १५ लाख बिल हैं । ४ अंजना में १० लाख बिल हैं । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) ५ अरिष्टा मैं ३ लाख विल हैं। ६ मघवी में ५ कम १ लाख विल हैं । ७ माघवी में केवल ५ विल हैं। यह सब मिलकर चौरासी लाख (८४०००००) विल होते हैं । श्लोक कानड़ी भाषा में--- मूवत्तिपत्तव, तावगपदिनदुपत्तमूरयदूनं । भाविीडबुलक्षगळे, पेनुबळिकमयदुनरक विलंगळ् ॥ अर्थात् उपर्युक्त सभी बिल (८४०००००) होते हैं। इन्द्रक संख्यात योजन विस्तार वाले और श्रेणीबद्ध असंख्यात योजन विस्तार वाले होते हैं । प्रकीर्णकों में कोई संख्यात योजन, और कोई असंख्यात योजन वाले विल होते हैं। अब चार प्रकार के दुख के सम्बन्ध में सूत्र कहते हैं। चतुर्विधदुःखमिति ॥७॥ सहज, शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक यह चार प्रकार के दुख होते हैं । शारीराज्वरकुष्टाद्या क्रोधाद्या मानसास्मृताः । प्रागन्तवो भिधातोत्थाः सहजा क्षुत्त षावयाः ॥ अर्थात् क्षेत्रज, असातोदयज शरीरज, मानसिक, परस्परोदीरित और दनुजों के द्वारा होने वाले अनेक प्रकार के दुखों से रात और दिन यह जीव वहां दुख पाता है। इस जीव को नरकों में एक क्षण मात्र भी सम्यक्त्व ग्रहणकाल को छोड़कर बाकी समय में सुख लेश मात्र भी नहीं मिलता। अर्थात् सम्यक्त्व बिना इस संसार में सुख नहीं। तीसरे नरक से आगे असुर कुमार के द्वारा किया हुआ दुख नहीं है। क्योंकि देव लोग आगे नहीं जाते हैं 1 रत्न प्रभा से धूमप्रभा के तीन भाग तक होने वाले (२२५०००) बिलों में से मेरु पर्वत के समान लोहे के गोले को यदि बनाकर डाल दिया जाय तो उसी समय पिघल कर पानी हो जाता है, इतनी गर्मी है। ___ और वहां से नीचे १७५००० और विल हैं । वे इतने ठंडे होते है कि अगर ऊपर कहा हुआ मेरु पर्वत के समान पिंड को गला कर पानी Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) फरके उसका डाल दिया जाय तो तुरन्त ही पिंड बन जाता है। ऐसी इस . पृथ्वी की महिमा है। अब उन भूमियों में कौन उत्पन्न होते हैं, सो बताते हैं, ऐसी कुत्सित योनि में जन्म लेने वाले जीव वे होते हैं जोकि भगवान् वीतराग का कहा हुआ जो समीचीन मार्ग जैन धर्म है उसपर श्रद्धान न रखने वाले हों, उसको न मानने वाले तथा उनके अनुयायी से क्लेश परिणामो, मिथ्या वाद करने वाले, मद्य मांस मधु का सेवन करने वाले, अपने कुल देवता की आराधना का बहाना करके पशु बलि देने वाले, पर नारी सेवनेवाले, दुर्ध्यान दुर्लेश्या से मरने वाले, वहां से अपने पाप कर्म के अनुसार मरकर पहिले दरक से हातवें नरक तक जाकर जन्म लेते हैं। अन्तर्मुहूं त काल में ही षट्पर्याप्ति सहित पूर्णावयव वाले होकर उत्पन्न होते हैं । उसी समय में उनके सम्पूर्ण शरीर को हजारों बिच्छू एकत्र होकर काटने सरीखी वेदना होती है अथवा उनके शरीर में ऐसी वेदना निरंतर होती रहती है जो यहाँ पर हालाहल विष खाने से भी नहीं होती । नारकी लोग जन्म लेते ही जब अपने बिल में से नीचे जमीन पर पड़ते हैं तब ऊपर से वन शिला पर पड़ने वाले पक्व कटहल के फल के समान उनके शरीर के टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं। फिर पारे के समान वापिस मिलकर जब वह नारकी खड़ा होता है तथा गुस्से में लाल प्रांखें करके जब सामने देखता है तो पुराने नारको को प्राता हुआ देखकर और भी भयभीत होता है। उसी समय अपने आप को तथा औरों को भी सन्ताप देने वाला विभङ्ग ज्ञान उसे पैदा हो जाता है। उत्पन्न होने वाले पुराने नारकी को देख कर भयभीत होकर अपने को और दूसरे को अत्यंत संताप को उत्पन्न करने वाले विभंग ज्ञान से जानता है:-- जिनधर्मके दयारसाधिगे वृथाविषममाळ पम् । निनदुर्भावदिनाव पापदफलं निष्कारण द्वषत् ॥ विनमं मारककोटियोळपडेबुद नायिनायिगळोळयोपाळ । मुनिदोवरनोर्थरेदिक्कडिखंड माडुतं दण्डिपर् ॥१॥ इरिदिनु सवियेनुतं । सविनोळ पं पळवुतेरद मृगदडगविवायुषु । सविपळे नुतवनन । यवंगळ कोयदु इडुवरवनाननदोळ ॥१॥ मोरेयळिव मद्यपावन । 'नेरेनेदं मधुवनटिट् तलेयोळ तलियि ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) परगुलगळ तलेयिदिलि । एरवळ ततळ लळिसि कुदिलोहद्रथमं ॥ २ ॥ यलं मिलवो निनगल्लेद े | निळळारवी पाके बंदळिद लबा || नलिद नेरेमेंद कडुगा । युव लोहपुत्रिकेयनाग्रह विनप्पिस्वर ॥ ३ ॥ अर्थात् — पुराने नारकी जीव वहाँ उन नये नारकियों को देखकर श्रत्यन्त कठोर वचन कहते हुये उन नारकी जीवों का घात करा देते है । पुनः उस शरीर में जो घाव हो गया उस पर अत्यन्त तीक्ष्ण खारी जल से सींचते हैं। गद्य का अर्थ - पुनः अग्नि को जैसे घी मिलने से बढ़ती जाती है उसी तरह सुर और असुर कुमार उन नारकियों को आपस के पूर्व जन्म के वैर याद दिलवा कर तथा विभंग ज्ञान से उनके पूर्व जन्म में किये हुए दोष की चेष्टा को जानकर अपने दोष आप खुद ही न समझ कर अत्यन्त कोषित होकर लड़ते हैं और आपस में अत्यन्त वेदना को प्राप्त होते हुए मूर्च्छित हो जाते हैं । श्रब नवीन नारकी क्या करते हैं सो कहते हैं तेवि विहंगेण तदो जागिदपुष्वावरारि संबंधा । सुहाहविकिरिया हति हरनि वा तेहि ||८|| अर्थ - वे नवोन नारकी भी विभंग अवधि ज्ञान के कारण तहां पर्याप्त ऐसे बहुरि शुभ को हने हैं । वा वहाँ पूर्ण भये पीछे जान्या है पिछला वैरीपणा का सम्बन्ध जिनने पृथक विक्रिया जिनके पाइये ऐसे होते संते अन्य नारकीनि तिना नारकियों करि आप हनिये हैं । ऐसे परस्पर वैर घात प्रवर्ते हैं । के नारकियों को ऐसा कुअवधिज्ञान होता है जिसके कारण परस्पर बैर को जानकर विरोध रूप ही प्रवर्ते हैं । बहुरि जो पूर्व भव में कोई उपकार किया हो वे जलती हुई अग्नि की ज्वाला में घी पड़ने पर जैसे वह उत्तरोतर बढ़ती जाती है उसी प्रकार एक दूसरे को देखने से उस नारकी के मन में क्रोध का वेग बढ़ता है । तथा अपने किये हुये दोषों की तरफ न देख कर सिर्फ सामने वाले के दोषों का स्मरण करके उसे चुनौती देते हुए इस प्रकार कहते हैं कि देखो तुमने गाय के मांस को बहुत अच्छा समझ कर खाया था तथा बकरे के मांस को उससे भी अच्छा समझ कर खाया था अतः अच्छा मांस है । ऐसा कह कर उसी के हाथ आदि अब यह देखो उससे भी बहुत के मांस को काट कर उसके Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुंह में जबरन देता है। इसी प्रकार तुमने जो मद्य पान करके सुख माना था पब यह पीवो, ऐसा कह कर गरम गरम पिघले लोह को उस के मुंह में देता है तथा सिर पर डालता है । किंच दूसरे की स्त्री को खूबसूरत (सुन्दर) समझ कर उसके साथ में बलात्कार किया था, अब यह देखो कैसी सुन्दर है ऐसा कह कर लोहे की जलती पूतली के साथ में उसका आलिङ्गन करवाता है । तब उसका शरीर जलने लगता है और मूर्छा खाकर गिर पड़ता है। फिर क्षण भर में होश में भाकर उठ खड़ा होता है और अपने पूर्वोक्त कर्मों के बारे में सोचने लगता है कि मैंने नर जन्म में दूसरे लोगों को कुष्ठादि रोग युक्त देख कर उन से ग्लानि की थी, दूसरों को भय पैदा करने बाला बीभत्स रस का प्रदर्शन किया था, अद्धत रस का प्रकाशन किया था, शृंगार रस को अपना कर इतर व्यभिचारिणी स्त्रियों के साथ में आलिङ्गन चुम्बनादि कर्म किया था उसी पाप के उदय से मैं पहां आकर पैदा हुआ है । ऐसा सोचते हये सन्तान होकर सामने देखता है तो नदी दीख पड़ती है, तो पानी पीने की इच्छा से वहां जाता है और नदी के उस दुर्गन्धमय तथा विषले पानी को जब पीता है तो एकाएक उस के शरीर में पहले से भी अधिक वेदना होती है, तो उसे शांत करने की भावना को लेकर सामने दीख पड़ने वाले वृक्ष के नीचे जाकर बैठता है ।। मनेगळे नडुगु कामिग । ळनेंब मातिल्लि पुसि परस्त्री।। . ननेय मोनेयंबुमलरळनंबु । मायन दोळवननोयिपुदु दिटं ॥४॥ कोळ गोळगेकळ वरपुसि । गेळे यिदोळगे सुळिदु पर वनिता सं॥ कुल दोलु नेरेव वरघ । मोळगोळ गिरि विचित्र रोगच्छदि ॥५॥ इस लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि वृक्ष के फूल पत्ते जब कामी लोगों के ऊपर पड़ते हैं तो उन्हें प्रानन्द प्रतीत होता है किन्तु उस नारकी के शरीर पर जो वृक्ष के फूल पत्ते पड़ते हैं सो सब तलबार का काम करते हैं। न से उसका शरीर कट जाता है। ज्वरदाह श्वास कास प्रण पिटिक शिरो रोग सवंग मूला। दिल जा संदोह जड़ा भरदि लोलरुतं सुतलु बने यिदं । बिरयुत्तं नार कर्क ळ निरि किनड़े गळं शस्त्रदि सोळ्कुंगो। ळ गरे युक्तं कूगिडुत्तं मति ल्के शदि बरदु तिप्पर् ॥६॥ अर्थात् इस प्रकार उस नारकी को एक साथ ज्वरकाश श्वास, वरण, पिटक दाह, शिरो रोगः सर्वाङ्ग ज्वर आदि अनेकानेक रोग बहुत ही सताते Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । इतने हो में और नारकी जीव आकर उसे फिर कष्ट देने लगते हैं। तब बुरी तरह से रोने चिल्लाने लगता है इस प्रकार से कमंज तथा रोगज इन दोनों प्रकार के कष्ट उस नारकी जीव को निरन्तर सताते रहते हैं और उसे घोर संकट-मय जीवन बिताना पड़ता है। वहाँ उन नरकों में रीछ, बाघ, सिंह आदि भयङ्कर पशु तथा गीध, काक, . चील आदि कष्टदायक पक्षियों आदि के रूप से नारकी जीव खुद ही विक्रिया के द्वारा अपने शरीर को बचा कर एक दुसरे को कष्ट पहुचाते रहते हैं तथा बरछी, भागा, हलबार यादि सभ निगा 5ए में उन नारकियों का शरीर अपने आप दुस्ख सहन करता रहता है। नारकी जीव की प्राशु और ऊचाई श्रादि सीमंतक में जघन्य आयु १०००० वर्ष की है उत्कृष्ट प्रायु ६०००० वर्ष की होती है। क्रम से बढ़ते-बढ़ते आगे चलकर पहले नरक के अन्त के इन्द्रक में उत्कृष्ट प्रायु एक सागरोपम की हो जाती है और द्वितीयादि नरकों में ३, ७, १०, १७.२२, ३३ सागरोपम की उत्कृष्टायु होती है। ऊपर की उत्कृष्ट में एक समय अधिक करने से नीचे वाले की जघन्य प्रायु होती है। शरीर की ऊंचाई सीमांतक में सात हाथ होती है। आगे बढ़ती हुई अपने अपने अन्त के इन्द्रक में पहिले वाले के शरीर की ऊंचाई सात धनुष तीन हाथ छ: अंगुल अन्तर से द्विगुरण कम से होती हैं । अन्त में ५०० धनुष होती है। कहा भी है गाथाफणमित्थेि दशनो जेवा जीवासहसाउगजहन्निदरे । तेन उदि लक्कजेट्ठा असक्क पुबाए कोइडये ॥३॥ सायरदशउत्तीरिय सग सग चरिमिद्धयम्मि इगतिन्नी सत्तदशऊ व हिवाविसत्तत्ति समा ॥४॥ आसद अथ विशेषी रूए। बाइदम्मि हारिणचयं । उरिम जेट्ठा सहयेण हियं हेट्टिम जहरण तु ।।५॥ पदम सत्त तिच्चवकं उदय हणुयरणि अंगुल सेसे ।। दुगुण कम पढ़मिदि रयणतियंजारण हारिणत्रय ॥६॥ अब आगे नारकी के अवधि क्षेत्र को बताते हैं --- श्लोक कानडी--- क्रोशचतुष्कं मोदलोळ । क्रोशाध मैदु कुन्दुगुबळि कत्तल् ॥ कोशादि कमप्पिनसम्, क्लेशं पेच्चलु कुदु गुम तद्वोधं ॥२५॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधि ज्ञान का विषयपहिले चार कोस बाद में प्राधा कोस की कमी हात हात क्रम से एक कास र ह जाता है क्लेश के बढ़ते हुए अवधि का विषय थोड़ा होता जाता है। अब लेश्या को कहते हैं--- प्रथम, द्वितीय, तृतीय नरकों में क्रम से कापोत जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट होती है। परन्तु तृतीय चतुर्थ पंचम नरकों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट होती है। पंचम षष्ठ और सप्तम नरकों में कम से कृष्ण लेश्या जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट होती है। इसके सम्बन्ध में कहा भी है--- अमनस रिसि पबिहग्ग मघनसि हित्तिण मच्छमावाणं । • पढमादिसरसप्पति अडवारादो दुदण्णिबारत्ति ॥७|| अब आगे नरक में निरन्तर कितनी बार जन्म सकते हैं सो बताते हैं प्रथम नरक में आठ बार जन्म लेते हैं। फिर एक एक कम होते हुए महातमप्रभा में दो बार जन्म लेते हैं। पुनः वहाँ जन्म लेकर जीने वाले नारकी नारक गति में तथा देव गति में जन्म नहीं लेते है । कर्म भूमि में गर्भज मनुष्य होकर सैनी पर्याप्त गर्भज, तिर्यंच होकर उत्पन्न होते हैं । महातमप्रभा के जीव को मरण समय सम्यक्त्व नहीं होता, मरण के काल में मिथ्यात्व को प्राप्त होता है उस नरक से आया जीव मनुष्य गति को प्राप्त नहीं होता। तिर्यंच गति में जन्म लेकर कदाचित् सम्यक्त्व प्राप्त हो जाय, परन्तु वह व्रत धारण करने योग्य नहीं होता है। छठे नरक में से आपा हुआ जीव अशुवत को धारण कर सकता है । परन्तु महावत धारण नहीं कर सकता। पांचवें नरक से पाया हुया जीव महाव्रत धारण कर सकता है परन्तु चरम-शरीरी न होने के कारण मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है । चौथे नरक से आया हुआ जीव चरम-शरीरी हो सकता है परन्तु तीर्थकर पद प्राप्त नहीं कर सकता है । तीन, दो और एक, इन नरकों में से निकल कर तीर्थङ्कर हो सकता है। क्योंकि पूर्व जन्म में मिथ्यात्व दशा में नरकायु का वध करके फिर बाद में सम्यक्त्व को प्राप्त होकर दर्शनविशुद्धि पूर्वक तीर्थकर प्रकृति का बन्ध कर लेने वाला जीव ऐसा हो सकता है । नरक से आये हुए जीव को वासुदेवत्व, प्रति वासुदेवत्व, बलदेवत्व, सकल चक्रवर्ती इत्यादि पद प्राप्त नहीं होता है । क्योंकि उस पदवी को चारित्र ही मुख्य कारण होने से दुर्धर तपश्चरण के द्वारा वैमानिक देव होकर बाद में यहां आकर उस पद को प्राप्त होते हैं। गाथा--- निरयचरो गस्थि हरि बल चक्कितुरियपर दिण्णिासदिछ । तित्थयर मग्गसंजमदेससंजमो रास्थिरिणयमेण ॥७॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस प्रथम पृथ्वी के नीचे एक एक रज्जु प्रमाण लोकाकाशं है । वहां भी जहां मारकी नहीं हैं ऐसे स्थान में पंच स्थावर जीव होते हैं । मोदलिधर्मयखरभा गदोळ तनुमाहिय मध्यभागद पंचा। ढ्यदोळ कुमार रेण्बा । त्रिदशरभवनगळप्पति विपुलंगळ ॥ मा प्रकारात मूगों के द्वारा अमोलोक का स्वरूप संक्षेप से कहा गया है। मध्य लोक का स्वरूप जम्बूद्वीपलवरणसमुद्राद्यसंख्यातपोसमुद्राः ॥१॥ अर्थ--मध्य लोक में जम्बू द्वीप तथा लवण समुद्र आदि असंख्यात द्वीप और समुद्र है। मध्य लोक का स्वरूप इस प्रकार है--जिस लोक के बीच असंख्यात द्वीप समुद्र व्यंतर देव तथा ज्योतिष्क विमान रहते है उस मध्य लोक के बीच नाभि के समान स्थित महामेरु पर्वत को अपने बीच किये हुए एक लक्ष योजन विस्तार वाला जम्बू द्वीप है। उससे दुने विस्तार वाला लवण समुद्र है । तथा लवणोदधि से दूने विस्तार वाला धातकी खंड द्वीप है । पौर उससे दूने विस्तार वाला कालोदधि समुद्र है। और उससे दुगुना पुष्करवर द्वीप है। इससे आगे कहे जाने वाले समुद्र और द्वीपों के नाम ये हैं पुष्कर द्वीप से पुष्कर समुद्र । ४ वारुणी वर द्वीप, ५ क्षीरवर द्वीप, ६ घृतवर द्वीप, ७ क्षौद्रवर द्वीप, ८ नंदीश्वर द्वीप, ह वरुण वर द्वीप, १० अरुणाभास द्वीप, ११ कुडलवर द्वोप, १२ शंखवर द्वीप, १३ रुचिकवर द्वीप, १४ भुजंगवर द्वीप, १५ कुशिकवर दीप, १६ क्रौंचवर द्वीप ये १६ द्वीप समुद्र के अंतर भाग में हैं। वहां से आगे असंख्यात द्वीप समुद्र जाने पर क्रम से मंतिम के १६ द्वीप समुद्र के नाम बताते हैं । (१) मरिणच्छिला द्वीप मरिच्छिला समुद्र (२) हरिताल द्वीप हरिताल समुद्र । (३) सिन्धुवर द्वीप सिन्धुवर समुद्र (४) श्यामकवर द्वीप श्यामकवर समुद्र (५) अंजनवर द्वीप अजनवर समुद्र (६) हिंगुलिकवर द्वीप हिंगुलिकवर समुद्र (७) रूप्यवर द्वीप रूप्यवर समुद्र (८) सुवर्णवर द्वीप सुवर्णवर समुद्र Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i : स वांडुकूजन 653 मे रूपर्वत १..... योजन ऊंचा है धुत ताराळे पाट जितने सुदर्शन रूपवेत भद्राल देव है वे मे श्र दक्षिणा देते हैं. मंगल बुध ११००० नक्षत्र ४ पर्वती मू २७२ ४७७२ ₹16 फर्दछ पांडुकू‌जन सौमनम अंत में 14000 में के अनंता पवन है। लैामनस ५०० ध्रुवता/ मे STA श ५०. नंदन मेजन टेक्ट रनि मंगल किशमिसाई ११ नाए भद्रशाल Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (E) वज्रवर द्वीप वज्रबर समुद्र (१०) वैडूर्यवर द्वीप वैडूर्यवर समुद्र (११) नागबर द्वीप नागवर समुद्र (१२) भूतवर द्वीप भूतवर समुद्र (१३) यक्षवर द्वीप यक्षवर समुद्र (१४) देववर द्वीप देववर सुमुद्र (१५) अहिन्द्रवर द्वीप . अहिन्द्रवर समुद्र (१६) स्वयंभूरमरण द्वीप स्वयंभरमण समुद्र ____ अंत के द्वीप में चार गोपुर सहित आठ योजन ऊंची, १२ योजन विस्तार वाली ४ योजन मुख विस्तार युक्त वच्च वेदिका है। इसी प्रकार प्रत्येक द्वीप समुन्द्र के बीच में एक एक वजवेदिका है । ये वेदिका ५०० धनुष ऊंची होती है। दश कोश उन्नत पदन वेदिका है। समस्त द्वीप समुन्द्र कितने होते हैं ? इसके समाधान में प्राचार्य कहते हैं: ७५ कोडाकोड़ी उद्धार पल्योपम का जितने रोम प्रमाण हैं उतने द्वीप समुद्र समझना चाहिये । इस जीप से पाठवें नंदीश्वर का वलय विस्तार, १६३ करोड़ ८४ लाख योजन प्रमाण होता है ।उसके चारों ओर दिशा के मध्य प्रदेश में ८४००० चौरासी हजार योजन ऊंचाई और उतनी ही चौड़ाई-संयुक्त चार अंजन पर्वत है । उसके चारों ओर चारों दिशाओं में १०,००० योजन समुचतुरस्त्र १००० योजन गहरी जलचर जीवों से रहित जलपूर्ण ४ बावड़ी हैं । लाख योजन लंबे ७०,००० योजन चौड़े संयुक्त अशोक सप्तच्छन्द, चंपक, आम्रवन, चतुष्टयविराजित, नंदी, नंदवती, नंदोत्तरी नंदिषेणा नामक चार बावड़ी हैं। ये पूर्व दिशा के अजन पर्वत की चार दिशाओं की हैं । अरजा, विरजा, अशोक, बीतशोक, ऐसे चार सरोवर (बावड़ी) दक्षिण अजन पर्वत की चार. दिशा में हैं। विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित ऐसे चार सरोवर (बावड़ी) पश्चिम अजन पर्वत की दिशा वाले हैं । रम्य रमणीय, सुप्रभा, सर्वतोभद्र ऐसे चार सरोवर उत्तर प्रजन की दिशा के हैं। इन १६ सरों के मध्य प्रदेश में १०,००० योजन ऊंचाई तथा चौड़ाईसंयुक्त दधिमुख पर्वत हैं। उन सरोवरों के बाह्य कोण-द्वय में १००० योजन लंबाई चौड़ाई संयुक्त सुवर्ण वर्ण के ३२ रतिकर पर्वत हैं । इन ५२ पर्वतों के शिखर पर चार प्रकार गोपुर सहित जिन मन्दिर हैं। श्री तालपरिस्कृत सहित ध्वजा मालादि अलंकृत (शोभाय मान) अभिषेक, पूजन, क्रीउन, संगति, नाटक अवलोकनादि मंउप हैं । विकसित कमल कुसुम से शोभायमान दीपिका (वापी) Ji .Me Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण समुद्र के पानी अरुचिकारक हैं। बाकी असंख्यात समुद्रों का पानी गन्ने के रस के समान है। उन समुद्रों में जलचर प्राणी नहीं रहते हैं । जलचर जीव कहाँ रहते हैं सो बताते हैं: लवण समुद्र में, कालोदधि, व अत के स्वयंभूरमरण में में जलचर प्राणी रहते हैं । लबण समुद्र की मछली की लम्बाई ३६ योजनहै अंतके स्वयंभूरमण समुद्र की मछली की लम्बाई १००० योजन प्रमाण है। अपनी अपनी नदी की मछली अपने अपने समुद्र से प्राधी होती है (उस मछली की लम्बाई समुद्र की मछली से आधी होती है)। आगे एकेन्द्रिय जीव की प्रायु तथा उत्कृष्ट अवगाहना को बताते हैं। एकेन्द्रिय जाति में कमल १ कोश से १००० योजन तक के होते हैं। द्विइन्द्रिय जाति में शंख १२ योजन के होते हैं । तीन इन्द्रिय जाति में वृश्चिक (बीलू) तीन कोश के होते हैं । चतुरिद्रिय जाति में भौंरा ४ योजन का होता है । पंचेन्द्रिय जाति में मछली का विस्तार १००० योजन, चौड़ाई ५०० योजन होती है । और उत्सेध (ऊंचाई) २५० योजन होती है । इस प्रकार यह सब इनकी उत्कृष्ट अवगाहना है । जघन्य घनांगुल के असंख्यातवें भाग के बराबर है । ये सभी अंतद्वीपार्ध और अंतिम समुद्र में होते हैं। इनकी प्रायु इस प्रकार है:---- शुद्ध पथिवी काय की १२००० वर्षे है । खर पृथिवी काय की २२००० वर्ष है। अप कायिक की ७००० वर्ष है। तेज काय की ३ दिन ही आयु होती है। वात कायकी ३०००० वर्ष आयु होती है। घनस्पति काय की १००० वर्ष की होती है। द्विइन्द्रिय की १२ वर्ष प्रायु होती है । तीन इन्द्रिय की ४६ दिन होती है। चतुरिन्द्रिय की ६ मास आयु होती है । प'चेन्द्रिय नर तिर्यंच महामत्स्यादि की एक करोड पूर्व प्रायु होती है। गोह की और गिरगिट सरीसर्प आदि की । पूर्व प्रायु होती है । पक्षी की ७२००० वर्ष आयु होती है । सर्प की ४२००० वर्ष की आयु होती हैं । इत्यादि सम्पूर्ण तिर्यच जीवों Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की उत्कृष्ट स्थिति है । जघन्य स्थिति अन्त मुहूर्त होती है। नारकी, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सम्मूर्छन, नपुंसक होते हैं । गर्भज नर तथा तिर्यच, नपुंसक, स्त्री, पुरुष वेद वाले होते हैं । भोग भूमि के जोव व देव स्त्री पुरुष वेदी होते हैं। गाथा-- निरयगिविगला समुच्छनपंचनक्खाय होंति संढाई । भोगासुरसत्थूणा तिबेदना गब्भ नर तिरया ।।। अब मध्य लोक का प्रमाण लिखते हैं। इस मेरु पर्वत के मूल से लेकर अन्त के समुद्र के अन्त तक जो चौड़ाई है वह सभी तिर्यक्लोक कहलाता है। . तत्राद्धं द्वितीयद्वीपसमुद्रौमनुष्यक्षेत्रम् ॥२॥ अर्थ---उस असंख्यात द्वीप समुद्र में पहिले मध्य का १ लाख योजन विस्तार वाला जम्बू द्वीप है । उससे दूना विस्तार बाला लवण समुद्र है । उस से दूना विस्तार वाला धातकी खंड द्वीप है । उससे दूना विस्तार वाला कालोदधि " समुद्र है। उसके प्रमाण अष्ट योजन लक्ष प्रमाण बलय विस्तार वाला अर्ध पुष्करवर द्वीप है। इस प्रकार से ४५ ००,००० योजन विस्तार वाला मनुष्य क्षेत्र है । इस प्रकार यह ढाई की है। यह दो समुद्रों से घिरा हुआ मानुषोत्तर पर्वत तक है। मानुषोत्तर पर्वत १७२१ योजन ऊंचा और १०२२ योजन चौड़ाई मूल की तथा ४२४ योजन ऊपर की चौड़ाई है, ऐसे स्वर्ण वर्ण युक्त उस पर्वत के ऊपर नैत्रत्य वायव्य दिशा बिना बाकी ६ दिशा में ३-३ कूट हैं । उनके अभ्यंतर महादिशा के चार कूटों में जिन मंदिर हैं । उस पर्वत तक भनुष्य रहते हैं उसके बाहर जाने को मनुष्य में शक्ति नहीं है। .. ऐसा मनुष्य क्षेत्र प्रार्य, म्लेच्छ, भोग-भूमिज, कुभोग-भूमिज ऐसे पार प्रकार का है। उसमें प्रार्य खंड में उत्पन्न हुश्रा मनुष्य प्राय कहलाता है। उनमें पर्याप्तक अपर्याप्तक ऐसे दो भेद हैं। वहां पर्याप्तक की मासु अधन्यं से अन्तमुहर्त है । उत्कृष्ट मायु एक करोड़ पूर्व है अपर्याप्त मनुष्य की अन्तमुहर्त श्रायु होती है । इनमें लब्ध्यपर्याप्तक जीव एक उच्छवास काल में १८ बार जन्म और मरण करते हैं । म्लेच्छ की आयु जघन्य अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व होती है । भोगभूमिवाले की प्रायु स्थिर भोग भूमि में एक, दो, तीन पल्य की होती है । अस्थिर भोगभूमि वाले की अनन्य भायु समयाधिक एक करोड़ पूर्व Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) प्रमाण होती है । उत्कृष्ट ३ पल्योपम होती है । कुभोग-भूमि वालों की आयु एक पल्योपम होती हैं । पंचदश कर्मभूमयः ॥ ३॥ स्थित कर्म भूमि में पांच भरत पांच ऐरावत हैं। नित्य कर्मभूमि में ५ विदेह हैं | भारत की चौड़ाई जम्बू द्वीप के १६० यां भाग है जोकि ५२६ योजन तथा एक योजन के १६ भाग करने से ६ भाग प्रमाण ( ५२६६४ ) होता है । हिमवान पर्वत भरत क्षेत्र से दुगुना है । इसके प्रागे विदेह तक दुगुना - दुगुना विस्तार होता हैं । उसके पश्चात् प्राधा श्राधा भाग प्रमाण ऐरावत तक होता है। प्रत्येक भरत तथा ऐरावत में म्लेच्छ खंड पांच पांच होते हैं, अतः समस्त पचास म्लेच्छ खंड होते हैं । विदेह क्षेत्र के प्रत्येक भाग में पांच पांच म्लेच्छ खंड होने से ८०० म्ले खंड होते हैं। और १६० प्रार्य खंड होते हैं । इनके सिवाय बाकी सब भोगभूमि होती हैं सो नीचे बताते हैं । त्रिशभोगभूमयः ॥४॥ दो हजार धनुष प्रमाण शरीर वाले तथा एक पल्योपम आयु वाले पांच हैमवत और पांच हैरण्यवन क्षेत्र जघन्य भोगभूमि है ४००० धनुष उत्सेध (ऊंचाई) वाले दो पल्योपम श्रायु वाले पांच पांच हरिवर्ष और रम्यक क्षेत्र मध्यम भोगभूमि हैं । ६००० धनुष शरीर वाले, ३ पल्योपम श्रायु वाले हैं ५ देवकुस ५ उत्तर कुरू उत्तम भोगभूमि हैं । ये देवकुरू उत्तरकुरू मिलकर तीस भोग भूमियां हैं । I पति कुभोगभूमयः || ५ || तात्पर्य - लवण समुद्र तथा कालोदधि समुद्र के बाहर के तट के निकट २४-२४ इस तरह कुल ६६ कुभोग भूमियां हैं । वे इस प्रकार हैं ——— दहगुण परण पर पररा परण सट्ठी मुबही । महि गम्मस्य समपरण वर्षाणं पण्णं परणवी सावित्तडा कमसो || ६ || वावेदिका से पांच सौ योजन दूरी पर १०० योजन विस्तार वाले चार दिशा के द्वीपों में एक टांग वाले, पूछ वाले, सींग वाले, गूंगे मनुष्य होते Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४ ) हैं । ५०० योजन दूरी पर ५० योजन विस्तार वाली दिशानों के बीच में एक गोल आंखवाले, कर्ण आवरण अर्थात् लम्बे कान वाले, शशक कर्ण वाले तथा शष्कुली कर्ण वाले मनुष्य होते हैं। ५५० योजन की दरी पर ५० योजन विस्तार वाले अन्तर्वीपों में सिंह . के मुखवाले, अश्वमुख वाले, श्वान मुख वाले, महिष मुख वाले, बराह मुख वाले, ध्यान मुख, चूक मुख, पिकमुख वाले मनुष्य होते हैं तत्पश्चात् ६०० योजन की दूरी पर २५ योजन विस्तार वाले कृषि द्वीपों में मछली मुख वाले, कृष्ण मुख वाले मनुष्य हिमबन्त पर्वत के पूर्व पश्चिम समुद्र में होते हैं । मेघ मुख समान, गोमुख समान मनुष्य भरत के विजयाई पर्वत के पूर्वापर समुद्र में होते हैं । मेघ मुख वाले विद्य प्रमुख मनुष्य शिखरी पर्वत के पूर्वा पर समुद्र में होतें हैं । ऐरावत क्षेत्र के बिजयार्द्ध पर्वत के पूर्व पश्चिमी समुद्र के द्वीपों में दर्पण मुख और गजमुख वाले मनुष्य होते हैं इन सबके शरीर की ऊंचाई दो हजार धनुष प्रमाण और एक पल्योपम आयु है । ये चौबीस कुभोगभूमि कालोदधि के दोनों ओर तथा पुष्कर समुद्र के एक ओर इस तरह तीन जगह में होती हैं। इनके ९६ पर्वतों के यही नाम हैं। उसी में रोरुग पर्वत की विशाल गुफा में रहकर नाना प्रकार के रुचिकर पाषाण खंड तथा शर्करा के समान स्वादिष्ट रेत को और केले के पत्ते नारियल नारंगी आदि नाना वृक्षों के पके फलों को खाकर तथा वापीकूप सरोवर, दीपिका के क्षीर, घृतइक्षु रस को पीकर जीते रहते हैं । इनके जीने का समय एक पल्योपम होता है । कुभोगभूमि में उत्पन्न होने के निम्नलिखित कारगर हैं । कुपात्र को दान देना, दान देकर रोना, दान देने वाले को देकर उनसे घृणा करना तथा दान जबरदस्ती देना या दूसरे के दबाव से देना, या अनेक प्रकार के प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान से दान देना या अन्याय से द्रव्य उपार्जन कर दान देना, सप्तव्यसन सहित दान देना या किसी प्रेम से दान देना या मंत्र कार्यादिक से दान देना या सुतक पातक आदि के समय दान देना या रजस्वला से दान दिलाना, भावशुद्धि रहित दान देना प्रादि या जाति कुलादि के घमंड से दान देना, या जाति संकर प्रादि दोषों से युक्त होकर दान देना तथा कुत्सित भेष धारी, मायावी जिन लिंग धारी, ज्योतिष मंत्र तंत्र वाद, दातृ वाद, कन्या बाद, वैद्य विद्या से जीवन करने वाले, संघ को छोड़कर एकाकी रहने वाले को, या दुराचारी को, या कषायोद्रेक से संघ में कलह करने वाले प्रतादि भगवान में निर्मल भक्ति न रखने वाले को, मौन को छोड़ भोजन Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) करने वाले इत्यादि को दान देने से कुभोग भूमियों में उत्पन्न होते हैं । कुभोग भूमि के मनुष्य स्वभाव से मंद कषायी होने से स्त्री पुरुष मिथुन देव गति को जाते | वहां से मिथ्यादृष्टि जीव भवन त्रिक में तथा सम्यग्दृष्टि जीव सौधर्म ईशान में उत्पन्न होते हैं । सूत्रः--- पंच मन्दारगिरयः ॥ ६॥ अर्थ :- जम्बू द्वीप में १, धातकी खंड द्वीप के पूर्व पश्चिम दिशा मे एक एक, पुष्करा द्वीप के पूर्व पश्चिम में एक-एक इस सरह ५ मेरु पर्वत हैं । असंख्यात द्वीप समुद्र के बीच में जम्बू वृक्ष उपलक्षित जम्बू द्वीप के बीच भाग में, जैसे बीच में कोई स्तंभ हो, इस प्रकार पद्म कणिका के समान सुदर्शन मेरु है उसका परिमाण इस प्रकार है । ( कनड़ी पद्य ) नव नबति दर्शकम । नवय बदि मडिसि पंच शतयोजनदि । दव निर दोडिसि मूलदो । ग्रविभागं व्यास माळके तगिरि बरवा | सुमेरु पर्वत की ऊंचाई ६६,००० हजार योजन भूतल से है । चित्रा भूमि में १००० योजन है। इस प्रकार कुल एक लाख योजन हैं । मूल में मेरू पर्वत का बिस्तार ६०,००० योजन प्रमाण तथा कैंपर ६००० योजन प्रमारग है । गाथा मेरू विदेहमज्यावरण उदिवहि क्क यो जरण सहस्सा । उदयभूमुहवास उवरूवरिगण चउक्कजुदा ॥ १०॥ । वह सुमेरु पर्वत सुवर्णं वर्ण है, उसमें जामुन के रंग समान वैडूर्य मरिण मय प्रत्येक दिशा में चार चार प्रकृत्रिम जिन भवन सहित ऊपर ऊपर भद्रशाल नन्दन, सौमनस, तथा पांडुक बन हैं । पाण्डुक वन में ईशान आदि विदिग्विभाग में प्रतिष्ठित चार पांडुक शिलाऐं हैं पूर्वापर दक्षिणोत्तर आयत हैं। उनका आकार आधे चन्द्रमा के समान हैं। कांचन, रूप्य, तपनीय तथा रुधिर समान लाल उनकी प्रभा है । पांडुक शिला १०० योजन लम्बी है । ५० योजन चौड़ी तथा ८ योजन ऊंची हैं। उन पांडुक शिलाओं के पूर्व दिशा के श्रभिमुख तीन पीठिका मय सिंहासन हैं तीर्थंकर का जन्माभिषेक सौधर्म ईशान इन्द्र उन ही सिंहासनों पर करते हैं। भरत, पश्चिम विदेह, ऐरावत, पूर्व विदेह के तीर्थंकरों का अभिषेक उन पर होता है। भगवान के जन्माभिषेक के जल से पवित्र किया हुआ पांडुक, पांडु कम्बल, रक्त कम्बल, प्रतिरिक्त कम्बलनामक सुन्दर चार शिलाऐं हैं । वहां Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव दम्पत्तिकी क्रीडा के स्थान हैं । लोकपाल आभियोग्य देवों द्वारा सेवनीय ऐसा महामेरु पर्वत है । उस मेरु पर्वत के नीचे __ (कनाड़ी श्लोक) केळ गिर्दु दवोलोकं बळ सिधुदु मध्यलोक विई दुतुदियोळ । . तोळ ऊध्र्व लोक मेने भू । याद गोळा मगिरि गिरियोजले ॥२ __ अधोलोक है । उस मेरु पर्वत के मध्य में मध्यलोक है । उस के ऊपर ऊर्ध्व लोक है । सुमेरु पर्वत के भद्रशालादि वन कैसे हैं ? सो बतलाते हैं । पर्वत के नीचे २२००० योजन विस्तार वाली भूमि में भद्रशाल वन है। वहां से ५०० योजन ऊपर में ५०० योजन विस्तार बाला दूसरी मेखला में नंदन वन हैं। वहां से ६२५०० योजन ऊपर में ५०० योजन बिस्तार से वेष्टित तीसरी मेखला में सौमनस वन है । उससे ३६००० योजन ऊपर में पांडुक वन है । उसकी उपरिम मेखला में ४६४ योजन' विस्तार वालो मंदर चूलिका है । मेरु पर्वत से दक्षिण, लवणसमुद्र की वज़ वेदिका से उत्तर में भरत, हैमवत, हरिवर्ष, विदेह, रम्यक हरण्यवत, ऐरावत ऐसे ७ क्षेत्र हैं। शेष ४ मेरु पर्वत ८४००० योजन ऊंचे हैं । वे क्ष ल्लक मेरु के नाम से प्रसिद्ध हैं। पहले कहे हुए भद्रशालादि घन उन पर्वतों पर भी है। सूत्र: - जम्बूवृक्षाश्च ॥७॥ अर्थ--मेरु पर्वत के समीप उत्तरकुरु के पूर्व में जंबूवृक्ष का स्थान है उसका विस्तार ५०० योजन है । अन्त में ३ (आधा) योजन विस्तार मध्य भाग में पाठ योजन बाहुल्य है। उसका आकार गोल है, रंग स्वर्ण मय है। उस के ऊपर १२ योजन चौडा ८ योजन (ऊचा) जम्बूवृक्ष है । उस स्थान के कार वलयाकार १२ वेदिका हैं । चार गोपूर सहित हैं उसके बाहर के बलय से लेकर प्रथम द्वितीय में कुछ नहीं है । तृतीय वलय के पाठ दिशात्रों में १०८ प्रातिहार्य जाति के देव वृक्ष हैं। चतुर्थ वलय के पूर्व दिशा में देवी के चार वृक्ष हैं पांचवें में वापी कूप सरोवर इत्यादि से शोभित वन हैं। छठे में कुछ नहीं है। सातवें के चार दिशाओं में अंग-रक्षक के १६००० वृक्ष हैं। अष्टम वलय में ईशान उत्तर वायव्य में सामाजिक ४०० देवों के हैं। नवें बलय के अग्नि कोण में अभ्यन्सर परिषद के ३२००० वृक्ष हैं। दश के दक्षिण दिशा में मध्यम परिषद के ४००० वृक्ष हैं । ग्यारहवें के नैऋत्य कोण में बाह्य परिषद के ४२००० वृक्ष हैं। द्वादशवे के पश्चिम दिशा में वाहन देव के ७ वृक्ष हैं। ये सब Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) मिलकर १,४०,१२० वृक्ष होते हैं । अब आगे कहे जाने वाले पीठ के ऊपर प्राधे योजन चौड़ाई बाली और सदा काँपने बाली मरकत मरिण-मय दो योजन सुरक्षित वनमय ८ योजन विस्तार बाली तथा अर्ध योजन चौड़ाई संयुक्त ४ महा शाला है । अनेक रत्नमयी शाखाएं हैं। उसके ऊपर कमल पुष्प है मृदंग आकार के फल पृथिवी को सार भूत बनाने वाले हैं । १० योजन ऊंचाई ६ योजन मध्यम विस्तार वाले ४ योजन अन विस्तार संयुक्त उत्तर कुल गिरि के समीप शाखा में १ कोश विस्तृत जिन मंदिर है । बाकी शाखा में लक्ष कुल के आदर अनादर आवास है । इस जंबू वृक्ष के परिवार वृक्ष सभी अर्ध प्रमाण वाले होते हैं । शाल्मलयोपि ॥८॥ शाल्मलि वृक्ष का रूम्यमय स्थल है इसका विवरण पहिले कहे हुए जंबू वृक्ष के समान है यह सीतोदा के पश्चिम तट के निषध पर्वत के समीप, मंदर के नैऋत्य दिशा के देवकुरू में है। शाल्मली वृक्ष की परिवार संख्या १ लाख ४० हजार ११६ है। मुख्य शाल्मली के दक्षिण शाखा में जिन मन्दिर है। शेष ३ शाखा में वेणु धारियों के आवास स्थान है । कानड़ी श्लोक हेमाचल दीशान दो ळा मंदर गिरिय नरूतिय विसेयोळ जं । बू मही रूहद शाल्मलि। भूमि जमु कुरुमही तळंग ळोळेसगु॥२८॥ चतुस्त्रिशद्वर्षधर पर्वताः ॥६॥ अर्थ----ौंतीस कुल गिरि है । भरतादि क्षेत्रों का विभाग करने वाले हेम, अर्जुन, तपनीय, वैडूर्य, रजत, हेममय ६ कुलगिरि हैं । मरिण विचित्र पाव वाले मूल उपरि में समान विस्तार वाले हैं। सिद्ध आयतन प्रादि क्लटों और किलों से सुशोभित होकर हिमवन्त, महाहिमवन्त, निषध, नील रूक्मि, शिखरी नामवाले वे कुलाचल पर्वत हैं । हिमवान पर्वत की ऊंचाई १०० योजन, गहराई २५ योजन, विस्तार (मोटाई) १०५२१३ योजन है । निषध पर्वत तक विस्तार दुगुना-दुगुना है। निषध के समान नीलाद्रि है उसके आगे उत्सेध (लम्बाई) प्रादि आधी-प्राधी है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा हेममुगनपनीयाकमसोवे ळ पर्यरजतहेममया। इगिदुग चउ चउ बुगियिगि समतुगाहोन्तिहु कमेण ॥११॥ अर्थात्-इन हिमवत् प्रादि ६ कुल पर्वतों को ५ गुना करने से ३० संख्या होती है । वे सुवर्ण आदि वर्ण वाले हैं । ४०० योजन ऊंचाई १००० योजन विस्तार बाला है। ४ लाख योजन लम्बा धातकी खंड तथा ८ लाख योजन विस्तार बाला पुष्कराई है। उसके दक्षिण तथा उत्तर में एक-एक ईष्वाकार पर्वत है। लवण और कालोदधि तक तथा कालोदधि से इस मानुषोत्तर पर्वत तक रहने वाले ये चार इष्वाकार हैं। इनमें ३० कुल गिरि मिलकर कुल ३४ वर्षधर पर्वत होते हैं। . त्रिंशत्युत्तरशत सरोवराः॥१०॥ अर्थ-१३० सरोवर हैं। पद्म, महापद्म, तिगंछ, केसरी, पुण्डरीक, महा पुण्डरीक नामक ६ सरोवर, हिमवत आदि ६ कुल पर्वतों के उपर क्रमश: है। प्रथम सरोवर पद्म की लम्बाई १००० योजन है । विष्कंभ (चौड़ाई) ५०० योजन है। और १० योजन गहरा है । उसमें (कमल)पुष्करका विष्कंभ १योजन है । उसकी कणिका १ कोस प्रमाण है, पद्म ह्रद से दुगुना महापद्म और उससे दुगुना तिगंछ ह्रद है केशरी और तिगंछ एक समान हैं और उससे आगे ह्रद क्रमश: प्राधे-आधे विस्तारवाले हैं। करिणका पीले रंग की है । उस करिणका में पंच रत्नखचित एक-एक प्रासाद है । उसके समीप में सामानिक, पारिषद्, आत्म रक्षकादि देव परिवार सहित रहते हैं। सौधर्म, ईशान, इन्द्र की आज्ञाकारिणी देवो उन प्रासादों में रहती हैं और जिनमाता के गर्भशोधन क्रिया के समय में वे आती हैं। पल्योपम आयु प्रमाण वाली वे श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी नामक देवियां क्रमश: उन सरोवरों के कमल प्रासादों में रहती हैं। उत्तर कुरु पूर्व भद्रशाल वन में समान नाम वाले सीता नदी के पास १००० योजन लम्बाई वाले ५०० योजन चौड़ाई वाले हैं। नीन उत्तरकुरु, चन्द्रिका, ऐरावत, मालवन्त, नामक पांच ह्रद हैं । पश्चिम भद्रशाल वन में समान नाम वाले सीता, सीतोदा, नवी के पास पहले कहे हुये पायाम और विस्तार से युक्त निषध, देवकुरु, सुर, सुरा, सुलसा, विद्युत नामक ५ सरोवर हैं, इसी प्रकार १० सरोवर देवकूर है। ऐसे २० सरोवर के पद्म प्रासाद के अन्दर नाग कुमारियाँ और उनके परिवार Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . () रहते हैं । पद्म सरोवर में पहले कहे अनुसार १ लाख ४० हजार १ सौ पन्द्रह परिवार हैं । जम्बू द्वीप में पद्म आदि ६ सरोवर तथा देवकुरु उत्तरकुरु के २० सरोवर यानी सब २६ सरोवर हैं। पद्म (छोटे कमल) धातकी खंड में उनसे दुगुने यानी ५२ और पुष्करार्द्ध में ५२ ऐसे कुल १३० सरोवर हैं । सूत्र सप्ततिर्महानद्यः ॥११॥ अर्थ--७० महानदियाँ हैं । उनका विवरण बताते हैं...... ऊपर कहे हुथे पद्म सरोवर से उत्पन्न होकर गंगा नदी उस पर्वत के कुछ योजन प्रागे चलकर प्रणाली (मोरी) से बाहर आकर पर्वत के नीचे कुण्ड के मध्य में स्थित देवता कूट में विराजमान जिन बिब के मस्तक के ऊपर जन्माभिषेक के समान गिरती है। वहाँ से प्रवाह रूप धारा-वाही होकर उस कुड से बाहर आकर भरत क्षेत्र में बहती हुई महानदी के रूप में आगे जाकर लवरण समुद्र में मिल जाती है। इसी प्रकार अन्य नदियां भी बहती हैं। अब नदियों के नाम बताते हैं .-- गंगा, सिंधु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकांता, सीता सीतोदा, नारी नरकांता, सुवर्ण कूला, रूप्यकुला, रक्ता, रक्तोदा ऐसी १४ नदियां हैं। इनको घातकी खंड तथा पुष्करार्द्ध की नदियों की अपेक्षा पांच गुणा करने से ७० महा नदियां होती हैं । भरत में गंगा सिन्धु, ऐरावत में रक्का रक्तोदा बहती हैं उन प्रत्येक नदी के १४००० परिचार रूप सहायक नदियां हैं। रोहित-रोहितास्या. सुवर्णकूला रूप्यकुला हेमयत तथा हैरएयवत क्षेत्र में बहती हैं उन प्रत्येक की २८०००-२८००० परिवार नदियाँ हैं । हरित द्रिकान्ता नारी नरकान्ता कामशः हरि तथा रम्मक क्षेत्र में ५६००० नदी परिवार सहित बहती हैं। देवकुरुउत्तर कुरु में सीता, सीतोदा नदी ८४०००-८४००० परिवार नदियों के साथ बहती हैं। इस प्रकार ये सभी मिलकर धातकी खेड तथा पुष्कराद्ध द्वीप में दुगुनी रचना के अनुसार ५ गुणा करने से ८६६०१५० नदिया अढ़ाई द्वीप में हैं। सूत्र विशति भिनगाः ॥१२॥ स्थिर भोग भूमि में ग्रानी जम्बू द्वीपवर्ती जघन्य तथा मध्यम भोगभूमि के क्षेत्रों में १००० योजन विस्तार वाले ४ नाभि गिरि हैं। उनके नाम षड्जवन्त, विचटवन्त, पद्मवन्त और गन्ध हैं। ये सफेद वर्ण हैं। इन पर्वतों के ऊपर देवेन्द्र के अनुचर स्वामी वारण. पद्म, प्रभास. रहते हैं। इन ४ नाभि पर्वतों को पांच गुणा करने से २० (वृत्त विजार्द्ध) नामी पर्वत होते हैं । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) ! विशतिर्यमकगिरयः ॥१३॥ अर्थ-बोस यमक पर्वत हैं । ___ कनाड़ी छन्द वरनील निषध पार्श्व दो। ळे रकुलामपि पलिगमाता-॥ बेरडेरडी यमक नामक-। गिरिपति गळ व्यंतरामरा यासंगळ ॥ अर्थ---नील, निषध, पर्वत के पावं में दो कलगिरि हैं। बाकी में ये दो-दो यमक नाम के गिरिपति हैं । वहां व्यंतरामर का वास है। यमक, मेघ, चित्रा, विविश्रा, ये उन यमक गिरियों के नाम हैं। इनकी लम्बाई, चौड़ाई १००० योजन, मुख का विस्तार ५०० योजन है । उनको पांच गुणा करने से २० यमक गिरि होते हैं। सहस्रकनकगिरयः ॥१४॥ अथं-१७०० कनकगिरि हैं। अब १००० सुवर्ण के पर्वतों (कनकगिरियों) का वर्णन करते हैं । कनाड़ी छन्द कुरुभद्रशाल मध्य दो। ळे रडुकुलनदि गळे दु ऐवागे सरो॥ वरमिप्पत्तं देवादा। सरंगळाकेल वोळ सेये कनकाद्विगळे ॥ . कुल भद्रशाला के दो, कुलनदी पांच-पांच होकर सरोवर २५-२५ होकर मह कनकाद्रि गिरि होती हैं। उत्तर कुरू में तथा पूर्व भद्रशाल वन में देवकुरू में तथा पश्चिम भद्रशाल वन में ५-५ सरोवर हैं उनके तट पर ५, ५ पर्वत होने से २०० होते हैं । उसको पांच गुना करने से ५ मेरुषों के १००० सुवर्ण पर्वत होते हैं। उनकी लम्बाई १०० योजन होती है। उनके मुख का विस्तार ५० . योजन होता है। उनके शिखर में शुक्ल वर्ण के व्यंतर देव होते हैं । चत्वारिंशत् दिग्गज पर्वताः ॥१५॥ अर्थ-४० दिग्गज पर्वत हैं। भग ४० दिग्गज पर्वतों का विवरण बताते हैं। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) [ कानड़ी छन्द ] कुरूभवशाल मध्य दो । रडु ल कुनदि गळिक्कलं गळोळ दि ॥ करि गिरि यर डेर डप्पयु विस । निरतिशय व्यंतरावतिंगळ ॥ देवकुरु भद्रशाल के मध्य में दो कुलनदी होकर वहीं उस में दिग्गिर दो दो होते हैं । उसमें निरतिशय व्यंतर असित (काले ) रहते हैं । दिग्गज पर्वत की लम्बाई तथा चौड़ाई १०० योजन है । उसके मुख का विस्तार ५० योजन है । जम्बू द्वीपवर्ती ८ दिग्गज पर्वतों के नाम पद्मोत्तर, नील, स्वस्तिक, अंजन, कुमुद, पलास, अवतंस और रोचन हैं। उनको पांच से गुणा करने से ४० दिग्गज गिरि होते हैं । शतं वक्षार पर्वताः ॥ १६॥ अर्थात् - १०० वक्षार पर्वत हैं ! मेरु पर्वत की ईशान दिशा से ५०० योजन दूर विभंग नदी हैं । तप्तजल, मत्तजल, उन्मत्तजल ये सीन नदियां हैं । क्षारोधि, शिरोधि, स्रोतवाहिनी ये तीन नदियां हैं। गंभीर मालिनी, फेनमालिनी कर्मि मालिनी इत्यादि १२ नदियां हैं। इनको पांच गुणा करने से ६० विभंग नदियां होती हैं । १ योजन लम्बा चौड़ा माल्यवन्त तथा महासौमनस, विद्युत्प्रभ, गन्धमादन ये चार गजदन्त पर्वत हैं। मेरु पर्वत के पूर्व भद्रशाल वन की वेदिका से पूर्व सीता नदी के पश्चिम से लेकर चित्रकूट, पद्मकूट, नलिन कूट एक शैल; ये चारों २६२२ योजन विस्तार वाले हैं। देवारण्य से पश्चिम सोता नदी से दक्षिण में चित्रकूट, वैश्रवरकूट, अंजनकूट श्रात्माजन कूट ये चार मेरु पर्वत के पश्चिम भद्रशाल से पश्चिम सीतोदा से दक्षिण में षड्जवन्त विचटवन्त, श्राशीविष, सुखावह ये चार, भूतारण्य से पूर्व दिशा में सीता नदी के उत्तर में हैं। चन्द्रमाला, सूर्यमाला नागमाला, देवमाला ये चार वक्षार वाले गजदन्त पर्वत २० हैं । इसको पाँच से गुणा करने से १०० वक्षार पर्वत होते हैं । षष्ठि विभंगानद्यः ॥ १७॥ अर्थ - ६० विभंग नदी हैं । ६० विभंग नदियों का विवरण बतलाते हैं । पहिले कहे हुये वक्षार पर्वत के समीप रहने वाली १२५ योजन विस्तार वाली गृहवती, द्रववती, पंकवती ये दिभंग नदियां हैं । तप्तजल, उन्मत्तजल, मत्तजल में तीन नदियां हैं । क्षारोषि Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिरोधि, स्रोतवाहिनी, ये तीन नदियां है । गंभीर मालिनी, फेन मानिनो, उमि मालिनी ऐसी १२ नदियों को ५ से गुणा करने स ६० होतो हैं । ये ६० विभंग नदी है । षष्ठ्युत्तरशतं विदेहजनपदाः ॥१८॥ अर्थः-पांच विदेह के १६० देश हैं । उनका वर्णन करते हैं? कच्छ, सुकच्छ, महाकच्छ, कच्छकावती, यावर्त, लांगलावतं, पुष्कला, पुष्कलावती, ऐसे पाठ देश पूर्व विदेह के सीता नदी के उत्तर के देश हैं। वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्य, रम्यक, रमणीक, मंगलायती-ऐसे ये पाठ सीता नदी के दक्षिण के देश हैं। पद्य, सुपद्म, महापद्म, पद्मकावती, सख्य, नलिन, कुमुद, सरित,ये पश्चिम विदेह के सीता नदी के दक्षिण बाजू के देश हैं । Vवन, सुवप्र, महावप्र, वप्रकावती, गंधि, सुगधि, गंधित्ला, गंधमालिनी ये आठ जनपद पश्चिम विदेह के सोता नदी के उत्तर तट के हैं। ये सब २२१२ योजन विस्तृत देश हैं। प्रदक्षिणा के क्रम से महानदी के तटवर्ती हैं। ये देश भक्ति विशाल ग्राम, नगर, खेत, कर्वट, मटम्ब, पत्तन आदि से वेष्टित हैं । अनेक नदी, उद्यान, दिपिका सरोवर, (कमल से शोभित) अत्यन्त विनीत जनों से संकीर्ण एक एक खंड होते हैं । उसके मध्य में चालोस कोस लम्बे ३६ कोस चौड़े नगर हैं । अब चक्रवर्ती की राजधानी का नाम कहते हैं । . क्षेमा, क्षमपुरी, अरिष्टा, अरिष्टपुरी, खलीग, मंजूषा, प्रोसपुरी, पुण्डरीकिरणी,सुषमा, कुण्डल, अपराजित, प्रभंकर, अंक, पद्मावतो, शुभारत्न संचय ऐसे पूर्व विदेह सेसंबंधित नगर हैं। अश्वपुरो, सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका, विशोका, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजिता, चक्रपुरी, खडगपुरी, अवधपुरी, और अयोध्यापुरी ये १६ नगर अपर विदेह के पद्मावती देश संबंधी है इन ३२ जनपद को ५ मेरु पर्वत सम्बन्ध से पंचगुना करने पर १६० देश और १६० नगर होते हैं। श्लोक कानड़ी:-- चरमोत्तम देहदु । ... धरतपदिदं विवेह रप्पुरवा । .. धरगिगे विदह में दो . ... विरे संदो नाम मंतदक कन्वथं ॥२६॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) चररळ युनू बिल्लु निडियर् । परमस्थिति पूर्व कोटि मत्तामहियोळ ॥ परसमयमिल्ल धर्मे श्वरि जिनधर्म मोवे बेळगुतिक्कु ॥३०॥ अर्थ:--यहाँ के मनुष्य चरमशरीरी होने से, दुर्धर तपस्या की शक्ति होने से और उस क्षेत्र के मनुष्य हमेशा सम्यग्दृष्टि होने की प्रापेक्षा विदेही रहते हैं । इसलिए उस क्षेत्र का नाम 'विदेह' सार्थक है ॥२६॥ उनके शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष होती है। प्रायु एक करोड़ पूर्व होती है। उस भूमि में पर-समय की चर्चा क्षण भर भी नहीं होती है। हमेशा धर्म चर्चा के सिवाय अन्य पर आदि की चर्चा नहीं होती है। वहां हमेशा हय. समय जैन धर्म की प्रभावना चारों ओर फैली रहती है। ___ उन अवस्थित कर्म भूमियों में दुषमा सुषमा नाम का एक ही काल एक स्वरूप से प्रवर्तता है । और वहाँ चौदह गुरगास्थान, दो जीव समास, दस (१०) प्रारण, ६ पर्याप्ति, ४ संज्ञा, मनुष्य गति, अस कायिक, तेरह योग, तीन वेद, कषाय चार, ज्ञान आठ, सात संयम, चार दर्शन, लेश्या ६, भव्य प्रभव्य, छ: प्रकार के सम्यक्त्व मार्गणा, संजी, आहारक, अनाहारक, १२ उपयोग, सामान्य रूप से विदेह क्षेत्र के मनुष्यों को होते हैं। बल्लि पसविळदिडामर। मल्लिबरं मारि पेरखुमाकुलतेगळं॥ तल्लि पोरगिलेपनवनिय - रल्लि षड़शमने कोंडु परि पलिसुबर ॥३१॥ अर्थ-उस क्षेत्रवर्ती मनुष्यों को उपवास मादि करने में कष्ट अनुभव नहीं होता, प्राकुलता नहीं होती । वहां अन्य कोई झूठे आडंबरादि मायाचार की क्रिया नहीं है। वहां हमेशा देव लोकों का आवागमन होता है। वहां के मनुष्यों में पाकुलता, महामारी या अन्य कोई और रोग नहीं होता। वहां अनावृष्टि, अतिवृष्टि नहीं होती । उस क्षेत्र के लोग हमेशा दान, देवपूजा, संयम, गुरुपूजा, तप, स्वाध्याय इन छः क्रियायों में लीन रहते हैं। : 'उस क्षेत्र में कुबेर के समान धनवान देश्य, सरस्वती के समान विद्या में चतुर, कामदेव के समाम सुन्दर रूप वाले, देवेन्द्र के समान सर्व सुख भोगने वाले । तीर्थकर की माता के समान शीलवती स्त्रियां, रति, तिलोत्तमा से भी अधिक रूप वाली युवतियां, राजा श्रेयांस के समान वानी, चारुदत्त से बढ़कर त्यागीः । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदा होते रहते हैं और चक्रवर्ती, अर्ध चक्रवर्ती, मंडलीक, महामंडलीक, मुकुटबद्ध राजा सदा होते हैं । तीर्थकर परमदेव, अनगार केवली, श्रुतकेवली, चारण ऋद्धि धारी मुनि, ऋद्धि धारो मुनि, सर्वावधि-सम्पन्न, मनःपर्यथ--ज्ञानी, परिहारविशुद्धि संयमी, आहार ऋद्धि प्राप्त मुनि, अष्टांग निमित्त ज्ञानी, परम भावना निरंजन शुद्धात्म भावना में रत भेदाभेदरत्नत्रय-प्रिय. भेद-विज्ञानी ऐसे परम योगी निरन्तर विदेह क्षेत्र में होते रहते हैं ? इस प्रकार विदेह में हमेशा समान काल प्रवर्सता है। सप्तत्यधिकशतविजयाधपर्वताः ॥१९॥ अर्थ-१७०विजया पर्वत हैं । वे इस प्रकार हैं- भरत, ऐरावत, विदेह के बीच में पूर्व से पच्छिम तक फैले हुए २५ योजन ऊंचे, मूल, मध्य शिखर भाग में कम से ५०-३०-१० योजन विस्तार वाले विजयार्द्ध पर्वत हैं । विजयार्द्ध पर्वतों को तीन मेखला(श्रेणी) हैं उनमें से पहली मेखला(धेरणी) में विद्याधर रहते हैं । प्राभियोग्य जाति के तीन प्रकार के देव द्वितीय मेखला में रहते है। शिखर में सिद्धायतनादि कूट होते हैं ? विजयार्द्ध पर्वत के ऊपर से आती हुई दो नदियों के कारण क्षेत्र के छह खंड हो जाते हैं। वृषभगिरयश्चोति ॥२०॥ अर्थ-विदेह, भरत, ऐरावत के मध्य म्लेच्छ खंडों में १७० वृषभ शतयोजनमुन्नतिथि। दतीत चक्रिगळ पेसळ दिडिगिरि-।। जितमागिनिद वृषभ। क्षितिधर मुख्यंगळोंदु गेयदेसेदिक्कु ॥३२॥ कुलगिरि कुलनदि रजता-। चल वक्षारादि कनकगिरि जम्बूशा-॥ लमलि विजयविभंग नदि । कुलमेंदिव नेदु मदु पुदु गेळिसिक्कु ॥३३॥ अर्थात्-एक सौ १.० योजन ऊंचे, प्रतीत काल के चक्रवर्ती के नामों से भरे हुए अत्यन्त उम्मत वृषभगिरि पर्वत पांच दिशामों में खड़े हैं। कुलमिरि कुलनदी, रजसाचल, क्षाराद्रि, कनकगिरि, जम्बू शाल्मली, विधेय, विभंग नदी कुल इत्यादि नाम हैं। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) पहले कहा हुआ जम्बुद्वीप प्राकारादि से घेरा हुअा वज्रवेदिका व २००००० योजन विस्तार वाले लबरण समुद्र से घेरा हुआ है । समुद्र के बीच में १००००० योजन लम्बे चौड़े (मूल में) मध्य विस्तार १०००० हजार योजन गहरे और उसी प्रमाण के मुख विस्तार वाले महा पाताल, चारों दिशाओं में चार हैं। उससे दक्ष गुगणे छोटे पाताल ईशान आदि दिशात्रा में १० हजार योजन विस्तार वाले हैं । समस्त पाताल १०० हैं । उनके नीचे के तीसरे भाग में केवल वायु भरी हुई है । ऊपर एक भाग जल से ही भरा हुआ है, दीच के भाग में जल और वायु है। कृष्ण पक्ष में नीचे की वायु समुद्र के बीच में से उछल कर पहले से जल हानि होती है। शुक्ल पक्ष में वायु ऊपर से और जोर से चलने से बात वृद्धि होती है । कहा भी है कि: हेड्डु परियतिम भागे रिणयदब्बाल ज्लन्तुमझाम्म । जलयां जलवाडि किण्हे, सुक्केय पादस्सा ॥१२॥ इस कारण से चन्द्रमा के साथ समुद्र का पानी बढ़ता है और फिर घटता जाता है, ऐसा कहते हैं अत: शुक्ल पक्ष में समुद्र में पानी बढ़ता है और कृष्ण पक्ष में पानी कम होता है । आगे धातकी खंड और पुष्कराध के स्वरूप को कानड़ी छन्दों में बतलाते हैं। वक्षार कुलाचल। शरदंबुज पंड कुड मेंब नितरवि-॥ स्तार मिमडि गेयदपुछ। सरिसंगुबे ळगं पुष्कराचं बरेगं ॥३४॥ गिरि मानुषोतरं पु-। करार्ध वोळ नरर्गे वज्रवेविकेयिप्पं-।। तिरे सुत्तिर्दत्तरोळ । घर जिनभवनाळि नाल्के नाल्कु देशेयोळ ॥३५॥ मंदर महियद रोळं जिन-। ' मंदिर मेंभतु नरु वक्षार दोळं ॥ संदिपकार चतुष्कदो-। ळंदिन कृत प्रभुकुलाद्रि मूवत्त रोळं ॥३६॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) शतयुत सप्तति रुप्य । क्षितिधर दोळ मैयदु शाल्मलियोळं जम्बू- ॥ क्षिति रूह पंचफ वोळ मु-। न्नत गृह मोरोंदमेल्लवं वंदिसुवे ॥३७॥ गाथा: लबरणहर लोय जिणपुर चत्तारि सयारिण दोविहिणाणु। बावण्ण चउ चउ कोडि सरकुडले रुध ॥१३॥ मंदर कुलबक्खारिसु मणुसुत्तर रुप्प जंबुसामलिसु । सोदिति सन्तु सयं चउचउ सत्तरि सय दुपणं ॥१४॥ अर्थ-वक्षार कुलाचल के नदी, सरोवर, तालाबादि विस्तार की अपेक्षा से प्राधे 7 हैं और ये पुकारा लक मान सत्सेधनाले हैं। पुष्कर द्वीप के बीच में मानुषोत्तर नामक पर्वत है जो कि वलयाकार होते हुये मनुष्यों के लिए वज्र वेदिका के समान है। उसके चारों ओर दिशाओं में धार जिन मन्दिर हैं। पांच मेरु सम्बन्धी जिन मन्दिर ८० है। सौ वक्षारों में हैं, कुलादि पर ३० हैं । वक्षार पर्वतों पर १०० हैं । १७० विजयार्द्ध गिरियों में हैं। ये उन्नत जिन मंदिर हैं। उनको मैं नत मस्तक होकर नमस्कार करता हूं। इस प्रकार बीस सूत्र तक मध्य लोक के स्वरूप का निरूपण किया। ऊर्ध्व लोक का विवरण । देवाश्चतुरिणकायाः ॥१॥ अर्थः-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक ये चार प्रकार के देव हैं 1 पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त दिव्य सुखों के वे स्वयमेव अधिकारी हैं। वनिता बिम्बाधरचु। बनविरसं स्वरूप लावण्य विलो॥ कनहिन्यकण्न पुरनिस्वन दिकि वितनुलसत्कुचस्पर्शनविस ॥३॥ नममग विन्द पोमुव । सुगन्धवि प्रारदिच्छेयि सलिसुव प-10 .. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) सुगेयेरेसि कुओबेरमुव । नेगळ्तेयिं मनमनून सुखनम् पडेगुम् ॥३९॥ बगेदल्लिगे बगेवागळे । बगेदन्दव वाहनंगळागे विळासम् ॥ बगेगोळे सुरपरनोय । बंगेयिदं शीघ्रमागि वाहनदेवर् ॥४०॥ अर्थ- स्वर्ग लोक के देव स्वगीय देवांगनाओं के बिंबाधर अर्थात् बिम्ब फल की लालिमा के समान रक्त वर्ण अधरों के रस का पान करते हुये, उनके अनुपम सौंदर्य का नेत्रों से निरीक्षण करते हुये, पैरों में पहिनी हुई नूपुर को सुमधुर झंकार कानों से सुनते हुये, सुगन्धित हसन्मुख को मुगंध लेते हुये तथा कुच प्रदेश का स्पर्श करते हुए, इन्द्रिय-जन्य अनुपम सुख का अनुभव करते हुए प्रानन्द से अपने समय को बिताते हैं ॥३८-३६॥ कल्पवासी देवों की जहाँ आने-जाने की इच्छा होती है वहां उनकी आशा से वाहन देयों को हाथी-घोड़ा प्रादि वाहन बनकर जाना पड़ता है ॥४०॥ . अब इनके भेद बतलाने के लिये सूत्र कहते हैं: भवनवासिनो दाविधाः ॥२॥ असुर, नाग, सुपर्ण, उपधि, स्तनित, दिक्, अग्नि, वायु, द्वीप और विद्युत् कुमार ऐसे दश प्रकार के भवनवासी देव हैं। इन भवनवासियों में से असुर कुमारों के चमर और वैरोचन, नागकुमार के भूतानन्द और धरणानन्द, सुपर्ण कुमारों के वेणु और वेणुधर, द्वीप कुमारों के पूर्ण और वशिष्ट, उदधि कुमारों के जल कान्त और जल प्रभ, विद्युत् कुमारों के हरिषेण और हरिकान्त, स्तनित कुमारों के घोष और महाघोष, दिक् कुमारों के अमितगति और अमितवाहन, अग्निकुमारों के अग्नि-शिख और अग्निवाहन, वात कुमारों के बैलम्भ और प्रभजन ऐसे बीस इन्द्र प्रतीन्द्र है लोकपाल, प्रायस्त्रिंशत् सामानिक, अंगरक्षक, पारिषदत्रय, अनीक, प्रकीर्णक, भाभियोग्य और किल्विष ऐसे भवनवासी और कल्पवासी देवों के भेद होते हैं । व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में श्रायस्त्रिंशत् और लोकपाल नहीं होते । चमरेंद्र सौधर्म के साथ, वैरोचन ईशानेन्द्र के साथ, भूतानन्द वेणु के साथ, धरणानन्द वेणुधारी के साथ स्वभाव से ही परस्पर ईर्षा करते हैं। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) असुर प्रादि देवों के चिन्हों को बतलाते है :--- [१] चूडामरिण [२] फरिण [३] गरुड़ [४] गज [५] मकर [६] बर्द्धमान [७] वन [८] सिंह [६] कलश और [१०] अश्व ऐसे वस चिन्ह क्रमशः असुरादि देवों के होते हैं। असुरादि के ध्वजा और चैत्यवृक्ष एक ही समान होते हैं सो बतलाते हैंअश्वत्थ, सप्तच्छद, शाल्मली, जम्बू, हच्च, कड, छाया, सिरीश, पलाश, राजद्र म ये तीन कोट, तीन कटनी तथा चार गोपुर और मानस्तम्भ, तोरण आदि से सुशोभित जम्द वृक्ष के समान होते हैं । प्रत्येक वृक्ष के नीचे पल्यंकासनस्थ ५०० धनुष प्रमाण भगवान की पांच-पांच प्रतिमायें प्रत्येक दिशा में विराजमान हैं जिनकी पूजा नित्य प्रति देव करते हैं । चमर देवों के चतुस्त्रिंशल्लक्ष ३४००. ००० भवन हैं । वैरोचन के ३० लाख, भूतानन्द के ४० लाख, जलप्रभ के ३६ लाख, हरिषेण के ४० लाख, महाघोष के ३६ लाख, अमितगति के ४० लाख, अमितवाहन के ३६ लाख, अग्निशिख के ४० लाख, अग्निवाहन के ३६ लाख, वेलम्भ के ५० लाख तथा प्रभजन के ४३ लाख भवन होते हैं। कुल मिलकर ७ करोड ७२ लाख भवन होते हैं । ये सभी भवन रत्नमय है। इन भवनों में संख्यात योजन वाले भी हैं और असंख्यात योजन वाले भी हैं। सभी भवनों का प्राकार चतुरस्र तथा धनुषाकार होता है । उनका विस्तार ३० योजन है । मध्य प्रदेश में १०० योजन ऊंचाई वाले रश्न पर्वतों के ऊपर अत्यन्त रमणीय प्रकृत्रिम चैत्यालय विराजमान हैं । इस भूमि के नीचे १००० ( एक हजार ) योजन की दुरी पर व्यन्तर और अल्पद्धिक देव तथा दो हजार योजन पर महद्धिक देव रहते हैं। इसके अतिरिक्त यदि ४२००० (४२ हजार) योजन पर्यन्त आगे जावें तो उत्तम महद्धिक देवों का दर्शन होता है। भवन वासियों में से असुर देवों के, प्यन्तरों में से राक्षसों के तो पंक भाग में और शेष बचे हुए सभी देवों के खर भाग में भवन होते हैं । इन्द्र तो राजा के समान, प्रतीन्द्र युवराज के समान, दिगिन्द्र तन्त्रपाल के समान, प्रायस्त्रिंश देव पुत्र के समान, सामानिक देव कलत्र के समान, तनुरक्षक देव अंगरक्षक के समान, पारिषद जयदेव माभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य प्रवेशकों के समान, अनीक देव सेना के समान, प्रकीर्णक देव पुरजन के समान, पाभियोग्य देव परिजन के समान और किल्विषक देव गायकों के समान होते हैं। इन्द्र के समान प्रतीन्द्र तथा सोम, यम, वरुण, कुवेर ये पूर्वादि दिशा में रहने वाले लोकपाल देव कहलाते हैं ।।३६॥ त्रायस्त्रिंश देवों की, चमरादिक तीन की, बचे हुए सभी की तथा सामानिकों की संख्या बताई है, सो इस प्रकार हैं: Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १०४ ) सामानिक ६८ हजार, ५६ हजार तथा ५० हजार होते हैं। अंगरक्षकों को २०.६०००, २४००००, २००००0, 000000 संख्या है । पाभ्यंतर पारिपटों की संख्या २८०००, २६०००, ६.६o और ४०००, मध्यम पारिषदों को -- २०००, २८०००, ८०००० है । बाह्य शरिषदों की संख्या ३२०००, ३००००, १०००० और १०००० है। सत्तेव य सारणीया पत्तेयं सत्त सत्त कक्ख जुया ।। . पढम ससमारगसमं तदुगुणं चरिमकरखेत्ति ॥१५॥ अर्थ-अनीक (सेना) सात प्रकार की होती हैं और प्रत्येक सेना को सात-सात पक्षा हैं । पहली सेना सामानिकः देवों के राभान है। अगे-आगे की सेना दुगुनी दुगुनी होती है। असुरेन्द्र के अनीक के महिष, अश्व, गज, :, पदाति, गंधर्व और नृत्यानीक भेद होते हैं। शेष इन्द्रतो, गरुड, हाथी, मर, अट, गेंडा, सिंह, पालकी अश्व, ये प्रथम सेना हैं। शेष अनीक (सेना) ८ ले कहे हुए के अनुसार होती है। पाभियोग्य किल्विषों की यथायोग्य, संख्या होता है असुरश्रय देवों की और शेप देवों की देवियों की संख्या क्रम से ५६०००, ५००००, ४४०००, ३२००० होती हैं। उनकी पट्टारिणयां १६००५, १००००, ४०००, २००० होती हैं । शेष वेचियां प्रत्येक की ८-८ हजार पृथक विक्रिया वाली होती हैं। ये देवियां इन्द्रादि ५ देवों के समान होती हैं । अंग-रक्षकों की. देवियां १०० (सौ), सेमा देवों की देवियां ५०, चभर के अभ्यन्तर पारिषद देवों की देवियां २५०, मध्यमवालों को २७०, बाह्य देवों की १५०, वैरोचन के अभ्यन्तर वालों की ३००, मध्यम वालों की २५७, बाह्य की २० सी, नाग कुमार के अभ्यंतर की २०० मध्यम की १६०, बाध की १४०. गरुड़ के अभ्यंतर पारिषद देवों की देवियां १६०, मध्यम को १४०, याह्य परिषद के देवों की देवियां १२० होती हैं । सर्व निकृष्ट देवों के ३२ देवियां होती है। देव अनेक प्रकार की विक्रिया शक्तिवाली देवियों के साथ में अपनी प्रायु को अवसान तक सुन्दर हर्म्य प्रादि--प्रदेशों में क्रीड़ा करते रहते हैं। . अब इन व्यंतर देवों के रहने के महल कैसे होते है सा बतलाते हैंइस चित्रा पृथ्वी के ऊपरले स्वर भाग में भृत माति वाले देवों के १४००० भवन हैं । एक भाग में राक्षस जाति वाले देवों के १६०२० भवन है। शेष व्यन्तर देशों के रहने के स्थान, बज्जा पृथ्वी के ऊपर एक लाख योजन ऊंचे तिर्यक लोक में यथायोग्य आवास हैं। ये आवास जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद से तीन तरह के . होते हैं। इनमें उत्कृष्ट भवन तो बारह हजार योजन Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०) विस्तार वाले तथा तीन सौ योजन' उत्सेध बाले हैं। पच्चीस योजन तार चाले समान बोन की सनाई गाले लघन्य ग्रावास हैं। इसके बीच और भी अनेक प्रकार की ऊंचाई वाले और विस्तार वाले मध्यम आवास है परों में से उत्कृष्ट पुर इकावन लाख योजन विस्तार वाले, जघन्य पुर एक पॉल विस्तार वाले हैं। ग्रावामों में उत्कृष्ट ग्रावास बारह हजार दो सौ योजन विस्तार वाले है । जघन्य आवास तीन कोस बिस्तार वाले हैं। एक-एक कुल में दो दो इन्द्र होते हैं। एक-एक इन्द्र के दो दो महादेवियाँ होती हैं और दो हजार बल्लभिकायें होती है जो विक्रिया-शक्ति वाली होती हैं। देवियों के साथ में देव लोग-जलक्रीड़ा और सुगन्धित और अच्छे कोमल स्पर्श वाले स्थलों में स्थल क्रीड़ा, चम्पक अशोक सप्तन्छद बनों में होने वाले पुष्पलता मण्डपों में वन क्रीड़ा करते हैं और रजत सुवर्ण, रत्नमय क्रीड़ा-गृहों में अचल क्रीड़ा करते हैं। विचित्र रत्न खचित, षोडश वर्ण निर्मित भवनों की ऊपर की मंजिलों में स्फटिकमय भीतों वाले शयनागारों में पिनी हुई रुई के बने हुये सुकोमल विस्तरों पर सुख क्रीड़ा, विनोद मंदिर में गीत, मैदान में झूला भूलने की क्रीड़ा तथा अश्व, गजादि की क्रीड़ा करते हुए सुख से काल बिताते है। सुगन्धित तथा सुस्वादु दिव्य द्रव्यों को अपने हाथों में लेकर प्रकृत्रिम चंत्यालयों में जावार जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक अष्टविध पूजा करते हुए अपनी 'मायु पर्यन्त सुख से काल व्यतीत करते हैं। वरजिन भवनं भावनामरलोक वोळेळु कोटिय मेगेप्प ।। तेरडेरडुलक्केयस्कुरुमुदवि विनय विमत मस्तक नप्पेम् ॥३६॥ भवनेषु सत्तकोटि बाहतरि लक्स होति जिन गेहा । भवनामरिन्द महिरा भवमा समेतानि वदामि ।। गाथा १६॥ अष्टविधव्यन्तराः ॥३॥ अ-किलर किंपुरुष २, महोरग ३, गंधर्ष ४, यक्ष ५, राक्षस ६, भूत ७ और ८ पिशाच इस प्रकार व्यन्तर ८ प्रकार के हति है । इन व्यन्तरारे. ८ प्रकार के चैत्यवृक्ष होते हैं जो निम्नांकित हैं:-अशोक, चम्पक, पुन्नाग, तुम्बुक बट, पलास, तुलसी तथा कदम्ब ये ८ चैत्यदृक्ष हैं। इन्हीं वृक्षों से पृथ्वी सारभूत रहती है । यह सब जम्बू वृक्षार्द्ध प्रमाण हैं। इन समस्त वृक्षों के नीचे मूल भाग में पल्यङ्कासनस्थ, प्रातिहार्य-सम्बित तथा चारु तोरणों से सुशोभित चतुर्मुखी Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११) जिन बिम्ब प्रत्येक दिशा में विराजमान हैं। १ किम्पुरुष, २ किन्नर, ३ हृदयंगम, ४ रूपपालि, ५ किन्नर किम्पुरुष, ६ अनिन्दित, ७ मनोरम, ८ किन्नरोत्तर, १ रतिप्रिय १० ज्येष्ठ ये किन्नरों के १० भेद हैं। १ पुरुष, २ पुरुषोत्तम, ३ सत्पुरुष, ४ महापुरुष, ५ पुरुषप्रभ, म पनि पुरुष, इ. समर. माद मनाश और १० यशोवन्त ये दस भेद किम्पुरुष देषों के हैं। महोरग में भुजग, भुजंगशाली, महाकाय, स्कन्धशाली, मनोहरा, प्रतिकाय, अशनिज, महेश्वर्य, गम्भीर और प्रियदर्श ऐसे दस भेद होते हैं । हाहानाद, हुहु संज्ञक, नारद, तुम्बुरु, वासव, गंधर्व, महास्वर, गीतरति, गीतयश और दैवत ये गंधयों के दस भेद होते हैं।। यक्षों में-१ मरिणभद्र, २ पूर्णभद्र, ३ शलभद्र, ४ मनोभद्र, ५ भद्रक, ६ सुभद्र, ७ सर्वभद्र, ८ मानुष, ६ धनपाल, १० सुरूप यक्ष, ११ यक्षोत्तम और १२ मनोहर ऐसे बारह भेद होते हैं। राक्षसों में-१ भीम, २ महाभीम, ३ विघ्न, ४ विनायक, ५ उदक रक्षक, ६ राक्षस राक्षस और ७ ब्रह्मराक्षस ऐसे सात भेद होते हैं । भूत जातियों में-~~-१ सुरूप, २ अतिरूप, ३ भूतोत्तम, ४ प्रतिभूत, ५ महाभूत, ६ प्रतिच्छन्न और ७ आकाशभूत ऐसे सात भेद होते हैं। पिशाचकुल में-१ कूष्माण्ड, २ यक्षेश्वर, ३ राक्षस, ४ संमोहन, ५ तारक ६ अशुचि, ८ महाकाल, ६ शुचि, १० शतालक, ११ देव, १२ महादेव, १३ तुष्णिक और १४ प्रवचन ऐसे नौदह भेद होते हैं। किन्नर कुलके-किनर और किंपुरुष, किंपुरुष कुल के सत्पुरुष और महापुरुष । महोरम के अतिकाय और महाकाय, गन्धर्षों के गीतरति और गोतयश, यक्षों में मरिणभद्र और पूर्णभद्र, राक्षसों के भीम और महाभीम, भूत जातीय देवों के स्वरूप और प्रतिरूप, पिशाचों के काल और महाकाल इस प्रकार व्यन्तर देवों में सोलह प्रतीन्द्रों सहित ३२ इन्द्र होते हैं। इन युगलों में से प्रथम-प्रथम इन्द्र दक्षिणेन्द्र और दुसरे-दूसरे उत्तरेन्द्र कहलाते हैं। इन इन्द्रों की भूमियाँ: अंजनक, वनधातुक, सुवर्ण, मरिणशिला, वन, रजत, इंगुलिक और हरताल ये पाठ भूमियां इन्द्रों की होती हैं। इनके दक्षिण और उत्तर तथा मध्य भाग में पाँच २ नगर हैं । ये सब नगर द्वीपरूप हैं। इन्हीं द्वीपों में उपयुक्त इन्द्रों की वल्लभा देधियों के ८४००० नगर हैं ! अवशिष्ट देवों के नगर असंख्यात द्वीप समुद्रों में हैं । चित्रा पृथ्वी के एक हाथ ऊपर नीचउपपाद देव हैं। वहाँ से १०००० हाथ अपर दिग्वासी अन्तनिवासी और कृष्माण्ड देव रहते हैं, वहाँ . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से २०००० हाथ ऊपर उतान्न, अनुत्पन्न, प्रमाण, गन्धर्व, महागन्धर्व के भुंजग, प्रीतिकर और प्राकाशीपपन्न होते हैं। इनके ग्रावास क्रम से दस दस, बीस, बोस, बीस, बीस, वीस, बीस, वीस तथा २० हजार हाथ ऊपर रहते हैं । अब उनको अायु कम से तलाते हैं: उनको अायु क्रम रो दस, बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी हजार वर्ष की होती है। उससे प्रागे पल्प के आठवें भाग, दो पल्य के चतुर्भाग और त्रिपल्य के प्राधे भाग प्रमाण यथाक्रम भायु होती है। ( कामड़ो छन्द) त्रिविधं व्यंन्तरनिलयं । भवनपुरावास भवन भेददिनिन्न । तवनुक्रमविद से। दनु मध्या दिशेगधो भागकु ॥४०॥ ... भवनवासियों में प्रसुर कुमार को छोड़कर शेष कुमारों में किन हो के । भवन, किसी के भवनपुर, किसी के भवनपुरावास ऐसे तीन प्रकार के निलय होते हैं। व्यन्तरावास असंख्यात हैं उन असंख्यातों में से एक का विवरण लिखते है शत गुरिणत योजनत्रय। त्रितहतसख्यात रूपभाजितलोक ।। प्रतरप्रमितं व्यन्तर-। ततिय जिनायतन मिन्तसंख्यातंगळ ॥४१॥ तिणिसय जोयरणार कविहिवपदरस्ससंखभागनिदि । भम्मारणं जिनगेहे गाणनातीदे गमसामी ॥१७॥ पंचविधज्योतिष्काः ॥४॥ अर्थ-चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक और तारक यह ज्योतिषियों के पांच भेद हैं। जितने चन्द्र हैं, उतने ही सूर्य हैं और एक-एक चन्द्र के प्रति शनैश्चर इत्यादिक ८८ ग्रह तथा कृतिकादि २८ नक्षत्र हैं। तारकादि विमानों की संख्या ६६६७५०००००००००००००० (छयासठ हजार, नौ सौ पचहत्तर कोड़ाकोड़ी) हो जाती है । चित्रा पृथ्वी के ऊपर ७६० योजन ऊपर जाने के बाद प्रकीर्णक तारक विमान हैं। वहां से १० योजन Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपर सूर्य विमान है। उसके आगे ५० योजन ऊपर चन्द्र विमान है, तत्पश्चातु ४ योजन धागे नक्षत्र हैं। उससे ४ योजन उपर बुध विमान है । यहाँ से क्रमशः .. ३,३ योजन ऊपर जाने पर शुक्र, बदस्पति, मंगल और शनि के विमान हैं। इस तरह ११० योजन मोटाई में एक रज्जू विस्तार में रहने वाले ज्योतिविमान लोक के अन्त के धनोदधिवातवलय को स्पर्श करने वाले सभी विमान आधे नीचे गोले के समान हैं। उसके ऊपर ज्योतिषियों का नगर है । उस नगर के बोच में एक २ जिनभवन है। उन विमानों के प्रमाग को बताते है-- चन्द्र और सूर्य के विमान ६१ योजन के ५६ भाग और योजन के ४८ भाग १८ क्रमश: होता है । शुक्र के विमान का विस्तार एक कोस, वृहस्पति का किंचित् गन एक कोस है । अंगारक, (मंगल) बुध और शनि के विमान का प्रमाण ता कोश है, नक्षत्र का विमान प्राधा कोश, छोटे ताराओं के विमान कोश "चतुर्थं भाग, उससे बड़े ताराओं का आधा कोस, उससे बड़े विमान कोस का सरा भाग और सबसे बड़े तारागों के विमान एक कोस होते हैं । चन्द्र विमान के नीचे पर्चराहू विमान किचित् न्यून एक योजन प्रमाण है, वह विमान जब चन्द्र विमान को आच्छादित करे तब छः मास में एक बार पूरिणमा के अंत में सोम-ग्रहण (चन्द्र ग्रहण) होता है। इसी रीति से राहु के द्वारा विशेष आच्छादित होने से अथवा नैसर्गिक ख्वभाव से प्रति दिन चन्द्र विमान के सोलहवें भाग कृष्णवर्ण होता जाता है । सूर्य बिम्ब के अधोभाग में रहने वाला अरिष्ट नामक राहु का विमान कुछ कम योजन प्रमाण है। उस बिमान द्वारा छ: मास में एक बार सूर्य विमान आच्छाहित हो तो श्रमावस्या के अन्त में सूर्यग्रहण होता है। ये राब ज्योतिष विमान जम्बू द्वीप के मेरु पर्वत से ११२१ योजनष तक स्पर्श न करके मेरु की प्रदक्षिणा करके संचार करते रहते हैं । लाई द्वीप से बाहर रहने वाले विमान जहाँ के तहां रहते हैं, वहीं रहकर प्रकाश करते हैं । ईयरमोदलोळ बळिकी। रोवर पन्नीवरत्तलल्लि नाल्व-॥ तीवरुमत्तत्तेळ पत्तीर्वरपुष्करकोळंबरम् शशिसूर्यर् ॥४२॥ .. दोहोवग्गं नारसचावाल बिहत्तरिन्दु इणसंखा । पुक्खर वलत्तिपररो अवत्तिया सख्य जोइगरणा ॥१७॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्व टी से कगई लीप पर्यन्त पूर्वोक्त चन्द्र-सूर्य प्रभृति ज्योतिविमान अपनी राशि का अर्द्ध, द्वीप समुद्र के पथ क्रम में संचार करते रहते हैं। कहा भी है कि:सगसगजोइगरणद्धं एक्केभागम्मिदीचुरहियाणा । एक्के भागे अहचरन्ति पत्तेक्क मेरोय ॥१८॥ ऐसे विमान पूर्वादिक चारों दिशाओं में स्थित हैं । करिम्पुक करी हरिरिषभभटा पुरंगमाकार वाहनामररेणछासिरनिरिणखरकर हिमकररोळमौद्ध मक्कुमितरत्रिकदोळ ॥ सभी नक्षत्रों के उत्तर दिशा में अभिजित्, दक्षिण दिशा में मूल नक्षत्र, ऊवं, अधो तथा मध्यम भाग में स्वाति, भरणी, कृतिका रहकर संचार करते है। जो स्थिर नक्षत्र हैं उनका भी यही क्रम है । और तारकात्रों के अन्तर समीप । पाये हुए तारकायों के एक कोश का सातवाँ भाग (3) दूर रहता है। उसका अन्तर ५५ योजन है । गुप्त हुए तारकाओं का अन्तर १००० योजन है। मनुष्य क्षेत्र से बाहर रहने वाले चन्द्रादित्य वलय क्रम से किरण देते रहते हैं। वह इस प्रकार है:-मानुषोत्तर पर्वत से प्रारम्भ होकर द्वीप समुद्र वेदिका के भूल से पचास पचास हजार योजन दूर पर वलय हैं। उसके आगे एक एक लाख योजन दूर पर बलय हैं । मणुसुत्रार सेरणादोवेदियमूलाददिवउवहीणं । पम्णास सयस्साहियलखे लक्खेतदों वलमं ॥ एक-एक वलय में रहने वाले सूर्य और चन्द्र की संख्या कहते हैं: पुष्कर द्वीपार्द्ध के प्रथम वलय में १४४ चन्द्र और इतने ही सूर्य हैं । इसके बाहर के वलय में चार चार सूर्य चन्द्र की वृद्धि होती है। तदनन्तर के द्वीप समुद्रों के अादि में पहले द्वीप समुद्र के प्रादि से दुगुनी संख्या में सूर्य होते हैं। और इसी क्रम से संख्यात, असंख्यात वलय में सूर्य का अन्तर है। अब आगे चन्द्र का अन्तर निर्दिष्ट करते हैं :-- परिधिळ परिधिगे सं। तरबिन्दुर्गाळविभागिसलु तंम तमं ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) तरवक्कु पुष्यदोळ' । सुरुह प्रियरिपरभिजेयोळ हरिरणांकर ||४३|| मनुष्य क्षेत्र के अन्दर रहने वाले सूर्यो का अन्तर लवण समुद्र से लेकर पुष्करार्द्ध द्वीप पर्यन्त अपने अपने क्षेत्र में एक दिशा के सूर्य बिम्ब क्षेत्र को अपने अपने विष्कम्भ से निकालकर शेष बचे हुए श्रंक से उन्हीं विम्बों में भाग देने से अन्तर आ जाता है। उस अन्तर का अर्द्ध प्रमाण छोटी वीथी का अन्तर आता है और पुष्करार्द्ध पर्यन्त दो दो चन्द्रादित्यों के लिए एक गमन क्षेत्र रहता है । उसका प्रमाण ५१० योजन सूर्य विम्बादि से है । जम्बू द्वीपस्थ सूर्य चन्द्र १५० योजन करते हैं। बत्ते हुए योजन लवण समुद्र में र करते हैं और बाहरी सूर्य चन्द्र अपने अपने क्षेत्र में गमन करते हैं । सु प्रतिदिवसमोन्दे वीथियो । ळ तोळल्वरिन्नेन्दु गळ् तमावरिसिरे नरेम् ॥ भत्तनात्कक्कु तारा-1 पतियोऴ् पविनेदुवीथि जिनपतिमतद ||४४ ॥ अपनी अपनी वोथी का विस्तार पिंड के चार ( गमन) क्षेत्र से यदि निकाल दिया जाय तो रूपोन पद भखित अपने अपने वीथी के विस्तार ( चौड़ाई ) पिण्ड को चार क्षेत्र में घटा कर उसमें से एक और घटा देने पर वीथी का अन्तर प्राप्त हो जाता है । उस अन्तर में अपने अपने बिम्ब को मिला देने से दिन की गति निकल श्राती है । विम्वादिकयोजन युग, मम्बुजमित्र दिवसगति दिशोना-1 बेरसिद सुते, विम्ब मुमिन्दु गी श्रदविवेयलंघनेगळ ॥४५॥ सबसे प्रखर वाली भीतर की बीथी का अन्तर रखकर मेरु पर्वत के सूर्य का अन्तर उसमें मिलाकर उभी में दिवस गति मिला देने से वीथी का अन्तर निकल भाता है। इस प्रकार सर्वाभ्यन्तर बीथी के प्रमाण को समझकर उसके साथ दिवस गति की परिधि के प्रभार को गुरणा करके उपर्युक्त अन्तर में मिलाते जायें तो वीथी की परिधि का परिमाण निकल आता है । यह सम सूर्य का वर्णन हुआ इसी प्रकार चन्द्रमा का भी वर्णन समझ लेना चाहिए । चन्द्र और सूर्य बाहर निकलते हुए अर्थात् बाह्य मार्ग की ओर श्राते समय शीघ्र गति वाले और अत्यन्त मार्ग की ओर प्रवेश करते हुए मन्द गति से संयुक्त होते हैं इसीलिए वे समान काल में ही असमान परिधियों का भ्रमण Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं । चन्द्र और सूर्य को छोड़कर बाकी के ग्रह नक्षत्र और तारा ये सब अपनी अपनी वीथियों में भ्रमण करते रहते हैं। सूर्य के द्वारा रात और दिन का विभाग होता है । उनका प्रमाण कर्क राशि से श्रावण मास के सर्वाभ्यन्तर वीथी में सूर्य रहने का दिन अठारह मुहर्त और रात्रि बारह मुहूर्त की होती । इसके बाद प्रतिदिन मुहर्त का इकसठ भाग में से दो भाग प्रमाण रात्रि बढ़ती जाती है, इसो तरह माघ मास में मकर राशि के समय- बाह्य वीथी में सूर्य रहता तब दिन बारह मुहूर्त का और रात्रि अठारह मुहूर्त की हो जाती है । इसके बाद उपयुक क्रम से रात्रि के समान दिन बढ़ता चला जाता । सो गर्नतके गायन्ना गा बाह्म वीथीका प्रमाण ३१६ है । अझ परिधि का प्रमाण ३१५०८६ सथा मध्यम परिधि ३१६६०२ है श्री परिधि ३१८३१४ जलस्पृष्ट भाग परिधि ५२७०४६ है उस परिधि में , सूर्य चन्द्रमा को समान रूप से भाग देकर जो लब्ध आवे वह उष्णता अन्धकार का प्रमाण होता है ऐसी परिधिके क्षेत्र का प्रमाण जान कर गरिणत द्वारा निकाल लेना चाहिये । अब आगे नक्षत्रों के क्षेत्र-प्रमाए को बतलाते है तो इस प्रकार है। मेरुपर्वत के मूल भाग से लेकर मानुषोत्तर पर्वत सक घेरे हुए प्राकाशको १०६८०२ का भाग देकर मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणाके रूप से घेरे हुए अभिजितादि ५६ नक्षत्रोंके गगनखण्ड ३६० हात है । शतभिषा, भरणी, प्रार्द्रा, स्वाति, श्लेषा और ज्येष्ठा इन जघन्य छ: नक्षत्रों का प्रत्येक के १००५ गगन खण्ट होते हैं। अश्विनी, कृतिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पुनर्वसु, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मुल, पूर्वाषाढ़, श्रवण, धनिष्ठा, पुर्वाभाद्रपद, रेवती इन १५ मध्यम नक्षत्रों के गगन खण्ड २०१० होते हैं । रोहिणी, विशाग्वा, पुनर्वसु, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तरा भाद्र पद, उत्तराषाढ़ इन छः उत्कृष्ट नक्षत्रों के प्रत्येक के ३०१५ गगन खण्ड होते हैं । इन सभी नक्षत्रों के गगन खण्डों को मिलाने से १०९८०३ अाकाश खण्ट हो जाते हैं। इन सब गगन खण्डों को अपनी मुहूर्त गति के अनुसार गगन खण्डों का भाग देने से परिधि के योग्य मुहूर्त निकल पाता है। वह कैसे? तो बतलाते है-चन्द्रमा एक मुहूर्त में १७६८ गगन स्थण्डों में भ्रमरण करता है। सूर्य १८३० गगन खण्ड पार करता है । नक्षत्र १९३५ गगन खण्डों को प्राप्त करता है। प्रत्येक नक्षत्र चन्द्रमा के साथ में एक मुहूर्त में ६७ मगन खण्ड पार करता है। सूर्य उसी को ५ मुहूर्त में पूरा करता है । राहु द्वादश भाग अधिक पांच भागों में पूरा कर देता है । ऐसे पूर्ण करने वाले प्रकाश के भागों में अभिजितादि के Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) प्राकाश भागों से भाग देने पर अभिजितादि नक्षत्रों में रहने वाले सूर्य और चन्द्रमा के मुहर्त हो जाते हैं । सो इस प्रकार है-चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र में रहने के समय में मुहूर्त के ३. अधिक नौ मुहूर्त तथा जघन्य नक्षत्रों में १५ मुहूर्त, मध्यम में तीस मुहूर्त, उत्कृष्ट में ४५ मुहूर्त रहते हैं। सूर्य-अभिजित नक्षत्र में चार दिन छ: मुहूर्त, जघन्य नक्षत्र में २१ मुहूर्त अधिक छः दिन, मध्यम नक्षत्र में बारह मुहर्त अधिक तेरह दिन, उत्कृष्ट नक्षत्र में तीन मुहर्त से ज्यादा वश दिन । ऐसे अभिजितादि सब को मिलाकर १८३ दिन होते हैं । ये एक अयन के दिन हुए । अयन दो होते हैं एक दक्षिणायन दूसरा उत्तरायण । ये दोनों अयन मिलकर एक सम्वत्सर होता है, पांच सम्वत्सरों का एक युग होता है। थावरण मास की कृष्णा प्रतिपदा के दिन अभिजित नक्षत्र में चन्द्रमा के होने पर युग का प्रारम्भ होता है और आषाढ़ सुदी पूर्णमासी को युग समाप्त होता है। अब नक्षत्रों के रहने का स्थान बतलाते हैं अभिजित आदि ह नक्षत्र चन्द्रमा की पहली वीथी में और स्वाति से फाल्गुणी तक चन्द्रमा की दूसरी वीथीमें रहते हैं । मघा और पुनर्वसु तीसरी वीथी में होते हैं । रोहिणी और चित्रा सातवीं वीथी में होते हैं। छठी, पाठवीं, दशमी, ग्यारहवीं पोथी में कृतिका है। विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा ये १२ वीं १३ वी १४ वीं वीथी में यथाक्रम से रहते हैं । शेष ८ नक्षत्र चन्द्रमा की १५ बी वीथी में रहते हैं, इस प्रकार पाठ वीथी में नक्षत्र रहते हैं, सात में नहीं। खरबारणहुताशन चं-। दरसाग्नि षडब्धि नयननयं पंचमुमं ॥ हरिणांकहिम गुगतिस्तु । सुरनिधिजलनिधि पयोधिशिखिहुतवहमं ॥४६॥ तमु रुद्रसमन्वित। शतमु युगयुगळमु चतुर्गणवसुबु॥ घृतततियुपुरमु मुनि-। हतगति नक्षत्र कृत्तिकाल्यामोलिक ॥४७॥ स्वर ६, बारण ५, हुताशन ३, चन्द्र १, रस ६, अग्नि ३, षडब्धि ६, नयन ४, नय २, पंचक ५, प्रिणांक १, हिम १, गति ४, ऋतु ६, सुर ३, निषि, जल निधि ४. पयोधि ४, शिखिहुत ३ , ब्रह्म ३, व्रत ५, रुद्र समन्वित Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) शर्स १११ युग २, युगल २ चतुर्गुण बसु ३२, व्रत ५, पुर ३, मुनि हतगंत नक्षत्र गरण कृतिका के पहले होते हैं । इन २८ स्थानों से पंका शकटाकृति, हरिण के शिर द्वीप, तोरण, छत्र, बल्मीक, गोमूत्र, शर, युग, हस्त, उत्पल, दीप, व्यास पीठ, हार, बीरणा, शृङ्ग, वृvिes, दुष्कृत, पापी, हरिकुभ, गजकुम्भ, मुरज, उड़ने वाले पक्षी, शेन, गज + पूर्वं गात्र, अपरत्र, द्रोण, अश्व मुख, चुल्लिपाषाण, इत्यादि के समान होते हैं । ज्योतिष्क देवों की आयु का प्रमाण चन्द्रमा की आयु १००००० लाख वर्ष अधिक पत्य है । सूर्य की १००० हजार वर्षं अधिक पल्य ग्रायु है । . शुक्र की १०० वर्ष अधिक एक पत्य आयु है । बृहस्पति की १ पल्य ग्रायु है । बुध अंगारक और शनि की आधा पल्य आयु है । तारा की उत्कृष्ट प्राधु पत्यका चौथा भाग हैं और जघन्य आठवाँ भाग हूँ । इस प्रकार ज्योतिषी देवों की आयु का प्रमाण है और देवियों की आयु अपने अपने देवो से आधी साधी होती है । सबसे कनिष्ठ देवों की ३२ देवियां होती हैं । पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों के विमान गणनातीत ( श्रसंख्यात ) हैं शत युग षट् पंचाश-- । प्रतरांगुल वर्गगुरिणतसंख्यात ॥ गाथा: हृत प्रतरप्रमितंगळू । गत रंगल जिनभवनमित्र मसंख्यातंगळ ॥ ans ari गुरकविहिदपद रसंख भागमिदे । जोइसजिरिंग दगेहे गरगरणातीदे रामसामि || अब भवनवासी देवों की आयु आदि बतलाते हैं परमायुष्यं च्यं । तरसुर पल्योपमं कु मार्गे दशगुरण । रुष सहस्र जयमतुत्कृष्ट || असुर कुमार की आयु एक सागरोपम, नाग कुमार देवां की तीन पल्यो- . Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . पम, गरुड कुमार की अढ़ाई पल्य, द्वीप कुमारों के दो पल्य, शेष कुमारों की डेढ़ रन्योपम होता है। उत्तरेन्द्र की आयु साधिक सौ पल्य, इन्द्र, प्रतीन्द्र, लोकपाल, प्रायस्त्रिंशत् सामानिक इन पाँचों की आयु समान होती है। चमर और असुरेन्द्र की देवियों की भायु ढाई पल्योपम, वैरोचन की देवियों की आयु तीन पल्योपम, नागेन्द्र की देवियों की पल्प का पाठवाँ भाग, गरुड की देवियों की तीन करोड़ पूर्व प्रायु होती है । चमर वैरोचन गरुड़ तथा शेष इन्द्रों के अन्तरंग, मध्य, बाह्य भेद से तीन प्रकार के पारिषद देबों की प्रायु क्रमशः डेढ़ पल्य, तीन पल्य, पल्य का पाठवां भाग, तथा तीन करोड़ पूर्व प्रमित होती है । मध्य वालों की आयु हाई पल्य, दो पल्य का सोलहवां भाग, तीन करोड़ पूर्व तथा दो करोड़ वर्ष प्रायु होती है बाहर के देवों की आयु ढाई पल्य, पूर्व करोड़ का ३२ वां भाग तथा एक करोड़ पूर्व प्रमाण है । चमर वैरोचन के नाग, गरुड़, शेष, सेना नायक, प्रारम-रक्षक, डेढ़ पल्योपम, कोटि वर्ष तथा लाख वर्ष प्रमाण प्रायु वाले होते हैं । और उनके सेना नायक देव की ग्रायु अाधा पल्य, शताधिक पल्यार्ष, करोड़ वर्ष, लाख वर्ष तथा ५७ हजार वर्ष होती है। ईरदुधनुगळकु । मार्ग व्यन्तरर्गमाज्योतिष्क ।गरियलुकेळे सेव । शरीरोच्छत्तिपंचवर्गमसुरामररोळ ॥५०॥ देवों के आहार तथा उच्छ्वास का नियम बतलाते हैं -- मनदोळ सासिरवर्ष । कनतिशयासनमनो मेनेनुवस्सु यिव ॥ दिनपंचध्नत्रितयक्के । सुखमं पोगळ वेनेनसुरामररा ॥५१॥ अर्थ-चार और वैरोचन एक हजार वर्ष के बाद एक बार आहार ग्रहण करते हैं और उनके एक श्वासोच्छवास लेने में १५ दिन लग जाते हैं। उनके सुखों का वैभव कहाँ तक वर्णन करें ? जलप्रभ अमितगति का आहार क्रम से साड़े बारह दिन तथा साहे सात दिन पर्यन्त होता है। उच्छवास काल साढ़े बारह मुहूर्त, और साढ़े सात मुहूर्त होता है । व्यन्तरामर पांच दिन में एक बार मानसिक ग्राहार और पांच मुहूर्त में एक बार श्वासोच्छवास लेते हैं। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०) अब इन मवनवासियों के भवन स्थानों का वर्णन करते हैं:--- भूमि से नीचे एक हजार योजन पर्यन्त व्यन्तर भवन हैं। भवन-वासियों में अल्पद्धिकों के भवन दो हजार योजन हैं। महद्धिकों के भवन ४२ हजार योजन पर्यन्त हैं। मध्यम महद्धिकों के भवन एक लाख योजन तक हैं। इनमें प्रसुरामर का भवन रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग से नीचे रहने वाले पंक' भाग में है। शेष बचे हए नौ कुमारों के भवन खर भाग में हैं। उन भवनों में से कुछ का प्रमाण असंख्यात योजन है और वह सब चतुरस्र हैं। नाना रल समित है। सीन पार पाहुल्य, मान्यगती योजन ऊंचा तथा एक एक कूप से सुशोभित है। गणना करने पर कुओं की संख्या सात करोड़ बहत्तर लाख होती है। वहां से ३५, ४४, ३८ इन तीन स्थानों में ४० और अन्तिम में पचास लाख भवन होते हैं। उन भवनों के चमर, भूतानन्द आदि दक्षिणेन्द्र अधिपति हैं । और तीस, चालीस तथा चौंतीस इन तीन स्थानों में ३६, अन्तिम में ४६ लाख भवनों के वैराचन, धरणानन्द प्रादि उत्तरेन्द्र अधिपति हैं। चोत्तीसच्चउदालं अड़तीसं च सुवितालपण्लणासं। घउचउविहेणतारिणय इन्चारणं भवनक्खाणि ॥२१॥ उपर्युक्त प्रत्येक भवनों में एक एक जिन मन्दिर है। वरजिनभवनंभवना। मरलोकदोळेळ कोरियुमत्सप्प ॥ तरडक्कु लक्क्रयव । वकुरुमुददि विनयविनतमस्तकनप्पं ॥५२॥ पहले कहे गये ज्योतिष्क देव मनुष्य क्षेत्र में सुदर्शन मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं । उनके गमन विशेष से दिन, बार, नक्षत्र, योग, करण, मुहूर्त इत्यादि शुभाशुभ सूचक होते हैं । वह कैसे हैं, सो बतलाते हैं:-- रवि, सोम, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुम्न तथा शनि ये सात वार हैं। प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, हादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा ये सोलह तिथियाँ हैं। . यक्ष, वैश्वानर, रक्ष, नद्रित, पन्नग, असुर, सुकुमार, सिता, विश्वमाली, चमर, वैरोचन, महाविद्या, मार, विश्वेश्वर, पिंडासी ऐसे पन्द्रह तिथियों के पंचक कहलाते हैं। नन्दा, भद्रा, जया रिस्ता, पूर्णा ये प्रतिपदा को आदि से तिथि पंचक हैं । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१) नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा च तिथयः कमात् । देवाश्चन्द्रसूरेन्द्रा आकाशो धर्म एव च ॥ कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, प्राी, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वा, उत्तरा, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपदा, उत्तरा भाद्रपदा, रेवती, अश्विनी और भरिणी ये २८ नक्षत्र हैं। शिखी, कमलज, शितकर, रुद्र, अविति, जीभ, उरग, पितृ भग, ऐएम, दिनकर, त्यष्ट, समीर, इन्द्राग्नि, मैत्री, इन्द्र, निःश्रुति, जल, विश्वदेव, प्रजा, विष्णु, वसु, वरुण, अजपाद, अहिर्बुध्म, पूषा, अश्वो और यम ये २८ तारों के अधिपति हैं। ___ अब नक्षत्रों के चार चार चरणों को बतलाते हैं:-- लालका ला विचारः... चू चे चो ला अश्विनी। हरे रोता स्वाती । लि सू ले लो भरणी 1 ती सू से तो विशाखा । आ इ उ ए कृतिका । ना नीतू ने अनुराधा । प्रो वा वि वू रोहिणी। नो या पी गु ज्येष्ठा । वे वो का कि मृगशिरा। ये यो भा भी मूल । कु घ ङ छ मार्दा । भूषा फवा पूर्वाषाका । के को हा हि पुनर्वस । भे भो आ जि उत्तराषाढ़ा। हू हे हो डा पुष्य । जू जे जो खा अभिजित् । डी डू डे डो श्राश्लेषा । खि खू खे खो श्रवण । मा मि मु मे मघा । मा गी गू गे धनिष्ठा । मो टा टी टू पूर्वा फाल्गुनी । गो सा सिसु शततारा । टेटो पा पि उत्तरा फाल्गुनी । से सो दा दी पूर्वाभाद्रपद। पूषा गाठ हन । दु थ झ उत्तराभाद्रपद । पे पो रा री चित्रा । दे दो चा ची रेवती । प्रत्येक मनुष्य के नक्षत्र और चरण की पहचान नामका पहला अक्षर हो अथवा जन्म नाम का पहला अक्षर हो तो उसको पहले अच्छी तरह समझ लेना चाहिए । उसके बाद वह अक्षर ऊपर के प्रवकहला कोष्ठक में देखकर उस मनुष्य के नक्षत्र चरण को निश्चय कर लेना चाहिये । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२ ) उदाहरण के लिये :--- महावीर इस नाम का पहला अक्षर 'म' है यह श्रवकहड़ा चक में मघा नक्षत्र के ४ अक्षरों में से पहला अक्षर होने के कारण भघा नक्षत्र का पहला चरण है ऐसा समझना चाहिये। इसी तरह 'म' पहला अक्षर युक्त मल्लिनाथ मणिभद्र इत्यादि नाम वाले जितने होते हैं वे सभी गधा नक्षत्र के पहले चरण वाले होते हैं । दूसरा उदाहरण:- महावीर का दूसरा जन्म नाम 'सम्मति' है । 'स' यह अक्षर शततारक के तीसरे चरण का तीसरा अक्षर होता है, इसलिए यह शततारका का तीसरा चरण हुआ । इसी तरह अन्य नामों के नक्षत्र भी जानने चाहिए । अवगड चक्र के हस्व अक्षर तथा दीर्घ अक्षर के विषय में विचार:--- अवगड की मूल उत्पत्ति में हस्वाक्षर उत्पन्न होने पर भी उच्चारण के समय में [ श्रवगड में कुछ दीर्घाक्षर कुछ ह्रस्वाक्षर होते हैं । ये दोनों एक ही होने के कारण प्रसंग के अनुसार ह्रस्व को दीर्घ और दीर्घ का ह्रस्व समझकर नक्षत्र चरण को बना लेना चाहिए । उदाहरण:--' इन्दुधर' शब्द का प्रथम अक्षर द' है इ श्रवगड चक्र में नहीं है । चक्र में "ई" अक्षर कृतिका के दूसरे चरण का हो गया । 'ईश्वर का भी यही नक्षत्र होगा । इम्री तरह शेष प्रक्षरों को भी समझ लेना चाहिए । संयुक्त अक्षर वाले नामों के नक्षत्र का ज्ञानः - श्रवगड चक्र में संयुक्त प्रक्षरों का उल्लेख नहीं है संयुक्त प्रक्षर वाले शब्द का कौन सा नक्षत्र समझा जाये ? इसका खुलासा इस प्रकार है कि:-- किसी मनुष्य का नाम प्रेमचन्द है इसका पहला अक्षर 'में' है यह 'पे' अक्षर में र् कार वर्ण मिलाने से बना है। तो मिले हुए र कार को छोड़कर पहले वर्ण का 'पे' अक्षर चित्रा नक्षत्र में है इस तरह 'प्रेमचन्द' नाम चित्रा नक्षत्र के पहले चरण का हो गया । इस तरह समझकर त्रिलोकनाथ, स्वयंप्रभु 'इत्यादि नामों के नक्षत्र जान लेना चाहिए। जैसा कि :-- यदि नाम्नि भवेद्वर्णो संयुक्ताक्षरलक्षणः । ग्राह्यस्तदादिमो वर्णो युक्तत्वं ब्रह्मयामले ॥ इसी तरह 'संयोगाक्षरजे नाम्ना ज्ञेयं तत्रादिमक्षर' इस तरह अन्य मुहूर्त मार्तंड इत्यादि ग्रन्थों में कहा है । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) शुभ नक्षत्र परिज्ञान : मघामृगशिरोहस्तः स्वातिम लानुराधयोः । रेवती रोहिणी चैत्रमुरारि त्रयाणि च ॥ श्रावाये च विवाहे च कन्यासम्वरणे तथा । वापये सर्ववीजानां गृहं ग्रामं प्रवेशयेत् ॥ पुष्याश्विनी तथा चित्राधनिष्ठा श्रवणं वसु । सर्वाणि शुभकार्याणिसिद्ध यन्तितेषु भेषुच ॥ भावार्थ - मघा मृगशिरा हस्त स्वाती मूल अनुराधा रेवती रोहणी तीनों उत्तरा, इन ग्यारह नक्षत्रों में कन्यादान विवाह बीज वपन इत्यादि कार्य करना चाहिए । इसी प्रकार ग्राम प्रवेश, गृह प्रवेश इत्यादि कार्य भी कर सकते हैं । इसी प्रकार से पुष्य अश्विनी चित्रा धनिष्ठा श्रवण पुनर्वसु इन नक्षत्रों में भी और सब शुभ कार्य किये जाते हैं किन्तु विवाह नहीं करना चाहिच । इन सत्रह नक्षत्रों को छोड़कर बाकी के नक्षत्र निकृष्ट हैं उनमें शुभ कार्य नहीं करने चाहिए | तथा जिस नक्षत्र पर ग्रहण लगा हो उस नक्षत्र में छः महीने तक विवाह नहीं करना चाहिए। और ग्रहण लगे हुए दिन से पहिले के तथा पीछे के सात सात दिन छोड़कर विवाह करना शुभ होता है । शुभ अशुभ योग और त्याज्य घटिका : प्रीति १ आयुष्मान् २ सौभाग्य ३ शोभन ४ सुकर्म प्रवृति ६ वृद्धि ७ व ८ हरण ६ सिद्धि १० वरियान ११ शिव १२ सिव १३ साध्य १४.. शुभ १५ शुक्ल ब्रह्म १७ इन्द्र १८ ये अठारह शुभ योग हैं। ये अपने नाम के अनुसार शुभ फल करते हैं। इनमें शुभ कार्य किये जाते हैं । विष्कम्भ १ अतिगण्ड: २ शूल ३ व्याघात ४ वज्र ५ व्यतिपात ६ परिघ ७ वैधृति ये नौ योग अशुभ हैं इनमें बैवृति, और व्यतीपात ये दोनों पूर्णरूप से दुर्योग हैं । इसलिए इनमें कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। शेष सात नक्षत्रों की सदोष घटिकाओं का त्याग करके कार्य करना चाहिए। वे घटिकायें इस प्रकार हैं- त्रिष्कम्भ योग में तीन घटिका शूल में पाँच घटिका, गण्ड और प्रति गण्ड में छः छः घटिका । व्याघात और वज्र योग में नो नौ घटिका । परिघ योग में ३० घटिका पूर्ण होने तक छोड़ देना चाहिए । अब शुभाशुभ करण को बतलाते हैं: --- वय, वालव, कौलव, तैतिल, गर्ग, वणिज, शकुनि ये सातों शुभकरण हैं इनमें शुभ कार्यं हमेशा करना चाहिए। भद्र चतुष्पाद नागवान और किंस्तुघ्न गण्ड Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) ये चार करण दुष्ट हैं इनमें कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए । इनमें भी भद्राकरण महादोष वाला है। अवकहर धक को मूल उत्पत्ति १-प्रवकहड़ २-म ट प रत ३-नय भ ज ख ४- स द चल इस तरह ५-५ अक्षरों के चार सूत्र हैं । २ सूत्र - - - - M4 ] - - - - - - - - - optial - - - - - - - - - - | - L"- + - । - - va - - + - 5 - + - + | यो । भो | जो | खो सो । दो | चो इस प्रकार चार सूत्रों से सम्बन्वित २५-२५ अक्षरों के कोष्ठक बने हैं । जिनके १०० अक्षर होते हैं तथा मध्यम के माथ ३-३ अन्य प्रक्षर होते हैं। समस्त अक्षर ११२ होते हैं। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके पढ़ने का क्रम चार चार अक्षरों का एक-एक नक्षत्र बनाते हुए उपयुंक ११२ अक्षरों के २८ नक्षत्र हो जाते हैं। लग्नाधिपति और लग्न प्रमाण घड़ी का कोष्ठक लग्नाधिपति ! कुज शुक्र | बुध चन्द्र | रवि | बुध लग्न मेष वृष | मिथुन' कर्क | सिंह कन्या प्रमाण घड़ी ४.० ४।३०५।१५।४।३० ५।३० ५।१५ लग्नाधिपति शुक्र , कुज गुरु | शनि | शनि | गुरु लग्न · । तुला वृश्चिक धनुष मकर कुम्भ मीन |प्रमाण पहा ९५ ५:३० ३.० ५.१ ५. इस कोष्ठक के अनुसार किसी भी नाम का नक्षत्र और चरण को ठीक तरह से जान लेने पर किस नक्षत्र की कौन सी राशि होती है इस विषय को निम्नलिखित श्लोक द्वारा दिखाया जाता है अश्विनीभरणीकृतिकाः पादेषु मेयः कृतिका त्रयपादा रोहिणी मृगशिरार्द्ध वृषभः । मृगशिरद्विपादा पुनर्वसुत्रिपावेषु मिथुनः पुनर्वस्वेकपादा पुष्याश्लेषान्तेषु काटकः । मघा पूर्वोत्तरकपादेषु सिंहः उत्तरात्रिपादहस्तनित्राद्धेषु कन्या । चित्रार्द्धस्वातिविशाखात्रिपादेषु तुला विशाखैका दानुराधाज्येष्वान्तवृश्चिक: मूलपूर्वाषाढ़ोत्तराषाढकयादेषु धनुः ऊतराषाढाभिषादश्रवरगधनिष्ठाद्धेषु मकरः । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनिष्ठा शतभिषा पूर्वाभाद्रपाद त्रिपादेषु कुम्भः पूर्वाभाद्रपदैकोत्तराभाद्रपदरेवत्यन्तं मीनः । अर्थ-इस प्रकार अश्विनी ४ पाद, भरणो ४ पाद, कृतिका एक पाद मिलकर मेष राशि होती है। कृतिका के शेष ३ पाद, रोहिणी ४ पाद, मृगशिरा के दो पाद मिलकर वृषभ राशि होती है। मृगशिरा के शेष २ पाद, आर्द्रा के ४ पाद, पुनर्वसु के ३ पाद मिलकर मिथुन राशि होती है। पुरा का जप १ पाद, नृपय के 6 पाद, आश्लेषा के ४ पाद मिलकर कर्क राशि होती है। मघा ४ पाद, पूर्वाफाल्गुणी ४ पाद और उत्तरा का १ पाद मिलकर सिंह राशि होती है। उत्तरा के शेष ३ पाद, हस्त के ४, चित्रा के दो चरण मिलकर कन्या राशि होती है। चित्रा के २ पाद, स्वाति के ४, विशाखा के ३ पाद मिलकर तुला राशि होतो है। विशाखा का शेष १ पाद, अनुराधा के ४ पाद, ज्येष्ठा के ४ पाद मिलकर वृश्चिक राशि होती है। • मूल के ४ पाद, पूर्वाषाढ़ के ४ पाद, उत्तरा का एक पाद मिलकर धन राशि होती है। उत्तरा के शेष ३ पाद, श्रवण के ४, धनिष्ठा के २ पाद मिलकर मकर राशि होती है। धनिष्ठा के क्षेत्र २ पाद, शातारा के ४ पाद, पूर्वाभाद्रपद के ३ पाद मिल कर कुम्भ राशि होती है। पूर्वाभाद्रपद का शेप १ पाद, उत्तराभाद्रपद के ४, रेवती के ४ पाद मिल कर मीन राशि होती है। प्रागे संवत्सर का नाम बतलाते हैं-- Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) जैन सिद्धान्त शास्त्र के अनुसार ६० संवत्सरों के नाम उत्तम संवत्सर कनिष्ठ संवत्सर ४१ प्लवंग ४२ कीलक ४३ सौम्य १ प्रभव २ विभव ३ शुक्ल ४ प्रमोदित ५. प्रजोत्पत्ति ६ अगोरस ७ ५ श्री मुख भाव € युव १० धातु ११ ईश्वर १२ बहुधान्य १३ प्रमाथि १४ विक्रम १५ विषु (वृष) १६ चित्र भानु १७ सुभानु १८ तारण १६ पार्थिव २० व्यय मध्यम संवत्सर २१ सर्वजितु २२ सर्वधारि २३ विरोधि २४ विकृति २५ खर २६ नंदन २७ विजय २८ जय २६ मन्मथ ३० दुर्मुख ३१ हे विलंबि ३२ विलंवि ३३ विकारि ३४ शनिरि ३५ प्लव ३६. शुभकृतु ३७ ३८ ३६ विश्वावसु Ya पराभव शोभनकृतु क्रोधि ४४ साधारण ४५ विरोधिकृतु ४६ परिधातु ૪૭ प्रमादित ४८ श्रानन्द ४६ राक्षस ५० ५१ ५२ ५३ सिद्धार्थि नल पिंगला काल युक्ति ५४ रौद्रि ५५ दुर्मति ५६ दुंदुभि ५७ रुधिरोद्गारी रक्ताक्षि ५८ ५६ क्रोधन ६० क्षय अयनों के नाम एक वर्ष में उत्तरायण दक्षिणायन ऐसे दो प्रयन होते हैं। स्थूलमान के अनुसार पौष मास से ज्येष्ठ मास तक सूर्य उत्तर की तरफ होने के कारण उत्तरायण कहते हैं | आषाढ़ मास से मगशिर तक सूर्य दक्षिण की तरफ संचार करने के कारण दक्षिणायन कहते हैं । ऋतु के नाम चैत्र वैशाख वसंत ऋतु । आसोज कार्तिक शरद ऋतु । ज्येष्ठ प्राषाढ़ ग्रीष्म ऋतु । मगशिर पौष हेमन्त ऋतु । श्रावण भाद्रपद वर्षा ऋतु । माघफागुरण शिशिर ऋतु । : Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८.) १२ महीनों के नाम १ चैत्र, २ वैशाख, ३ ज्येष्ठ ४ आषाढ़, ५ श्रावण ६ भाद्रपद, ७ आश्विन, ८ कार्तिक, मार्गशिर १० पी० ११ माघ, १२ फागुन । ' पक्ष २ प्रयेक महीने के शुरू में सुदी पडवा से पीरिंगमा तक १५ दिन शुक्ल पक्ष श्री कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक १५ दिन कृष्ण पक्ष जाननः चाहिए । शुक्ल पक्ष को सुदी, कृष्ण पक्ष को वदी कहने की परिपाटी है । तिथि ३० होती हैं प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी पंचमी, पछी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और पौणिमा से शुक्ल पक्ष की तिथि हैं 2 पुनः प्रतिपदा से चतुर्दशी तक १४ तिथि ऐसे आगे चलते हुए ३० वीं तिथि के अंत में अमावस्या ग्राती है। ये कृष्ण पक्ष की तिथि हैं। ये ३० तिथि मिलकर १ मास होता है । वार-5 हैं रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, शनिवार ये सात वार हैं । नक्षत्र २५ हैं आकाश मंडल में असंख्यात नक्षत्र होने पर भी इस क्षेत्र में रूढ़ि में आने वाले नक्षत्र २८ हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं: नक्षत्रों के नाम :-- १ अश्विनी २ भरणी ३ कृतिका ४ रोहिणी ५ मृगशिरा ५ पुष्य ६ आश्लेषा ६ आर्द्रा ७ पुनर्वसु १० मचा ११ दुर्वा १२ उत्तरा T १५ स्वाती १६ विशाखा १३ हस्त १४ चित्रा १७ अनुराधा १८ जेष्ठा १९ मूल २० पूर्वा पाढ २१ उत्तरा-पाव उत्तराषाढ प्रोर श्रवण के बीच में अभिजित नाम का नक्षत्र है । बहुत दिनों तक यह नक्षत्र रूढ़ि में न होने के कारण अन्य ज्योतिषकारों ने इसको बिल्कुल ही गिनती नहीं लिया था अव जैन ज्योतिष ग्रन्थों के अनुसार यह नक्ष प्रचार में आने से सभी - ज्योतिष के विद्वान २८ नक्षत्र को गिनती में लाते जगे हैं । २२ श्रवरण २३ धनिष्ठा २४ शततारका २५ पूर्वा भाद्रपद २६ उत्तरा भाद्रपद २७ रेवती २५ श्रभिजित Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) योग २७ हैं १ विष्कंभ ८ धृति १५ वन २२ साध्य २ प्रीति _ शूल १६ सिद्धि २३ शुभ ३ आयुष्यमान १० गंड १७ व्यतिपात २४ शुक्ल ४ सौभाग्य १८ वरियान २५ ब्रह्म ५ शोभन १२ ध्रुव १६ परिघ २६ ऐन्द्र ६ अतिगंड १३ व्याघात २० शिव २७ वैधृति ७ सुकर्म १४ हर्षण २१ सिद्ध करण ग्यारह हैं १ बध २ बालव ३ कौलव ४ तैतल ५ गज ६ वनिज ७ भद्र ८ शाकुनि ६ चतुष्पाद १० नाग ११ किस्तुध्न इस प्रकार ये ११ करण हैं। इसके शुभाशुभ फल को आगे बतायेंगे। राशि और लग्न १२ होते हैं १ मेष ४ कर्क ७ तुला १० मकर २ वृष ५ सिंह ८ वृश्चिक ११ कुंभ ३ मिथुन ६ कन्या धनुष १२ मीन ये बारह राशि हैं और बारह राशि के समान ही लग्न भी होते हैं। लग्न या राशि में कोई भेद नहीं है। फिर राशि और लग्न में भेद क्यों है इसका समाधान निम्नलिखित है : __अगर किसी बालक का जन्म वृष राशि में हुमा हो अर्थात् बालक के जन्म के समय उदय काल में वृष राशि हो तो उसे वृष लग्न कहते है। इसका स्पष्टीकरण प्रकरण के अनुसार करेंगे । १ रवि २ चन्द्र ३ कुज ४ बुध, ५ गुरु,६ शुक्र ७ शनि ८ राहु केतु ये नव ग्रह हैं । २४ घण्टे का १ दिन ६० पल की १ घड़ी ३ घण्टे का १ याम. २॥ घड़ी का १ घण्टा । १ याम को प्रहर भी कहते हैं । ६० मिनट का १ घण्टा एक घण्टे का एक होरा होता है । २॥ पल का १ निमिष, ६० पटिका का १ दिन होता है। पंचांग क्या है :तिथिवार नक्षत्रं च योगः करणमेवच । एतैः पंचभिरंगैः संयुक्त पंचांगमुच्यते ।। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ---तिथि, वार, नक्षत्र, योग, और करण इन सबको मिलाने को पंचांग कहते हैं । इस पांच अंग के अलावा उपयोगी अनेक विषयों को पंचांग में लिखने की पद्धति आजकल बहुत प्रचलित है। तिथि वार नक्षत्र और योग के समान ६० घड़ी पूर्ण न होकर करण जो है वह एक दिन में तीस तीस घड़ी के प्रमाण दो हो जाते हैं । अब आये चर स्थिर करणों को बतलाते हैं-- बव, वालंब, कौलव, तैतिल, गर्ज वणिज, भद्र ये सात चरकरण हैं । शकुनि, चतुष्पाद, नागवान , किस्तुघ्न ये चार करण स्थिर करण होते हैं। चरकरण की उत्पत्ति जिस तिथि का करण देखना हो उस तिथि तक शुक्ल प्रतिपदा से लेकर गत तिथियों को गिने । जो संख्या आवे उसे दो से गुणा करे और लब्ध को ७ से भाग दे । भाग देने से जो शेष बचे उसी संख्या वाला चर करण नित्य तिथि के पूर्वाद्ध में समझना चाहिए। उत्तरार्द्ध तिथि के लिए गत तिथियों को दो से गुणा करके १ और जोड़ दें । तत्पश्चात् ७ से भाग देकर जो बचे उस संख्या वाला वधादि करण समझना चाहिए । ३० घड़ी से यदि कम तिथि हो तो उसे उत्तरार्द्ध समझना और यदि अधिक हो तो पूर्वाद्ध । उदाहरणार्थ-शक संवत् १८५२ थावरण सुदी १२ को कौनसा करण है? ऐसा प्रश्न करने पर देखा गया कि वह तिथि ३० घड़ो से कम है। इसलिए वह उत्तरार्द्ध तिथि हुईं। अब गत तिथि ११ को दो से गुणा करने पर २२ हुमा और उसमें १ मिलाकर ७ से भाग दिया तो शेष दो बचा, जोकि दूसरा वालव करण हुआ। यह चर करण का नियम हुआ। स्थिर करण की उत्पत्ति:- कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्द्ध में शकुनिकरण, अमावस्या के पूर्वाद्ध में चतुष्पाद और उत्तरार्द्ध में नागवान करण होता है। तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वाद्ध में किंस्तुघ्न करण होता है। यहां इतना और समझ लेना चाहिए कि तिथि और नक्षत्रों के समान आगे पीछे न होकर करण की उत्पत्ति नियत रूप से होती है। राशियों के विषय: मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धन और कुम्भ ये ६ राशियां विषम हैं अथवा ये क्रू र स्वभाव वाली पुरुष राशियाँ हैं। इनके अतिरिक्त (वृषभ, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर तथा मीन) राशियां युग्म राशि, सौम्य स्वभाव वाली स्त्री Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) राशियाँ हैं । मेष, कर्क, तुला और मकर ये चार चर राशियाँ हैं। वृषभ, सिंह, वृश्चिक और कुंभ ये स्थिर राशियां हैं। तथा शेष मिथुन, कन्या, धन और मोन मे द्विस्वभाव वाली हैं। मेष, वृषभ, कर्क, धन और मकर ये पांच राशियों पृष्ठोदय हैं, मिथुन, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक तथा कुंभ ये छ: शिरसोदय राशियाँ है और मीन उभयोदय राशि है। मेष, वृषभ, मिथुन कर्क, वन और मकर ये छः राशियां रात्रि बल - वाली है और शेष सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, कुंभ तथा मीन ये छ: दिवाबली है । शुभग्रशुभ ग्रहः I पूर्ण चन्द्र, बुध, गुरु और शुक्र ये चार शुभ हैं तथा अच्छा फल देने वाले ग्रह है । सूर्य, क्षीण चन्द्र, कुज, (मंगल) शनि राहु तथा केतु ये छः पाप ग्रह हैं जोकि दुष्ट फल देते हैं । इन पापी ग्रहों के साथ यदि बुध हो जाय तो वह भी फल होता है। रवि, मंगल और गुरु ये ३ पुरुष ग्रह हैं, चन्द्र, शुक्र, तथा राहु ये ३ स्त्री ग्रह हैं तथा बुध, शनि केतु ये ३ नपुंसक ग्रह हैं । अब इन ग्रहों का राशियों पर रहने का समय बतलाते है: रवि शुक्र बुधा मास सार्धमास कुजस्तथा । गुरुर्द्वादशमासस्तु शनिस्त्रिंशत्तथैव च ॥ वर्षाद्ध राहुकेतुस्तु राशिस्थितिरितीरितम् । अर्थ — रवि, शुक्र और बुध ये तीनों ग्रह एक मास पर्यन्त एक राशि पर रहते हैं, मंगल डेढ़ मास तक १ राशि पर रहता है, गुरु एक राशि पर १२ मास तक रहता है, शनि १ राशि पर ३० मास तक रहता है तथा केतु और राहु १ राशि पर डेढ़ वर्ष तक रहते हैं तथा चन्द्रमा १ राशि पर सवा दो दिन तक रहता है । ग्रहों की जातियां : गुरु और चन्द्र ब्राह्मण वर्ण, रवि और मंगल क्षत्रिय वर्णं, बुध 'वैश्य वर्णं, शुक्र शूद्र वर्ण, शनि, राहु तथा केतु नीच वर्ण वाले होते हैं । यंत्र मंत्र व्रतादिके मूहूर्त -- उफा हस्ताश्विनी करणं विशाखामृगभेहनि । शुभे सूर्ययुते शस्तं मंत्रयंत्रत्रतादिकं ॥ भावार्थ - उत्तरा, हस्त, अश्विनी, श्रवरण, विशाखा, मृगशिरा इन छः नक्षत्रों में, तथा रवि, सोम, गुरु, शुक्रवार में किया हुआ मंत्र, यंत्रादि का आराधन Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) शीघ्र ही फल को देता है। और व्रत उपवासादि क्रिया की सिद्धि भी होती है। काल राहु रहने की दिशा: रवि गुरुवार को पूर्व दिशा में सोम शुक्र को दक्षिण दिशा में, मंगलवार को पश्चिम दिशा में शनि, बुध को उत्तर दिशा में काल राहु रहता है । - नवीन गृह (घर) निर्माण मुहूर्त :-- वैशास्त्र, श्रवण, कार्तिक, माघ इन मासों में उत्तराषाढ़ उत्तरा भाद्रपद, मृगशिरा, रोहिणी, पुष्य, अनुराधा, हस्त, चित्रा, स्वाति, धनिष्ठा शततारका, रेवती इन १३ तेरह नक्षत्रों में और २-३-५-७-१०-११-१३-१५ तिथियों में तथा सोम, बुध, गुरु, शुक्रवार दिनों में नया घर बनवाने का मुहूर्त उत्तम माना है । फागुन मास नूतन गृहारंभ करने में साधारण माना है । शततारका औषधि सेवन करने और तैयार करने का मुहूर्त:हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, मूला पुष्य श्रवण, धनिष्ठा, मृगशिरा, रेवती, अश्विनी पुनर्वसु, इन नक्षत्रों में तथा सोम, बुध, गुरु, शुक्रवार दिनों में और २-३-५-७-१० ११-१३-१५ का शुक्ल पक्ष में तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन औषध तैयार करने में और सेवन करने में शुभ माने हैं । भौमश्विनी आदि सिद्ध योग भी कार्य विशेषों में निन्द्य है। गृहप्रवेशे यात्रायां विवाहे च यथाक्रमम् । भीमेऽश्विनों शनौ ब्राम्हं गुरौ पुष्यं विवज्र्जयेत् २२|| —— मंगलवार को अश्विनी गृह प्रवेश में, शनिवार का रोहिणी यात्रा में, गुरुवार को पुष्य नक्षत्र विवाह में वर्जित है । प्रवारण के लिए शुभ नक्षत्र :--- मृगाश्विनी पुष्य पुनर्वसू च हस्तानुराधा श्रवणं च मूलः । धनिष्ठ रेवत्य गते प्रयाणं फलं लभेत् शीघ्र विवर्तनं च ॥ अर्थात्-मृगशिर, अश्विनी, पुष्य, पुनर्वसु, हस्त, अनुराधा, धवरण, मूल, धनिष्ठा और रेवती इन नक्षत्रों में प्रधारण करने से कार्य शीघ्र सफल बनता है । प्रयाण के लिए दुष्ट नक्षत्र : पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपद, मषा, जेष्ठा, भरणी, जन्म नक्षत्र कृतिका, स्वाति, श्लेषा, विशाखा, चित्रा, प्रादि इन नक्षत्रों " में कभी प्रयाग नहीं करना चाहिए। इन नक्षत्रों में प्रयाण करने से हानि होती Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) है, शेष बचे-उत्तरा-फाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपद, शततारका, इन नक्षत्रों में प्रयाण करने से साधारण फल होता है। अक्षरारम्भ का मुहूर्त मृगात्कराच्छ तेस्त्रयेऽश्विमूलपूर्विकात्र ये । गुरुहयेऽर्कजीववित्सितेऽह्निषट्शरत्रिके ॥ शिवार्कदिग् द्विकेतिथौ ध्र वान्त्यत्रिभेपरैः, शुभैरधीतिरुत्तमात्रिकोणकेन्द्रगैः स्मृता ॥३८॥ -मुहूर्त चिन्तामणि अर्थात्-मृगशिरा, पाा, पुनर्वसु, हस्त, चित्रा, स्वाती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, अश्विनी, मूल, तीनोंपूर्वा, पुष्य, श्लेषा, ध्र वसंज्ञक, अनुराधा और रेवती इन नक्षत्रों में तथा रविवार, बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार इन वारों में तथा ६. ५. ३, १५.१२.१०.२ इन तिथियों में जब केन्द्र त्रिकोण गत शुभ ग्रह हों तब विद्यारम्भ करना चाहिए। आगे यज्ञोपवील का समय मुहूर्त चिन्तामणि ज्योतिष शास्त्र में बताया गया है वह यहां पर देते हैं। विधारणा वतवन्धनं निगदितं, गर्भाज्जनेर्वाष्टमे, वर्षे वाप्यथ पञ्चमे क्षितिभुजां षष्ठे तथैकादशे ॥ वैश्यानांपुनरष्टमे ऽप्यथपुनः स्याद्वादशे वत्सरे, कालेऽथद्विगुणेगतेनिगांदते गौरगतदाहुर्बुधाः ॥३६॥ (मुहूर्त चिन्तामणि) अर्थात्-श्राह्मणों को गर्भ से या जन्म से पञ्चम अथवा अष्टम सौर वर्ष में क्षत्रियों को छठे तथा ग्यारहवें वर्ष में और वैश्यों को आठव या बारहवें वर्ष में यज्ञोपवीत धारण करना कहा है। इस कथित समय से दुने समय को पण्डितों ने गौणकाल माना है। यात्रा में शुभ वारअङ्गारपूर्वे गमने च लाभस्सोमेशनिर्दक्षिण अर्थलाभः ।। बुधे गुरौ पश्चिमकार्यसिद्धिर्भानो मृगे चोत्तर धान्यलाभः ।। -मुहूर्त चिन्तामणि अर्थ---मंगलवार को पूर्व दिशा में गमन करने से लाभ होता है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १३४ ) , सोमवार और शनिवार को दक्षिण दिशा की यात्रा से धन का लाभ होता है। बुधवार तथा गुरुवार को पश्चिम दिशा में गमन करने से कार्य की सिद्धि होती है । रविवार तथा शुक्रवार को उत्तर दिशा में यात्रा करने से धन धान्य का लाभ होता है। दिक् शूलन पूर्वे शनि सोमे च, न गुरुदक्षिणे तथा न पश्चिमे भानुशुक्र च, नोत्तरे बुधमंगले ।। अर्थ---शनिवार सोमवार को पूर्व दिशा में गमन न करे। दक्षिरण दिशा में गुरुवार को जाना ठीक नहीं। रविवार शुक्रवार को पश्चिम दिशा में तथा बुधवार मंगलवार को उत्तर दिशा में न जाना चाहिये । प्रयाण के लिए शुभ तिथियां द्वितीया को यात्रा करने से कार्य सिद्धि, तृतीया को शान्ति, पंचमी को सुख, सप्टमी को अर्थ न, [ष्टमी को शुम, दशमी को शुभ फल की प्राप्ति एकादशी तथा प्रयोदशी को यात्रा करने से कार्य सिद्ध होता है । शेष १- ४-६१४-१५, अमावस्या पष्ठी और द्वादशी यात्रा के लिए अशुभ है। यात्रा के लिए चन्द्र विचार-- मेषे च सिंहे धनपूर्वभागे,वृषे च कन्या मकरे च याम्ये । युग्मे तुले कुम्भसुपश्चिमायां फर्कालिमीने दिशि चोत्तरस्यास ॥ ___ अर्थ--मेष, सिंह, धन राशि हो तो चन्द्रमा पूर्व दिशा में रहता है। वृष, कन्या, और मकर राशि हो तो चन्द्र दक्षिण दिशा में रहता है। मिथुन तुला, कुम्भ राशि में चन्द्र पश्चिम दिशा में तथा कर्क, वृश्चिक मीन राशि के समय चन्द्र उत्तर दिशा में रहता है। सन्मुखे अर्थलाभाय, दक्षिणे सुखसम्पदः । पृष्ठतः प्राणनाशाय, वामेचन्द्र धनक्षयः ॥ अर्थ---यात्रा के समय चन्द्रमा यदि सन्मुख हो तो अर्थ |धन का लाभ होता है। यदि चन्द्र दाहिनी दिशा में हो तो सुख सम्पत्ति प्राप्त होती है, चन्द्र यदि पीठ की ओर हो तो प्राग नाशकी आशंका रहती है तथा यदि यात्रा के समय बांयी दिशा में चन्द्रमा हो तो धन की हानि होती है। मरण नक्षत्र दोष विचारधनिष्ठा नक्षत्र के ३-४ पाद में शततारका, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती को पंचक नक्षत्र कहते हैं । कृतिका, उत्तरा, उत्तराषाढ़ा ये अन्तः त्रिपाद Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५) नक्षत्र हैं। विशाखा, पूर्वाभाद्रपदा बहिः त्रिपाद नक्षत्र हैं। चित्रा मृगशिर, धनिष्ठा द्विपाद नक्षत्र हैं। रोहिणी, मघा, भरणी दुष्ट नक्षत्र है । परन्तु शनिबार रविवार मंगलबार में त्रिपाद नक्षत्र मिल जाय तो द्विपुष्कर योग होता है और २-७-१२ तिथियोंको ऊपर लिखे हुए पापवार तथा त्रिपाद नक्षत्र मिल जायं तो विपुष्कर योग होता है । इस त्रिपुष्कर योगमें बालकके जन्म होने पर | मास के लिए घर छोड़ कर अन्य जगह निवास करना चाहिए। द्विपुष्कर योग में शिशु जन्म के समय ६ मास के लिए, त्रिपाद में जन्म होने पर ३ मास के लिए मृगशिर चित्रा के द्विपाद में जन्म लेने पर दो मास के लिए, रोहिणी नक्षत्र में जन्म होने पर १२ मास तक, भरणी और मत्रा में ५ मास, धनिष्ठा के ३-४ पाद में जन्म हो तो ८ मास, शततारका में ६ मास, पूर्वाभाद्रपद में जन्म होने पर ८ मास, उत्तराभाद्रपद में जन्म होने पर ३ मास, रेवती में बालक का जन्म होने पर एक मास के लिए धर छोड़ कर अन्य घर में रहना चाहिए फिर शुभ तिथि देखकर मंगल कलश सहित घर में प्रवेश करना चाहिये । विवाह-भंग योगयदि भवतिसितातिरिक्तपक्षे, तनुगृहतः समराशिदः शशाङ्कः । अशुभखचररवीक्षतोऽरिरन्ध्र भवति विवाहविनाशकारकोऽयम् ॥ अर्थ-यदि कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा समराशिका होकर प्रश्न लग्न से छठे या आठवें स्थान में हो और पाप ग्रह से दृष्ट हो तो विवाह नाशकारक होता है। वैधव्य योग का विचारजन्मोत्थं च विलोक्य बालविधवायोगं विधाय व्रतं, साविभ्याउतपप्पलं हि सुतया दद्यादिमा वा रहः । सहलग्नेऽच्युतमूर्तिपिप्पलघदैः कृत्वा विवाहं स्फुट, दद्यात्ता चिरजोविनेत्र न भवेद्दोषः पुनर्भूभषः ॥ (मुहूर्त चिन्तामणि) अर्थ-जन्म लग्न से कन्या को यदि बाल-विधवा होने का योग हो तो व्रत, पूजन, दान यादि करके उस कन्या को दीर्घजीवी वर के साथ विवाह कर देना चाहिए। यात्रा में सूर्य विचारधनुषसिंहेषु यात्रा प्रशस्ता शनिज्ञोशनोराशिगेचैव मध्या रवी कर्कमोनालिसंस्थेतिदीर्घा, जनुःपञ्चसप्तत्रिताराश्च नेष्टाः ॥ (मुहूर्त चिन्तामरिण) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-धनु मेष सिंह के सूर्य में यात्रा करना शुभ है। मकर, कुम्भ, मिथुन, कन्या, वृष, तुला के सूर्य में यात्रा मध्यम है और कक, मीन, वृश्चिक में सूर्य हो तो यात्रा लम्बो होती है । यात्रा में १-५-३-७वीं तारा नेष्ट है। गोचर विचारपहले लिखे अनुसार नक्षत्रों की १२ राशियां अच्छी तरह समझ लेने के बाद 'किस राशि वाले मनुष्य को कौन-सा ग्रह किस स्थान में है, कितने स्थान में होता है तथा वह ग्रह कितने समय तक अपना अच्छा या बुरा फल देता है ।' यह विषय जानने को 'गोचर' कहते हैं । यह बात प्रत्येक मनुष्य को जाननी प्रावश्यक है। __गोचर ग्रह के जानने की विधि राशि को जान लेने पर, उस राशि का ग्रह कितने स्थान में कितने समय तक रहता है, इस बात को जानने के लिए इस वर्ष का पंचांग, लेकर शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष की कुण्डली में किस राशि में कौन सा ग्रह है, यह देखना चाहिये तदनन्तर अपने ग्रह रहने की राशि तक गिन लेना चाहिये । गिन लेने पर उतनी संख्या में अपना ग्रह जान कर अपना शुभ अशुभ फल जान लेना चाहिए। उदाहरण के लिए ईश्वरचन्द्र नामक व्यक्ति के विषय में विचार करें कि इनके कितने स्थान पर गुरु और शनि है ? तो ईश्वर चन्द्र का प्रथम अक्षर 'ई' है जोकि अवगहड़ चक्रानुसार कृतिका ___469 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) नक्षत्र के दूसरे पाद में है। कृतिका नक्षत्र के द्वितीय पाद में वृषभ राशि होती है। इसको निम्नलिखित कुण्डली में देखिये-(शक संवत् १८७६ आषाढ़ सुदी २ शनिवार ।) ईश्वरचन्द्र की १२ राशियां उपरिलिखित कुण्डली में यथा स्थान हैं। तदनुसार गुरु तीसरे स्थान पर, शनि ईश्वरचन्द्र के नौंवे स्थान पर है। इसी प्रकार अन्य ग्रहों को भी समझ लेना चाहिये । परन्तु जन्म कुण्डली के ग्रह राशि के अनुसार बदलते रहते हैं। इसको सावधानी से देखना चाहिये । ग्रहों द्वारा राशि परिवर्तन का विचारपंचांग में लिखे हुए तिथि, वार, नक्षत्र, योग कर्ण की पंक्ति में १-'म' सिंहे ज्ञः लिखा होता है। इसका अभिप्राय यह है कि उस दिन सिंह राशि में बुध आया समझ लेना चाहिए। इसी प्रकार का 'उत्तरा दूसरे चरण में कन्ये शुक्रः' इस प्रकार लिखा होता है इसका अर्थ यह है कि उस दिन उत्तरा नक्षत्र में शुक्र सिंह राशि को छोड़ कर कन्या राशि में आ गया है । इस प्रकार इस विषय को पंचांग में दिये गये संकेशों के अनुसार राशि बदलने की विधि समझ लेना चाहिए। इसके गिवाय प्रत्येक मास में तुले रविः या तुलेऽर्क: कर्क गुरुः मिथुने कुजः इस प्रकार पंचाँग में जहां तहां राशि परिवर्तन लिखा होता है उसके अनुसार ग्रह द्वारा राशि परिवर्तन के स्थान पर घड़ी पल आदि भी लिखा होता है जैसे -'सिंहे अधः ५५ घड़ी ४ पल' लिखा है इस का अभिप्राय यह है कि सूर्य उदय से ५५ घड़ी ४ पल समय बीत जाने पर बुध ग्रह सिंह राशि में आ गया है। इस प्रकार प्रत्येक मास में ग्रह का राशि-परिवर्तन लिखा होता है उसे देख कर मनन कर लेना चाहिए। नव ग्रह गोचर का फल सूर्य का फलप्रथम स्थान का रविनाश को प्रगट करता है, दूसरे स्थान का रवि भय हानि को, तीसरे स्थान का रवि व्यापार में धन लाभ को, चौथा रवि रोग पौड़ा मर्यादा भंग को, पांचवां रवि दरिद्रता को, छठा रवि घूमने फिरने को, नौवां रवि नाश तथा अशुभ फल को, दशवां तथा ग्यारहवां रवि अनेक प्रकार का लाभ तथा सुख, बारहवें स्थान का रवि पीड़ा तथा नाश का सूचक है। चन्द्र का फलपहले स्थान का चन्द्र पुष्टि, अन्न वस्त्र के लाभ को बतलाता है, दूसरा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) चन्द्र अनेक प्रकार की द्रव्य प्राप्ति, तीसरा चन्द्र लक्ष्मी, सुख प्राप्ति, चौथा चन्द्र देह पीड़ा रोग यादि को, पांचवां चन्द्र पराजय, असफलता, छठा सातवां चन्द्र धन सम्पत्ति लाभ को, आठवां चन्द्र रोग को नौवां चन्द्र राजकीय आपसि को, दशवां ग्यारहवां चन्द्र अनेक प्रकार के सुख तथा लाभ को, बारहवें स्थान का चन्द्र द्रव्य नाश तथा श्रापत्तियों को सूचित करता है । मंगल का विचार - प्रथम स्थान का मंगल शत्रु भय को सूचित करता है। दूसरा मंगल नाश को, तीसरा मंगल व्यापार उद्योग में द्रव्य प्राप्ति को, चौथा मंगल शत्रु की वृद्धि को पांचवां मंगल रोग पीड़ा को छला अनेक प्रकार के धन लाभ को, सातवाँ मंगल देह निर्बलता तथा द्रव्य नाश को, आठवां मंगल विरोधियों के भय तथा पाप फल को नौवां मंगल अनेक प्रकार के उपद्रव तथा पीड़ा को, दशवां ग्यारहवां मंगल धन लाभ तथा सुख शान्ति को तथा बारहवें स्थान का मंगल नाश को सूचित करता है । बुध का फल - पहले स्थान का बुत्र भय का सूचक है, दूसरे स्थान का बुध व्यापार उद्योग आदि में धन प्राप्ति, तीसरा बुध क्लेश, भय को, चौथा बुध द्रव्य प्राप्ति, पांचवां बुध रोगादि पीड़ा तथा मनोव्यथा को छठा बुध लक्ष्मी समागम को, सातवां बुध शरीर पीड़ा को साठवों बुध अनेक प्रकार के धन लाभ को, नौवां बुध रोग को, दशवां बुध अनेक प्रकार के सुख भोग को, ग्यारहवां बुध अनेक प्रकार की द्रव्य प्राप्ति तथा सुख को, बारहवें स्थान का बुध अनेक प्रकार से J द्रव्य व्यय तथा शारीरिक रोग को सूचित करता है । गुरु का फल - पहले स्थान का गुरु शत्रु द्वारा भय का सूचक है, दूसरा गुरु व्यापार आदि में द्रव्य लाभ, तीसरे स्थान का गुरु विविध प्रकार के कष्टों को, चौथा गुरु व्यापार उद्योग में हानि को पांचवां गुरु अनेक प्रकार के लाभ तथा सुख को, छटा गुरु अनेक प्रकार के मानसिक रोग श्रादि को, सातवां गुरु समस्त जनता द्वारा सम्मान तथा सुख को, आठवां गुरु अनेक प्रकार की शरीर-व्याधि तथा द्रव्यहानि को नौ गुरु अनेक प्रकार की मर्यादा ( सन्मान ) तथा धन धान्य की वृद्धि को, दशवां गुरु साधारण सुख शान्ति को, ग्यारहवां गुरु ग्रनेक प्रकार के - धन धान्य के लाभ को तथा बारहवें स्थान का गुरु अनेक प्रकार की पीड़ा तथा द्रव्य हानि को सूचित करता है । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६) शुक्र का फल - पहले स्थान में शुक्र हो तो सुखदाता तथा शत्रुनाशक होता है, दूसरे स्थान का शुक्र व्यापार उद्योग में सफलता को, तीसरे तथा चौथे स्थान का शुक्र द्रव्य लाभ तथा सुख शान्ति को, पांचवें स्थान का शुक्र पुत्र लाभ को, छठे स्थान का शुक्र जनता द्वारा विरोध तथा रोग को, सातवें स्थान का शुक्र मानसिक दुख को, आठवें स्थान का शुक्र अनेक प्रकार के मुख तथा लाभ को, नौवें स्थान का शुक्र धर्म कर्म में उत्साह को तथा वस्त्राभरण के लाभ को, दशवें स्थान का शुक्र मानसिक चिन्ता तथा विपत्ति को, ग्यारहवां शुक्र धन लाभ को तथा बारहवें स्थान का शुक्र प्रत्येक कार्य में द्रव्य नाश का सूचक होता है। शनि का फलपहले स्थान का शनि रोग तथा कष्ट को सूचित करता है, दूसरे स्थान का शनि प्रत्येक कार्य में धन नाश तथा चिन्ता को, तोसरा शनि द्रव्य लाभ तथा सन्तोष को, चौथा शनि शत्रु की वृद्धि तथा मानसिक व्यथा को, पांचवां शनि द्रव्य नाश, शोक, स्त्री पुत्रादि द्वारा विघ्न वाधा को सूचित करता है, छठे स्थान का शनि धन लाभ, सन्तोष, कार्य कुशलता की वृद्धि को, सातवां शनि विविध अपवाद (बदनामी), भय तथा चिन्ता को; पाठवां शनि शारीरिक रोग तथा विध्न वाधा को, नौवां शनि उद्योग तथा व्यवहार में असफलता, धर्म नाश तथा चिन्ता को, दशवां शनि साधारण लाभ तथा कार्य अनुकूलता को, ग्यारहवां शनि कार्यो में द्रव्य लाभ तथा सुख प्रानन्द को एवं वारहवें स्थान का शनि मानसिक व्यथा को और व्यापार उद्योग में द्रव्य नाश को सूचित करता है । नोट-गोचरी में चौथे पांचवें स्थान के शनि को पंचम शनि कहते हैं। चौथे स्थान का शनि ढाई वर्ष तक तथा पांचवें स्थान का शनि ढाई वर्ष तक यानी-कुल ५ वर्ष तक कष्ट देता है इसी कारण इसको पंचम शनि कहते हैं । इसी प्रकार बारहवें स्थान का शनि साढ़े सात वर्ष तक कष्ट देता है, इसी को साढ़ेसाती कहते हैं क्योंकि बारहवें स्थान में २।। ढाई वर्ष, पहले स्थान में ढाई वर्ष और दूसरे स्थान में ढाई वर्ष तक, कुल ७|| साढ़े सात वर्ष तक कष्ट देता है। राहु केतु का फलराहु केतु पहले स्थान में हो तो अनेक प्रकार के नाश तथा शरीर पीड़ा को बतलाता है । दूसरे स्थान का दरिद्रता, कलह, विरोध को, तीसरे स्थान में द्रव्य लाभ, सुख को चौथे स्थान का भय की वृद्धि, शत्रु वृद्धि को, पांचवे स्थान का शोक चिन्ता को, छठे स्थान का अनेक प्रकार के धन लाभ, सुख सम्पत्ति Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० Sister... को, सातवें स्थान का कलह तथा राजकीय विपत्ति को, आठवें स्थान का राहु केतु अपमृत्यु, भय तथा ज्वरादि पीड़ा को, नौवें स्थान का पाप कार्य में मन की इच्छा को, दशवें स्थान का वैर वृद्धि, चिन्ता वृद्धि को, ग्यारहवें स्थान का अनेक प्रकार सुख तथा सन्मान की वृद्धि को और बारहवें स्थान के राहु केतु अनेक प्रकार के शोक चिन्ता, शव वृद्धि तथा धननाश को सूचित करते हैं। . गोचर फल का विशेष विचाररवि, मंगल, बुध और शुक्र इन चार प्रहाँ बारा मास में होने वाला गोचर फल जाना जाता है । चन्द्र से दैनिक फल, पुरु, शानि केस से वार्षिक फल जान लेना चाहिये, परन्तु रूढ़ि में गुरु और शनि छारा गोचर फल जानने की प्रथा प्रचलित है । जिस समय का शुभ अशुभ फल जानना हो उस समय शुभ अशुभ ग्रहों को अच्छी तरह देख लेना चाहिए । यदि उस समय शुभ ग्रह अधिक हों तो उस समय सुख प्राप्त होगा, यदि अशुभ ग्रह अधिक हो तो दुःख मिलेगा, यदि शुभ अशुभ ग्रह समान हों तो सुख दुख समान होगा। रवि मंगल राशि के आदि में, चन्द्र और बुध सदा, गुरु और शुक्र राशि के मध्य में तथा शनि राहु और केतु राशि के अंत में अपना फल देते हैं। प्रत्येक राशि में आने से सूर्य ५ दिन पहले, चन्द्रमा ३ घड़ी पहले, मंगल ८ दिन पहले, बुध शुक्र ७ दिन पहले, गुरु दो मास पहले, शनि ६ मास पहले और राहु केतु ४ मास पहले अपनी-अपनी दृष्टि की सूचना कर देते है। राशियों के घात मास मेष राशि वाले को कार्तिक मास तथा प्रतिपदा, छठ, एकादशी तिथि, रविवार, मघा नक्षत्र, विष्कम्भ योग, बवकरण, पहला पहर घातक है। मेष राशि वाली स्त्रियों तथा पुरुषों के लिए पहला चन्द्र घातक है 1 वृष राशि वाले को मगसिर भास, पंचमी, दशमी, पूर्णिमा, शनिवार . हस्त नक्षत्र, शुक्ल योग, शकुनि करण, चौथा पहर घातक है। पाचवां चन्द्र पुरुषों के लिए तथा स्त्रियों के लिए पाठवां चन्द्र घातक है । मिथुन राशि वाले को-आपाढ़ मास, द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी तिथि सोमबार, स्वाति नक्षत्र, परिष योग, कौलव करण, तीसरा पहर, नौवां चन्द्र तथा स्त्रियों के लिए सातवां चन्द्र घातक है । कर्क राशि वाले के लिए पौष मास, द्वितीया सप्तमी द्वादशी तिथि, बुधवार अनुराधा नक्षत्र, व्याघात योग, नागवान करण', पहला पहर, दूसरा चन्द्र तथा स्त्रियों के लिए नौवां चन्द्र घातक होता है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंह राशि वाले के लिए ज्येष्ठ मास, तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी तिथि शनिवार, मूल नक्षत्र, धृति योग, बब करण, पहला पहर, छठा चन्द्र तथा स्त्रियों के लिए चौथा चन्द्र घातक है। कन्या राशि वाले को-भाद्र-पद मास, ५-१०-१५ तिथि शनिवार श्रवण नक्षत्र, शुक्ल योग, कौलव करण, पहला पहर, दशबां चन्द्रमा तथा स्त्रियों के लिए तोसरा चन्द्र घातक होता है । तुला राशि वाले को-माघ मास, ४-६-१४ तिथि गुरुवार, शततारका नक्षत्र, शुक्ल योग, तैतल करण, चौथा पहर, सातवां चन्द्र तथा स्त्रियों के लिए दूसरा चन्द्र घातक होता है। वृश्चिक राशि वाले को-प्राश्विन (आसोज) मास, १-६-११ तिथि, शुक्रवार, देवती नक्षत्र, व्यतिपात योग, गर्ग करण, पहला पहर, सातवाँ चन्द्र तथा स्त्रियों के लिए दूसरा चन्द्र घातक है। धनुष राशि वाले को-श्रावण मास ३-८-१३ तिथि शुक्रवार भरणी नक्षत्र, बज्रयोग, गिल कारण, ना पहागौन, वन तथा हिमयों के लिए १०वा चन्द्र घातक है। मकर राशि वाले के लिए---वैशाख मास, ४-६-१४ तिथि, मंगलवार, रोहिणी नक्षत्र, वैधृति योग, शकुनि करण, चौथा पहर पाठवां चन्द्र, स्त्रियों के लिए ११ वां चन्द्र घातक है । कुम्भ राशि वाले को--तैत्र मास, ३-८-१३ तिथि गुरुवार, आर्द्रा नक्षत्र, गण्ड योग, किंस्तुघ्न करण, तीसरा पहरा, ग्यारहवां चन्द्र तथा स्त्रियों के लिए पांचवां चन्द्र घातक है। __ मीन राशि वाले को.-फागुन मास ५-१०-१५ तिथि, शुक्रवार; प्राश्लेषा नक्षत्र, वज्रयोग, चतुष्पाद करण, चौथा पहर, ग्यारहवां चन्द्र तथा स्त्रियों के लिए १२वा चन्द्र घातक है। अपनी अपनी राशि के अनुसार इन घातक मास, तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण, पहर तथा चन्द्रमा में यात्रा व्यापार उद्योग प्रारम्भ, नवीन गृह निर्माण, मूतन वस्त्राभरण पहनना, राजकार्य, धनधान्य संग्रह, दीक्षा, विवाह प्रादि कार्य नहीं करने चाहिए। तारा बल जानने की विधि। बधू- वर के जन्म अथवा नाम नक्षत्र से विवाह के नक्षत्र तक गिनकर उसको ९ से भाग देने पर १ शेष तो जन्म, २ शेष रहे तो सम्पत्ति, ३ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२ ) शेष रहे तो विपत्ति, ४ रहे तो क्षम, ५ शेप रहे तो पृथकता,६ शेष रहे तो साधन प्राप्त होना, ७ शेष रहने पर वध, ८ रहने पर मैत्री, ६ रहने पर परम मंत्री समझना चाहिए । इनमें २-४-७-८ परम शुभ हैं, ६ मध्यम है। ये नाम और गुरण के अनुसार फल देते हैं । चन्द्र बल जानने की विधिः विवाह कुण्डली में बधू वर की जन्म राशि में पहला चन्द्र हो तो पुष्टि, दूसरा हो तो सुख की कमी, तीसरे स्थान में धन लाभ, चौथे में रोग, पांचवें में कार्य नाश, छठे में विशेष द्रव्य लाभ, सातवें स्थान में राज सन्पान, पाठवें स्थान में चन्द्र हो तो निश्चय से मरण , नौवें में भय, दसवें में सम्मत्ति, ग्यारहवें में द्रव्य लाभ और बारहबै स्थान में चन्द्र हो तो अनेक प्रकार के दुःख प्राप्त होते हैं। ___ सारांश--२-४-५-५-६-१२ स्थान का न्द्र अशुभ है। शुक्ल पक्ष में २-५.६वें स्थान पर रहने से भी वृष्णि पक्ष में ४-८-१२ वें स्थान पर रहते हुए भी चन्द्र शुभ माना गया है । पंच क देखने की विधि। प्रतिपदा के पहले बीते हा तिथि, वार, नक्षत्र की संख्या में लग्न संख्या को मिलाकर जोड़ में 8 से भाग देने पर शेष १ रहे तो मृत्यु, २ शेष तो अग्नि, ४ शेष रहे तो राज्य, ६ रहे तो चोरी भय, ८ रह जावे तो रोग, यदि ३-५-७ शेष रहे तो निष्पंचक होता है। ऊपर कहे हुए पंचक दो को विवाह, उपनयन, संस्कार, नवीन घर निर्माण ; नूतन ६ ! वेश इत्यादि शुभ कार्य नहीं करने चाहिए। ३-५-७ शुभ है, शेष अशूभ हैं । रतिबल तथा गुरु बल जानने की विधि विवाह की कुण्डली में वर की राशि से रवि रहने की राशि तक गिनने पर यदि ३-६-१०-११ वें स्थान में रवि हो तो उस मास में रवि बल समझना चाहिए । इसी प्रकार गुरु की राशि तक गिनने पर २.५-७-६-१०-११ वें स्थान पर गुरु हो तो गुरु बल समभाना चाहिए । वर को गुरु बल तथा रवि बल हितकारी है । स्त्रियों के लिए गुरु बल ही हितकारक होता है । विवाह में मुकूट बांधते समय गुरु बल श्रेष्ठ माना गया है । इस प्रकार यहां आवश्यक ज्योतिष-विषय दिया गया है, विस्तार के भय से अन्य विषय को छोड़ दिया है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .( १४३ ) वैमानिक देवों का वर्णन: द्विविधा वैमानिकाः ॥ ५ ॥ अर्थ —कल्पज और कल्पातीत वैमानिक देवों के दो भेद हैं। इन्द्र प्रतीन्द्रादि विकल्प वाले कल्पवासी देव होते हैं। और जहाँ पर इन्द्रादिक भेद न होकर सभी समान रूप से अहमिन्द्र हों उनको कल्पातीत कहते हैं : . षोडश स्वर्गाः ।।६॥ अर्थ-कल्प की अपेक्षा से सौधर्म, ईशान, सानकुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्रागत, पारण और अच्युत ये १६ स्वर्ग हैं। इन १६ स्वर्गों के १२ इन्द्र होते हैं। सौधर्मादि चार कल्पों में सौधर्मेन्द्र ईशानेन्द्र, सानत्कुमार तथा महेन्द्र ऐसे चार इन्द्र हैं । मध्य में आठ कल्पों के पूर्वापर युगलों के एक एक इन्द्र होते हैं । जैसे ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर का ब्रह्मन्द्र, लान्तब कापिष्ट का लान्तवेन्द्र, शुक्र और महाशुक्र का शुक्रन्द्र, शतार और सहस्रार सहस्रारेन्द्र । ग्रानतादि चार वल्पों में आनतेन्द्र, प्राणतेन्द्र, आरणेन्द्र, तथा अच्युतेन्द्र ये चार इन्द्र हैं। इनके साथ १२ प्रतीन्द्र मिलकर कल्पेन्द्र २४ होते हैं। नय वेयकाः ॥७॥ अर्थ-अधो वेयकत्रय, (३) मध्य वेयकत्रय, (३) उपरिम वेयकत्रय, (३) ये ग्रेवेयक के नी भेद हैं। . नवानुदिशाः ॥ ८ ॥ अर्थ-अचि, अधिमालिनी, बैर, वैरोचन ये पूर्वादि दिशाओं के ४ श्रेणीबद्ध हैं । सोम, सोमरूप, अंक तथा स्फटिक ये चार आग्नेयादि दिशानों के प्रकीर्णक हैं। बीच का इन्द्रक विमान मिलकर अनुदिशों के नौ विमान होते हैं। __ पंचानुत्तराः ॥॥ अर्थ---विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार पूर्वादि दिशाओं के श्रेणीबद्ध विमान हैं और मध्य में सर्वार्थसिद्धि का बिमान है । मेरुतलावु दिवड्ढे दिबढदलछक्कएक्करज्जुम्हि। . कप्पारणमट्ट जुगला गेवज्जादी य होति कमे ॥२॥ मेरु पर्वत के मूल से लेकर डेढ़ १६ रज्जू उत्सेध पर सौधर्म, ईशानकल्प, उससे ऊपर १३ डेढ़ रज्जू ऊपर में सनत्कुमार, और माहेन्द्र कल्प हैं। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) वहाँ से ऊपर साधी प्राधी रज्जू के अन्तर में ऊपर के छः युगल हैं । वहाँ से ऊपर १ रज्जु ऊंचाई पर नव वेयकादि विमान हैं । कल्प तथा कल्पातीत क्षेत्र का अन्तर अपने अपने इन्द्रक के ध्वजदण्ड तक ही ग्रन्त है। उससे आगे ऊपर में क्रम से नवर्स वेयकादि कल्पातीत विमान हैं उससे कुछ ऊपर जाकर लोकान्त है । " त्रिषष्ठि पटलानि" ॥१०॥ ऋतु, विमल, चन्द्र वल्गु, अरुण, नन्दन, नलिन, काञ्चन, रोहित, चरि चतु, मरुत रुद्दिष, वैडूर्य, रुचिक, रुचिर, अंक, स्फटिक, तपनीय, मेघ, अभ्र, हरिद्र, पद्म, लोहित, बज्र, नन्द्यार्क, प्रभंकर, प्रष्टक, गज, मित्र और प्रभा ऐसे ३१ सौधर्मकि के पटल हैं । 'अ'जन, वनमाली, नाग, गरुड, लांगल, बलभद्र, चक्र मे सात सनत्कुमार द्विक के पटल हैं । अरिष्ट, सुरसमिति, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर ये चार ब्रह्मद्विक के पटल हैं ब्रह्म, हृदय, लांव, ये पटल लांतवद्विक के हैं, शुक्र, विमान एक है वह शुक्र द्विक के लिए है । सतार विमान एक ही सतार द्वय का है । श्रान्त प्राप्त पुष्पक ऐसे तीन पटल आनतद्विक के हैं । शातक धारण, अच्युत ये तीन पटल आरणद्विक के हैं। सुदर्शन, प्रमोध, सुप्रबुद्ध ये तीन पटल अधो ग्रैवेयक के हैं । यशोधर सुभद्र, विशाल ये तीन पटल मध्यम वेयक के हैं। सुमनस, सोमनस, प्रीतंकर ये तीन विमान उपरिम प्रवेयक के हैं। श्रादितेन्द्र यह नवानुदिश का एक पटल है । सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रक नाम का एक पटल पंचानुत्तर का है । ये सभी मिलकर सठ इन्द्रका विमान होते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है: मेरु पर्वत शिखर पर ४० योजन ऊंची मूल तल विस्तार वाली, मध्य में चार योजन विस्तार वाली चूलिका सुमेरु नामक महिपति के मुकुट में लगे हुए बेडूर्य मरिण के है । उस चुलिका के ऊपर कुरुभूमिज मनुष्य के बालाग्र के करते हुए ) ऋजु विमान है । वह मनुष्य क्षेत्र के १४५ लाख योजन का प्रमाण है । उसी प्रमाण सिद्ध क्षेत्र से नीचे बारह योजन अन्तर में सर्वार्थ सिद्धि है । में बारह योजन है जोकि मन्दर समान प्रतीत होती अन्तर से ( स्पर्श न 7 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) वह सर्वार्थ सिद्धि जम्बू द्वीप के प्रमाण एक लाख योजन है। उन दोनों को घटाने पर ४४००००० योजन में शेष ६२ पटलों का भाग करने से आया हुआ लब्ध शेष इन्द्रक विमानों के हानि चयका प्रमाण पाता है । जैसा कि नीचे की गाथा में लिखा है: गाभिगिरिधूलिगुर्वार वालग्गंतर द्वियो हु उडुइंदो। सिद्धी दो धो बारह जोयणमारगम्हि सन्चट्ठ॥२३॥ माणुसखित्तपमारगं उडुसबढ़तु जम्बुदीवसमं । उभय विसेसेरूकरिंग व्य भजदे दु हाणिचयं ॥ पुन: उस इन्द्रका की चार दिशा में कम से रहने वाले श्रेणी-वद्ध विमाम इस प्रकार हैं: पहले के इन्द्रक की चार दिशाओं में श्रेरिणवद्ध ६२ है । यहाँ से ऊपर के सभी पटलों की चार दिशा में कम से एक एक श्रेणीबद्ध कम होता चला गया है । वहाँ से नवानुदिश पंचानुत्तर की दिशा में एक एक ही श्रेणीबद्ध है। यह कैसे ! उसके लिए सूत्र कहते हैं: -- “ोडशोत्तराष्टशतसप्तसहस्रगिवद्धानि" ॥११॥ अर्थः-सात हजार आठ सौ सोलह श्रेणीबद्ध विमान हैं । सौधर्म कल्प में ४३७५ श्रेणीबद्ध बिमान हैं । ईशान कल्प में १४६७ श्रेणीवद्ध हैं। सनत्कुमार कल्प में ५८८ श्रेरिणवद्ध हैं । माहेन्द्र कल्प में १६६ श्रेणीवद्ध हैं । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर में ३६० हैं। लांतब य में १५६, शुक्रद्वय में ७२, शतारद्वय में ६८, आनतादि चतुष्क में ३२४, अधो बेयकत्रय में १०८, मध्यम अवेयकत्रय में ७२, उपरिम ग्रेवेयक श्रय में ३६, नवानुदिश में ४ इस प्रकार सभी मिलकर ७८१६ श्रेणीबद्ध होते हैं । ये सभी संख्यात योजन विस्तार वाले होते हैं । चतुरशीतिला कोननवतिसहस्त्रं कशतचतुश्चत्वारिंशद प्रकीर्ण कानि ॥१२॥ अर्थ-प्रकीर्णक विमानों की संख्या ८४८६१४४ है। इन्द्रक से लगे श्रेणीवद्ध विमानों के बीच में प्रकीर्णक इस प्रकार हैं। सेढोणं विच्चाले पुफ्फपइण्णग इथ ट्ठियधिमारणा । होति पइपाइणामा सेढिविय होणरासिसमा ॥२५॥ अर्थ-पौधर्म कल्प में ३१ लाख ६५ हजार पांच सौ अठानबे (३१६५५६८), ईशान में २७६८५४३, सनत् कुमार में ११६६४०५, महेन्द्र कल्प में Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L ( १४६ ) ७६६८०४ ब्रह्मद्वय में ३६६६३६, लांतवद्वय में ४६५४२ शुक्रद्वय में ३६६२७ सतारद्वय में ५६३१, प्रात्ततादि चतुष्क में ३७०, अधोग्र वेयकत्रम में प्रकीर्णक नहीं है । मध्यम प्रै बेयक में ३२, उपरिम नैवेयक त्रय में ५२, नवानुदिश में ४, पंचानुत्तर में प्रकोपक नहीं हैं । इस प्रकार सभी प्रकीर्णक मिलकर ८४८९१४४ होते हैं । चतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोविंशतिविमानानि ।।१३।। अर्थः-८४६७०२३ यह विमानों की संख्या है। यह किस प्रकार है यह बतलाते हैं । साधर्म कल्प में ३२००००० विमान है ईशान में २८००००० विमान है । सानत कुमार में १२०००००, महेन्द्र कल्प में ८००००० ब्रह्मद्वय में ४०००००, लांतवद्वय में ५०००० शुऋद्वय में ४००००, शतार द्वय में ६०००, आनतादि चतुष्कों में ७०००, अधोवेयक त्रय में १११, मध्यम ग्रंवेयक में १०७, उपरिम वेयक अय में ११ नवानुदिश में १, पंचानुत्तर में ५ विमान हैं और प्रत्येक में जिन मन्दिर है। पुनः सौधर्मादि इन्द की महादेवी पाठ पाठ हैं । उन एक-एक देवियों के प्रतिबद्ध परिवार देवी और १६०००होनेसे,सौधर्म ईशानदेवों की संख्या १२८००० होती है और प्रागे पांच युगलों में अर्ध अर्ध यथा-क्रम से होती है जैसे कि ६४००० सानत कुमार हुए लो, ३२००० मोहन्द्र को, १६००० लांतब को और महा शुक्र को ८००० । सहस्रार को ४००० । आनतादि चतुष्कों को २०००, २००० स्त्रियां होती हैं और पटरानी सौधर्म ईशान इन्द्र को ३२००० सानत १ मोहन्द्र को ८०००, बान्द्र को २०००, लांतव को ५००, महाशुक्र को २५०, सहास्रार इन्द्र को १२५, प्रानतादि चार प्रत्येक को प्रेसठवेसठ होती हैं । दक्षिणोत्तर काल्प के देवों की देवियों के उत्पत्ति स्थान विमान सौधर्म कल्प में ६००००० होते हैं। ईशान कल्प में ४००००० । देवों के काम सुख के अनुभव को बताते हैं:-.. भवन वासी से ईशान कल्प तक रहने बाले देव और देवियाँ कायप्रविचार वाली होती हैं । मनुष्य के समान अनुभव करें तो उनकी तप्ति होती है । सानतकुमार माहेन्द्र कल्प के देव-देवियों को स्पर्श मात्र से तृप्ति हो जाती है । अर्थात् अन्योन्यांग स्पर्श मात्र से ही काम सुख की तृप्ति हो जाती है । इस से ऊपर के चार कल्प के देब देवियों के रूप का अवलोकन करने मात्र से उनकी तृप्ति हो जाती है। अर्थात् उनके शृङ्गार, रूप, लावण्य, हाव भाव, विभ्रम देख कर उनकी तृप्ति हो जाती है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाबो मुखविकारः स्याद्भावश्चितन्तु संभवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमः भ्र युगान्तयोः ॥ उसमें ऊपर चार कल्प के देवों को शब्द सुनने में तृप्ति होती है। अर्थात् अन्योन्य मृदु वचन गीतालंकार आदि को सुनकर तृप्ति को प्राप्त होते हैं। वहां से ऊपर चार कल्प के देव मन:-प्रविचार से तृप्त होते हैं । अर्थात् अपने मन में विचार कर लने मात्र से मन्मथ सुख की प्राप्ति कर लेते हैं। वे स्त्री के साथ भोग करने के समान ही सुखी होते हैं और वहां से ऊपर सभी अहमिन्द्र अन्नविचार वाले हैं । उनके समान उन देनों को मुख नहीं, ऐसा नहीं है। सेवन करने वाले यह सभी वेदनीय कर्म के उदीरणा से होने वाले दुख को उपशम करने के लिए प्रतीकार स्वरूप प्रवीचार करते हैं, वह वेदना-जन्य दुःख अहमिन्द्र कल्प में न होने के कारण वहां प्रविचार नहीं है । पांच प्रकार के अन्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए साता, शुभ पंचक में रहने वाले उन देवों के प्रविचार सुरत्र से अनंत गुरणा होता है । वह सुख कितना है ? इसको उपमा नहीं है, वह उपमातीत है अथांत उस सुख के समान ऐसा और कोई सुख नहीं है, अतः अहमिन्द्र ही सुखी हैं । कहा भी है : हुषोकजमनातंक दीर्घकामोपलालितं । नाक नाकोकसां सौख्य नाके नाकौकसामिव । और उन वैमानिक देवों की आयु अणिमादि ऐश्वर्य, सुख, कान्ति, लेश्या की विशुद्धि, इन्द्रियों के विषय, अवधि का विषय, ऊपर-ऊपर कल्प में अधिक है। उनके रहने वाले क्षेत्र, शरीर, अभिमान, परिग्रह कम होता जाता है। लेश्या-भवनवासी देवों से लेकर प्रथम दो कल्पों के देवों तक पीत लेश्या होती है । फिर तीसरे चौथे पांचवें युगल में पद्म होती है। छठवें मेंपद्म और शुक्ल लेश्या होती है । वहां से ऊपर सभी में शुक्ल लेश्या वाले होते हैं । भवनत्रिफ को अपर्याप्ति काल में कृष्ण नील का पोत यह अशुभ लेशा ही होती है । और उनकी विक्रिया शक्ति, अवधि का विषय, प्रथम द्वितीय मुगल बालों को, प्रथम द्वितीय पृथ्वी के अंत तक होता है, वहां से ऊपर तीन स्थानों में क्रम से श्रम से चार कल्प के देव को ३-४-५ वीं पृथ्वी तक होता है। नर्वे ग्रंबेयक.वाले और नवानुदिश वालों को ६-७ पृथ्वी तक को जानते हैं तथा विक्रिया प्राप्त करने की शक्ति वाले होते है। पंचानुत्तर के अहमिन्द्रलोग सातवीं पृथ्वी तक प्रत्यक्ष से जानते हैं । अपने-अपने अवधि क्षेत्र तक अपने अपने शरीरको भी फैलाते हैं और उस पृथ्वी को उलटने की ताकत भी रखते हैं। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T ( १४८ ) बुसु सु चदुदुखुदुखु चदु तित्तिसुसेसेसु वह उस्सेहो । रमणी सत्त छष्पष्ण चत्तारिदले हीरणकमा ॥ ५४३ त्रि०स० अब आयु बतलाते हैं : कानड़ी श्लोक: रडे पत्तु पदिना - | 。 केरडुतरेया पे स्थितिथिप्प || तेरडु वरमत्ता श्रदु । तरेयि भूत मूरुवरमंबुधिगळ ॥४४॥ सौधर्म ईशान कल्प में कुछ अधिक दो सागरोपम उत्कृष्ट श्रायु है, वह आगे के तोसरे चौथे स्वर्ग में जघन्य है, ऐसा ही कम ऊपर ऊपर है । सोहम्म वरं पल्लं वरमुहिविं सत्तदस य चोहस्यं । वाथीसोत्ति दुवड्ढी एक्केकं जाव तेतीसं ॥ २७॥ अर्थ- सौधर्म कल्प में जघन्य एक पल्य उत्कृष्ट २ सागरोपम फिर क्रम से ७, १०, १४, १६, १८, २०, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ३२ ३३ सागर । सर्वार्थ सिद्धि में तेतीस सागर ही जघन्य उत्कृष्ट श्रायु है । सम्मे घादे ऊरणं सायरदलमहियमा सहस्सारा । जलहि दल मुडुवराऊ पदलं पडि जारण हारिणश्चयं ॥ २८ ॥ प्रथम कल्प द्वय में हानि वृद्धि के प्रमाण सागरोपम के त्रिंशत् भाग होने से है प्रत्युत्कृष्ट आयुष्य है, 35, 333 पट *, **, **, 14, 11, 12, 1, 2, 36, 11, 12, 5, 17, 34, 94, 93, सनत कुमार युगल में वे ब्रह्म युगल में ३३ का छेद करने से, हैं, लांब द्वय में धूम २६ शुक्र द्वय ३३ में शतार द्वय में ३७ को प्रान्त द्वय में त्रातायुष्य ( अकाल मृत्यु वाले ) की उत्पत्ति नहीं है । ५६, ३६, २० प्रारण युग में इस से ऊपर वालों की उपर्युक्त कहे हुए घाति प्रायुष्य में तीन इन्द्रकमें जघन्य आयु पल्य के तीन भाग है हैं । उबहिदलं पल्लद्ध' भवणे वित्तर दुगे कमेरग हियं । सम्मे मिच्छे घादे पल्लासंखं तु सव्वत्थ ॥ ५४०|| पूतायुष्य में सम्यग्दृष्टि को अर्ध सागरोपप अधिक है । व्यंतर ज्योतिष्क में सम्यग्दृष्टि की श्रायु य पत्योपम से अधिक है । किन्तु भवनवासियों में के प्रसुर 7 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) कुमार का डेढ़ सागरोपम है । व्यंतर ज्योतिष्कों में डेवपल्य है । पूत श्रायुष्य वाले मिथ्यादृष्टि को सर्वत्र चतुर्निकायों में पल्य के प्रसंख्यातवें भाग से अधिक है, और देवियों की जघन्य प्रयु प्रथम युगल में साधिक पल्य है, उत्कृष्ट ५ ग्रायु पल्योपम धर्म में है और ग्यारहवें रूप तक दो-दो पत्य की वृद्धि है । और चार कल्प तक सात तक वृद्धि होकर अच्युत कल्प देवियों की ५५ पल्योपम ग्रायु होती है । साहियपल्लं प्रवरं कप्पवृगित्थीरणपरपग पढमवरं । एक्कारसे चउनके कप्पे दो सत्त परिवड्ढी ॥ ३० ॥ भावार्थ- -सौधर्म कल्प में साधिक पल्य जघन्य स्थिति, सौधर्मादि कल्पों में उत्कृष्ट स्थिति ५, ७, ६, ११, १३, १५, १७, १६, २१, २३, २५, २७, ३४, ४१, ४८, ५५, पल्य है और उन देव दम्पतियों को सहजांगांबर भूषरग । सहस्र किरगंगळ निजांगप्रभेय ॥ गृहभित्तियेमरिकुहिम । महियंशुगळ पळंचि पत्तु देशेयं ॥ ५५ ॥ पासिन पोरेल एनियिसि । भासुर सुषांबर प्रसूनतें जो ॥ दुभासि गोप्पिन तम्मा । वासिसि सुख मनुबदियदो ॥५६॥ समचतुरस्र शरीर । समस्तमल धातु दोष रहित स्वेद || श्रमरोग वर्जितदि । व्यमूर्ति गळु दिव्यवोधरणिमादिगुणर् ॥५३॥ सासिर वर्षवकन | तिशयानमं नेनेव रोमेंसुय्वसुं खदि ॥ मालार्धक्कें समस्त सु । रासुररभ्युपम जीविगळु सोरभम् ॥५८॥ अर्थ - इस प्रकार देव देवियों का आयुकाल ऊपर ऊपर बढ़ता गया है । तदनुसार उनका श्राहारकाल, श्वास निःश्वास काल अधिक होता जाता है । अधिक होते होते सर्वार्थ सिद्धि के देव ३३ हजार वर्ष में एक बार मानसिक सहार करते हैं । १६३ मास में एक बार श्वास लेते हैं । देवों का शरीर प्रति Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५01 सुन्दर, समाचतुरस्त्र संस्थान वाला, पसीना रहित होता है उनका शरीर बैंक्रियिक होता है, अतः उनको मलमूत्रः नहीं होता, रक्त प्रादि धातु उसमें नहीं होते ! वे बहुत सुन्दर दिव्या वरून आभूषण पहनते हैं । उनके रहने के स्थान बहुत सुन्दर होते हैं. उनको कभी कोई रोग नहीं होता। प्रादि भोग उपभोगः सुख उन्हें प्राप्त होते हैं। ब्रह्मलोकान्तालयाश्चतुविशतिलौकान्तिकाः ॥१४॥ अर्थ-ब्रह्मलोक के अन्तिम भाग में रहने वाले लौकान्तिका देव होते हैं, वे २४ हैं। ___ व्याख्या-ब्रह्मलोक के अन्त में ईशान आदि दिशाओं में रहने वाले १सारस्वत, २ अग्न्याभ, ३ सूर्याभ, ४ ग्रादित्य, ५ चन्द्राभ, ६ सत्याभ, ७ वन्हि ८ श्रेयस्कर, ६ क्षेमकर, १० ग्ररुरग, ११ वृषभेष्ट, १२ कामधर, १३ गदेतोय १४ निर्माण राजस्क, १५ दिगन्त रक्षक, १६ तुषित, १७ प्रात्मरक्षित, १८ सर्वरक्षित, १६ अव्यायाध, २० मस्त, २१ अरिष्ट, २२ वसु, २३ अश्व, २४ विश्व नामक लोकान्तिक देव हैं। ___ सारस्वत ७०७, अग्न्याभ ४००७, सूर्याभः ६००६, आदित्य ७०७, 'चन्द्राभ ११०११, सत्याभ, १३०१.३, वन्हि ७. ०७, श्रीयकर १५०१५, क्षेमकर १७०१७, अरुण ७००७, वृषभेष्ट १६०१६, कामधर २१.०२१, गर्दलोय ६००६ निर्माण राजस्क २३०२३, दिगन्तरक्षक २.५०२५, तुषित ६००६, आत्मरक्षित २७०२७, सर्वरक्षित २६०२६, अव्यावधि ११०११, मरुत् ३१०३६, बसु ३३०३३, अरिष्ट ११०११, अश्व ३५०३५, और विश्व ३७०३७, है। इस प्रकार समस्त लोकास्तिक देव ४०७८२० होते हैं । __ निरंजन परम ब्रह्मस्वरूप अभेद भावना के द्वारा चिन्तवन करने वाले लौकान्तिक देवों के रहने के कारण इस पंचम स्वर्ग का नाम 'ब्रह्मलोक' सार्थक है। तथा संसार का अन्त करने वाले एवं स्वर्ग के अन्त में रहने के कारण उन देवों का नाम 'लौकान्तिफ' यथार्थ है, लौकान्तिक देवों में परस्पर होनअधिक भेद भावना नहीं होती, काम-वासना से रहित वे ब्रह्मचारी होते हैं, बारह भावनाओं के चितवन में सदा लगे रहते हैं, १४ पूर्व के पाठी होते हैं, समस्त. देवों, इन्द्रों द्वारा पूज्य होते हैं और तीर्थंकर के तय कल्याणक के समय ही उनकी वैराग्य भावना को बढ़ाने लिए तथा प्रशंसा करने के लिये आते हैं। उनकी, प्रायु, ८ सागर की होती है। वे सत्र चतुर्थ गुणस्थानवर्ती एवं शुक्ल बेश्या. वाले होते हैं। उन देयों में से अरिष्ट देषों की आयु. हा सागर की होली Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१ ) है, ५ हाथ ऊंचा शरीर होता है । सभी लौकान्तिक संसार दुख से भयभीन, निरजन वीतराग भावना में सदा लीन रहते हैं । अणिमाद्यष्टगुणाः ॥१५॥ अर्थ-शिमा, हिमा, लामा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, ये बाट गुण देवों के वक्रियिक शरीर में होते हैं। उस देव गति मैं भेद प्रभेद रत्नत्रय-अाराधन सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, अतः सम्यक्त्व गुरण देवों में होता है। इन्द्र अहमन्द्रि प्रादि महृतिक देव सम्यक्त्व गुरु के भी कारणा निरतिशय आध्यात्मिक सुख का अनुभव करते हैं। देवगति में उत्पत्ति के कारण प्रसैनी पर्याप्तक व्यन्तर देवों में, तापसी भोगभूमि के मिथ्याष्टि भवन त्रिक में, भोगभूमि के सम्यग्दृष्टि सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। परवश रहकर ब्रह्मचर्य पालन करने वाले, जेल आदि में पराधीनता से कार्यक्लेश आदि शान्ति से सहन करने वाले, बालतप करने वाले नीच देव प्रायु का बन्ध करते हैं। देवायु का बध हो जाने के पश्चात् यदि अग्नि में जलकर अथवा जल में डूब कर अथना पर्वत से गिरकर आदि ढग से शरीर त्याग करें तो वे नीच देवों में उत्पन्न होते हैं । आत्म आराधक परिव्राजक पंचवें स्वर्ग तक होते हैं । शान्त परिणामी परम हंस साधु १६ वें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं । पशु तथा मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि, देश संयमी महान तप करने वाली द्रष्यस्त्रियो सोलहवें स्वगं तक मद्धिक देव होती हैं। द्रव्य से महावती किन्तु भाव से देशाती तथा असंयत सम्यग्दृष्टि, भद्र परिणामो मिथ्यादष्टि नौवें ग्रेवेयक तक जाते हैं। द्रव्य एवं भाव से महानती, उपशम श्रेणी में प्रारूद, शुक्लध्यानी मुथि सर्वार्थ सिद्धि तक उत्पन्न होते हैं। ईशान कल्प वाले कन्दर्प देव, अच्युतस्वर्ग तक के अाभियोग्य देव अपने अपने कला की जघन्य आयु का बन्ध करके दुख का अनुभव किया करते हैं। कर युगमं मुगिदीकि-। करवाहनदेव नप्पे में पापियेनो-॥ स्करकरमेंदा वाहन। सुरादिगळ नोंदु बे वुतिमन दोळ् ॥५५॥ अर्थ-वाहन देबों को उनके स्वामी देब कठोर शब्दों का व्यवहार करते हैं। तब वाहन देव अपने मन में बहुत दुखी होते हैं और विचारते हैं कि मैं पूर्व जन्म में कुतप करने आदि से ऐसा नीच देव हुआ हूं। इसके Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) सिवाय वे कठोर वचन बोलने वाले देवों को अपने मन में गाला भो देते है । देव उपपाद भवन में, उपपाद शय्या पर अन्तमुहूर्त में अपनी छहों पर्याप्ति पूर्ण करके नवयौवन शरीर को दिव्य वस्त्र प्राभूषण सहित प्राप्त कर लेते हैं और जैसे मनुष्य सोकर उठते हैं, उसी प्रकार वे उपपाद शय्या से परिपूर्ण शरीर पाकर उठ बैठते हैं। नेरेयदे मुन्नकेत्त पउिगळु नवसौरुभ मुण्मे नोक्कळ । नेरेदत्रु रत्नतोरणगणं गर्छ वविमानराशियो- ॥ नरेदत्रु ओवा या धुपिय बांगुडिळडिदाडुचंतेसु- । तिरुदबु भोंकनातन पुरातन पुण्य फल प्रभादि ॥५६॥ अर्थः-उपपाद शय्या से उठने वाले देव को उसके पुण्य प्रताप से सुन्दर तोरण-शोभित विमान तथा जीवन का भोग उपभोग आदि सुख सामग्रो उसके चारों ओर उपस्थित मिलती है । तथा उसके परिवार के देव उस उत्पन्न हुए देव के सामने आकर जय जयकार बोलते हुये, स्वागत करने के लिये हर्ष प्रानन्द मनाते हैं, उसके सामने सुन्दर गान नृत्य करते हैं, सिर झुकाकर नमस्कार करते हैं, मानों जंगम लता ही उसके सामने झुक रही हो । रत्न दर्पण भृगार, चमर, छन्त्र, कनक कलश आदि सामग्री लाते हैं, नियोगिनो सुन्दरी देवांगनायें बड़े हाव भाव विलास विभ्रम आदि द्वारा उस नये देव का चित्त अपनी ओर आकर्षित करती हैं । देव उसके शिर पर अक्षत रखते हैं । उस दिव्य सामग्री को अपने सामने उपस्थित देखकर वह हर्ष से फूला नहीं समाता तथा अनिन्द्य-सुन्दरी देवांगनाओं को देखकर वह कामातुर हो उठता है। अपनी देवियों के मिष्ट चातर्य-पूर्ण शब्द सुनकर, उनके चरणों के नूपुरों के शब्द सुन कर तथा उनके कटाक्ष को देखकर वह विचार करने लगता है कि मैं यहां कहां आगया है, यह सब क्या है ? ऐसा बिचार होते ही उसे अवधि ज्ञान से उस स्वर्ग का वैभव जान पड़ता है पीर पुण्ण कर्म के उदय से वहां पर अपने उत्पन्न होने का कारण ज्ञात हो जाता है । धर्म की महिमा की प्रशंसा करता है। तदनन्तर सरोवर में स्नान करके सम्पष्टि देव जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते हैं और मिथ्याइष्टि देवों को पूजा करने को प्रेरणा करते हैं। देव निरन्तर सुख मानर में निमग्न रहते हैं अतः वे अपने प्रायु के दीर्घकाल को व्यतीत करते हुये भी नहीं जान पाते । जब कहीं पर किसी तीर्थ कर का कल्याणाक होता है अथवा किसी मुनि को केवल ज्ञान होता है तब चारों निकाय के देव उनका उत्सव करने जाते हैं । परन्तु अहमिंद्र देव अपने स्थान पर रहकर Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३ ) हो वहां भगवान को हाथ जोड़ कर अपने मुकुट सुशोभित शिर को झुकार नमस्कार कर लेते हैं। देवों की आयु जब ६ मास अवशेष रहती है, तब देव अग्रिम भव का प्रायु का बंध किया करते हैं और आयु समाप्त करके कर्म भूमि में आकर जन्म लेते हैं। सम्यन्दृष्टि देव बल, बुद्धि वैभव, तेज, प्रोज, पराक्रम सौंदर्य-सम्पन्न, शुभ लक्षणधारक, भाग्यशाली मनुष्यों के रूप में जन्म लेते हैं। कुतप, बालतप, शीलरहित, व्रतपालन आदि से भवन-निक में उत्पन्न हुये जो देव मिथ्या दृष्टि होते हैं वे अपनी अायु का समस्त समय दिव्य इन्द्रियसूखों के भोगने में ही व्यतीत करते हैं । जब उनकी आयु ६ मास अवशेष रह जाती है तब उनको अपने कल्पवृक्ष कांपते हुए , निस्तेज (फीके) दिखाई देने लगते हैं तथा उनके गले की पुष्पमाला भी मुरझा जाती है इससे उनको अपनी आयु छह मास पीछे समाप्त होने को सूचना मिल जाती है । दिव्य सुखों की समाप्ति होते जानकर उनको बहुत दुख होता है, अपने विभंग अवधि ज्ञान से गर्भवारा का दुख प्राप्त होता जानकर उन्हें बहुत विषाद होता है, वे अपनी देवियों के साथ वियोग होना जानकर सदन करते हैं । इस तरह असाता वेदनीय कर्म का वध कर क्लेशित परिणामों से स्थावर काय में जन्म लेने की भी आयु बांध लेते हैं जिससे अपने दिव्य स्थान से च्युत होकर चन्दन, अगुरु धादि वृक्षों में तथा पृथ्वी आदि काय में जन्म ग्रहण करते हैं। कुछ मिथ्यादृष्टि देव निदान बन्ध करके हाथी घोड़ा आदि पंचेन्द्रिय पशुओं में तथा कुछ मनुष्यों में जन्म ग्रहण करते हैं । जो सम्यग्दृष्टि देव होते हैं वे अपनी प्रायु समाप्त होती जानकर दुखी नहीं होते। उस समय उनका यह विचार होता है कि 'अब हम मनुष्य भव पाकर तत्पश्चरण करने की सुविधा प्राप्त कर लेंगे जिससे कर्मजाल छिन्न भिन्न करके मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे।' ऐसा विचार करके वे प्रसन्न होते हैं, उनको दिव्य सुखों को इटने का दुख नहीं होता क्योंकि वे इन्द्रिय-जन्य सुख और दुख को समान दृष्टि में देखते हैं । वे विचारते हैं कि हमने अब तक भेद अभेद रत्नत्रय न प्राप्त करने के कारण संसार में अनन्त भव धारण करके भ्रमण किया, अब हमको मनुष्य भव में इस भव-भ्रमण से छूटकर अनन्त अपार प्रयाबाध अविछिन्न सुख प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त होगा, ऐसा विचार करके वे त्रिलोकवर्ती ५५६६७४८६ प्रक्रत्रिम चैत्यालयों तथा भवन वासी व्यन्तर ज्योतिषियों के भवनवर्ती एवं विमानवर्ती तथा अन्य कृत्रिम जिन Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनों में जाकर जिनेन्द्र देव का पूजन, स्तुति करते हैं, तोर्थ करों के कल्यापकों में भाग लेते हैं, केवलियों की, मुनियों की वन्दना करते हुये पुण्य-उपार्जन करते हैं । अन्त में वे दीपक बुझ जाने के समान अदृश्य होकर अपना दिव्य शरीर छोड़ते हैं जो चक्रवर्ती तीर्थकर होने वाले होते हैं उनके वस्त्र प्राभरए फीके नहीं होते, न उनके गले की माला मुरझाली है। जो देव चक्रवर्ती, नारायणा, बलभद्र होने वाले होते हैं उनकी माला भी नहीं मुरझाती, शेप सभी देवों के गले की माला ६ मास पहले मुरझा जाती है ।)। नव अनुदिश या निजयत, जगात भाजित इस स्थानों के देव मर कर अधिक से अधिक दो गनुष्य भब पाकर मुक्त होते हैं और सर्वार्थ सिद्धि के देव केवल एक महद्धिक मनुष्य भय पाकर ही मुक्त होते हैं। __सर्वार्थ सिद्धि से १२ योजन ऊपर 'ईपत् प्राग्मार' नामक आठवीं भूमि है जो कि उत्तर से दक्षिण ७ राजू मोटी और पूर्व से पश्चिम एक राजू चौड़ी है उसी पर १४५ लाख योजन विस्तार वालो ८ योजन मोटी शुद्धस्फटिक मरिग की प्राधे गोले के प्राकार सिद्धशिला है जिसे सिताबनी (स्वच्छ सफेद पृथ्वी) भी कहते हैं। उस सिद्धिशिला से ऊपर ४२५ धनुष, कम एक कोश मोटा घनोदधि वातवलय, उतना ही मोटा बनवातवलय तथा उसी के समान तनुवातवलय है। उस तनुवालवलय के ६००००० भाग करने पर एक भाग प्रमाण में जघन्य अवगाहना वाले सिद्ध हैं । तनुवातवलय के एक हजार पांच सौ १५०० भाग करने पर एक भाग में उत्कृष्ट प्रवगाहना वाले सिद्धों का निवास है। सिद्धों की जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ प्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष प्रमाण है। सिखों की मध्यम प्रवगाहना के अनेक मध्यलोकवी सम्यग्दृष्टि मनुष्य कर्मकल क समूल नष्ट करके उस सिद्धि स्थान में विराजमान होते हैं । सिद्ध स्व-अनन्त अव्याबाध, अक्षय, असीम, अभव्य' जोबों को प्राप्य, अनुपम सुख का सदा अनुभव करते हैं । वरमध्यापर जिनम-। विरमर्वार्द्ध क्रम विमानद नंदी-॥ श्वरद भवशाल नेदन। दर जिनहर्म्यमंतु उस्कृष्टंगळ ॥५३॥ कुळ रुचक नगोत्तर कु.। उल वक्षाराचलं गळिष्वाकारं ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) गळ सौमनस क्नंगळ । निळयं मध्यदवु पांडकदपरंगळ ॥२७॥ प्रायाम नूरगलम् । मायामदळ द्वयाई मुत्कृष्ट गृहो॥ च्छायं षोडशक, द्वारांतिकता, ने दुयोजनं विष्कभं ॥५८॥ रजत्तगिरि जम्बुशाल्मलि। कुजगत भवताळि योंदु नीळं क्रोशं ॥ त्रिजगन्नुत शेष गृह। ब्रज यतियंतंतनक्क तक्कतक्कु ॥५६॥ श्रीमन्मेरौ कुलाद्रो रजतगिरिवरे शाल्यलो जम्बु वृक्षे । वक्षारे चेत्यवृक्ष रतिकर रुचके कुण्डले भानुषांके ॥ इष्वाकारेञ्जनाद्रौ दधिमुखशिखरे व्यन्तरे स्वर्गलोके । ज्योतिर्लोकेभिवन्दे भुवन माविले यानि वैल्यायो । वेवासुरेन्द्र नरनाग सचितेभ्यः। पासवरणाशकर भव्य मनोहरेभ्यः ॥ घण्टा ध्वजादि परिवार विभूषितेभ्यो । नित्यं नमो जगति सर्व जिनालयेभ्यो । कोदिलक्ख सहस्सं अठ्ठय छप्पन्न सत्तानउ दिया । चउसद मेवा सीदिगरएनग एचेदिए बंदे ॥३॥ पडदाला नक्य सया सत्तीवीस सहस्स लक्ख तेवण्णा । कोउिपरणवीसनवय सयाजिणपद्रिमाअक्कहिमा किटिबंदामि॥३२॥ तिडवरण जिणंद गेलो अकिहिमा किद्रभेति कालमके। यस कोमर भेदमामर नर रवेचन वंदिये वंदे ॥३३॥ इति माधनन्द्याचार्य विरचित शास्त्रसारसमुच्चये करणानुयोगवर्णनो द्वितीयपरिच्छेदः । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग सुरनरकिन्नरनुतनं, परम श्री वीरनाथनं नेनेदोवि ॥ वरभव्यजनके पेळ यें, निरुपम चरणानुयोगमं कन्नदं ॥२॥ अर्थात- सुर नर और किन्नर लोग जिनको नमस्कार करते हैं ऐसे परम परमेश्वर श्री वीरनाथ भगवान को स्मरण करके में भव्य जीवों के कल्याण के लिये हिन्दी भाषा में चरणानुयोग का व्याख्यान करता हूँ । . सूत्रावतार का विशेष कारण ज्ञान और चारित्र है । उस ज्ञान और चारित्र का मूलभूत सम्यक्त्व है, जैसे कि महल के लिये नींव । सम्यक्त्व मोक्ष पुर के प्रति गमन करने वाले को पाथेय के समान है। मुक्ति लक्ष्मी के विलास के जिसे गणिमर्पण के समान है। संसार समुद्र में गिरते हुए प्राणियों को बचाये रखने के लिये हस्तावलम्बन के समान है। ग्यारह प्रतिमामय श्रावक धर्म रूप प्रासाद के लिए अधिष्ठान के समान है । परम कुशलता देने वाले उत्तम क्षमादि दश धर्म रूप कल्पपादप के लिये जड़ के समान है । परमोत्तम लक्ष्मी के साथ समागम करने के लिये मंगल रत्नमय महल है । विषम जो दर्शन मोह रूप उग्रग्रह, उसके उच्चाटन के लिए परमोत्तम यन्त्र है। दीर्घं संसार रूप जो काला सांप हैं उसके मुह से उत्पन्न हुए भयंकर विष को मिटाने के लिये मारणतन्त्र है । मोक्ष लक्ष्मी को वश में करने के लिए परमोत्तम वशीकरण मन्त्र है । व्यन्तर विष और रोगादि-जन्य क्षुद्रोपद्रवों को नाश करने के लिए रक्षा मरिण के समान है। आसन्न भव्य के लिये मनोवांछित फल प्रदान करने वाले चिन्तामरिप के समान है। भव्य जीव रूप लोहे को स्पर्श मात्र से जातरूप (सुवर्णमय या दिगम्बर मुनि मय) बना देने वाली पारस रत्न के समान है । सम्पूर्ण पाप रूप वन को जला डालने के लिए दावानल अग्नि के समान है । ज्ञान और वैराग्य रूप बगीचे के लिये बसंत ऋतु के समान है। विशिष्ट पुण्य कर्म का अनुष्ठान करने के लिये पवित्र तीर्थ है। जन्म जरा और मरण को मिटाने के लिए सिद्ध रसायनका पिटारा है, आठ ग्रंगों की पुष्टि के लिए उत्तम पुष्प मंजरी के समान हैं । ऐसे उस सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए पाँच लब्धियों की श्रावश्यकता है, उन पंच लब्धियों का वर्णन के लिए सूत्र ---- पंच लब्धयः ॥ १॥ अर्थ — सम्यक्त्व उदय होने के लिए ५ लब्धियां होती हैं । श्रम भरणानुयोगान्तर्गत पाँच लब्धियों का वर्णन किया जाता है । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ क्षयोपशम लब्धि, २ विशुद्धि लब्धि, ३ देशना लब्धि, ४ प्रायोग्य लब्धि और ५ वीं करण लब्धि । इस प्रकार जब पांच लब्धियां प्राप्त हो जाती हैं तब इनके सहयोग से संसारी जीवों को प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होतो है। उसका विवरण यह है:--जब वाभी अशुभ अगों की अनुभाग शक्ति को प्रति समय अनन्त गुण हीन फर हुये उर्द.२५] होने योग न लिया जाता है उस अवस्था का नाम 'क्षयोपशम नब्धि है। सातायादि प्रशस्त प्रकृत्तियों के बंध योग्य परिणाम का होना विशुद्धि लब्धि है। ___जीवादिक वस्तु के वास्तविक स्वरूप का उपदेश करने वाले प्राचार्यों का निमित्त पाबार उनका उपदेश सावधानी से श्व वरण करना देशना लब्धि है। अनादि काल से उपाजित किये हुये ज्ञानावरणादि सात कमों की स्थिति को घटाकर अन्सः कोड़ा कोडी सागरोपग प्रमाण कर लेने की योग्यता प्रा जाना तथा लता, दारु, अस्थि और शैल रूप अनुभाग वाले चार घातिया कर्मो की अनुभाग शक्ति को घटाकर केवल लता और दारु के रूप में ले पाने की शक्ति हो जाना 'प्रायोग्य शाब्धि है । ये चारों लब्धियाँ भव्य तथा अभव्य दोनों प्रकार के जीवों को समान रूप से प्राप्त होती हैं ।। परन्तु अब पाँचत्रीं करण लब्धि, जो कि केवल प्रासलभव्य जीवों को ही प्राप्त होती है, उसका स्वरूप कहते हैं। भेदाभेद रत्न-त्रयात्मक मोक्षमार्ग को तथा सम्पूर्ण कर्मों के क्षय स्वरूप मोक्ष को और अतीन्द्रिय परम ज्ञानानन्दमय मोक्ष स्थल को अनेक नय निक्षेप प्रमारणों के द्वारा भली भांति जान कर दर्शन मोहनीय के उपशम करने योग्य परिणामों का होना 'करण लब्धि' है । अदु दर्शन रत्न प्रद। मदु सुचरित जन्म निलय मंतदु भव्य ॥ त्वद कण्देरवि विवेक। कवु फलमदु बुधजन प्रणतं ख्यातं ॥१॥ करणं त्रिविधम् ॥२॥ अर्थ-१ अधः प्रवृत्ति करण, २ अपूर्व करण तथा ३ अनिवृत्ति करण इस प्रकार करण के ३ भेद होते हैं। प्रत्येक करण का काल अन्त मुहर्त होता है । फिर भी एक से दूसरे का काल संख्यात गुरणा हीन होता है। उसमें अधः प्रवृत्तिकरण काल में यह जीव प्रति रामय उत्तरोतर अनन्त गुगणी विशुद्धि को Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त होता हुआ चला जाता है । जिसमें प्रति समय संख्यात लोक मात्र परिणामों के चरम समय तक समान वृद्धि से बढ़ता चला जाता है । इस अघः । प्रवृत्ति करण का कार्य स्थिति बंधापसरण है। अब इसके आगे अपुर्ण-करण का प्रारम्भ होता है जिसमें असंख्यात लोक प्रमाण विशुद्धि क्रम से प्रति समय समान संख्या के द्वारा बढ़ती जाती है। इसका काम स्थिति बंधापसरण, • स्थिति कांडक घास माग, कांसक पापा मंकमा गौर गुरण श्रेणी निर्जरा होना है। अधः प्रवृत्ति करण में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम भी समान हो सकते हैं तथा एक समयवर्ती जीवों के परिणाम विसदृश भी हो सकते हैं । परन्तु अपूर्व करण में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम भिन्न जाति के ही होते हैं। फिर भी एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सभी जीवों के समान न होकर विभिन्न जाति के ही होते हैं। अब इसके आगे आने वाले अनिवृत्ति करण में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम भिन्न जाति के ही होते हैं। और एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सभी के एक से ही होते हैं। इस प्रकार सुदृत परिणामों के द्वारा वह भव्य जीव पूर्व की अपेक्षा और भी अधिक स्थिति बंधापसरण करने वाला होता है। इस ! अनिवृत्ति करण के अन्त समत्र में चतु गति में उत्पन्न होने वाला भव्य जीव ही गर्भज पंचेन्द्रिय सैनी पर्याप्तक अवस्था को प्राप्त होता हुआ शुभ लेश्या सहित होकार ज्ञानोपयोग में परिणत होता हुआ बह जीव इस अनिवृति करण नामक बच्चदंड के घात से संसार वृद्धि के कारण रूप मिथ्यात्व रूपी दुर्ग को नष्टभ्रष्ट कर देता है। और सम्यग्ज्ञान लक्ष्मी के अलंकार स्वरूप सम्यग्दर्शन को उस शुभ मुहूर्त में प्राप्त हो जाता है। उदयिसि दुदु वर भव्यन । हृदय दोळमिरततरणि सकला भिमत ॥ प्रवचिन्तामरिणतविलि। ल्लिद संवेगादि गुरषदकरिण सम्यक्त्वं ॥२॥ प्रतु परमात्मपदमन । नंतज्ञानादि गुरणगगाजितमं । भ्रांतिसदे लब्धियशदि । दंतिळि बडिगडिगे रागिसुत्तिांगळ् ॥३॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) अर्थ-सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। १. प्राप्त, आगम और पदार्थो के स्वरूप को जानना और उन पर समुचित रूप से ठीक ठीक श्रद्धा करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। २-निज शुद्धात्मा ही साक्षात् मोक्ष का कारण है, इस प्रकार जानकर दृढ़ विश्वास करना निश्चय सम्यग्दर्शन है । अथवा नय निक्षेपादि के द्वारा पदार्थ के स्वरूप को अपने आप जानना निसर्गज सम्यग्दर्शन है। और पराश्रय से पदार्थों के स्वरूप को जानकर विश्वास करना अधिगमज सम्यग्दर्शन है । तथा जहाँ तक सम्यग्दर्शन में स्व और पर के विकला रूप आश्रय हो वह सराग सम्यग्दर्शन होता है और वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन मात्र का अवलंबन जहां पर होता है वह वीतराग सम्यग्दर्शन है। त्रिविधम् ॥४॥ अर्थ-प्रीपशमिक, वेदक और क्षायिक के भेद से सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का भी होता है । वह इस प्रकार है: अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृति मिथ्याल्ब इन सात प्रकृतियों के उपशम होने रो औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। अनन्त्रानुबन्धी. कपाय, मिथ्यात्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व के उपशम होने से और सम्यक् प्रकृति के उदय होने से जो सम्यक्त्व होता है उसे वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। सातों प्रकृतियों के परिपुर्णतया नाश होने से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। वेदक सम्यग्दृष्टि जब उपशम श्रेणी के सन्मुख होता है तब द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होता है । जिस वेदक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व होता है वह कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्व कहलाता है । दशविधं वा ॥५॥ अर्थ-अथवा सम्यग्दर्शन १० प्रकार का है:...-१ आज्ञा सम्यक्त्व, २ मार्ग सम्यक्त्व, ३ उपदेश सम्यक्त्व, ४ सुत्र सम्यक्त्व, ५ बीज सम्यक्त्व, ६ संक्षेप सम्यक्त्व, ७ विस्तार सम्यक्त्व, ८ अर्थ सम्यक्त्व, ह अवगाढ सम्यक्त्व, १० परमावगाढ़ सम्यक्त्व, जिनेन्द्र भगवान की प्राज्ञा का श्रद्धान करने से जो सम्यग्दर्शन होता है वह प्राज्ञा सम्यक्त्व है। ।।१।। जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रदर्शित मुक्ति मार्ग ही यथार्थ है ऐसे अचल श्रद्धान से जो सम्यक्त्व होता है वह मार्ग सम्यक्त्व है 11२॥ निमन्ध मुनि के उपदेश को सुनकर जो प्रात्म-रुचि होकर सम्यदर्शन होता है वह Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) उपदेश सम्यक्त्व है ।।३॥ सिद्धान्त सूत्र सुनने के परवार को साला होता है वह मूभ सम्यक्त्व है ॥४॥ बीज पद सुनकर जो सम्यक्त्व होता है वह बीज सम्यमत्व है ।।।। संक्षेप से तात्विक विवेचन सुन कर जो सम्यग्दर्शन होता है वह संक्षेप सम्यक्त्व है ॥६॥ विस्तार के साथ तत्व विवेचन सुनने के बाद जो सम्यक्त्व होता है वह विस्तार सम्यक्त्व है ॥७॥ आगम का अर्थ सुन कर जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह अर्थ सम्यवत्व है ।।८॥ द्वादशांगवेत्ता श्र तकेवली के जो सम्यक्त्व होता है उसे अवगाड़ सम्यक्त्व कहते हैं ।।६।। केवल ज्ञानी का सम्यरत्व परमावगाट सम्यक्त्व है ।।१०।। इस प्रकार जिन्होंने सम्यक्त्व प्राप्त किया उन्होंने जिनेन्द्र भगवान के मार्ग का अनुगमन किया और सावधर्म, विनय-सम्पन्नता को स्वीकार किया । मृदुशठ वचनद बकवे । षद मरेयोळु सवियमरेय विषदु प्रतेयं ददिनिष्पवंगागदु स । त्याधिष्टितं जिनेश्वर माग।७। इदु योग्यमयोग्य । मिदेलदोवियवलंघनिमिरेगतिहानिगम कदिनडेव कानरंगा । गदु सकलत्याग साधकं जैनमतं ।। इवु सप्तप्रकृतिळि । वियुगपशदि क्षयोपशादि क्षयदि । परिणल्लद दरिणविल्लद । भवसमितिगेपवरणं माइत्तमुदयिपुदुसम्यक्त्वं इस प्रकार मोक्ष मार्ग के प्रतिकूल जैसे:--- वयसि निदानमं सुकृतमिल्लद वर्भरदितदप्रभू मियनेगळुत्तमिर्दु निधिगापबेडेयोळ मरळागि पोपमा केयिन पवर्गमार्गदोवि फलर पिरिदोदितत्वनि । र्णय जनकोक्तियल्लि जडरप्परिदे नशक्ति चित्रभो ।। जिनदीक्षेगेनगुमह । भिरागिपुट्ट गुमनल भवदो जीव मनदोळु सम्यग्दर्शन । मनोमयु पोर्द दिनमरित मोळधे ।१०। ज्ञात्वातलामलक मद्भुवि सर्व विद्या । कृत्वा तपोसि बहुकोटि युगांतरारिण। दृर्शनामृतरसायन पान बाह्य नात्यंति किमनुभवंत हि मोक्ष लक्ष्मी ।११॥ अदु दूरभव्यनोळकू । डदबेन्तुमभव्य जीवनौळपुट्टिविसदं । .. तदु दुर्लभमद् भवभय । विदुर मदासन्न भव्यनोळ समनिसुगु।१२। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) श्राराध्यननागममं । चारु पदार्थममल योगीश्वररं सारासार विचारदि । नारदरिद वोलिनंबुबुदु सम्यक्त्व ं ॥१३॥ परमगुरु बचन दीप । स्फुरितदबलदियुक्ति लोचनद नो पर मन बोळाद वस्तु । स्वरूपवादात्म निश्चयं सम्यक्त्वं ॥ १४ ॥ चलियसमेतला | कुल भूदर मग्नि शैत्यमं कैकोळ्गु तळगु चद्रं बिसुपं । तकरदु जिनवचन में बबगे सम्यक्त्वं ॥ १५ ॥ स्थिरतेयोळमरुविनोळमो । बरनोवमिंगुन पुरुष रुळ्ळु दरिंदे सम्यक्त्वं । १६ । ल्ल रुम मिगुवनुमोळना । परमात्मने देव में | सकल जगह ि सकल विमोह सकला वररणक्षर्याद । सकल ज्ञानते थे सगु में बब सम्यक्त्वं ॥१७॥ येनितोंड मोह पाशम दनितु विडे मोक्ष मदरिनळिपेंबुद नेनिनितुमनोल्लदुमुक्तिगे। जिनमार्गमे मार्ग में बबगे सम्यक्त्व | १८ | इदु पापात्र कारण । मिदुपुण्यात्रवनिमित्त मितिदु मोक्ष I प्रद मेंदु जीव परिरणा - मद तेरनं पिटदि नरिव भगे सम्यवत्थं । १६ मनद पदुळिकेगे कंटक - । मेनिष बहिर्विषय विषमदे उदोचित्संजनित स्वास्थ्य सुधारस । मनुपम में दरिदु नेच्चुवुदु सम्यक्त्वं ॥ २० ॥ मान धनमेति सम्य- । ज्ञानिगे लक्कुदु निजोपशम जनित स्वा धीन सुखं पर विषया । धीन सुखं नष्ट मेंब बगे सम्यक्त्वं ॥ २१ ॥ sa मोक्ष मार्ग -मिदे मो । क्षद लक्षरग मिदुवे मोक्ष फल में बुदनुळ् ळ् दनुळ्ळमाळ्केति । प्पदे मनदोछु तिळिदुनंबुवटु सम्यक्त्वं ॥ २२ ॥ वरबोध चरित्रंगळ- । नेरेवं पारवेयुमेक चत्वारिंशद् । दुरितंगळ बंधमनप । हरिपुद चित्यप्रभाव निधि सम्यक्त्वं ॥ २३ ॥ परम जिनेश्वररं सि । हरताचार्यादि दिव्यमुनिगळ नरिदा दर दिनडिगाडि तत्व- । स्वरूपमं नेनेवुर्देब बगे सम्यक्त्वं ॥ २४ ॥ जिन बिबर कृतियं लो । चनव कारते तिळिदु सिद्धाकृतियं नेनेय लोडं प्रव्यक्तमि । देने भर्नादि काण्य काण्केयषु सम्यक्त्वं । २५। अनिमिष लोचन सिंहा। सनकंप निमित्त तीर्थंकरं पुण्य निबंबनमेनिसुव षोडशभा । वनेयो तानग्रगण्यमिदु सम्यक्त्वं ॥ २६ ॥ I Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) जितमूढत्रयमपसा- । रित षउनायन नमपगताष्ट मदंगळं वजित शंकाद्यष्ट मल - । प्रतीत नव सप्त तत्व मिदुसम्यक्त्वं ।२७। परनिदितखिळ हेया- । चरणदि संसार दुःखमच संतति संस्मरण मुपादेयदिनिदु-। परमार्थ तप्पदेब बगे सम्यक्त्वं ॥२८॥ कर कंजळरूपिदं । परिणमिसुथ तेरदि निनिमित्तं कालं दोरे कोळे तन्निदंतां । परमात्म नप्पेब बगे सम्यक्त्वं ।२६। नडेवेडेयोळ् नुडिवेडेयोळ् । केडेवेडेथोळ दुःख मेयदुवेडे योळ् जवनो यूवे.योळ तत्व स्मरणम- । नेडेवरियदेनेच्चिनोळपुददुसम्यक्त्वं ॥३०॥ प्रकाशन मोदसाह त । सगुन । बाह्य तप सं. जनिता यासदोळेने. । दनवरतं निजव नेनेबुददु सम्यक्त्वं ॥३१॥ निरुतं बोध चरित्र दो-। रडु तानेनिसदेक चत्वारिंशद्दुरिताप हनचित्य- । स्वरूप नविकल्प में बबगे सम्यवत्वं ॥३२॥ अर्थ-मायाचार, छलकपट, बचनवता (बचन में टेढ़ापन) आदि रखकर जो मनुष्य जैन धर्म की आराधना करता है उसको वास्तव में जैन धर्म प्राप्त नहीं होता ॥६॥ ___'यह योग्य है या अयोग्य' इस प्रकार विशेष विचार न करके केवल इन्द्रियों के अधीन विषय कषायों के लिए प्रयत्नशील मनुष्य को भी जैनधर्म की प्राप्ति नहीं होती ॥७॥ दर्शन मोहनीय की ३ प्रकृतियों (मिथ्यात्व, सम्यकमिथ्यात्व, सम्यक प्रकृति) तथा अनन्तानुबन्धी कषाय के क्रोध, मान, माया, लोभ, इन सात कर्म प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपक्षम होने पर ही सम्यक्त्व प्रगट होता है, इसके सिवाय सम्यक्त्व उदय होने का अन्य कोई उपाय नहीं है 111 पुण्यहीन मनुष्य द्रव्य पाने की इच्छा से एक पर्वत पर चढ़ता है, और उस पर्वत के मार्ग में इधर उधर निधि को ढूंढता है, दढले हूंढते जब उसको यह निधि मिलने का समय आता है तब वह पागल हो जाता है । पागल हो जाने पर उसको उस पास पड़ी हुई द्रव्य का ज्ञान भी नहीं रहता । उसी प्रकार मोक्ष के इच्छुक मनुष्य अनेक शास्त्र वेद पुराण आदि पढ़कर भी प्रास्मतत्व के यथार्थ निर्णय की वृद्धि न होने के कारण जैसे के तैसे अज्ञानी ही बने रहते हैं , पाप कर्म की कितनी शक्ति है ! ॥६|| __दिगम्बर मुनि होकर कठोर तपस्या करके मनुष्य अहमिन्द्र' पद भी Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) पा लेता है परन्तु सम्यक्त्व न होने से उसका संसार भ्रमण नहीं छूट पाता ॥ १० ॥ हाथ पर रखे हुए आंवले के समान समस्त विद्यात्रों और कलानों को जान्दकर करोड़ों युग तक तपस्या करके भी सम्यग्दर्शन रूपी अमृत रस का आस्वादन न करने वाले मनुष्यों को मोक्ष प्राप्त नहीं होती ॥ ११ ॥ यह सम्यग्दर्शन भव्य की तो बात ही क्या दूर भव्य को भी दुर्लभ है, यह तो निकट भव्य प्राणी को ही प्राप्त होता है ||१२|| जैसे कितना भी प्रकाश क्यों न हो अन्धे मनुष्य को कुछ दिखाई नहीं देता, इसी प्रकार भव्य को चाहे जितना उपदेश दिया जाये, ब्रताचरण कराया ara किन्तु उसे सम्यक्त्व नहीं होता | नेत्र रोग वाले मनुष्य को नेत्र ठीक हो जाने पर दिखाई देने लगता है उसी तरह दूर भव्य को दीर्घ समय पीछे मिथ्यात्व हटने से सम्यक्त्व प्राप्त होता है । किन्तु ठीक नेत्र वाले मनुष्य को प्रकाश होने पर तत्काल दिखाई देने लगता है । उसी तरह निकट भव्य को सम्यक्त्व की प्राप्ति शीघ्र हो जाती है । व्यवहार सम्यग्दर्शन— परम आराध्य श्री वीतराग भगवान, जिनेन्द्र देव का उपदिष्ट ग्रागम तथा पदार्थ और जिनेन्द्र देव के चरण चिन्हों पर चलने वाले परम निर्मल निग्रन्थ योगी का श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन है । अर्हन्त भगवान, जिनवाणी, निन्थ गुरु का तथा जिनवाणी में प्रतिपादित पदार्थों का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है ॥ १३ ॥ निर्ग्रन्थ गुरु के वचन रूपी दीपक द्वारा प्रकाशित और अपने सुयुक्ति रूपी नेत्रों से देखे हुए श्रात्म-स्वरूप का निश्चय सम्यग्दर्शन है || १४ | अचल सुमेरु भी कदाचित् चलायमान हो जावे, अग्नि भी कदाचित् शीत ( ठंडी ) बन जावे तथा चन्द्र में भी कदाचित् उष्णता प्रगट होने लगे, तो हो परन्तु जिनेन्द्र भगवान के वचन कदापि अन्यथा नहीं हो सकते, ऐसी प्रचल श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है ॥ १५ ॥ संसार में कोई भी देव या मनुष्य उत्कृष्ट ( सर्वोच्च) नहीं है, एक दूसरे से बढ़कर पाये जाते हैं, अतः उनका बड़प्पन अस्थिर है। वीतराग अन्त भगवान ही सबसे उत्कृष्ट है अतः वे ही पूज्य देव हैं, ऐसी अचल श्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन है ।। १६ ।। मोहनीय कर्म के समूल क्षय से अर्हन्त भगवान पूर्ण शुद्ध वीतराग हैं Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) तथा ज्ञानावरण का पूर्ण क्षय हो जाने से वे समस्त लोक अलोक, भूत भविष्यत् वर्तमान काल के ज्ञाता हैं, ऐसी श्रद्धा करना सम्यक्त्व है ।।१७।। समस्त संसार मोह-जाल में फंसा हुआ है उस मोह जाल को छिल. भिन्न करके मोक्ष की ओर आकर्षित करने वाला जिनमार्ग है, अन्य कोई मार्ग नहीं है, ऐसी निश्चल श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है ।।१८।। पापास्रब के कारण, पुण्य कर्म मानव के कारण तथा मुक्त होने के कारण रूप जीव के परिणामों का ज्ञान होना, और उसका श्रद्धान करना, सम्यग्दर्शन है ।१६। मन को व्याकुल करने वाले बाहरी विषय हैं, अतः वे त्याज्य हैं और चैतन्य-जनित स्वात्म-स्थिरता-रूप सुधारस अनुपम पेय है, ऐसा विश्वास करना सम्यक्त्व है ॥२०॥ सम्यग्दृष्टि जीव स्वाभिमानी होता है, अतः उसको उपशमनित अपना स्वाधीनसुख ही रुचिकर है, इन्द्रिय विषयादि-जन्य पराधीन सुख उसे इष्ट नहीं है । ऐसी धारणा ही सम्यक्त्व है ।।२१।। __ "यही (जैनागम-प्रदर्शित) मोक्ष का लक्षण है, यही मोक्ष का फल है और यही मोक्ष को देने वाला है" इस प्रकार संशय-रहित श्रद्धान सम्यक्त्व है ।।२२।। दुष्कर्मों के बन्धन नष्ट करने वाला तथा ज्ञान और चारित्र को सम्यक बनाने वाला, ऐसा अचिन्त्य प्रभावशाली गुग सम्यक्त्व है ।।२३३३ परमजिनेश्वर अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय सर्वसाधु को मनमें अच्छी तरह समझकर, बार बार उनके स्वरूप का अपने मन में रुचिपूर्वक भावना करना सम्यक्त्व है ॥२४॥ जिनेन्द्र देव की जैसी प्राकृति अांखों से देखी है, उसको मन में रखकर फिर सिद्ध परमेष्ठी को साक्षात् देख लेने की हृदय में भावना करता। सम्यक्त्व है ॥२५॥ देवों के सिंहासनों को कम्पायमान कर देने वाले तीर्थकर प्रकृति के उपार्जन की कारणभूत १६ भवनाएँ हैं; उनमें अग्रसर जो भावना है वह सम्यक्त्व है ।।२६॥ . तीन मूढ़ता, छः अनायनन, पाठ मद, शंका आदि पाठ दोष रहित जो नौ पदार्थ तथा सात तत्वों का श्रद्धान करना है सो सम्यक्त्व है ॥२७॥ लोक-निन्दित समस्त पापाचरण हेय (त्याज्य) है और स्मरण करने Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) योग्य भी नहीं क्योंकि पापाचरण और पाप-चिन्तन से संसार-दुःख तथा पापसंतान बढ़ती है। अपना आत्म-तत्व ही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है। ऐसी श्रद्धा सम्यक्त्व है ॥२॥ पीने के लिये अंजलि में लिये हुए जल में जिस प्रकार अचानक मुख • दीख जाता है, इसी प्रकार दर्शन मोहनीय के उपशम से अचानक अदृष्ट प्रात्मस्वरूप स्पष्ट दीखकर उसकी अनुभूति होगा सम्यक्त्व है ।।२६।। चलते गिने, बोलते. गिरते समान, 5 मापनि समय, मृत्यु पाने के अवसर पर भी तत्व-चिन्तन में लगे रहना सम्यक्त्व है ।।३०॥ ___ आत्म-अनुभूति के बिना अनशन आदि तप व्यर्थ हैं, सम्यक्त्व के साथ तप लाभकारक है, उनसे कर्म-निर्जरा होती है। ऐसी प्रतीति के पश्चात् शुद्ध प्रात्मा की अनुभूति होना सम्यक्त्व है ।।३१।। ज्ञान चारित्र से भिन्न पापाचार तथा पापचिन्तन को त्याग कर आत्मस्वरूप को चिन्तवन करना सम्यक्त्व है ॥३२।। श्रावों भव्यानंदक। भावं भुवनैक वन्दितं निश्चयदि । दावननंतचतुष्टय । दाविभुतां दातृवेबबगे सम्यक्त्व।३३। यतिव॑ वखिळ वस्तुग । ळंतनितु मिर्द परियोळरिवनितरोळं । भ्रांतं विटु निजात्मन । नंतर्मुख नागिनेनेवुदनु सम्यक्त्व ३४। परमेष्ठिस्वामिगळं । वरभेदमनरिदुषि किल्बिषम सं । हरिसलुनेरेवनिजात्म । स्वरूप बिडदेनेनेधुददु सम्यक्त्व' ।३५॥ इंता श्रद्धानं सं । भ्रातियोळे करपलब्धि कंकोळ मु। मंतरणमें वाग्जालदि । नंतंतें दूळ वडकुमे सम्यक्त्व १३६॥ निजतत्वद रुचि रचितं । निजतत्वद रुचि समस्त वोधाद्वैतं । निजतत्वद रुचि जिननुति । निजतत्ववरचिये संयमपेरतुटे ।३७। निवतत्व सदैव । निजतत्वं पन्नित्तेरदतपमदेनिक्कु । निजतत्व चारित्र । निजतत्त्वशील मैंबबगे सम्यक्त्व' ।३८। निजतत्व नयनिकर। निजतत्वं तां प्रमाणभक्कुमवश्यं । निजतत्वं निक्षेपं । निजतत्व तत्वमेंब बगे सम्यक्त्व ३६। milim Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) निजतत्वं सुख जनितं । निजतत्व ब्रह्मचरियमपगत दंडं । विजतत्व सिद्धत्व । निजतत्वक्षांतियेब बगे सम्यक्त्व ।४०। निजतत्व गुणनिकरं । निजतत्वं समितिगुप्ति मार्दव शौच । निजतत्वं किंचन्यं । निजतत्वं तत्वमेंब बगे सम्यक्त्वं ।४१॥ मिजास्वं प्रमेयत्वं । निजत्व संयम महायतमेनिकु । निजतत्वं जिनपतिनुतिनिजतत्वं कार्य मेंबबगे सम्यक्त्वं ॥४२॥ निजतत्वं दुरित हरं । निजतत्वमेतप्पदप्पुदायपिटकं । निजतत्वमुपादेयं । निजतत्वं तत्वमेंब बगे सम्यक्त्वं ।।३। इदु मुख्यं ग्राहलि । तिदु गौणं त्याज्यमेंधु बिडुवं पालं । पदुळं पिडिदविचारदि । तुदिगय्यलिकंबलने पिडिद मरुळं पोल्कु।४४ दोषघ्नयात्प्तं स । भाषात्मक मप्पुदागमें तत्कथिता। शेषाळिपदार्थ जिन । भाषित में दरिदु नंबुवदु सम्यक्त्वं ।४५॥ एंदं मुन्दनेनेन यदत । न दमेन विकल्प नप्पन चितिसुधा । नंदं परिणाम घटियिसि । दंदातशुद्ध दर्शनाव्हयनेनिकु।४६। निजयं तप्पदे नोडुव । निजवं पल्लटिसुवरिवतद्वय सहित। निजदोळ् चारिनिप परिणति । वृजिनघ्न शुद्धदर्शनंतानेनिकु.४७ पिरिटु मातिनोळेनु बाह्य जनित व्यापार में बिटुस । दगुरु बिन्नागममेंबरन्न सोरि मिथ्यातमोबंध सं । हरितातमुखनागि निश्चलमनं स्वाधीन सौख्यामृता । करमग्न घर शुद्ध दर्शननवं संसार पारंगतं ॥४८॥ किडेसम्यक्त्व मण्गोड । नोडेददं चरितमळिये हाटक कुभं । पुडियाद भंगियर ; केडिसदे दर्शन मनोबि नउवुदु भव्यं ४६। जिनपूजोत्सर्वाद जिनेंद्र महिमा सानंददि जैनशा । सन विस्तारित हर्षदि जिनपदांभोजानतोत्साहदि । जिनधर्मोद्गत सारतत्व रुचियि श्री जैन गेहावलो। कन सौख्यामृत लेपिनि चरियिपं सम्यक्त्व युक्तोत्तमं ।५०। मनमोबुदु सुप्रसिद्ध मदुतां सम्यक्त्व दोळ मिथ्येयोंळ् । अनितकत्व दोळे दियोंदुससय प्रोद्भूतदेव मा। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pim तिनभेदं सकल ज्ञागोचर मद पूक्तिम नबुवा । तनु वादं प्रतिभाप्रयुक्त हृदयं सम्यक्त्व युक्तोत्तमं १५१॥ परम गुरूपदेर्शाद नशेष पदार्थमनुळळभेदवि । स्तरतेयनावगं तिलिटु तन्नोळेतां नेलेगोंडु नच्चुमे । चिरेनिजतत्व संजनितनिश्चल निर्मल दिव्य सौख्य सा । गर दोहनिशंनेलसिनिदने दर्शन शुद्ध नुत्तमं ॥५२॥ जिनपति काळिकारहित कांचनदंते निरस्त कर्मबं । धन नेनिसिना दुरित बंधदि काळिके पविदोंदु को। चन दबोलिनी दुरित मोतेरदिदमगल्बुदु जिने धन बोरेयप्पेनेंटु तिळिदातगेदर्शन शुद्धमुत्तमं ।५३। मुन्ननिजात्मननरियदे । इन्नेवरंपरपरंगळ्नानेंदु करं। मन्निसि केटें बगेयदे । सन्नुतमप्पात्म लब्धि दुर्लभविदं ॥५४॥ मानवनागवंदु खगमु पशुकोट मागिरल ।। ज्ञानमदिल्लतप्पेडरोळकट मानसनागियु निज । शानमनोक्कु मत्त पशुयोनियोळोय्यने बीळदात्मनं । झान घनत्वदि तिळिदु नंबु दो परमोपदेशादि ।५५॥ हरियल्लं हरनल्लं । सरसिज भवनल्लनखिल सुगतनुमल्ल । परमार्थ चिज्योति । स्वरूपनेनात्म नेब बगे सम्यक्त्वं ।५६। हुट्टद योनि मेटदद नेलं नेरेकोछळ वाहार मोमयु । मुट्टद भावमोंददभवं परतिल्लेने दुर्मोहदि । सिट्टने बंदु नी तिरियदक्कट निलनि जस्वरूपम । नेट्टने नोडि कूडि पढे नित्य निरंजन मोक्षलक्ष्मियं ।५७। जिनरोळ् जिनपचन दो।ळाजिन बचरार्थ बोळ् पक्षपातं मोह। विनितेनेडेगुडदिरे निसिर । मनदेरकं गुरण निबंधनं सम्यक्त्वं ॥५॥ हेयमदति विषमविष । प्रायं जोधक्कधर्म मेंतु धर्म । श्रेयममृतोपम सुख । दायक मादेयमेंब बगे सम्यक्त्वं ॥५६॥ भोंदु गुण्तन्नोळुनि । स्संदेहं नेलसलोड मशेष गुणंगळ् । बंबिवु मंदुसगे । यबुबु बुढतर दुरितविजय जिन विश्वासं ॥६॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) fagaोडिन बेरसि कोबी । जडत्वम' पोदिदिनितनर्हत्पदम । विविर्वगिदि किडे । बेडंगनोळ कोंड मनमे दृढ सम्यक्त्वं । ६१| जिननेनगेननुसिनद । मितु तथ्यं बले नगे पथ्यं पोगि । 1 नेनें वेडपेरतनॅचि । मनद विनिश्चयमनं य दर्शन रत्नं ॥ ६२॥ तोप्पनेनेलनं पोयिदोडे । तप्पलक्कुतानु के । तप्पदु जिन भाषितमें । दप्पोङमें दरिदु नंबिनेगळ्वने भव्यं । ६३ । तप्पुवीडवचन । तप्युमावाद्धि मेरेयमेरुनगं । लप्पु गुमिवेंडेयिवं । तप्पुगुमकोंदयास्तमानक्रममं । ६४ । arge सर्वज्ञ । षीवर निजोसमांग वोळनं ता । नन्दोळि पडेगु । कुंदव सोख्य मेनिपदोंदु धाश्रित्र चित्रं । ६५ । इस प्रकार वीतराग देव, जिन वारणी, निर्ग्रन्थ गुरु, सात तत्वं नौ पदार्थ के श्रद्धान स्वरूप व्यवहार सम्यग्दर्शन कषायाश्रित भव्य जीवों के होता है । अब सम्यक्त्व के प्रतिबन्धक कारण दूर हो जाने पर जो निश्चय सम्यक्त्व होता है, उसको वाते हैं..-.. भावक कुषत्वम सं । भाविप दृग्मोहुदंदुयदिल्लमेयि । भावविशुद्धतेयक्कु । पावन सम्यक्त्वमबुवे निजरुचि गम्यं । ६६ | कांचन में तपगतदो । 'चेल्वं पडेगुमन्ते दर्शन रत्न । पंचाधिकविंशति मल । संचर्याद पिगेसहजभाव दि न सेगु ॥६७॥ जिन वचन रसामृत दो । मनदेरकं नच्चु मेच्तु नलवोन में बी fare श्रद्धानार्थम । ननुसोत्यक्के वीजम तानुसि । ६८ | सम्यक्त्वमे परमपदं । सम्यक्त्वमे सकल सुखद निलयं मतं । सम्यक्त्वमे मुक्ति पथं । सम्यक्त्यदि कूडिन गळ्द तपमदु सफलं १६६ इमिसं भव्यन केळ्या | वन सम्यषत्व वतिकुं श्रद्धानं । जिम भक्ति तत्य रुचिद । सनमात्म ज्ञनमेंब परियाय गळ् । ७०१ नीनुमिवं तिळिनाना । योनिय बुःखाग्नि तापमं नीगु श्रोढं । ज्ञानमयं शास्वतस्वा । धीन सुखाम तबकडलोळोळाडुघो डं॥ ७१ ॥ Hart at tears, त्रिलोक पूज्य श्रमन्त चतुष्टय के स्वामी, ज्ञान द्वारा सर्वव्यापक, जिनेन्द्र भगवान् ही यथार्थ में मुक्तिदाता हैं, ऐसा श्रद्धान हो सम्वस्व है ||३३|| Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त बाह्य पदार्थो को जानकर उनमें भ्रान्तिवश लीन न होना, अन्तमुख होकर प्रात्म-अनुभूति में लगना ही सम्यत्रत्व है ।।३४॥ पंच परमेष्ठी के भेद (रहस्य) को जानकर, पाप मल दूर करने के लिए निरन्तर आत्मस्वरूप का अनुभव करना सम्यक्त्व है ।।१५।। प्रात्मा ग्रादि पदार्थो का स्वरूप ऐसा है कि नहीं ? इत्यादि भ्रामक या सन्देहयुक्त वाग्जाल में न फंसना, करण-लब्धि होने के पश्चात् आत्मा का साक्षास्कार होना ही सम्यक्त्व है ।।३६॥ निज प्रात्मा की चि ही बोध चारित्र आदि की भेदभावना मिटाकर अद्वैत भाव प्रगट करती है, निजतत्व की रुचि ही जिनेश्वर की स्तुति है, निज तत्व को रुचि ही संयम है और अन्य कुछ नहीं है ।।३७|| निज तत्व (आत्म स्वरूप) ही सत् दैव (भाग्य) है, निज तत्व ही तप है, निज तत्व ही चारित्र है और निज तत्व ही शील हैं। ऐसा श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ॥३८॥ ____निज तत्व ही नय-समुदाय है, निज तत्व ही प्रमाण है, निज तत्व ही निक्षेप है, इस प्रकार आत्मा का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है |॥३६॥ __ निज आत्मा ही सिद्धत्व है, निज तत्व ही शान्ति (क्षमा) है, ऐसी भावना करना सम्यक्त्व है ।।४।। निज तत्व (आत्मा) ही गुणों का भंडार है, निज तत्व ही गुप्ति, समिति, मार्दय, शौच और आकिंचन्य है इस कारण निजतत्व ही तत्व है, ऐसी भावना करना ही सम्यक्त्व है ।।४१॥ निज तत्व ही आर्जव है, निज तत्व ही संयम और महाजत है, निज तत्व ही जिनेन्द्र देव का स्तोत्र है एवं निज तत्व ही हमारा कार्य है, ऐसा चिन्तवन करना सम्यक्त्व है ।।४२॥ निज तस्व ही पापहारी है, निज तत्व ही मुनियों का षट् आवश्यक कर्म है, निजतत्व ही उपादेय है, ऐसी भावना करना सम्यक्त्व है ॥४३॥ नीर क्षीर का विवेक न करने वाले, मुख्य गौण, ग्राह्य (ग्रहण करने पोग्य) अग्नाा (न ग्रहण करने योग्य) का विचार न करने बाले मनुष्य को सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता ।।४४॥ रागद्वेष प्रादि दोषों से रहित ही आप्त (पूज्य देव) है, प्राप्त की वारणी ही पागम है, जिनेन्द्र द्वारा कहे गये पदार्थ ही यथार्थ हैं, ऐसा श्रद्धान करना ही सम्यक्त्व है ॥४५॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनादि काल से आत्मा विकल्प रूप से भी दृष्टिगोचर नहीं हुआ, वही प्रात्मा अब निर्विकल्प रूपसे प्रतीत हो रहा है,ऐसा परिणाम ही शुद्ध दर्शन का है ॥४६॥ मौन भाव से प्रात्मा को देखना (अनुभव करना) और उसे उलट पलट कर विचारना तथा अपने ग्रात्मा में ही लीन रहना, ऐसी परिणति पापनाशक है ऐसा चिन्तवन करने वाला शुद्ध सभ्यष्टि हैं ॥४७॥ बहुत कहने से क्या प्रयोजन, बाह्य क्रियाओं को छोड़ दो, सद्गुरु के उपदेश रूपी रत्न-ज्योति से मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को हटा कर अन्तर्मुख हो जामो, निश्चल चित्त बन जाओ, स्वाधीन सुखामृत में मग्न हो जाओ। ऐसी वृत्ति रखने वाला शुद्ध सम्यग्दृष्टि है और संसार-सागर के पार पहुंचने वाला है ॥४८॥ सम्यक्त्व का नष्ट होना मिट्टी के घड़े के टूटने के समान है और चारित्र का नष्ट होना सुवर्ण घड़े के टूटने के समान है। यानी-मिट्टी का घड़ा टूट जाने पर फिर नहीं जुड़ सकता किन्तु सोने का घड़ा टूट जाने के बाद भी फिर जुड़ जाता है, इसी प्रकार सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर आत्मा का सुधार नहीं हो सकता, चारित्र नष्ट हो जाने पर फिर भी प्रात्मा सुधर जाती है ॥४६॥ जहां पर जिनेन्द्र देव का पूजन महोत्सव होता है वहां जाकर हर्ष मनाना, जिनेन्द्र भगवान की महिमा सुन कर और देखकर प्रानन्द मनाना, जैन शास्त्रों के महान विस्तार को देखकर हर्ष मनाना, जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करने में आनन्दित होना, जिनागम में सारतत्व का विवेचन देखकर प्रसन्न होना जिन-चैत्यालय को देखकर हर्षित होना, इस प्रकार की प्रवृत्ति वाला शुद्ध सम्यक्त्वी है ॥५०।1 यह मन एक है जब सम्यक्त्व का अनुभव करता है संब सम्यग्दृष्टि होता है, जब मिथ्यात्व में जाता है तब प्रात्मा मिथ्यादृष्टि होता है, परिणाम बदलने से एक ही समय में बदल जाता है। इन सब रहस्यों का ज्ञाता सर्वज्ञ है। ऐसा समझ कर मेधावी जो पूर्वोक्त रीति से श्रद्धान करता है वह उत्तम सम्यर दृष्टि है ।।५।। परमगुरू के उपदेश से जैसा है वैसा समस्त पदार्थों को अच्छी तरह जानकर अपने आपमें स्थिर होकर, "हमने अद्भुत पदार्थ पा लिया” इस प्रकार अपने आन्मा से उत्पन्न हुए निश्चल, निर्मल, दिव्य सुखसागर में निरन्तर मग्न रहने वाला शुद्ध सम्यक्त्वी और उत्तम है ॥५२।। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध सुवर्ण के समान निर्मल जिनेन्द्र भगवान हैं और मैं कालिमा-मिश्रित अशुद्ध सवर्ण के समान हैं। जब मेरी कर्म-कालिमा दूर हो जायगी तन्त्र मैं जिनेन्द्र भगवान के समान शुद्ध निर्मल बन जाऊंगा। ऐसा श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ॥५३॥ अनादि काल से मैंने निज प्रात्मा को नहीं समझा, मैं आत्मा से भिन्न पर-पदार्थ शरीर आदि को अपना तत्वे समझ कर पथ-भ्रष्ट रहा पाया। सर्वोस्कृष्ट आत्मलब्धि को मैंने आई दुलभ से प्राप्त किया है ॥५४॥ पशु, पक्षी, कीड़े मकोड़े आदि जीव जन्तुओं की पर्यायमें ज्ञान की कमी से प्रात्म-बोध होता ही नहीं, इस कारण अनेक कष्ट सहन करते हुए मैने कठिनाई रो मनुष्य शरीर पाया है, एवं स्व-प्रात्म-बोध प्राप्त करके में अपने आत्मा का भी अनुभव करने लगा, ऐसा हो जाने पर क्या मैं पशु-योनि में जा सकता हूँ ? कदापि नहीं। मेरा ज्ञानधन रूप है । श्री जिनेन्द्र देव का परमोपदेश गुरु द्वारा सुनने का यह लाभ मुझे प्राप्त हुआ है । ऐसी भावना करना श्रेष्ठ है ॥५५॥ _ मैं न तो हरि हूं, न शिव हूँ, न ब्रह्मा हूँ, न बुद्ध हूं, मैं तो चैतन्य-स्वरूप आत्मा है, इस प्रकार चिन्तवन करना सम्यक्त्व है ।५६॥ हे भब्य जीव ! तु इस संसार में अनादि समय से भटक रहा है इस लोकाकाश का कोई भी ऐसा प्रदेश शेष नहीं रहा जहां तू उत्पन्न नहीं हुआ, कोई ऐसा पदार्थ नहीं बचा जिस को तूने भक्षण नहीं किया, तू जगत के समस्त प्रदेशों में घूम आया, कम-बन्धन के समस्त भाव भी तूने प्राप्त किये, संसार की समस्त पर्याय तू प्राप्त कर चुका है । इतना सब कुछ होकर भी दुर्मोह से तू फिर उन्हीं पदार्थों की भिक्षा मांगता है यह तुझे शोभा नहीं देता, तू अपने स्वरूप को प्रत्यक्ष अवलोकन कर, यही श्रेष्ठ है और अन्त में नित्य निरअन मोक्ष-वैभव को इसी से प्राप्त करेगा ॥७॥ जिनेन्द्र भगवान का, जिन वाणी का तथा निम्रन्थ गुरु का पक्ष लेकर मोह को रंचमात्र भी हृदय में स्थान नहीं देना, ऐसी हार्दिक प्रबल भावना और गुणानुराग ही सम्यक्त्व है ।।५८॥ __ जो त्याज्य, अति विषम और विषमय है, वह अधर्म है । जो धर्म है वह श्रेयस्कर है, उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, अमृत-तुल्य है, सुखदायक है। ऐसी श्रद्धा करना सम्यक्त्व है ॥५६॥ श्री जिनेन्द्र भगवान पर सन्देह-रहित विश्वास करने का एक गुण ही - यदि प्राप्त हो जावे तो प्रात्मा के अन्य समस्त गुण स्वयं प्राप्त हो जाते हैं। ऐसी अचल श्रद्धा ही पाप-निवारक है ॥६॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार में पर-पदार्थ छोड़ने योग्य हैं और निज पदार्थ प्रहण करने योग्य है । यात्म-वैभव पाने के लिए अर्हन्त भगवान के चरणों का निश्चलता से प्राश्रय लेना ही सम्यक्त्व है ॥६१।। ___ जिनेन्द्र भगवान ने जो कुछ कहा है वही सत्य और हितकर है, अन्य वचन सत्य और कल्याणकारक नहीं, ऐसा निश्चय करना अमूल्य सम्यक्त्व 'रत्न है ।।६।। पृथ्वी पर हाथ का आघात करने से पृथ्वी पर चिन्ह पड़ता है, वह कदाचित् चूक जाय या विफल हो जाय परन्तु जिनेन्द्र भगवान का उपदेश कभी निष्फल नहीं हो सकता, एसी श्रद्धा रखने वाले ही भव्य जीव हैं ॥६३|| यदि अर्हन्त भगवान की बारणी निष्फल हो जायगी तो समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ देगा, अचल सुमेरु चलायमान हो जायगा तथा सूर्य के उदय अस्त होने का क्रम भी भंग हो जावेगा ।।६४।। जिनेन्द्र भगवान ने अर्हन्त अवस्था पाने से पहले अनन्त भव धारण किए किन्तु अन्तिम एक भव में ही उस अनन्त जन्म-परम्परा का अन्त करके अनन्तानन्त सुख प्रार दिला. जगत में यह एक आदी निमित्राल है ।।६।। इस प्रकार बोतराग देव, जिनवाणी तथा निम्रन्थ गुरु का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है । अब सकषाय जीव को सम्यक्त्व के प्रतिबन्धक कारण हट जाने पर निश्चय सम्यक्त्व किस तरह प्राप्त होता है, यह बतलाते हैं... - परिणामों की कलुषता से द्रव्य मोह (मोहनीय कर्म या दर्शन मोहनीय कर्म) होता है। वह भाव-कलुषता अब मुझ में नहीं है । भाव कलुषता से बिरुद्ध भाव-विशुद्धता अब प्रगट हो गई, यह पवित्र सम्यक्त्व है, यही निज प्रात्मअनुभव-गम्य है ॥६६॥ जिस प्रकार कालिमा प्रादि दूर हो पर जाने सुवर्ण अपने स्वाभाविक स्वच्छ रूप में प्रगट हो जाता है ॥६७॥ जिनेन्द्र देव के वचन रसामृत का प्रास्वादन करना, उसको श्रेयस्कर मानना, उसमें ही निमग्न होना, उसी में प्रानन्द अनुभव करना, अनुपम सुख का बीज है ॥६॥ सम्यक्त्व ही परम पद है, सम्यक्त्व ही सुख का घर है, सम्यक्त्व ही मुक्ति का मार्ग है, सम्यक व-सहित तप ही सफल है ॥६६।।। हे भव्य जीवो ! सुनो, सम्यक्त्व में प्रवृत्ति करना, प्रात्म-श्रद्धा करना, जिन-भक्ति करना, तत्वों में रुचि करना, प्रात्म-ज्ञान होना, यह सब सम्यग्दर्शन के पर्याय नाम हैं ॥७॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह भी समझ लो कि विविध योनियों के दुम्स संताप को दूर करना ही, ज्ञानमय स्वाधीन सुवामृत मागर में डुबकी लगाकर अानन्द में रहना हो तो सम्यक्त्व को प्राप्त करो ॥७१॥ अब वेदक सम्यक्त्व के दोष बतलाते हैं - तत्र वेदकसम्यक्त्वस्य पंचविंशतिमलानि ॥६॥ अर्थ-वेदक सम्यक्त्व के २५ दोष होते हैं । उक्त च .मदत्रय पदाश्चाष्टौ, तयानायतनानि षट् । अष्टी शंकादयश्चेति, दग्दोषाः पञ्चविंशतिः॥ यानी-जीन मूढ़ता, पाठ मद, छह अनायतन, शंका आदि आठ दोष इस तरह सब मिल कर २५ दोप वेदक सम्यक्त्व हैं। मूडता दाम्भिक (अभिमानी), स्वार्थी, मायाचारी लोगों की बातों पर विश्वास रखकर, सत्य असत्य को परीक्षा न करके निराधार निष्फल बातों को धर्म समझ लेना मूढ़ता (मूर्खता) है । मूढ़ता के तोन भेद हैं-१ लोक मुड़ता, २ देव मूढ़ता और ३ पाखण्ड मूढ़ता। लोक मूड़ता सक्षास्त्रों का स्वाध्याय न किया हो, तत्व अतत्व का विचार न हो, सङ्गुरु का उपदेश न सुना हो, आचार विचार का ज्ञान न हो, ऐसे अनभिज्ञ मनुष्य दूसरे लोगों के देखा देखी चाहे जो कुछ क्रिया करके जो धर्म मानने लगते हैं । अथवा ठग मायाचारी साधुओं के द्वारा दिखाये गये किसी चमत्कार को देखकर उनके कहे हुए ऊटपटांग क्रिया कांडों में धर्म मानने लगते हैं, इष्ट अनिष्ट से अनभिज्ञ ( अनजान ) रहकर मेड़ों की चाल की तरह गतानुगतित्रा बन कर धर्म मान लेते हैं सो 'लोक मूढता' है। प्रापगासागरस्नान मुच्चयः सिकतामनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमुढं निगद्यते ॥ अर्थ-धर्म समझ कर नदी, सरोवर समुद्र में स्नान करने, पत्थरों तथा बालूका ढेर लगाने, अग्नि में जलने, पर्वत में गिरने को धर्म मानना' लोक मूत्ता' है। तथा घर की पूजा करना, नदी को पुजना. गाय, पीपल, मील के पत्थरों की पूजा करना, पीर पैगम्बर पूजना, ताजियों के नीचे बच्चों को लिटाना, मस्जिद में मुल्ला से मुख में थुकाना, ये लोक मूढ़ता के काम है । नदी आदि में स्नान करने से Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) केवल शरीर का मैल टूट जाता है परन्तु प्रात्मा का मेल नहीं छूटता; अतः नदी आदि में स्नान करना भावतीर्थ नहीं है। सत्य तप, पांचों इन्द्रियों का निग्रह, सम्पूर्ण जीवों पर दया करना भाव तीर्थ है । इस भावतीर्थ में स्नान करने से प्रात्मा का कर्म मल नष्ट होता है तथा अन्त में स्वर्ग की या मोक्ष की प्राप्ति होती है। नदो समुद्र आदि नाम के ही तीर्थ हैं । इन में स्नान करने से कभी कर्म मल नहीं शुलता। अगर कर्म मल इन में स्नान करने से धुलता तो उनमें रहने वाले मेंड़क, मगर मच्छ ग्रादि अन्य जीव क्यों नहीं शुद्ध होते हैं? क्यों जन्म मरण किया करसे है ? उन को न स्वर्ग मिलता है न मोक्ष ही मिलता है। नदी आदि तीर्थ में स्नान करने से तो शरीरके बाहिरी मल का नाश होता है। अगर इससे पुण्य होने लगे तो उसो जल में उत्पन्न होने वाले उसी में बढ़ने और उसी जल को पीने वाले और उसी के अन्दर हमेशा रहने वाले जल-चर जीव मगर मछली आदि तथा जो सिंह बकरी हिरन आदि पशु पक्षी उसी का जल पीने वाले हैं उनको भी पुण्य बंध होना चाहिए । मनुष्य को इस प्रकार संकल्प करके वर्म की भावना करना और उसे स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति का साधन मानना तो रेत को पेल कर उस में से तेल निकालने के समान है। इसी तरह शास्त्र -घात से, अग्नि-धात से या पर्वत से गिर कर मरने वाले को पुण्य हो जावे और पानी में कूद कर या विष खाकर मरने को पुण्य माना जाय और इस से ही कर्मों की निर्जरा मान ली जाय तो 'ऋषि मुनियों के द्वारा बताये गये जप, तप, वत संयम, नियम अादि कर्म निर्जरा के कारगा हैं' वह सब युक्ति-युक्त वचन अन्यथा हो जायेंगे । इस मन--माने तीर्य और लोक मूढता के स्थानों में जाने से, मानने से कर्म बंध होता है, इसे दूर से ही छोड़ना चाहिए। ___ इस लोक को और परमार्थ को न जानने वाले, ढोंगी तथा पाखंडी पापी, द्वारा माने हुए हिंसा मय धर्म पर विश्वासं रखकर, स्त्री द्वारा पुरुष का रूप और पुरुष द्वारा स्त्रो का रूप धारण कर पायार विचार से रहित अपने आपको देव देवी मानने वाले स्त्री पुरुषों के वचनों को मान कर पाप वृद्धि करना और उस पर विश्वास करना सभी 'लोक मूढ़ता' है। पाखण्ड-मुढता जिनको आत्मा परमात्मा, संसार मोक्ष, कर्मबन्धन, कर्ममोचन, लोक परलोक आदि का ज्ञान नहीं है, तप कुतप आदि का जिन्हें परिज्ञान नहीं, जिनको अपनी महला, ख्याति प्रशंसा की सीत्र उत्सुकता रहती है, भोजन, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) वस्त्र, द्रव्य आदि से जिनकी मोह ममता बनी हुई है फिर भी जो अपने आपको साधु मानते तथा मनवाते हैं। इसके लिए कोई अपनी जटा बढ़ा लेते हैं, कोई नाखून बढ़ा लेते हैं तथा दण्ड, चीमटा आदि अनेक तरह की चीज अपने पास रखते हैं, गांजा सलफा, तुमारख, भंग. यादि पोते हैं. जिनके क्रोध, मान, माया, लोभ बने हुए हैं, वे साधु-गुण-शून्य पाखण्डी कहलाते हैं । ऐसे पाखण्डियों को गुरु श्रद्धा से मानना, पूजना, विनयसत्कार करना 'पाखण्डि मूढ़ता है। आध्यात्मिक गुणों का गौरव जिनमें पाया जाता है, जो सांसारिक मोह माया, प्रारम्भ, घर, गृहस्थी, परिग्रह से दूर रहते हैं, दया, शान्ति, क्षमा, धैर्य, अटल ब्रह्मचर्य, सत्य, लौच, संयम, वैराग्य जिनमें सदा पाया जाता है, जो ज्ञानाभ्यास, अात्मचिन्तन, हित-उपदेश, ध्यान, स्वाध्याय में लगे रहते हैं ने सच्चे गुरु या सच्चे साधु होते हैं । विवेकी पुरुष को ऐसे साधु गुरु की उपासना करनी चाहिए, क्योंकि उनकी ही पूजा उपासना से उनके गुण अपनी आत्मा में आते हैं । उनके सिवाय पाखंडी साधुओं की उपासना से आत्मा का कुछ कल्याण नहीं होता। इस कारण। पाखण्डियों की विनय पूजा उपासना 'पाखंडि मूढ़ता है। देव-मूढ़ता परमात्मगुरण-शून्य कल्पित देवों को या रागो द्वेषी आदि कुदेवों को आत्म-कल्याण की भावना से पूजना 'देव मूढ़ता है। देवों के ४ भेद हैं-१ देवाधिदेव, २ देव, ३ कुदव, ४ अदेव । रागढूष आदि भाव कर्म तथा मोहनीय आदि द्रव्य-कर्मों का नाश करके जो परम शुद्ध, परमात्मा, वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशक, त्रिलोक-पज्य हैं वे 'देवाधिदेव' हैं। जिन्होंने पूर्वभव में सुकुस पुण्य कार्य करके देव शरोर पाया है ऐसे सम्यग्दृष्टि कल्पवासी, व्यन्तर, ज्योतिबा देव "देव' या 'सुदेव' कहलाते हैं । वे सुमार्गगामी, देवाधिदेव बीतगग के अनुयायी, सेवक होते हैं । मिथ्यात्व भावना सहित जो क्रोधी, कुमारत, कलहप्रिय, तीत्र राग द्वेष धारक देव हैं, वे 'कुदेव होते हैं । स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ साधन के लिए अपनी कल्पना से जिसको चाहे उसको देव मानकर पूजने पुजवाने लगते है, जोकि बास्ताब में देव होत भी नहीं हैं, वे 'अदेव' हैं। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (iv) इनमें से आत्म शुद्धि के लिए, संसार से मुक्ति प्राप्त करने के लिए, सर्व कर्म कल से छूटने के लिए वीतराग देवाधिदेव की ही पूजा करना चाहिए, अन्य किसी देव को नहीं । उपासना धार्मिक तथा लौकिक सत्कार्य में सहायता सहयोग प्राप्त करने के लिए जिनेन्द्र भक्त यक्ष, पद्मावती आदि सम्यग्दृष्टि देवों का भी साधर्मीवात्सल्य भावना से उचित आदर सत्कार करना चाहिए। जैसा कि प्रतिष्ठा आदि के समय करते हैं, परन्तु उन्हें आत्म शुद्धिका कारण न समझना चाहिए और न अन्त सिद्ध देवाधिदेव के समान पूजना चाहिए । कुदेव तथा प्रदेवों की पूजा उपासना कदापि न करनी चाहिए । जो मनुष्य हेय उपादेय ज्ञान से शून्य हैं जिन्हें कर्तव्य, धर्म, अधर्म का विवेक नहीं, ऐसे भोले भाले (मुर्ख) मनुष्य दूसरों की देखादेखी या किसी की प्रेरणा से अथवा अपने किसी कार्य सिद्धि की भावना से जो कुदेवों देवों की पूजा उपासना करते हैं, वह 'देवमूढ़ता' है । देवमूढ़ता से आत्म-पतन होता है ग्रात्म-कल्याण नहीं होता, अतः विवेकी आत्म-श्रद्धालु इस मूढ़ता ( मूर्खता) से भी बचा रहता है । ८ सद मदमें मिथ्यात्वद | मोदलदुतानेंभेदमाकु तन्नो ।। ळ दितमेने पेळ वडतं । सदविरहितदर्शनिक नक्कु पुरुषं । १०६ । अर्थ - मिथ्यावद्धा के कारण मनुष्य विविध कारणों से अभिमान करता हैं, जब मनुष्य मत्र छोड़ देता है तभी सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का पात्र होता है, तभी वह दार्शनिक श्रावक होता है । अपने आपको अन्य व्यक्तियों से बड़ा समझकर दूसरों से घृणा करना 'मद' या अभिमान है | मद के भेद हैं १ कुलमद, २ जाति मद, ३ रूप मद ४ ज्ञान मद, ५ धन मद, ६ बल मद, ७ तप मद तथा अधिकार मद । पिता के पक्ष को 'कुल' कहते हैं। अपने कुल में अपना पिता मह ( दादा ), पिता, चाचा, ताऊ, भाई, भतीजा, पुत्र, आदि कोई भी व्यक्ति या स्वयं श्राप राजा, महाराजा, सेट, साहूकार पहलवान, विद्वान, चारित्रवान, यशस्वी आदि हो तो उसका अभिमान करना, दूसरों के कुल परिवारों को तुच्छ होन समझना, उनसे घृणा करना कुलमद है । जैसे मरीचिकुमार ने किया था कि मेरा पिता (भरत) चर्ती है, मेरा पितामह ( बाबा ) भगवान ऋषभनाथ पहले तीर्थंकर हैं, मेरे प्रपितामह ( पर दादा ) महाराजा नाभिराय अन्तिम Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) कुलकर हैं, मैं भी तीर्थंकर होने वाला है । इस प्रकार मेरा कुल सबसे अधिक श्रेष्ठ है । इसी कुलमद के कारण मरीचि को अनेक योनियों में भटकना पड़ा । माता के पक्ष को 'जाति' कहते हैं। तदनुसार अपनी माता के कुल परिवार में अपना नाना, माया नामान्पुन पात्र उचाधिकारी, राजा, मंत्री, सेठ, जमींदार, वनिक आदि हों तो उसका अभिमान करना, दूसरों को हीन समझकर उनसे घृणा करना 'जातिमद' है । अपना शरीर सुन्दर हो तो उस सुन्दरता का अभिमान करके अन्य सुन्दर स्त्री पुरुषों से घृणा करना 'रूपमद' है । सनत्कुमार चक्रवर्ती बहुत सुन्दर, थे, उनकी सुन्दरता देखने स्वर्ग से दो देव श्राये थे । इस कारण सनत्कुमार को अपनी सुन्दरता का बहुत अभिमान हुआ किन्तु कुछ क्षण पीछे उनकी सुन्दरता कम होने लगी। यहां तक कि मुनि अवस्था में उनको कोढ़ हो गया जिससे उनका शरीर बहुत असुन्दर हो गया । अपनी धन सम्पत्ति का अभिमान प्रगट करना 'धनमद' है । कनक- कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय । जा खाये बौरात है, वा पाये बौराय ॥ यानी सोने (धन) में मद पैदा करने की शक्ति श्रतूर से भी अधिक है । तभी धतूरे को खाकर मनुष्य बौराता है किन्तु धन पाते ही बौराने लगता है । इस तरह धन का अभिमान अन्य सब अभिमानों से श्रधिक नशा लाता है। धन के नशे में अन्धा होकर मनुष्य अपना विवेक खो बैठता है । अपने शरीर के बल का अभिमान करना 'बलमद' है । बलमद में चूर होकर मनुष्य निर्बल जीवों को सताता है, उन्हें ठुकराता है, भारता है, उन्हें लूटता खसोटता, अपमानित करता है । भरत चक्रवर्ती ने बलमद में ग्राकर अपने भाई बाहुबली से युद्ध ठान लिया किन्तु जब वह मल्लयुद्ध, जलयुद्ध, तथा दृष्टि युद्ध में बाहुबली से हार गये तब उनको प्रारण रहित करने के लिए उनपर चक्र चला दिया ऐसा प्रकृत्य मनुष्य बलमद में कर बैठता है । तपश्चरण श्रात्म शुद्धि के लिए किया जाता है, परन्तु जब उसी तपस्या का अभिमान किया जाता है तब वह तपस्या एक अवगुरण बन जाती है । तपमद करने वाला व्यक्ति अपने आपको महान तपस्वी, धर्मात्मा, महात्मा, शुद्धात्मा समझता है अन्य साधु मुनि ऋषियों को हीन समस्ता है । उनको घूरता की दृष्टि से देखने लगता है । मनुष्यों को पूर्व पुण्य कर्म उदय से राजकीय, सामाजिक, जातीय, धार्मिक, राष्ट्रीय, अन्तः राष्ट्रीय अविकार प्राप्त हुआ करते हैं । उस प्राप्त Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार का अभिमान करना 'अधिकारमद' है । अधिकारमद में चूर होकर मनुष्य दूसरों का अपमान करता है, उनको आर्थिक, शारीरिक दण्ड देता है। इस तरह अपने पद का दुरुपयोग करता है। ___ इस तरह ८ मद सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाले दोष हैं । छह अनायतन 'प्रायतन' शध्द का अर्थ 'घर' है। यहाँ सम्यक्त्व के प्रकरण में 'पायतन' का अर्थ 'धर्म का धर' या 'धर्म का स्थान है। जो 'धर्म का स्थान' न हो, अधर्म या मिथ्याल्ब का स्थान हो उस को 'अनायतन' कहते हैं । अनायतन ६ हैं-१ कुदेव, २ कुदेवालय, ३ मिध्या ज्ञाना, ४ मिथ्याज्ञानी, ५ मिथ्या तप, ६ मिथ्या तपस्वी । आत्मा, राग द्वेष, क्रोध, काम आदि दुर्भाबों के वाम होने या दूर होने से शुद्ध होता है। अतः वीतराग देव की भक्ति से वह प्रात्म-द्धि मिलती है। जो देव राग, द्वेष आदि दुर्भाव धारी हैं, कुदेव है, उनकी भक्ति से प्रात्मशुद्धि नहीं हो सकती, अत: कुदेव धर्मायतन नहीं, अनायसन हैं, इसी कारण सम्यग्दृष्टि उनकी भक्ति नहीं करता । जो व्यक्ति किसी स्वार्थ या प्रलोभनवश उनकी भक्ति करता है वह अपने सम्यक्त्व में दोष लगाता है। __कुदेवों के स्थान भी इसी कारण त्याज्य हैं कि वहां आने जाने से आत्मशुद्धि की प्रेरणा नहीं मिलती । अतः कुदेवालय भी अनायतनं हैं।। जिन शास्त्रों के पठन-पाठन से आत्मा में काम क्रोध आदि दुर्भाव उत्पन्न हों, आत्मज्ञान वैराग्य की प्रेरणा न मिल वे ग्रन्थ मिथ्या ज्ञान के उत्पादक हैं, अतः वे भी अनायतन हैं। आत्मा के अहितकारक ग्रन्थों को पढ़कर यदि कोई विद्वान हो तो उस की विनय सेवा सुश्रूषा से कुज्ञान ही प्राप्त होगा, अतः मिथ्याज्ञानी भी अनायतन रूप है। कर्म निर्जरा करा कर आत्मा को शुद्धता की दिशा में ले जाने तप तो श्रेयस्कर है । किन्तु जिस तप से प्रात्मा की मलिमता कम न हो पावे, वह तप कुतप या मिथ्या तप है और इसी कारण अनायतन है । ... मिथ्या तप करने वाले प्रात्मज्ञान-शून्य तपस्वी अपने अनुयायियों को संसार से पार नहीं कर सकते, वे तो पत्थर की नाव की तरह संसार-सागर में स्वयं डूबते हैं और अपने भक्तों को डुबाते हैं, अतः वे भी अनायतन रूप हैं। प्र Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) पाठ दोष जिन से सम्यग्दर्शन दूषित होता है उसे दोष कहते हैं। वे पाठ हैं-१ शंका, ३ कक्षा, ३ बिचिकित्सा, ४ मूढ़ष्टि, ५ अनुपगृहन, ६ प्रस्थितीकरण, ७ अवात्सल्य, ६ अप्रभावना । बीतराग और सर्वज्ञ होने के कारगा जिनेन्द्र भगवान यथार्थ वक्ता (ग्राप्त) हैं, अत: उनके वचनों में सम्यग्दृष्टि को निःशंक रहना चाहिए। ऐसा न होकर यदि उनके उपदिष्ट किसी सिद्धान्त या किसी बात में सन्देह प्रगट किया जाय तो वह 'शंका' दोष है। पात्मा के गगृतन्य शान्त ग, अनात शुल्स से अनभिज्ञ या विमुख रहकर सांसारिक, नायिक, न्द्रियजन्य, भौतिक मोग उपभोग-जन्य सुख की इच्छा करना 'कांक्षा' दोष है। रनत्रय रूप श्राध्यात्मिक गुणों का आदर न करते हुए ऋषियों, मुनियों का भलिन शरीर देखकर उनसे गणा करना 'विचिकित्सा' दोष है । चेतन, जड़, संसार, मुक्ति, पुण्य पाप, हेय उपादेय आदि के आवश्यक ज्ञान से शून्य मूढ़ बने रहना 'मूढष्टि ' दोष है । अपने गुण प्रगट करना, दूसरे के दोष प्रगट करना, धर्मात्मा के अवगुणों को न ढकना 'अनुपग्रहन' दोष है। दरिद्रता, मूर्खता या अन्य किसी कारण से कोई मनुष्य अपना धर्म छोड़ कर विधर्मी हो रहा हो तो उसे उपाय करके अपने धर्म में स्थिर करने का प्रयत्न न करना 'अस्थितिकरण' है । अपने साधर्मी ठयक्ति से कलह करना, उससे प्रेम न करना 'वात्सल्य दोष है। अपने धर्म का प्रचार करने तथा इसका प्रभाव जगत में फैलाने का यथासाध्य प्रयत्न न करना 'अप्रभावना दोष है। इस प्रकार ३ मूढ़ता, ५ मद, ६ प्रनायतन और ८ दोष, ये सब मिलकर सम्यादर्शन के २५ मल दोष हैं । इनके द्वारा सम्यग्दर्शन गुरग स्वच्छ निर्मल न रह कर, मलिन हो जाता है। . अष्टांगानि ॥७॥ अर्थ-जिस प्रकार शरीर को ठीक रखने के लिए हाथ, पैर, शिर, छाती, पीठ, पेट आदि पाठ अंग होते हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शन को पूर्णस्वस्थ रखने के लिए पाठ अंग होते हैं। उनके नाम Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ निःशंकित, २ निःकांक्षित, ३ निविचिकित्सा, ४ अमूढ-दृष्टि, ५ उपगृहन, ६ स्थितिकरण, ७ वात्सल्य, ८ प्रभावना । जिनवाणी में रेच मात्र भी शंका सन्देह न करना निःशकित अंग सांसारिक विषय भोगों की इच्छा न करना निःकांक्षित अंग है। निर्ग्रन्थ साधु के मलिन शरीर से घृणा न करना उनके प्राध्यात्मिक गुणों से अनुराग करना निविचिकित्सा अंग है। प्रात्मा, अनात्मा, प्राचार अनाचार, पाप, पुण्य. हेय उपादेय प्रादि आवश्ययक बातों का ज्ञान प्राप्त करना, इनसे अनभिज्ञ (अजान ) न रहना अमूढ दृष्टि अंग है। किसी साधर्मी भाई, मुनि ऐलक, क्षुल्लक, आर्यिका, क्ष ल्लिका, ब्रह्मचारी आदि व्रती से प्रात्म-निर्बलता के कारण कोई दोष या त्रुटि हो जाय तो उसको प्रगट न करना, गुप्त रूप से सुधारने का यत्न करना उपगहन अंग है । कोई साधर्मी स्त्री पुरुष किसी कारणवश अपना धर्म छोड़ने को तैयार हो तो उसे समझा-यझा कर तथा अन्य अच्छे उपाय से धर्म में स्थिर रखना स्थितिकरण अंग है। अपने साधर्मी व्यक्ति से ऐसा प्रेम करना जैसे गाय अपने बछड़े के साथ करती है, यह वात्सल्य अंग है । दान, परोपकार, ज्ञान प्रचार, शास्त्रार्थ, उच्चकोटि का चारित्र पालन करना, व्याख्यान, पुस्तक वितरण आदि विविध उपायों से धर्म का प्रभाव सब जगह फैलाना प्रभावना अंग है । __इन आठ अंगों के प्राचरण करने से सम्यग्दर्शन पूर्ण एवं पुष्ट रहता है। इन पाठ अंगों को पालन करने में निम्नलिखित व्यक्ति प्रसिद्ध हैं-- प्रजन चोर निःशंकित अग में, अनन्नमती निःकांक्षित अग में, उद्दायन राजा निविचिकित्सा अंग में, अमूत-दृष्टि अग में रेवती रानी, जिनेन्द्रभक्त सेठ उपग्रहन अग में, वारिषेण स्थितीकरण में, विष्णुकुमार ऋषि वात्सल्य अंग में और बजकुमार मुनि प्रभावमा अग में जगविख्यात हुए हैं। विस्तार भय से यहां उनकी कथा नहीं देते हैं अन्य ग्रन्थों से उन्हें जान लेना। जलस्नानत्यागी महावती साबुनों का शरीर मैला देखकर उससे घृणा करना विििकत्सा अतिचार है । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {१८१ ) प्रष्ट गुरगाः ।। अर्थ-सम्यग्दर्शन के पाठ गुण हैं। १ धर्मानुराग, २ निर्वेग, ३ अात्म निन्दा, ४ गट, ५ उपशम, ६ भक्ति, ७ अनुकम्पा और ५ प्रास्तिक्य ये उन ८ गुणों के नाम हैं । धर्म से, धर्म के फल से तथा धर्मात्मा के साथ अनुराग रखना सम्यग्दर्शन का पहला 'धर्मानुराग' गुण है । संसार, तथा शरीर विषय भोगों से विरक्त रहना 'निर्वेग' गुण है। अपने दोषों की निन्दा करना 'पात्मनिदा' नामक गुरण है । प्रायश्चित्त लेने के लिये अपने दोषों को गुरु के सामने आलोचना करना 'गहाँ' नामक गुण है। क्रोध आदि उग्र कषायों का मन्द होना शान्त भाव आना 'उपशम' नामक गुरण है। ___अर्हन्त भगवान, प्राचार्य तथा उपाध्याय आदि पूज्यों की पूजा, विनय, स्तुति आदि करना भक्ति' गुग है । समस्त पर, अचर, छोटे बड़े जीवों पर दया भाव रखना, उनको कष्ट न होने देना अनुकम्पा गुण है। प्रात्मा, परमात्मा, इहलोक परलोक, पुण्य पाप, स्वर्ग, नरक, मोक्ष प्रादि को मानना, कर्म, कर्म के फल के अस्तित्व की श्रद्धा रखना 'पास्तिक्य' गुण है। सम्यग्दृष्टि में ये ८ गुण होते हैं। इससे सम्यग्दर्शन को अच्छी शोभा होती है। _ अब सम्यग्दर्शन के अतिचार बतलाते हैं पंचातिचाराः ॥६॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन के ५ अतिचार हैं। १ शंका, २ कांक्षा, ३ विचिकित्सा, ४ अन्यदृष्टि प्रशंसा, ५ अन्य-दृष्टिसंस्तव, ये ५ अतिचार गम्यग्दर्शन के हैं। वीतराग सर्वज्ञ देव के प्रतिपादित सिद्धान्त 'में पता नहीं यह बात ठीक है या नहीं है' ऐसा सन्देह करना 'शंका है। धर्म-साधन का फल सांसारिक विषय भागों की प्राप्ति चाहनाकांक्षा' नामक अतिचार है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलस्नानत्यागी महाव्रती साधुओं का शरीर मैला देखकर उससे घृणा कारना विचिकित्सा अतिचार है । मिथ्याश्रद्धालु व्यक्ति की प्रशंसा ( उसके पीछे तारीफ ) करना अन्य दृष्टिप्रशंसा नामक अतिचार है। __ मिथ्या श्रद्धानी व्यक्ति के सन्मुख उसके गुणों का वर्णन करना अन्यदृष्टि संस्त्व नामक अतिचार है । सम्यग्दर्शन का आवश्यका वर्णन करके अब चारित्र का वर्णन प्रारंभ करते हैं, उससे सबसे पहले गृहस्थ चारित्र को लिखते हुए गृहस्थ की ११ श्रेणियों (प्रतिमानों) को कह्ते हैं। एकादश निलयाः॥१०॥ चारित्रधारक गृहस्थ के ११ निलय यानी श्रेणी (प्रतिमाएं) हैं। दंसरग वयसामाइय पोसहसचित्तरायभत्ते य । बम्हारंभपरिग्राह अणुमणमुद्दिट्ट देसविरदीए ॥ अर्थ–१ दर्शन, २ बत, ३ सामायिक, ४ प्रोपध, ५ सचित्तविरत, ६ रात्रि भुक्ति त्याग, ७ ब्रह्मचर्य, ८ प्रारम्भ त्याग, ६ परिग्रह त्याग, १० अनुमति त्याग, ११ उद्दिष्ट त्याग, ये गृहस्थ श्रावक के ११ निलय या प्रतिमाएं हैं। दर्शन प्रतिमा संसार तथा शरीर, विषय भोगों से विरक्त गृहस्थ जब पांच उदुम्बर फल (बिनाफल के ही जो फल होते हैं १ बड़, २ पीपल, ३ पाकर, ४ ऊमर, ५ कठूमर) भक्षण के त्याग तथा ३ मकार (मद्यपान, मांस भक्षण मधुभक्षण) के स्यागके साथ सम्गदर्शन (वीतराग देव, जिन वाणो, निर्गन्थ साधु की श्रद्धा) का धारण करना दर्शन प्रतिमा है 1 व्रतप्रतिमा हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह, इन पांच पापों के स्थूल त्याग रूप अहिंसा, सत्य, अनौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह परिमाण, ये पांच अणुञ्जत, दिव्रत, देश बत, अनर्थ दण्ड व्रत, ये तीन गुगण व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास भोगोपभोग परिमाण. अतिथि संविभाग, ये ४ शिबित (५+३+४ = १२) हैं, इन समस्त १२ प्रतों का याचरण करना बत प्रतिमा है। ___ संकल्प से (जान बूझकर) दो इन्द्रिय आदि यस जीवों को न मारना Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) छने हुए जल में वारीक राख या पिसी हुई लौंग, इलायची, मित्र आदि चीजें मिलाकर जल का रस रूप गन्ध बदल देने पर दो पहर | छह घंटे ] तक जल ग्रचित्त [जल कायिक जीव रहित ] रहता है तदनन्तर सत्रित हो जाता है । शाक फल आदि सचित [हरित ] वनस्पति सुख जाने पर या अग्नि से पक जाने आदि के बाद प्रचित्त [ प्रासु वनस्पति काय रहित] हो जाती है । इस प्रकार पांचवी प्रतिमाधारी को चित्त जल पीना चाहिए तथा प्रचित्त वनस्पति खानी चाहिए। जीभ को लोलुपता हटाने तथा जीव रक्षा की दृष्टि से पांचवी प्रतिमा का श्राचरण है । रात्रि भोजन त्याग खाद्य 1 रोटी, दाल आदि भोजन | स्वाद्य | मिठाई आदि स्वादिष्ट वस्तु ] लेह ( बड़ो, चटनी आदि चाटने योग्य चीजें ), पेय ( दुध पानी शर्बत शादि पीने की चीजें, इन चारों प्रकार के पदार्थों का रात्रि के समय कृत कारित, अनुमोदना से त्याग करना रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा है । सूर्यास्त से सूर्योदय तक रात में भोजन पान न स्वयं करना, न किसी दूसरे को भोजन कराना और न रात में भोजन करने वाले को उत्साहित करना, सराहना करना, अच्छा समझता इस प्रतिमाधारी का आचरण है । यदि अपना छोटा पुत्र भूख से रोता रहे तो भी इस प्रतिमाकधारी व्यक्ति न उसको स्वयं भोजन करावेगा, न किसी को उसे खिलाने की प्रेरणा करेगा। या न कहेगा । ब्रह्मचयं प्रतिमा काम सेवन को तीव्र राग का, मनकी अशुद्धता का तथा महान हिंसा का कारण समझकर अपनी पत्नी से भी मैथुन सेवन का त्याग कर देना ब्रह्मचर्य नामक सतवीं प्रतिमा है । इस प्रतिमा का धारक नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाता है । नौ बाड़ जैसे खेत में उगे हुए धान्य को गाय आदि पशुओं से खाने बिगाड़ने से बचाने के लिए खेत के चारों ओर कांटों की बाड़ लगा दी जाती है उसी प्रकार ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्यं सुरक्षित रखने के लिये निम्नलिखित नियमों का प्राच रण करना आवश्यक है, इनको बाचर्य की सुरक्षा करने के कारण 'बाई' कहते हैं । ६ १ – स्त्रियों के स्थान में रहने का त्याग । का पुतर. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८ ) २-राग भाव से स्त्रियों के देखने का त्याग । ३-स्त्रियों के साथ ग्रावार्षक मोठी बात चीत करने का त्याग । ४..पहले भोगे हुए विषय भोगों के स्मरण करने का त्याग । ५...-काम-उद्दीपक गरिष्ठ भोजन न करना । ६ ---अपने शरीर का शृंगार करके आकर्षक बनाने का त्याग । ७-स्त्रियों के विस्तर, चारपाई, आसन पर बैठने सोने का त्याग । ८-काम कथा करने का त्याग। E-भोजन थोड़ा सादा करना जिससे काम जाग्रत न हो। इस प्रतिमा के धागे को सादा वस्त्र पहनने चाहिए। वह घर में रहता हुना व्यापार आदि कर सकता है। प्रारम त्याग सब प्रकार के प्रारम्भ का त्याग करदेना प्रारम्भ त्याग नामक पाठवीं प्रतिमा है। ___ श्रारम्भ के दो भेद हैं--- १- घर सम्बन्धी, ५ सूना का [चक्की, तुम्हा अोखली, बुहारी और परीड़ा यानी पानी का कार्य] २-व्यापार-सम्बन्धी । जैसे दुकान, कारखाना वेती, अादिक कार्य । आरम्भ करने में जीव हिसा होती है तथा चित्त व्याकुल रहता है, कपाय भाव जागृत रहते हैं, अतः आत्म-शुद्धि और अधिक दया भाव का पाचरण करने की दृष्टि से यह प्रतिमा धारा की जाती है। इस प्रतिमा का धारी अपने हाथ से रसोई बनाना बन्द कर देता है। दूसरों के द्वारा बनाये हए भोजन को ग्रहण करता है। परिग्रह त्याग रुपये पसे, सोना चांदी, मकान रेत, अादि परिग्रह को लोभ तथा प्राकुलता का कारण समझकर सपने शरीर के सादे वस्त्रों के सिवाय समस्त परिग्रह के पदार्थों का त्याग कर देना परिग्रह त्याग प्रतिमा है। इस प्रतिमा को धारण करने से पहले वह अपने परिग्रह का धर्मार्थ तथा पुत्र आदि त्तराधिकारियों में वितरण करके निश्चिन्त हो जाता है। विरक्त होकर धर्मशाला, मठ आदि में रहता है। शुद्ध प्रानुक भोजन करने के लिये जो भी कहे उसके घर भोजन कर आता है, किन्तु स्वयं किसी प्रकार के भोजन बनाने के लिये नहीं कहता । पुत्र प्रादि यदि किसी कार्य के विषय में पूछते हैं । तो उनको अनुमति सलाह ] दे देता है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) अनुमति त्याग घर गृहस्थाश्रम के किसी भी कार्य में अपनी अनुमति (इजाजत) तथा सम्मति देने का त्याग कर देना अनुमति त्याग प्रतिमा है । इस प्रतिमा का धारक अपने पुत्र आदि को किसी व्यापारिक तथा घरसम्बन्धी कार्य करने, न करने की किसी भी तरह की सम्मति नहीं देता । उदासीन होकर चैत्यालय आदि में स्वाध्याय, सामायिक श्रादि प्राध्यात्मिक कार्य करता रहता है । भोजन का निर्माण स्वीकार करके रोक कर याता है । उद्दिष्ट त्याग अपने उद्देश्य से बनाये गये भोजन ग्रहण करने का त्याग करना उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है । श्रावक का यह सर्वोच्च आचरण है। इस प्रतिमा का धारक घर छोड़ कर मुनियों के साथ रहने लगता है, मुनियों के समान गोचरी के रूप में जहां पर ठीक विधि से भोजन मिल जाये वहाँ भोजन लेता है । निमन्त्रण से भोजन नहीं करता । इस प्रतिमा के धारक के जो कौपीन [ लंगोटी ] सोते समय सिर से पैर तक सारा हैं, अन्य कोई वस्त्र उसके पास नहीं होता तथा एक कमण्डलु और मोर के पंखों की पीछी भी रखता है । दो भेद हैं १- क्षुल्लक, २ - ऐलक । और एक खण्ड वस्त्र शरीर न ढक सके] [ छोटी चादर, जो कि पहनने के लिये रखता ऐलक - केवल लंगोटी पहनता हूँ अन्य कोई वस्त्र उसके पास नहीं होता । यहाँ यह बात ध्यान रखनी चाहिये कि मागे की प्रतिमा धारण करने वाले को उससे पहले की प्रतिमाओं के यम, नियम आचरण करना आवश्यक है। त्रिविधो निर्वेगः ॥ ११॥ अर्थ -- निवेग तीन प्रकार का है -१ संसार निर्वेग, २ शरीर निवेंग, ३ भोग निर्देग | चतुर्गति रूप संसार में जन्म मरण, चिन्ता, आकुलता, भूख प्यास मादि दुःखों का प्राप्त होना प्रत्येक जीव के लिए अनिवार्य है, अतः दुःखपूर्ण संसार से विरक्त होना संसार - निवेंग है । शरीर आत्मा के लिए कागागर ] जेल ] के समान है । रक मांस हड्डी का पुतला है, पीप, दट्टी, पेशाब, कफ बुक आदि घृणित पदार्थो का भंडार है, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) रोगों से भरा हुआ है । ऐसे शरीर से विरक्त होना शरीर-नियंग है । • इन्द्रियों के विषय भोग आत्मा की तृष्णा को अष्टाते हैं, पाप अर्जन कराते हैं, आत्मा को चिन्तित व्याकुल करते हैं, प्रात्म-शक्ति क्षीण करते हैं, भोगने के पश्चात् नीरस हो जाते हैं. ऐसा विचार कर भोगों से विरक्त होना भोग-निर्वग है। सप्त व्यसनानि ॥१२॥ अर्थ...-प्रात्मा को दुखदायक, प्रात्मा का पतन कराने वाली आदतों को व्यसन कहते हैं। व्यसन ७ प्रकार के हैं-१ जुना खेलना, २ मांस खाना, ३ मद्य पान, ४ वेश्यागमन, ५ शिकार खेलना, ६ मोरी करना, ७ परंस्त्री सेवन । १--विना परिश्रम किये झटपट धन उपार्जन करने के विचार से कौड़ियों ताश आदि के द्वारा शर्त लगाकर छूत नीड़ा करना जुआ खेलना है। जुमा समस्त व्यसनों का मूल है । जुए में जीतने बाला संगति के कारण वेश्यागमन, परस्त्री सेवन, मांस भक्षण, शराब पीने प्रादि का अभ्यासी बन जाता है। और जुआ में हारने वाला चोरी करना सीख जाता है । जुए के कारण श्रावस्ती के राजा सुकेत', राजा मल तथा पांख अगमा सरस्टा हा.. व... बाशा राष्ट्र होकर दीन, दरिद्र, असहाय बन गये । २--मांस भक्षण करने का अभ्यास मांस भक्षरण व्यसन है। दो इन्द्रिय आदि जीवों [जिनके शरीर में खून हड्डी होती है ] के शरीर का कलेवर मांस होता है जिसमें सदा स जीव उत्पन्न होते रहते हैं, अतः मांस खाने से बहुत हिंसा होती है। मांस भक्षण के व्यसन से प्राचीन काल में कुम्भ राजा की दुर्गति ३-अनेक पदार्थो को सड़ा कर उनका काढ़ा [अकं] निकाल कर मद्य {शराब ] तयार होती है, अतः उस में अस जीव उत्पन्न होते हैं। इस कारण शराब पीने से हिंसा भी होती है और बुद्धि नष्ट भ्रष्ट होती है । इसके सिवाय धर्म और शुद्ध प्राचार भी नष्ट भ्रष्ट हो जाता है । यादववंशी राज कुमारों ने द्वारिका के बाहरी कुण्डों में भरी हुई शराब पीकर ही नशे में द्वीपायन मुनि पर पत्थर फेके थे जिस से क्रुद्ध हो कर हीपायन ने अपनी अशुभ तेजस ऋद्धि द्वारा द्वारिका भस्म कर डाली। वेश्या व्यभिचारिणी स्त्री होती है । जो कि बाजारू वस्तुओं की तरह अपने शील धर्म [ब्रह्मचर्य ] को सदा बेचती रहती है । सब तरह के ऊंच नीच, लुच्चे लफंगे द्रव्य देकर वेश्या. से काम-क्रीड़ा किया करते हैं, अतः वेश्यानों को Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 片 ( ११ ) उपदंश [ गर्मी, प्रतिशक] आदि रोग हो जाया करते हैं। इस तरह वेश्यागमन से धर्म, शुचिता ( पवित्रता) तथा धन नाश हो कर अनेक रोग प्राप्त होते हैं । प्राचीन समय में चारुदत्त सेठ ने वेश्या व्यसन द्वारा जो अपना सर्वस्व नाश किया था उसकी कथा प्रसिद्ध है । जलचर, थलचर, नभचर पशु पक्षियों को धनुष वारण, भाला, तलवार, बंदूक आदि से मारना शिकार खेलना है । यह एक महान निर्दय हिंसा का कार्य है जिससे नरक - प्रायु का बन्ध होता है । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती इस व्यसन के कारण नष्ट हुआ । यह बात इतिहास प्रसिद्ध है । धन गृहस्थ मनुष्य का बाहरी प्राण है इस कारण चोरी करने वाला मनुष्य दूसरे की चोरी करके बड़ी भारी भावहिंसा किया करता है। चोर का सारा जगत अपमान करता है । उसे राज-दंड मिलता है और पर भव में उस की दुर्गति हुआ करती है। विद्य ुदु वेग चोर की कथा प्रसिद्ध है तथा चोरी व्यसन से जो दुर्दशा मनुष्य की होती है, उसके उदाहरण प्रत्येक युग में प्रगति मिलते है । प्रत्येक मनुष्य अपनी पुत्री, बहिन, पत्नी, माता आदि पारिवारिक स्त्री का सदाचार [शील, ब्रह्मचर्य ] सुरक्षित रखना चाहता है । अन्य मनुष्य जब उनकी और काम दृष्टि से देखता है या उन से व्याभिचार करता है तब उसे श्रसह्य दुख होता है। जिसके प्रतिकार में बड़े बड़े युद्ध तक हो जाते हैं । सीता के अपहरण से रावण का सर्वस्व नाश हुआ । द्रोपदी के अपमान से कीचक तथा कौरव वंश का नाश हुआ । पहली दर्शन प्रतिमा का धारक दार्शनिक श्रावक सात व्यसनों का स्थाग कर देता है । शल्यत्रयम् ॥१३॥ शल्य के भेद हैं- १ - माया, २ - मिध्यात्व ३-निदान । ३ nic, की, कांच प्रादि शरीर में चुभने वाली वस्तु को 'शल्य' कहते हैं । जब तक शरीर में कोटा श्रादि चुभा रहता है तब तक शरीर में व्याकुलता बनी रहती है, जब कांटा कील या कांच शरीर से निकल जाता है तब शरीर मैं श्राकुलता नहीं रहती। इसी प्रकार बती का व्रत तभी स्वस्थ या यथार्थ भ्रत होता है जब कि उस के हृदय में कोई शल्य नहीं रहती । J माया यानी छल कपट शल्य व्रती के व्रत को यथार्थ व्रत नहीं रहने देती, मायाचारी मनुष्य दूसरों को भ्रम में डालने के लिये अपना व्रती रूप बनाता है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके हृदय में प्रताचरण की भावना नहीं होती। जैसे कि एक चोर, सेठ जिनेन्द्र भक्त के चैत्यालय से छत्र में लगे हुए रत्न को चुराने के लिये मायावी क्षुल्लक धम कर चैत्यालय में उदर गया शा! और रात में से चुर' कर भागा था। आत्मा का विपरीत श्रद्धान मिथ्यात्व है । सम्यक्त्व ( आत्मा की सच्ची श्रद्धा ) के साथ ही प्रत प्राधरण सच्चा होता है, भात्म-श्रद्धा के अभाव में, मिथ्यात्व रहते हुए अत यथार्थ नहीं होते। इस कारण मिथ्यात्व भी प्रताचरण के लिए शल्य है। बत चारित्र प्रात्मा को कर्म-जाल से छुड़ाकर मुक्त होने के अभिप्राय से ग्रहण किया जाता है। ब्रती पुरुष के यदि सांसारिक विषय भोगों को प्राप्त करने की अभिलाषा रूप निदान बना रहे, तो ब्रत पारित्र का अभिप्राय ही गलत हो जाता है, अतः निदान भी व्रती पुरुष के लिए शल्य है। जो व्यक्ति माया, मिथ्यात्व, निदानइन तीनों शल्य को दूर करके बत पालम करता है, यही सच्चा अती होता है । 'निःशल्यो वती' यह प्रती का लक्षण अथ श्रावक के सूल गुणों को बतलाते हैं - अष्टौ मूलगुणाः ॥१४॥ प्रर्थ श्रावक के पाठ मूल गुण हैं । जिस प्रकार भूल (जड़) के बिना वृक्ष नहीं ठहर सकता उसी प्रकार गृहस्थ धर्म के जो मूल (जड़ हैं, जिनके बिना श्रावक धर्म स्थिर तथा उन्नत नहीं हो सकता, वे मूलगुण ८ हैं। पांच उदुम्बर फलों का तथा ३ मकार (मद्य मांस, मधु) के भक्षण का त्याग । ये पाठ अभक्ष्य पदार्थों के त्याग रूप ८ मूल पेड़ों पर पहले फुल पाते हैं फुल भड़ जाने पर उनके स्थान पर फल लगते हैं किन्तु बड (मरगद), पीपर, गूलर ऊमर (मजीर) और कठूमर ' वृक्षों के फल बिना फुल पाये ही उत्पन्न हो जाते हैं, इन पांचों फलों में पहत से त्रस जीव होते हैं, बहुतों में उड़ते हुए भी दिखाई देते हैं, इस कारण इन इन फलों के खाने से मौस भक्षण का दोष लगता है। मद्य (शराब) मनुष्य के विवेक बुद्धि को मष्ट भ्रष्ट करने वाला मशीला पदार्थ है, इस के सिवाय उसमें बस जीव भी पाये जाते है, अतः मध दोनों तरह स्पॉश्य है। 'पालु धार्मिक गृहस्थ को मांस तो खाना ही नहीं चाहिए क्योंकि यह नस Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की हिंसा से उत्पन्न होता है और उसमें सदा (कच्चे, पक्के, सूखे मांस में) अनन्तों जीव उत्पन्न होते रहते हैं। मधु (शहद) मधु मक्खियों का फलों से चूस हुए रस का वमन (उल्टी, कय) है, अत: उसमें भी सदा अनेकों जीव उत्पन्न होते रहते हैं, इस कारण वह अभक्ष्य है। कनड़ी टीकाकार मूलगुणों को निम्नलिखित रूप में कहते हैंइदु सत्यां नुउियदुन्दय । वधूहरणमुयदि मद्य मांसं । मधुर्वे बिनितुमनु ळिबुदु । बुधसंदोहक्के मूल गणमीएंदु।१११॥ यानी-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील का आंशिक त्याग रूप अगुब्रत तथा परिग्रह का परिमाण इन पांच अन्नतों के साथ मद्य, मांस मधु का त्याग होना पाठ मूलगुण हैं। •अन्य प्राचार्यों के मत में मूलगुग अन्य प्रकार भी बतलाये गये हैं___ सात व्यसनों को तथा मिथ्यात्व ( कुगुरु, कुदेव, कुधर्म की श्रद्धा ) का त्याग रूप पाठ मूलगुण हैं ।..तथा --- हिंसासत्यास्तेयादग्रह्मपरिग्रहाच्च वादरभेदाः । धू तान्मांसान्मद्याद्विरतिःग्रहिणामष्टमूलगुणाः ।। महोदुम्बरपंचकामिषमधुत्यागः कृपा प्राणिमाम् । नक्तंभुक्तिविमुक्तिराप्तविनुतिस्तोयं सुवस्त्रस्न तम्, एतेज्डौ प्रगुणा गुरगा गणधरैरागारिणां वरिणताः । एकेनाप्यमुना विना भुवि तथा भूतो न गेहाश्रमी ।। यानी-किसी प्राचार्य के मतानुसार पूर्वोक्त पांच अणुक्त तथा मद्य मांस मधु का त्याग ये पाठ मूलगुण हैं । दूसरे प्राचार्य के मत में १“मद्यपान त्याग (शराब पीना,)२-पञ्चउदम्बर फलका त्याग, ३-मांस त्यान, ४-मधु त्याग, ५-जीवों की दया, ६-रात्रि में भोजन न करना, ७-वीतराग भगवान का दर्शन पूजन और ८-स्त्र से छाना हुआ जल पीना, यह आठ मूलमुण गगधर देव ने गृहस्थों के बतलाये हैं । इनमें से यदि एक भी मूल गुण कम हो तो गृहस्थ जैन नहीं हो सकता। अब श्रावकों के अणुव्रत बसलाते हैं:पञ्चावतामि ||१५|| -पांच अणुनत होते हैं । १-अहिंसा, २-सत्य, ३-प्रचौर्य, ४-ब्रह्मपतिमा परिग्रह परिमाण । -- - Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) किसी देवी देवता पर बलि चढ़ाने के लिए, श्राद्ध में पितरों के लिए या किसी औषधि के लिए अथवा किसी अन्य कारण से किसी त्रस जीव की संकल्प से हत्या नहीं करना अहिंसा अणुव्रत है। स्वार्थ-वश या राग, द्वेष, मोह, लोभ, भय के कारण झुठ बोलने का त्याग करना सत्य-अणुव्रत है जल मिट्टी के सिवाय किसी दूसरे व्यक्ति के किसी भी पदार्थ को बिना दिये नहीं लेना प्रचौर्य अणुव्रत है। अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय जगत की समस्त स्त्रियों से विषयसेवन का त्याग ब्रह्मचर्य प्रणवत है । इसका दूसरा नाम स्वदार-सन्तोष भी धन, खेत, मकान, सोना, चाँदी, वस्त्र, आदि का अपनी आवश्यकतानुसार परिमाण करके अन्य परिग्रह का संचय न करना परिग्रह परिमारण अणुव्रत है। अन्न गुणनतों को कहते हैंगुणवत त्रयम् ॥१६॥ अर्थः-तीन गुणवत हैं । १-दिग्नत, २-देशन्नत, ३. अनर्थदण्ड प्रत ।। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ये चार दिशा, इन दिशाओं के कोने को चार विदिशाएँ तथा ऊपर आकाश और पृथ्वी के नीचे, ऐसे का, अधः ऐसी दो दिशाएँ पीर हैं। इन दशों दिशाओं में आने जाने के लिए दूरी का परिमाण जन्म भर के लिए करना दिग्बत है। दिग्द्रत में घंटा दिन मास प्रादि समय तथा क्षेत्र का संकोच करके मुहल्ला, नगर, मकान आदि में आने जाने का नियम करना देशवत है । जैसे चातुमसि में हम उपनगरों सहित दिल्ली नगर से बाहर न जावेंगे । इन दोनों व्रतों के कारण नियम किए हुए क्षेत्र से बाहर होने वाली हिसा मादि पापों का मश व्रती को नहीं लगता, अत: वहाँ अणुव्रत भी महावत के समान होते हैं । जिन कार्यों के करने में बिना कारण पाप बन्ध होता है ऐसे कार्यों का त्याग करना अनर्थदण्ड नत है । अनर्थदण्ड के पाँच भेद हैं:- १ हिंसा-प्रदान, २ पापोपदेश, ३ दुःश्र ति, ४ अपध्यान और ५ प्रमादचयी।। _तलबार, छुरी, भाला, धनुष बाण, बन्दूक, चाकू, विष, अग्नि प्रादि हिंसा के उपकरणों का दूसरे लोगों को देना हिंसा प्रदान अनर्थवण्ड है। के Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) पदार्थ दूसरों को देने से अपना प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता परन्तु उन पदार्थाः से अन्य व्यक्ति हिंसा कर सकता है । इसके सिवाय कुत्ता, बिल्ली, नौला आदि हिंसक जानवरों को पालना भी इसो ग्रनर्थदण्ड में सम्मिलित है। खेती करने तथा बहत प्रारम्भी व्यापार करने, जिन उद्योगों में जीव हिंसा अधिक होती हो ऐसे कार्यो के करने की सम्मति तथा उपदेश देना 'पापोपदेश' अनर्थदण्ड है। किसी की विजय (जीत), किसी की पराजय (हार), किसी की हानि किसी का लाभ, किगी का वध, भरण, रोग, इट-वियोग, अनिष्ट-संयोग आदि सोचना, विचारना, अपत्यान अगर्थदण्ड है । ऐसा करने से व्यर्थ पाप बन्ध हया करता है। राग, टेप क्रोध, कामवासना, भय, शोक, चिन्ता दुर्भाव उत्पन्न करने वाली बातों का कहना, सुनना, सुनाना, पाल्हा आदिक पुस्तका का पढ़ना सुनाना, युद्ध की, तथा शिकार खेलने की बातें सुनना सुनाना द:थ ति अनर्थदण्ड विना प्रयोजन पृथ्वी खोदना, जल बखेरना, आग जलाना, हवा करना पेड़ पौधे आदि तोड़ना मरोड़ना आदि कार्य प्रमादचर्या अनर्थदण्ड हैं। इसके सिवाय पाप-बन्ध-कारक बिना प्रयोजन के जो कार्य हैं ये सभी अनर्थदण्ड हैं। शिक्षावतानि चत्वारि ॥१७॥ अर्थ-शिक्षानत चार हैं-१ सामायिक, २ प्रोषधोपवास, ३ भोगोपभोग परिमारण, ४ अतिथिसंविभाग। जिनके आचरण करने से उच्च चारित्र धारण करने की शिक्षा मिलती है उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं । सामायिक: समस्त इष्ट पदार्थों से रागभाव और अनिष्ट पदार्थों से द्वैप भाव छोड़ कर समताभाव धारण करना, प्रात्मचिन करना, परमेष्ठियों का चिन्तवन करना, वैराग्य भावना भाना सामायिक है। शरीर शुद्ध करतो, शुद्ध वस्त्र पहन कर एकान्त शान्त स्थान में मन वचन काप शुद्ध करके, सामायिक करने के समय तक पत्र पापों का त्याग करके पहले लिखी हुई विधि के अनुसार प्रातः, दोपहर, शाम को सामायिक करना पहला शिक्षानत है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६) एरहिरदावर्तन प- । नरडिरदेरक मनदर्शियदिवेरसा - ॥ दरदि त्रिसञ्जयोळु नुत जिन - । वररं स्तुतिगेयव मानवं सामयिकं ॥ अब यहां संस्कृत भाषा का सामायिक पाठ दंते हैं, समायिक करते समय इसको पढ़ना चाहिये। ॥सामयिक पाठ । सिद्धं सम्पूर्णभस्यार्थ-सिद्धेः कारणमुत्तमम् । प्रशस्तदर्शनज्ञानचारित्र-प्रतिपावनम् ॥१॥ सुरेन्द्रमुकुटाश्लिष्ट-पादपद्मांशुफेसरम् । प्रणमामि महावीरं लोकत्रितयमङ्गलम् ॥२॥ सिद्वस्तुवचो भक्त्या, सिद्धान प्रणमतां सदा । सिद्धकार्याः शिवं प्राप्ताः सिद्धि ददतु नोऽव्ययाम् ॥३॥ नमोस्तु धुतपापेभ्यः सिद्धेभ्यः ऋषिपरिषदम् । सामायिकं प्रपद्यऽहं भवभ्रमरणसूदनम् ॥४॥ समता सर्वभूतेषु, संयमे शुभभाषना । प्रातरौद्रपरित्यागः तद्धि सामायिक मतम् ॥५॥ साम्यं मे सर्वभूतेषु, वैरं मम न केनचित् । प्राशाः सर्वाः परित्यज्य समाधिमहमाश्रये ॥६॥ रागद्वेषानममत्वाद्वा हा मया ये विराषिताः । क्षाम्गन्तु जन्तवस्ते मे, तेभ्यो मृष्याम्यहं पुनः ॥७॥ मनसा, वपुषा, बाचा कृतकारितसंमतः । रत्नत्रयभवं दोष गहें निन्दामि वर्जये ।।।। तैरश्चं मानवं देवमु पसर्ग सहेऽधुना। कायाहारकषायादि प्रत्याख्यामि त्रिशुद्धितः ॥६॥ राग द्वेषं भयं शोकप्रहर्षीत्सुक्यदीनता । व्युत्सृजामि त्रिधा सर्वामरति रतिमेव च॥१०॥ जोविते मरणे लाभेलामे योगे विपर्याये । बंधावरौ सुखे दुःखे, सर्वदा समता मम ॥११॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) आमिव मे सदा ज्ञाने दर्शने चरणे तथा । प्रत्याख्याने ममात्मैव, तथा संसारयोगयोः ॥१२॥ एको में साश्वतश्चात्मा ज्ञानदर्शनलक्षरणः । शेषा बहिर्भबा भावाः सर्वे सांयोगलक्षणाः ॥१३॥ संयोग मला जीवेन प्राप्ता दुःख परम्परा । तस्मात् संयोग सम्बन्ध त्रिधा सर्वं त्यजाम्यहं ।।१४।। एवं सामायिकं सम्यक सामायिक मखण्डितम् । वर्ततां मुक्तिमानिन्या वशीचूर्णायितं मम ।।१५॥ शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदायें:, सद्वृत्ताना गुरगगरणकथा दोषवादे च मौनम् ।।१५।। सर्वस्यापि प्रिय हितवचो भावना चात्मतत्त्वे । संपद्यन्तां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्ग ॥१६।। तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पदद्वये लोनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद्यावनिर्वाणसप्राप्तिः ॥१७॥ अरूखरपयथिहीरणं मताहीणं च जमये भरिणयं। तं खमउ गाण देव य मज्झवि दुक्खक्खयं दितु ॥१८॥ दुक्खक्खनो कम्मक्खनो समाहिमरण च बोहिलाहोय । मम होउ जगतबंधव जिरणवर तब च रगस रणरण ॥१६॥ इति सामायिक पाठ स्पर्शन,रसना,प्राण,चक्ष, कर्ण इन पांचों इन्द्रियों को अपने अपने विषय से रोककर अन्न, पान, खाद्य, लेह्य इन चार प्रकार के आहार को आठ पहर के लिए अष्टमी, चतुर्दशी पर्व दिनों में त्याग करना उपवास है । एक ही बार भोजन करना एक मुक्त या प्रोषध कहलाता है । प्रोषध (एकाशन) के साथ जपवास को प्रोषधोपवास कहते हैं, यानी-अष्टमी, चतुर्दशी के दिन उपवास और एक दिन पोछे एक दिन पहिले एकाशन करना । चारों प्रकार का प्राहार त्याग कर के पानी को रखलेना इसे भी एकाशन कहते हैं। सब सरस पाहार को त्याग कर अथवा नीरस पाहार को लेना अथवा कांजी (मा.) या पानी लेकर अन्न भोजन १६ पहर का छोड़ना भी प्रोषधोपवास अत है । ... अन्न, पान, गंध, पुष्प माला इत्यादि एक बार भोगे जाने वालो भोगवस्तु, Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (s) वस्त्र, आभूषण श्रादि उपभोग वस्तुओं को समय की मर्यादा करके त्याग करना कि इतनी देर अमुक पदार्थ हम ग्रहण नहीं करेंगे, नहीं भोगेंगे, इसे भोगोपभोग परिमाण कहते हैं । उसमें संघात कारक, प्रमाद कारक, बहुबंध कारक, अनिष्ट और अनुपसव्य पदार्थों का यमनियम करना चाहिये। जिन पदार्थों के खाने से अस जीवों का घात होता है वे स घात कारक पदार्थ, मांस, मधु आदि है । जैसे कहा है -m श्रामासु च पक्कासुच विपच्यमानासु मांसपेशीषु । उत्पत्तिर्जीवानां तज्जातीनां निगोदानांम् ॥ यः पक्कं वाऽपक्वांवा पलस्यखण्डं स्पृशेच्च । हन्ति किलासौ खण्डं बहुकोटो नांहि जीयानाम् ॥ अर्थ -- मांस की डली कच्ची हो या पक्की, ( सूखी, अग्नि से भुनी ) हो उसमें उसी जाति के निगोदितया जीव सदा उत्पन्न होते रहते हैं । जो मनुष्य कच्चे पके, सूखे को छूता है वह भी करोड़ों जीवोंकी हिंसा करता है - यानी मांस छूते ही मांस के जीव मर जाते हैं । प्रमाद या नशा करने वाले चरस, भांग, गांजा, शराब आदि पदार्थों का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि इन पदार्थों के खाने पीने से नशा होता है जिस से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । मद्यपान करने वाले को जाति-भेद आदि विवेक नहीं रहता। शराब पीने के कारण शराबी को प्रमाद अधिक होता है, विषय वासना जाग्रत होती है। मद्य सेवन करने वाले को अपनी स्त्री या माता का भेदभाव नहीं होता । उसके लज्जा ग्रादि सभी गुण नष्ट हो जाते हैं, उसके कामविकार बढ़ता जाता है। मद्य पीने वाले किसी दोष से बच नहीं सकते । पंक्ति- . भोजन या गोष्ठी में बैठने योग्य नहीं रहते । I तुरन्त व्याही हुई गाय का दूध तथा जिन पेड़ों में दूध निकलता हो उनके फल ( बरगद पीपर यदि ) का दूध, शहद इत्यादि को सदा के लिए छोड़ देना चाहिये । फुल, अचार, अदरक, प्याज, मूली की जड़, आलू, गाजर, श्रादि कंद चलित पदार्थ, यानो देर तक खखे रहने से जिन दाल साम आदि पदार्थों का रस बिगड़ गया हो, ऐसे पदार्थों के खाने से अनन्त जीवों का घात होता है । इसलिए इनको त्याग देना चाहिए। क्योंकि इनमें जीवघात बहुत होता है और फल थोड़ा होता है अतः Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे 'बहुधात अल्पफल' वाली वस्तुयें छोड़ देनी चाहिये । बहुधात अल्पफल-दायक अन्य पदार्थ, गोली हल्दी, सूरण, वन्द ताड़, शकरकन्द गोभी, अरबी, इत्यादि में अनन्त जीव होते हैं, अतः इनके खाने से घात अधिक होता है। फल थोड़ा मिलता है। तथा दो अन्त मुहूर्त बाद के मक्खन का भी दयालु श्रावक को त्याग कर देना चाहिये कहा भी है-- जो पदार्थ अपनी प्रकृति के विरुद्ध हो, जिनके खाने रोने से स्वास्थ्य बिगड़ जावे, अनेक तरह के रोग जिनसे उत्पन्न हों, ऐसे पदार्थ अनिष्ट कहलाते हैं, उनका त्याग कर देना चाहिये । जैसे खांसी के रोग बाले को बर्फी, हैजे वाले को जल तथा अतिसार रोग वाले को दूध अनिष्ट है । जो पदार्थ सत्पुरुषों के सेवन करने योग्य न हों उन्हें अनुपसेव्य कहते हैं जैसे गाय का मूत्र आदि । ऐसे अनुपसेव्य पदार्थों का भी त्याग कर देना चाहिये। इन ही अभक्ष्य पदार्थो के विषय में श्री समन्तभद्र प्राचार्य ने कहा है अल्पफलबहुविधताम्मूलकर्माद्रारिण शृङ्गवेराणि । नवनीतनिम्ब कुसुमं कतकमित्येवमवहेयम् ॥ पदनिष्टं तद् प्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात् । अभिसन्धिकृता विरतिविषयायोगात कृता भवति । यानी-बहुविघात, व सघात, मादक, अनिष्ट तथा अनुपसेव्य पदार्थों का अभिप्राय पूर्वक (समझ बूझकर) त्याग करना चाहिए। अभक्ष्य पदार्थ त्याग कर देने पर जो पदार्थ खाने पीने योग्य (भोग्य) हैं तथा जो पदार्थ उपभोग ( बार बार मोगने में पाने वाले वस्त्र, भूषण, मोटर मकान आदि ) करने योग्य हैं उनका भी शक्ति और आवश्यकता अनुसार यम तथा नियम रूप से त्याग करना चाहिए। __ जन्म भर के लिये त्याग करना यम है । मांस भक्षण,परस्त्री सेवन, वैश्या गमन, प्रादि महान कुकृत्यों का त्याग यम रूप से ( जन्म भर के लिए ) करना चाहिए। दिन, पक्ष, ग्रास, घड़ी घंटा आदि कुछ समय की मर्यादा से त्याग करना नियम कहलाता है। इस तरह भोग्य उपभोग्य पदार्थों का यम नियम रूप से परिमाण करना और शेष का त्याग करना भोगोपभोग परिमारण व्रत है । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) अतिथि संविभाग व्रत शुद्धात्मा की एकत्व भावना में लीन रहने वाले, राग, द्वेष विषयों से विरक्त, ऋद्धि से गर्द रहित नीरस आहार करने वाले, चारों पुरुषार्थो के ज्ञाता, मोक्ष पुरुषार्थ करने वाले, चुल्हा, चक्की, ओखली, (स्खण्डिनी) बुहारी (प्रर्माजनी) तथा उदक कुम्भ ( पानी भरना आदि ) इन ५ सूना कार्यों के त्यागी इहलोक भय, परलोक भय वारणभय, अगुणिभय, मरणभय, वेदनाभय, आकस्मिक भय, इन सात प्रकार के भयों से रहित, पल्य, सागर, सूच्यङ्गल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगत्श्रेणी, लोक प्रतर, लोक पूर्ण ऐसे प्रकार के प्रभाग के निपुण ज्ञाता, € प्रकार के ब्रह्मचर्य सहित १० प्रकार संयम से युक्त तपस्वी को निर्दोष, आहार श्रीषधि, उपकरण, ग्रावास ऐसे चार प्रकार के दान देना वैयावृत्य हैं । उन पर श्रामी हुई आपत्ति को दूर करना, उनकी थकावट दूर करना, उनके पांव दबाना, पर धोना, ये सब वैयावृत्य हैं । ये सब किया श्रावकों के गृहस्थाश्रम के होने वाले पापों को धोने वाली हैं । "गृहकर्मरण पिनिचित कर्म विमष्टि खलु गृहविमुक्तानां प्रतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमल धावते वारि" श्रर्थात्- गृहमुक्त अतिथियों की पूजा भक्ति गृहस्थों के गृह कर्म से बंधने वाले कर्म को नष्ट कर देती है । जैसे जल रुधिर को धो देता है । विधि द्रव्यदातृपात्रभेदाराद्विशेषः । 1 यानी — दान करने की विधि, दान देने योग्य द्रव्य दाता तथा पात्र (जिसको दान दिया जावे ) इन चारों की विशेषता से दान तथा दान के फल में विशेषता आजाती हैं | दान करने से साक्षात् पुण्य कर्म का बन्ध होता है और परम्परा से मुक्ति की प्राप्ति होती है। चाहिये । कनडी श्लोक मनेगेळ्तरे सत्पात्रमि देन गभिमत फलमनोयले तंदुदुस -1 मुनिरूपदीकल्पा | afroहमेनासिदंदु रागरस संभ्रमवि ।। १३५ ।। नवधा भक्ति मुनि यदि पात्रों को दान नवधा ( नौ प्रकार को ) भक्ति से देन . Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१) १-प्रतिग्रह ( अपने द्वार पर आये हुए मुनि को ' प्राइये, ठहरिये, अन्न, जल शुद्ध हैं, कहकर पडगाहना, ठहराना). २उच्च स्थान (घर में लेजाकर उन्हें ऊच्चे स्थान कुर्सी तख्त आदि पर बिठाना ), ३-पादोदक (उनकं चरण धोना ४--उनकी अष्ट द्रव्य से पूजा करना. ५- उनको प्रणाम करना, ६-मनशुद्धि बतलाना, ७- बचन-शुब्धि बतलाना, ८-काय-शुद्धि बतलाना, और हैभोजन शुद्धि बतलाना, ये नवधा भक्ति हैं। मुनियों को ऐसा निर्दोष आहार पान आदि देना चाहिये जिससे उनके स्वाध्याय, ध्यान आदि में विघ्न न पाने पावें । पांच पाश्चर्य तीर्थकर आदि विशेष पात्र को विधि पूर्वक आहार दान करने से पांच प्रकार के आश्चर्य होते हैं--१-रत्न वर्षा २- पुष्पवर्षा ३-सुगन्धित वायु चलना, ४–देव दुन्दुभि बजना, ५-आकाश में देवों द्वारा जय जयकार होना। दाता के गुरण सद्धाभक्तोतुट्ठीविण्णाणमलुद्धयाखमासन्ती, जत्थेदे सन्तगुरणा तं दायारं पसंसति । अर्थ-जिस दान करने वाले दाता में १-श्रद्धा, २-भक्ति, ३-संतोष, ४-विज्ञान ५-निर्लोभता, ६-क्षमा, ७--शक्ति, ये सात गुण होते हैं, उस दाता की सभी लोग प्रशंसा करते हैं। नेरद त्रिशक्ति भक्तिद। लरिवौदार्य दयागुरणं क्षमे एंबि॥ तुरगिद गुणवेळ रोळं। मेरेविदुद दाबुददुवे दातृ विशेषं ॥११६।। अर्थ--भेदाभेद रलत्रय के आराधक मुनि सुपात्र उत्तम पात्र कहलाते हैं। देशसंयत श्रावक मध्यम पात्र कहलाते हैं । असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। इस तरह पात्र के तीन भेद हैं । चारित्राभास कुचारित्र वाले स्वभाव से पापी और मार्दव आदि गुणों से रहित, अपने मनमाने धर्म के अनुसार चलने वाले कुपात्र हैं 1 सप्त व्यसन में प्रासक्त, दम्भी हासप्रयुक्त कथा तथा प्रलाप करने वाले, हमेशा माया प्रपञ्च युक्त ये सभी अपात्र हैं। इनको दिया हुआ दान निष्फल तथा संसार का कारण है ऐसा जिनेंद्र भगवान ने कहा है। इसलिये कमी भी ऐसे अपात्रों को दान न देना चाहिये । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( २०२) बेविगे परिद नीरिन । पाविगार्तरद पालपय चुलिगिब। भार्वािस मानपुपकृति । यथोलेदा पात्र दानदाविषमतेयं ॥११७॥ अर्थ--इन अपात्रों को दान देने से जैसे नीम के पेड़ को मोठे पानी से सींचा जावे तो भी वह फल कडुवा देता है इसी तरह कुपात्रों को दिया हुआ दान संसार-भ्रमण का कारण होता है । इसलिये दयालु सम्यग्दृष्टीश्रावकों को अपने हित के लिये सत्पात्र को दान देना चाहिये। कुपात्र दान से कुभोगभूमि में उत्पन्न होकर कुत्सित भोगों के अनुभव करने वाले होते हैं। अतः कुपात्र को त्यागकर सत्पात्र को दान देना ही इहलोक व परलोक में आत्म-कल्याण का कारण है । बालवृद्ध, गूगा, बहरा व्याधि-पीड़ित दीन जीव को यथोचित वस्तु देना कम्णा दान कहलता है। सत्पात्र को दान देने वाला सम्यग्दृष्टि जीव कल्पवासी देवों में जन्म लेकर संसार के भोगों को असुभव कर कुछ समय के बाद मुक्त होता हैं। कुछ मार्दव प्रार्जव गुण-रहित मिश्याष्टि जीव सत्पात्र को दान देने के कारण उत्तम, मध्यम,जघन्य भोग भूमि में उत्पन्न होकर और बहाँ के सुखानुभवकर पूर्व विदेह को जाते हैं । पूर्व विदेह के पुष्करावतो विषय सम्बन्धी सविय सरोवर के किनारे पर श्रीमती तथा बज्र जन्ध दोनों ने श्री सागररोन मुनि को आहार दान दिया और उस समय पाहार दान की अनुमोदना करने वाले वाघ सूकर, बन्दर और नेवला यह चार जीव भोगभूमि के सुख को प्राप्त हुये तथा उस बज्रजघकी परम्परा से मादिनाथ भगवान के भव में उनके पुत्र होकर मुक्त होगये और श्रीमती का जीव अभ्युदय सुख-परम्परा को प्राप्त होकर राजा श्रेयांसकुमार हुआ उसने भगवान आदिनाथ को दान देकर दानतीर्थ की प्रवृत्ति की तथा सिद्धपद प्राप्त किया इस भरत क्षेत्र सम्बन्धी आर्यखण्ड में मलयदेश के रत्न संचय पुर के शासक श्री सेए राजा ब उनकी रानी सिंहह्नन्दिता, आनंदिता सत्यभामा ब्राह्मणी इन चारों ने अनंतगति और अदिजय नामक दो चारण मुनियों को दान दिया तथा उस दान का अनुमोदना की, जिसके फल से वे अनुपम सुख भोगी हो गई। सत्पात्र वान का फलई दोरे युत्तम पात्र-। फादर दिदित्त दान फलमेगेयुवा ॥... नोवयमिल्लिद नरपशु -। चाविनोळे बगेदुनोडेकुरिगळभावं.॥११॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) ई बोरेयु पात्रमं पडे-। दादं बडय निधानम पडेववोलु ॥ त्पादिसिमुदम मनबो -। सादरदिदित्त दानुमदु केवलमे ॥११॥ सुक्षेत्रमागि केलसन - यक्षता पडेदुपपदोमले कोळदरोळ् । निक्षिप्तमादबीजं- । साक्षात्फलमेंतुटेतद्दानफलं ॥१२०॥ भरतादि क्षितिपालकगुंदितलोभाशक्तिथिदादुदी । सिरि भिक्षातिगळार्गे कोटटु तिरियुत्तं बंदपपुण्यदों ॥ दिरविंद सिरिनिल्कुमिल्लदोडे तांमुपोकुमेदेवु लो। भरे निप्पेग्गिके पात्रदानसेयशः पुण्यद्धियं ताळ दिरे ॥१२२।। परमानन्द दि वन जंघनरपं सत्पात्र दान क्रिया -1 निरतं सप्रियनुत्तरोत्तर कुरु श्री नाथ नादंदुतं । नरपाल प्रियकारिगळ नकुलगोळांगुळशार्दू लसू - करिगळ दानदोडबडि पडेदुधा भोगोवियोळ भोगम॥१२२॥ माडिद पात्रदान विभवं बिभवास्पद भोगभूमियोंळ । माडिनिवासमं वसथमन्ते विभूषण तूर्य भाजनो । न्मोड सुदीप्ति दोप्तिवर भाजनपानद कल्प भूर हुं - माडि मनोनुराग दोदप्रियवार बधू विराजित ।१२३॥ रतिवर रतिवेगाव्हायं । कृत सुकृत कपौल मिथुनमुत्तमपात्रं । नुत शानदोडंबडिकेयि । नतिशय सुखनिरतखचरदंपतियादर् । श्रीषेपं प्रियळायत । वेषंगतदोष निखिल विषयज सुखसंतोषंसुखामृतरिणय । तोषाकरनागिपरम पदम पडेंदं ॥१२५।। इस पात्रदान के फल से:उत्तमपात्रदान फर्लाद निज कोति विळास मादिशा-। भिसिगळ पळ चलेय सार सुखप्रद कल्प वृक्षस-। धृत्तविभासि भोग भुवनास्पद देवधिळासिनी महो। धृत्तपयोधरावसथ मोक्ष सुखनिजहस्त संगतं । १२६। वित्तमदागदादोडमवाग दुचित मदादोडं गुरगोन दाससहाय संपदमदागद वादोड मागदलतेतुत्तमपात्रिमन्तिनिदु मागळ पूपुवळापहारियः। प्पुत्तमदानवियमदनन्त चतुष्टयमागदिक्कुमे ।१२७॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) प्रदरिंदी निरति चारा । स्पद मागिर लन्नदानमं माळ केमहा। . भ्युदय सुखमूलम शिव- प्रवमहिनिक्षिप्त वीज भन्यजन ।१२८। अर्थ-इस तरह राजा और रानी ने दान देकर उसका उत्तम फल प्राप्त किया, जो मनुष्य दान नहीं करते उन मनुष्यों का जीवन बकरे के समान है, जो सदा घास पत्तो खाया करता है और किसी दिन बधिक ( कसाई ) की छुरी से मारा जाता है ॥११॥ राजा श्रीषेण पात्रदान करने की भावना से वन को नहीं गया था, उसको तो अकस्मात् चारण मुनि सौभाग्य से प्राप्त हो गये, उनको दान देकर उसने जब श्रष्ट फल प्राप्त किया तो जो व्यक्ति पात्र दान के लिये सत्पात्रों • को ढूंढने का श्रम करते हैं सत्पात्र मिल जाने पर उन्हें दान देकर सन्तुष्ट होते हैं, उनके फल के विषय में तो कहना ही क्या है ॥११६।। जिस तरह भूमि को पत्थर आदि हटाकर शुद्ध कर लेने पर, उसमें खाद झालने के अनन्तर ठीक रीति से यदि बीज बोया जावे और आवश्यकतानुसार उसमें जल सींना जावे तो कामह भी लिना फा दिये रोगी ? अर्थात् नहीं । इसी तरह सत्पात्र को दिया हुया दान अवश्य फल प्रदान करता है ।।१२० भरत आदि चक्रवर्ती सम्राट लोभ कषाय या कंजूस होने के कारण नहीं हुए, वे उदारता से दान देने के कारण इतने बड़े बैभवशाली हुए। भिखारी ने पहले भव में किसी को कुछ नहीं दिया, इसी कारण उसका जीवन भीख मांगते मांगते ही समाप्त हो जाता है । पुण्य कर्म के उदय से धन वैभव प्राप्त होता है और बह वैभव स्थिर रहता है तथा बढ़ता रहता है। इस कारण सत्पात्र को दान करते रहो ।।१२१॥ राजा बनर्जच और श्रीमती ने बड़ी भक्ति से मुनियों को दान किया जिसके फल से वे उत्तोरत्तर उन्नति करते हुए मुक्तिगामी हुए । उनके उस पात्रदान को देख कर बन्दर, सिंह, शूकर और न्यौले ने उस दान की अनुमोदना की। उस अनुमोदना से वे पशु भी भोगभूमि में गये तथा अन्त में मुक्तिगामी हुए ।।१२२॥ पात्र को दान करने से भोग भूमि में जन्म होता है जहां पर गहांग, भोजनांग, वस्त्रांग, माल्यांग, भूषणांग, तुओंग, भाजनांग,ज्योतिरंग, दीप्तिअंग पानांन इन १० प्रकार कल्पवृक्षों के द्वारा समस्त भोग उपभोग की सामग्री प्राप्त होती है तथा सुन्दर गुणवती स्त्रियां प्राप्त होती हैं ॥१२३॥ रतिवर तथा रतिकेगा नामक कबूतर कबूतरी ने सत्पात्र को दान देते Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) हुए देखा, उस दान की दोनों ने अनुमोदना की। उस दान अनुमोदना के फल से वे दोनों भवान्तर में विद्याधर विद्याधरी हुए ।। १२४ ॥ राजा श्रीषेण तथा उनकी रानियों ने बहुत मानन्द से जीवन व्यतीत किया तथा सत्पात्र दान के कारण वे उत्तरोत्तर श्रेष्ठ फल प्राप्त करते रहे ॥ १२५ ॥ सत्पात्रों को जिन्होंने दान किया, पहले तो उनकी कीर्ति समस्त दिशाओं में फैली, तदनन्तर दूसरे भव में उन्होंने भोगभूमि के सुखों का अनुभव किया । फिर वहां से स्वर्ग में जन्म पाकर दिव्य सुखों का देवांगनाओं के साथ बहुत समय अनुभव किया । तदनन्तर मनुष्य भव पाकर मुक्ति प्राप्त की ।। १२६ ।। पहले तो शुभकर्म के प्रभाव में धन नहीं मिलता, यदि धन मिल जावे तो सत्पात्र नहीं मिलता, यादि सत्पात्र मिल जाये तो पात्र दान करने की प्रेरणा करने वाले सहायक व्यक्ति नहीं मिलते। यदि पुत्र, स्त्री, मित्र आदि दान करने में अनुकूल सहायक भी मिल जायें तो फिर सत्याओं को दान करने से अनन्त चतुष्टय प्राप्त होने में क्या सन्देह है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥ १२७ ॥ सत्पात्रों को आहार दान करने से महान अभ्युदय प्राप्त होता है। जिस तरह निर्दोष भूमि में बीज डालने से फल प्रवश्य मिलता है, इसी तरह भव्य द्वारा सत्पात्र को दिया हुआ दान अवश्य मोक्ष फल देता है || १२८॥ इस प्रकार जिनको संसार रूपी दुख से जल्दी निकल कर निश्चित सुख पाना हो तो दाता के गुरण सहित चार प्रकार का दान सदा देना चाहिये । संक्षेप में दाता के सात गुणों का खुलासा किया जाता है। दान-शासन तथा रयणसार आदि ग्रन्थों में दाता के सप्त गुरणों का निम्न प्रकार वर्णन किया है कनड़ी श्लोक दाता का लक्षण सदा मनः खेदनिदानमाना, न्वितोपरोधं गुरण सप्तयुक्तः । त्रिकालदातृप्रसुवैहिकार्थी, नतंच दातारमुशन्ति सतः ॥ अर्थ- जो व्यक्ति दान कार्य में 'हाय ! जन्म भर कमाया हुआ धर्म मेरे हाथ से जाता है, इस प्रकार मन में खेद नहीं करता है, जो दान के बदले में कुछ चाहता नहीं, श्रभिमान व पर- प्रेरणा से रहित होकर दान देता है और दाता के लिये सिद्धांत शास्त्र में कहे गये सप्तगुणों से युक्त है, जिसे भूत भविष्यत घर्तमान काल सम्बन्धी दाताओं के प्रति श्रद्धा है और जिसे ऐहिक सुख की इच्छा नहीं है श्राचार्यों ने उसी बाता की प्रशंसा की है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ । बिनयवचनयुक्तः शांतिकांतानुरक्तो । नियतकरणवृत्तिः संघजातनसक्तिः ।। शमितमदकषायः शांतसन्तिरायः । स धिमलगुणविशिष्टो दातृलोके विशिष्टः ॥ अर्थ-जो विनय वचनयुक्त है, शांति का अनुरागी है। इन्द्रियों को जिसने वश में कर रखा है, जिसे जैन संघ में प्रसन्नता है, पाठमद और कषाय को जिसने शांत किया है। एवं जिसके सर्व अन्तराय दूर हो गये हैं और निर्मल गुणों को धारण करने वाला है । उसे उत्तम दाता कहते हैं । और भी कहते हैं। वैद्या नृप्रकृतिर्यथानलविधि ज्ञात्वैव रक्षन्ति तान् । सर्वष्टा दशधराम्य लोभमतयः क्षेत्र यथा कार्षिकाः॥ गांधरार्थना शान्ति बगया रक्षेयुरुर्वीश्वराः । नित्यं स्वस्थलवतिनो वृषचितो धर्म च धर्माश्रितान् ॥ १० अर्थ-जिस प्रकार वैद्य रोगियों की प्रकृति वा उदराग्नि को जानकर और योग्य औषधि वगैरह देकर उनकी रक्षा करते हैं, जिस तरह किसान अपने खेत की रक्षा करते हैं, ग्वाले दूध के लिये गाय की रक्षा करते हैं, एवं राजा जिस तरह अपने राज्य की रक्षा करते हैं। उसी तरह धर्मात्मा लोग आहार दान द्वारा धर्म की तथा मुनि अादि धर्मात्माओं की रक्षा करते हैं । औषध-बान-रोग दूर करने के लिये शुद्ध औषधि (दवा) प्रदान करना प्रौषधदान है । मुनि आदि व्रती पुरुषों के रोग निवारण के लिये उनको प्रासुक औषध आहार के समय देना चाहिये, भोजन भी ऐसा होना चाहिये जो रोगबृद्धि में सहायक न होकर रोग शान्त करने में सहायक हो । अन्य दीन दुःखी जीवों का रोग दूर करने के लिए करुणा भाव से उनके लिए बिना मूल्य औषध बांटना, औषधालय खोलना, बिना कुछ लिये मुफ्त चिकित्सा करना औषधदान है । मौषधदान में वृषभसेन प्रसिद्ध हुआ है। ज्ञान-दान-- मुनि व्रती स्यागी पुरुषों को स्वाध्याय करने के लिये शास्त्र प्रदान करना, ज्ञानाभ्यास के साधन जुटाना तथा सर्वसाधारण जनता के लिए पाठशाला स्थापित करना, स्वयं पढ़ाना, प्रवचन करना उपदेश देना, जिन याणी का उद्धार करना, पुस्तके बॉटना ज्ञानदान है । ज्ञान पान में कोपडेश प्रसिद्ध हुमा है। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७ ) अभयदान मुनि आदि अनगार व्रतियों के ठहरने के लिये नगर के बाहरी प्रदेशों, वन, पर्वतों में तथा नगर पुर में मठ बनवाना, जिसमें कि जङ्गली जीवों से सुरक्षित रहकर वे ध्यान आदि कर सकें। आगन्तुक विपत्ति से उनकी रक्षा करना तथा साधारण जनता के लिए धर्मशाला वनवाना, विपत्ति में पड़े हुए जीव का दुःख मिटाना, भयभीत प्राणियों का भय मिटाना प्रादि अभयदान है। अभयदान में शूकर प्रसिद्ध हुया है। इन प्रसिद्ध व्यक्तियों की कथा अन्य कथा ग्रन्थों से जान लेना चाहिये। दान का फल सौरूप्यमभयादाहुराहाराद्भोगवान् भवेत् । श्रारोग्यमौषधाद्ज्ञेयं श्रुतात् स्यात् श्रुतकेवली ॥ गृहाणिनामता नैव तपोराशिभवाशः। सम्भावयति यो नैव पावनः पादपांशुभिः ॥ देव धिष्ण्यमिवाराव्यमध्यप्रभृति यो गृहं । युष्मत्पावरजःपातःधौतनिःशेषकल्पषः।। अर्थ-पाप कर्मों से निर्मुक्त, पवित्र पुण्य मूर्ति ऐसे तपस्वियों के पाद (चरण) में लगी हुई धूलि जिनके गृह में पड़ गई है ( या ऐसे मुनियों ने जिनके गृह में प्रवेश किया है ) वह गृह देव गृह से भी अधिक पवित्र समझना चाहिए। उस तपस्वी को झुककर नमस्कार करने से उत्तम कुल की प्राप्ति होती है। नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान देने वाले दाता अनेक भोग और उपभोगों के भोगने वाले होते हैं । शास्त्र दान देने से जगत में पूज्य तथा अगले जन्म में उसी दान के फल से श्रुत केवली होता है । उत्तम सर्वागों से सुन्दर शरीर वाला होता है, भक्ति से स्तुति करने वाले इस जन्म और पर-जन्म में धवल कीर्ति पाता है । तथा देवगति को प्राप्त होकर वहाँ के भोग भोग कर अन्त में मनुष्य लोक में आकर अत्यन्त सुखानुभव करता है फिर तपश्चरण करके कर्म क्षय करने के बाद मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है। झंभयदान से (सम्पूर्ण जीवों पर दया तथा अभय करने से) इस लोक में तथा परलोक में निर्भय होकर इह लोक में सुख पूर्वक शत्रु रहित अपना जीवन पूर्ण करता है अन्त में निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है। सप्त शीलानि ॥१८॥ अर्थ--सात शील इस प्रकार हैं। तीन गुणव्रत और पार शिक्षाप्रत मिलकर सात शील होते हैं । पहिले Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) शिक्षानतों और गुणन्नतों का वर्णन हो चुका है। जैसे बाड़ खेत की रक्षा करती है उसी तरह शील अहिंसा आदि व्रतों को रक्षा करते हैं। अब अतिचार कहते हैं व्रतशीलेषु पंच पंचातिचाराः ॥१६॥ अर्थ-पांच व्रतों तथा ७ शीलों के ५-५ अतिचार होते हैं। व्रतों में कुछ त्रुटि होना अतिचार है । उन अतिचारों को बताते हैं--- १-- अहिंसाणुनत के ५ अतिचार हैं--- १- ररसी आदि से पशुओं को बांधकर रखमा २-उन्हें समय पर चारा पानी न देना, ३-डण्डे आदि से मारना, ४-उनकी नाना आदि छेदना, ५-अधिक बोझा लादना ये पांच अहिंसावत के अतिचार हैं ? २--सत्यारणुव्रत के पांच अतिचार १ मिथ्याल्व का उपदेश देना, सुनना, २ स्त्री पुरुषों की एकांत में सुनी हुई बात को सुनकर प्रगट करना ३ , कूट लेखादि' या झूठे लेखादि बनावटी बहीखाते लिखना ४ , किसी की रक्खी हुई धरोहर को घटा कर देना ५ , किसी भी तरह की चेष्टा से मन्त्र आदि का प्रकट करना , ये पाँच सत्याणुव्रत के प्रतिचार हैं ? ३ अचौर्याणुव्रत को पांच अतिचार १ स्वयं चोरी न करके चोरी का उपाय बताना, २ चोरी का धन लेना, ३ नापने तोलने के बांट कमती ज्यादा रखना, ४ राजा की प्राज्ञा का उल्लंघन करना, ५ अधिक मूल्य की वस्तु में कम मूल्य बाली वस्तु मिलाकर बेच देना; यह अचौर्याणुव्रत के पांच अतिचार हैं। ४ ब्रह्मचर्याणुव्रत के पांच प्रतिचार १ दूसरे का विवाह कराना, २ काम सेबन के लिए नियत अंगों के सिवाय अन्य अंगों से काम-क्रीड़ा करना, ३ काम की अधिक इच्छा रखना, ४ पति रहित स्त्रियों के घर आना जाना, ५ चुम्बन आदि में लालसा रखना, स्वदार संतोष व्रत के यह पांच अतिचार हैं। कहा भी है - अन्यविवाहकरणानंगक्रीड़ाविटत्वविपुलतृष-- इत्वरिकागमनं चास्मरस्य पंच व्यतीपाताः ॥ ५ परिग्रह परिमारग अणुयत के पांच अतिचार १ गाय भैस आदि का अधिक संग्रह करना २ घन आदि का अधिक संग्रह करना, ३ लाभ की इच्छा से अधिक भार लादना, ४ अन्य का ऐश्वर्य Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) देखकर अत्यन्त झाश्चर्य करना ५ और दानादि में संकोच करना; यह परिग्रह परिमाण भणुव्रत के ५ अतिचार हैं ? गुरग व्रत के अतिचार (१) पहाड़ टेकड़ी आदि पर, अथवा आकाश में (ऊर्व दिशा में) इतने गज या इतने धनुष चढेंगे आदि का जो नियम किया हो (२२) तथा खान, पानी आदि में इतने नीचे उतरेंगे, इससे अधिक नहीं जायेंगे इस प्रकार जो मर्यादा की हो, उस मर्यादा से बाहर अपने को कभी लाभादि होने पर चले जाना और लाभ के लालच में पड़ कर उस मर्यादा को उल्लंघन करना (३) पूर्व प्रादि पाठों दिशाओं की मर्यादा का उल्लंघन करना (४) इतनी दूर जावेंगे इस प्रकार जो मर्यादा की है उसको लाभ अधिक होता देख कर बढ़ा लेना, (५) की हुई मर्यादा को भूल जाना; ये पांच दिग्वत के अतिचार हैं। [१] मर्यादा किया हुअा जो क्षेत्र है, उसके बाहर से चीज को मंगाना, [२] मर्यादित क्षेत्र से बाहर नौकर आदि भेज कर काम कराना, [३] मर्यादा के बाहर अपनी ध्वनि के द्वारा यानी आवाज देकर सूचना देना, [४] अपनी मर्यादा के बाहर कंकड़ी आदि फेंक कर संकेत करना, [५] अपनी मर्यादा के बाहर अपना शरीर दिखाकर, इशारा आदि करके काम कराना रूपानुपात है। इस प्रकार ये पांच देशवत के अतिचार हैं। १-कन्दर्प-हंसी मजाक को राग-उत्पादक बातें करना, २-कौत्कुच्यशरीर की कुचेष्टा बनाकर हंसी मजाक करना, ३-मौखर्य--व्यर्थ बोलना, बकवाद करना, ४-ग्रसमीक्ष्याधिकरण--विना देखे भाले, बिना सम्भाले हाथी घोड़े रथ मोटर प्रादि वस्तुएं रखना, ५-भोगोपभोगानर्थक्य-भोग उपभोग के व्यर्थ पदार्थों का संग्रह करना, ये पांच अतिचार अनर्थदण्ड व्रत के हैं। शिक्षा व्रत के अतिचार सामायिक के अतिचार-१ मनःदुःप्रणिधान-सामायिक करते समय अपने मन में दुर्भाव ले आना, २-वचनदुःप्रणिधान-सामायिक के समय कोई दुर्वचन कहना, ३-कायदुःप्रणिधान-सामायिक में शरीर को निश्चल न रखकर हिलाना, डुलाना, ४-अनावर अचि से सामायिक करना, ५-स्मृत्यनुपस्थान सामायिक पाठ, मंत्र जाप आदि भूल जाना। ये सामायिक शिक्षा व्रत के ५ अतिचार हैं। प्रोषधोपवास के अतिचार-१ उपवास के दिन जीव जन्तु बिना देखे Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिना शोधे स्थान पर टट्टो पेशाब करना, २ बिना देखें, बिना शोधे वस्तुओं को रखना उठाना, ३ बिना देखे, बिना शोचे विस्तर विछाना, ४ अरुचि के साथ उपवास करना, ५ प्रोषघोपबास की क्रियाओं को भूल जाना । ये ५ अतिचार प्रोषधोपवास प्रत के हैं। भोगोपभोग परिमारण व्रत के अतिचार-१ सालत आहार करता, २ सचित्त अचित्त पदार्थ मिला कर भोजन करना ३ सचित्त पदार्थ से संबन्धित (छुआ हुआ) आहार करना, ४ काम उद्दीपक प्रमाद-कारक गरिष्ठ भोजन करना, ५ कच्चा पक्का भोजन करना । ये ५ अतिचार भोगोपभोग परिमाण व्रत के हैं। अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार-१ मुनि प्रादि को दिये जाने वाले अचित्त भोजन को किसी पत्ते आदि सचित्त वस्तु पर रख देना, २ अचित्त भोजन को पत्ते आदि सचित्त पदार्थ से ढक देना, ३ मुनि आदि के लिए आहार तयार करके याहार कराने के लिए दूसरे व्यक्ति को कहना, ४ ईर्ष्या भाव से दान करना, ५ आहार दान कराने का समय चुका देना, ये ५ अतिचार अतिथि संविभाग व्रत के हैं। कहा भी है कि:गृहकर्माणि सर्वाणि दृष्टिपूतानि कारयेत्। द्रवद्रव्यारिण सर्वाणि पटपूतानि कारयेत् ।। प्रासनं शयनं मार्ग मनभन्यञ्च वस्तु यत् । अदृष्ट तन्न सेवेत यथाकालं भजन्नपि ॥ मर्थ-घर के कार्य अच्छी तरह देख भालकर करने चाहिए, जल, दूध, काढ़ा, शर्वत आदि पतले बहने वाले पदार्थ वस्त्र से छानकर काम में लेने चाहिए । शयन (शैया-पलंग बिस्तर), प्रासन (बैठने का स्थान कुर्सी, तस्त, मूढ़ा, आदि) मार्ग (रास्ता) तथा और भी दूसरे पदार्थ हों उनको यथा समय बिना देखे भाले काम में न लेना चाहिए । दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम् । सत्यपूतं वदेवाक्यं मनःपूतं समाचरेत् ॥ मद्यपादिकगेहेषु पानमग्नं च नाचरेत् । तदमत्रादिसम्पर्क न कुर्वीत कदाचन ।। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) कुर्वन नावतिभिः सार्द्ध संसर्ग भोजनादिकम् । प्राप्नोति वाच्यतामत्र परच च न तत्फलम् ॥ अर्थ - भूमि पर देख भालकर पैर रखना चाहिए, कपड़े से छान कर जल पीना चाहिए, वचन सत्य बोलना चाहिए, अपना मन शुद्ध करके चारित्र आचरण करना चाहिए, शराब, भंग आदि पीने वालों के घर खान पान नहीं करना चाहिए। ऐसे मनुष्यों के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध भी नहीं रखना चाहिए । शुद्ध खान पान न करने वाले ग्रवती लोगों के साथ भोजन आदि का सम्पर्क कभी न करे। ऐसा करने से इस लोक में निन्दा होती है और परलोक में शुभ फल नहीं मिलता । कानड़ी श्लोक: व्रतहीनर संसर्ग, व्रतहीरित भुक्तं । व्रतहीनर पंक्ति, उरि सदागदमोथं । १२६० थानी - व्रती पुरुषों को व्रत -हीन पुरुषों के साथ संसर्ग नहीं रखना चाहिए, न उनके बर्तनों से अपने बर्तन मिलाने चाहिए, न व्रतहीन मनुष्यों के हाथ का बना भोजन करना चाहिए तथा न कभी अव्रती पुरुषों के साथ पंक्ति भोजन करना चाहिए 1 त्याज्य पदार्थ: चर्मपात्रेषु पानीयं स्नेहं च कुडुपादिषु । व्रतस्थो वर्जयेन्नित्यं योषितश्च व्रतोज्झिताः | ६ | वत्सोत्पत्ति समारभ्य पक्षात्प्राग्दग्धदुग्धकम् । तदध्यादि परित्याज्यमाजं गथ्यं च माहिषम् ॥७॥ नवनीतं प्रसूतं च शृङ्गवेर मसंस्कृतम् । पलाण्डु लशुरणं त्याज्यं मूलञ्च कलिङ्गकम् |८| अर्थ- चमड़े के बने हुए कुप्पे आदि में रखा हुआ घी, तेल आदि का व्रती पुरुष को त्याग कर देना चाहिए। व्रत रहित ( विधर्मी ) स्त्रियों का पाणिग्रहण न करना चाहिए। बच्चा उत्पन्न होते से १५ दिन तक गाय, भैंस, बकरी का दूध, दही महीं खाना चाहिए । मक्खन (दो मुहूर्त पीछे का ), फूल, अप्रासुक, अदरक, प्याज, लहसुन, मूल ( मूली को जड़, गाजर आदि ) और तरबूज (मांस जैसा दिखाई देने के कारण त्याग देना चाहिए । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) मौनं सप्तस्थानम् ।२०। अर्थ--सात स्थातों पर मौन रखना चाहिए, मुख से कुछ बोलना नहीं चाहिए। मौन के सात अवसर:हदनं मूत्ररण स्नान पूजन परमेष्ठिनाम् ।। भोजनं सुरतं वमनं स्तोत्रं मौनसमन्वितम् ।। मृष्टवाक् सुरनरेन्द्रसुखेशो बल्लभश्च कविताविगुगनाम् । केवलच मरिणबोधितलोको मौनसुबतफलेन नरः स्यात् ॥१०॥ दूरः कलत्रपुत्रादि वर्जनादिविवजितः । मौनहीनो भवेन्नित्यं घोरवुःखैकसागरः ॥११॥ अतिप्रसंगवहनाय तपसः प्रबुद्धये। अन्तरायस्कृता सद्भिर्तबीजवतिक्रिया ।१२। अर्थ--टट्टी करने, पेशाब करने, भगवान की पूजन करने, भोजन करने, मैथुन करने, कय (वमन) करने तथा भगवान की स्तुति करने के समय मौन रखना चाहिए । (पूजन करते समय तथा स्तोत्र पढ़ते समय अन्य कोई बात न करनी चाहिए, शेष टट्टी, पेशाब, भोजन, मैथुन और कय करते समय सर्वथा चुप रहना चाहिए) । मौन व्रत के फल से मनुष्य शुद्ध बोलने वाला, देव चक्रवर्ती राजा का सुख भोगने वाला, कविता आदि गुणों का प्रेमी, केवल ज्ञान से जगत को प्रकाश देने वाला होता है । पुत्र, स्त्री आदि के वियोग से रहित होता है । उक्त ७ अवसरों पर मौन न रखने वाला व्यक्ति घोर दुःख पाता है । अति प्रसंग ( अति मैथन ) को नष्ट करने के लिए तथा तप की वृद्धि के लिए प्रत को बीजभूत व्रती की मौन क्रिया है। मौन भङ्ग को बुद्धिमानों ने अन्तराय बतलाया है। अन्तराय को कहते हैं:-- अन्तरायं च १२॥ अर्थ-.भोजन करते समय मांस को देखना, मांस की बात सुनना, मन में मांस का विचार आना, पीप का देखना या पीप का नाम सुमना का . देखना या सुनना तथा भोजन करते समय परती कोड़ा प्रादि पा जाना भोजन का अन्तरास का काम देखने पर भोजन का अन्तरायः अमर WCRA Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २१३) कोई त्याग किया हुग्या पदार्थ यदि थाली में पा जावे तो भोजन छोड़ देना चाहिए और उसी समय मुख शुद्धि कर लेना चाहिए। यदि अपने बर्तन अन्य मांसभक्षक आदि लोगों के बर्तनों से जावें तो कांसे का बर्तन फेंक देना चाहिए, तांबे पीतल के बर्तन अग्नि से शुद्ध करने चाहिए । भोजन में यदि बाल अादि निकल आवे तो भी भोजन छोड़ देना चाहिए। भोजन करने में लगे हा दोप का प्रायश्चित्त गुरु से लेना चाहिए पर यदि गुरु न हो तो श्री जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के सामने स्वयं प्रायश्चित्त ले लेना चाहिए। तथा अस्पाङ्ग विलोक्यापि तवचः श्रवणगोचरे । भोजनं परिधि दुर्द पासादगि । अर्थ----अस्पश्यं (न छुने योग्य) अंग को देख लेने पर या उसका नाम सुन लेने पर तथा न देखने योग्य पदार्थ का नाम सुनने से भो भोजन छोड़ देना चाहिए । होस माडदवंग- १ प्रानुकुम दोल्दवंगे परमयिगळा ॥ वासदोळिप्पंगह-। त्शासन दोळ्पेळ्दमुळुलवं नडेदतुवे ।१३०॥ यानी-रात्रि भोजन करने वाले, अशुद्ध भोजन करने वाले, विधर्मियों के घर रहने वाले क्या ग्रहन्त भगवान के उपदिष्ट धर्म का प्राचरण कर सकते हैं ? अर्थात् नहीं । रात्रि भोजन त्याग अहिंसावतरक्षार्थ मूलवतविशुद्धये । निशायां बर्जयेद्भुक्तिमिहामुत्र च दुःखदाम् ।। अर्थ---अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए तथा मूलव्रत की विशुद्धि के लिए इस लोक परलोक में दुःखदायक रात्रि भोजन को छोड़ देना चाहिए । पिपीलिकादयो जीवा भक्ष्यं तदपि कानिशि । गिल्यन्ते भोक्तभिः पुम्मिस्ते पुनः कबल : सम ।१५॥ स्फुटितांत्रिकरणादिनां ये काष्ठ तुरगवाहकाः । कुचेला दुष्कुलाः सन्ति ते रात्र्याहारसेवनात् ।१६। निजकुलैकमण्डनं त्रिजगदीशसम्पदम् । भजतीह स्वभावतः त्यजति नक्तभोजनम् ।१७। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २१४ ) अर्थ---जो मनुष्य रात को भोजन करते हैं वे भोजन के साथ चींटी आदि जीवों को खा जाते हैं । जो मनुष्य रात्रि भोजन करते हैं वे अन्य भव में छूले, लंगड़े, गूगे, बहरे आदि अपांग, लकड़हारे, घसियारे, नीचकुली, मैले कुचेले मनुष्य होते हैं । जो मनुष्य रात्रि भोजन त्याग देता है वह अपने कुल के भूषण तभा तीन लोक की सम्पदा को प्राप्त करता है । श्रावक धर्मश्चतुर्विध ॥२२॥ अर्थ-श्रावक का धर्म ४ प्रकार का है-१ दान, २ पूजा, ३ शील और ४ उपवास अपने तथा अन्य के उपकार करने के लिए जो आहार प्रादि पदार्थो' का त्याग किया जाता है वह छन ४ प्रकार का है-१ पाहार, २ औषध, ३ ज्ञान और ४ अभय । या देवशास्त्र गुरु की विधि अनुसार ८ द्रव्यों से पूजन करना पूजा है। अपने ग्रहण किये हुये व्रतों की रक्षा करना शील है । अष्टमी चतुर्दशी पंचमी आदि को पंप इन्द्रियों के विषय, कषाय तथा चारों प्रकार के ग्राहार का त्याग करना है। केवल जल ग्रहण करना अनुपवास (ईषत् उपवास-छोटा उपवास) है और एक बार भोजन करना एकाशन है। . जैनर नेरे जैनर केले । जैनर तनिष्ठे जैन धर्म श्रवणं । जनप्रतिमाराधने । जनगिकूडि बंदोडवने कृतार्थ ।१३१॥ अर्थ-जन चुल में जन्म लेकर मनुष्य भव सफल करने के लिए सदा जैन भाइयों की संगति करनी चाहिये, जैनों से मित्रता करनी चाहिए, जैन धर्म की श्रद्धा करनी चाहिए, जैन शास्त्रों का श्रवण करना चाहिये, जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा की प्राराधना करनी चाहिये । जैनाश्रमाश्च ॥२३॥ अर्थ-१ ब्रह्मचारी, २ गृहस्थ, ३ घाराप्रस्थ और ४ भिक्षु । विवाह करने से पहले ब्रह्मचर्य अाचरण से रहना ( विद्यार्थी जोवन ) ब्रह्मचारी पाश्रम है । विवाह करने के अनन्तर कुलाचार धर्माचार से रहना गृहस्थाश्रम है मुनि दीक्षा ग्रहण करने के पहले घर बार छोड़कर खण्ड वस्त्र धारण करके तपस्या करना वारणप्रस्थ पाश्रम है । सब परिग्रह त्याग कर मुनि दीक्षा लेकर महाव्रत धारण करना भिक्ष प्राश्रम है। ब्रह्मचारिणः पञ्चविधाः ।२४। अर्थ--ब्रह्मचारी ५ प्रकार के होते हैं । १ उपनयन, २ अवलम्बन, ३ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I ( २१५ } दीक्षा, ४ गूढ तथा ५ नैष्ठिक ब्रह्मचारी । यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करके विद्याध्ययन करने वाले उपनयन ब्रह्मचारी है । क्षुल्लक रूप से समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने वाले (बाद में गृहस्थआश्रम में जाने वाले ) अवलम्ब ब्रह्मचारी हैं । व्रतका चिन्ह (जनेऊ यादि ) धारण न करके समस्त शास्त्र पढ़कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने वाले प्रदीक्षा ब्रह्मचारी है । वाल्य अवस्था में गुरु के पास रहकर समस्त शास्त्रों का अभ्यास किया हो, संयम धारण किया हो फिर राज भय से, या परिवार की प्रेरणा से अथवा परिषद् सहन न करने के कारण जो संयम से भ्रष्ट हो गया हो और बाद में गृहस्थ आश्रम में आा गया हो, वह गूढ ब्रह्मचारी है । व्रत के चिन्ह चोरी, जनेऊ, करधनी, श्वेतवस्त्र धारण करके ब्रह्मचर्य ग्रस लेकर रहने वाले नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं । श्राषट् कर्मारिए | २५ अर्थ - मार्ग ( गृहस्थाश्रमी आवक ) के ६ कर्म हैं । १ इज्या (पूजा), २ वार्ता ( धन उपार्जन विधि ), ३ दत्ति (दान), ४ स्वाध्याय (शास्त्र पढ़ना, सुनना ) ५ संयम ( जीवरक्षण तथा इन्द्रियों तथा मन का दमन ), ६ तप, ( उपवास एकाशन श्रादि बहिरंग, प्रायश्चित प्रादि अन्तरंग तप ) तत्र ज्या दशविधाः । २६ । पूजा है । अर्थ - पूजा १० प्रकार की है । देव इन्द्रों के द्वारा किये जाने वाली प्रर्हन्त भगवान की पूजा महामह इन्द्रों के द्वारा की जाने वाली पूजा इन्द्रध्वज पूजा है । चारों प्रकार के देवों द्वारा की जाने वाली पूजा का नाम सर्वतोभद्र है। चक्रवर्ती के द्वारा की जाने वाली पूजा का नाम चतुमुखं पूजा है । विद्याधरों के द्वारा होने वाली पूजा का नाम रथावर्तन पूजा है । महामण्डलीक राजाओं के द्वारा की जाने वाली पूजा का नाम इन्द्रकेतु है। मंडलेश्वर राजा जिस पूजा को करते हैं वह महापूजा है । अर्द्ध मंडलेश्वर राजाओं द्वारा की जाने वाली पूजा का नाम महामहिम है । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २१६) नन्दीश्वर द्वीप में जाकर प्राषाढ़, कार्तिक, फागुन मास के अन्तिम दिनों में जो देव इन्द्र आदि पूजा करते हैं सो प्राष्टान्हिकपूजा है । स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहन कर जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल, ये पाठ द्रव्य लेकर मंदिर में प्रतिदिन पूजा करना दैनिक पूजा है। अपनी शक्ति अनुसार द्रव्य खर्च करके मन्दिर बनबाना, प्रतिमा निर्माण कराना, प्रतिष्ठा कराना, मन्दिर की सुव्यवस्था करना, मंदिर की व्यवस्था के लिये जमीन, मकान, गांव आदि दान करना पूजा के उपकरण देना आदि दैनिक पूजा में सम्मिलित है। अर्थानि षटकर्माणि ॥२७॥ अर्थ-आर्य पुरुषों के धन-उपार्जन के ६ कर्म हैं । १ असि (सेना प्रादि में नौकरी आदि से अस्त्र शस्त्र द्वारा धन कमाना), २ मसि ( लिखने पढ़ने के द्वारा आजीविका करना), ३ ऋषि (स्त्रेती बाड़ी करना), ४ बाणिज्य (व्यापार करना) ५ पशु पालन (गाय, मैस. घोड़ा आदि पशुओं का व्यापार करना), ६ शिल्प (वस्त्र बुनाना आदि काला कौशल से नाजीविका करना)। हीदतुबमाः ।। अर्थ-दत्ति (दान) चार प्रकार है-~१ दयादत्ति, २ पादत्ति, ३ समदत्ति, ४ सर्व दत्ति । समस्त जीवों पर दया करदा, दीन दुखी अनाथ प्राणियों को दया भाव से भोजन वस्त्र आदि देना दयादत्ति है। रत्नत्रय धारक, संसार से विरक्त, संयम आराधक मुनि आयिका आदि को भक्तिभाव से शुद्ध निर्दोष आहार, पौषध, शास्त्र, आबास देना और अपने प्रापको कृतार्थ मानना पात्रदत्ति है। अपने समान सदाचारी धार्मिक योग्य वर को अपनी कन्या देना, साधमियों को भोजन कराना आदि समयत्ति है। घर बार छोड़कर दीक्षा लेते समय या समाधि मरण के समय अपनी समस्त सम्पत्ति धर्मार्थ में दे डालना अथवा पुत्र आदि उत्तराधिकारी को प्रदान करना सर्वदत्ति है। यह तीसरा आर्यकर्म है। तत्वज्ञान का पढ़ना, पढ़ाना 'स्वाध्याय' नामक चौथा प्रार्य कर्म है। पांच अणुक्तों का आचरण करना 'संयम' नामक पांचवाँ आर्य कर्म है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) चारों प्रकार के आहार तथा विषय कषाय का परित्याग करना अनशन या उपवास तप है। एकग्रास, दो ग्रास क्रमसे घटाते बढ़ाते हुए चान्द्रायण प्रादि व्रत करना, भूख से कम भोजन करना अवमौदर्य या ऊनोदर सप है । पर गली, मुहाना का अन्य दामों परिग्रह करने वाले आदि की अटपटी पाखड़ी करना व्रतपरिसंख्यान तप है। घी, तेल, दूध, दही, खाड नमक छह रसों में से सब रसों का या १-२ आदि रस का त्याग करना रसपरित्याग सप है । एकान्त स्थान में, भूमि, तस्त, खाट ग्रादि सोने आदि का नियम करना विविक्त शैयासन तप है। कुक्कुट प्रासन, खड्गासन भादि प्रासन लगाकर, प्रतिमा योग आदि रूप से ध्यान करना कायक्लेश तप है 1 ये ६ बहिरंग तप हैं। प्रत आदि में कुछ दोष लग जाने पर उसका दंड लेना गुरु से और गुरु न होने पर अर्हन्त प्रतिमा के समक्ष स्वयं दण्ड लेना प्रायश्चित्त तप है । पालोचना प्रतिक्रमण प्रादि भेद प्रायश्चित के हैं । सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय धारकों का विनय करना विनय तप है । आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि नती जनों की सेवा करना वैयावृत्य तप है । ज्ञानाभ्यास, शास्त्र पढ़ना पढ़ाना, सुनना, पाठ करना आदि स्वाध्याय तप है। पापों को बाहरी तथा अन्तरंग से छोड़ना व्युत्सर्ग तप है। पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ये ध्यान करने की चार पद्धति हैं उसके अनुसार चित्त को एकाग्र करना ध्यान तप है । ये ६ अन्तरङ्ग तप हैं। इस तरह ६ बहिरंग, ६ अंतरंग-समस्त १२ तप हैं । इनमें से प्रतिमा योग के सिवाय अन्य समय कायक्लेश तप गृहस्थ के लिए निषिद्ध हैं । जिन स्त्री पुरुषों में देव शास्त्र गुरु की विनय भक्ति, ज्ञान का अभ्यास, शास्त्र स्वाध्याय, दान शक्ति अनुसार प्रत नियम आदि नहीं हैं वे मनुष्य शरीर पाकर भी पशुओं के समान हैं। ज्ञानद सत्परिणाम । वानव रूचि समय भक्ति तत्वविचारं । जनंगिविल्लादिदोडे । मौन वोळुण्यंते पशुवेदनेय निदाना ।१३२॥ अर्थ-जिस जैन धर्मानुयायी स्त्री पुरुष को विवेक नहीं, दान देने में रुचि नहीं, देव शास्त्र गुरु की भक्ति नहीं, तत्व का विचार नहीं, वह मौन पूर्वक घास चरने वाले पशुओं के समान हैं। क्षत्रिया द्विविधाः ॥२६॥ अर्थ-क्षत्रिय के दो भेद हैं १ जाति क्षत्रिय, तीर्थ क्षत्रिय । ब्राह्मण, Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८) क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारवर्ण हैं । इनमें से क्षत्रिय वर्णमें जन्म लेने वाले को जाति क्षत्रिय हैं। तीर्थङ्कर, नारागरण, बलभद्र चक्रवर्ती आदि महान पराक्रमी क्षत्रियतीर्थ क्षत्रिय होते हैं। भिक्षश्चतुर्विधः ॥३०॥ अर्थ-भिक्षु चार प्रकार के हैं-१ यति, २ मुनि, ६ अलगार, ४ देवऋषि (ऋषि)। यतयो द्विविधाः ॥३१॥ अर्थ-यति के दो भेद हैं-१ उपशम श्रेणी आरोहक (उपशम श्रेणी घढ़ने वाले), २ क्षपक श्रेणी प्रारोहक (क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाले)। मुनयस्त्रिविधाः ॥३२॥ अर्थ-मुनि तीन प्रकार के हैं-१ अवधिज्ञानी, २ मनःपर्ययज्ञानी, ३ केवलज्ञानी । ऋषयश्चतुर्विधाः ॥३३॥ अर्थ-ऋषि चार प्रकार के हैं ....१ ऋद्धि प्राप्त ऋषि ( ऋद्धिधारी ), २ ब्रह्मषि, ३ देवगि, ४ परमर्षि 1 तत्र राजर्षयो द्विविधाः ॥३४॥ अर्य-राजर्षि दो प्रकार के हैं-१ विक्रिया ऋद्धिधार, ३ अक्षीण ऋद्धिधारी ब्रह्मर्षि द्विविधः ।।३५।। अर्थ-ब्रह्मर्षि के दो भेद हैं-१ बुद्धि ऋद्धि धारक, २ भौषध ऋद्धिधारक । प्रकाश में गमन करने वाले देवर्षि हैं । अहंन्त भगवान परमऋषि हैं। . ब्रह्मचारी गृहस्थश्च बानप्रश्चश्च भिक्षुद्यः । इत्याश्रमास्तु जैनानां सप्तांगाद्वि निसृताः ॥ अर्थ-जनों के ४ आथम है- ब्रह्मचारी, २ गृहस्थ, ३ घानप्रस्थ और ४ भिक्षुक । ये सातवें उपासकाध्यय अंग से बतलाये गये हैं । (धाश्रमों का लक्षण पीछे लिखा जा चुका है।) . दर्शन प्रतिमा से लेकर उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा तक श्रावक के १० भेद हैं । इनके उत्तरभंग ६६ होते हैं। इसका विवरण अन्य ग्रन्थ से जान लेना चाहिए। श्रावक अपने गृहस्थाश्रम चलाने के लिये असिमसि आदि षट् कमों से अर्थ उपार्जन करता है, उससे वह जीव हिंसा से बचता रहता है। कदाचित कभी हिंसा उससे हो जावे तो पक्ष अष्टमी, चतुर्दशी मादि को उस दोष को दूर Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) करने के लिए प्रायश्चित यादि लेकर शुद्धि करता है। श्रावक स्वच्छन्द वृत्ति से चलकर प्राणि हिंसा नहीं करते हैं । यदि कभी उन से हिंसा होती है तो उसका प्रायश्चित लेते हैं । यदि कभी गृह त्याग करने भावना होती है तो पुत्र को, पुत्र न हो तो अपने गोत्र के किसी सदाचारी बालक को दत्तक पुत्र बनाकर उस दत्तक पुत्र को अथवा अन्य भतीजे, भानजे आदि को अपनी समस्त सम्पत्ति सोंपकर उसको अपना उत्तराधिकारी बनाता है। उसको मीठे वचनों से समझाता कि "जिस तरह मैंने अब तक धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थो का सेवन किया गृहस्थाश्रम, कुल मर्यादा, जातिमर्यादा तथा धर्ममर्यादा का पालन किया उसी तरह तू भी करना ।" इस तरह समझा कर भाप घर छोड़ मुनियों के चरणों में जाकर दीक्षा ले, धर्म सेवन करे । मरण- निमित्त - ज्ञान दाहिनी काज को पुरुषी को सूर्य और बांयी श्रांख की पुतली को चंद्र कहते हैं । दोनों नेत्रों (पांखों) के ऊपरी निचलों पलकों के नेत्र को दो दो भाग कहते हैं । I १ - बांयी आँख (चन्द्र) केऊपरी पलकको उंगली से दबाने पर यदि नीचे की वस्तुएं दिखाई न पड़े तो समझना चाहिए कि छह मास के भीतर मृत्यु होगी । २ यदि उंगली से नीचे की पलकें दबाने पर ऊपर की ज्योति काम न दे यानी - ऊपर की वस्तुएं दिखाई न दें तो समझना चाहिए कि तीन मास में मृत्यु होगी । · ३- बांयी प्रांख के प्रारंभिक भाग (नाक के निकट) दवाने पर कान की प्रोर दिखाई न दे तो दो मास में मृत्यु होने की सूचना है । ४- यदि उस आंख के अंतिम भाग (कान की ओर से ) को दबाने पर नाक की थोर ज्योति दिखाई न दे तो एक मास में मृत्यु समझनी चाहिये । ५- सूर्य आँख ( दाहिनी आंख ) के ऊपरी पलक को दबाने पर नीचे ज्योति दिखाई न पड़े तो समझना चाहिये कि १५ दिन में मृत्यु होगी । ६- उसी नेत्र के नीचे के पलक को दबाने पर ऊपर की ज्योति न दीख पड़े तो आठ दिन में मृत्यु होगी । ७ - उसी नेत्र के अंतिम भाग (कान के पास वाले) को दबाने पर कान की श्रोर ज्योति दिखाई न दे तो ६ दिन में मृत्यु होगी । ८- इस नेत्र के मूल भाग ( नाक के पास ) को दबाने पर कान की ज्योति यदि दिखाई न दे तो एक दिन श्रायु शेष रही समझनी चाहिये । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) श्री खंड निमित्त ज्ञान:-- सुचिर व्रत होकर श्री भगवान पारसनाथ तीर्थङ्कर को अभिषेक और पाठ द्रव्यों से पूजा करके दाहिना हाथ शुक्ल पक्ष और बांया हाथ कृष्ण पक्ष करके इस प्रकार से अपने मन में कल्पना करके दोनों हाथों में गोमूत्र लगाकर बाद में गरम पानी और दूध से धो डाले। इसके पश्चात् ठण्डे पानी से साफ घो लेना चाहिए। एक-एक अंगुली में तीन-तीन रेखा की गिनती से पांच अंगुली में १५ रेखा होती हैं । अंगूठे के पहले पर्व से लेकर कनिष्ठ अंगुली के पर्व तक पांच सात वार पंच नमस्कार से प्रत्येक में सात-सात बार अभिमंत्रित करके लगाया हुआ चंदन सूखने तक ठहर कर अंगूठे के पहले पर्व की प्रतिपदा आदि गिनतो करने से १५ पोटों में उसके कहीं पर काला दाग दिखाई दे तो उसी दिन उनकी मृत्यु समझना चाहिए। कर्म से गिनती करने पर जिस गिनती में पर्व का गिनते वह बिन्दी किस पर्व पर आयेगा जिस पर आवे इतना ही दिन उनके समाधि का दिन समझना चाहिए। जैसे कहा भी है। लक्ष्य लक्षण लक्षितेन मनसा सम शुद्ध भानोज्वेले । क्षीरण दक्षिण पश्चिमोत्तरपुरे षटत्रितिम सैककस् ॥ छोद्रपश्यति मध्यमे दश दिनम् धूमाकुलं तद्दिनम् । कृष्ण सप्तदिनं सकंपनमय पक्षे बि निवृश्ताम् ॥१९॥ चन्द्र और सूर्य के निमित्त ज्ञान: भगवान श्री शान्तिनाथ तीर्थङ्कर को यथा विधि पूर्वक अभिषेक करके इस गंदोदक को प्रकाश में रखकर चन्द्र या सूर्य को उसी रखे हुए गंदोदक चंद्र या सूर्य को दक्षिण मुख होकर के देखना चाहिए । दक्षिण दिशा के तरफ यदि चन्द्रमा या सूर्य हानि दिखाई देता हो तो ६ माह उनकी आयु समझना चाहिए । यदि पश्चिम दिशा में मलीनता दिखाई पड़े तो तीन मास की उनकी आयु समझना चाहिए । यदि उत्तर दिशा में मलीनता दिखाई पड़े तो २ महीना और यदि पूरब में मलीनता दिखाई पड़े तो १ मास की उनकी आयु समझना चाहिए। __ यदि बीच में छिद्र दिखाई पड़े तो १० दिन आयु समझना चाहिए। यदि कांपते हुए दिखाई पड़े तो १५ दिन समझना चाहिए दोनों चन्द्र सूर्य बिम्ब काला दिखाई देता हो तो उनकी आयु सात दिन का समझना चाहिएः ..... Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१) वृक्ष छाया आदि निमित्त ज्ञान:---- वृक्ष की छाया देखने वाले को यदि उसी छाया में वृक्ष की डालो टूटी हुई सथा भूत पिशाचादि दिखाई गई तो १० मास की आयु समझनी चाहिए ।१। यदि सूर्य को देखने पर उसकी किरणें न दिखाई दें और अग्नि को देखने पर उसकी किरणें न दिखाई पड़े तो उसकी आयु ११ मास समझना चाहिए ।। मूत्र और मल चांदी और स्वर्ण के रंग के समान यदि दिखाई पड़े तो, और स्वप्न में अथवा मन में कोई एक आदमी दिखाई पड़े तो ६ मांस उसकी प्रायु समझना चाहिए।३।। शरीर स्वस्थ होने पर भी यदि क्षीण दिखाई पड़े तो, या अपने मन में कोई अमुक काम करने की इच्छा हाने पर भी यदि दूसरा काम शुरू करदे तो उसकी आयु पाठ मास की समझना चाहिए।४। जाते हुए व्यक्ति को देखने पर यदि जाने वाले व्यक्ति का पांव कटा हुभा दिखाई पड़े तो ७ मास की आयु समझना चाहिए ।। यदि काक दोनों पंखों से मारे तो अथवा वालू की वर्षा दिखाई पड़े तो, या अपनो छाया न मालूम होकर उसके विपरीत दिखाई पड़े तो ६ मास उसकी आयु समझना चाहिए।६। यदि काक सिर के ऊपर बैठा हुआ दिखाई पड़े तो, अथवा मांस खाने वाला पक्षी उसके ऊपर बैठा हुआ दिखाई पड़े तो उसकी आयु ५ मास की समझना चाहिए । यदि दक्षिण दिशा में बादल नहीं होते हुए भी बिजली दिखाई पड़े तो, अथवा पानी के अन्दर इन्द्र धनुष दिखाई पड़े तो उसको आयु चार मास समझना चाहिए । यदि स्वप्न में चन्द्र और सूर्य के अन्दर छिद्र होकर दिखाई पड़े तो उसकी प्रायु तीन मास की समझना चाहिए 181 शरीर का बास मुर्दे के दुर्गन्ध ऐसा आभास हो, अथवा दांत गिरकर पड़े मालूम हों तो. अथवा गर्म पानी ठंडा दिखाई पड़े, या शरीर कोयले के समान रहे तो उसकी आयु दो मास को समझना चाहिए।१०। यदि पानी ऊपर से अपने शरीर पर गिर पड़े अथवा यदि कोई व्यक्ति Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२) पानी से मारे या सबसे पहले स्पर्श अथवा हृदय में लगे तो उसकी आयु १ मास की समझना माहिए ।११। गर्म पानीसे नहाये अथवा न नहाये यदि सिर पर से धुनां निकले तो उसको आयु १ मास की समझना चाहिए ।१२। दर्द हुये बिना अथवा कुछ न गिरने पर भी यदि अांख से पानी निकले अथवा प्रांख निकल कर गिर जाये ऐसा प्रतीत हो, या कान सिकुड़ गया हो तो प्रथमा नाफ मुड़ी हुई मालूम पड़े तो उसकी आयु १ मास की समझना चाहिए ।१३। दोपहर के समय अपनी छाया सूर्य के ऊपर दिखाई पड़े तो १२ मास आयु समझना चाहिए ।१४।। पानी अथवा शीशी में यदि अपनी छाया नहीं दिखाई पड़े तो, अथवा मस्तक दो दिखाई पड़े तो उसकी आयु ११ दिन की समझना चाहिए ।१५।। मुख निरतेज दिखाई पड़े और शरीर में दुर्गध अथवा कमल के समान गन्ध, अथवा देवदारु गन्ध अगर गन्ध एसी सुगन्ध मालूम पड़े तो, अथवा चन्द्र, मण्डल को क्रान्ति निस्तेज दिखाई पड़े तो उसकी प्रायु १७ दिन की समझनी । चाहिए ॥१६॥ बिना कारण शब्द निकल पड़े तो, अथवा बर्तन के टूटने का शब्द सुनाई पड़े किन्तु, दूसरे को वह शब्द न सुनाई पड़े अथवा बिना कारण हृदय व्याकुल हो या मूत्र मल अपने खाने ऐसा प्रतीत हो और मल मूत्र का निरोध हो गया हो तो उसकी प्राथु आठ दिन की समझनी चाहिए 1१७।। घर के दरवाजे के पास से निकलते समय में शरीर में दर्द मालूम पड़े और अन्दर जाने के समय में दर्द मालूम पड़े और मर्म स्थान में दर्द मालूम हो अथवा अपने शरीर में कोई पानी से मारे और यह अपने को न प्रतीत हो कि कच्चा पानी है या पक्का पानी तो, उसकी आयु सात दिन की समझनो चाहिए । १८ जीभ काली और सूक्ष्म दिखाई पड़े तो, और बार-बार जंभाई पावे तो उसकी आयु चार दिन की समझनी चाहिए।१६।। यदि कान में शब्द सुनाई न पड़े तो उसकी प्रायु दो दिन की समझनी चाहिए ।२० इस प्रकार संलेखना करने वाला गृहस्थ इन मरण-चिन्हों को देख लेता है। यहां पर कुछ कानडी श्लोक पुस्तक के विस्तार भय से Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३) छोड़ दिये गये हैं। अब आगे संलेखना किस-किस अवसर में की जाती है। इसका वर्णन किया जाता है : उपसर्गे दुभिक्षे जरसिरुजायाच निःप्रतीकारे । धर्मायतनु विमोचन-माहु संलेखना मार्याः ॥१॥ __ अर्थ-अर्थात् उपसर्ग दुर्भिक्ष वृद्ध अवस्था असाध्य रोग के हो जाने पर जो धर्म के लिए शरीर छोड़ा जाता है अर्थात् निश्चय और व्यवहार धर्म से प्रात्मा में लीन होकर शरीर को छोड़ना ही संलेखना है और यही शरीर छोड़ने का फल है । ऐसी निश्चय समाधि-विधि (मरण करने की विधि) श्री सर्वज्ञ देव ने कही है। विषयेयन रमशंख्य भयसत्तम् गहत् सपतम् ग१रण सकिलेस सेकल्लेसोद । उस्साहरणन् निरोदधौ क्षिज्जयेाऊ २ अर्थ-कदली धात से जो मरण होता है उसे अकाल मृत्यु या मरण कहते हैं। जैसे कि रक्त का क्षय हो जाने रो, भय के कारण, शस्त्र प्रहार के कारण अथवा अधिक संक्लेश के कारण, श्वास के मिरोध होने के कारण, आहार निरोध के कारण, जल में डूबने के कारण, अग्नि दाह के कारण, इत्यादि कारणों से जो मरण होता है इसको कदलीघात मरण कहते हैं। इसके अतिरिक्त आयु कर्म का क्रमशः क्षय हो जाने पर जो मरण होता है। उसे सविपाक मरग कहते हैं । अब आगे मरण के भेद को बतलाने के लिए मूत्र कहते हैं - मरणं द्वित्रिचतुःपंचविधवा।।३६॥ अर्थ · मरा दो तीन चार अथवा पाँच प्रकार का है। १ नित्य मरण और स्तद्भव मरण यह दो प्रकार का है । १ भक्तप्रत्याख्यान भरण, २ इंगिनी मरण, ३ प्रायोपभमन मरस: इस प्रकार मरगा के तीन भेद है। १ सम्यत्व मरण, २ समाधि भरण, ३ पंडित मरा और ४ बीर मरण प्रकार से मरणके चार भेद हैं । १ बाल बाल मरण, २ बाल मरण, ३ बाल पंडित मरण, ४ पंडित मरण ५ पडित २ मरण इस प्रकार पंडित मरण के पांच भेद हैं। आगे इस मरण का पृथक् रूप से कथन निम्न भांति है (१) पूर्वोपाजित प्रायु कर्म की स्थिति पूर्ण करके जो मरण होता है वह नित्य मरण Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) है, इसे आवीचि मरण भी कहते हैं । जैसे तालाब के चारों ओर से बन्धा हुआ पानी यथाक्रम झरते-झरते काल क्रम से समाप्त हो जाता है, तथैव जीव गर्भाधान से लेकर आयु के अन्त तक क्रमशः प्रायु कर्म की स्थिति दिन प्रतिदिन घटते २ पूर्ण हो जाती है, यह आवीचि मरण है। . जन्मान्तर प्राप्ति होने वाला मरण तद्भव-मरण है । शारीरिक वय्यावृत्ति के साथ होने वाला समाधि मरण भक्त प्रत्याख्यान है। स्वपरअपेक्षा से बैय्यावृति के बिना, स्वयं अपनी अपेक्षा भी न रखते हुए जो समाधि मरण होता है, वह इंगिनी मरण है । स्वपर वैय्यावृत्ति की अपेक्षा से जो मरण किया जाता है, यह भक्तप्रत्याख्यान मरण है । प्रायोपगमन मरण का अन्यत्र वर्णन है। (१) बात पित्त श्लेष्मादि शारीरिक दोषों से प्रति संक्लेश होने पर भी स्वधर्म और स्व-स्वभाव में अरचि आदि न करके स्वधर्म और स्वभाव में तल्लीन होकर जो मरण होता है, वह सम्यक्त्व मरण है। (२) सांसारिक कारणों से निवृत्ति-पूर्वक शारीरिक भार को त्याग करना समाधि मरण है। (३) निवृत्ति-पूर्वक, स्वात्मतत्व भावना-सहित शरीर का त्याग कर देना पंडित मरण है। (४) अर्घ्य और उल्लास के साथ, भेद-विज्ञान-पूर्वक शरीर त्याग करना वीर मरण है। (१) सम्यग्दर्जन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र, और तप इन चार आराधमाओं से रहित मिथ्यादृष्टि जीव का जो मरण होता है, उसे बाल-बालमरण कहते हैं। (२) सम्यग्दर्शन आराधना से युक्त जो असंयत सभ्यग्दृष्टि का मरण होता है, उसे बाल-मरण कहते हैं। (३) सम्यग्दर्शन, ज्ञान तथा एक देशचारित्र धारण करके जो देशवती मरण करता है, उसको वाल पंडित मरण कहते हैं। (४) सम्यग्दर्शनादि चारों प्रकार की आराधनाओं सहित निरतिचार पूर्वक महाव्रती का मरण, पंडित भरण है। (५) उसी भव में कर्मक्षय करके सम।' मात्र में लोकारवासी होने वाले मरण को पंडित-पंडिन भरण कहते हैं। (१) सायुमरण (२) निरायुमरण, इस प्रकार भी दो भेद हैं । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) . आयुकर्म की वर्तमान स्थिति विनाश होते ही, जन्मान्तर के कारण भूत जन्मान्तरबंध मनुष्य प्रादि आयु स्थिति के योग्य, संसारी जीवों का मरण, सायुर्मरण है। इसके भी दो भेद हैं, (१) निर्गशा सायुर्मरण (२) सगुण सायुमरण । यति धर्म और श्रावक धर्म में उत्तरोत्तर प्राचरणपूर्वक अत्यन्त विशुद्ध चारित्र सहित होने वाले मरण को सगुणसायुमरगा कहते हैं । यति धर्म और श्रावक धर्म दोनों प्रकार की धार्मिक भावनाओं से शून्य जो मरण होता है उसे दुर्म गण यानी निगंगा सायुमरगा कहते हैं । वर्तमान तथा भावी जन्म के सम्पर्ण आयुकर्म को इंगिति करके, केबलज्ञानपूर्वक निर्वाण पद प्राप्त करने को निरायुर्मरण कहते हैं। अब सल्लेखना की विधि का वर्णन करते हैं । ममाधि मरण के इच्छुक दिव्य तपस्वियों के लिए जिनागम में यह आदेश है कि समाधि मरण की विधि से परिपूर्ण ज्ञानी, अत्यन्त चतुर प्राचार्य, यदि पांच सौ कोस दूर हो, तो उन प्राचार्यदेव के निकट, मन्द-मन्द गति से ईयापथ शुद्धि पूर्वक पहुंचे । अपने समस्त दोषों को प्रगट करते हुए, आत्मनिन्दा, गर्हणा श्रादि आलोचना करके, अपने दोषों की निवृत्ति के लिए, उनके द्वारा - दिये हये प्रायश्चित्त को लेकर, अन्त में शारीरिक रोग और दुर्बलता आदि देखकर वह प्राचार्य, समाधि-मरण के इच्छुक तगम्ची की शेष नायु के समय को जान लेते हैं, पश्चात् वे सुचतर याचार्य अपने मन में विचारते हैं कि "यह अपने कल्याण के लिए इच्छुक है, अत: इस भव्य को समाधि-मरण करादेना चाहिए। इस प्रकार सोच समझकर चार प्रकार के गोपुर सहित समचतुष्क एक पाराधना मण्डप, गृहस्थों के द्वारा तैयार करवाते हैं, इसके बीच में. शुद्ध मिट्टी के द्वारा समचतुष्क अर्थात् चौकोर बेदी तैयार कर, पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर वीतराग सर्वज्ञ देव की मूर्ति को, पूजा अर्चना-पूर्वक स्थापित नरके वेदी में समाधि के इच्छुक्रा इस तपस्वी को, उस प्रतिमा के निकट मुख करके, पर्यत अथवा एक पार्श्व पर बिटाकार, तोरणा, भांति-भांति की ध्वजाएं, चन्दन, कालागुरु, दी धूप, भृगार कलम दर्पण, अठारह धान्य, मादल फल (विजौरा) तीन छत्र, चन्बर आदि मंगल द्रव्यों से पुण्य धाम को सुशोभित करे फिर अभीष्ट थी भगवज्जिनेन्द्र देव के अभिषेक पूर्वक, पूजा अर्चादि से महान अाराधना के पश्चात् आचार्य अपने संघ के निवासियों को बुलाकर मण्डप के पर्व द्वार पर प्रथमानुयोग को पढ़ते हुए, सात मुनियों को नियुक्त कर देते हैं । इसी भांति Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) दक्षिण द्वार पर करणानुयोग पढ़ते हुए सात मुनियों को नियुक्त कर दी है। इसी तरह पश्चिम द्वार पर चरणानुयोग पढ़ते हुए सात मुनियों को नियुक्त कर देते हैं, इसी प्रकार उत्तर द्वार पर द्रव्यानुयोग पढ़ते हुए सात मुनियों को नियुक्त कर देते हैं । तत्पश्चात् वह प्राचार्य समाधिप्रिय उस मुनिराज के पास पाकर इस प्रकार आदेश देते हैं कि तुम चारों प्रकार की आराधनाओं को पढ़ते रहो, इसके पश्चात् सात मुनियों को प्रादेश देते हैं कि तुम लोग चारों आराधनामों को उनके पास पढ़ते रहो, इस प्रकार उनको नियत कर बाद में समाधि के इच्छुक मुनि को पथ्यपान आदि को देते हुए उनके मल मूत्र को निर्विन्यपूर्वक बाहर निकालने के लिए पुकार के सात मुनियों को नियुक्त कर देते हैं । तत्पश्चात् चारों दिशाओं का अवलोकन करने के लिए गांव के बाहर जाकर, क्षाम, डामर, परिचक्र, देश, काल, राष्ट्र, ग्राम, राज्यादि की स्थिति, सुस्थिति देखकर, अपने मन में उन दोनों की परिस्थिति को ठीक विचार कर, उपर्युक्त कथनानुसार उसकी देखभाल करने के लिए दो मुनियों को नियुक्त करते हैं । पश्चात् समाधि के इच्छुक मुनि के पास समाधि मरण की विधि जानकार एक मुनि को नियुक्त कर देते हैं। फिर षोडश भावनाएं, चौंतीस अतिशय को, परम चिदानंद स्वरूप वीतराग निर्विकल्प समाधिस्वरूप को सभी मुनिजन सुनाते रहते हैं, उसको वह उपयोग पूर्वक सुनते हुए, प्रयत्न पूर्वक गुरु निरूपित क्रम से शरीर को त्याग करूं, ऐसी भावना करता है । जैसे नौकर को जहां तहां नियुक्त कर देते हैं, वैसे ही प्राचार्य देव अपने शिष्य मुनियों को उनकी वैय्यावृत्ति अथवा चारों अनुयोग पढ़ने के लिए नियुक्त कर देते हैं। इसके बाद वरअपनी इच्छापूर्वक गत्यन्तर होने वाले मरण को करता है, इस तरह के मरण को भक्त प्रत्याख्यान मरण कहते हैं । ___ नो कर्म, द्रव्य कर्म और भाव कर्म इन तीनों कर्मों से रहित सहज शुद्ध केवल ज्ञान प्रादि अनन्त गुणों से सहित अभेद रत्नत्रयात्मक चीतराग निविकल्पक समाधि रूप समुत्पन्न हुए परमानन्द रूप, स्व-स्वभाव से चुत न होते हुये समाधि में रत रहते हैं । इस प्रकार समाधि में रत हुए मुनि के शरीर में कदाचित् शोत हो जावे तो शीत की बाधा को दूर करने के लिए उपचार तथा ज्यादा उष्ण हो जाने पर शीत की जाती है । अपने वो जो इष्ट हो पल्यंक-ग्नासन, मुक्तासन, या शय्या-वासन इनमें से कोई भो आसन निश्चय करके तत्कालोचित सम्पूर्ण क्रिया को करके तत्पश्चात् TA Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) निष्क्रिया-रूप शुसात्म भावना में अपने मन के परिणाम को प्रयत्न-पर्वक प्राकर्षित करते हुए स्वपर-वैय्यावृत्ति की अपेक्षा न रखकर शरीर भार को छोड़ना इगिनी मरण है। ५ पय॑वासन, २ एक पाश्र्वासन, ३ पादोपादान, इन तीनों में से किसी एक ग्रासन को नियत करके चतविशति तीर्थकरके गुणस्तवन, रूपस्तवन, और बस्तुस्तवन करते हुए पालोचना, प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त नियमादि दण्डकों में अपने वचन को स्थिर करके दर्शन विशुद्ध यादि घोर भावनामों को भाने हा देव मयुष्य, तिथंच इन तीनों से होने वाले चेतनोपसर्ग, अशनिपात (अग्निपात) शिलापात, बज्रपात, भूपात, गिरिपात, वृक्षपात, वनाग्नि. दावाग्नि, विषभूमि, (नदी की बाढ) नदी पूर, जल वर्षण, शीतवात प्रातप इत्यादि से होने वाले अचेतनोपसर्ग और प्रबल अग्निपुटपाक से गलते हुए निर्मल कान्ति युक्त सोने के समान परम उपशान होते हुए निज परमात्म स्वरूप में अपनी परगति को अविचल वृत्ति से रखते हुए सम्यक सन्यसन रूप वीर शय्यासन को स्वीकार करने परवैव्या वृत्ति को अपेक्षा बिना शरोर परित्याग करने को प्रायोपगमन मरग (प्रायोग मरण) कहते हैं। इन तीन प्रकार के मरण को पण्डित मरण कहते हैं। तद्भव अर्थात् उसी भव में समस्त कर्मों को क्षय करके समय मात्र में लोकायनिवासी होने वाले जीवों के मरण को पंडित मरण कहते हैं। अथवा पूर्व जन्म में बंधी हुई आयुकम की स्थिति विनाश को मरण कहते हैं। स्नेह, पैर, मोह आदि सब परिग्रह त्याग कर, वन्धु जन से क्षमा याचना करके, निःशल्य भाव से परस्पर क्षमा करते हुए, प्रिय वचन से समाधान पूर्वक, बन्धु जनों की सम्मति से, अपने गृह से बाहर निकलकर, मुनिजन के निवास में जाकर, अपने समस्त दोषों को पालोचन करके, शुद्धान्तरंग हो आमरण महाव्रत धारण करके, गुरु की अनुमति से चारों अाराधना पूर्वक सस्तरण पर बैठकर पेय पदार्थ को छोड़ बाकी तीनों प्रकार के, आहारों को त्याग करके प्रत्याख्यान पूर्वक स्निग्धपान सरपान दोनों में से किसी एक का परिणामों की शान्ति निमित्त पान करे फिर आत्म शक्ति के विकास होने पर इस का भी त्याग कर देते हैं । इस प्रकार निरवधि प्रत्याख्यान रूप उपवास धारण करते हुए पंच परमेष्ठी को स्वात्म स्वरूप में स्थापित कर, मन को अपने अधीन कर सब प्रयत्न से, शीत, उष्ण, दशमंशम आदि परिषह को सहन करके दृढ़ पयंकासन से वैठकर, मुनि जनों के द्वारा पठित णमोकार मंत्र प्रादि को सुनते हैं । मंत्र इस तरह है परण तीस सोल छप्परग, चवुदुग मेगं च जवह भाएह । परमेट्ठिवाचयारणं अण्णंच गुरूवएसेन ॥४॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ . ( २२८ ) अरिहंता अशरोरा, पाइरिया तह उवज्झाया मुरिणरणो । पढमक्खरनिप्पपणो, ओंकारो पंच परमेट्ठी ॥५॥ अरहंत सिद्ध पाइरिया, ऊवज्झायसाधु पंच परमेट्ठी। ते बिहु चेत्तइ प्रदे तम्मा पाराहुभे शरण ।।६॥ एमो अरिहंतागणं, णमों सिद्धारगं, रामो पाइरियाणं, रामो उबझायाणं, एमो लाए सम्व सारण, इस पंच मनस्यार मंत्र के सबधिर ३५, अरिहंत, सिद्ध, प्राइरिया, उव झाया, साहू इन सोलह अक्षरों को, "अरहंत सिद्ध" ऐसे छ अक्षरों को "असि', या उ सा" इन पांच अक्षरों को 'अ सि साह" इन चार अक्षरों को "या सा' इन दो अक्षरों को, 'य' अहम् "ॐ" इस एकाक्षर को जिह्वा न पर लाकर इस तरह धीरे धीरे भात हुए, इसकी भावना की शक्ति भी कम हो जाने पर, बाह्य वस्तुओं से उपयोग हटाकर अपने निर्मल २.परूप को प्राप्त हो, शरीर भार को त्याग करना पंडित मरण है । पंचातिचाराः ३७।। अर्थ-जीविताशा, मरणाशंसा, भय, मित्रस्मृति और निदान ये पांच सल्लेखना के अतिचार हैं। (१) हम नित्य यह भावना करते रहें कि हमें समाधि मरण हो, यदि यह मरण अभी प्राप्त हो तो अति अच्छा है 1 अथवा अभी थोड़े दिन जीवित रहने की इच्छा करना और विचारना कि यदि इसी समय मृत्यु हो जाय तो में क्या करूंगा, यह विचार "जीविताशा" है । २-परीषह होने पर, परीषह सहन में असमर्थ होते हुए विचारना कि इससे तो मृत्यु हो जाए तो अति अच्छा है इस प्रकार सोच विचार करना मरणाशंसा है। ३ इह लोक भय, परलोक भय, अत्राण भय, अगुप्ति भय, मरणभय, व्याधि भय, आगन्तुक भय, इस प्रकार सातों भयों से भयभीत होना सल्लेखना में भयातिचार है। '४-~-पुत्र, कलत्र, मित्र आदि बन्धुजनों का स्मरण करना, सो मित्र स्मृति है। ५-इस प्रकार समाधि मरण करके, परलोक और इह लोक में धन, वैभव ऐश्वर्य, प्रादि प्राप्त होने की भावना करना निदान नामक अतिचार है। इस प्रकार समाधि मरण के फल से, सौधर्म आदि कल्पों (स्वर्ग) में इन्द्र प्रादि पद के सुख सुधा रस को अनुभव करते हुए, मनुष्य भव में तीर्थकर चक्रवयादि पद का अनुभव करके, जिन दीक्षा धारण कर समस्त घाति अधाति कर्म Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) निजात्मस्वरूप में विनाश करके नित्य, निरामय, निर्मल निर्विकार लीन रहू, इस प्रकार की भावनाओं से संसार समुद्र से पार हो जाता है । इस प्रकार श्रावकाचार का निरूपण हुआ आगे द्वादशानुप्रेक्षा का विवेचन करेंगे । सारतरनात्मनति निस्सारतरं देहमेंम्ब निश्चलमतिथि । नारेवडेव सशगोळ बने धीरं तत्तनुवळिवपददीकु पेरं ॥ १६४ ॥ अर्थ — संसार में एक आत्मा ही सारभूत है और शरीर निस्सार है । ऐसी निश्चल बुद्धि - पूर्वक भावना से शरीर को स्वागने वाला कि धीर पुरुष है ॥ १६४ ।। रिसदेनेने कूळ | नोरमन ज्ञानबिंदमिरुतु पगलु ॥ सरतर परम सौख्यसु । धारस भरितात्मतत्वम ने नेमनदोळ् ॥१६५॥ अर्थ- हे जीवात्मन् ! तु रात दिन अज्ञानवश अन-पानादिक खाद्य पेय पदार्थों का ध्यान करके अपनी श्रात्मा का अधःपतन न कर, किन्तु सासर परम सौख्य सुधारस - भरित ग्रात्म-तत्व का ध्यान कर ।। १६५।। पट्टिकै कुलिकम नेट्टने निदिक्रेवोडल देतिदोडेमेस ॥ विदाहनिजदल्लि मिले हों गट्टि सर्ने मुक्ति कन्लेगा सुदिमाम्पं ॥ १६६ ॥ अर्थ-उठते बैठते, सोते, जगते चलते तथा फिरते समय कभी भी शरीर का ध्यान न करके अपने निजात्मध्यान में मग्न रहने वाले प्रधान मुनि मोक्ष रूपी कन्या के अधिपति होते हैं ॥ १३६.. सुतितोळलला|सदेमनमं । मत्त दरोळिरलुमियदोथ्य ने नंदी 11 चित्तित्व दोळिरिसनिजा । यतं निर्वाध बोध सुखमप्पिने गं ॥ १६७ ॥ अर्थ-अपने मन को बाह्य विषय वासनाओं में न घुमाकर सदा अपने उपयोग में स्थिर करके निराबाध केवल ज्ञान होने पर्यन्त स्थिर रहो ॥१६७॥ भाविसु भाविसु भव्य म नोदचन शरीरदत्तरणं मेदिसि च । द्भावमनेपिडिद निच्चं । भावनेयि दल्लदक्कुमे भवनाशं ॥ १६८ ॥ अर्थ - हे भव्य जीव ! मन वचन काय की प्रवृत्ति बाहर की ओर से हटाकर प्रन्तर्मुख करो, तथा अपने चैतन्य भाव को ग्रहण करो। ऐसा किये बिना संसार की परम्परा नहीं टूटती ॥ १६८ ॥ द्वावशानुप्रक्षाः।। ३८ अर्थ — वैराग्य जाग्रत करने के लिए चिन्तयन करने योग्य १२ भावनाऐं Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ( २३० ) है । १ अनित्य, २. अशरण, ३ संसार, ४ एकत्व, ५ अन्यत्व, ६, अशुचि, ७ संवर, ६ निर्जरा, १० लोक, ११ बोधिदुर्लभ, १२ धर्म ये १२ बारह, भावनाओं के नाम हैं । आस्रव श्रद्धयमसरणमेकत्तमण्णत्त संसारलीकमसुचितं । प्रासव संवर णिज्जरधम्मं बोहिच्च चित्तज्जो ॥ घनबुंद सदृशं बे। वन तनुधनपुत्रमित्र वर्गं ध्रुवम || स्तनुपम चित्कार्य ध्रुव । मेनगे निजात्मार्थ भोंषे निजगुण निरता ।। अर्थ —गांव, नगर, स्थान, चक्रवर्ती, इन्द्र, धरणीन्द्र- पद, शरीर, माता, पिता, पुत्र, स्त्री आदि सांसारिक पदार्थ इस जीव के लिये नित्य हैं । शुद्ध अविनाशी श्रात्मा ही चिन्तवन करने योग्य है क्योंकि ग्रात्मा ही नित्य है । यह अनित्य भावना है। - नरकादि चतुर्गतिसं। सरण जनित दुःख सेवना समयदोळा -1 शेर निनगे जिन वर्म । शरणल्लदोडेंदु नेते निज गुरण रत्ना ॥ २ ॥ हे जीवात्मन् ! मनुष्य, देव, नरक, निर्यन इन चार गतिमय संसार में जन्म लेने वाले जीव को सदा दुख भोगते समय या मरते समय जल, पर्वत, दुर्ग ( किला ), देव, मंत्र, औषधि, हाथी, घोड़ा, रथ, सेना तथा घन, सुबर, मकान, स्त्री, पुत्र, भाई आदि कोई भी शरण ( रक्षक बचानेवाला) नहीं है । केवल पंच परमेष्ठी द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म तथा चैतन्य चमत्कार रूप अपना आत्मा ही शरण है । यह ग्रशर भावना है । जननं मरणादि गतिसं । जनित सुखासुखमनात्मरुचिवत्सेवा || जनित सुखममृत सुखसु । मननुभविकु जीवनोदे निज गुणरत्ना ॥३॥ अर्थ-जन्मते बढ़ते मरते समय, शुभ अशुभ कर्म करते समय तथा उन कर्मों का फल भोगते समय, सुख दुख का अनुभव करने के समय केवल सिद्ध भगवान हो सुख शान्ति प्रदान करते हैं, अन्य माता, पिता, पुत्र, स्त्री आदि बन्धुवर्ग कोई भी जोव को गुख शान्ति नहीं देते, वे तो केवल भोजन करते समय एकत्र हो जाते हैं। यानी वे केवल स्वार्थ के साथी हैं। ऐसा विचार करना एकत्व भावना है । विमल गुरणनात्म द्रव्य । दिद भिन्न समस्त गुण पर्याय || सदसद्भूत व्यवहार दिए मन्यमेनं पडगु निजगुरण निरता ||४|| अर्थ-ज्ञान दर्शन सुखवीर्य ही आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं, अतः Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१) वे ही प्रात्मा के साथ सदा रहते हैं । इनके सिवाय अन्य कोई भी पदार्थ प्रात्मा के साथ नहीं रहता इस प्रकार विचार करना अन्यत्व गावना है। जिन वचनंपुसियल्लें । दुनंबिदविडदे पंच संसार विद-॥ र ननात्म ननाददि । नेनेतोडे संसार मुटे निजगुण निरता ॥५॥ अर्थ--द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव, इन पंच परावर्तन रूप संसार वन में, अनादिकालीन वासना से वासित मिथ्यात्व एवं अविरत-रूपी, गहन अन्धकार में रहने वाले, जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित मार्ग को न देखते हुए, इधर उधर भटकते हुए अज्ञानी जीव-रूपी हिरणों को ज्ञानावरण प्रादि आठ कर्म रूपी व्याध (शिकारी) क्रुद्ध होकर घेरते हुए अपने दुर्मोह रूपी वारण से बोचते हैं। वह बारण भीतर घुसते ही उन संसारी जीब रूपी हिरणों को मूछित करके नीचे गिरा देता है । तव वह जोव पातं रौद्र परिणामों से मर कर नरक आदि दुर्गति में जाते हैं। इस प्रकार विचार करके संसार से विरक्त होकर ब्रतादि आचरण करने वाले जीवों को स्वपर-भेद-विज्ञान तथा निश्चल सहानुभूति रूप रत्नत्रयात्मक मोक्ष रूपी दुर्गं (किला) प्राप्त होता है। ऐसा चिन्तवन करना संसार भावना है ।। स्वीकृतरत्नतृतयं- । गाकाशाद्यखिळ वस्तु विरहित निजचि-॥.. ल्लोक मनालोकिसु वदे लोकानुप्रेक्षयन्ते निजगुण निरना ॥६॥ ____ अर्थ-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश, काल ये ६ द्रव्य जहां पाये जाते हैं वह लोक है, वह अकृत्रिम है तथा ग्रादि अन्त (काल की अपेक्षा) रहित है । उस लोक के तीन भेद है, ऊर्ध्व, मध्य, अधः (पाताल)। नीचे से ऊपर की ओर सात, एक, पांच, एक राजू है, उत्तर दक्षिण में सब जगह ७ राजू मोटा है । १४ राजू ऊंचा है। घनोदधि, घन तथा तनुवातवलयों से बढ़ा हुया, सब ओर से अनन्तानन्त लोकाकाश के मध्य में स्थित है। उसके अग्र भाग में सिद्ध क्षेत्र है। वह सिद्ध-क्षेत्र सर्व कर्म क्षय किये बिना किसी को प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार समझ करके उस सिद्ध क्षेत्र में पहुंचने के लिये उद्यम करना चाहिये । ऐसा विचार करना लोक भावना है। शुचियेनिसिद वस्तुगळम- । शुचियेनिकुमोद लोडनेकायमनार ।। शुचियेनिस संहननं- । शुचि निजचित्तत्वमोंदे निजगुरमिरता।॥ अर्थ-रज वीर्य से उत्पन्न, सप्त धातुमय इस शरीर के द्वारों से दुर्गन्धित बृरिणत मैल बहता रहता है, इसमें अनेक प्रकार की व्याधियां भरी Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) हुई हैं, यह अनित्य है, एवं जीव के लिये कारावास (जेल) के समान है, मलन पूरण (गलने पूरे होने) स्वरूप है। इस तरह समस्त दुर्गुणों से पूरी इस शरीर रूपी घर में रहते हुए जीव को इसके साथ नष्ट न होना चाहिये । यह शरीर धुने हुए गन्ने के समान यद्यपि नीरस है फिर भी चतुर किसान जिस तरह उस घुने हा गाने को खेत में लोकर मागे मी ने पैदा कर लेता है, उसी तरह इस असार शरीर को अविनाशी (मोक्ष) फल पाने के उद्देश से तपस्या द्वारा कृश कर लेना चाहिये । ऐसा विचार करना अशुचि भावना है। भववारिधि पोत्तमना-। स्रवरहितमनात्मतत्वभंभाविसुवं ॥ भवजलधियंदौटने- । समम सप्तयुतयोगि निजगुणनिरता ॥८॥ अर्थ-जिस प्रकार गर्भ लोहे का गोला यदि जल में रम्न दिया जाय तो वह अपने चारों ओर के जल को खींच कर सोख लेता है । इसी प्रकार क्रोध मान हास्य शोक आदि दुर्भावों से संतप्त संसारी जीव सर्वांग से अपने निकटवर्ती कार्मारा वर्गणाओं को आकर्षित करके अपने प्रदेशों में मिला लेता है। विभावपरिणति के कारण जीव को यह कर्म शास्त्रव हुआ करता है। ऐसा विचार करना प्रास्त्रव भाबना है। परमात्म तत्वसेवा- निरतं वतसमिति गुप्तरूप सकल सं॥ वरे युक्त मुक्तिवधू- । वरनागपिरं विवेक निजगुरपनिरता ॥६॥ अर्थ-जीब में कर्मों के प्रागमन रूप मिथ्यात्व द्वार को सम्यक्त्व रूपी बज कपाट से बन्द कर देना चाहिये तथा हिंसादि पंच पाप रूपी कर्म प्रागमन द्वार को पंच अणुव्रत, महावत, समिति के बज्र-कपाट द्वारा बन्द कर देना चाहिये । इस प्रकार चिन्त वन करना संवर भावना है ॥६॥ परम तपश्चरणात्मक । निरंजन ध्यानदल्लि संवरेयिं ॥ निर्जरेयुदोरेकोंडोडेमु-। क्तिरमापतियप्पुदरिदेनिजगुणनिरता ॥१०॥ अर्थ--विभाव परिणति द्वारा प्रात्म-प्रदेशों में दूध, जलके समान मिले हुए कर्म रूपी कीचड़ को अत चारित्र से युक्त भेद-विज्ञान रूपी जल से धो डालने का चिन्तवन करना निर्जरा भावना है ॥१०॥ अमृत सुख निमत्त वश-। धर्ममुमनमलगुणरत्नत्रय ॥ धर्ममुमनेनेवने । निर्मलविवेकिनिजगुरण निरता ॥१॥ अर्थ-- रत्नत्रय से युक्त ११ प्रकार के गृहस्थ धर्म तथा १० प्रकार के Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सादि Si और वृत्ति से पालन न करे तो मोक्ष सुख प्राप्त ऐसा समझ कर सदा धर्मानुरागी बने रहना धर्म A'S मुख सं- । कुलबोळ जात्यादि कोधि दुर्लभमरिन। लभ बो- । धिलाममं पडेदु बिउदे निजग पनिरता ॥ शुद्धरत्न- । ययत्नमेलाभमेनलबोधि भाविसुगति ॥ धेियनेदि सुबदल्लि मि- । श्चयवसमाधियल्तेनिजगुणनिरता ॥१२॥ अर्थ-पृथ्वी जल, बनस्पति आदि अनन्त एकेन्द्रिय स्थावर जीवों से क भरा हुआ है, उन स्थावर जीवों में से निकल कर दोन्द्रिय आदि कठिन है, दो इन्द्रियों से विकलेन्द्रिय होना महादुर्लभ है । विकलेन्द्रिय चेन्द्रिय जीव का शरीर पाना और भी अधिक कठिन है, पंचेन्द्रिय जीवों पशु जीवों की संख्या प्रचुर है, अतः पशुओं से मनुष्य-भव पाना महाकठिन है । मुष्य भी यदि हित अहित विवेक-रहित नीच म्लेच्छ कुल में जन्म लेते हैं। पंखएड के सत्कुल में उत्पन्न होना कठिन है। अच्छे कुल में उत्पन्न होकर ल्पायु, असुन्दर, इन्द्रिय-विकलता, पंचेन्द्रियों में लीनता का होना, कुसंग, र दरिद्रता सरल है, दीर्घायु, सुन्दर, पूर्णेन्द्रियां, धर्म में रुचि, सम्पत्ति, संगति मिलना और भी कठिन है । सौभाग्य से यह सब सुयोग मिल भी जावें जैनधर्म का सुयोम मिलना महाकठिन है । कदाचित् सत्धर्म का योग भी ल जावे तो रत्नत्रय की शुद्धता, सत्वश्रद्धा, तप करने का भाव, धर्म भावना, जार शरीर भोगों से विरक्ति तथा समाधिमरण की एवं अंत में बोधि का प्राप्त ना महान दुर्लभ है। इस प्रकार चिन्तवन करना बोधिवर्लभ भावना ॥१२॥ इस प्रकार गृहस्थ धर्म का संक्षेप वर्णन हुआ। यति धर्म यतिधर्मों वशविधः ॥३६। अर्थ-मुनियों का धर्म १० प्रकार का है। [१] उत्तम क्षमा, [२] उत्तम : मार्दव, [३] उत्तम प्रार्जव, [४] उत्तम शौच, [५] उत्तम सरप, [६] उत्तम संयम, [७] उत्तम तप, [८] उत्तम त्याग, [6] उत्तम आकि यन्य, तथा [१०] उत्तम ब्रह्मचर्य ये उन धर्मों के नाम हैं। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४) यदि कोई मनुष्य गाली दे, मुक्का लात डंडे आदि से मारे, तलवार, छुरा आदि से मारे अथवा प्राणरहित कर दे तो अपने मन में क्रोध भाव न लाकर, यों विचार करना कि मैं भेदात्मक तथा अभेदात्मक रत्नत्रय का धारक हूँ मुझे किसी ने मानीलहीं दी. के - शस्नो आयल किया और न मुझे कोई अपने चैतन्य प्राणों से पृथक कर सकता है, ऐसी भावना का नाम उत्तम क्षमा है। ज्ञान, तप, रूप आदि आठ प्रकार का अभिमान न करना, अपने अपमान होने पर भी खेद खिन्न न होना तथा सन्मान होने पर प्रसन्न न होना मार्दव धर्म है। ___ मन वचन शरीर को क्रियाओं (विचार, वाणी और काम) में कुटिलता न आने देना प्रार्जव धर्म है। किसी भी पदार्थ पर लोभ न करके अपना मन पवित्र रखना शौच धर्म है। राग द्वष मोह आदि के कारण भूठ न बोलना सत्य धर्म है। सत्य १० प्रकार है-१ जनपदसत्य-भिन्न भिन्न देशों में बोले जानेवाले शब्दोंका रूढि अर्थ मानना । जैसे पकाये हुए चावलों को 'भक्त' कहना । २ सम्मतिसत्यअनेक मनुष्यों की सम्मति से मानी गई बात सम्मति सत्य हैं, जैसे किसी गृहस्थ को महात्मा कहना। ३ स्थापना सत्य-अन्य पदार्थ में अन्य को मान लेना जैसे पाषाण प्रतिमा को भगवान मानना । ४ बिना किसी अपेक्षा के व्यवहार के लिए कोई भी नाम रखना नाम सत्य है जैसे इन्द्रसेन आदि । ५ रूप सत्य-किसी के शरीर के चमड़े का काला गोरा आदि रंग देखकर उसे गोरा या काला प्रादि कहना । ६ अन्य पदार्थ की अपेक्षा से अन्य पदार्थ को लम्बा, बड़ा छोटा आदि कहना प्रतीत्य सत्य है । ७ किसी नय की प्रधानता से किसी बात को मानना व्यवहार सत्य है जैसे आग जलाते समय कहना कि मैं रोटी बनाताहूं। ८ संभावना (हो सकने) रूप वचन कहना संभावना सत्य है । जैसे इन्द्र जम्बू द्वीप को उलट सकता है । ६ आगमानुसार अतीन्द्रिय बातों को सत्य मानना भाव सत्य है । जैसे उबाले हुए जल को प्रासुक मानना। १० उपमा सन्म किसी की उपमा से किसी बात को सत्य मानना । जैसे गढ़े में रोम भरने आदि की उपमा से पल्य सागर आदि का काल प्रमाण । यह १० प्रकार का सत्य है। .. मन वचन काय की शुद्धि द्वारा किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार c..ASTR Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५ ) का कष्ट नहीं देना संयम धर्म है । संयम धर्म को निर्मल रखने के लिए भावशुद्धि शरीर शुद्धि, विनय शुद्धि, ईर्यापथ शुद्धि, प्रतिष्ठापन शुद्धि, शयन सन शुद्धि वाक् शुद्धि तथा भिक्षा शुद्धि ये आठ प्रकार की शुद्धियां हैं । अनशनादिक बहिरङ्ग तथा प्रायश्चित्त श्रादि अन्तरङ्ग तपों का आचरण करना तप धर्म है । कः पूरयति दुःपूरमशागतं चिरादहो । चित्रं यत्क्षरणमात्रेण त्यागेनैकेन पूर्यते ॥ २२ ॥ अर्थ -- कठिनाई से पूर्ण होने वाले इस प्राशा - रूपी गढ़े को संसार में कौन पूर्ण कर सकता है? कोई नहीं। किंतु आश्चर्य की बात है कि एक त्याग धर्म के द्वारा ही वह ग्राशा का खड्डा क्षण मात्र में पूर्ण हो जाता है । जिस तरह हजारों नदियों के जल से समुद्र की तृप्ति नहीं होती, असंख्य वृक्षों की लकड़ी से जिस तरह अग्नि तृप्त नहीं होती, इसी प्रकार संसार के समस्त पदार्थों से भी मनुष्य की तृष्णा शान्त नहीं होती। ऐसा विचार करके परमाणु मात्र भी पर-पदार्थ अपने पास न रखकर उनका त्याग कर देना त्याग धर्म है । अन्य पदार्थों की बात तो दूर हैं, अपना शरीर तथा शरीर से उत्पन्न हुआ पुत्र पौत्र श्रादि परिवार भी आत्मा का अपना नहीं है, ऐसा विचार करके किसी भी पदार्थ में ममत्व भाव न रखना श्राकिञ्चन्य धर्म है । : करण चविहिंदिकदकारिव श्रमोदयं चैव जोगे छग्धरण मेत्तो बम्भाभंगाहु प्रक्खसंचारे ॥ ८ ॥ अर्थ-स्त्री, देवी, मादा पशु ( तियंचिनी) तथा अचेतन स्त्री ( मूर्ति चित्र आदि ) ४ प्रकार की स्त्रियों से सार्शन, रसना, घाण, नेत्र, कर्णं तथा मन इन ६ इन्द्रियों द्वारा, कृत, कारित, अनुमोदना तथा मन वचन काय योगों द्वारा (यानी ६ इन्द्रिय x ३ योग x ३ कृत कारित अनुमोदना = ५४ भंगों द्वारा x ४ प्रकार की स्त्रियां = २१६) विषयवासना का त्याग करके अपने आत्मा में रत रहना ब्रह्मचर्य धर्म है । अष्टाविंशति लगुणाः ||४०|| अर्थ-मुनियों के २८ मूलगुण होते हैं । ५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रिय विजय ६ आवश्यक, सात शेष गुण - १ स्नान का त्याग, २ दन्त धावन का Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) त्याग, ३ वस्त्र त्याग, ४ पृथ्वी पर सोना, ५ दिन में एक बार भोजन, ६ खड़े होकर भोजन करना और ७ कोश लोंच; ये उन मूलगुणों के नाम हैं । मुनि चारित्र के मूल कारण ये २८ प्रकार के बत होते हैं। ५ महानत स्पर्शन, रसना, घाण, नेत्र, कर्ण, मन बल, वचन बल कायबल, पायु और श्वासोच्छ्वास ये ससारी जीव के १० प्राण हैं इनको मन वचन काय, कृत कारित, अनुमोदन, संरम्भ, समारम्भ, प्रारम्भ तथा क्रोध मान माया लोभ, चारों कषायों के १०८ भंगों (३ योग x ३ कृतकारित अनुमोदन x ३ संरम्भ . समारम्भ प्रारम्भ x ४ क्रोध सान माया लोभ = १०८) से घात न करना अहिंसा महावत है। विसी काम को स्वयं करना कृत है, अन्य किसी के द्वारा कराना कारित है, किसी के किये हुए कार्य की सराहना (प्रशंसा) करना अनुमोदना है। किसी कार्यको करने का विचार करना संरम्भ है, कार्य करने की साधनसामग्री जुटाना समारम्भ है तथा कार्य करने का प्रारंभ करना प्रारम्भ है। इनके भंग निम्न प्रकार से बनने हैं [१] मन कृत संरम्भ, [२] मन कृत समारम्भ, [३] मन कृत आरम्भ, [४] मन कारित संरम्भ, [५] मन कारित समारम्भ, [६ [ मनकारित प्रारम्भ, [७] मन अनुमोदन संरम्भ, [८] मन अनुमोदन समारम्भ, [६] मन अनुमोदन प्रारम्भ । ये भंग एक मन योम के हैं। इसी प्रकार भंग वचन के हैं, ६ भंग काय के हैं। इस तरह तीनों योगों के २७ भंग होते हैं। ये २७ भंग क्रोध, मान, माया लोभ प्रत्येक कषाय के कारण हुमा करते हैं, अतः चारों कषायों के प्राश्रय से समस्त भंग १०८ होते हैं । ये १०८ भंग अनन्तानुबन्धी कषाय के हैं, इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषाय के भी १३-१०८ भंग होते हैं, अतः चारों प्रकार की कषायों के प्राश्रय समस्त ४३२ भंग होते हैं । इस प्रकार हिंसा के भेद प्रभेदों को समझवार समस्त हिंसा का त्याग करना अहिंसा महावत है। राग द्वेष के कारण होने वाले असत्य भाषण का त्याग करना सत्य महावत है। जल मिट्टी आदि पदार्थ भी बिना दिये ग्रहण न करना अचौर्य महालत है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) संसार को समस्त स्त्रियों, देवियों आदि से २१६ प्रकार के अतिचार सहित विषयवासना का त्याग करना ब्रह्मचर्य महाव्रत है। २१६ अतिचार पीछे ब्रह्मचर्य धर्म के स्वरूप में बतला चुके हैं। ___ दश प्रकार का बहिरंग और १४ प्रकार अन्तरङ्ग परिग्रह त्याग कर अणुभात्र भी पर-पदार्थ ग्रहण न करना अपरिग्रह महाबत है। जिस मार्ग पर मनुष्य, हाथी, घोड़े, गाय, बैल आदि पशु चलते रहते हों ऐसे मार्ग पर चार हाथ आगे को भूमि देखकर चलना ईर्या समिति है.। . __ काम कथा, युद्ध कथा, कठोर वारणी आदि का त्याग करके हितकारक, परिमित, प्रिय तथा प्रागम-अनुक्कल वचन बोलना भाषा समिति है। मन कृत, मन कारित, मन अनुमोदित, वचन कृत, वचन कारित, बचन अनुमोदित, काय कृत, काय कारित, काय अनुमोदित, इन नौ कोटियों से शुद्ध भिक्षाचर्या से शुद्ध कुलीन श्रावक के घर, दाता को रंच मात्र भी दुख न देते हुए, राग द्वेष रहित होकर शुद्ध भोजन करना एषरणा समिति है। ज्ञान के उपकरण शास्त्र, संयम के उपकरण पीछी, शौच के उपकरण जल' रखने के कमण्डलु को अच्छी तरह भूमि पेशकर (प्रतिलेखन करके) रखना और देख भाल कर उनको उठाना प्रादान निक्षेपरण समिति है । जीव-जन्तु-रहित एकान्त स्थान में नगर के बाहर दूर प्रदेश में जहां दूसरों को बाधा न हो, वहां पर मलमूत्र करना प्रतिष्ठापन समिति है। . . _स्पर्शनेन्द्रिय सम्बन्धी इष्ट अनिष्ट विषयों में राग द्वेष का त्याग करना ११ वां मूल गुण है। रसनेन्द्रिय के इष्ट अनिष्ट विषयों में राग द्वष को त्याग कर देना १२ वा मूल गुण है। . नाणेन्द्रिय के इष्ट अनिष्ट विषयों में रागद्वेष को त्याग देना १३ वां मूल गुण है। ___चक्षु इन्द्रिय के इष्ट अनिष्ट विषय में राग द्वष को त्याग देना १४ वा मूल गुण है। श्रोनेन्द्रिय विषय-सम्बन्धी इष्ट अनिष्ट विषयों में राग द्वेष का त्याग कर देना १५ वां मूल गुण है। सर्व प्राणियों में समताभाव रखकर आत्मचिन्तन करना समता या सामायिक नाम का १६ वां मूल गुण है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुस्तक्न, रूपस्तबन, गुणस्तवनादिक से अरहंत परमेश्वर की स्तुति करना, यह स्तवन नामका १७ यां मूल गुण है। देवता स्तुति करने में अपनी शक्ति का न छिपाते हुए खड़े होकर या बैठकर त्रिकरण-शुद्धिपूर्वका दोनों हाथ जोड़कर जो क्रिया करते हैं उस तरह करना स्तवन है । उस प्रिया का नाम लेकर कायोत्सर्ग पूर्वक सामायिक दंडक का उच्चारण करे, तीन बार पावर्त और एक शिरोनति करके दंडक के अन्त में कायोत्सर्ग कर पंच गुरुचरण कमल का स्मरण करके द्वितीय दंडक के आदि और अंत में भी इसी प्रकार करे । इस तरह बारह आवर्त और चार शिरोनति होते हैं। इसी तरह चैत्यालय प्रदक्षिणा में भी तीन-तीन आवर्त एक एक शिरोनति होकर चारों दिशा-सम्बन्धी ब्राम्ह आवर्त चार शिरोनति होते हैं। जिन प्रतिमांक सामने इस प्रकार करने से दोष नहीं है। बुबोग दंज हाजादं बारसा वदमेवयं । चदुस्सिर तिसुद्धि च किरिय कंमपउज्जये । नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ये कम से पुण्य तथा पापास्रव के कारण हैं । तो भी सम्यग्दृष्टि के लिये चैत्य चैत्यालय, गुरू के निषिधिकादि संस्थान क्रियाकांड करने योग्य है, ऐसा कहा गया है । शंका-नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव ये पुण्यासूत्र तथा पापास्रव के कारण हैं। जिन मंदिर, गुरु निपिधिका ग्रादि बनवाने में, जिनेन्द्र-बिम्बनिर्माण तथा पूजन आदि करने में प्रारम्भ करना पड़ता है, इस कारण ये क्रियाएं करने योग्य नहीं हैं। समाधान-जिस कार्य में थोड़े से सावद्य (दोष) के साथ महान पुण्य लाभ हो वह कार्य करना उचित है । जैसे क्षीर सागर में दो चार बूद विष कुछ हानि नहीं करता, उसका अवगुण स्वयं नष्ट हो जाता है इसी प्रकार मंदिर प्रतिमा बनवाने, पूजन आदि करने में जो थोड़ा सा प्रारम्भ होता है वह मंदिर में असंख्य जीवों द्वारा धर्म साधन करने से वीतराग प्रतिमा के दर्शन पूजन से असंख्य स्त्री पुरुषों द्वारा भावशुद्धि, विशाल पुण्य उपार्जन करने में स्वयं विलीन हो जाता है, पुण्य रूप हो जाता है, अतः दोष नहीं है, थोड़ी सी हानि की अपेक्षा महान लाभ है। जिस तरह कल्पवृक्ष, चिन्तामणि रत्न, गरुड, मुद्रा आदि अचेतन जड़ पदार्थ मनुष्यों को महान सुख सम्पत्ति प्रदान करते हैं, तथैव जिनमंदिर, भिमप्रतिमा भी अचेतन होकर दर्शन भत्ति प्रादि करनेवाले को वीतरागता, भाव शुद्धि, शान्ति प्रादि प्रात्मनिधि (निमित्त रूप से) प्रदान करते हैं, Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६) अतः जिन मंदिर बनवाना, प्रतिमा बनवाना, पूजन आदि क्रिया में हानिकारक न होकर लाभदायक है, एक बार का बनवाया हुअा मंदिर तथा प्रतिमा दोर्घकाल तक अगणित स्त्री पुरुषों को प्राध्यात्मिक शुद्धि, पुण्य कर्म-संचय करने में सहायक हुआ करते हैं । अतः जिन मंदिर, जिन चैत्य, गुरु निषिधिका, शास्त्र निर्माण, पूजन, प्रक्षाल तीर्थ यात्रा प्रादि बहुत लाभदायक हैं। ___ इस कारण स्वाधीनता तथा प्रसन्नता के साथ दर्शन, पूजन प्रादि क्रिया करनी चाहिए, पराधीनता से दर्शन पूजन प्रादि धर्म-क्रिया नहीं करनी चाहिये तथा पूजन प्रक्षाल भो स्वयं करना चाहिए, अन्य मनुष्य के द्वारा न कराना चाहिए । एवं स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहन करके मंदिर में भाना चाहिये। जल से अपने पैर धोकर मंदिर में निःमहि नि राहि किन नहीं हुचे गोमा करना चाहिए। तत्पश्चात् तीन प्रदक्षिणा देकर भगवान के सामने खड़े होकर ईयापथस्तुति बोलना चाहिए । उसके बाद कायोत्सर्ग करके अालोचना करे। तदनन्तर 'चैत्य-भक्ति-कायोत्सर्म करोमि' ऐसी प्रतिज्ञा करके चैत्य भक्ति पहनी चाहिए। चैत्य भक्ति इस प्रकार है:-- मानस्तंभाः सरांसि प्रमिलजललसत्खातिका पुष्पवाडी। प्राकारो नाट्यशाला द्वितयमुपवनं येदिकांत जामाः।। मासः कल्पद्र मारणा सुपरिवृतवनं स्तूपहाबली च। . प्राकारः स्फाटिकोतर्नु सुरमुनिसभाः पीठिकाने स्वाभः॥ वर्षेषु वर्षान्तरपर्वतेषु नदीश्वरे यानि च मंबरेषु । यावंति चैत्यायतनानि लोके सर्वारिग वंदे जिनपुगवानाम् ।। अवनितलगतानां कृत्रिमाकृत्रिमाणां, वनभवनगतानां दिव्यत्रैमानिकानां ॥ इह मनुजकृतानां देवराजाचितानां, जिनवर निलयानां भावतोहं स्मरामि ।। जंबूधातकिपुष्कराद्ध वसुधाक्षेत्रत्रये ये भवाः, चंद्रांभोजशिखंडिकंठकनकप्रावृधनाभा जिनाः सम्यग्ज्ञानचरित्रलक्षगधरा ग्धाष्टकर्मेन्धनाः, भूतानागतवर्तमानसमये तेभ्यो जिनेभ्यो नमः ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४०) श्रीमन्मेरौ कुलाद्रौ रजतगिरिवरे शाल्मली जंबुवृक्ष। . . क्षारे चत्यवृक्षे रतिकररुचके कुडले मानुषांके । . इष्वाकारेञ्जनाद्रौ दधिमुखशिखरे व्यंतरे स्वर्गलोके । ... ज्योतिर्लोकेभिवंदे भुवनमहितले यानि ,त्यालयानि ॥ . देवासुरेन्द्रनरनागसचितेभ्यः, पापप्रणाशकरभव्यमनोहरेभ्यः । घंटाध्वजाविपरिवारविभूषितेभ्यः नित्यं नमो जगतिसर्वजिनालयेभ्यः ॥ ... . इच्छामि भंते चेइभत्ति काउसम्गो को तस्सालोचेउ', अहलोयतिरियलोयउढ़ लोयम्मि किट्टिमाकिट्टिमाणि जाणि जिनचेइयाणि ताणि सब्यारिण तिसुवि लोयेसु भवणवाणवितरजोइसियकप्पवासियत्ति चउविहा देवा सपरिवारा दिमोगा नवेग, दिलेग चुरोग, निललेगा वाण निकदेण पहाणेण, णिच्चकालं अचंति पुज्जति वंदति, रणमंसंति, ग्रहमवि इह संतो तत्थ संताई, णिच्चकालं अच्चेमि पूजेमि वंदामि, रामसामि, दुक्खक्खयो, कम्मक्खनो बोहिलाहो सुगइगमरणं समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झं 1 .. इस तरह लघु चैत्यभक्ति पढ़ने के बाद खड़े होकर नौ बार णमोकार मन्त्र पढ़कर कायोत्सर्ग करे । तत्पश्चात् बहुत आनन्द प्रसन्नता से भगवान के मुख का दर्शन करना चाहिए। जिस तरह चन्द्रमाके उदय होने पर चन्द्रकान्त मरिण से जल निकलने लगता है, इसी प्रकार भगवान का मुखचन्द्र देखते ही नेत्रों से आनन्द जल निकलना चाहिए। उस प्रानन्दात्रु जल से भीमे हुए नेत्रों से अनादि भवों में दुर्लभ अर्हन्त परमेश्वर की महिमामयी प्रतिमा का हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए पुलकित मुख से अवलोकन करना चाहिए, अष्टांग अथवा पंचाग नमस्कार करना चाहिए। आदि अन्त में दण्डक करके चैत्य-स्तवन (प्रतिमा की स्तुति) करते हुए तीन प्रदक्षिणा देनी चाहिए । फिर बैठकर मालोचना करे। तदन्तर 'पंच, रुभक्तिकायोसर्ग करोमि' रूप प्रार्थना करके खड़े होकर पंच परमेष्ठी की स्तुति करनी चाहिए । स्तुति इस तरह है श्रीमदमरेंद्रमुकुटप्रघटितमणि किरणवारिधाराभिः । प्रक्षालितपयुगलान्प्रणमामि जिनेश्वरान्भक्त्या ॥१॥ प्रष्टगुरणः समुपेतापरणटदुष्टाष्टकर्मरिपुसमितीन् । सिद्धान्सततमनन्तान्तान्नमस्क रोमीष्टतुष्टिसंसिद्ध्यै ॥२॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४१ ) साचार तजलधीन्प्रतीर्य शुद्धोरुचरणनिरतानाम् । प्राचार्याणां पदयुगकमलानि दधे शिरसि मेहम् ॥३॥ मिथ्यावादिमदोप्रध्वांतप्रध्वंसिवचनसंदर्भान् । उपदेशकान प्रपद्य मम दुरितारिप्रणाशाय ॥४॥ सम्यग्दर्शनदीपप्रकाशकामेयबोधसंभूताः । भूरिचरित्रपताकास्ते साधुगणास्तु मां पान्तु ॥५॥ जिनसिद्धसूरिदेशकसाधुवरानमलगुणगरपोपेतान् । पंचनमस्कारपर्वस्त्रिसंध्यमभिनौमि मोक्षलाभाय ।।६।। एष पंचनमस्कारः सर्वपापप्रणाशनः । मंगलानां च सर्वेषां प्रथम मंगलं भवेत् ॥७॥ अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायाः सर्वसाधवः । कुर्वन्तु मगला:सर्वे निर्धारणपरमश्रियम्।। सनि जिनेंद्रचंद्रान् सिद्धानाचार्यपाठकान् साधून् । रत्नत्रयं च वंदं रत्नत्रयसिद्धये भक्त्या | पांतु श्रीपादपद्मानि पंचानां परमेष्ठिनाम् । लालितानि सुराधीशचूडामणिमरीचिभिः ।।१०।। प्रातिहाजिनान सिद्धान् गुणः सूरान् स्वमातृभिः । पाठकान् विनयेः साधनयोगांगैरष्टभिः स्तुवे ॥११॥ इच्छामि, भंते पंचगुरुभत्ति काउस्सग्गो तस्सालोचे अट्ठमहापापिहेरसंजुत्ताणं अरहंताणं अगुणसंपण्णाणं उडलोयमत्थयम्मि पइट्ठियारणं सिद्धाणं, अपवयरणमउसंजुत्ताणं पायरियाण अायारादिसुदणागोवदेसयाण उवज्झायाण, तिरयणगुणपालगरयारण सब्बसाहूनिच्च णिच्चकालं पंचेमि, पूजेमि, वंदामि, एमसामि, दुक्खक्खनो, कम्मक्खनो, बोहिलाहो, सुगइगमरण समाहिमरण, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झ । __ इस प्रकार स्तुति करके पुनः तीस बार बैठकर आलोचना करना चाहिए । इस तरह इस स्तवन क्रिया के ६ भेद हैं--(१) श्रात्माधीनत्व ( पराधीन होकर-अन्य की प्रेरणा से ऐसा न करते हुए, अपने उत्साह भक्ति से स्वाधीन रूप में स्तवन करना), (२) प्रदक्षिणा ( जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा की परिक्रमा करना), (३) वार अय ( तीन बार स्तुति आलोचना करना), Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२ ) (४) निवाय ( तीन बार बैठकर क्रिया करना ), ५ चतुः शिरोनति ( चारों दिशाओं में घूमकर सिर झुकाकर नमस्कार करना ), (६) द्वादश भावतं चारों दिशाओं में तीन-तीन आवर्त - हाथ जोड़कर तीन बार घुमाना ) । देव स्तवन के ३२ त्याज्य दोष- भगवान की स्तुति करने में निम्न लिखित ३२ दोष हो सकते हैं उनको दूर करके निर्मल रूप से स्तुति करनी चाहिए। दोषों के नाम मन में (१) विनाविश्वास के दर्शन करना, (२) कष्ट के साथ दर्शन करना, (३) एकदम भीतर घुसकर करना, (४) दूसरे को डराते हुए करना, ( ५ ) शरीर को डुलाते हुए करना, (६) मस्तक को ऊंचा उठाकर करना, ( ७ ) कुछ और ही विचार करना, (८) मछली के समान चंचलता पूर्वक दर्शन करना, (६) क्रोध से युक्त होकर करना, (१०) दोनों हाथों को प्रमाद से जमीन में टेककर दर्शन करना, (११) मुझे देखकर और लोग भी दर्शन करेंगे, इस भाव से करना, ( १२ ) धन के अभिमान से करना, (१३) ऋद्धि गौरव के मद से करना, (१४) छिपकर अर्थात् अपने स्थान में बैठे-बैठे दर्शन करना, (१५) संघ के प्रतिकूल होकर करना, (१६) मनमें कुछ शल्य रखकर करना, (१७) कातने के समान अर्थात् दुःख के समान दर्शन करना, (१८) किसी दूसरे के साथ बोलते हुए करना, (१६) दूसरे को कष्ट देते हुए वरना, ( २० ) स्कुटि तानकर करना, (२१) ललाट की रेखाओंों को तानकर करना, (२२) अपने अंगोपांग की आवाज करते हुए करना ( २३ ) कोई श्राचार्यादि को प्राते हुए देखकर करना, (२४) अपने को वे देख न सकें ऐसे दर्शन करना, (२५) बेगार सी काटते हुए दर्शन करना, (२६) कोई उपकरण प्राप्त होने के बाद करना, (२७) उपकरण प्राप्त हो इस दृष्टि से करना ( २८ ) नियत समय से पहले ही दर्शन कर लेना, (२६) समय बीत जाने के बाद करना, (३०) मौन छोड़कर दर्शन करना, (३१) दूसरे किसी को इशारा करते हुए करना, (३२) यद्वा तद्वा गाना गाते हुए दर्शन करना । इन बत्तीस दोषों को टालकर दर्शन करना चाहिए । श्री कुन्दकुन्दाचार्य स्वामी का मूलाचार-श्ररणाठिदं च थट्टे व पविट्ठे परिपीडिदं । वोलाइयम कुसियं तहा कच्छवरिंगियं ॥ १३० ॥ अर्थ- -- अनादर दोष प्रदर के बिना जो क्रिया-कर्म किया जाता है वह अनाइत नामक दोष है । स्तब्ध – विद्यादि गर्व से युक्त होकर जो कर्म , .. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४३ ) करता है उसको स्तब्ध दोष उत्पन्न होता है । प्रविष्ट दोष - पंचपरमेष्ठियों. के प्रति निकट होकर कृतिकर्म करना प्रविष्ट दोष है । परिपीडित दोषअपने दोनों हाथों से दो गोड़ों को स्पर्श करके क्रिया करना परिपीडित दोष हैं । दोलायितदोष- -भूला के सम्मान अपने को चला चलाकर क्रियाकर्म करना अथवा स्तुतियोग्य अर्हतादि परमेष्ठियों की स्तुति और किया कर्म संशय-युक्त होकर करना दोलायित दोष है । अंकुशित दोष- अंकुश के समान हाथ के अंगूठे बनाकर ललाट में रखना श्रंकुशित दोष है । कन्परंगितदोषबैठकर के कछवे के समान आगे चलना कच्छपरिंगित दोष हैं । मच्छुत्व' मोट्ठे वेवि दूधमेव य । भयसा चैव भयत्त' इड्डिगारवगारवं ॥ १३१ ॥ अर्थ- दोसवाड़ों के द्वारा वंदना करना प्रथवा मच्छके समान कटि भाग से पलटकर वंदना करना मत्सोद्वर्त नामक दोष है । मन से आचार्य के प्रति द्वेष धारण कर जो वन्दना करता है उसको मनो दुष्ट कहते हैं । अथवा संक्लेश मनसे वंदना करना मनो दुख दोष हो है । हाथों को आपस में बद्ध करना अथवा हाथ को पिंजड़े के समान कर दायें और बायें स्तन को पीड़ा करके अथवा दोनों गोड़ों को बद्ध करके वंदना करना वेदिका - बद्ध दोष है । मरणादिक सात भय से डर कर वंदना करना भय दोष है । जो गुरु आदि से भय धारण कर वंदना करता है वह विम्य दोष है । चातुर्वण्यसंघ मेरा भक्त होगा ऐसे अभिप्राय से वंदना करना ऋद्धिगारव दोष है अपना महात्म्य आसनादिकों के द्वारा प्रगट करके अथवा रस के सुख के लिए वंदना करना गौरव वंदना दोष है तेरिपदं पडिरिपदं चावि पट्ट तज्जियं तथा । सदद्धं च होलिवं चावि सहा तिविलिदकु' चिदं ।। १३२ ॥ अर्थ - स्तेनितिदोष - श्राचार्यादि को मालूम न पड़े ऐसे प्रकार से वंदना करना, दूसरे न समझ सकेँ ऐसी वंदना, कोठरी के अन्दर रहकर वंदना करना स्तनित दोष है । प्रतिनिति दोष- देव गुरुग्रादिकों के साथ प्रतिकूलता धारण कर वंदना करना, प्रदुष्ट दोष अन्यों के साथ वैर, कलहादिक करके क्षमा याचना न करते हुए वंदनादिक क्रिया करना तर्जित दोष दूसरोंको भय उत्पन्न करके यदि साधु वंदन हो तो तर्जित दोष होता है | अथवा प्राचार्यांदिकों द्वारा गुली यादि से भय दिखाने पर यदि साधु वंदना करेगा तो तर्जित दोष होता Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४) है । अर्थात् यदि तुम नियमादिक क्रिया नहीं करोगे तो हम तुमको संघ से अलग करेंगे ऐसे क्रोध से डाटे जाने पर बंदना करना भी तजित दोष है। शब्द दोषशब्द बोलकर मौन छोड़कर जो वंदनादिक है वह शब्द दोष है। अथवा, शब्द, के स्थान में, सटें, ऐसा भी पाठ है अर्थात् शाठ्यसे, मायाचारी से कपट से वंदना आदिक करना हिलित दोष है । प्राचार्य वचन के द्वारा परवश हो कर वंदनादिक करना प्रिविलित दोष है । कमर, हृदय और कंठ मोड़कर वंदना करना अथवा ललाट में त्रिवली करके वंदना करना कुचित दोष है। सकुचित किये हाथों से मस्तक को स्पर्श करके वंदना करना अथवा दो गोड़ों के बीच में मस्तक रखकर संकुचित होकर जो वंदना की जाती है वह कुचित दोष है । इस प्रकार प्रतीत दोषों का परिहार कर निदा और गहीं से युक्त होकर त्रिकरण शुद्धि से करने वाला प्रसिक्रमण १६ वां मूल गुण है । अतिक्रमण के भेद देवसिक, रात्रिक, गोचरिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, संवत्सरिक, युगांतर प्रतिक्रम, ईर्यापथिक, केशलोचातिचार, संस्तारातिचार, पंचातिचार, सर्वाचार, सर्वातिचार और उत्तमार्थ ऐसे प्रतिक्रमण के अनेक भेद हैं। अनागत दोषों का परिहार करने के लिये की जाने वाली प्रत्याख्यान क्रिया २० को मूल गुण है। शुभ परिणाम से प्रस्तादि परमेष्ठियों का स्मरण करना कायोत्सर्ग नामक २१ वां मूल गुण है । अर्थात् अंगुष्ठों में बारह अंगुल अंतर तथा एड़ियों में चार अंगुल का अंतर करके खड़ा होना तथा अपनी गर्दन को ऊंचा न कर समान वृत्ति से, रज्जु के आकार अपनी दोनों बाहुओं को लटकाकर खड़े होना चाहिये । अगर इस आसन से खड़े होने की शक्ति न हो तो पल्यंकासन में अपनी बाई जंघा र दाहिनी जंघा को रखकर और जानुकड़े पर वाम हाथ के ऊपर दाहिना हाथ रखकर ध्यान करना चाहिये अर्थात् पंच गुरु के गुण स्मरण पूर्वक जाप करना चाहिये । जैसे कि करणंगळ कुसिदिरे मन-। मिरे नोसलोळ लोचनंगळुळ ळरेलुगुळ्दो पिरे वसनंदसनदोळों। दिरे मद दरदंताचाल यदंतिरे तन ।। इस तरह पंचगुरु को स्मरण पूर्वक जाप करना चाहिये और एक जाप नि:श्वास पूर्वक मन में करना चाहिये . Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब आगे कहे जाने वाली क्रियानों के उच्छ्वास काल के नियम को बतलाते हैं-हिसा व्रत में अगर कोई अतिचार लग जाय तो एक सौ आठ जाप करना चाहिये। देवसिक में १०८, रात्रिक में उसका प्राधा ५४ करना चाहिये और पाक्षिक में ३०० सौ, चातुर्मासिक में ४०० सो, सवत्सरिक में ५०० सौ, गौचपिक में लाते समय तथा ग्राम से ग्रामांतर को जाते समय या अरहंत के दर्शन करते समय तथा किसी मुनि की निषिधिका का दर्शन करते समय, एवं उच्चार प्रश्न करते समय पच्चीस श्वासोच्छवास मात्र कायोत्सर्ग करना, ग्रन्थ प्रारम्भ में तथा उसकी परिसमाप्ति में, स्वाध्याय करते समय तथा निष्ठापन में, देवता स्मरण में जहां जहां इस प्रकार क्रिया हो वहां सत्ताईस उच्छ्वास जप मन ही मन में करना चाहिये । तथा इसी तरह शीतोष्ण दंश-मशकादि परीषहों को सहन करते हुए त्रिकरण शुद्धि से जिन-प्रतिमा के समान कायोत्सर्ग में रहकर जो अनुष्ठान कहा हुया है उसके प्रमाण के अंत में हलन चलन न करते हए एकाग्रता से निरंजन नित्यानंद स्वरूप के समान धर्मशुक्ल का ध्यान स्मरण करना चाहिये । कायोत्सर्ग के ३२ दोष १-किसी दीवाल के सहारे खड़े होना कुड्याश्रित नामक दोष है । २ वाय के द्वारा हिलती हुई लता के समान शरीर को हिलाते रहना लतावक्र नामक दोष है । ३ किसी खम्भे के सहारे खड़े होना अथवा खम्भे के समान खड़े होना स्तंभावष्टंभ नामक दोष है । ४ शरीर के अवयवों को संकोच कर खड़े होना कुचित नामक दोष है। ५ अपनी छाती को आगे निकालकर इस प्रकार खड़े होना जिससे छाती दिखाई दे, वह स्तनेक्षा दोष है। ६ कौवे के समान इधर उधर देखते रहना काक नामक दोष है । ७ शिर को हिलाते जाना शीर्षकंपित नामक दोष है। ८ जिस बैल पर जुवा रक्खा जाता है वह जिस प्रकार अपनी गर्दन को आगे को लम्बी कर देता है उसी प्रकार जो गर्दन को आगे की ओर लम्बा करके खड़ा हो जाता है वह युगकंधर नामक दोष है । ६ कायोत्सर्ग में भकुटियों का चलाते जाना भूक्षेप नामक दोष है। १० मस्तक को ऊपर उठाकर कायोत्सर्ग करना उत्तरित नामक दोष है । ११ कायोत्सर्ग में उन्मत्त के समान शरीर को घुमाते रहना उन्मत्त नामक दोष है । १२ पिशाच के समान कांपते रहना पिशाच नामक दोष है । १३ पूर्व दिशा की ओर देखना। १४ अग्नि दिशा की ओर देखना । १५ दक्षिण दिशा की ओर देखना। १६ नैऋत्य दिशा की ओर देखना । १७ पश्चिम दिशा की Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) भोर देखना । १८ वायव्य दिशा की ओर देखना । १६ उत्तर दिशा की ओर देखना । २० ईशान दिशा की ओर देखना । इस प्रकार ग्राठों दिशाओं की यो देखना आठ दोष कहे जाते हैं । २१ गर्दन को नीचा करके खड़े होना ग्रीवामन नामक दोष है । २२ गुंगे मनुष्य के समान मुख और नासिका को विकारों से इशारा करता मूक-संज्ञा नामक दोष है । २३ उंगलियों के द्वारा गिनना अंगुलो बालन नामक दोष है । २४ । थूकना निष्ठीव नामक दोष है । २५ लगाम लगाये हुये घोड़े के समान दांतों को घिसना शिर को हिलाना आदि को खलिनित दोष कहते हैं । २६ भीलिनी के समान हाथों से गुद स्थानों को ढककर खड़े होना, शवरी गुदयूहन नामक दोष है । २७ कैथ के समान मुट्टियों को बाँधकर खड़े होना कंपित मुष्ठि नामक दोष है । २८ गर्दन को ऊंची करके खड़ा होना नीवोन्मत्त नामक दोष है । २६ अपने पैरो की सांकल से बंधे हुए के समान करके खड़े होना श्रृंखलित नामक दोष है । ३० मस्तक को रस्सी तथा माला आदि के सहारे रखकर खड़ा होना मालिकोढन नामक दोष | ३१ इधर उधर से शरीर का स्पर्श करना स्वांग स्पर्श नामक दोष है । ३२ घोड़े के समान एक पैर को ऊंचा करके खड़े होना घोटकानची नामक दोष है । इस प्रकार कायोत्सर्ग के बत्तीस दोष हैं । तथा इनके सिवाय और भी दोष हैं उनको छोड़कर कायोत्सर्ग करना चाहिये। यह इक्कीसवाँ मूल गुरण है । वस्त्र वल्कल पत्रादि से निर्ग्रन्थपने अपनी नग्नता] को नहीं छिपाता वस्त्रत्याग तेईसवां मूलगुण है । प्राणी तथा इन्द्रिय संयम के निमित्त स्नान न करना २४ वां मूलगुण है । समान भूमि, शिला, लकड़ी का पाटा, घास की चटाई इत्यादि पर धनुष के श्राकार सोना २५ व मूलगुरग है । अपनी उंगली के द्वारा दांतों को न घिसना २६ वां मूलगुण है । खड़े होकर भोजन करना २७ वां मूल गुण है । दिन में एक बार भोजन करना एकमुक्त नामक २८ वां मूलगुण है । अब आगे पांच महाव्रतों को स्थिर करने के लिये उनकी पांच भावनाओं को बतलाते हैं अर्थ- वाग्गुप्ति १, मनोगुप्ति २, ईर्ष्या समिति ३, आदाननिक्षेपण समिति ४, श्रालोकित पान भोजन ये पांच पांच अहिंसा व्रत की भावनायें हैं । १ कोव को त्यागना, २ लोभ को त्यागना, ३ हास्य को त्यागना, ४ भय Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४७ ) भाषण ये सत्य व्रत को पांच भावनायें हैं । लोगों के छोड़ कर गये हुए स्थानों में रहना, बाधा पड़े ऐसे स्थानों में न रहना, भिक्षाशुद्धि, चल रहना ये अचौर्यव्रत की पांच को त्यागना ५ अनुवीचि शून्यागार में रहना, दूसरे दूसरे के माने जाने में सद्धर्म में रुचि रखना अर्थात् हमेशा भावनायें हैं । शब प्रहार में आने वाले ४६ दोषों को बतलाते हैं : उद्गम दोष १६ सोलह, उत्पाद दोष १६ सोलह, ऐवरणा दोष दश, संयोजन दोष चार । पहले उद्गम दोषों को कहते हैं : -- उदिदष्ट, अध्यवधि, पूर्ति, मिश्र, स्थापित, बलि, प्राभृत, प्राविष्कृत, क्रीत, प्रामृष्य, परिवृत, ग्रहित, उद्भिन्न, मालिका रोहण, श्राच्छेद्य और निःसृत, इस प्रकार ये सोलह उद्गम दोष कहलाते हैं । अब अनुक्रम से इसका वर्णन करते हैं— छः कायिक जीवों को घात कर साधु के निमित्त तैयार किये हुये श्राहार को लेना, प्राक में अप्रासुक मिले हुये श्राहार को लेना, किसी पाखंडी के निमित्त तैयार किया हुआ प्रहार, अपने घर के बर्तन में बनाये हुये आहार को दूसरे बरतन में निकाल कर अर्थात् अलग निकाल कर अपने घर में या दूसरे के घर रक्खे हुये आहार को लेना, किसी बलि के निमित्त तैयार किये हुये आहार को लेना, समय को अतिक्रम करके लाये हुये ग्राहार को लेना, अंधेरे में तैयार किये हुये आहार को लेना, बलि के निमित्त तैयार किये हुये आहार में से निकाल कर अलग रक्खे हुए आहार को लेना, अति पक्व किये हुये आहार को लेना, ठंडे आहार में गरम आहार को मिलाकर लेना, पहले से ही किसी ऊपर के स्थानों में अलग निकाल कर रक्खे हुये आहार को उतार कर लेना, कोई दाता अपने घर से आहार लाकर किसी दूसरे दाता के घर में रखकर कहे कि तुम्हारे घरमें यदि कोई साधु आ जाएँ तो आहार को देना क्योंकि मुझे फुरसत नहीं है इस तरह कहकर रक्खे हुए बाहार को लेना, किसी बरतन में बहुत दिनों से बन्द कर खखे हुए बरतन को दाता के द्वारा तोड़कर आहार को लेना, अपने घमंड से दूसरे के ऊपर दबाव डालकर तैयार किये गये अन्न को लेना, दान मद के द्वारा तैयार किये गये अन्न को लेना, प्रधान दाताओं के द्वारा तैयार किया हुआ महार लेना, अधिक मुनियों को प्राता देख भोजन बढ़ाने के लिये दाता द्वारा श्रपस्व पदार्थ मिलाये हुए श्राहार को लेना, ये सोलह उद्गम दोष हैं । आगे उत्पाद दोष को कहते हैं- दाता के आगे दान ग्रहण करने से पूर्व Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) उसकी "तू दानियों में प्रसर है और तेरी जगत् में सर्वत्र कीर्ति फैल गई है," ऐसा कहना पूर्वसंस्तुति दोष है । और जो दाता आहार देना भूल गया हो उसको "तू पूर्व काल में महान दानपति था, अब दान देना क्यों भूल गया है, ऐसा उसको सम्बोधन करना यह भी पूर्व संस्तुति दोष है । कीर्ति का वर्णन करना और स्मरण करना यह सब पूर्व संस्तुति दोष है । पश्चात्संस्तुति दोष श्राहारादिक ग्रहण करके जो मुनि दाता की "तू विख्यात दान - पति है, तेरा यश सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ है" ऐसी स्तुति करता है उसको पश्चात् - संस्तुति दोष कहते हैं । किसी गांव के दाता को खबर देकर उसके यहां श्राहार करना, निमन्त्रण दोष है । ज्योतिष ग्रह प्रादि को बतलाकर आहार लेना, अपने आप ही अपनी कीति ख्याति इत्यादिक कहवार प्रहार लेना, दाता के मन में दान देने की भावना उत्पन्न कर के आहार लेना; लाभ दिखाकर आहार लेना, मान करके प्रहार करना, माया से प्रहार करना, लोभ करके लेना, आहार के पहले दाता की प्रशंसा करके बाद में उसके घर में आहार लेना, भोजन करने के बाद दाता की स्तुति करके उसे अपने चश कर लेना, विद्या यन्त्र-मन्त्रादिक को देकर अपने वश कर लेना, केवल यन्त्र से अपने वश कर लेना, वैद्यक अर्थात् दवाई इत्यादिक दाता को बतला - कर आहार करना इत्यादि उत्पाद दोष हैं । शंकित दोष: श्राहार पानादिक लेने वाले आहार में शंका करके प्रहार लेना शंकित दोष है । प्राक पानी से बरतनादिक को धोकर उसमें अन्न परोस कर साधु को देना, अशन भात, रोटी श्रादिक, दही, दूध आदिक, खाद्य-लड्डू श्रादिक, स्वाद्य- एला, लवंग, कस्तुरी कंकोलादिक, "ये पदार्थ मेरे लिए भक्ष्य हैं प्रभवा अभक्ष्य हैं" ऐसा मन में संशय उत्पन्न होने पर यदि साधु आहार करेंगे तो उनको शंकित प्राहार नामक दोष होता है अथवा आगम में ये पदार्थ भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं, ऐसा संशय युक्त होकर जो साधु आहार करता है उसको शंकित दोष होता है । प्रक्षिप्त दोष:- घी, तेल आदि, स्निग्ध पदार्थ से लिप्त हाथ से अथवा स्निग्ध तेलादिक से लिप्त कलछी अथवा पात्र से मुनियों को श्राहार देना प्रक्षिप्त दोषों से दूषित होता है । इस दोष का मुनि सदा त्याग करें। ऐसे आहार में सूक्ष्म सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न होते हैं । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४ ) निक्षिप्त दोष का स्वरूपः - सचित्त पृथ्वी, सचित्त पानी, सचित्त अग्नि, सचित्त वनस्पति, बोज और त्रस जीव द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिद्रिय जीवों पर रक्खा हुआ पाहार मुनियों को ग्रहण योग्य नहीं है। सचित्तपुश्व्यादिक के छः भेद हैं। अंकुर शक्ति योग्य गेंहू आदि धान्य को बीज कहते हैं । हरित--अम्लान अवस्था के तृरण, पर्ण आदि को हरित कहते हैं । इनके ऊपर स्थापन किया हुअा अाहार निक्षिप्त दोष सहित होता है । अथवा अप्रासुक पृष्त्र्यादिक कार्यों पर रक्खा हुमा आहार मुनियों को अयोग्य है । पिहित दोष:--जो आहारादिक वस्तु सचित्त से ढकी हुई है अथवा अचित्त भोजन किसी वजनदार पदार्थ से ढका हुआ है उसके ऊपर का आवरण हटाकर मुनियों को देना पिहित दोष है। धायक दोष: जो बालक को प्राभूषणादि से सजाती हैं, उसको दूध पिलाती हैं और धाय का काम करती हैं दे पाहार दान में प्रयोग्य हैं, जो मद्यपान में लम्पट है, जो रोग से ग्रस्त है, जो मृतक को स्मशान सल आया है और जिसको मृतक का सूतक है, जो नंपुसक है, जो पिशाचग्रस्त है, अथवा वातादिक रोग से पीड़ित है, जो वस्त्रहीन है अथवा जिसके एक ही वस्त्र है, जो मल विसर्जन करके आया है तथा जो मूत्र करके आया है, जो मूछित है, जिसको वांति हुई है, जिसके शरीर से रवत बह रहा है, जो प्राजिका है,अथवा जो लाल रंग के वस्त्र धारण करने वाली रक्त-पाटिका श्रादि अन्य धार्मिक संन्यासिका है, जो अंग मर्दनक-स्नान करती है, ऐसी स्त्री और पुरुष पाहार देने योग्य नहीं हैं । अति वृद्धा हो, पान तमाकू खाई हो, क्रोध से प्राई हो, अंगहीन हो, या भीत का सहारा लेकर बैठी हो, उन्मत्ता हो, झाडू देते-देते आई हो, "यह अग्नि है" ऐमा अपने मुख से कहती हुई पा रही हो, दीवाल लीपती हो, है ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य जाति के अलावा अन्य किसी के हाथ का भोजन दोषी समझकर आहार त्याग कर देना चाहिए। अागे साधुओं के भोजनों के अन्तराय को कहते हैंमौनत्यागे शिरस्ताड़े मार्गे हि पतिते स्वयम् । मांसामेध्यास्थिरक्ताविसंस्पृष्टे शवदर्शने ॥४॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५० ) ग्रामदाहे महायुद्ध शुना दष्टेल्विदं पयि । सचित्तोदे करे क्षिप्ते शंकाया मलमूत्रयोः॥४६॥ शोरिगतमासधर्मास्थिरोमविट्पूयसूत्रके । दलनं कुट्टनं छिदियॊपप्रध्वंसदर्शने ॥५०॥ मोती स्पृष्टे च नग्नस्त्री-दर्शने मृतजंतुके । अस्पृश्यस्य ध्वनौ मृत्युवाद्य दुष्टविरोघने ॥५१॥ फर्कशानन्ददुश्शब्दे शुनकस्य ध्वनौ श्रुते हस्तमुक्त व्रते भग्ने भाजने पतितेऽथवा ।। ५२॥ पादयोश्च गते मध्ये मार्जारमूषिकादिके । प्रस्थ्यादिमल-मिश्रान्ने सचित्तवस्तुभोजने ॥५३॥ प्रातरोनाविदुयाने कामचेष्टोद्भबेजप च । उपविष्टे पदग्लानात् पतने स्वस्य मूर्च्छया ।।५४॥ हस्तान्च्युते तथा ग्रासेऽवतिना स्पर्शने सति । अयं मांसोऽस्ति संकल्पेऽन्तरायश्च मुनेः परे ।।५।। अर्थ-सिर ताडन करना, मौन का त्याग कर देना, मार्ग में गिर पड़ना, मांस हड्डी रक्तादि अपवित्र वस्तुओं का स्पर्श होना, मुर्दे को देखना, नगर व ग्राम में अग्मि लगने का हाल सुनना, भयंकर युद्ध की बातचीत सुनना, मार्ग में कुत्तों का कलह होना या उनके द्वारा काटना, भोजन के समय अपने हाथ में अप्रासुक पानी पड़ना, आहार के समय में मलमूत्र की शंका होना, रक्त मांस, चर्म, हड्डी केश, विष्टा खून तथा मूत्र आदि अपवित्र पदार्थों का स्पर्श होना, जिस घर में आहार हो उसमें चक्की चलना, धान कूटना, उल्टी हो जाना या दूसरों की उल्टी देखना, बिल्ली का स्पर्श होना. कोई जीव मर जाना, चांडाल आदि के शब्दों को सुनना, नग्न स्त्री का दीख जाना, मृतक वाद्य सुनना, किसी दुखिया के करण क्रन्दन या कर्कश शब्द सुनना, लड़ते हुए कुत्ते के शब्दों को सुनना, भोजन करते समय बन्धी हुई अँजुली छूट जाना, ब्रत भंग होना, हाथ से नीचे पात्रों का गिरना, दोनों पैरों के बीच से चूहे-बिल्ली का निकल जाना, भोजन में हड्डी या कचरा आदि मल मिश्रित होना, बिना पका ही भोजन करना, यर सचित्त पदार्थों में अचित्त पदार्थ मिलना, मनमें आर्त, रौद्र इत्यादि दुनि का प्रा जाना, मन में काम वासना उत्पन्न होना, अशक्त होकर नोचे बैठ जाना, या मूछित होकर गिर पड़ना, हाथ से ग्रास गिर जाना, अवती Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१ ) का स्पर्श होना तथा 'यह मांस है' ऐसा संकल्प हो जाना; आहार के ये ३२ अन्तराय हैं । इनमें से यदि कोई एक भी अन्तराय आ जाय तो मुनियों को आहार नहीं ग्रहण करना चाहिए | इसके विषय में और भी कहा है कि:विण्मूत्राजितरक्तमांसमंदिरावूयास्थिवान्लोक्षखा दस्पृश्यान्त्यजभाषरण व रतात् स्वग्रामा क्षरणात् ॥ प्रत्याख्याननिसेवनात् परिहरेद् भव्यो व्रतो भोजनऽप्याहारं मृतजन्तुकेशकलितं जैनागमोक्तक्रमम् ॥ कागामज्जाद्दीरोहारुहिरंचसुपादं च । दिपक चैव ॥ बहू हेठा परिसंघ ब्रह्मचर्य की भावना - ( १ ) स्त्रियां के राग उत्पन्न - कारक कथानों के कहने सुनने का त्याग, स्त्रियों के अंगोपांगों के देखने का त्याग करना, पहले भोगे हुए इन्द्रियजन्य सुखों का स्मरण न करना, शरीर का संस्कार न करना इन्द्रिय मद-वर्द्धक खाद्य व पेय पदार्थों की अरुचि रखना; ये पांच नियम ब्रह्मचर्य व्रत के हैं । गुप्तित्रयम् ॥४२॥ अर्थ-मन गुप्ति, वचन गुप्ति, तथा कायगुप्ति, ये तीन प्रकार की गुप्तियां है । कालुस्स मोहसा रागं बोसादिश्रसहभावस्स । परिहारो मागुती ववहारयादु जिरण भरियं ॥ १० ॥ राज चोर भंडकहादिवयास पावहे उस्स परिहारो वचगुत्ती प्रलियाणि एत्ति वयरवा ॥ ११ ॥ छेदन बंधन माररण तहपसारस्गाबीय । कायकिरियारियट्टी रिएहिठ्ठा कायगुप्तोति ॥ १२ ॥ रागाविरिणयत या मनस्स जारगाहि तं मनोगुति । प्रतियारिपयत वा मौनं वा होदि वचगुती ॥१३॥ referry काम्रो सग्गो सरीरंगे गुत्ति । हिंसादिरिंगत वा सरीरगुत्ती हवेदित्तो ॥ १४॥ प्रष्ट प्रवचनमातृका ॥ ४३ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) अर्थ-५ समिति तथा ३ गुप्ति ये ८ प्रवचनमातृका हैं । - चतुस्त्रिंशदुत्तरगुणाः ॥४४॥ अर्थ-२२ परीषह और १२ प्रकार के तप ये कुल ३४ उत्तर गुण कहलाते हैं। द्वाविंशत् परिषहाः ॥४५॥ अर्थ-मोक्ष मार्ग के साधन में आने वाले कष्ट विघ्न बाधा परिषह हैं। वे २२ हैं। उनके नाम ये हैं-(१) क्षुधा, (२) पिपासा, (३) शीत, (४) उष्ण, (५) दंशमशक, (६) नग्नता, (७) अरति, (८) स्त्री, (९) निषद्या, (१०) पर्या, (११) शय्या, (१२) प्राक्रोष, (१३) बध, (१४) याचना, (१५) अलाभ, (१६) रोग, (१७) तणस्पर्श, (१८) मल, (१९) सत्कार पुरस्कार, (२०) प्रज्ञा, (२१) अज्ञान और [२२) अदर्शन । ये २२ परिषह पूर्वोपाजित कर्मों के उदय से होते हैं । किस कर्म के उदय से कौन सी परिषह होती है, इसका वर्णन करते हैं। ज्ञानावरण कर्म के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान परिषह होती हैं। दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से प्रदर्शन परिषह तथा अन्तराय कर्म के उदय अलाभ परिषह होती है। __ चारित्र मोहनीय के उदय से नग्न, अरति, स्त्री, निषद्या, पाकोश, याचना, सत्कार पुरस्कार ये सात परिषह होती हैं । वेदनीय कर्म के उदय से क्षुधा, पिपासा, शीत, उरण, दशमच्छर, चर्या, शय्या, वध, रोग तथा तणस्पर्श, • और मल ये ११ परिषह हाती हैं। प्रश्न-एक साथ एक जीव के अधिक से अधिक कितनी परिषह हो सकती हैं ? उत्तर-शीत उष्ण इन दोनों में से एक होगी, निषद्या, चर्या और शय्या इन तीन परिषहों में से एक परिषह होती है, शेष दो नहीं होती इस तरह तीन परिषहों के सिवाय शेष १६ परिषह एक साथ एक कालमें हो सकती हैं। सातवें गुणस्थान तक सभी परिषह होती हैं। अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में तथा सवेद अनिवृत्ति करण गुणस्थान में प्रदर्शन परिषह कम हो जाने के कारण २१ परिषह होती हैं । तदनन्तर ३ वेदों के नष्ट हो जाने पर अनिवृत्तिकरण के निर्वेद भाग में स्त्री परिषह न रहने के कारण तथा परति परिषह न होने से १६ परिषह होती हैं। तत्पश्चात् मान कषाय के प्रभाव हो जाने पर नग्नता, निषद्या, पाकोश, याचना, सत्कार पुरस्कार इन पांचों परिषहों Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९३३) के कम हो जाने पर शेष अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में तथा सूक्ष्म-सांपराय, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय इन गुण स्थानों में १४ परीषह होती हैं। ज्ञानावर और अन्तराय कर्म के नष्ट हो जाने के कारण १३वें गुरण स्थान में प्रज्ञा, अज्ञान तथा अलाभ परीषह नहीं होती अतः शेष ११ परीष ह होती हैं। वेदनीय कर्म की सत्ता के कारण १३वें गण स्थानवर्ती प्ररहन्त भगवान को ११ परीषह कही जाती है, किन्तु वास्तव में ये परीषह अनन्त बली, तथा अनन्त सुख सम्पन्न अरहन्त भगवान को रंच मात्र भी कष्ट नहीं दे सकती । जिस प्रकार औषधि द्वारा शुद्ध किया हया शंखिया ग्रादि विष भी मारण शक्ति से रहित होकर खाने पर कुछ मनिष्ट नहीं करता इसी प्रकार मोहनीय कर्म के न रहने से वेदनीय कर्म भी अपना अनिष्ट फल देने योग्य नहीं रहता तथा वृक्ष की जड़ काट जाने के पश्चात् उसमें फल, फूल पत्ते आदि नहीं पाते, बल्कि वह सूख कर नीरस हो जाता है इसी प्रकार मोहनीय कर्म के समूल नष्ट हो जाने पर वेदनीय कर्म भी शक्ति रहित नीरस हो जाता है। वह मोहनीय कर्म की सहायता न मिलने के कारण अपना कुछ भी फल नहीं दे पाता तथा जिस प्रकार प्रात्मध्यान निमग्न योगियों को शुक्ल ध्यान के समय वेद कर्मों की ससा रहने पर भी तथा लोभ कषाय और रति के रहते हुए भी मैथुन संज्ञा और परिग्रह संज्ञा नहीं होती, इसी प्रकार अरहन्त भगवान को अनन्तात्म सुख में निमग्न होने के कारण वेदनीय कर्म की परीषह दुःखदायी नहीं बन पाती। वेदनीय प्रघाती कर्म है। इसलिए यह घाती कर्म की सहायता के बिना अपना फल नहीं दे सकता। बेदनीय कर्म का सहायक मोहनीय कर्म है । वह १३ वें गुण स्थान में समूल नष्ट हो जाता है । अतः वेदनीय कर्म असहाय हो जाने से परहन्त भगवान को वह दुःख प्रदान नहीं कर सकता। इस कारण वास्तव में १३२ गुण स्थान में कोई भी परीषह नहीं होती। नरक गति और तिर्यच गति में सभी परीषह होती हैं । मनुष्य गति में भिन्न-भिन्न गुण स्थानों में यथायोग्य परीषह होती है । देव गति में भूख, प्यास, नग्नता, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अशान, प्रदर्शन ये १४ परीषह होती हैं । इन्द्रियमार्गणा और कषाय मार्गणा में सभी परीषह होती हैं । बारह तपःद्वादशविधतपः ॥४६॥ अर्थ-तप १२ प्रकार के होते हैं । भेद अभेद रूप प्रकट होने में या कर्म Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५४.) क्षय के मार्ग में विरोध न हो इस अभिप्राय से इच्छाओं को, रोकना [ इच्छा निधिस्तपः ] तप' कहलाता है। वह तप त्रानशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान रस परित्याग, विवक्त शयनासन तथा कायक्लेश ये ६ बाह्य तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये ६ प्रकार के अन्तरंग तप हैं । इस प्रकार दोनों मिलकर १२ प्रकार के तग हैं। मन्त्र साधनादि किसी लौकिक स्वार्थ सिद्धि का अभिप्राय न रखकर , तथा इन्द्रिय संयम की यानि की इच्छा न रखकर ध्यान स्वाध्याय एवं प्रात्म शुद्धि के अभिप्राय से पचेन्द्रियों के विषयों का तथा कषायों के त्याग के साथ जो चार प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है उसको अनशन तप कहते हैं। इसके नियत काल और अनियत काल ये दो भेद होते हैं । नियतकाल-एकान्तर विरात्रि, महारात्रि अष्टोपदास, पक्षोपवास, · मासोपवास, चातुर्मासोपवास, परणमायोपना संबलोपारा इत्पासि काल पर्यादा को लिए हुए उपवास करना नियत कालोपवास है । अनियत काल-समाधिमरण करने के समय आयु-पर्यन्त जो उपवास किया जाता है वह अनियत काल है। अवमोदयं-ध्यानाध्ययन में किसो प्रकार को वाधा न हो, इस अभिप्राय से भूख से कुछ कम आहार लेना अवमोदर्य तप है। व्रतपरिसंख्यान-इस प्रकार की वस्तु चर्या के समय मिले, अमुक व्यक्ति अमुक वस्तु लेकर खड़ा हो, या अमुक घर प्रादि की घटपटी आखड़ी लेकर चर्या के लिए निकलना व्रतपिरसंख्यान कहलाता है । घी, दूध, दही आदि रसों में से किसी एक या सबका त्याग करता रसपरित्याग नत कहलाता है। पदमासन, पल्यङ्कासन, बजासन' मकरमुखासन आदि प्रासनों से बैठना या एक पार्श्व दण्डासन मृतशय्यासनादि आसनों से अथवा शुद्धात्म ध्यानाध्ययन में किसी प्रकार का कोई विघ्न न हो ऐसे स्त्री पुरुप परन्तु आदि से रहित एकान्त स्थान में ध्यान करने के लिए बैठ जाना, विविक्तशय्यासन कहलाता है । निरुपाधि निजात्मभावना पूर्वक कंकड़ोली पथरीली जमीन में शरीर के मोह को छोड़कर कठिन तप करना कायक्लेश तप है। फायक्लेश तप करने के कारण: शुभ ध्यानाभ्यास के लिए, दुःख नाश के लिए, विषय सुख की निवृत्ति के लिए तथा परमागम को प्रभावना के लिए जो ध्यान किया जाता है उससे Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २५५ } सभी दु:ख द्वन्द्व मिटकर चित्त शुद्ध हो जाता है । यतः यह कायक्लेश लप प्रयत्न के साथ करना चाहिए 1 प्रमादवश छोटे-मोटे दोष हो जाने से देश काल तथा शक्ति संहनन आदि के अनुसार संयम पूर्वक उपवास आदि करना प्रायश्चित्त तप कहलाता है । सम्यक्त्वादि उत्तम गुणों से सुशोभित गुणी पुरुषों का विनय करना तथा उनके शरीरस्थ पीड़ा को दूर करने के लिए औषधिप्रादि उपचारों से स्वयं सेवा, करना या दूसरों से कराना वैयावृत्य कहलाता है । द्रव्य क्षेत्र काल भाव की शुद्धि पूर्वक शास्त्र का स्वाध्याय करना तथा स्वाध्याय करानेवाले श्रुतगुरुनों की भक्ति भाव से पूजा तथा श्रादर सत्कार करना स्वाध्याय नामक तप कहलाता है । कर्म बन्धन के कारणभूत सभी दोषों को त्याग देना व्युत्सर्ग तप कहलाता है । बाह्य रामस्त पर पदार्था से मन को सर्वथा हटाकर केवल अपने शुद्धात्मा में एकाग्रता पूर्वक लीन रहना ध्यान तप है । पंच पद का महत्व: — श्री करमभीष्टसकल सुखाकर मपवर्ग कारणं भवहरणं लोकहित गड निरुपम पंचपदम् । २०० । दशविधं प्रायश्चित्तानि ॥४७॥ , अर्थ-ग्रालोचना, प्रतिक्रमना, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, उपस्थापना और श्रद्धान ऐसे प्रायश्चित्त के १० भेद हैं । इस प्राथश्चित्त को बुधजन प्रमाद परिहार के लिए भावशुद्धि के लिए, मन की निश्चलता के लिए और मार्ग में लगे हुए दोषों के परिहार के लिए, संयम की हृढ़ता के लिए एवं चतुविधाराधन की वृद्धि के लिए निरन्तर करते रहते हैं । गुरु के द्वारा प्रश्न करने पर अपने मानसिक दोषों को एकान्त स्थान में स्पष्ट रूप से बतलाकर पाप क्षालनार्थ शिष्य जब अपने गुरु के संनिकट प्रायश्चित लेने को प्रस्तुत हो जाता है और उत्तम श्रावक जघन्य श्रावक ब्रह्मचारी क्षुल्लक ऐलका ग्रायिका आदि गर्व तथा लज्जा का त्यागकर किए हुए पापों की आलोचना करता है तो उसका व्रत सफल होता है किन्तु यदि उपयुक्त आलोचना न करके अपने पापों को छिपाता है तो उसके सभो व्रत व्यर्थ हो जाते हैं। इस प्रकार जिसे स्वर्गापवर्ग की प्राप्ति करतो हो उसे विशुद्ध मन से के निकट अपने पापों को नष्ट करने के लिए प्रायश्चित्त ग्रहण करना गुरु चाहिए । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न--मूल प्रायश्चित्त का भागी कौन है ? उत्तर-पार्शस्थ, कुशील, संसक्त अवसन्न तथा मृगचारी ऐसे पांच मुनि स्वच्छन्द वृत्ति हैं। अब इनके लक्षण बतलाते हैं: __ वसतिक में प्रेम रखनेवाले, उपकरणों को एकत्रित करनेवाले, मुनि समुदाय में न रहनेवाले पार्शस्थ कहलाते हैं । क्रोधादिकषायों से युक्त ब्रत गुणों से च्युत संघ के अपाय के लिए वैद्य मन्त्र ज्योतिष द्वारा इधर उधरघूम फिरकर जीवन निर्वाह करने वाले कुशील कहलाते हैं। रागादि सेवा में युक्त जिन वचन से अनभिज्ञ चारित्र भार से शून्य ज्ञानाचार से भ्रष्ट तथा करुणा में आलसी रहनेवाले संसक्त कहलाते हैं। ___ गुरुद्रोही स्वच्छन्दचारी, जिन वचन में दोष देखनेवाले अवसान कहलाते हैं। जिन धर्म में बाह्मचरणी उन्मादी, महा अपराधी पार्श्वस्थ की सेवा करने वाले मृगनारी आदि मुनियों को मूलखेद प्रायश्त्ति दिया जाता है। पालोचनञ्च ॥४॥ अकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन अव्यक्त, तत्सेवित ये प्रायश्चित के १० भेद हैं। चतुर्विध विनयः॥४६॥ अर्थ- ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय तथा उपचार, ये विनय के चार भेद हैं। शुद्ध मन से मोक्ष मार्ग के लिए जो ज्ञान, ग्रहण, शान अभ्यासादि किया जाता है उसे ज्ञानविनय कहते हैं । ___ द्वादशांग, चतुर्दश प्रकीर्णकादि श्रुतज्ञान समुद्र में जितने भी अक्षर हैं उनके प्रति और पदों के प्रति निःशंकित रूप से पूर्ण विश्वास करना वर्शनविनय वाहलाता है। ज्ञान, विनय दर्शन, तप, वीर्य तथा चारित्र से युक्त होकर दद्धर नपस्या में लीन तथा माधुओं की त्रिकरण शुद्धि पूर्वक बिनय करना चारित्रविनय है। प्रत्यक्ष उपचार विनय र परोक्ष उपचार विनय ये उपचार विनय के दो भेद हैं। इसमें से प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणाधरदि पूज्य परमऋषि Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५७ ) के निकट जाकर विनय करना अथवा उनकी कुशलता पूछकर ययायोग्य सेवा करना ये शब्द विनय हैं। मन वचन काय से सुशील योग्यता धर्मानुराग की कथा श्रवण करना तथा अहंदादि में प्रमाद व मानसिक दोषों को छोड़कर भक्ति करना गुरु वृक्ष सेवाभिलाषा आदि से सेवा करना या गुरु के वचन सर्वथा सत्य है यह विश्वास करके मन में कभी हीनता का भाव न लाना, कुल आदि धनेश्वर्य, रूप, जाति बल, लाभ वृद्धि आदि का अपमान न करना सदा सभी जीवों के साथ क्षमाभाव को रखकर मैत्रीपूर्ण विश्वास रखकर देशकालानुकूल हितमित वचन बोलना सेव्य, प्रसेव्य भाव्य अभव्यादि विवेकों का विचार पहले अपने मन में कर लेने के बाद प्रत्यक्ष प्रमाणित करना प्रत्यक्ष उपचार विनय है । प्राचार्य व मुनिवगैरह यदि पास न हों तो भी अपने हृदय में भक्ति रखना व नमस्कार करना यदि कदाचित् भूल भी जाएँ तो भी पश्चात्ताप करना आदि प्रोक्षविनय इस भब और परभव के प्रति सांसारिक सुख की अपेक्षा न रखना अक्षय अनन्त मोक्ष यल की इच्छा करके ज्ञान लाभ व चरित्र की विशुद्धि से सम्यगाराधना की सिद्धि के लिए जो विनय करता है वह शीघ्र स्वात्मोपलब्धि लक्षण रूपी मोक्ष मार्ग (द्वार) में पड़े हुए अर्गल को तोड़कर मोक्ष महल में प्रवेश करता है। दशविधानि वैयावृत्यानि ॥५०॥ यदि किसी मुणवान धर्मात्मा पुरुष को कदाचित् शरीर पीड़ा हो य दुष्परिणाम हों, तो उनकी वैयावृत्य (सेवा) करना धर्मोपदेश देकर सन्मार्ग : स्थिर करना तथा धर्म चर्चा सुनाना प्रादि वैयावृत्य कहलाता है। इस प्रकार ययावृत्य के १० भेद हैं। (१) प्राचार्य की वैयावृत्य, (२) उपाध्याय की वैयावृत्य, [३] कवल चान्द्रायण आदि व्रतों के धारण करने से जिनका शरीर अत्यन्त कृश हो गय है उन तपस्वी मुनि की वयावृत्य करना [४] ऋतु ज्ञान शिक्षा तथा चारित शिक्षा में तत्पर शिष्य रूप मुनियों की वैयावृत्य करना, [५] विविध भानि के रोगों से पीड़ित मुनियों की चैयावृत्य करना, [६] वृद्ध मुनियों की शिष परम्परा [गरा] मुनि जनों की वैयावृत्य करना, [७] प्राचार्य की शिष परम्परा रूप मुनियों [कुल] की वैयावृत्य करना, [८] चातुर्वर्ण्य संघ व वैयावृत्य करना, [६] नव दीक्षित साधुओं की वैयावृत्य करना तथा {१० Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८ ) श्राचार्यादि में समशील मनोश मुनियों की वैयावृत्य करना १० प्रकार का वैयावृत्य कहलाता है । पंचविध स्वाध्यायः ॥ ५१ ॥ श्र द्रव्य शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, काल शुद्धि तथा भावशुद्धि के साथ शास्त्र श्री श्रुतज्ञानी मुनियों की विनय करना स्वाध्याय है। बांचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ये स्वाध्याय के पांच भेद हैं। करुणाभाव से दूसरे को पढ़ाना बांचना है। अपने ज्ञान का अभिमान न करके शंका निवारण के लिए अधिक ज्ञानी से प्रश्न करना शंका समाधान करना कोई बात पूछना पुच्छना है । पढ़े हुए विषयों को बारम्बार चिन्तन-मनन करना श्रनुप्रक्षा है । पद अक्षर मात्रा व्यञ्जनादि में न्यूनाधिक न करके जैसे का वैसा पढ़ना, पाठ करना आम्नाय है । भव्य जीवों के हृदयस्थ अन्धकार को दूर करने के लिए जो उपदेश दिया जाता है वह धर्मोपदेश कहलाता है । द्विविधो व्युत्सर्गः ॥ ५२ ॥ बाह्य और ग्राभ्यन्तर भेद से व्युत्सर्ग दो प्रकार का है। बाह्य उपाधिक्षेत्र घर गाय, भैंस, दासी, दास, सोना, चांदी, यान, शयनासन, कुप्य, भांड आदि १० प्रकार के हैं। इनका त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग है । अन्तरंग उपाधि — मिथ्यात्व वेदराग, द्वेष, हास्य, रति, रति, भय, शोक, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये १४ श्राभ्यन्तर उपाधि है । इनका त्याग करना ग्राभ्यन्तर व्युत्सर्ग हैं। व्युत्सर्ग के दो भेद हैं। उसमें जो जीवन पर्यन्त का त्याग है वह भक्त प्रत्याख्यानादि मरण के भेद से अनियत व्युत्सर्ग है । कुछ दिनों का नियम लेकर परिग्रह का त्याग करना नियत काल व्युत्सर्गं है और श्रावश्यकादि नित्य क्रिया, पर्वक्रिया व निषद्यादि क्रिया नैमित्तिक क्रियायें हैं । इसके आगे व बाह्य क्रिया काण्ड को कहते हैं:-- ( कौनसी भक्ति कहां करनी चाहिए) कार्य जिनप्रतिमावन्दन आचार्य वन्दना [ गवासन रो | सिद्धांतवेत्ता आचार्य की वन्दना – सिद्ध, श्रत आचार्य भक्ति साधारण मुनियों की वन्दना -- सिद्ध भक्ति भक्ति चैत्यभक्ति पंचगुरु भक्ति लघु सिद्धभक्ति लघुआचार्य भक्ति D Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) सिद्धांतवेत्ता मुनियों की वन्दना -- सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति स्वाध्याय का प्रारम्भ स्वाध्याय की समाप्ति- किया प्राचार्य की अनुपस्थिति में पहले दिन उपवास वा प्रत्याख्यान ग्रहण हो तो दूसरे दिन आहार के समय आहार की समाप्ति पर अगले दिन के उपवास वा प्रत्याख्यान का ग्रहण करने में आचार्य की उपस्थिति में श्राहार के लिए जाने जाने के पहले प्रहार के अनन्तर प्रत्याख्यान वा उपवास की प्रतिज्ञा के लिए श्राचार्य वन्दना चतुर्दशी के दिन त्रिकाल वन्दना के लिए नंदीश्वर पर्व में सिद्धप्रतिमा के सामने तीथङ्कर के जन्म दिन प्रष्टमी चतुर्दशी की क्रिया में अपूर्व चैत्य वन्दना वा त्रिकाल नित्य वन्दना के समय अभिषेक वन्दना - लघु त भक्ति प्राचार्य भक्ति लघु त भक्ति । सिद्ध भक्ति पढ़कर उसका त्याग वा आहार के लिए गमन सिद्ध भत्ति । लघुयोगि भक्ति, लघुसिद्ध भक्ति लघुयोगि भक्ति लघुसिद्ध भक्ति लघु आचार्य भक्ति चैत्य भक्ति, भक्ति, पंचगुरु भक्ति । अथवा सिद्ध भक्ति चेत्य भक्ति, भूत भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शांति भक्ति । - सिद्धभक्ति, नन्दीश्वर भक्ति, पंच गुरु भक्ति, शांतिभक्ति । सिद्धभक्ति चैत्यभक्ति, श्रुतभक्ति पंचगुरु भक्ति अथवा शिद्ध भक्ति चैत्यभक्ति, पंचगुरु भक्ति, श्रुतभक्ति शांतिभक्ति । । चैत्यभक्ति, पंचगुरु भक्ति शांतिभक्ति । - सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरु भक्ति, शांतिभक्ति । सिद्धभक्ति, शांतिभक्ति स्थिरबिंबप्रतिष्ठा— जल प्रतिष्ठा के चतुर्थ अभिषेक में | सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचमहा गुरु भक्ति शांतिभक्ति । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६०) तीर्थंकरों के गर्भ जन्म कल्याणक में-सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति शान्ति भक्ति। दीक्षाकल्यणक - सिद्ध भक्ति, चारित्रभक्ति, योगिभक्ति शांतिभक्ति। ज्ञानकल्याणक ---सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगि, शांति भक्ति । निर्वाणकल्याण - सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगि, निर्वाण और शांतिभक्ति। वीरनिर्वाण- सूर्योदय के समय – सिद्ध भक्ति, निर्वाण, पंचगुरु, शांति भक्ति । श्रुतपंचमी वृहत्सिद्धभक्ति, वृहत्व तभक्ति श्रुतस्कंध की स्थापना, बृहत्वाचना, बृहत् तभक्ति, प्राचार्य भक्ति पूर्वक स्वाध्याय, श्रुतभक्ति द्वारा स्वायध्याय की पूर्णता अन्त में शांति भक्ति कर क्रिया पूर्णता श्र तपंचमी के दिन गृहस्थों को -सिद्ध, श्रत, शांतिभक्ति सिद्धांत वाचना सिद्ध, अ तभक्ति द्वारा प्रारम्भ १ तभक्ति प्राचार्यभक्ति कर वाचना अन्त में श्रुत और शांति भक्ति। गृहस्थों को सन्यास के प्रारम्भ में -सिद्ध, श्रत, शांतिभक्ति । गृहस्थों को सन्यास के अन्त में -सिद्ध, श्रत, शांति वर्षायोग धारण करते समय --सिद्ध, योगि, चैत्यभक्ति । वर्षायोग धारण की प्रदक्षिणा में -यावन्ति जिनत्यानि, स्वयम्भ स्तोत्र की दो स्तुति चैत्यभक्ति । वर्षायोग स्वीकार करते समय --गुरुभक्ति शान्ति भक्ति। वर्षायोग समाप्ति में --वर्षायोग धारण करने की पूर्णविधि प्राचार्यपद ग्रहण करते समय -सिद्ध, प्राचार्य शान्ति भक्ति । प्रतिमायोग धारण करने वाले सिद्ध, योगि, शान्ति भक्ति । मुनि की वन्दना करते समय यदि चतुर्दशी की क्रिया चतुर्दशी के दिन न हो सके तो पौरिणमा वा अमावस्या के दिन अष्टमी की क्रिया करे अर्थात् सिद्ध, श्रुत, चारित्र और शांति भक्ति पदे। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा ग्रहण करते समय-- वृहत्सिन भक्ति, लघु योगिभक्ति । दीक्षा के अन्त में सिद्धभक्ति । केशलोंच करते समय लघु सिद्धभक्ति, लघु योगिभक्ति । लोच के अन्त में-- सिद्धभक्ति। प्रतिक्रमण में सिद्ध, प्रतिक्रमण, वीरभक्ति, चतुर्विशति तीर्थकरभक्ति । रात्रियोग धारण--- योगिभक्ति । राश्रियोग का त्याग-- योगिभक्ति । वेव वन्दना में दोष लगने पर--- समाधिभक्ति । सामान्य ऋषि के स्वर्गवास होने । पर उनके शरीर और निषद्या को सिद्ध, योगि, शान्तिक्ति । क्रिया में सिद्धांतवेत्ता साधु के स्वर्गवास में- सिद्ध, श्रत, योगि, शान्तिभक्ति । उत्तर गुणधारी साधु के स्वर्गपार | सिध, रि, : आशिभक्ति । होने पर उत्तरगुणधारी सिद्धान्तवेत्ता साधु | सिद्ध, श्रुत चारित्र योगिशांति भति के स्वर्गवास पर प्राचार्य के स्वर्गवास होने पर -- सिद्ध, योगि, प्राचार्य, शांतिभक्ति सिद्धांतवेत्ता प्राचार्य के स्वर्गवास पर--- सिद्धश्रु त योगि प्राचार्य शांतिभक्ति उत्तरगुराधारी प्राचार्य के स्वर्गवास | सिद्ध चारित्र योगि प्राचार्य शांति पर । भक्ति । उत्तरगुणधारी सिद्धांत वेत्ता भाचार्य । सिद्ध, श्रुत, योगि, प्राचार्य शान्ति के स्वर्गवास पर | भक्ति । पाक्षिक प्रतिक्रमण में ---सिद्ध, चारित्र, प्रतिक्रमण, बीर भक्ति, चतुर्विंशतिभक्ति, चारित्रालोचना गुरुभक्ति, बृहदालोचना, गुरुभक्ति, लघुप्राचार्य भक्ति । चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में वार्षिक प्रतिक्रमण में Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) दश भक्ति अथ ईर्यापथशुद्धिः निःसंगोऽहं जिनानां सदनमनुपमं त्रिः परीत्येत्य भक्त्या, स्थित्वा गत्वा निषद्योचरणपरिणतोऽन्तः शनैर्हस्तयुग्मम् । भाले संस्थाप्य बुद्ध या मम दुरितहरं कोर्तये शक्रवन्य', निन्दादरं सदाप्तं क्षयरहितममु ज्ञानभामु जिनेन्द्रम् ।। १ ।। श्रीमत्पधिजमकलकमनन्तकल्प, स्वायंभुवं सकलभंगलमादितीर्थम् । नियोत्सवं मणिमयं निलयं जिनानां, त्रैलोक्यभूषणमहं शरणं प्रपद्ये ॥ २ ॥ श्रीमत्परमगम्भीरस्यावादामोघला. ब्छनम् । जीयात्रैलोक्यनाथस्य, शासनं जिनशासनं ।। ३ ।। श्रीमुखालोकनादेव, श्रीमुखालोकन भवेत् । आलोकनविहीनस्य, तत्सुखावाक्षयः कुतः ॥ ४ ॥ अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य, देव ! खडीयचरणाम्बुजवीक्षणेन । अद्य त्रिलोकतिलक प्रतिभासते मे, संसारवारिधिरयं चुन कपमागं ।। ५ ।। अद्य मे क्षालितं गात्र, नेत्रं च विमलीकृते । स्नातोऽहं धर्मतीय पु, जिनेन्द्र तव दर्शनान् ।। ६ ।। नमो नमः सत्वहितं कराय, पीराय. भव्याम्बुजभास्कराय । अनन्तलोकाय सुचिताय, देवाधिदेषाय नमो जिनाय ॥ ७ ॥ नमो जिनाय त्रिदशाचिताय. विनष्टदोषाय गुणाचाय । त्रिमुक्तिमार्गप्रतिबोधनाय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय ।। ८ ।। देवाधिदेव ! परमेश्वर ! वीतराग ! सर्वत्र तीर्थकर ! सिद्ध ! महानुभाव । त्रैलोक्यनाथ जिनपुगव ! चमान ! स्वामिन् ! गतोऽस्मि शरणं चरणद्वयं ते || ६ || जितमदद्दपद्वषा जितमोझरीष हा जितकघाया। जितजन्ममरणरोगा जितमात्सर्या जयन्तु जिनाः || १० || जयतु जिनवर्तमानस्त्रिभुवनहितधर्मचक्रनीरजबन्धुः । त्रिदशपतिमुकुटभासुरचूलामरिणरश्मिरंजितारुणचरणः ॥ ११ ॥ जय जय जय त्रैलोक्यकाण्टशोभिशिखामणे, नुद नुन नुद स्वान्तध्वान्तं जगत्कमलार्क नः'। नय नय नग स्वामिन् शार्ति नितान्तमनन्तिमा, नहि नहि नहि त्राता लोकैकमित्र भवत्परः ॥ १६ ॥ चित्त मुखे शिरसि पारणपयोजयुग्मे, भक्ति स्तुति विनतिमलिमकजसैव । चक्रीयते चरिकरीति चरीकरीति । यश्चर्करीति तत्र देव स पच धन्यः ।। १३ ॥ जन्मोन्माजे भजतु भवतः पादपद्म' न लभ्यं, तच्चेस्वर चरतु न च दुर्देवा सेवता सः ! अश्नात्यन्नं यदिह सुलभं दुर्लभ वेन्मुधास्ते, क्षुद्व्यात्त्य कवलयति कः कालकूट धुभुतुः ॥ १४ ॥ रूपं ते निरुपाधि-सुन्दरमिदं पश्यन् सहस्रक्षणः, प्रेक्षाकौतुककारि कोऽत्र भगवन्नोपत्यवस्थान्तरम् । वाणी गद्गदयन्वपुः पुलकयन्नेत्रद्वयं रावयन् , मूनि नमयन्करी मुकुलयनश्चेतोऽपि निर्यापयन् ।। १५ ।। वस्तारातिरिति त्रिकालविदिति त्राता त्रिलोक्या इति, श्रेयः सू तिरिति श्रियां निधिरिति श्रेष्ठः सुराणामिति । प्राप्तोऽहं शरणं शरण्यमगतिस्त्वा तत्त्वजोपेक्षणं । रक्ष क्षेमपदं प्रसी जिन किं विज्ञापित गोपितैः ॥ १६ ॥ त्रिलोकराजेन्द्रकिरीटकोटिप्रभाभिरालीढपदारविन्रम् 1 निमूलमुन्मूलितकर्मवृक्षं, जिनेन्द्रचन्द्र प्रणमामि भक्त्या ॥ १७ ॥ करचरणतनुविधातावटतो निहतः प्रमादतः प्राणी । ईपिथमिति भीत्या मुझचे पोषहान्यर्थम् ।। १७ ।। ईर्यापथे प्रचलताऽद्य मया प्रमादादेकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकय । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६३) बाधा । निर्वविता यदि भवेयुगांतरेक्षा, मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे ।। १८ ॥ पडिक्कमामि भंते इरियाबहियाए विराहण अणागुते, आगमणे, णिग्गमणे, ठाणे, गमणे चकमणे, पाणुगमणे विज्जग्गमणे, हरिदुग्गमणे, उच्चारपस्सयण खेलसिंहारण्य . विद्यालय पइटावरिणयार, जे जीवा एइंदिया वा,वईदिया था, तेइंदिया वा,घरिदिया वा, पोल्लिदा वा, पेल्लिदा वा, संघट्टिदा वा, संघादिदा वा, उहाविदा वा परिदाविदा वा, पंचेंदियावप-किरिच्छिदावा, सिदा वा छिदिदा था, भिदिदावा, ठाणदो या ठाणच: कमणदो वा तस्स उत्तरगुणं तस्स पायच्छित्तकरणं तस्स विसोहिकाएं जाव अरहंताएं भययंताणं णमोकार करोमि तायक्कायं पायकम्म दुरुचरिय पोस्सरामि । ॐ णमो परइंताण, णमोसिद्धाणं, गमो पाइरियाणं, णमो उबभायाणं, णमो लोए. सव्वसाहू" । जाप्यानि || ६ ||ॐ नमः परमात्मने नमोऽनेकान्ताय शान्तये इच्छामि भंते इश्याबहियस्स आलोचेपुव्युत्तरदक्षिणपच्छिमचदिसु विहिसासु विहरमाणेण, जुगंतरदिद्रिणा, भब्वेण दवा, पमाददोसेण डवववचरिवार पाएभ दीवससाण एदेसि जयघादो कदो वा कारिदो वा कारितो वा, समणुमणिदो या तस्स मिच्छा मे दुक्कडं । पापिष्ठेन दुरात्मना जलधिया मायाविना लोभिना, रागद्वषमलीमसेन मनसा दुष्कर्म यन्निर्मितम् । त्रैलोक्याधिपते, जिनेन्द्र भवतः श्रीपादमूलेऽधुना, जिन्दापूर्वमह जहामि सततं निवर्तये कर्मणाम् ॥ १॥ जिनेन्द्रमुन्मूलितकर्मबन्ध, प्रणम्य सन्मार्गकृतस्वरूपम् । अनन्तबोधादिभवं गुणोध क्रियाकलापं प्रकटं प्रवक्ष्ये || २ || प्रधाहपूजारभक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्रीमरिसद्धभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम् । मो अरहन्ताण', णमो सिद्धार्थ, रामो पायरियाणं, णमो मायाणं, णमो लोए सबसाहुण। चचारि मंगल, अरहन्ता मंगलं सिदा मंगल, साइमंगलं, केवलपरणको धम्मो मंगल । चचारि लोगुत्तमा, अरहन्ता लोगुस्मा, सिद्धालोमुत्तमा, साहूलोगुत्तमा, कंवलिपएणतो. धएमो लोगुत्तमा । चत्तारि सरणं पयज्जामि, अरहन्ते सरणं पवज्जामि, सिद्ध सरण पव्वजामि, साहसरणं पन्यज्जामि । केवलिपएणतो धम्मो सरणं पवज्जामि । अट्ठाइजदीव-दोसमुह सु पारसकम्मभूमिसु, जात अरहन्ताणं, भवबंताणं, आदिवराण तिल्पयरायां, जिया, जिगोत्तमारा केवलियाणं, सिद्धरणं बुद्धाणं, परिणिचुनाणं, अंतगणावं, पारयडाखं धम्माइरियाण, धम्मदेसियाणं, धमणाण गाणं धम्मवरचा. उरंगचक्कवट्टीणं, देवाहिदेवाणं, णाणाणं दंसगाणं, चरित्ताणं, सदा करोमि, किरियम्म | करेमि भत्ते, सामायियं सध्यमाबज्जोग पन्चकखामि, जावज्जीवं तिविहेण मासा-वचसा कायेण, ए करेमि प्रकारेमि करत दिशा समगुमणामि तस्स भंते अइचार पहिक्कमामि, पिदामि गरहामि ज्ञाय अरहताशं भयताएं, पज्जुवार्स करेमि, ताव कालं पायकम्म दुच्चरियं वोरसरामि जीवियमरगो लाहालाहे संजोग' विप्पजोगेय | धुरिसुद्धकखादो समदा सामायियं रणाम । थोत्सामि है जिणवरे तित्थयरे केवली अणन्तजिरणे । रपवरलोयमहिए, बियरममले महापरणे ।। १ ।। लोपासुनोग्रयरे, धनंतित्य करे जिणे बंदे । अरहते कित्तित्से, चवीस चेय फेवलियो Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) ॥२॥ उसहमजिव च दे, संभवमभिरण वर्ष प सुमई छ । पमपह सुपास, क्षिण प चंदप्पाह वंदे ॥ ३ ॥ सुषिदि च पुष्फर्यसें; सीयल सेयं च बासुपुज्ज च । विमलमयंत भषयं धम्मं संति छ संचामि ॥ ४ ॥ कुथुच जिणवरिद, अरे. मलिल व सुवर्ष व मि । बदाम्परिणेमि तह पास धमाशं ष ॥ ५ ॥ एवं मए अभिस्धुया विहुयस्यमज्ञा पहीण जरमरणा । पचीसपि भिणबरा, तित्वयरा मे पसीयतु ॥ ६ ॥ फित्तिय पदिय महिया पदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा । भारोगाणाणलाई, वितु समाहिं च मे घोहिं ॥ ७ ॥ चंदेहि पिम्मलयरा, आइस्पेहि अहियपहा सत्ता । सायरमिव गभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥ ८ ॥ अथ श्रीसिद्ध भक्तिः सिद्धामुद्भूतकर्मप्रकृतिसमुदायान्साधितात्मस्वभावाम, वंदे सिसिप्रसिद्ध्यै तदनुप गुणप्रग्रहाकृष्टितुष्ट: । सिद्धिः स्वात्मोपलब्धि: प्रगुणगुणगणोच्छादिदोषापहारान्, योग्योपादानयुक्त्या दृषद इह घथा हेमभावोपलब्धिः ॥ १ ॥ नाभावः सिद्धिरिष्टा न निजगुणहतिस्तत्तपोभिर्न युक्तः, अस्त्यात्मामादिषद्धः स्वादमाफल सत्यापासोक्षमागी । माता दृष्टा स्वदेड्प्रमितिस्पसमाहारविस्तार धर्मा, ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत इतो नान्यथा साध्यसिद्धिः ॥ २ ।। स त्वन्तदिहेतुप्रभवविमलसद्दर्शनज्ञानचर्या-, संपद्धेतिप्रघातक्षजदुरिततया । न्यजिताचिन्त्यसारैः । कैबल्यज्ञान दृष्टिप्रवरसुखमहावीर्यसम्यक्त्वलब्धि---, ज्योतिर्वातायनादिस्थिरपरमगुणरद्भुतर्भासमानः ॥ ३ ॥ जानन्पश्यन्समस्तं समभनुपरतं संप्रसृप्यन्वितन्वन्, धुन्वन्ध्यान्तं नितान्तं निचितमनुपमं प्रीणयन्नीसभावम् । कुर्वन्सर्वप्रजानामपरमभिभवन् ज्योतिरात्मानमात्मा प्रात्मन्येवात्मनासो क्षणमुपजनयन्सत्स्वयंभूः प्रवृत्त: ।। ४ ॥छिन्दन्शेषानशेषान्निगलवलकलींस्तैरनन्तस्वभाव:, सूक्ष्मत्वाग्र यावगाहागुरुलधुकगुरणः क्षायिकैः शोभमान: 1 अन्यश्चान्यव्यपोहप्रवरणविषयसंप्राप्तिलब्धिप्रभाव, रूज़ ज्यास्वभावात्समयमुपगतो धाम्नि संतिष्ठतेऽग्न ये ।। ५ ।। अन्याकाराप्तिहेतु नं च भवति परो येन तेनाल्पहीनः प्रागात्मोपात्तदेहप्रतिकृतिरुचिराकार एवं ह्ममूर्तः । क्षुत्तष्णाश्वासकासज्वरमरगजरानिष्टयोगप्रमेह-व्यापत्त्याद्य प्रदुःखप्रभवभवहतेः कोऽस्य सौख्यस्थ माता ।। ६ ॥ प्रात्मोपादानसिद्ध स्वयमतिशयवद्वीतबाधं विशालं, वृद्धिहासव्यपेतं विषयविरहितं नि: प्रतिद्वन्द्वभावम् । अन्यद्रव्यानपेक्षं निरुपमममितं शास्वतं सर्वकालं, उत्कुष्टानन्तसारं परमसुखमलस्तस्य सिद्धस्य जातम् ।। ७ ।। नार्थ भुत्तविनाशाद्विविधरसयुतरन्नपानरशुच्या नास्पृष्टेगन्धमापनहि मृदुशयनैर्लानिनिद्राधभावात् । आतङ्कातेरभावे तदुपशमनसभेषजानर्थताबद्, दीपानर्थक्य Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६५ ) बता व्यपगततिमरे दृश्यमाने समस्ते ॥ ६ ॥ ताहकसम्पत्समेता विविधनयतपःसंयमज्ञानहष्टि-चर्यासिद्धाः समन्तात्मविततयशसो विश्वदेवाधिदेवाः । भूता भव्या भवन्तः सकलजगति रेस्ट्रगलाना विशि, तन्तनगि. जिगमिपुररं तत्स्वरूपं त्रिसन्ध्यम् ॥ ६ ॥ कृत्वा कायोत्सर्ग चतुरष्टदोषदिरहितं सुपरिशुद्धम् । असिभक्तिसंप्रयुक्तो योवंदते स लघु लभते परमसुखम् ॥ १॥ इच्छामि भंते सिद्धि भत्ति काउस्सगो कमो तस्सालोचेउं सम्मरगाणसम्मदसणसम्मचारितजुत्तारणं महविहकम्मविप्पमुक्काणं अद्वगुणसंपण्पारणं उडलोयमच्छमि पट्टियाणं तवसिद्धाणं णयसिद्धारणं संजमसिद्धारा प्रतीतागागदपट्टमाणकालत्तयसिद्धारणं सत्यसिद्धाणं सथा रिंगच्नकालं अंचेमि बन्दामि पूजेमि गमस्सामि दुक्खक्खनो कम्मक्खनो बोहिलाहो सुगइगम समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झं। इति सिद्धभक्तिः श्रीश्रुतभक्तिः स्तोध्ये संज्ञानानि परोक्षप्रत्यक्षभेदभिन्नानि । लोकालोकविलोकनलोकितसल्लोचनानि सदा ॥ १ ॥ अभिमुखनियमितबोधनमाभिनिबोधिकमनिद्रियेन्द्रियजम् । बव्हायवग्रहादिककृतषट्त्रिंशत् त्रिशतभेदम् ॥ २ ॥ विविद्धिबुद्धिकोष्ठस्फुटबीजपदानुसारिबुद्ध्यधिकं । संभिन्नश्रोतृतया साधं श्रुतभाजन वन्दे ।। ३ ॥ श्रुतमपि जिनबरविहितं गणधररचिति द्वनेकभेदस्थम् । अङ्गांगवाह्यभावितमनंतविषयं नमस्यामि ॥ ४ ॥ पर्यायक्षरपदसंघातप्रतिपत्तिकानुयोगविधीन् । प्राभृतकप्राभृतकं प्राभृतकं वस्तुपूर्वं च ।। ५ 11 तेषां समासतोपि च विशति भेदान्समश्नुवानं तत् । वन्दे द्वादशधोक्त गंभीरवरशास्त्रपद्धत्या ॥ ६ ॥ आचारं सूत्रकृतं स्थानं समवायनामधेयं च । व्याख्याप्रज्ञप्ति च ज्ञातृकथोपासकाध्ययने ।। ७ ।। बंदेऽन्तकृदशमनुत्तरोपपादिकदशं दशावस्थम् । प्रश्नव्याकरणं हि बिपाकसूत्रं च विनमामि ।। ८ ॥ परिकर्म च सूत्र च स्तौमि प्रथमानुयोगपूर्वगते । साढे चूलिकयापि च पंचविघं इष्टिवादं च ॥ ६ ॥ पूर्वगतं तु चतुर्दशधोदितमुत्पादपूर्वमाद्यमहम् आग्नायणीयमीडे पुरुषवीर्यानु: वादं च ॥ १० ॥ संततममभिवंदे तथास्तिनास्तिप्रवादपूर्व च । ज्ञानप्रवादसत्यनवादमात्मप्रवादं च ॥ ११ ।। कर्मप्रवादमीडेऽथ प्रत्याख्याननाम धेयं च : दशमं विद्याधारं पृथुविद्यानुप्रवादच ॥ १२ ॥ कल्याणनामधेयं प्राणावायं क्रियाविशालं च । अथ लोकबिंदुसारं वंदे लोकानसारपदं ॥ १३ ।। दश च चतुर्दश चाष्टावष्टादश घ द्वयोद्विषट्कं च । षोडश व विशति व विनतमपि Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) पंचदश च तथा ॥ १४ ॥ वस्तूनि दश दशान्येष्वनुपूर्व भाषितानि पूर्षाणाम् । प्रतिषतु प्राभृतानि विशति विशति नौमि ।। १५ ।। पूर्वान्तं ह्यपरान्तं ध्रुवमध व च्यवनलब्धिनामानि । ध्रुवसंप्रणिधि चाप्ययं भौमावयाद्यं च ।। १६ ।। सर्वार्थकल्पनीयं ज्ञानमतीतं त्वनागतं कालम् । सिद्धिमुपाध्यं च तथा चतुर्दशवस्तुति द्वितीयस्य ॥ १७ ॥ पंचमस्तु चतुप्राभृतकस्यानुयोगनामानि | कृ वेदने तथैव स्पर्शनकर्म प्रकृतिमेव ॥ १८ ॥ बंधन निबंधन प्रकममथाभ्युदयमोक्षैः । संक्रमलेश्ये च तथा लेश्याया: कर्मपरिणामी || १६ || सातमसातं दीर्घ ह्रस्वं भवधारणीयसंज्ञं च । पुरुपुद्गलात्मनाम च नित्तमनिधत्तमभिनोमि ॥ २० ॥ सनिकाचितमनिकाचितमथ कर्मस्थितिकपश्चिमस्कंधी | अल्पबहुत्वं च यजे तद्द्द्वारारणां चतुर्विंशम् || २१ || कोटीनां द्वादशशतमष्ट्रापंचाशतं सहस्राणाम् । लक्षयशीतिमेव च पंच च वंदे श्रुतिपदानि ।। २२ ॥ षोडशशतं चतुस्त्रिशत्को - टीनाम्यशीतिलक्षारिण । शतसंख्याष्टासप्ततिमष्टाविंशति च पदवर्णान् ॥ २३ ॥ सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवं वंदना प्रतिक्रमणं । वैनयिक कृतिकर्म च पृथुदशवंकालिकं च तथा ॥ २४ । वरमुत्तराध्ययनमपि कल्पव्यवहारमेवमभिवंदे | कल्पाकरूपं स्तौमि महाकल्पं पुंडरीकं च ।। २५ । परिपाट्या प्रणिपतितोऽस्म्यहं महापुडरीकनामेव । निपुणान्यशीतिक व प्रकीर्णकान्यंग वाह्यान ॥ २६ ॥ पुद्गलमर्यादोक्त प्रत्यक्ष राप्रभेदमवधिं च । देशावधिपरमावधिसर्वाधिभेदमभिवंदे ।। २७ ।। परमनसि स्थितमर्थं मनसा परिविद्य मंत्रिमहितगुणम् । ऋजुविपुलमतिविकल्पं स्तौमि मन:पर्ययज्ञानम् ॥ २८ ॥ क्षायिकमनन्तमेकं त्रिकालसर्वार्थं युगपदवभासम् । सकलसुखधाम सततं वंदेहं केवल - ॐ ज्ञानम् ।। २६ ।। एवमभिष्टुवतो मे ज्ञानानि समस्तलोकचक्षुषि : लघु भवताज्ज्ञानद्धिज्ञानफलं सौख्यमन्यवनं ।। ३० ।। इच्छामि भंते । सुदभत्तिकागो को तस्स प्रालीचेउं अंगोवंगपण्णए पाहुडयपरियम्मसुत्तपढमारिव्वगयचूलिया चैत्र सुत्तत्थत्रथुइधम्मक हाइयं णिच्चकालं अंधेमि, पूजेमि, बंदाम, रामसामि, दुक्खक्खयो, कम्मक्खश्रो बोहिलाहो, सुगइममरणं समाहिम र जिगुणसंपत्ति होउ मज्भं । इति श्रुतभक्तिः ु अथ श्रीचारित्रभक्ति येन्द्राभुवनत्रयस्य विलसत्केयूरहा रांगदान्, भास्वन्मौलिमणिप्रभाप्रविसरोतुगत मांगातान् । स्वेषां पादपयोरुहेषु मुनयश्चक्रुः प्रकामं सदा, वंदे पञ्च 1 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६७ ) समद्य निदिन्नाचारमयति ।। १ ।। अर्थव्यंजनतद्वयाविकलताकालोपधाप्रश्रयाः, स्वाचाधिनपन्वो बहुमतिश्चेत्यष्टधा व्याहृतम् । श्रीमज्ज्ञातिकुलेन्दुना भगवता तीर्थस्य कोऽजसा, ज्ञानाचारमहं विधा प्रणिपताभ्युद्धृतये कर्मणाम ॥ २ ॥ शंकाहष्टि-विमोहकांक्षराविधिव्यावृत्ति सन्नद्धता, वात्सल्यं विचिकित्सनादुपरति, धर्मोपबृहक्रियां । शवत्याशासनदीपनं हितपथाद्धृष्टस्य संस्थापनं, बंदे दर्शनगोचर सुचरितं मूर्जा नमन्नादरात् ॥ ३ ॥ एकान्ते शयनोपवेशन कृतिः संतापनं तामवम्, संख्यावृत्तिनिबंधनामनशनं विष्वाणमोदरम् | त्याग तेन्द्रियदन्तिनो मदयतः स्वादो रसस्यानिशम्, षोढा बाहमहं स्तुवे शिवगतिप्राप्त्यभ्युपायं तपः ॥ ४ ॥ स्वाध्याय: शुभकर्मणश्च्युतवत: संप्रत्यवस्थापनम्, ध्यानं व्यावृतिरामयाविनि गुरौ वृद्धे च बाले यती । कायोत्सर्जनसतिया बिनय इत्येवं तपः पदविध, वंदेऽभ्यंतरमन्तरंगबलवद्विव षिविध्वंसनम् ॥ ५ ॥ सम्यग्ज्ञानविलोचनस्य दधत: श्रद्धानमहन्मते, वीर्यस्याविनिगृहनेन तपसि स्वस्य प्रयत्नाद्यतेः ।। या वृत्तितरणीव नौरविवरा लध्वी भवोदन्वतो, वीर्याचारमहं तमूजितगुगणं बंद सतामचितम् ।। ६ ॥ तिस्त्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदयाः, पंचर्यादिसमाश्रयाः समितयः पंचव्रतानीत्यपि । चारित्रोपहितं श्रयोदशतयं पूर्व न दृष्टं परैराचारं परमेष्ठिनो जिनपतेर्वीर नमामो वयम् ।। ७ ॥ आचारं सह पंचभेदमुदितं तीर्थ परं मंगलं, निधानपि सच्चरित्रमहतो वंदे समग्रान्यतीन् ॥ प्रात्माधीनसुखोदयामनुपमां लक्ष्मीमविध्वंसिनी, इच्छन् केवलदर्शनावगमनप्राज्यप्रकाशोज्वलाम् ।। ८ ।। अज्ञानाद्यदवीवृतं नियमिनोऽवतिष्यहं चान्यथा, सस्मिन्नजितमस्यति प्रतिनवंचनो निरा. कुर्वेति ।। बुत सप्ततयी निधि सुतपसामृद्धि मयत्यद्भुतं, तमिथ्या गुरु दुष्कृतं भवतु मे स्वं निदितो निदितम् ॥ ६ ॥ संसारव्यसनातिप्रचलिता नित्योदयप्राथिनः, प्रत्यासन्नविमुक्तयः सुमतयः शांतैनसः प्रागिन: । मोक्षस्यैव कृतं विशालमतुलं सोपानमुच्चस्तराम्, प्रारोहन्तु चरित्तमुत्तममिदं जैनेंद्रमोजस्विनः ॥ १० ॥ इच्छामि मंते चारित्तभत्तिकाउस्सग्गो को तस्स आलोचेउ' सम्मण्णाराजोयस्स सम्मत्ताहिटियस्रा सब्वपहाणस्स रिणवारणमग्गस्स कम्मरिणज्जरफलस्स खमाहारस्स पंचमवयसंपएणस्स तिगुत्तिगुत्तस्स पंचसमिदिजुत्तस्स गाण्ज्झागणाहणस समया इव पवेसयस्स सम्मचारित्तस्स सया अंचेमि, पूजेमि वंदामि मंसामि, दुस्वपखनो कम्मक्खनो, बोहिलाहो सुगइगमणं, समाहिमरण, जिणगुणसंपत्ति होउ मउझ । इति चारित्रभक्तिः Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६८) अथ योगभक्तिः ____जातिजरोरुरोगमरणातुरशोकसहस्रदीपिताः, दुःसहनरकपतनसन्त्रस्तधियः प्रतिबुद्धचेतसः । जीविसमंबुबिंदुचपलं तडिदभ्रसमा विभूतयः, सकलमिदं विचिन्त्य मुनयः प्रशमाय बनान्तमाश्रिताः ।। १ ।। यतसमितिगुप्तिसंयुताः शमसुखमाधाय मनसि बीतमोहाः । ध्यानाध्ययनवशंगता: विशुद्धये कर्मणां तपश्चरन्ति ॥ २ ।। दिनकरकिरणनिकरसंतप्तशिलानिचयेषु निःस्पृहाः । मलपटलावलिप्ततनवः शिथिलीकृतकमबन्धनः ॥ व्यपगतमदनदर्परतिदोषकषायविरक्तमत्सराः गिरिशिखरषु चंडकिरणाभिमुखस्थितयो दिगंबराः ॥ ३ ।। सज्ज्ञानामृतपायिभिः क्षान्तिपयः सिच्यमानपुण्य कार्यः। धृतसंतोषच्छत्रकैस्तापस्तीबोऽपि सद्यते मुनीन्द्र :, ॥ ४ ॥ शिखिगलकज्जलालिमलिनविबुधाधिप चापचित्रितः, भीमरवैविसृष्टचण्डाशनिशीतलवायुवृष्टिभिः । गगनतलं विलोक्य जलदैः स्थगितं सहसा तपोधनाः, पुनरपि तरुतलेषु विषमासु निशासु विशंकमासते ॥ ५ ॥ जलधाराशरताडिता न चलन्ति चरित्रतः सदा नृसिंहाः । संसारदु:खभीरवः परीषहारासिघातिन: प्रवीराः ॥ ६ ॥ अविरतबहलतुहिनकरावारिभिरंघ्रिपपत्रपातन-रनवरतमुक्तसीत्काररवैः परुषरथानिलैः शोषितगात्रयष्टयः । इह श्रमणा वृतिकबलावृताः शिशिरनिशाम् । तुषारविषमां गमयन्ति चतु:पये स्थिताः ॥ ७ ॥ इति योमत्रयधारिणः सकलसपःशालिनः प्रवृद्धपुण्यकायाः । परमानंदसुखैषिणः समाधिमग्न यं दिशंतु नो भदन्ताः ॥ ८ ।। गिम्हेगिरिसिहरत्था वरिसायाले स्क्खमूल रयणीसु । सिसिरे वाहिरसयणा 'ते साह वैदिमो णिचं 11 १ ॥ गिरिकंदरदुर्गेषु ये वसंति दिगंबराः । पाणिपात्रपुटाहारास्ते यांति परमां गतिम् ॥ २ ॥ इच्छामि भंते योगिभत्तिकाउस्सग्गो को तस्समा लोचेउं अदाइज्जदीवदोरामुद्दे सु पण्णारसकम्मभूमोसु आदावणरुक्खमूलअब्भोवासठाणमोणविरासरणे कपासकुक्कुडासरणचउछपक्वखवगादियोगजुसाणं सब्बसाहरणं बंदामि, रगमंसामि, दुक्खम्वनो कम्मक्खनो, वोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं जिणगुणसपत्ति होउ मज्झं ।। इति योगभक्तिः अथ श्राचार्यभक्तिः सिद्धगुणस्तुतिनिरतानुद्धतरुषाग्निजालबहुल विशेषान् । गुप्तिभिरभिसंपूर्णान् मुक्तियुतः सत्यवचनलक्षितभावान् ॥१|| मुनिमाहात्म्यविशेषात् जिन Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) शासनसत्प्रदीपभासुरमूर्तीन् । सिद्धि प्रपित्सुमनसो बद्धरजोविपुलमूलघातनकुशलान || २ || गुरगमरिगविरचित्तवपुषः षड्द्रव्यविनिश्वितस्य धातृन्सततम् । रहितप्रमादवन्दर्शनशुद्धान् गणस्य संतुष्टिकरान् || ३ || मोहच्छिदुग्रतपसः प्रशस्तपरिशुद्ध हृदयशोभनव्यवहारान् । प्रासु कनिलयाननधानाशाविध्वंसिचेतसो हतकुपधात् ॥ ४ ॥ धारितविलसन्मुण्डान्य जितब हुदंड पिंडमंडलनिकारन । सकल परीषहजयिनः क्रियाभिरनिशं प्रमादतः परिरहितान् ॥ ५ ॥ श्रवलान्त्यपेत निद्रान् स्थानयुताभ्कष्टदुष्टलेश्याहीनान् । विधिनानाश्रितवासान लिप्त देहान्विनिजितेन्द्रियकरिणः ।। ६ ।। अतुलानुत्कुटिकासान्विविक्तचित्तानखंडितस्वाध्यायान् । दक्षिणभावसमग्रान्व्यपगत मदरागलोभशठमात्सर्यान् ॥ ७ ॥ भिन्नार्तरौद्रपक्षान्संभावितधर्म शुल्क निर्मलहृदयान् ॥ ८ ॥ नित्यं पिनद्ध कुगतीनुण्यान्गप्योदयाविलीनगारवर्चयान् । तरमूलयोगयुक्तानवकाशातापयोग रागसनाथान् । बहुजनहितकरचर्यानभवाननघान्महानुभावविधानात् ॥ ॥ गुणान्मान्भवत्या विशालया स्थिरयोगान् विधिनानारतमग्रयान्मुकुलीकृतहस्तकमलशोभितशिरसा ॥ १० ॥ श्रभिनौमि सकलकलुषप्र भवोदयजन्मजरामरण बंधनमुक्तान् । शिवमचल मनघमक्ष यमव्याहत मुक्तिसौख्यमस्त्विति सततम् ॥ ११ ॥ इच्छामि भंते श्राइरिभत्तिकाउसो कमो तस्सालोचेउं सम्मरगा रगसम्म दसरण सम्मय चारित जुत्ताणं पंचविहाचाराणाण आयरियाणं श्रायारादिसुदरणारणोवदेसयाणं उवज्झायाणं, तिरयग्ग्गुरणपालनरयाणं सव्वसाहूणं सयायंचेमि, पूजेमि, बंदामि; रामसामि, gurjar, कम्मक्खश्रो बोहिलाहो सुगइगमरणं, समाहिमरणं जिनगुरण संपत्ति होउ मज्भं । इति श्राचार्य भक्तिः 7 अथ पंचगुरुभक्तिः श्रीमदमरेन्द्र मुकुट घटितमणिकिरणवारिवाराभिः । प्रक्षालितपदयुगलान्प्र समामि जिनेश्वरान्भवत्या । १ । अष्टगुणैः समुपेतान्प्रणष्टदुष्टाष्टकर्म रिपुसमितीन् । सिद्धान्सततमनन्तान्तान्नमस्करोमीष्टतुष्टिसंसिद्ध्यै ॥ २ ।। साचारश्रुतजastrप्रतीयं शुद्धोरुचरनिरतानाम् । श्राचार्याणां पदयुगकमलानि दधे शिरसि मेऽहम् ॥ ३ ॥ मिथ्याचादिमदोग्रध्वान्तप्रध्व सिवचनसंदर्भान् । उपदेशकान्प्रपद्य े मम दुरितारिप्रणाशा ॥ ४ ॥ सम्यग्दर्शनदीप प्रकाशका मेयबोधसंभूताः । भूरिचरित्रपताकास्ते सानुगरगास्तु मां पान्तु ॥ ५ ॥ जिन सिद्धसूरिदेशक साधुव रानम लगुणगणोपेतान् । पंचनमस्कारपवैस्त्रिसन्ध्यमभिनौमि मोक्षलाभाय ॥ ६ ॥ एष Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) पञ्चनमस्कार: सर्वपापपणाशनः । मङ्गलानां च सर्वेषां प्रथमं मंगलं भवेत् ॥६॥ अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायाः सर्वसाधष: 1 कुर्वन्तु मंगलाः सर्वे निर्वाणपरमश्रियम् ।। = || सर्वान् जिनेन्द्रचन्द्रान्सिद्धानाचार्यपाठकान् साधून् । रत्नत्रयं च बंदे रत्नत्रयसिद्धये भक्त्यो !! पान्तु श्रीपादपद्यानि पञ्चानां परमेष्ठि नाम् । लालितानि सुराधीशचूड़ामणिमरीचिभिः ॥ १०॥ प्रातिहाजिनान् सिद्धान् गुणैः सूरीन् स्वमातृभिः । पाठकान बिनये: साधून योगांगरष्टभिः स्तुवे .॥ ११ ।। इच्छामि भंते पंचमहागुरुभत्तिकाउस्सग्गो को तस्सालोचे अढमहापाडिहेरसंजुत्ताणं अरहतारणं, प्रदुगुणसंपरगाणं उढलोयमत्थयम्मि पइट्ठियारणं सिद्धाण, अपवयणमउसंजुत्ताणं पायरियाणं, पायारादिसुदणाणोवदेसयाणं उवझायाणं, तिरयगगुरणपालगरयारणं सब्बसाहुणं रिगच्चकालं अचेमि, पूजेमि, बंदामि, रणमंसामि; दुक्खवस्त्रयो, कम्मक्खनो बोहिलाहो, सुगइगमरण समाहिमरण, जिणगुणसंपत्ति होउ म । इति पंचगुरुभक्तिः अथ तीर्थंकरभक्तिः अथ देवसियपडिक्कमणाए सब्बाइच्चारविसोहिरिणमित्तं पुत्वाइरियकमेण च स्वीसतित्थयरभत्तिकाउस्सग्गं करेमि ॥ चवीसं तित्थयरे उसहाईदीरपच्छिमे वंदे । सम्वेसि मुरिणगरणहरसिद्ध सिरसा रामसामि ।। १ ।। ये लोकेऽष्टसहस्रलक्षणधरा ज्ञेयार्णवांतर्गता-, ये सम्यग्भवजालहेतुमथ नाश्चंद्रावतेजोधिकाः येसाध्विद्रसुराप्सरोगरणशतैर्गीतप्रणुत्याचिंता:, तान्देवान्वृपभादिवीरचरमान्भक्त्या नमस्याम्यहं ।। २ 11 नाभेयं देवपूज्यं जिनवरमजितं सर्वलोकप्रदीपम्, सर्वज्ञ संभवाख्यं मुनिगणवृषभं नंदनं देवदेवम् ।। कसरि घं सुद्धि वरकमलनिभं पद्मपुष्पाभिगंधम्. क्षान्तं दोतं सुपाश्वं सकलशशिनिभं चंद्रनामानमोडे ॥ ३ ॥ विख्यातं पुष्पदंतं भवभयमथनं शीतलं लोकनाथम्, श्रेयांसं शीलकोषं प्रवरनरगुरु वासुपूज्यं सुपूज्यं । मुक्त' दान्तेन्द्रियाश्वं विमलमृषिपति सिंहसैन्यं मुनीन्द्रम, धर्म सद्धर्मकेतु शमदमनिलयं स्तौमि शान्ति शरण्यम् ॥ ४ ।। कुभु सिद्धालयस्थं श्रमणपतिमरत्यक्तभोगेषु चक्रम् । मिल्लं विख्यातगोब्र खच रगणनुतं सुव्रतं सौख्यराशिम् । देवेन्द्राय ममीशं हरिकुलतिलकं नेमिचन्द्र' भवान्तम्, पार्वं नागेन्द्रवन्धं शरणमहमितो वर्द्धमानं च भवत्या ।। ५ ॥ इच्छामि भंते चउवोसतित्थयरभत्तिकाउस्सरगो को तस्सा लोचेउ, पंचमहाकल्लाणसंपण्णाणं अट्ठमहापाडिहेरसहियाणं चउ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७१ ) तीसप्रति सविसेस संजुत्ताणं, बत्तीसदेविंदमरिगमउडमत्ययमहिया, बलदेवचासुदेवचकहर रिसिमुगिज इझरागारोवगूढारणं; बुइसयसहस्सरिलयाणं, उसहाइ--- arrपच्छिममंगल महापुरिसारणं णिच्चकाल अचेमि, पुज्जेमि, वंदामि समंसामि दुक्खक्खो कम्मक्खग्रो, बोहिलाहो सुगइगमरणं समाहिमरणं, जिरणगुणसंपत्ति होउ मज्भं । इति तीर्थकर भक्ति - श्रथ शान्तिभक्तिः I न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन्पादद्वयं ते प्रजाः हेतुस्तत्र विचित्र दुःखनिचयः संसारघोरांवः । श्रत्यन्तस्फुरदुग्ररश्मिनिकरव्याकीर्णभूमंडलो, ग्रष्मः कारयतीन्दुपादसलिलच्छायानुरागं रविः ॥ १ ॥ ऋद्धाशीविषदष्टदुर्जयविषज्वालावलीविऋमो, विद्याभैषज मंत्रतोयहवनैर्याति प्रशांति यथा । तद्वत्तं चरणारुग्णांबुजयुगस्तोत्रोन्मुखानां नृणाम्, विघ्नाः कार्यविनायकाश्च सहसा शाम्यन्त्यहो विस्मयः ॥ २ ॥ संतप्तोत्तमकांचनक्षितिधरश्रीस्पद्विगोरते, पुंसां त्वच्चरण प्रमाण करणात्पीडाः प्रयान्ति क्षयं । उद्यद्भास्करविस्फुरत्करशतव्याघातनिष्कासिताः । नानादेहिविलोचनद्युतिहरा शोध यथा शर्वरी ॥ ३ ॥ त्रैलोक्येश्वरभंग लब्धविजयादत्यंतरौद्रात्मकान् नानाजन्मशतांतरेषु पुरतो जीवस्य संसारिणः को वा प्रसवलतीह केन विधिना कालो दावानलान्न स्याच्चेत्तव पादपद्मयुगल स्तुत्यागगावारणम् || ४ || लोकालोकनिरन्तर बिततस्थानेक मूर्त विभो ! नानारत्नपिनद्धदन्ड रूचि श्वेतातपत्रत्रय । त्वत्पादद्वयतगोतरवतः शीघ्र द्रवन्त्याया दर्पाघ्मात मृगेंद्र भीमनिनदाद्वन्या यथा कुञ्जराः || ५ || दिव्यस्त्रीनयनाभिरामविपुलश्री मेरुचुडामणे, भास्वद्वालदिवाकरद्युतिहरप्राणीष्टभामण्डल अव्यावाधमचिन्त्यसारमतुलं त्यकोपमं शाश्वतं सौख्यं त्वच्चरणारविंदयुगलस्तुन्यंव संप्राप्यते ।। ६ ।। यावत्रोदयते प्रभापरिकरः श्रीभास्करो भासयं स्तावद्धारयतीह पंकजवनं निद्रातिभारश्रमम् । यावत्त्वच्चररणद्वयस्य भगवन्न स्यात्प्रसादोदयस्तावज्जीवनिकाय एष वहति प्रायेण पापं महत् ॥ ७ ॥ शांति शांति जिनेन्द्रशांत मनसस्त्वत्पादपद्मश्रयात् संप्राप्ताः पृथिवीतलेषु बहवः शान्त्यथिनः प्राणिनः । कारुण्यात्मम भक्तिवस्य च विभो दृष्टि प्रसन्न कुरु, त्वत्पादद्वय देवतस्य गदतः शांत्यष्टकं भक्तितः ॥ ८ ॥ शांतिजिनं शशिनिर्मलवक्त्रं शीलगुणव्रतसंयमपात्रं । अष्टशताचितलक्षणगात्रं नौमि जिनोत्तमम्बुजनेत्रम् ।। ६ ।। पञ्चमभीप्सितचक्रधराणां पूजितमिन्द्रनरेन्द्रगरणेश्च । शांतिकरं Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरा यातिम भीप्सुः षोडशतीर्थक प्रणमामि ।। १० ॥ दिव्य तरुः सुरपुष्पसुवृष्टिदुन्दुभिरासनयोजनघोषो । प्रातपवारणचामरयुग्मे यस्य विभाति च मंडलतेजः ।। ११ ॥ तं जगदचितशान्तिजिनेन्द्र शांतिकर शिरसा प्रणमामि । सर्वगणाय तु यच्छतु शान्ति मह्यमरं पठते परमा च ।। १२ ।। येऽभ्यचिता मुकुट डलहाररत्नैः, शक्रादिभिः सुरगणः स्तुतपादपद्माः । ते मे जिनाः प्रवरवंशजगत्प्रदीपाः, तीर्थ कराः सततशांतिकरा भवन्तु ॥ १३ ॥ सम्पूजकानां प्रतिपालकानां यतींद्रसामान्यतमोधनानाम् । देशस्य रास्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांति भगवान् जिनेद्रः ॥ १४ ॥ क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान्धामिको भूमिपालः । काले काले च सम्यावर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुभिक्ष चौरमारिः क्षणमपि जगतां मारम: भूज्जीवलोके । जैनेन्द्र धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि ।। १५ ।। तद्रव्यमव्ययमुदेतु शुभः स देशः, संतन्य तां प्रतपती सततं स कालः । भावः स नन्दतु सदा यदनुग्रहेण, रत्नत्रयं प्रतपतीह मुमुक्षुवर्ग ।। १५ ।। प्रध्वस्तघात्तिकणिः केवलज्ञानभास्कराः । कुर्वन्तु जगतां शान्तिं भाद्या जोरा: :: १६ इच्छामि भने शान्तिभत्तिकाउस्सग्गी को तरसालोचेउ पंचमहाकल्लारणसंपएणाणं, अट्ठमहापाडिहेरसहियाणं, चउतीसातिसयविसेससंजुत्ताणं वत्तीसदेवेंदमणिमयमउडमत्थयमयिाणं, बलदेववासुदेवचक्कहररिसिमुणिजदिअणगारोबगूढारणं, थुइसयसहस्सरिगलयाणं, उसहाइबीरपच्छिममंगलमहापुरिसाणं रिगच्चकालं अंचेमि, पूजेमि वंदामि, एमसामि, दुक्खक्खो , कम्मक्खयो, बोहिलाहो, सुगइगमरणं, समाहिमरणं, जिरणगुणसंपत्ति, होउ मज्झं । इति शांतिभक्तिः अथ समाधिभक्तिः स्वात्माभिमुखसंवित्तलक्षणं श्रुतिचक्षुषा 1 पश्यन्पश्यामि देव त्वां केवलज्ञानचक्षुषा 1 १ । शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदायेंः, सद्वृतानां गुणगणकथा-दोषवादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रियहितबचो भावमा चात्मतत्वे, संपद्यता मम भवभवे याबदेतेऽपवर्ग । २ । जैनमार्गरुचिरन्यमार्गनिर्वेगता जिनगुणस्तुती मतिः । निष्कलंकविमलोक्तिभावना: संभवन्तु मम जन्मजन्मनि । ३ । गुरुमूले यतिनिधिते चैत्पसिद्धांतवाधिसद्घोषे । ममभवतु जन्मजन्मनि सन्यसनसमन्वितं मरणम् । ४ । जन्म जन्मकृतं पापं जन्मकोरिसमाजितम् जन्ममृत्युजरामूलं हन्यते जिनवंदनात् । ५ । आबाल्याज्जिनदेवदेव भवतः Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५३ ) श्रीपादयोः सेक्या, सेवासक्तविनेयकल्पलतया कालोद्ययावगतः । त्वां तस्याः फलमर्थये तदधुना प्रारणप्रयापक्षण, स्वनामप्रतिबद्धवर्णपठने कण्ठोऽस्त्वकुएठो मम । ६ । तव पादौ मम हृदये ममहृदयं तव पदद्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद्यावन्निरिणसंप्राप्तिः । ७ । एकापि समर्थयं जिनभक्तिर्दुर्गति निबारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितु दातु मुक्किश्रियं कृतिनः । ८ । पंच अरिंजयगामे पंचय मदिसायरे जिणे वंदे । पंच जसोयर रामिये पंचय सोमंदरे वंदे । ६ । रयणतयं च वंदे, चवीसजिणे च सव्वदा बंदे पंचगुरू वंदे चारणचरणं सदा वंदे । १० । अहमित्यक्षरब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्वीजं सर्वतः प्रणिदध्महे । ११ । कर्माष्टकविनिमुक्त मोक्षलक्ष्मीनिकेतनम् । सम्यक्त्वादिगुरोपेतं सिद्धचक्रं नामाम्यहम् । १२ । प्राकृष्टि सूरसंपदा विदधते मुक्तिथियो वश्यता । उच्चाट विपदा चतुर्गतिभुवा वढषमात्मनसाम् । स्तभं दुर्गमनं प्रति प्रयततो मोहस्य' सम्मोहनम्-, पायापचनमस्क्रियाक्षरमयी साराधना देवता । १३ अनंतानन्तसंसारसंततिच्छेदकारणम् । जिन राजपदाम्भोजस्मरणं शररां मम । १४ । अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुएयभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर । १५ । न हि त्राता नहि वाता, न हि त्राता जगत्त्रये । वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति । १६ । जिने भक्तिजिने भाक्तांजने भकिदिनं दिने । सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे । १७ । याचेऽहं याचेऽहं जिन तव चरणारविन्दयोर्भक्तिम् । याचे ऽहं याचेऽहं पुनरपि सामेव तामेव । १८ । विघ्नोथाः प्रलयं यांति शाकिनीभूतपन्नगाः । विषो निविषतां याति स्तूयमाने जिनेवरे ॥ १६ ।। इच्छामि भंते समाहिभत्तिकाउस्सग्गो को तस्सालोचेउ, रयणत्तयपरूपबपरमपरझारालक्खणं समाहिभत्तीये, रिगच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, बंदामि णम सामि, दुषपक्खो , कम्मक्खनो बोहिलाहो, सुगइगमरणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ म ।। इति समाधिभक्तिः । अथ निर्वाण भक्ति बिदुधपतिस्वगपनरपतिधनदोरगभूतयक्षपतिमहितम् । अतुलसुखविमलनिरुपमशिवमचलमनामयं हि संप्राप्तम् । १ । कल्याणः संस्तोष्ये पंचभिरनघं त्रिलोकपरमगुरुम् । भव्यजनतुष्टिजननेंदु रवापैः सन्मति भक्त्या । २ | आषाढ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४) सुसितषष्ठयां हस्तोत्तरमध्यमाधिते शशिनि । आयातः स्वर्गसुखं भुक्त्वा पुष्पोत्तराधीशः । ३ । सिद्धार्थनृपतितनयो भारतवास्ये विदेहकुडपुरे। देव्यां प्रियकारिएयां सुस्वप्नान्संप्रदय विभुः । ४ । चैत्यसितपक्षफाल्गुरिण-शशांकयोगे दिने प्रयोदश्याम् जज्ञे स्वोच्चस्थेषु ग्रहेषु सौम्येषु शुभलग्ने । ५ । हस्ताश्रिते शशांके चैत्रज्योत्स्ने चतुर्दशीदिवसे । पूर्वाण्हे रत्नघटैविबुधेन्द्राश्चरभिषेकम् । ६ । भुक्त्वा कुमारकाले त्रिंशद्वर्षाण्यनंतमुरणराशिः । अमरोपनीतभोगान्सहसाभिनिबोधितोऽन्येद्य : ।५ । नानाविधरूपचितां बिचित्रकूटोच्छिता मरिणविभूषाम् । चन्द्रप्रभाख्याशिवकामारुह्य पुराद्विनिष्क्रान्तः । ८ 1 मार्गशिरकृष्णदशमीहस्तोत्तरमध्यमाश्रित सोमे । षष्ठेन त्वपरारणे मक्तेन जिनः प्रव, वाज । ९ । ग्रामपुरखेटकबंटमबघोषाकरानप्रविजहार । उस्तपोविधानशिवर्षाएयमरपूज्य: । १०। ऋजुकूलायास्तीरे शालद्र मसंश्रितेशिलापट्ट । अपराहुपष्ठेनास्थितस्य खलु जू भिकाग्रामे ॥ ११॥ वैशाखसितदशम्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रितेचन्द्र । क्षपकण्यारूढस्योत्पनं केवलज्ञानम् ॥ १२ ॥ अथ भगवान् संप्रपद्दिव्यं वैभारपर्वतं रम्यम् । चातुर्वण्यसुसंस्ताभूगौतमप्रभुति ।१३। छत्राशोको घोषसिंहासनदुदुभीकुसुमवृष्टिम् । वरचामरभामण्डलदिव्यान्यन्यानि चावापत् ॥ १४ ॥ दशविचमनगाराणामेकादशधोत्तरं तथा धर्मम् । देशयमानो व्यहरंस्त्रियाद्वर्षाण्यथ जिनेन्द्रः ।। १५ ।। पद्मवनदीपिकाकुलविविध मखण्डमण्डिते रम्ये । पावानगरोद्यानेव्युत्सर्गेण स्थितः स मुनिः । १६ । कातिककृष्णस्यान्ते स्वातीवृक्षे निहत्य कर्मरजः । अवशेष संप्रापद्व्यजरामरमक्षयं सौख्यम् । १७ । परिनिर्वृतं जिनेन्द्र ज्ञात्वा विबुधा ह्यथाशु चागम्य । देवतरुरक्तचन्दन कालागुरुसुरभिगोशीः । १८ ! अग्नीन्द्राज्जिनदेहं मुकुटानलसुरभिधूपवरमाल्यैः । अभ्ययं गणधरानपि गता दिवं खं च वनभवने । १६ । इत्येवं भगवति वर्धमान चंद्रे, यः स्तोत्रम् पठति सुसंध्ययोयोहि । सोऽनंतं परमसुखं नदेवलोके भुक्त्वांते शिवपदमक्षयं प्रयाति । २० । यत्रार्हतां गणभृतां श्रुतपारगाणां, निरिणभूमिरिह भारतवर्षजानाम् । तामद्य शुद्धमनसा क्रियया वचोभिः, संस्तोतुमुद्यतमतिः परिणोमि भवत्या । २१ । कैलासशैलशिखरे परिनिर्वतोऽसौ, लेशिभावमुपपद्य वृषो महात्मा । चंपापुरे च वसुपूज्यसुतः सुधीमान, सिद्धि परामुपगतो गतरागबंधः ।२२ । यत्प्रार्यते शिवमयं विबुधेश्वरायः, पाखंडिभिश्च परमार्थगवेषशीलः । नष्टाष्टकर्मसमये तदरिष्टनेमिः, संप्राप्तवान् क्षितिधरे बृहदुर्जयन्ते । २३ । पावापुरस्बाहरुन्नतभूमिदेशे, पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये । श्रीवर्धमानजिनदेव इति प्रतीतो, निर्वाणमाप भगवान्प्रविधूतपाप्मा । २४ । शेषास्तु ते निजवरा जिसमोहमल्ला, ज्ञानाभूरिकिरगरवभास्यलोकान् । स्थानं परं निरवधारितिसौ. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४) ख्यनिष्ठ, सम्मेदपर्वततले समवापुरीशाः । २५ । प्राद्यश्चतुर्दशदिनविनिवृत्तयोग. षष्ठेन निष्ठितकृतिजिनवर्द्धमानः । शेषा विधूतघनकर्मनिबद्धपाशाः, मासेन ते यतिवरास्त्वभवन्धियोगाः । २६ । माल्यानि वास्तुतिमयैः कुसुमैः सुदृब्धान्यावायमानसकररभितः किरतः । पर्येम प्रातियुता भगवन्निशियाः, संप्रार्थिता वयमिमे परमां गति ताः । २७ । शत्रुजये नगवरे दमितारिपक्षाः, पंडोः सुताः परमनिदे॒तिमभ्युपेताः । तुग्यां तु संगरहितो बलभद्रनामा, नद्यास्तटे जितरि पुश्चसुवर्णभद्रः ! २८ । द्रोणीमति-प्रबलकुंडल मेंढ़ के च, वैभारपर्वततले बरसिद्धटे । ऋष्याद्रिके च विपुलाहिवालाडके च. विध्ये व पोटापरे नापटीपो न ! २६ । सह्याचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठ, दंडात्मके गजपथे पृथुसारयष्टौ । ये साधबो हतमला: सुमति प्रयाताः, स्थानानि तानि जगति प्रथिनान्यभूवन् । ३० । इक्षोविकाररसयुक्तगुणेन लोक, पिष्टोऽधिकां मधुरतामुपयाति यद्वत् तद्वच्च पुण्यपुरुषः रुषितानि नित्यं, स्थानानि तानि जगतामिह पावनानि । ३१ । इत्यहतां शमवता च महामुनीना, प्रोक्ता मयात्र परिनिर्वसिभूमिदेशाः । ते मे जिनाजितभया मुनयश्च शांताः, दिश्यासुराशु सुगति निरवद्य सौख्याम् । ३२ । कैलाशाद्री मुनींद्र:पुरुरणदुरितो मुक्तिमाप प्रणतः चम्पायां वासुपूज्यस्त्रिदशपतिनुतो नेमिरप्यूर्जयन्ते । पाबायां बर्धमानस्त्रिभुवनगुरवो विशतिस्तीर्थनाथाः, सम्मेदाग प्रजग्मुर्द यतु विनमतां निवृति नो जिनेंद्राः । ३३ । गौर्गजोश्वः कपिः कोकः सरोजः स्वास्तिक: शशी। मकर: श्रीयुतो वृक्षो गंडो महिषशुकरी । ३४ } सेधावनमृगाच्छगाः पाठीन: कलशस्तथा । कच्छपश्चोत्पलं शंखो नागराजश्च केसरी । ३५ । शातिकुन्थ्वरकौरव्य यादवो नेमिसुव्रती। उननाथी पार्ववीरौ शेषा इक्ष्वाकुमंशजाः । ३६ । इच्छामि भंते परिणिब्वाभत्ति काउस्गो कयो तस्सालोचेउ इमम्मि अवसप्पिणीये, चउत्थसमस्स पच्छिमे भाए, प्राउट्ठामासहीणे, वासचउ कम्मि सेसकालस्मि । पावाये गयरीए, कत्तियमासस्स किराहचउदसिए । रत्तीए शादीए णवखते, पच्युसे भयवदो महदि महावीरो वट्ठमाणो सिद्धि गदो । तीसुवि लोएमु, भन्त्रणवासियवाणवितरजोइसियकप्पवासियत्ति चबिहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेरा, दिब्वेण पुप्फेण दिव्वेग धूवेण, दिवेण चुरागण, दिवेण वारोण, दिव्रण राहारणेग णिच्चकालं, अच्चंति, पूजंति, बंदंति, णमसंति, परिणि वारण, महाकल्लारणयुज्ज करंति, अहमवि इहसंतो तत्थ संताइयं रिगच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, बंदामि, मंसामि, दुक्खक्खो ,कम्मरखयो, बोहिलाहो, सुगइमरणं, समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति, होउ ममं ।। इति निर्वाणभक्तिः Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) sar नंदीश्वर भक्तिः 1 त्रिदशपति मुकुटतटगतमणिगण- करनिकरसलिलवाराघौतक्रमक मल युगलजि नपतिरुचिर प्रतिवित्रवियलविरहित निलयान् ।। १ ।। निलयानमिह महस सहसा प्रपतनपूर्वमवनीम्यवनौ भैय्यां त्रय्या शुद्ध्या निसर्ग-शुद्धान्विशुद्धये घनरजसाम् || २ || भावनसुरभवनेषु द्वासप्ततिशतसहस्रसंख्याभ्यधिकाः । कोट्यः सप्त प्रोक्ता भवनानां भूरितेजसां भुवनानाम् ।। ३ ।। त्रिभुवनभूतविभूनां संख्याती तान्याश् युक्तानि । जन्नतः विवाणि भवनानि भीमविबुधनुतानि ॥ ४ ॥ यावन्ति सन्ति कान्तज्योतिर्लोकाधिदेवताभिनुतानि, कल्पेऽनेक विकल्पे कल्पातीतेऽहमिन्द्रकल्पानल्पे ॥ ५ ॥ विंशतिरय त्रिसहिता सहस्त्रगुणिता व सप्तनवति प्रोक्ता, चतुरधिकाशीतिरतः पंचशून्येन विनिहतान्यनघानि ॥ ६ ॥ ष्टापंचाशदतश्चतुःशतानीह मानुषे च क्षेत्रे | लोकालोकविभागप्रलोकनालोकसंयुजां जयभाजाम् ॥ ७ ॥ नवनव चतुःशतानि च सप्त च नवतिः सहस्रगुणिताः षट्च, पंचाशत्पंच वियत्म हताः पुनरत्र कोटयोटो प्रोक्ताः ॥ ८ ॥ एतावत्येव सतामकृत्रिभाष्यथ जिनेशिनां भवनानि भुवनत्रितये त्रिभुवनसुरसमितिसमर्च्यमानसत्प्रतिमानि ॥ ६ ॥ वक्षाररुचककु डलरौप्यनगोत्तरकुलेषुकारनगेषु । कुरुषु च जिनभवनानि त्रिशतायधिकानि तानि विशत्या ॥ १० ॥ नन्दीश्वरसदृद्वीपे नंदीश्वर जलधिपरिवृते धृतशोभे । चंद्रकरनिकरसभिरुन्द्रयशोवितत दिङ्मही मंडल के ॥ ११ ॥ तत्रत्यांजनदधिमुखरतिकर पुरुन गवराख्यपर्वतमुख्याः प्रतिदिशमेपामुपरि त्रयोदशेन्द्राचितानि जिनभवनानि ।। १२ ।। आषाढकार्तिकाख्ये फाल्गुण मासे च शुक्लपक्षेऽष्टम्याः आरभ्याष्टदिनेषु च सौधर्मप्रमुख विबुधपतयो भक्त्या ॥ १३ ॥ तेषु महामहमुचितं प्रचुराक्षतगंधपुष्पपूर्व दिव्यैः । सर्वज्ञप्रतिमानां प्रकुर्वते सर्वहितम् ॥ १४ ॥ भेदेन वर्णना का सोधर्मः स्वपनकर्तृ तामापन्नः परिचारकभावमिताः शेषेन्द्रा रुन्द्रचंद्र निर्मलयासः || १५ || मंगलपात्रारिख पुनस्तद्देव्यो विभ्रति स्म शुभ्रगुरणाच्याः । अप्सरसो नर्तक्यः शेषसुरास्तत्र लोकनाव्यग्रधियः ॥ १६ ॥ वाचस्पतिवाचामपि गोचरता संव्यतीत्य यत्क्रममाणम् । विधपतिर्विहितविभवं मानुषमात्रस्य कस्य शक्ति: स्तोतुम् ॥ १७ ॥ निष्ठापितजिनपूजाश्चूर्णस्नपनेन दृष्टविकृतविशेषाः । सुरपतयो नन्दीश्वरजिनभवतानि प्रदक्षिणीकृत्य पुनः ॥ १८ ॥ पंचसु मंदरगिरिषु श्रीभद्रशालनन्दनसी मनसम् । पांडुकवन मिति तेषु प्रत्येक जिनगृहारिण चत्वार्येव ।। १६ ।। तान्यथ परीत्य तानि च नमसित्वा कृतमुपूजनास्तत्रापि । स्वास्पवमीयुः सर्वे स्वास्प - Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७७ ) 9 मूल्यं स्वचेष्टया संगृह्य ॥ २० ॥ सहतोरगसद्व दीपरीत वमयागवृक्ष मानस्तंभ | ध्वजपंक्तिदशकगोपुरचतुष्टयत्रितयशालमंडप ॥ २१ ॥ श्रभिषेकप्रेक्षरिकाक्रीडनसंगीत नाटकालोकगृहैः । शिल्पिविकल्पितकल्पनसंकल्पातीतकल्पनैः समुपेतः ॥ २२ ॥ वाषीसत्पुष्करिणीसुदीर्घिकाधम्बुसंसृतैः समुपेतैः । विकसितजलरुहकुसुमैर्नभस्यमानः शशिप्रभैः शरवि ॥ २३ ॥ भृंगाराब्दक कलशाद्य पकर रखे रष्टशतकपरिसंख्यामः प्रत्येकं चित्रगुणैः कृतनिनदति ॥ २४भ्राजते नित्यं हिरण्यमयानीश्वरेशिनां भवनानि । गंधकुटीगतसृगपतिविष्टररुचिराणि विविधविभवयुतानि ॥ २५ ॥ येषु जिनानां प्रतिमा: पंचशतशरासनोच्छिताः सत्प्रतिमाः । मरिगकनकरजतविकृता दिनकरकोटिप्रभाधिकप्रभदेहाः ॥ २६ ॥ तानि सदा वंवेऽहं भानुप्रतिमानि यानि कानि च तानि । यशसां महसां प्रतिदिशमतिशयशोभाविभांजि पापविजि ॥ २७ ॥ सप्तत्यधिकशतप्रियधर्मक्षेत्रगत तीर्थकरवर वृषभान् । भूतभविष्यत्संप्रतिकालभवाम्भवविहानये विनतोऽस्मि ॥ २८ ॥ श्रस्यामवसर्पिण्यां वृषभजिनः प्रथमतीर्थंकर्ताभर्ता । श्रष्टापदगिरिमस्तकगतस्थितो मुक्तिमाप पापोन्मुक्तः ॥ २६ ॥ श्रीवासुपूज्य भगवान् शिवासु पूजासु पूजितस्त्रिदशानां । चम्पायां दुरितहरः परमपदं प्रापवापदामन्तगतः ॥ ३० ॥ मुदितमतिबलमुरारिप्रपूजितो जितकषायरिपुरच जातः । बृहदुजयन्तशिखरे शिखामणिस्त्रिभुवनस्य नेमिर्भगवान् ।। ३१ । पावापुरवरसरसां मध्यगतः सिद्धिबुद्धितपसा महसां । वीरो नोरदनादो भूरिगुणश्चारुशोभ मास्पदमगमत् ॥ ३२ ॥ सम्मदकरिवन परिवृतसम्मेदगिरीन्द्रमस्तके विस्तीर्णे । शेषा ये तीर्थकरा कीतिभूतः प्रथितार्थसिद्धिमवापन् ॥ ३३ ॥ शेषाणां केवलिनां प्रशेषमतवेगिरणभूत साधूनां । गिरितलविवरदरीसरिदुरु वनतरुविटपिजलधिवहनशिखा ॥ ३४ ॥ मोक्षमतिहेतुभूतस्थानानि सुरेन्द्रइन्द्रभक्तितानि । मंगलभूतान्येतात्यंगीकृतधर्मकर्म णामस्माकम् ॥ ३५ ॥ जिनपतयस्तत्प्रतिमास्तदालयास्तन्निषद्यकास्थानानि । ते ताश्च ते च तानि च भवन्तु भवघातहेतवो भव्यानाम् ॥ ३६ ॥ संधासु तिसृषु ' " Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) निला, पटेयदि स्तोत्रमेतदुत्तमयशसाम् । सर्वज्ञान सार्व, लघु लभते श्रुतघरेडितं पदमनितम् ॥ ३७ ॥ दित्यं निःस्वेदत्वं निर्मलता क्षीरगौ रत्वं च । स्वाद्याकृतिसंहनने सौरूप्यं सौरभं च सौलक्ष्यम् ॥ ३८ ॥ अप्रमितवीर्यता च प्रियहितवायित्वमन्यवमितगुणस्य, प्रथिता दशविख्याताः स्वातिशयधर्माः स्वयंभुवो वेहस्य ॥ ३९ ॥ गन्यूतिशतचतुष्टयस भिक्षतागगनगमनमप्राणिवधः । भुक्त्युपसर्गाभावश्चतुरास्यत्वं च सर्वविश्वरता॥४०॥ अच्छायत्वमपक्षमस्पंवश्च समप्रसिद्धनखकेशत्वं । स्वातिशयगुणा भगवतो घातिक्षयजा भवन्ति तेपि वर्शव ॥४१॥ सार्धाधमागधीया भाषा मंत्री च सर्वजनताविषया। सर्वतु फलस्तयकप्रथालकुस मोपशोभिततरुपरिणामा ॥ ४२ ॥ अपहिलतमा रमामधीमामले नही र मनोज्ञा । विहरणमन्वेत्यनिल: परमानंदश्च भवति सर्वजनस्य ।। ४३ ॥ मरुतोऽपि सुरभीगंधध्यामिश्रा योजनांतर-भूभागं । व्युपशमितधूलिकंटकतृणकीटकशर्करोपलं प्रकुर्वन्ति ॥ ४४ ॥ तदनु स्तनितकुमारा विद्युन्मालाविलासहासविभूषाः । प्रकिरन्ति सुरभिगंधि गंधोदकवृष्टिमाज्ञया त्रिदशपते: ॥ ४५ ॥ वरपद्मरागकेसरमतुलसुखस्पर्शहेममदसनिचयम् । पादन्यासे पद्म सप्त पुरः पृष्ठतश्च सप्तभवति ॥ ४६ ॥ फलभारनम्रशालिबीह्याविसमस्तसस्यधृतरोमांचा । परिहृषितेव च भूमिस्त्रिभुवननाथस्य वैभवं पश्यंती ॥ ४७ । शरदुदयविमलसलिल सर इथ गगनं विराजते विगतमलम् । जहति च दिशस्तिमिरिकां विगतरजः प्रभृतिजिह्मभावं सद्यः॥४८॥ एतेतेति त्वरितं ज्योतिष्यंतरदिवौकसाममृतभुजः । कृलिशभूदाज्ञापनया कुर्वन्त्यन्ये समन्ततो घ्याम्हानम् ॥ ४६ ॥ स्फुरबरसहस्त्रत्ररुचिरं विमलमहारत्नकिरण निकर परोतम् । प्रहसितकिरणसहस्त्रध तिमडलमग्रगामि धर्मसुचक्रम् ॥ ५० ॥ इत्यष्टमगलं च स्थावर्शप्रति भक्तिरारपरीतैः । उपकल्प्यन्ते त्रिदशैरेतेऽपि निरुपमातिशेषाः ॥ ५१ ॥ बैडूर्य चिरविट पप्रबालवृदुपल्लवोपशोभितशाखः । श्रीमानशोकवृक्षो वरमरकतपत्रगहनवहतच्छायः ॥ ५२ ॥ मंदारकुदकुवलयनोलोत्पलकमलमालतीबकुलाचः । समदभ्रमरपरीतैश्यामिश्रा Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) पतति कुसुमवृष्टिर्नभसा ॥ ५३ ॥ कटकटिसूत्रकुंडलकेयूरप्रभूतिभूपितांगी स्वगौ । यो कमलबलाक्षौ परिनिक्षिपतः सलीलचामरयुगलम् ॥ ५४ ॥ श्राकस्मिकमिव युगपद्दियसकर सहस्म पगतव्यवधानम् भामंडलम विभावित रात्रिदिवभेदमतितरामाभाति ॥ ५५ ॥ प्रबलपबनाभिघातप्रक्षुमित समुद्रघोषमन्द्रध्वानम् । दध्वन्वते सुबीरणावंशादिसुवाद्यदुन्दुभिस्तालसमम् ॥ ५६ ॥ त्रिभुवनपतितांनत्रय तुल्यमतुलमुक्ताजालम् । छत्रत्रयं च स बृहद्वं पविवलुप्तवंडमधिककमनोज्ञम् ॥ ५७ ॥ ध्वनिरपि योजनमेकं प्रजायते श्रोत्रहृदयहारिगभीरः । ससलिलजलधर पटलध्वनितमिव प्रवितान्तराशायलयस् ॥ ५८ ॥ स्फुरितांशु रत्नदीधितिपरिविच्छुरितामरेंद्रचापच्छायम् । त्रियते मृगेंद्रवर्यैः स्फटिक शिलाघटितसिंह विष्टरमतुलम् ॥ ५६ ॥ यस्येह चतुस्त्रिशत्प्रवरगुरणा प्रातिहार्यलक्ष्म्यश्चाष्टौ । तस्मै नमो भगवते त्रिभुवनपरमेश्वराते गुणमहते ॥ ६० ॥ इच्छामि भंते, गंदीसरभत्ति काउस्सग्गो कश्रोतस्सा लोचे • बीसरदीवम्मि, चउदिसि विदिसासु अंजरगवधिमुहर विकर पुरुरणगवरेसु जारिण जिरणचेइयापि तापि सव्वाणि तीसुयि लोएस, भवररावासियवारवितर जो इसिगकप्पवासियति चउविहा देवा सपरिवारा दिव्येहि गंधेहि, दिव्येहि पुष्फेहि विश्वेहि, धुव्वेहि दिवेहि चुण्ोहि, विश्वहि वासेहि, दिवेहि पहाणेहि श्रासा ढकत्तिफागुरण मालारां अट्ठमिमाई काऊरण जाव पुष्णिमंति चिकाचंति पूजति, बंदति, रामसति दोसरमहाकल्लागं करति श्रहमवि इह संतो तत्थ संताई रिगच्चकालं प्रचेमि, पूजेमि वंदामि, रामस्वामि, दुक्खक्यो, कम्मक्खश्रो, बोहिलाहो, सुगइगमरणं समाहिमरणं जिरगगुणस पत्ति होऊ सभं ॥ इति नंदीश्वरभक्ति: अथ चैत्मभक्तिः श्रीगौतमा विपदमद्भुत पुण्यबंधमुद्योतिताखिलममोधमधप्रणाशम् । वक्ष्ये जिनेश्वरमहं प्रणिपत्य तथ्यं निर्धारणकारणमशेष जगद्धितार्थम् Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८० ) जिनेंद्रवचोऽमृतम् ॥ १ ॥ जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृम्भितावमरमुकुटच्छायोप्रभारिम्बितो कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ताः परस्परवैरिणः विरतकलुषः पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसुः ॥ २ ॥ तदनु जघति यान धर्मः प्रवृद्ध महोदयः, कुगतिविपथवलेशादसौ विपाशयति प्रजाः । परित्यजयस्याद्विदिवनिकल्पितम् भएतु भवतस्त्रातृ त्रेधा " ३ n तदनु जयताज्जैनी वित्तिः प्रभंगतरं गिरी, प्रभव वेगमधौ व्यद्रव्यस्वभाव विभाविनी । निरुपमसुखस्येदं द्वारं विघट्य निरर्गलम्, विगतरजसं मोक्षं वेयान्निरत्ययमव्ययम् ॥ ३ ॥ अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायेभ्यस्तथा च साधुभ्यः । सर्वजगत म्योनमोस्तु सर्वत्र सर्वेभ्यः || ४ || मोहादिसर्वदोषारिघातकेभ्यः सदा हतरजोभ्यः ॥ विरहित रहस्कृतेभ्यः पूजार्हेभ्यो नमोहंदुयः || ५ || क्षान्त्यार्जवादिगुणगास साधनं सकललोक हितहेतु' । शुभधामानि धातारं वंदे धर्म जिनेन्द्रोक्तम् ॥ ६ ॥ मिथ्याज्ञानतमोहतलोकंकज्योतिर मितगमयोगि । सांगोपांगमजेयं जैनं वचनं सदा बंदे ॥ ७ ॥ भवनविमानज्योतिर्व्यतरनरलोकविम्बचैत्यानि । त्रिजगदभिनंवितानां श्रेथा बंवे जिनेन्द्राणाम् ॥ ८ ॥ भुवनत्रयेऽपि भुवनत्रयाधिपाभ्यर्च्छतीर्थकर्तृणां | वंदे भवाग्निशांत्यं विभवानामालयालीस्ताः ॥ ६ ॥ इति पंचमहापुरुषाः प्रणुता जिनधर्मधचन चैत्यानि । चत्यायाच विमलां दिशन्तु बोधि बुधजनेष्टाम् ॥ १० ॥ श्रकृतानि कृतानि चाप्रमेय तिमन्ति मित्सु मंदिरेषु । मनुजामरपूजितानि बंदे प्रतिविवानि जगत्त्रये जिनानाम् ॥ ११ ॥ द्य ुतिमण्डतभासुराङ्गयष्टीः प्रतिमा श्रप्रतिमा जिनोत्तमानाम् । भुवनेषु विभूतये प्रवृत्ता वपुषा प्राञ्जलिरस्मि बंदमानः ॥ १२ ॥ विगतायुधविक्रियाविभूषाः प्रकृस्थि: कृतिनां जिनेश्वरणां प्रतिमाः प्रतिमागृहेषु कान्त्या प्रतिमाः कल्मषशान्तयेऽभि बंदे ॥ १३ ॥ कथयन्ति कषायमुक्तिलक्ष्मी परया शांततया भवान्तकानाम् प्रणम्य भीरु मूर्तिमंत प्रतिरूपाणि विशुद्धये जिनानाम् ||१४|| यदिदं मम सिद्धभकिनीतं सुकृतं दुष्कृतवर्त्यरोधि तेन । पटुना जिनधर्म एव भक्तिर्भवताज्जन्मनि जपनि 1 स्थिरा मे ।। १५ ।। अर्हतां सर्वभावानां दर्शनज्ञानसंपदाम् । कीर्तयिष्याभि afterबुद्धि विशुद्धये ॥ १६ ॥ श्रीमद्भवनवासस्था स्वयंभासुरसूय + Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८१) बंदिता नो विधेयासुः प्रतिमाः परमां गतिम् ॥ १७ ॥ यावंति संति लोकेऽस्मिन्तकृतानि कृतानि च । तानि सर्वाणि चैत्यानि बंदे भूयांसि भूतये ॥ १ ॥ व्यंतरविमानेषु स्थेयांसः प्रतिमागृहाः । ते च संख्यामति-क्रान्ताः संतु नो दोषविच्छिदे ।। १६ ॥ ज्योतिषामथ लोकस्य भूतयेऽद्भू तसंपद: 1 गृहाः स्वयंभुवः संति विमानेषु नमानि तान् ।। २० 11 बंदे सुरकिरीटाग्रमरिणच्छायाभिषेचनम् । या: क्रमेणैव सेवन्ते तदर्चा: सिद्धिलब्धये ।। २१ ।। इति स्तुतिपथातीतश्रीभूतामहेतां मम । चैत्यानामस्तु संकीतिः सर्वानवनिरोधिनी ॥ २२॥ अहंन्महानदस्थ त्रिभुवनमव्यजनसीर्थयात्रिकदुरित प्रक्षालनककारणमतिलौकिक कुक तीर्थ मुत्तमतीर्थम् ॥ २३॥ लोकालोकसुतत्त्वप्रत्ययबोधनसमथदिव्यज्ञान-प्रत्यहवहत्प्रवाई वशीलामलविशालफूललितयम् ॥ २४ ॥ शुषलध्यानस्तिमितस्थितराजद्राजहंसराजितमसात् । स्वाध्यायमंद्रघोषं नानागुणसमितिगुप्तिसिकतासुभगम् ॥ २५ ॥ क्षान्त्यावर्तसहस्र सर्वदयाधिकचकुसुमविगलतिकम् । टुसझपरीषदायद ततरङ्गत्तरंगभंगुरनिकरम् ॥ २६ ॥ व्यपगतकषायफेनं रागद्वषादिदोषशैवलरहितं । अत्यस्तमोहकर्दममतिदूरनिरस्तमरणमकरप्रकरम् ॥ २७ ।। ऋषिवृषभस्तुतिमंद्रोद्रे कितनिर्घोष विविविहगध्वानम् । विविधतपोनिधिपुलिनं सास्रवसंवरणनिर्जरानिःस्त्रावरणम् ॥ २८ ॥ गणधरचक्ररेन्द्रप्रभृतिमहाभव्यपुंडरीकैः पुरुषः । बहुभिः स्नातु भक्त्या कलिकलुषमलापकधरणार्थमभेयम् ॥ २६ ॥ अवतीर्णवतः स्नातु ममापि दुस्तरसमस्तदुरितं दूरम् । व्यपहरतु परमपावनमनन्यजय्यस्वभावगंभीरम् ।। ३० ॥ अताम्रनयनोत्पलं सकलकोपवन्हेजयात् । कटाक्षशरमोक्षहीनमविकारतोद्र कतः । बिषादमदहानित: प्रहसितायमानं सदा । मुखं कश्यतीव ते हृदयशुद्धिमात्यन्तिकीम् ।। ३५ || निराभरणभासुरं विगतरागवेगोदयात्, निरंबरमनोहरं प्रकृतिरूपनिर्दोषतः 11 निरायुधसुनिर्भयं विगतहिंस्याहिंसाक्रमात् । निरामिषसुप्तिमद्विविधवेदनानां क्षयात् ।। ३२॥ मितस्थितनखांगजं गतरजोमलस्पर्शनम् । नांबुन्हचंदनप्रतिमदिव्यगंधोदयम् ।। रवीन्दुकुलिशादिदिव्यबहुलक्षणालंकृतम् । दिवाकरसहस्रभासुरमीक्षणानां प्रियम् ।। ३३ ॥ हितार्थपरिपंथिभिः प्रयलरागमोहादिभिः, कलंकितमना जनो यदभिधीक्ष्य शोशुध्यते । सदाभिमुखमेव यज्जगसि पश्यतां सर्वतः, शरद्विमलचन्द्रमण्डलमिवोत्थितं दृश्यते ॥ ३४ ॥ तदेलदमरेश्वरप्रचलमौलिमालामणिस्फुरत्किरण चुबनीयचरणारबिन्दद्वयम् ॥ पुनातु भगवज्जिनेन्द्र तब रूपमन्धीकृतम्, जगत्सकलमन्यतीर्थगुरुरूपदोषोदयः ।। ३५ ॥ मानस्तम्भाः सरांसि प्रविमलजलसत्खातिका पुष्पवाटी । प्राकारो नाट्यशाला द्वितयमुपवनं वेदिकांतजाधाः ।। शाल: कल्पद्रमाणां सुपरिवृतवनं स्तूपहावली च । प्राकारः स्फा Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२) टिकोन्तनुं सुरमुनिसभा पीठिकाने स्वयंभुः ।। ३६ ।। वर्षेषु वर्षान्तरपर्वतेषु नंदीश्वरे यानि च मंदरेषु । यान्ति चैत्यायतनानि लोके सर्वारिंग बंदे जिनपुगवानाम् .. ३७॥ अवनितलगतानां कृषिमाञ्कृनिमारणा, वनभवनगतानां दिव्यवैमानिकानां । इह मनुजकृतानां देवराजार्चितानां, जिनवरनिलयानां भावतोऽहं स्मरामि ॥ ३८ ॥ जम्बूधातकिपुष्करा वसुधाक्षेत्रत्रये ये भवाश्चंद्रांभोजशिखंडिकंठकनकप्रावृधनाभा जिना: सम्यग्ज्ञानचरित्रलक्षणधरा दग्धाष्टकर्मेन्धनाः । भूतानागतवर्तमानसमये तेभ्यो जिनेभ्यो नमः ॥ ३६ ।। श्रीमन्मेरी कुलाद्रौ रजतगिरिवरे शाल्मली जंबुवृक्ष, वक्षारे चैत्यवृक्षे रतिकररुचके कुखले मानुषांके । इष्वाकाऽजनाद्रो दधिमुखशिखरे व्यंतरे स्वर्गलोके, ज्योतिर्लोकेऽभिबंदे भुवनमहिसले यानि चैत्यालयानि ।। ४० ॥ देवासुरेंद्रनरमागसमचितेभ्यः पापप्रणाशकरभन्यमनोहरेभ्यः । घंटाध्वजादिपरिवार विभूषितेभ्यो नित्यं नमो जगति सर्वजिनालयेभ्यः ।। ४१ । इच्छामि भंते चेइयभत्ति काउस्सग्गो को तस्सालोचेउं, अहलोयतिरियलोयउठूलोयम्मि किद्विमाकिट्टिमाणि जाणि जिगचे इयाणि तारिण सव्वाणि तिसु वि लोएस भवग वासियवाणवितरजोइसियक्रप्पवासियत्ति चविहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण चुण्ोण, दिब्वेण वासेण, दिवेण एहारोण, पिच्चकालं अंचंति, पुजंति, बंदंति, एमसंति । अहमवि इह संतो तत्य संताइ णिच्चकाले अंचेमि, पूजेमि, बंदामि; णमंसामि दुक्खक्खनो, कम्मक्खनो बोहिलाहो, सुगइगमणं समाहिमरणं, जिरगगुरपसम्पत्ति होउ मज्झ । इति श्यभक्तिः अथ चतुर्दिग्वन्दना प्राग्दिग्विदिगन्तरे केबलिजिनसिद्धसाधुगरणदेवाः । ये सर्वद्धिसमृद्धा योगिगणास्तानहं बन्दे ॥ १॥ दक्षिणदिग्विदिगन्तरे केवलिजिनसिद्धसाधुगणदेवाः ये सर्वद्धिसमृद्धा योगिगरणास्तानह बन्दे ॥ २ ।। पश्चिमदिग्विदिगन्तरे केवलिजिनसिद्धसाधुगणदेवाः । ये सर्वद्धिसमृद्धा योगिगरणास्तानहं बन्दै ॥ ३ ॥ उत्तरदिग्विदिगन्तरे केवलिजिनसाधुगणा देवाः। ये सद्धिसमृद्धा योगिगणास्तानहं बन्दे ॥ ४ ॥ इति चतुर्दिग्वन्दना Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८३) . परमानन्द स्वरूप मुक्ति की प्राप्ति सच्चिदानन्द स्वरूप प्रात्मध्यान के बिना नहीं होती, इस कारण ध्यान का विवरण देते हैं: ध्यानं चतुर्विधम् ॥५३॥ अर्थ- मन का एक ही विषय पर रुके रहना ध्यान है। उत्तम संहनन धारक बलवान पुरुष को उत्तम ध्याता कहते हैं । वह एक ही विषय का ध्यान अधिक से अधिक अन्तमुहर्त तक कर सकता है तदनन्तर मन अन्य विषय के चिन्तन पर चला जाता है। आत्मा, अजीव प्रादि पदार्थ ध्येय [ध्यान के विषय] हैं । स्वर्ग मोक्ष आदि की प्राप्ति होना ध्यान का फल है। ध्यान चार प्रकार का है [१] आर्त, [२] रौद्र, [३] धर्म, [४] शुक्ल। आत रौद्र तथा धर्म, शुक्लञ्चेतिचतुर्विधम् । तत्राद्य संसृतेःहेतू, द्वयंमोक्षस्य तत्परम् ॥१॥ अर्थ--ध्यान चार प्रकार का है-पात, रौद्र, धर्म और शुक्ल । इनमें से पात रौद्र ध्यान संसार भ्रमण के कारण हैं, धर्म ध्यान औरशुक्ल ध्यान मोक्ष के कारण हैं। प्रार्तञ्च ॥५४॥ ___ अर्थ-प्रार्तध्यान भी चार प्रकार का है-(१) इष्टवियोगज, (२) अनिष्ट संयोगज, (३) निदान (४) वेदना । . अमनोज्ञ असंप्रयोग, अनुत्यत्ति संकल्पाध्यवसान --यानी अनिष्ट पदार्थ का संयोग न हो, अनिष्ट पदार्थ मेरे लिए उत्पन्न न हो, इस प्रकार संकल्प तथा चिन्तवन करना । उत्पन्न विनाश संकल्पाध्यवसान-यानी-उत्पन्न हुए अनिष्ट पदार्थ के नाश होने का संकल्प वारना तथा चिन्तवन करना । मनोश-भविप्रयोग अनुत्पत्ति-संकलपाध्यवसान-यानी-अपने इष्ट पदार्थ का वियोग न होने पावे, ऐसा संकल्प तथा चिन्तन करना । उत्पन्न-अविनाश संकल्पाध्यवसान-यानी-इष्ट पदार्थ के मिलजाने (उत्पन्न होने पर उसके विनाश न होने का संकल्प का चिन्तन करना । दुखदायक पशुओं तथा शत्र मनुष्य एवं ५६८६६५८४ प्रकार के शारीरिक रोगों में से मुझे कोई भी रोग न हो इस प्रकार का चिन्तवन करना अमनोज प्रसंप्रयोग अनुत्पति-संकल्पाध्यवसान है। अपने आपको अप्रिय-शत्र, स्त्री, पुत्र, आदि के सम्बन्ध हो जाने पर Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) ऐसा विचार करना कि ये मर जावें, या इनका सम्बन्ध मुझसे छूट जावे ऐसा चिन्तन करना उत्पन्न-विनाशसंकल्पाध्यवसान है । प्रिय पदार्थ-धन धान्य, सुवर्ण, भवन, शयन ग्रासन, स्त्री आदि, हमें हीं मिले ।' इस प्रकार दुःखरूप चिन्तवन करना मनोज अप्रयोग-अनुत्पत्ति संकल्पाध्यवसान है। जो प्रिय पदार्थ (धन मकान स्त्री आदि) मुझे मिल गये हैं वे कभी नष्ट न होने पावें, सदा मेरे पास बने रहें, इस प्रकार का चिन्तवन करना उत्पन्न-अविनाश-संकल्पा ध्यवसान पार्त ध्यान है । अन्य प्रकार से प्रार्तध्यानप्रार्तध्यानं चतुर्भदमिष्ट वस्तु वियोगजम् । अनिष्ट वस्तुयोगोत्थं, किंच दृष्ट्वा निदानजम् ॥ किंचपीड़ाधिके जाते चिन्तां कुर्वन्ति येज्जडाः ॥ तस्यात्य जन्तु पापस्य, मूलमार्त सुदूरतः ।। अर्थ-प्राध्यान चार प्रकार का है १-इष्ट प्रिय पदार्थ के वियोग हो जाने पर दुख रूप चिन्तवन इष्ट वियोगज प्रार्तध्यान है। २-अनिष्ट अप्रिय पदार्थ का संयोग हो जाने पर उसके छूटने का चिन्तवन करना अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है । ३-शरीर में अधिक रोग पीडा होने पर दुख चिन्तवन करना वेदना आर्तध्यान है। ४- अागामीकाल में सांसारिक विषयभोगों के प्राप्त होने का - चिन्तवन करना निदान आतध्यान है। इस भवन में जो अपने को स्त्री, पुत्र, धन, भवन आदि इष्ट प्रिय पदार्थ मिले हों उनके वियोग हो जाने पर मन व्याकुल दुखी हो जाता है, भगवान के दर्शन, पूजन, भक्ति, शास्त्र स्वाध्याय, सामायिक प्रादि में चित्त नहीं लगता, मन दुख में डुबा रहता है , इस का कारण यह इष्टवियोगजन्य प्रातध्यान है। कुपुत्र, दुराचारिणो, कटुभाषिणी, प्रसुन्दरी स्त्री, प्राणग्राहक भाई, दुष्ट पड़ोसी, दुष्ट सम्बंधी, शत्रु आदि अप्रिय अनिष्ट पदार्थ के मिल जाने पर चित्त में दुख बना रहता है, मन क्लेश में डूबा रहता है, सदा उनसे छुटकारा पाने की चिन्ता रहती है, धर्म कर्म में चित्त नहीं लगता इस कारण यह अनिष्ट संयोगजन्य पार्तध्यान है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २८५) गेहूं आदि धान्य, सोना चांदी प्रादि पदार्थ संग्रह कर रक्खे हों। उनको मंहगा भाय हो जाने पर बेचने का, नकाल दुर्भिक्ष आदि होने का विचार करना, जिससे अधिक लाभ हो सके, वैद्य विचार करे कि रोग फैल जावें तो मुझे बहुत धन मिले, इत्यादि स्वार्थ साधन के बुरे विचार जब मन में पाते हैं उस समय दान, पूजा, ब्रत, स्वाध्याय सामायिक प्रादि धर्म कार्य में मन नहीं लगता इस कारण यह निवान पार्तध्यान है। असाता वेदनीय कर्म के उदय से शिर, मुख, नाक, कान, गले, छाती, पेट, पेट, अण्डकोश, पर टांग प्रादि अंग उपांगों में ५६८९६५८४ तरह के रोग हो जाते हैं. जो पारीर में ही पीड़ा (वेदना) होती है उस समय मन किसी धर्म कार्य में नहीं लगता, सदा दुखी बना रहता है, इस कारण यह वेदना नामक प्रार्तध्यान है। रौद्रमपिचतुर्विधञ्च ॥५५॥ अर्थ-और रौद्रध्यान भी चार प्रकार का है। प्राणिनां रोवनाद्रौद्रः क र सत्वेषुनिषूणः । पुस्तित्र भयं रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम् ॥ हिंसानन्दान्मृषानन्दात्स्तेयानन्दात्प्रजायते । परिग्रहारणा मानन्दात्त्याज्यं रौद्रञ्च दूरतः ॥३२॥ अर्थ-अन्य जीवों को निर्दयता से रुलानेवाला, रुद्रता-करता रूप जो ध्यान होता है वह रौद्रध्यान है। वह चार तरह का है १-हिंसा में आनन्द मानने से होनेवाला हिसानन्द, २--असत्य बोलने में आनन्द मानने से होनेवाला मषानन्द, २-चोरी करनेमें आनन्द मानने से होने वाला स्तयानन्द ४–परिग्रह संचय करने में आनन्द मानने से होनेवाला परिग्रहानन्द या 'विषय संरक्षणानन्द रौद्रध्यान होता है, ये ही उसके चार भेद हैं। ___र परिणाम से किसी को क्रोधित होकर गाली देना, निग्रह करता, मारना या जान से मार डालकर प्रानन्द मानना हिंसानन्द कहलाता है । अपने ऊपर यदि कोई विश्वास करता हो तो भी उसके साथ विश्वासघात करके भूठ बोलकर आनन्द मानना मषानन्द नामक रौद्रध्यान कहलाता है । बलवान होने से किसी निर्बल निर्दोषो व्यक्ति को मिथ्या दोषी ठहराकर ऊससे दण्ड वसूल करना या दूसरे के द्रव्य को चुराकर प्रानन्द मनाना स्तेयानन्द रौद्रध्यान कहलाता है । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ ) धन, धान्य, दासी, दास इत्यादि ग्रहण किये हुए अपने समस्त परिग्रहों के प्रति प्रगाढ़ प्रेम करते हुए ऐसी भावना करना कि यह सब हमारे हैं, इसे हमने संचय किया है, यदि मैं न रहूं तो ये सब नष्ट हो जायंगे और इनके नष्ट हो जाने से मैं भी नष्ट हो जाऊंगा, ऐसा सोचकर अत्यन्त मोह से संरक्षण करना विषय संरक्षणानंद चौथा रौद्रध्यान है । & इस प्रकार चारों रौद्रध्यानों में मन वचन कायपूर्वक व्रत कारित तथा श्रनुमोदना द्वारा ग्रानन्द मानने के भेद होते हैं । और उनमें से प्रत्येक चारों के मिलाने से ३६ होते हैं ये ध्यान अत्यन्त कृष्ण, नील तथा कापोत लेश्यावाले होकर मिथ्या हृष्ट्यादि पांच गुणस्थान वाले होते हैं । ये नरक गति बन्ध करनेवाले होते हैं। परन्तु वद्धानुष्य के बिना तीव्र संक्लेश परिणामी होने पर भी सम्यग्दृष्टि को नरकायु का बंध नहीं होता । auri दर्शविष अर्थ - - १ - पायविचय, २ उपायविचय, ३- जीव विचय, ४जीव विचय, ५ विपाक वित्रय, ६--विरागविचय, ७ भववित्रय, ८संस्थान विचय, ९ – आशाविषय और १० कारण विचय ये धर्म ध्यान के १० भेद होते हैं। १ - संसार में मन, वचन काय से सम्पादन किए हुए अशुभ कर्मों के नाश होने का चिंतनमनन करना श्रपायविचय है । कहा भी है कि संसार में अनन्त दुःख हैं: तावज्जन्मातिदुःखाय ततो दुर्गतता सदा । तत्रापि सेवया वृत्तिरहो दुःखपरम्परा ॥ प्रथम तो जन्म ही दुःख के निमित्त होता है, फिर दरिद्रता और फिर समें भी सेवावृत्ति । ग्रहो ! कैसी दुःख की परम्परा है । २- प्रशस्त मन वचन काय के बिना अशुभ कर्मों का नाश कदापि नहीं हो सकता, ऐसा विचार करना उपायविचय है । ३- यह जीव ज्ञान-दर्शन उपयोगवाला है द्रव्याविकनय से इसका मन्त नहीं ग्रर्थात् यह चिरस्थायी है, कभी नष्ट नहीं होता। अपने द्वारा सम्पादित शुभाशुभ कर्मों का फल स्वयमेव भोगता है। अपने द्वारा प्राप्त किये हुए स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर को स्वयमेव धारण करता है, संकोच विस्तार तथा ऊर्ध्वगमन करने वाला भी ग्राम ही है, कमों के साथ सदा काल से सम्बन्ध करनेवाला Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८० ) भी आप ही है, कर्मों का क्षय करके मोक्ष जानेवाला भी प्राप ही हैं, प्रशुद्धमन से चौदह पद मारियान तथा चौदह जीव समास बाला भी आप ही है और ग्राप ही मूर्त स्वभाववाला भी है, इत्यादि प्रकार से जीव का चिन्तन करना जीवविचय धर्म ध्यान है । ४ - यचेतन - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन पांचों के स्वरूप को निःशंकित भाव से अजीव जानकर हृढ़ विश्वास रखकर चिन्तवन करन जीवविचय धर्म ध्यान है । योग और कषायों से जो कामरण वर्गरणाएं आत्मा के प्रदेशों के साथ सम्बद्ध हो जाती हैं, उन्हें कर्म कहते हैं । कर्म ज्ञानावरण आदि हैं। उन कर्मों का स्थापना, द्रव्य, भाव, मूल प्रकृति, उत्तर प्रकृति रूप से विचार करना अशुभ कर्मों का रस नीम, कांजीर, विष, हालाहल के समान उत्तरोत्तर अधिक दुखदायी तथा शुभ कर्मो का रस गुड़, खांड, और मिश्री अमृत के समान उत्तरोत्तर अधिक सुखदायी होता है, कर्म प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश रूप से जीव के साथ रहते हैं। कषायों की मन्दता तीव्रता लता (बेल), दारु ( लकड़ी), अस्थि (हड्डी) और शैल पत्थर के समान होती है, जिस-जिस योनि में यह जीव जाता है उस उस योनि के उदय योग्य कर्म उदय में आकर अपना फल देते हैं, इस प्रकार कर्मों के विपाक ( फल देने ) का विचार करना fare विचय है | ६ – यह शरीर अनित्य है, अशरण ( अरक्षित ) है, वातपित्त कफ दोषमय है, रस, रक्त, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा तथा वीर्य इन सात धातुओं से भरा हुआ है, सूत्र, पुरीश ( टट्टी ) आदि दुर्गन्धित पदार्थों का घर है, इसके & छेदों से सदा मैल निकलता रहता है, इस शरीर का पोषण करने से श्रात्मा का अहित होता है, जिन विषय भोगों को यह शरीर भोगता है वे अंत में नीरस हो जाते हैं, विष, शत्रु, ग्रग्नि, चोर श्रादि से भी बढ़कर शरीर के विषय भोग आत्मा को दुख देते हैं। इस तरह शरीर राग करने योग्य नहीं है, इससे विरक्त होकर इस शरीर से तप ध्यान संयम करना उचित है । इस प्रकार चित्तवन करना विरागविचय है । J ७ – सचित्त, चित्त सचित्ताचित मिश्र योनि, शीत, उष्ण, शींत उष्ण मिश्र योनि, संवृत, विवृत, संवृत विवृत मिश्र योनि में ( उत्पन्न होने के स्थान में ) गर्भज जीव ( मनुष्य, तिर्यच ) जरा नाल [र] के साथ या जरा माल के बिना [ पोत ] तथा अण्डे द्वारा उत्पन्न होते हैं, देव उपपाद शय्या पर उत्पश्न Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५) होते हैं, नारको मधु मक्खियों के छत्ते में छेदों के समान नरकों में उत्पन्न होते हैं, शरीर बनने योग्य पुद्गल वर्गणाओं का अनियत स्थान पर बन जानेवाले शरीर में जन्म लेनेवाले सम्मूर्छन जीव हैं। एक शरीर छोड़कर अन्य शरीर लेने के लिए एक समयवाली विग्रहगति छूटे हुए वारण के समान इषुगति होती है, एक मोड़े वाली दो समयक पारिणमुक्त गति, दो मोड़ तथा तीन समय वालो हल गति और तीन मोड़ वाली चार समय की विग्रह गति गोमूत्रिका गति होती है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के बिना यह जीव अनन्त संसार से भव धारण किया करता है, ऐसा चिन्तवन करना भव वित्तय धर्म ध्यान है । ८- प्रनित्य, शरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व अशुचि, प्रत्रय, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ और धर्म, इन बारह भावनाओं का चिन्तवन करना संस्थानविचय है । श्रध्युवमसरगमेकत्तमण्प संसार लोकमसुचित्तं । श्रसवसंवरखिज्जर धम्मंबोहिच्च चितेज्जो ॥ ७॥ इस गाथा का अर्थ ऊपर लिखे अनुसार हैं । ह-जीव आदि पदार्थ प्रतिसूक्ष्म हैं उन्हें क्षायोपशमिक ज्ञान द्वारा स्पष्ट नहीं जाना जा सकता । उन सूक्ष्म पदार्थों को केवली भगवान ही यथार्थ जानते हैं । अतः केवली भगवान की आज्ञा ही प्रभाग रूप है, ऐसा विचार करना प्रज्ञावि है । कहा भी है सूक्ष्म जिनोदितं तत्वं हेतुभिर्नैव हन्यते । श्राज्ञासिद्ध तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनों जिनाः ॥ अर्थ - जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया जीव जीव आदि तात्विक बहुत सूक्ष्म है। उस कथन को हेतुत्रों [ दलीलों ] से खण्डित नहीं किया जा सकता । उस जिनवाणी को भगवान की आज्ञा रूप समझकर मान्य करना चाहिए क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग स्वरूप जिनेन्द्र भगवान अन्यथा [ गलत ] नहीं कहते हैं । १० - सूक्ष्म परमागम में यदि कहीं भेद प्रतीत हो तो उसे प्रमारण, नय निक्षेप, सुयुक्ति से दूर करना, स्वसमय भूषण [ मण्डन ], पर समय दूषण [ खण्डन] रूप से चिन्तवन करना कारणविचय धर्म ध्यान है । ये दश प्रकार के धर्म ध्यान पीत, पद्म तथा शुक्ल लेश्या वाले के होते हैं, Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६) असंयत सम्यग्दृष्टि, देश संयत, प्रमत्त तथा अप्रमत्तइन चार गुण स्थानों में होते अर्थ-जिनेन्द्र भगवान ने १-पाजाविचय [जिनेन्द्र भगवान को प्राशा या उनकी बारणी प्रामारिणक है, ऐसा चिन्तवन ], २-कल्मष अपायविषय [पाप कर्म तथा सभी कर्म किस प्रकार नष्ट हो ऐसा चिन्तवन करना] ३विपाकविचय ( कर्मों के उदय फल आदि का चिन्तवन करना) और ४संस्थानविचय' ( लोकाकाश का स्वरूप चिन्तवन करना ) धर्मध्यान के ये ४ भेद भी बतलाये हैं। धर्मध्यान दो प्रकार का भी है १- बाह्य, २-अंतरङ्ग। ब्रत, तप, संयम, समिति प्रादि धारण करना, सामायिक, स्वाध्याय प्रादि करना बाधधर्मध्यान है क्योंकि इस प्रकार के आचरण रूप धर्म ध्यान को बाहर से अन्य व्यक्ति भी जान सकते हैं। स्वयं अन्तरङ्ग में शुद्धि लाकर धर्म आचरण करना अन्तरङ्ग धर्मध्यान है । अन्तरङ्ग शुद्धि के लिए माया, मिथ्यात्व और निदान ये तीन शल्य नहीं होनी चाहिए। परस्त्री बांछारूप रागविकार तथा पर-वध, बन्धादि रूप द्वेष विकार जब हृदय में उत्पन्न हो जावें तब उन विकार भावों को दूर न करते हुए बाहरी आचरण को बनाये रखना, मन में यों विचार कर 'कि मेरा मन विकार किसी अन्य व्यक्ति को मालूम नहीं' उस विकार को मन में बनाये रखना माया शल्य है। शुद्ध प्रात्म-स्वरूप को न जानकर आत्मस्वरूप में रुचि न करना तथा मिथ्यात्व भंवर में पड़कर सांसारिक सुख में रुचि करना मिथ्याशल्य है। निज शुद्ध प्रात्मा से उत्पन्न हुए परम आनन्द अमृत का पान न करते हुए, दृष्ट (देखे) श्रत (सुने) और अनुभूत (भोगे हुए) सांसारिक सुख का स्मरण करना, भविष्य में उसके मिलने की अभिलाषा करना निदानशल्प इस प्रकार तीन शल्य रहित निर्विकार प्रात्म' स्वरूप अमृत का अनुभव करना अात्मस्वरूप में रत रहना अन्तरङ्ग निश्चय धर्म ध्यान है। . प्रकारान्तर से धर्मध्यान का स्वरूपपिण्डस्थंच पदस्थंच रूपस्थं रूपजितम्। चतुर्धाध्यानमाम्नातं भव्यराजीव भास्करैः ॥३५॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१.) अर्थ-भव्यात्मा रूप कमलों को विकसित करनेवाले सूर्य के समान जिनेन्द्र भगवान ने ध्यान के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये चार भेद भो बतलाये हैं। पवस्थं मन्त्रवाक्यस्थं, पिण्डस्थं, स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं, रूपातीतं निरनम् ॥३६॥ शुद्धस्फटिकसंकाशं, स्फुरन्तं ज्ञानतेजसम् । पविशभियुक्तं ध्यायेदर्हन्त मक्षयम् ॥३७॥ अर्थ-मन्त्र वाक्य में चित्तस्थिर करके ध्यान करना पदस्थध्यान है, .अपने प्रात्मा का चित्तन करना पिण्डस्थध्यान है, अहंत भगवान रूप चिद्रूप रूपस्थध्यान है गौर शरीर रहित सिद्ध स्वरूप का चिन्तन रूपातीत ध्यान है । शुद्ध ( निर्मल ) स्फटिक मरिण के समान निर्मल परमौदारिक शरीरधारी स्फुरायमान (पूर्णविकसित) ज्ञान तेज वाले, १२ गणों (समवशरण के १२ प्रकार के श्रोताओं ) से सहित अविनाशी अर्हत भगवान का ध्यान करना चाहिए। तारेगेयं क्षीराब्धिय । वारियोळिरदोरासि कचिदंते योळे सेवा ॥ कारद पंचपरंगळ । नारदात्ति शुद्धमनदोळिरिसे पदस्थं ॥२०१॥ __ अर्थ-निर्मल क्षीर सागर में जिस तरह चन्द्रमा का निर्मल प्रतिविम्ब होता है उसी प्रकार अपने निर्मल मनमें पंच परमेष्ठी के मन्त्र को शुख धारण करना पदस्थ घ्यान है। पळ किन कोडदोळ सहजं । बेळगुवशशिकान्तदेसेव विषाकृतितं-।। मोलगोळगे तोळगि बेळगुन । बेळगं निजमागि कंडोडदु पिंडस्थं ॥ ॥२०२॥ अर्थ-जिस तरह निर्मल स्फटिक मरिण के पात्र में निर्मल चन्द्र की कान्ति दिखाई देती है उसी प्रकार अपने निर्मल हृदय में शुद्ध प्रात्म-स्वरूप का प्रतिभासित होना पिण्ड स्थध्यान है । द्वावशगणपरिवृतनं । द्वादशकोट्यिकतेज विभाजितनं । प्राददि मनवोळ निळिसु-। बंदमेरूपस्थमप्प परमध्याने ॥ अर्थ-बारह कोठों में बैठे हुए श्रोताओंवाले समवशरण में विराजमान, १२ करोड़ सूर्य चन्द्रों की प्रभा से भी अधिक प्रभाधारक प्रहंत भगवान का अपने हृदय में चिन्तन करना रूपस्थध्यान है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१ ) सहज सुख सहजबोधं । सहजात्मकवेनिप का एंबोनवि || सहजमेने नेलसिनिंवी । वहळतेविवदविनाश रूपातीतं ॥२०४॥ प्रर्थ- सहज ( स्वाभाविक) सुख, सहजज्ञान सहज आत्मदर्शन स्वभाव से ही मेरे पास है, इस प्रकार श्रात्मरत होकर पाप नाशक श्रात्मस्वरूप का चिन्तवन करना रूपातीतध्यान है । श्रीकरमभिष्ट सकल । सुखाकर मपवर्गकारणं भवहरणं ॥ लोकहितं मन्मनदो। काग्रतेनिल्के निरूपमं पंचपदं ॥२०५॥ | अर्थ- सम्पत्तिशाली, समस्त इष्ट पदार्थ प्रदान करनेवाला मोक्ष का कारण, चतुर्गति भ्रमण संसार दुख को नाश करनेवाला, तथा लोक का हितकारी पंच परमेष्ठी का मन्त्र सदा मेरे हृदय में रहे । पंचपदं भवभवदोछ । संचितपापमने केडिसलाक्कुमोक्षं ॥ पंचम गतिगिरवोय्गु | पंचपदाक्षरदमहिमे साधारण | २०६ | अर्थ-पंच परमेष्ठी का पद अनन्तानन्तकाल से संचित पापों को नष्ट करता है तथा पंचमगति मोक्ष को शीघ्र बुलाकर देनेवाला है । इस पंचपरमेष्ठी की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ? मारिरिपुन्हि जलनृप । चोर रुजाघोर दुःखमं पिंगिसुवो || सारायद पंचपद -1 नोरिदमक्केमोमुक्ति यप्पनेवरं ॥ २०७ ॥ अर्थ - भयानक रोग, चोर, शत्रु, अग्नि, जल, राजरोग श्रादि भयंकर दुखों का नाश करनेवाला सार भूत पंच नमस्कार मन्त्र कल्प वृक्ष के समान मेरे हृदय में विराजमान रहे । भोंकने फळं गु भवदुःख पंकमनुग्राहि शाकिनीग्रह भूता ॥ तंकमनसुरपिशाचा | शंकेनखिक मंगळं पंचपक्षं ॥ २०८ ॥ अर्थ - यह पंचरणमोकार मन्त्र सागर रूपी कीचड़ की, नाश कर देता है, शाकिनी डाकिनी भूत पिशाच आदि को भगा देता है । समस्त मङ्गलों में उत्तम है । प्रापोत सद्भक्तियो । ळीपंचपदाक्षरंगळ अपितियसुवं ॥ गापोतं भवतापं । पापमुनेरे केटटुमतियक्कु ममोघं ॥ २०६॥ अर्थ — इसएमोकार मन्त्र को शुद्ध हृदय से जपनेवाले भक्त भब्य Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) पुरुषों की समस्त प्रापत्ति, संसार का सन्ताप, तथा समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और अन्त में मोक्ष पद प्राप्त हो जाता है। मंगळ कारण पंचप-। दंगळनपवर्गविरचित सोपा। नंगळनक्षय मन्त्रप-। दंगळ नोदुदुनेरेय्यनिश्चळमतिथि ॥२१०॥ अर्थ-समस्त सुख के कारण, मोक्ष की सीढी के समान पंच नमस्कार मन्त्र को सदा निश्चल मन से जपना चाहिए। बलवद्भूत पिशाच राक्षस विषं व्यायाधेय पिंगुकु। वळियिषफु रिपुराम चोर भयमंदुःखाग्रशोक गळ ॥ गळियिक्कु घळियिककुमेल्लदेशेयिबोळ पंजगन्मुख्यमं। गळमीपंचगुरुस्तवं शुकृति प्रत्यूहविध्वंसनं ॥२१॥ अर्थ--पंच परमेष्ठी के स्मरण से बलवान भूत पिशाच, राक्षस, विष, सपं की बाधा नष्ट होती है और शत्रुभय, राजभय, चोरभय तथा अनेक प्रकार के अन्य दुखों का नाश होता है तथा समस्त कर्मों का ध्वंस करनेवाला है एवं समस्त संसार में उत्कृष्ट मङ्गलकारक है । त्रैलोक्य क्षोभोमंत्र त्रिजगदधिपकृत्पंचकल्याणळक्ष्मी । साम्राज्याकर्षणमंत्र निरुपमं परम श्रीवघ्यश्यमंत्र । वाक्सोमाव्हनमंत्र त्रिभुवनजनसंमोह मन्त्रं । जिन्हाग्रे संततं पंचगुरुनमस्कार मंत्रममास्तु ॥२१२॥ प्रर्य-मह पंच नमस्कार मन्त्र तीन लोकों को कंपा देता है, तीन लोकों में सर्वोत्तम गर्भावतरण, जन्माभिषेक, दीक्षा कल्याणाक, केवलज्ञान तथा लक्ष्मी को आकर्षण करके देनेवाला है। अनुपम उत्कृष्ट मोक्ष लक्ष्मी को वश में करके देनेवाला यह मन्त्र है। ज्ञानरूपी चन्द्रमा का उदय करनेवाला है। त्रिलोकवर्ती समस्त प्राणियों को मोहित करनेवाला है । ऐसा अतिशय शाली अहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय सर्च साधु के नमस्कार रूप मन्त्र मेरी जीभ पर सदा निवास करे । घनफर्म द्विधिमारणं प्रवल मिथ्यात्वोग्रहोच्चाटनं । कुनयाशीविषनिविषीकरणमापापास्रवस्तंभनं ॥ विनुताहिंद्र मिदल्ते सुरेंद्र मुक्तिळळना संमोहनं भारती। बनिसावश्यमिवल्ते पंचपरमेठि नाममंत्राक्षरं ॥२१३॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५) अर्थ-पंच परमेष्ठी के नाम रूप मन्त्राक्षर अत्यन्त प्रबल कर्मशत्रु को नाश करनेवाले हैं, प्रबल मिथ्यात्व ग्रह को भगानेवाले हैं, दुष्ट कामदेव रूप सर्प के विष को निर्विष करनेवाले हैं, रागादि परपरिणति से होनेवाले कर्मासव को रोक देते हैं, इन्द्र धरणीन्द्र पदवी को प्रदान करनेवाले हैं, मोक्ष लक्ष्मी को मोहित करनेवाले हैं तथा सरस्वती को मुग्ध करनेवाले हैं । प्रागे पदस्थ ध्यान का वर्णन करते हैं:-- परगतीससोलछप्परण चदुलुगमेगंच जवह झाएह । परमेट्ठिवाचयारणं अण्णंचगुरुत्रएसेन ॥१०॥ परगतीस-रगमो प्ररहंतारणं, णमो सिद्धारणं णमो पाइरियाणं, एमो उनझायाणं गमो लोए सव्वसाहूरगं । ऐसे पैतीस अक्षरों का मंत्र हैं। सोल-परहंत-सिद्ध-पादरिया भाषा-साहू ऐग सोलह अक्षर का मन्त्र है छ प्ररहंत सिसा तथा 'अरहंत सिद्ध' यह छै अक्षरों के मन्त्र हैं । परण असि प्रा उ सा यह पांच अक्षरों का मन्त्र है । यदु असि साहु या अरहंत यह चार अक्षरों के मन्त्र हैं। दुरहं असि तथा शिद्ध यह दो अक्षरों का मन्त्र है। एगञ्च अ अथवा है या प्रोम ऐसे एक अक्षरों के मन्त्र, जवह जप करना चाहिए। झाएह धवलरूप में ललाटादि प्रदेश में स्थापना करके ध्यान करना चाहिए और गुरुवएसेण परम गुरु के उपदेशों से परमेट्टिवाचयारण परमेष्ठी वाचक को तथा अपरगञ्च लघु वृहत सिद्धिचक्र चिन्तामणि मंत्र के क्रमानुसार द्वादश सहस्र संख्या सहित पंच परमेष्ठी ग्रन्थ में कहे हए मंत्र को निर्भर भक्ति से निर्वाण सुख की प्राप्ति के लिए सदा जपना तथा ध्यान करना चाहिए। ((आगे अहं शब्द की व्याख्या करते हैं। प्रकारः परमोबोधो रेफो विश्वावलोकहक् । हकारोऽनन्तवीर्यात्मा विन्दुस्स्यादुत्तमं सुखम् ।।३८।। अर्थ-'अहं' शब्द में 'अ' अक्षर परम ज्ञान का वाचक है, 'र' अक्षर समस्त लोक के दर्शक का वाचक है, ह अक्षर अनन्त बल का सूचक है बिन्दु (बिन्दी) उत्तम सुख का सूचक है । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ } पंच परमेष्ठी वाचक कैसे होता है ? अरहन्ता पढमक्खरपिणो श्रोंकारी पंचपरमेट्ठी ॥ सरीरा आइरिया तह उवज्झया मुखियो । P अर्थ - श्रहंत परमेष्ठी का प्रथम शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी ) परमेष्ठी का का आदि अक्षर 'आइ अक्षर 'अ' अशरीरी ( पौद्गलिक आदि अक्षर 'श्र' श्राचार्य परमेष्ठी को मिलाकर सवर्ण स्वर सन्धि के नियम अनुसार तीनों श्रक्षरों का एक अक्षर 'आ' हो गया । उपाध्याय परमेष्ठी का प्रथम 'उ' है । पहले तीन परमेष्ठियों के आदि श्रक्षरों को मिलाकर जो 'आ' बना था उसमें 'उ' जोड़ देने पर ( प्रा+उ) स्वर सन्धि के नियम अनुसार दोनों अक्षरों के स्थान पर एक 'ओ' अक्षर हो गया। पांचवें परमेष्ठी 'सुति' का प्रथम अक्षर 'म्' है उसको चार परमेष्ठियों के आदि अक्षरों के सम्मिलित अक्षर 'श्री' के साथ मिला देने पर 'ओम्' बन जाता है। इस प्रकार 'ओम्' या ॐ शब्द पंच परमेष्ठियों का वाचक ( कहने वाला ) है | इस प्रकार परमेष्ठी वाचक मन्त्रों का जाप करने से हृदय पवित्र होता है, जिह्वा ( जीभ ) पवित्र होती है । मन और वाणी के पवित्र हो जाने से पाप कर्म क्षय होते हैं, श्रशुभ कर्म पलटकर शुभ कर्म रूप हो जाते हैं, कर्मों की निर्जरा होती है, रागांश के साथ पंच जाप करने से पुण्य कर्मों का बन्ध होता है, शत्रु, अग्नि, चोर, राजा, व्यन्तर रोग आदि का भय नष्ट होता है, सुख सम्पत्ति और स्वास्थ्य प्राप्त होता है । 'पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ ध्यान के विषयभूत (ध्येय ) 'ग्रहंत' भगवान का स्वरूप कैसा है तथा उनका ध्यान किस प्रकार करना चाहिए अब यही बतलाते हैं ―― अर्हन्त भगवान चार घाति कर्मरहित, भूख प्यास जन्म मरण श्रादि १६ दोष रहित, गर्भ जन्म श्रादि पांच कल्याणक सहित सिंहासन, है छत्र आदि प्रातिहार्यो से शोभायमान, ३४ अतिशयों से युक्त, सौ इन्द्रों से पूजनीय, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त बल मंडित, समवशरण से महत्वशाली, १२ गणों से युक्त, सर्व - भाषामयी दिव्यध्वनि द्वारा समस्त जनहितकारी, समस्त तत्व प्रदर्शक उपदेश देने वाले अपने सप्त धातु रहित परम प्रोदारिक शरीर से करोड़ों सूर्य चन्द्र की प्रभा को भी फीकी करने वाले हैं । वे अर्हन्त भगवान सर्व पाप नाश करने वाले हैं। उनका ध्यान इस प्रकार करना चाहिये । I Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) “धातिचतुष्टयरहितोऽहम् श्रष्टादशदोष रहितोऽहम् पंचमहाकल्याणकसहितोऽहम् अष्टमहाप्रातिहार्यं विशिष्टोऽहम्, चतुस्त्रिंशदतिशय समेतोऽहम् शतेन्द्रवृन्दवन्धपादारविन्द द्वन्द्वोऽहम् विशिष्टानन्त चतुष्टय समवशरणादि रूपान्तरंग बहिरंग श्रीसमेतोऽहम् परमकारुण्यरसोपेत सर्वभाषात्मक- दिव्यध्वनि स्वरूपोऽहम् कोट्यादित्यप्रभासंकाशपरमोदारिक- दिव्यशरीरोह, परमपवित्राऽहं परममंगलोsहं, त्रिजगद्गुरु स्वरूपोऽहं स्वयम्भूरहं, शाश्वतीहूं, जगत्त्रयकालत्रयवतिसफल पदार्थ युगपदवलोकनसमर्थं सफल विमलकेवलज्ञानस्वरूपोऽहं विशदाखर डैक - प्रत्यक्षप्रतिभास मयसकल विमल के बल-दर्शन स्वरूपोऽहं श्रतीन्द्रियाया नूतनन्त सुख स्वरूपोहं, श्रवार्यंवीर्यानन्त बलस्वरूपोहं, प्रचिन्त्यानन्त गुण स्वरूपोऽहं निर्दोषपरमात्मस्वरूपोहं, सोहं ।" इत्यादि पदों द्वारा सविकल्प निश्चय भक्ति समझ कर निर्विकल्प स्वसंवेदन शान से स्वशुद्धात्मभाव अर्हन्त भगवान की प्राराधना भव्यजीवों को सदा करनी चाहिये, ऐसा श्री. कुन्देन्द श्राचार्य का अभिप्राय है । स्वावलम्बी रूपातीत ध्यान के विषय रूप सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप बतलाते हैं:-- ज्ञानावरणादि मूलोत्तर रूप सकल कर्मों से मुक्त, सकल केवल ज्ञानादि निर्मल गुरणों से युक्त, निष्क्रिय टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वरूप किञ्चिदून अन्तिम - - घरम शरीर प्रमाण, अमूर्त, प्रखंड, शुद्ध चिन्मय स्वरूप, निर्ग्रन्थ सहजानन्द सुखमय शुद्ध जीव घनाकार स्वरूप, नित्य निरंजन निर्मल निष्कलंक, ऊर्ध्वगति स्वभाववाले, उत्पाद, व्यय तथा धौव्य से संयुक्त तीनों लोकों के स्वामी, लोकाग्र निवासी, तथा त्रैलोक्य वंद्य श्री सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान करने वालों को नित्य सुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार व्यवहार भक्ति करने के पश्चात् एकाग्रता पूर्वक भगवान का ध्यान इस प्रकार करना चाहिये । "ज्ञानावरणादिमूलोत्तररूपस कलकर्म विनिर्मु कोऽहं, सकल विमलकेवलज्ञानादिगुणसमेतोऽहं निष्क्रियटंकोल्कीज्ञायकैकस्वरूपोऽहं किंचिन्यूनान्त्यचरमशरीरप्रमाणोऽहं श्रमूर्त्तोऽहं प्रखण्डशुद्धचित्त, निर्व्यग्रसहजानन्दसुखमयस्वरूपोऽहं शुद्धजीवचनाकारोऽहं नित्योऽहं, निरंजनोऽहम् जगत्त्रयपूज्योऽहं निर्मलोऽहं निष्कलं कोऽहं, ऊर्ध्वगतिस्वाभावोऽहं लोकाग्रनिवासोऽहं त्रिजगत दितोऽहं श्रनन्तज्ञानस्वरूपोऽलं, अनन्तदर्शनस्वरूपोऽहं श्रनन्तवीर्यस्वरूपोऽहं श्रनन्तसुखस्वरूपोऽहं अनन्तगुणस्वरूपोऽहं, अनन्तशक्तिस्वरूपोऽहं अनन्तानन्तस्वरूपोऽहं निवेंगस्वरूपोऽहं निमोंहि S Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (a) स्वरूपोऽहं, निरामयस्वरूपोऽहं, निरायुष्कस्वरूपोऽहं, निरामुधस्वरूपोऽहं, निर्नाम स्वरूपोऽहं, निर्गोत्रस्वरूपोऽहं, निविघ्नस्वरूपोऽहं निर्गति स्वरूपोऽहं, निरिन्द्रियस्वरूपोऽह, निष्कायस्वरूपोऽहं, निर्योगस्वरूपोऽहं, निजशुद्धस्मरणनिश्चयशुद्धोऽहं, परंज्योतिःस्वरूपोऽह, निरंजनस्वरूपोऽह, चिन्मयस्वरूपोऽहं, ज्ञानानन्दस्वरूपोऽहं" इत्यादि निजशुद्धात्म गुणस्वरूप निश्चय सिद्धभक्ति है अर्थात् चित्स्वरूप में जो अविचल निर्विकल्प स्थान है यह निश्चय सिद्ध भक्ति कहलातो है । इस प्रकार सबिकल्प निर्विकल्पस्वरूप भेदाभेद सिद्ध भक्ति की भावना के बल से विविध प्रकार के रोम्य सुखादिहिक माह संपनि नथा अन्त में नि:शेयस सुख की प्राप्ति होती है । चरम शरीर की अपेक्षा धीतराग निर्विकल्प निम्नय सिद्ध-भक्तिपूर्वक रूपातीत ध्यान उसी भव में कर्म क्षय करने वाला है, ऐसा समझकर निज परमात्मा की आराधना निरन्तर करनी चाहिये, ऐसा श्री योगीन्द्रदेव का अभिप्राय है। रूपातीत ध्यान के सिबाय शेष तोन ध्यानों के विषयभूत श्री आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप बतलाते हैं-- निश्चय तथा व्यवहार नय से दर्शनाचार ज्ञानाचार, चारिवाचार, तपा चार और वीर्याचार, इन पांच प्राचारों का आचरण करने वाले, परमदयारसपरिणति से द्रव्य क्षेत्र काल भव भावरूप संमार सागर को पार करने के कारण रूप तथा पवित्र पात्ररूप, निज निरंजन चित्स्वभावप्रिय भव्यजीजों को पांच प्राचारों का आचरण कराने वाले, चातुर्वर्ण्य संघ के नायक ऐसे आचार्य परमेष्ठी को गुणानुगग से स्मरण करने वाले भव्य जीवों को भाव शुद्धि होती है, ऐसा समझ कर निम्नलिखित रूप से ध्यान करना चाहिये "त्यवहारनिश्चियपंचाचारपरमदयारसपरिणतिपंचप्रकारसागरोतरसकारणभूत पोतपात्ररूपनिनिरन्जन - चित्स्वरूप - भावना - प्रियचातुर्वर्य-संधनायकाचार्य - परमेष्ठि - स्वरूपोऽहं, निजनित्यानन्दैकतत्वभावस्थरूपोहं, सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वरूपोहं, दण्डभयखण्डिताखण्डचित्पिण्डस्वरूपोई, चतुर्गतिसंसार-दुःस्वरूपोह, निश्चय-पंचाचार-स्वरूपोहं, भूतार्थषडावश्यकस्वरूपोहं, सप्तभय - विप्रमुक्त - स्वरूपोलं, विशिष्टाष्टगुस्सप्रष्टस्वरूपोह, नक्केवलब्धिस्वरूपोहं, अष्टविधकर्म मलकलकरहितस्वरूपोहं, सप्तनयम्यतिरिक्तस्वरूपोहं, इत्यादि रूप से प्राचार्य परमेष्ठी का ध्यान करना महंविकल्प निश्चय भावना है। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७ ) इस प्रकार निरंजन पर रिणामिक भात में अविचल होकर भावना करने वाले भव्यजीवों को कर्मक्षय होकर मोक्ष प्राप्त होती है, ऐसा श्री ब्रह्मदेव का अभिप्राय है | अब पदस्थादि ध्यान त्रयके विषयभूत उपाध्याय परमेष्ठीका स्वरूप बतलाते हैं निश्चय व्यवहार सम्बन्धी काला चार विनयाचार उपाधानाचार बहुमानाचार निम्वाचार, व्यञ्जनाचार, अर्थाचार, श्रौरव्यञ्जनार्थाचार ये आठ ज्ञानाचार हैं निःशंकित निःकांक्षित, निविचिकित्सा, प्रमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये ८ प्रकार के दर्शनाचार हैं, १२ प्रकार के बाह्य ग्राभ्यन्तर तपाचार हैं, पांच प्रकार का वीर्याचार है, १३ प्रकार का चारित्राचार है, इस प्रकार के पंचाचार का आचरण शुद्धजीवद्रव्यस्वरूप छह द्रव्य, सात तत्व, पदार्थ में साभूत भेदाभेद रत्नत्रय के कारण भूत समयसार के बल से अनन्त चतुष्टयात्मक कार्य स्वरूप समयसार का उपदेश करने वाले उपाध्याय परमेष्ठी का स्मरण करने से मोक्ष का कारण रूप पुण्यवृद्धि होती है ऐसा समझ कर निम्नलिखित रूपसे उपाध्याय परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिये । 'निश्चयव्यवहार – अष्टविधज्ञानाचार स्वरूपोह, अष्टविधदर्शनाचारस्वरूपोहूं, द्वादशतपाचारस्वरूपोह, पंचविधवीर्याचारस्वरूपोहूं, त्रयोदशचारित्राचारस्वरूपोहं, क्षायिकज्ञानस्वरूपोहं क्षायिक दर्शन स्वरूपोहं, क्षायिक चारित्रस्वरूपोहं क्षायिकसम्यक्त्वस्वरूपोहं क्षायिकपंचलब्धिस्वरूपोहं परमशुद्धचिद्रपस्वरूपोहं, विशुद्धचैतन्यस्वरूपोहूं, शुद्धचित्कायस्वरूपोहूं, निज जीवतत्त्वस्वरूपोहूं, शुद्धजीवपदार्थस्वरूपोह, शुद्ध जीव द्रव्यस्वरूपोहूं, बुद्धजीवास्तिकायस्वरूपोह, इस प्रकार की भावना निश्चय सविकल्प आराधना है । इस प्रकार निर्विकल्प श्राराधना प्राप्त होती है ऐसा समझ कर अनन्त सुख की प्राप्ति के लिये निरुपाधि सहज आत्मतत्व के अनुष्ठान को करना चाहिये, ऐसा बालचन्द्र देव का अभिप्राय है शुद्धचैतन्य बिलास लक्षए निज आत्मतत्वरूचिरूप सम्यग्दर्शन में विचरण करना निश्चय दर्शनाचार है । निर्विकार परमानन्दरूप श्रात्मस्वरूप से भिन्न रागादि परभाव को भेद विज्ञान द्वारा पृथक जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है, उसी में लीन होना निश्चयज्ञानाचार है। शुद्ध श्रात्मभावना जनित स्वाभाविक सुख की अनुभूति में निश्चल होने वाली परिगति निश्चय सम्यक् चारित्र है, उसमें निरन्तर विचरना निश्चय चारित्राचार है । समस्त द्रव्यों की इच्छा के विरोध Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६% ) से निर्मल निज-यात्मभावना का अनुष्ठान करना उत्तम तप है, उसमें सदा विचरण करना निश्चय तपाचार है । हग प्रकार चार प्राराक्षनाओं को अपनी शक्ति न छिपाकर प्राचरण करना वीर्याचार है । इन पंच प्राचारों में अग्रेसर होकर व्यावहारिक पंच प्राचारों से युक्त शुद्ध रत्नत्रयात्मक कारण समय सार के बल से अनन्त निश्चय मोक्ष मार्ग के चतुष्टयात्मक कार्य रामयसार को वीतराग निर्विकल्प समाधि में लीन होकर साधन करने वाले सर्व साधु परमेष्ठी हैं उनका निर्मल भक्ति से स्मरण करने वाले भब्यजीवों को उनका स्मरण निज शुद्ध रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग का सहकारी कारण है, ऐसा समझकर निम्नलिखित रूप से ध्यान करना चाहिये। प्रखण्डशुद्ध ज्ञानकस्वरूपोहं,स्वाभाविकज्ञानदर्शनस्वरूपोहं अन्तरंग रत्नत्रयस्वरूपोह, नयनिक्षेपप्रमाणविदूरस्वरूपोहं,सप्तभयविप्रमुक्तस्वरूपोहं अष्टविध कर्म निर्मुक्त स्वरूपोह, अविचलशुद्धचिदानन्दस्वरूपोह, अवतपरमाल्हादस्वरूपोहं, इत्यादि सबिकल्प गुणस्मरण से स्वशुद्ध आत्म स्वरूप में निश्चल अवस्थान होता है ऐसा समझ कर सर्व साधु पद की प्राप्ति के लिये स्वशुद्ध मात्मभावना विवेकी पुरुषों को सदा करते रहना चाहिये, ऐसा श्री कुमुदचन्द्र प्राचार्य का अभिप्राय है। ___ अब पांच परमेष्ठियों का स्वरूप कहते हैंसिद्ध भगवान साक्षात् परमेष्ठी ( परम पद में स्थित ) हैं । अर्हन्त भगवान एक देश परमेष्ठी हैं। प्राचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु को भी उस पद के साधन में तत्पर रहने के लिये तथा दुर्ध्यान दूर करने के लिये व्यवहार निश्चय, मेद अभेद ध्यान-सम्बन्धी पंचपरमेष्ठी की भक्ति प्रादि बहिरंग धर्मध्यान के बल से निश्चय धर्मध्यान की आराधना करते हैं । कहा भी है वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैन्थ्यं पश्यचित्तता। जितपरिषहत्वं च पंचते ध्यानहेतयः ॥ निमित्तं शरणं पंच गुरवो गौरगमुख्यता । शरण्यं शरणं स्वस्य स्वयं रत्नत्रयात्मकम ॥ ३९-४० ॥ अर्थ---बैराग्य,तात्त्विक ज्ञान, निर्गन्यता ( बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह रहित- . पना, मनको वश में करना तथा परिषहों का जीतना, ये पांच ध्यान के कारण हैं, व्यवहार से पांच परमेष्ठी निमित्तभूत शरण ( रक्षक ) हैं किन्तु निश्चय नय से स्वयं रत्नत्रयमय अपना आत्मा ही शरण है. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग का कारण ज्ञान से ही प्राप्त होता है: स चमुक्ति हेतू दिव्यध्याने यस्माद्व्याप्यते विविधोऽपि । तस्मादयस्यन्तु ध्यानं सुधियो सदाप्यपालस्यम् ॥ घनसंहननोपेताः पूर्वश्रुतसमन्विताः। दद्यः शुक्लमिहातीताः श्रेण्युपारोहरणक्षमाः ॥ ४१-४२ ।। ताहक सामग्र यभावे तु ध्यातु शुक्लमिहाक्षमान । धरायुगेनानुद्दिश्य धर्मध्यानं प्रचक्ष्महे ॥ ३४ ॥ अर्थ-धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग के कारण हैं इसलिये बुद्धिमान पुरुष उन ध्यानों का अभ्यास करें । जो मुनि बज ऋषभनाराच संहनन-धारक हैं, पूर्ण श्रुतज्ञानी हैं वे ही उपशम तथा क्षपक श्रेणी पर चढ़ने में समर्थ हैं और वे ही शक्ल ध्यान कर सकते हैं। इस समय भरत क्षेत्र में उस प्रकार के संहनन आदि साधन सामग्री के न होने से मुनिगण शुक्ल ध्यान करने में असमर्थ हैं उनके उद्देश्य से धर्मध्यान को कहेंगे। गाथा- जाणिमिसयुविकाइयिणियअप्पेमणुवाऊ। अग्गिकरणज्जेवकट्ठगिरिदहसेसुविहाऊ ॥ १२ ॥ अर्थ-तृण काष्ठ पुज को अग्नि की केवल एक छोटी सी चिनगारी भी जिस प्रकार क्षणभर में भस्म कर देती है उसी प्रकार बीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान भावना के बल से निज शुद्धात्मा को निमिषार्थ समय में, ( क्षण भर में ) ही एकाग्रता से ध्यान करने से अनन्त भवों के एकत्रित किये हुये सकल कर्म मल नष्ट हो जाते हैं । इस पंचम काल के इस क्षेत्र में मोक्ष न होने पर भी परम्परा से मोक्ष होती है, ऐसा विश्वास रखकर निजात्म भावना करनी चाहिये । प्राचीन काल में भी भरत, सगर, राम तथा पांडवादिकों ने जिस प्रकार परमात्मभावना से मंसार की स्थिति का नाश करके स्वर्ग पद प्राप्त किया था और वहां के सुखों का अनुभव करके अन्त में चयकर इस भरत क्षेत्र में प्रार्यखण्डस्थ कर्म भूमि में पाकर जन्म लिया तथा पूर्व भव में भेदाभेद रत्नत्रय भावना संस्कार बल से मुनिदीक्षा ग्रहण करने पुनः शुद्धात्म भावना को भाकर पाने, वाले अनेक उपसर्गों को जीत कर मोक्ष सुख को प्राप्त किया । ऐसा समझकर भव्य जीवों को सदा अभ्युदयकारक शुद्धात्म--भावना को निरन्तर करते रहना चाहिये। विषय कषाय प्रादि अशुभ परिणामों को दूर करने के लिये पंच परमेष्ठी प्राधि को ध्येय बनाकर प्रशस्त परिणाम करने के लिये सविकल्प ध्यान किया Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.) आता है। उस पविकल्प ध्यान के समय यदि कोई परिषा पाजावे तो उस समय यदि वह अन्तरात्मा शारीरिक मोह को त्याग कर परिषह जन्य कष्ट को ओर से मानसिक वृत्ति हटाकर मन को प्रारमचिन्तन में निमग्न करदे तो वही निश्चय ध्यान हो जाता है। अल्हा सिद्धा पाइरिया उवज्झाया साहु पंचपरमेट्ठी। तेवि हु चेतइ प्रादे तम्हा प्रादाहु मे सररणं ॥ अर्थ-अर्हन्त सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय सर्वसाधु ये पांच परमेष्ठी का आत्मा में चिन्तवन करना चाहिये क्योंकि आत्मा ही मुझे शरण है। अर्हन्त सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय सर्व साधु निश्चय नय में शुद्ध चिद्र प में प्रवर्तन करने वाले हैं अतः हीनसंहनन, अल्पश्रतजानी, अल्प चारित्र वाले व्यक्तियों को भी अपने आत्मा को पंच परमेष्ठी रूप चिन्तायन करके ध्यान करना चाहिये। भरहे पंचमकाले धम्मञ्झारणं ह्येइ णारिणस्स । ते अप्पसहावठिदे राह मण्णइ सोवि अण्णाणी । अर्थ-भरतक्षेत्र में इस पंचम कलिकाल में ज्ञानी के स्वात्म-स्थित हो जाने पर धर्म ध्यान होता है, ऐसा जो नहीं मानता है वह अज्ञानी है। अंजलितिय रणसुद्धा प्रापज्झाऊरण ।। प्रह्इ इछुत्तं तत्थ चुदा रिगवुदि जंति ॥ प्रार्तध्यानं निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः । धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेरिणभ्यां प्रावर्तिनाम् ।। यत्पुनर्बज्रकायस्य ध्यानमित्यागमेन च । श्रेयोनिं प्रतीत्युक्तं तन्नावस्थां निषेधकम ॥ यत्राहुनहि कालोऽयां ध्यानस्वाध्याययोरिति । अहन्मतानभिज्ञत्वं ज्ञापयन्त्यात्मनः स्वयम् ॥ अर्थ:-रत्नत्रय से युद्ध व्यक्ति प्रात्मा का ध्यान नाक इन्द्रपद प्राप्त करते हैं फिर वहां से आकर मनुष्य भव पाकर मुक्ति प्राप्त करते हैं । जिनेन्द्र भगवान ने उपशम या क्षपक श्रेणी से पूर्ववर्ती मनुष्यों के धर्मध्यान बतलाया है, उनके प्रार्तध्यान और शुक्लध्यान का निषेध किया है। प्रागम में बतलाया गया है कि बज्र ऋषभनाराच संहनन वाले के उपशम श्रेणी, क्षपक श्रेणी शुक्लध्यान होता है । जो मनुष्य यह कहते हैं कि यह काल ध्यान और स्वाध्याय के योग्य नहीं है वह अपने आपको जैन सिद्धान्त को अनभिज्ञता प्रकट करते हैं। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०१ ) एसा समझकर निम्नलिखित प्रकार ध्यान करना चाहिए । "रागद्वेष, क्रोध-मान- माया -लोभ, पंचेन्द्रिय-विषय-व्यापार - मनोवचन गम्य प्राप्त्या 8 काय कर्म, भावकर्म - द्रव्यकर्म - नौकर्म, ख्याति, पूजा, लाभ, दृष्ट श्रु तानुरूप भोगकांक्षा-रूप-निदान, माया मिध्यात्व शस्यत्रय गावंश्रय, - दंडत्रय - विभाव परिणाम शून्योऽहं निजनिरंजन स्वशुद्धात्म-सम्यक्त्व - श्रद्धान-ज्ञानानुष्ठान-रूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्प समाधि-संजात-वीतराग सहजानन्द सुखानुभूति रूप मात्र लक्षणेन स्वसंवेदन - ज्ञान - सम्यक्त्व प्राप्त्याभरितावज्ञानेन भरितावस्थोऽहं निज- शुद्धात्मकोत्को संज्ञानक स्वभावोऽहं सहज-शुद्धपारिणामिक भावस्वभावोऽह्, सहज शुद्धज्ञानानन्दैकस्वभावो5 हं, मदच्छल निर्भयानन्दरूपोऽहं, चित्कलास्वरूपोऽहं चिन्मुद्रांकितनिर्विभागस्वरूपोऽ हैं. चिन्मात्र मूत्तिस्वरूपोऽहं चैतन्यरत्नाकर स्वरूपोऽहं चैतन्य - रसरसायन स्वरूपो ऽ हैं, चैतन्य-चिन्हस्वरूपोऽहं चैतन्य- कल्याण- वृक्ष स्वरूपोऽहं ज्ञानपुञ्जस्वरूपोऽहं ज्ञानज्योतिः स्वरूपोऽहं ज्ञानामृत प्रभाव - स्वरूपो ऽ हं, ज्ञानावस्वरूपो ऽ हैं निरुपम निर्लेपस्वरूपोऽहं निरवद्यस्वरूपो ऽ हैं, शुद्धचिन्मात्र स्वरूपो ऽहं शुद्धाखण्डकमृतिस्वरूपो ऽ हूं, अनन्तज्ञानस्वरूपोऽर्ह, अनन्त-शक्ति-स्वरूपोऽहं सहजानन्दस्वरूपोऽहं परमानन्दस्वरूपोऽहं परमज्ञान स्वरूपो s हं सदानन्द स्वरूपो ऽहं चिदानन्द स्वरूपो ऽहं निजानन्दस्वरूपो ऽ नित्यानन्द स्वरूपो ऽहं निजनिरंजन स्वरूपोऽहं सहज सुखानन्द स्वरूपोऽहं नित्यानन्दमय स्वरूपो ऽ हूं, शुद्धात्म स्वरूपो ऽ हं, परमज्योतिः स्वरूपोऽहं स्वात्मोपलब्धि स्वरूपोऽहं शुद्धात्मानुभूति स्वरूपोऽहं शुद्धात्म संवित्ति स्वरूपोऽहं भूतार्थं स्वरूपो ऽ हूं, परमार्थस्वरूपोऽहं निश्चयपंचाचार स्वरूपोऽहं समयसार समूह स्वरूपो 5 हूं, अध्यात्मसार स्वरूपो ऽ हैं, परम मंगल स्वरूपोऽहं परमोत्तम स्वरूपो ऽ हं, परमशरणोऽ हं, परम केवल ज्ञानोत्पत्ति कारण स्वरूपो ऽहं सकलकर्म क्षय कारण स्वरूपोऽहं परमाद्वैत स्वरूपो ऽहं शुद्धोपयोग स्वरूपो ऽ हं, निश्चय पडावश्यक स्वरूपो ऽ हूं, परम स्वाध्याय स्वरूपो ऽहं परमसभाधि स्वरूपो ऽ हैं, परमस्वास्थ्य स्वरूपो s हं परम भेदज्ञांन स्वरूपो ऽ हं, परम स्वसंवेदन स्वरूपोऽ हूं, परम समरसीमाव स्वरूपो 5 हं, क्षायिक सम्यक्त्व स्वरूपो 5 हूं, केवल ज्ञान स्वरूपोऽहं केवल दर्शन स्वरूपो s हं, अनन्त वीर्य स्वरूपो ऽ हं, परम सूक्ष्म स्वरूपो ऽहं अवगाहन स्वरूपो 5 हूं, अगुरुलघु स्वरूपोऽहं अव्यावाध स्वरूपोऽहं अष्टविधकर्म रहितो 5 हूं, निरंजन स्वरूपो ऽहं नित्यो ऽ हूं, अष्टगुण सहितो ऽ हूँ, कृतकृत्यो ऽ हूं, 2 1 2 F - - → - M - - Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकारवाय 5 हं, अनुपमो ऽ हं, अचिन्त्यो 5 हं, अतक्र्यो 5 हं, अप्रमेय-स्वरूपो ह, अतिशय र रूपो ऽहं, शाश्वतो ऽहं, शुद्ध स्वरूपो ऽहं,' इस प्रकार जगत्रय कालत्रय में इस भन्न का मनवचन काय कृत कारित अनुमोदन सहित शुद्ध मन से समस्त भव्य जीवों को ध्यान करना चाहिए “यही मेरा स्वरूप है" ऐसी भावना करना साक्षात् अभ्युदय निःश्रेयरा सुख प्रदान करनेवाला निश्चय धर्म ध्यान होता है । इस ध्यान से अन्त में निःश्रेयस सुख की प्राप्ति होती है। पुनः शक्तिनिष्ठ निश्चयनय से अनन्तगुरण चिन्तामणि की खानि के समान स्वात्मतत्त्वादि पदार्थ परिज्ञान के लिए तत्व वेद में रत होकर पाराधना करने की सद्भावना तथा उस परमात्म ज्योति रूप सस्त्र की सादर के सा : .. सुनने की लालसा करना, उस परमात्मतत्व को भेद पूर्वक ग्रहण करने की शक्ति रखना, उस नित्यानन्द के स्वभाव को कालान्तर में भी न भूलने की धारणा रखना, उस परम पारिगामिक भावना को सदा स्मरण करने की शक्ति, उस परमानन्दमय सहजानन्द परमात्मा को बारम्बार चिन्तन करने की रमृति, उस परम भाव की भावना को निरन्तर ध्यान करने आदि की भावना रखना परमनिष्क्रिय टंकोल्कीर्ण ज्ञानक स्वभाव नामक ध्यान है । स्मृतिस्तत्वे सकृच्चिन्ता मुहुर्मुहुरनुस्मृतिः । __ भावनास्तु ग्रबन्धात्स्यायानमेकानिहितः ॥४७॥ असंयते स्म ति देशसंयतेऽनुस्मृतिः स्म ता । प्रमत्त भावना प्राहानं स्यादप्रमत्तके ॥४८॥ अर्थ-तत्त्वका एक बार चिन्तन करना स्मृति है, बार वार चिन्तवन करना अनुस्मृति है । विचार करना भाना भावना है और चित एकाग्न करना ध्यान है। अर्थ-इनमें से असंयत में स्मृति, देश संयम में अनुस्मृति, प्रमत्तगुणस्थान में भावना, अप्रमत्त में ध्यान होता है । यह धर्मध्यान पोत, पद्म तथा तथा शुक्ल लेश्यावालों को होता है। इति धर्मध्यानम् शुक्लध्यानं चतुविधम् ॥१७॥ शुल्क ध्यान के चार भेद हैं जो कि क्रमशः पृथक्त्व-वितर्क-बोचार, एकत्ववितर्क अवीचार, सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती तथा व्युपरत-निया-निवृत्ति नाम से प्रसिद्ध हैं। उनमें पृथक्त्व का अर्थ 'अनेक प्रकार का है, वितर्क पूर्वक यानी श्रुतज्ञान के साथ जो रहता है । वीचार का अर्थ-ध्यान किये जाने वाला ध्येय द्रव्य, गुण, पर्याय, प्रागम वचन, मन वचन कायादिक का परिवर्तन होना है। अर्थात् जिस शुक्ल ध्यान में श्रुतज्ञान के किसी पद के अवलम्बन से योगों तथा Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०३) ध्येय पदार्थ एवं व्यञ्जन ( पद ) का परिवर्तन होता रहे वह पृथक्त्ववितर्कवीचार है । विशेष विवरण इस प्रकार है: इस अन्त रहित र रूपी जल को पार करने की मा मानेवाले परम यतीश्वर के द्रव्य परमाणु भाव परमाणु आदि के अवलम्बन से शेष समस्त' वस्तुओं की चिन्तादिक व्यापारों को छोड़ कर कर्म प्रकृति की स्थिति अनुभाग को घटाते २ उपशम करते हुये अधिक कर्म निर्जरा से युक्त मन बचन काय रूप तीनों योगों में से किसी एक योग में या द्रव्य से गुण में अथवा पर्याय में कुछ नय के अवलम्बन से श्रुतज्ञान रूपी सूर्य की ज्योति के बल से अन्तमुहर्त्त का ध्यान करना, तत्पश्चात् अर्थान्तर को प्राप्त होकर अर्थात् गुण या पर्याय को संक्रमण करना पूर्व योग से योगान्तर को व्यंजन से व्यंजनान्तर को संक्रमण होता है उस शुक्लध्यान (पृथक्त्ववितर्कवीचार) के ४२ विकल्प होते हैं। वे इस प्रकार हैं:-- जीव के ज्ञानादि गुरण, पुद्गल के वर्णादि गुण, धर्म द्रव्य के मत्यादि, अधर्मद्रव्य के स्थित्यादि, अाकाश के अवगाहनत्त्व आदि गुण और कालद्रव्य के वर्तना इत्यादि गुण हैं । जन गुरगों की प्रतिसमय परिवर्तनशील पर्याय (अवस्थाएं होती हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य की अपेक्षा अन्य द्रव्य' द्रव्यान्तर या पदार्थन्तर है। प्रत्येक गुण की अपेक्षा अन्य सभी गुण गुणान्तर हैं और प्रत्येक पर्याय की अपेक्षा अन्य पर्याय पर्यायान्तर हैं । ___ इस तरह अर्थ, अर्थान्तर, गुरण, गुणान्तर, पर्याय, पर्यायान्तर इन छहों के योगत्रय संक्रमण से १८ भंग होते हैं। द्रन्त तथा भाव तत्त्व के गुण-गुणान्तर तथा पर्याय-पर्यायन्तर इन चारों में योगय संक्रमण की अपेक्षा १२-१२भंग होते हैं । ये सब मिल कर ४२ भंग होते हैं। प्रश्न-एकाग्र चिन्ता निरोध रूप ध्यान में ये विकल्प कैसे होते हैं ? उत्तर-ध्यान करने वाला दिव्य ज्ञानी निज शुद्धात्म संवित्ति को छोड़ कर बाझ चिन्तवन को तो नहीं करता, किन्तु फिर भी प्रारम्भ काल में ध्यान के अंश से स्थिर होता है। उसके अन्दर कुछ न कुछ विकल्प होता रहता है जिससे कि वह ध्यान पृथक्त्व बितर्क वीचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान होता है। उसमें पहले कहा हुआ द्रव्य भाव परमाणु का अर्थ इस प्रकार है कि:-- द्रव्य शब्द से आत्म द्रव्य कहा जाता है। उस के गुण-गुरुगान्तर तथा पर्याय, पर्यायान्तर इन चार में मोगत्रय संक्रमण १२ भंग होते हैं। परमाणु क्या है ? रागादि उपाधि रहित सूक्ष्म निर्विकल्प समाधि का विषय होने के कारण Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) इस द्रव्य परमाणु शब्द को कहा गया है । भाव शब्द से श्रात्म द्रव्य का स्वयंवेतन ज्ञान परिणाम से ग्रहण होता है। उसके लिये सूक्ष्म अवस्था इन्द्रिय मनोविकल्प ही विषय होने के कारण भाव - परमाणु सम्यक्त्व का व्याख्यान जानना चाहिए | इस ध्यान को पहले संहनन से युक्त उपशम श्रेणी के चारों गुणस्थान वाले करते हैं । उसका फल २१ चारित्र मोहनीय कर्मो का उपशम करना है तथा वज्र वृषभ नाराच संहनन वाले चरम शरीरी अपूर्वकरणादि क्षीण कषाय के प्रथम भाग तक ही केवल क्षपक श्रेणी तक ध्यान करते हैं । अर्थात् वह ध्यान सारि मोहनीय आदि कर्म अप से होता है तथा वह शुक्लतर लेश्या वाला होता है। श्री की अपेक्षा यह ध्यान स्वर्गापवर्ग गति का कारण होता है । और पूर्व श्रुत ज्ञानी के होता है । यथाख्यात वृद्ध संयम से सहित एवं शेष क्षीरणकषाय के भाग में एकत्व से निर्विकार सहज सुखमय निज शुद्ध एक चिदानन्द स्वरूप में ही रत रहकर भावना करने वाले निरुपाधि स्वसंवेदन ज्ञान का अवलंबन कर श्रुताश्रित अर्थ व्यञ्जन के तथा योग के परिवर्तन से रहित होना एकत्व वितकं प्रवीचार नामक दूसरा शुक्ल ध्यान है । ग्रतएव पहले से असंख्यात गुणश्र ेणी कर्म निर्जरा होती है। द्रव्य भाव स्वरूप ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा 'अन्तराय इन तीनों घाति कमों के नाश होने से शीघ्र ही नव क्षायिक लब्धिरूपी किरणों से प्रकाशित होने वाले सयोग केवली जिन भास्कर तीर्थंकर होते हैं । इसी तरह इतर कृतकृत्य, सिद्ध-साध्य, बुद्ध-बोध्य, अत्यन्त अपुनर्भव, लक्ष्मी संगति से युक्त अत्रिन्त्य ज्ञान वेराग्य ऐश्वर्य से युक्त र्हन्त भगवान् तीन लोक के अधिपति होकर अभ्यर्चनीय व अभिबंध होकर दिव्य धर्मामृत सार से भव्य जन रूपी वस्य की वृद्धि करते हुये उत्कृष्ट से उत्कृष्ट पूर्व कोडाकोडी काल बिहार करते हैं । अर्हन्त की लब्धियाँ इस प्रकार हैं अनन्तज्ञानहग्वीर्यविरतिः शुद्धदर्शनम् । दानलाभ च भोगोपभोगवानन्तमाश्रिता ॥४६॥ अर्थ अनन्तज्ञान, दर्शन, वीर्य, चारित्र, दान, लाभ, भोग, उपभोग क्षायिक सम्यक्त्व येεलब्धि होती हैं । इन लब्धियों को प्राप्त कर लेने पर ही अर्हन्त परमेश्वर कहलाते हैं। तत्पश्चात् विहारादि क्रिया करते हैं । अन्तर्मुहूर्त की शेष ग्रायु में संसार की ( शेष ३ अधाति कर्मों की ) स्थिति समान होने पर बादर मनो वचन श्वासोच्छवास से बादर काययोग में फिर उस से सूक्ष्म मनोवचन व उच्छ्वास में ग्राकर उसे भी नाश कर सूक्ष्म काय योग होता है । यही सूक्ष्म क्रिया प्रतिपानी नामक तीसरा शुक्ल ध्यान है । यदि किसी Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की आयु की अपेक्षा वेदनीय, नाम, गोत्र कर्म की स्थिति अधिक होती है तो उसे आयु की स्थिति के समान करने के लिये समुद्घात (प्रात्म-प्रदेशों का कुछ अंश शरीर से बाहर निकलना) करते हैं। प्रथम ही चार समय में क्रम से दण्ड, कपाट, प्रतर व लोक पूर्ण रूप आत्म-प्रदेशों को फैलाते हैं। यदि खड़े हों तो प्रथम समय में शरीर की मोटाई में और यदि बैठे हों तो शरीर से तिगुणी मोटाई में पृथ्वी के मूल भाग से लेकर ऊपर सात रज्जू तक पात्म प्रदेश दण्डाकार यानी दण्ड के रूप में प्राप्त होना दण्ड समुद्घात कहलाता है। द्वितीय समय में यदि उनका मन्द पूर्व दिशा में हो तो दक्षिण- उत्तर में फैल जाता है, यदि उत्तराभिमुख हों तो पूर्व सूचित बाहुल्य सहित होकर विस्तार किये हुए प्रदेश से अत्यन्त सुन्दराकार को धारण करना कपाट समुद्घात कहलाता है। तीसरे समय में दातवलय त्रय के बाहर के शेष सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त होने का नाम प्रतर है । चौथे समय में लोक में परिपूर्ण व्याप्त होना लोक पुरण समुद्घात कहलाता है । इसमें एक एक समय में शुभ प्रकृति का अनुभाग अनन्तगुण हीन होता हुआ एक एक में स्थिति कांडक धात होता है। उससे आगे अन्तमुहर्त में एक ही स्थिति कांडक घात होता है । लोकपूर्ण समुद्घात में प्रायु स्थिति तथा संसार स्थिति समान हो जाती है । शेष पांचवें समय में वातावरण में न रहकर जीव प्रदेशों को संकोच करके प्रतर में प्रा जाता है । छठे समय में प्रतर को कपाट समुद्घात करता है, सातवें समय में कपाट को विसर्जन कर दण्ड समुद्घात रूप होता है, आठवें समय में दण्ड समुद्घात को संकोच कर जीबप्रदेश निज शरीर प्रमाण में आते हैं। इस प्रकार उपयुक्त समुद्घातों को करके सयोग केवली गुरास्थान में चारों अघाती कर्मों की समान स्थिति होती है। तत्पश्चात् योग निरोध करने के पहले पूर्व के समान बादर मनबचन श्वासोच्छवासों को बादर कायिक योग से निरोध करने के पश्चात् बादरकाय योग सूक्ष्म मन वचन श्वासोच्छवास इत्यादि को सूक्ष्म काय योग से क्रमश: निरोधकरने से सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती नामक तीसरा शुक्ल ध्यान होता है । इसे उपचार से ध्यान भी कहते हैं क्योंकि ज्ञान लक्षण से रहित होने के कारण उस ध्यान के फल से सूक्ष्म काय योग होता है । उसको नाश करने के बाद मन्समुहूंत में अयोगो केवली Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरणस्थान होता है । पंच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण समय अर्थात् अ इ उ ऋ तृ इन पांच अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय उस गुरण स्थान में नि:शेष कर्म को निरालव करके सम्पूर्ण शील' गुणों से समन्वित अपने द्विचरम समय में १३ प्रकृतियों को निर्विशेष रूप से नाश करता है । इस प्रकार शेष ८५ प्रकृति अयोगी केवली गुणस्थान में व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति नामक चौथे शुक्ल ध्यान से नाश होती हैं । इसे भी उपचार से ध्यान कहते हैं । इस ध्यान से सांसारिक समस्त दुःखों को नाश कर ध्यानरूपी अग्नि से निर्दग्ध सर्व कर्म मल रूपी ईधन निरस्त करने के बाद नव जन्म होने के समान शुद्धात्म स्वरूप को प्राप्त होकर उसो समय लोकान में स्थित होता है । यह अपने को स्वयमेव देखने और जानने योग्य ग्राभ्यन्तर शुक्ल ध्यान का लक्षण है । गात्र, नेत्र परिस्पन्द रहित, अनभिव्यक्त प्राणापान प्रचारित्व, नामक पर को देखने व जानने में पाने के कारण ये शुक्ल ध्यान के बाह्य लक्षण होते हैं । ___ इस प्रकार कहे हुए धर्म, शुक्ल ध्यान को मुख्यवृत्ति से स्वशुद्धात्म द्रव्य * ही ध्येय रूप होता है और शेष विकल्प गौण होते हैं। सिद्धान्त के अभिप्राय से दोनों विषयों में कोई विशेष भेद नहीं है । अतः धर्मध्यान. सकषाय परिणाम होकर मार्ग में लगे हुए दीपक के समान अधिक समय तक नहीं टिकता । किन्तु शुक्लध्यान असंख्यात गुरणे प्रकाश से मरिण के समान सदा प्रकाशित रहता है। इन दोनों में केवल इतना ही भेद है । षड् गुणस्थान पर्यन्त प्रात ध्यान और पंचम गुणस्थान पर्यन्त रौद्र ध्यान है, ये दोनों मागम में सर्वथा हेय माने गये है । असंयत सम्यादृष्टयादि चतुर्थ गणस्थान भूमि सम्बन्धी जो धर्म ध्यान है वह कारण रूप से उपादेय है । अपूर्वकरण प्रादि सयोगकेवली पर्यन्त वर्तनेवाला शुक्ल ध्यान साक्षात् उपादेय है। इस प्रकार शुक्ल ध्यान का वर्णन समाप्त हुया ! प्रागे बारह प्रकार के तपों से उत्पन्न पाठ प्रकार की ऋद्धियों को कहते हैं: अष्टौ ऋद्धयः ॥५॥ अर्थ-१-बुद्धि ऋद्धि, २-क्रियाऋद्धि, ३-विक्रियाऋद्धि, ४-तपति, -बलऋद्धि, ६-ऐश्वर्यऋद्धि, ७-रसऋद्धि तथा ८-अक्षीणऋद्धि में ऋद्धियों के माठ भेद हैं। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) बुद्धिरष्टावश मेवा ॥५६ बुद्धि ऋद्धि के १८ भेद होते हैं। १-केवल ज्ञान, २-मनः पर्यय ज्ञान, ३-अवधिज्ञान, ४-बीज बुद्धि, ५-कोष्ठ बुनि, ६-पदानुसारी, ७-सम्भिन्न श्रोत्र, ८-दूरास्वादन ६-दूरस्पर्शनत्व. १०-दूरमाण, ११-दूरदर्शन, १२-दूरश्रवण, १३-दशपूर्व, १४-चतुर्दश पूर्व, १५-अष्टांगमहानिमित्त ज्ञान, १६-प्रज्ञाश्रवरण, १७-प्रत्येक बुद्धि, १८-वादित्व ऐसे बुद्धि ऋद्धि के १८ भेद हैं। समस्त पदार्थों को युगपत् जानना केवल ज्ञान है । २-पुद्गल आदि अन्य वस्तुओं को मर्यादा पुर्वक जानना अवधि ज्ञान है। ३-दूसरे के मन की बातों को जानना मन: पर्ययज्ञान है । ४-एक अर्थ से अनेक अर्थों को जानना बीज बुद्धि है । ५-जैसे कृषक अपने घात्यभंडार यानी गल्ले की कोठरी में से रक्खे हए भांति भांति के बीजों को आवश्यकता पड़ने पर निकालता रहता है उसी प्रकार कोष्ठ बुद्धि धारक ऋद्धि धारी मुनि मुमुक्षु जोवों के अनेक प्रश्नों के उत्तर को अपनी बुद्धि द्वारा देकर सन्तुष्ट कर देते हैं । यह कोष्ठ बुद्धि है। ६. जिस प्रकार की शिक्षा मिली हो उसी के अनुसार कहना प्रतिसारी है। पढ़े हुए पदों के अर्थ को अपनी बुद्धि के अनुसार अनुमान से कहना अनुसारी है। पढ़े हुए पदों को प्रागे पीछे के अर्थ को अनुमान से कहना उभयानुसारी है । ये पदानुसारी के तीन भेद हैं। ७-बारह योजन लम्बे और ६ योजन चौड़े वर्ग में पड़ी हुई चक्रवर्ती की सेना की भाषा को पृथक पृथक् सुनना या जानना संभिन्न श्रोत्र है । ५-पांत्र रसों में से किसी दूरवर्ती पदार्थ के १ रस को अपनी बुद्धि से जान लेना दूरास्वादन है। 6-दूरबर्ती पदार्थ के पाठ प्रकार के स्पर्शो को जान लेना दूर स्पर्श है। १०--- बहुत दूरवर्ती पदार्थ को देख लेना दूर दर्शन है। ११-बहुत दूरवर्ती पदार्थ की गन्ध को जान लेना दूर गंध घाण कहलाता है । १२-बहुत दूरवर्ती शब्द को सुन लेना दूर श्रवण है । १३-रोहिणी प्रादि ५०० विद्या देवता, अंगुष्ठ प्रसेन आदि ७०० क्षुल्लक विद्यानों को प्रचलित रूप से जानना तथा प्रचलित चारित्र के साथ दशपूर्व आदि को जानना दशपूर्व है । १४-चौदह पूर्वी को जानना चतुर्दश पूर्व है । १५-अन्तरिक्ष निमित्त, भीमनिमिस, अंग निमित्त, स्वरनिमित्त व्यञ्जन निमित्त, लक्षण निमित्त, छिन्न निमित्त, स्वप्न निमित्त, ये अष्टांग निमित्त हैं। चन्द्र सूर्यादि ग्रह नक्षत्रों को देखकर नयनाङ्गादि को कहना अन्तरिक्ष निमित्त है । पृथ्वी के ऊपर बैठे हुये मनुष्य को देखकर नयनांग को कहना भौम निमित्त है। तिर्यञ्च मनुष्य प्रादि के रस मोर घिर प्रादि को देखकर Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा उनके अंगों का स्पर्श करके शुभाशुभ फलों को कहना अंग निमित्त है। स्वर को सुन कर तदनुसार फलों को कहना स्वर निमित्त है। शरीर के ऊपर पड़े हुये काले तथा सफेद तिलों को देखकर उसके फल को कहना व्यञ्जन निमित्त है । शरीरस्थ सामुद्रिक रेखा में हल, कुलिश, द्वीप, समुद्र, भवन, विमान, वारण, पुरी गोपुर, इन्द्रकेतु, शंख, पताका, मुशल, ह्य रवि, शशि, स्वस्तिक, दारु, कूर्म, अंकुश, सिह गज, वृषभ, मत्स्य, छत्र शय्या, यासन, बद्धमान, श्रीवत्स, चक्र अनल कुम्भ ऐसे ३२ शुभलक्षणों को देखकर उसके शुभाशुभ फलों को कहना लक्षणनिमित्त है। शस्त्र कंटक मुसक आदि से होने वाले छिद्र को देख कर नया नयंग को बाहना छिन्न निमित्त है। स्वप्न को देख सुनकर नयेयनयंग को कहना स्वप्ननिमित्त है। १६-द्वादशांग चतुर्दश पूर्वो को बिना देखे केवल श्रबरण मात्र से ही उसके अर्थ को कहना प्रज्ञा श्रवणत्व है। १७–परोपदेश के बिना ही अपने संयमबल से संपूर्ण पदार्थों को जानना एक मुद्धि है। १---देगेन्द्रादि को बाद में हतप्रभ करने वाली प्रतिभाशाली बुद्धि को बादित्व कहते हैं । इस प्रकार ऋद्धि बुद्धि के १८ भेद हैं । क्रियाऋद्धिद्विविधा :६०। चारणत्व, आकाशगामित्व, ऐसे क्रिया ऋद्धि के दो भेद हैं। यह इस : कार है:-जल चारणत्व, जंघा चारणत्व, तन्तु चारणत्व, पन चारणत्व' फलचारणत्व, पुष्प चारणत्व, आदि अनेक भेद धारणत्व के हैं। बैठकर या खड़े होकर पांव से चलते हुये अथवा पांव विन्यास से रहित गगनागमन करना प्राकाशगामित्व है। - । विक्रियकादशविधा । विक्रिया ऋद्धि के १ अणिमा, २ महिमा, ३ लघिमा ४ गरिमा, ५ प्राप्ति, ६ प्राकाम्य'; ७ ईशत्व; ८ वशिल; 8 अप्रतिघात, १० अन्तर्धान, ११ काम-रूपित्व ये ग्यारह भेद हैं। उनमें से छोटा शरीर बना लेना अणिमा, मोटा शरीर बना लेना महिमा लघु शरीर को बना लेना लधिमा, अपनी इच्छानुसार बड़ा शरीर बना लेना गरिमा जमीन में रहते हुये भी अपनी उँगली से मेरु पर्वत को स्पर्श कर लेने की शक्ति प्राप्त कर लेना प्राप्ति, जिस प्रकार जमीन पर गमन किया जाता है उसी प्रकार पानी पर चलना प्राकाम्य, तीनों लोकों के नाथ बनने की शक्ति ईशत्व, सभी को बन कर लेना वशित्व, पर्वत की चोटी पर पाकात के समान घले जाना मालि Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) जात, अदृश्य रूप हो जाना अन्सन तथा एक ही बार में अनेक रूप धारण करके दिखाना काम रूपित्य, विक्रिया ऋद्धि कहलाती है । तपः सप्तविधम् ॥ ६२॥ १ उग्रतप, २ दीप्त तप, ३ तप्त तप, ४ महालय, ५ घोर तप, घोर बीर पराक्रम तप तथा ७ थोरगुणब्रह्मचर्य ये तप ऋद्धि के सात भेद होते हैं । उसमें उग्रोग्र तप, श्रनवस्थितोय तप से तप के दो भेद होते हैं । १ उपवास करके पारण करना और १ पार करके २ जावास करना, ३ उपवास करके पारण करना इसी प्रकार क्रमशः ११ उपवास तक बढ़ा घटां कर जीवन पर्यन्त उपवास करते जाना उग्र तप कहलाता है । दीमा उपवास करने के पश्चात् पारण करके एकान्तर को करते हुये किसी भी निमित्त से उपवास करके ३ रात्रि तक उपवास करते हुये जीवन पर्यन्त बढ़ाते जाना अवस्थितोग्र तप कहलाता है। अनेक उपवास करने पर भी सुगंधितश्वास तथा शरीर की शोभा बढ़ते जाना दीप्त वप कहलाता है ! तपे हुये लोहे के ऊपर पड़ी हुई जल की छोटी छोटी बूँदें जिस प्रकार जल जातीहैं उसी प्रकार ग्रहण किये हुये आहार तप के द्वारा मल व रुधिर न बन कर भस्म हो जाना या जल जाना तप्त तप है । अणिमादि प्रष्ट गुणों से शरीरादि की कान्ति, सर्वोषधि अनन्त बल तथा त्रिलोक व्यापक आदि से समन्वित होने को महातप कहते हैं । वात, पित्त श्लेष्मादि अनेक प्रकार के ज्वर होने पर भी अन शनादि करना घोर तप कहलाता है । ग्रहण किये हुये तप योग की वृद्धि करना तीनों लोक में बराबर शरीर को फैलाना तथा समुद्र को सुखा देना, जल, ग्रन्ति शिलादि के द्वारा पानी बरसाने आदि की शक्ति प्रकट करना मोर वीर पराक्राम तप कहलाता है | अखंड ब्रह्मचर्य सहित तथा दुःस्वप्न यादि गुणों से युक्त होन घोर गुण ब्रह्मचर्यं तप कहलाता है । बलस्त्रिधा । ६३॥ मन, वचन तथा काय भेद से बल ऋद्धि तीन प्रकार को होती है । सो इस प्रकार है— महान अर्थागम को मन से चिन्तन करते रहने पर भी नहीं थकना - मनोबल है, संपूर्ण शास्त्रों को रात दिन पढ़ते-पढ़ाते रहने पर भी न थकता बचन बल है तथा मासिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक इत्यादि प्रतिमायोग में रहने पर भी किंचितन्मात्र कष्ट न होना कामबल है । भेषजमष्टधा ॥ ६४ ॥ १ ग्रामोषध ऋद्धि, २ क्षल्लोषध ऋद्धि ३ मिल्लोषध ऋद्धि, ४ मुली-. 1 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१० ) षध ऋद्धि, ५ विष्ठौषध ऋद्धि, ६ सर्वोषध ऋद्धि ७ ग्रास्यमल ऋद्धि तथा व दृष्टि विष ऋद्धि ये औषध ऋद्धियां आठ प्रकार की होती हैं । जिन महा तपस्वी के हाथ पांव के स्पर्श करने मात्र से रोग उपशम होने की शक्ति प्राप्त होती है उसे ग्रामोषध ऋद्धि कहते हैं । किसी तपस्वी के निमित्त या उसके कके स्पर्श मात्र से ही व्याधि उपशम हो जाना खिल्लीषध ऋद्धि है । कुछ तपस्वी के पसीने से निकले हुये मल के द्वारा व्याधि उपशम होना जल्लोषध है । किसी के कान, दांत, नाक आदि के मल से व्याधि नष्ट हो जाना मल्लोषध है । और किसी तपस्वी के मल-मुत्रादि के स्पर्श हो जाने से रोग नष्ट हो जाना विष्टोध कहलाती है। किसी तपस्वी के शरीर का स्पर्श करके आई हुई हवा से व्याधि नष्ट होना सर्वोपध है । किसी तपस्वी के मुख से निकलने वाली लार के द्वारा अमृत के समान व्याधि नष्ट हो जाना आस्यमल औषध है । किसी तपस्वी के देखने मात्र से विष या रोग नष्ट हो जाना दृष्ट विष ऋद्धि है । इस प्रकार आठ औषध ऋद्धियों का वर्णन किया गया। आस्यविषत्त्व, दृष्टिविषत्व, क्षीरस्रवित्व, मधुस्रवित्व, आाज्यस्रवित्व, अमृतत्व से रस ऋद्धि के भेद है । 1 १ कोई तपोधारी साधु किसी निमित्त से क्रोध दृष्टि से देखकर यदि कहे कि तू मर से तुरन्त ही मर जाय तो इसे आस्यविषत्य साथ किसी की तरफ देखते ही यदि वह मनुष्य इसका नाम दृष्टि विष है । ३ महातप धारी मुनि के पाणिपात्र में नीर सा श्राहार रखने से यह प्रहार क्षीररूप में परिणत होजाय तो इसका नाम क्षीर ऋद्धि कहते हैं । ४ और किसी महा तपस्वी के हाथ में नीरस आहार रख दें तो वह तुरन्त ही ग्रन मधुर या मीठा हो जाय तो इसका नाम मधुस्रवित्व ऋद्धि है । ५ यदि तप धारी मुनियों के हाथ में शुष्क भोजन रख दिया जाय वह आहार तुरंत ही घृत के समान अत्यन्त स्वादिष्ट या सुगंधित रूप में परिणत हो जावे इसको यस्त्रवित्व ऋद्धि कहते हैं । ६ किसी तपोधारी मुनि के हाथ में कडवा आहार भी रख दिया जाय तो वह आहार तुरन्त ही अमृत के समान हो जाये इसका नाम ऋद्धि है। क्षीणऋद्धिद्विविधा ।। ६६ ।। ऋद्धि के दो भेद १ प्रक्षोण महासत्व र अक्षोमहालयत्व ऐसे अक्षीण हैं । तपधारी साधु के ग्राहार होने के बाद शेष बचे हुये आहार में यदि चक्रवर्ती कां कटक भी जीम ले तो भी आहार कम न होकर बढ़ते ही जावे इस का नाम ग्रीस महानसत्व है। मुनि जहां पर रहें उतने स्थान में किसी गृहस्थ की तरफ जा और उसके कहने कहते हैं । २- गुस्से के तत्काल मर जाय तो Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती का विशाल कटक भी आराम से रह जावे, यह अक्षीणमहालयत्व ऋद्धि है। गाथा--बुद्धितवादिय अथिपियं वरणलखितहेव प्रोसहिया । रसबल अक्खिगविपलछिनो सत्त पणणसा ।। १६ ।। . पंचविधानिर्ग्रन्थाः ॥ ६७ ।। पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रंथ, और स्नातक ऐसे निग्रंथ के पांच भेद हैं । उत्तर गुग की भावना से रहित मूल गुरगों में कुछ न्यूनता रखने वाले को पूलाक कहते हैं । अखंडित ब्रह्मचर्य के धारी होते हुये भी शरीर तथा उपकरण संस्कार तथा यश विभूति में आसक्त तथा शबल चारित्र से युक्त रहने वाले मुनि को बकुश कहते हैं। संपूर्ण मूल गुणों से युक्त तथा अपने उपकरणादि में ममत्व बुद्धि रखकर उत्तर गुगा से रहित मुनि को प्रतिसेवना कुशील कहते हैं । शेष कषायों को जीतकर संज्वलन कषाय मात्र से युक्त रहने वाले कषाय कुशील हैं। ये कुशील के दो भेद हैं। अन्तमुहर्त के बाद केवल ज्ञानादि में रहने वाले क्षीरणकषाय को निग्रन्थ कहते हैं । ज्ञानावरणादि धाति कर्म क्षय से उत्पश्न हुई नव केवल लब्धि से युक्त सयोग केवली स्नातक होते हैं । ये पांचों मुनि जघन्य, मध्यम, उत्तम, उत्कृष्ट चारित्र भेदबाले होकर नंगम नयापेक्षा से पांच निर्गन्ध कहलाले हैं । असे अनेक वर्ण के सुवर्ण सोना ही कहलाते हैं । वैसे ही उपयुक्त पांचों मुनि सम्यग्दर्शन भूषणदि से न्यूनाधिकता के कारण सर्व सामान्य होने से निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। पुलाक, वकुश, प्रतिसेवना कुशील इन तीनों को सामायिक और छे दोपस्थापना संयम होता है। कषाय कुशील को सामायिक, छेदोपस्थापना; परिहार विशुद्धि तथा सूक्ष्म-सापराय ये चार संयम होते हैं । निम्रन्थ तथा स्नातक को यथास्यात गुद्ध संयम एक ही होता है। श्रुतों में पुलाफ बकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनि उत्कृष्ट से अभिन्नाक्षर दश पूर्व के धारी होते हैं । कषाय कुशील और निर्ग्रन्थ चतुर्दश पूर्व के धारो होते हैं । जघन्य रूप से पुलाक का श्रुत और आचार वस्तु प्रमाण होता है । बकुश, कुशील और निम्रन्थ का श्रुत कम से कम प्रष्ट प्रावनमातका मात्र होता है। स्नातक अपगतश्रु त यानी केवली होते हैं। चारित्र की विराधना करना विराधना है । पुलाक मुनि दूसरों की जबर्दस्ती से पाँच मूलगुण तथा रात्रिभोजन त्याग में से किसी एक की प्रतिसेवना करता है । वकुश मुनि कोई तो अपने उपकरणोंकी तथा शरीर स्वच्छता सुन्दरता में रुचि रखते हैं और दूसरे वकुश मूलगुणी को सुरक्षित रखते हुए उसर गुणों की विराधना करते हैं। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ प्रतिसे ना कुंशोश के उत्तर गुण में कुछ न्यूनता रहतो है । पर शेष को प्रतिसेवना नहीं है। तीर्थको अपेक्षा सभी मुनि सभी तीर्थकरों के समय होते हैं । द्रा भाव विकल्प से लिङ्ग में दो भेद हैं । जितने भावलिंगी हैं वे सभी निम्रन्य लिंगी कहलाते हैं और द्रयलिंग में कुछ विकल्प होता है । लेल्या में पुलाक को 2 की : नेस्यायें होती हैं। प्रतिसेवना कुशील को ६ लेझ्यायें होती हैं । कपा माल को परिहार विशुद्धि और संयत को ३ लेश्यायें होती हैं । सुध्मसांपरराय बाल नया निर्ग्रन्थ स्नातक को शुक्ल लेश्या होती है । प्रयोगकेवली को लग्या नहीं होती। उपपाद में पुलाक को उत्कृष्ट उपपाद अठारह सागरोपम रिअनि गया र कला में होता है । अगरणअच्युतकल्प में बकुश व प्रतिसेवना वृशील का २२ मागरोपम स्थिति होती है । . . सर्वार्थ सिद्धि में वपाय कृत्रोल और निर्ग्रन्थ की ३३ सागरोपम स्थिति होती है । सौधर्म कप में जघन्य अपादकों को २ सागरोपम स्थिति होती है । स्नातक मक्ति पाने है । संघम की अपेक्षा कषाय के निमित्त से संख्यात में से सर्व जघन्य संयम किन्न स्थान प्रलाक और कषाय कुशील वाले को होती है। धे दोनों साथ साथ असंख्यात स्थान को प्राप्त होकर पुलाक रूप होते है । कषाय कुशील मुनि ऊपर के असंख्यात संयम स्थानों को अकेले ही प्राप्त होते हैं उसके ऊपर कषाय कुशील, प्रतिसेवना कुशील तथा बकुश ये तीनों असंख्यात मुरणे स्थानों को प्राप्त होकर पुनः बकुश को प्राप्त होता है । __ उसके ऊपर असंख्यात संयम स्थान को पहुंच कर प्रतिसेवना कुशील होता हैं। वहां से ऊपर चलकर प्रसंख्यात संयम स्थान में जाकर कषाय कुशील होता है । उसके ऊपर अकाषायास्थान हैं निर्ग्रन्थ मुनि समस्त कषाय त्याग करक सयम के असंत्यात स्थान प्राप्त करते है । पुनः उसके ऊपर एक स्थान स्नातक प्राप्त करते हैं वे निर्वाण पद को प्राप्त कर संयम लब्धि अर्थात् ६ लब्धि को प्राप्त कर लते हैं । आचारश्च ।६८। ___ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, तपाचार, वीर्याचार तथा चारित्राचार ये पाँच प्रकार के प्राचार है। पाँचो मानार काल शुद्धि विनय शुद्धि अवग्राहादि को कभी नहीं भूलते । शब्द और अर्थ ये दोनों आठ प्रकार के ज्ञानाचार तथा ८ प्रकार के निःशंकादि दर्शनाचार को बढ़ाने वाले हैं। जिस प्रकार संतप्त लोहे के ऊपर यदि भोड़ा सा जल डाल दिया जाय तो वह उसे तत्क्षण भस्म कर देने के पश्चात् भी गर्म बना रहता है उसी प्रकार Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त प्रागम तथा परम तपस्वी गुरु जन अज्ञान का नाश करके भी अपने स्व स्वरूप में स्थित रहते हैं। उनके विष में शंका न करना निःशंका है। निःकाक्षा--अस्थिर तथा अत्यन्त बाधक कर्मास्रव मार्ग, को बढ़ाने वाले विषय सुखों की क्रांक्षा न रखकर अपने स्वरूप में स्थित रहना निःकांक्षा है । सुकाल में, सुक्षेत्र में बीज बोकर जिस प्रकार किसान अन्य चीज की इच्छा म रखकर उसकी रक्षा करते हुये वृद्धि करता है और फसल को बढ़ाता जाता है उसी प्रकार मुनिजन पापभीर हो कर सदाचरण तथा ग्रात्मोन्नति को बढ़ाते हुये इन्द्रादि काभोगोपभोगों की आकांक्षा से रहित रहकर अपने प्रात्म स्वरूप में लीन रहते हैं धन, धान्य, महल मकान, इन्द्र नरेन्द्र तथा चक्रवर्ती पद प्रादि दिन, मुख कामिक हैं तथा मोक्षश्री की कामना करते रहने से वे स्वयमेव प्रा जाते हैं, अतः सम्यग्दृष्टी जीव उनकी लालसा न करके केवल शुद्धात्मा को ही आराधना करते हैं। __ जिस प्रकार कुशल किसान केवल धान यानी फसल मात्र की कामना करके सुकाल, सुक्षेत्र में उत्तम बीज बोकर धान के साथ २ भूसा, पुपाल तथा इंठल आदि अनायास ही प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार भव्य जीव केवल मोक्ष की सिद्धि के लिए प्रयत्न करते हैं पर इन्द्र धरणीन्द्र तथा नरेन्द्रादिक पद वे अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं। अतः इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक और मोक्ष सुख शाश्वत है, ऐसा समझकर सम्यग्दृष्टि सदा शाश्वत सुख की ही इच्छा करते हैं । और नि:काक्ष भावना से सर्वदा आत्मस्वरूप में लीन रहते हैं। निविचिकित्सानविदमोप्पे रत्न-। यदि कविगेपसि शोभि सुतिर्त । शरीर दोळितुजुगु- । सेयनागि सदिप रुचिये निर्विचिकित्सं ॥ ___ संगति से गुणहीन वस्तु भी गुणवान मानी जाती है जैसे गुणहीन मिट्टी के वर्तन में घी या अमृत रहने से उसको भी गुणवान माना जाता है। उसी तरह यह शरीर अमंगल होने पर भी पवित्र शुद्ध रत्नत्रयात्मक शुचिभूत मात्मा के संसर्ग में रहने के कारण शुचि (पवित्र) माना गया है। अगर इस शरीर से घृणा की जाय तो शुद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती यदि शरीर के प्रति घृणा को जाय तो उसके साथ प्रात्मा की भी धृपा होती है। क्योंकि शरीर प्रात्म-प्राप्तिके लिए मूल साधन है । ऐसा समझकर रोगग्रस्त किसी धर्मात्मा या चतुः संघ के किसी महात्मा आदि को देखकर वृणा न करके शरीर से भिन्न केवल प्रात्मस्वरूप का विचार करना निर्विचिकित्सा अंग कहलाता है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथे असूढदृष्टि अंग का लक्षण: सच्चे देव, गुरु व शास्त्र के विपरीत पांचों पापों को बढ़ाने वाले एकान्त विपरीत, संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय ये पांच प्रकार के मिथ्यात्व है। इन्हीं पांचों मिथ्यात्वों में से स्वर्ग या मोक्ष का कारण मानकर जो कुदेवों के समक्ष मूक पशुओं का बलिदान किया जाता है वह पाप पंक में फंसाकर संसार वर्द्धन का कारण होता है । अत: उन पांचों पापों की मूढ़ता से रहित होकर वीतराग भगवान के द्वारा कहा हुआ मार्ग ही प्रात्मा का स्वभाव है तथा वहीं संसार से मुक्त करने वाला है, ऐसा निश्चय करके उसी में रत रहना अमूढ़दृष्टि है। वात्सल्य-- चातुर्वरणंगळोळं- । प्रोति योळिदिरेईं कंडु धर्म सहायं । माता पितर निमेमगेवुदु । भूतलदोळ् नेगळ्द धर्मवात्सल्य गुरणं ॥२२२॥ गरीब-श्रीमन्त श्रादि का भेद-भाव न रखकर जिस प्रकार गाय व बछड़े का परस्पर में प्रेम रहता है उसी प्रकार चातुर्वर्ण्य धर्मात्माओं के साथ प्रेम करना वात्सल्य अंग है। धर्म प्रभावना-- जिन शासन ताहात्म्य- । मनन वरतं तन्न शक्तियि वेळगिकरें । मनव तमम कळ्चुवु- । दनुदिनमिदु शासन प्रभावनेयक्कु॥२२३॥ भगवान जिनेश्वर की वाणी तथा आगम के द्वारा मिथ्या हिंसामयो अधर्म रूपी गर-समय के प्रावरण को दूर वर भगवान के शासन का प्रकाश करना, अपने तप के द्वारा देवेन्द्र के आसन को प्रकंपित कर देने वाले महातपस्थी के स्वसमय तथा उनके तप के महत्व को प्रकट कर जैन धर्म के महत्व को प्रकट करना, या समय समय पर भगवान जिनेन्द्र की पूजा, रथ यात्रा, कल्प वृक्ष पूजा, अष्ट पूजा या भगवान जिनेन्द्र देव का जन्मोत्सव, वीर जयन्ती आदि उत्सव करके धर्म की प्रभावना से मिथ्या प्रावरण को दूर करना, प्रभावना अंग है। पूनांग दृष्टि भवसं- । सानाळरलुकदार देंतेने मन्त्र । तानक्षर मोंदिल्लबो-। डेनवु केडेसुगमें विषम विषवेदनेयं ॥२२४॥ इन अंगों में से एक भी अंग कम होने पर अनन्त दुःख तथा पशुगति में होने वाले छेदन, भेदन, ताडन, त्रासन, तापन, वियोग, संयोग, रोग, दुःख, Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१५) जन्म, मरण, जरा, मरण, शोक, भय, इत्यादिक दुःखों को उत्पन्न करने वाला संसार नाश नहीं हो सकता। जैसे मंत्रबादी के मंत्र में से यदि एक भी अक्षर कम हो जाय तो उस मंत्र से सर्प का काटा हुमा विष नहीं उतरता उसी तरह पाठों अंगों में से यदि एक भी अंग कम हो जाय तो इह परलोक की सिद्धि को प्राप्त कर देने वाले पूर्ण सम्यग्दर्शन की सिद्धि नहीं हो सकती ॥२२४॥ अष्टांग दर्शवम-। मष्टदिय नष्ट गुण मनधिक स्थाना-। वृाष्टातिशय विशेषम- । नष्ट महासिद्धि गुणमरणी गुभ मोघं ।२२५३ इस कुल में जन्म लेने के पश्चात् उत्तम गुण ही प्रधान हैं । संसार में आत्मा को मनुष्य, तिर्यन, नारक गति, जाति, शरीर, रत्री, पु, नपुंसक बेद तथा नीच श्रादि कहना व्यवहार नय से कर्म की अपेक्षा है। शक्ति-निष्ठ निश्चयनय से आत्मा शुद्ध तथा सिद्ध भगवान के समान है । अत: वास्तव में शुद्ध भावी नय की अपेक्षा से अनागत सिद्ध है। परन्तु सम्यक्त्व-पूर्वक ज्ञान चारिमादि को प्राप्त करके यहाँ जीवात्मा सांसारिक बन्धनों को नाश करके पुनः सप्यक्त्यपूर्वक ज्ञान चारित्रादि को प्राप्त करके सिद्ध हो जाता है अर्थात् सांसारिफ कीचड़ से मुक्त होकर ऊपर या जाता है ॥२२५।। । दुरित दुपशम दिनायु-। सुर नक्कु धर्मदळिविनिनायवकु॥ सुरनुमेने धर्म दिदं । दोरकोळळदुदेन धर्म दिवळिपदुदें ॥२२६॥ इस लिए समस्त सांसारिक जीवों को केवल एक प्रमं ही निःश्रेयस परम अभ्युदयकारक आत्मिक सुख को देने वाला है और उस प्रात्मा को कर्मक्षय के निमित्त अर्थात् अपनी आत्मसिद्धि के लिये जब तक पूर्ण रूप से सामग्री प्राप्त न हो तब तक उन्हें उपर्युक्त गुणस्थानों पर चढ़ने की शक्ति नहीं प्राप्त हो सकती अर्थात् सम्यक्त्व के बिना ऊपर के गुणस्थान नहीं प्राप्त कर सकता और जहां चौथा गुणस्थान भी नहीं वहां दर्शन मोहनीय का उपशम भी नहीं है। तो ऐसा गृहस्थ व्रती भी नहीं हो सकता और व्रत के प्रभाव से वह मोक्ष मार्ग से भी अधिक दूर रहता है । तथाच जो व्रत ध सम्यक्त्व रहित बाह्य तप करने वाले साधु हैं उन्हें मोक्ष मार्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती। सम्यग्दृष्टि उत्तम गृहस्थ श्रावक सम्यक्त्व-रहित मुनि की अपेक्षा अणुव्रती दृष्टिगोचर होने पर भी क्रमशः शुद्धात्मा की प्राप्ति कर सकता है। जबकि सम्यक्त्व रहित महादतधारी मुनिगण बाह्य लप के कारण अमसिद्धि की प्राप्ति न कर सकने के कारण दीर्घ संसारी होते हैं । अर्थात् विकलता सहित अणुव्रती व महादती चाहे Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितना भी शास्त्र स्वाध्याय करके ज्ञानोपार्जन करें, या धर्माराधन करें, पर वे द्रव्यश्रुती अथवा मिथ्याज्ञानी ही कहलाते हैं । क्योंकि अभव्य भी अनेक शास्त्रों में पारंगत होकर ११ अंगशास्त्र के पाठी होकर वहुन त कहलाते हैं और दुर्द्धर कायक्लेशादि तप करके उपरिम नवनवेयफ विमान तक भी जाते हैं; किन्तु पुनः वे वहां से लौटकर संसार की चतुर्गति में भ्रमण किया करते हैं। अर्थात् सम्यग्दर्शन से रहित होने के कारण उन्हें आत्मसिद्धि नहीं हो सकती। सम्यक्त्व रहित ज्ञान चारित्र की उत्पत्ति उसी प्रकार नहीं हो सकती जैसे कि-जहां पर बीज नहीं है वहां पर वृक्ष तथा फल पुष्पादि की उत्पत्ति त्रिकाल व त्रिलोक में कदापि नहीं हो सकती। अतः सम्यक्त्व को ही परम बन्धु तथा मिथ्यात्त्र को परम शत्रु समझकर प्रशम, संवेग, अनुकम्पा तथा आस्तिक्याभिव्यक्त लक्षण सहित संसार-लता मूल से विच्छेद करने वाले, त्रिकाल शान को प्राप्त करने वाले सम्यग्दर्शन की आराधना सर्व प्रथम करनी चाहिए। तब यह सम्यग्दर्शन मोक्ष प्रासाद में प्रारोहण करने के लिए प्रथम सोपान के समान है, ऐसा समझकर दर्शन सहित सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञान चारित्र तथा तपाराधना करने के कारण पूज्य हो जाता है और संसार में रहकर भी वे भव्य जीव श्रुत भगवान के आठ गुणों के समान निजात्म युद्धात्मा की आराधना करते हुए मापन की जाने की इच्छा से चारित्ररूपी यान-पात्र पर चढ़कर मोक्ष स्थान को शीघ्रातिशीघ्र सिद्धि कर लेते हैं ।।२२६॥ नेगळ दमल वर्शनये कठि कु निर्वाणणायिक राजलक्ष्यि मनलुनं । युगये निमत्तं प्रभृति गळ गल्केयम्युदय दोळि पनेसुवेयदु-।। गगतलेयूरि तपंगेयदेयमलसाग रोक्त धर्म दोळ ने गळ देमदृम्भलमिल्ल मुक्ति श्रीललनेयु अमरेंद्लक्ष्मियु कडुइरं ।। इस सम्यक्त्व की महिमा से चतुर्गति के कारण बद्धायु को असंयत सम्यग्दृष्टि अप्रत्याख्यान कषाय के उदय होने पर नियमानुष्ठान से रहित होने पर भी इन्द्रिय-जन्य विषयों से सदासीन रहता है । तथा अग्निम भव में इन्द्र धरणीन्द्र, चक्रवर्ती आदि पद प्राप्त करके मुक्ति लक्ष्मी का पति होता है । २२६।। विकलेंद्रिय जाति भावनधन ज्योतिष्कतिर्यग्नपुसकनारीनटविन द्वःकुलसरुग्मुखानिर्भाग्यना--11 रक होनायुषकिषादि पदमकैको ळ ळरदुमह-। धिक सस्थानमल्लद प्रति गलु सम्यक्त्व सामयदि ॥२२७॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । . . .: सभ्यम्हष्टि जोगा सम्यादर्शन के प्रभाव से ..विकलेन्द्रिय, भूवनवासा, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों में, पशुमों में, नपुसकों में, स्त्रियों में तथा नीच कुलों में उत्पन्न नहीं होता, हीनांग, अधिकांग, हीनायुष्क नहीं होता। : : __वह अपर्याप्तक मनुष्य, कुभोगभूमिज, , म्लेच्छ : बहिविरूपी, कुब्जक, वामन, पंगु, इत्यादि कुत्सित पर्याय में जन्म नहीं लेते तथा मायु समाप्त होने पर वहाँ से भरकर देवगति में, या सम्यक्त्व से पूर्व बान्धी हुई आयु की अपेक्षा नरक गति में रहकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करके कर्म भूमि में उत्कृष्ट मानव पर्याय धारण करते हैं तथा अपने वार्मो की निर्जरा करके उसी भव से मोक्ष को चले जाते हैं । यदि वे उस भव में मोक्ष न जा सके तो पुनः ८ भव तक मनुष्य निर्यग्गति आदि में रहकर अन्त में सम्यक्त्व ग्रहण करके महद्धिक देव होते हैं। तत्पश्चातू वहां से आकर उसी भव में अपने समस्त कर्मों का क्षय करके शीघ्र ही मोक्ष पद प्राप्त कर लेते हैं । २२७ । हलधर कुलधर मगधर । कुलिशधर मुधर्म तीर्थकर चक्रधरा--॥ सेलकुसुमास्त्रघरसमु-। द्वलविद्याधरर लक्ष्मिसम्यक्स्वफलं ॥२२८१ दोर कोळ छ द सम्यक्त्वं । दोर कोंडडेवियु बछवरणदोकुळियं ।। स्फुरितोरसाह परंपरें । 'निरंतर भव्यग्रह दोळोरचल्वेडा ॥२२६।। - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा तथा अन्य दृष्टि स्तवन ये सम्यग्दृष्टि के पांच अतिचार हैं। इन पांचों को टालकर सम्यग्दृष्टि अपने शुद्ध सम्यग्दर्शन की रक्षा करता है। इसलिए भगवान जिनेश्वर के वचनों का पूर्ण रूप से विश्वास करके इन अतिचारों से रहित सम्यग्दर्शन का पालन करना चाहिए १२२८ २२६। आगे समाचार शब्द की चार प्रकार से निरुक्ति कहते हैं:.. राग द्वेषा का प्रभाव रूप जो समतानवि है वह समाचार है, अथवा सम्यक् 'अर्थात् प्रत्तीचार रहित जो मूलगुणों का अनुष्ठान पाचरण है, अथवा प्रमत्तादि समस्त मुनियों के समान · अहिंसादि रूप जो आचार है वह समाचार है अथवा सब क्षेत्रों में हानि वृद्धि रहित कायोत्सर्गादि के सदृश परिणाम रूप पाचरण समाचार है। . ..अब समाचार के भेद कहते है: . . समाचार अर्थात् सम्यक आचरण दो प्रकार का है-औधिक और पदविभागिक । भौधिक के दस: भेद हैं और पदविभागिक समाचार अनेक तरह का : है। औधिक समाचार के दस भेद निम्नलिखित हैं:-..... Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छ, नियावा, कार, मालिका, निशिका, प्रापुच्छा, प्रतिपृच्छा, छंदन, सनिमंत्रणा और उपसंपत् इस तरह ये प्रोभिक समाचार के बस आगे इमका विषय कहते हैं: सम्यग्दर्शनादि शुद्ध परिणाम बा व्रतादिक शुभ परिणामों में हर्ष होना अपनी इच्छा से प्रवर्तना, इच्छाकार है । व्रतादि में प्रतीचार होने रूप अशुभ परिणामों में काय बचन मन की निवृत्ति करना मिथ्या शब्द कहना मिध्याकार है । सूत्र के अर्थ ग्रहण करने में 'जैसा प्राप्त ने कहा है वैसे ही है' इस प्रकार प्रतीति सहित 'तथेति' यानी-ऐसा ही है कहना तथाकार है । रहने को जगह से निकलते समय देवता गृहस्थ आदि से पूछकर गमन करना अथवा पापक्रियादिक से मन को रोकना पासिका है। नवीन स्थान में प्रवेश करते समय वहां के रहनेवालों से पूछकर पवेश करमा अथवा सम्यग्दर्शनादि में स्थिरभाष रहना निषेधिका है। अपने पठनादि कार्य के प्रारम्भ करने में गुरु आदिक को बन्दना-पूर्वक प्रश्न करना आपृच्छा है । समान धर्म वाले साधर्मी तथा दीक्षा गुरु आदि गुरु इन दोनों से पहले दिये हुए पुस्तकादि उपकरसों को फिर लेने के अभिप्राय से पूछना प्रतिपृच्छा है । ग्रहण किये पुस्तकादि उपकरणों को देनेवाले के अभिप्राय के अनुकूल रखना छंदन है तथा नहीं लिए हुए अन्य द्रव्य को प्रयोजन के लिए सत्कार पूर्वक याचना अथवा विनय से रखना निमंत्रणा है । और गुरुकुल में (अाम्नाय में) में आपका हूं, ऐसा कहकर उनके अनुकूल माचरण करना उपसंपत् है। ऐसे दस प्रकार प्राधिक समाचार हैं। ऊपर दस प्रकार के औधिक समाचार का संक्षप से वर्णन किया गया, अब पद-विभागी समाचार का वर्णन करते हैं :--- जिस समय सूर्य उदय होला है तब से लेकर समस्त दिन रात को परिपाटो में मुनि महाराज नियमादिकों को निरंतर प्रापरण करें, यह प्रत्यक्ष रूप पद विभागी समाचार मिनेन्द्र देव ने कहा है: आगे प्रोधिक के दस भेटों का स्वरूप कहते हुए इच्छाकार को कहते संयम के उपकरण पीछी में तथा ऋतज्ञान के उपकरण पुस्तक में और शोच के उपकरण, कमंडल में; आहारादि में, प्रोषपाधि में, उपकालादि में, ग्रात्तापन आदि योगों में, इच्छाकार करना अर्थात् मन को प्रधाना चाहिए। अब मिथ्याकार का स्वरूप कहते हैं: Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९) जा प्रतादिक में प्रती चार रूप पाप मैंने किया हो वह मिथ्या होवे ऐसे सिवा किये हुए पाप को फिर करने की इच्छा नहीं करता और मनरूप अंतरंग भाव से प्रतिक्रमण करता है उसी के दुष्कृत में मिथ्याकार होता है। प्रागे तथाकार का स्वरूप कहते हैं : जीवादिक के व्याख्यान का सुनना, सिद्धान्त का श्रवण, परम्परा से चले पाये मंत्रतंत्रादि का उपदेश और सूत्रादि के अर्थ में जो ग्रहंत देव ने कहा है सो सत्य है, ऐसा समझना तथाकार है । भागे निषेधिका व प्रासिका को कहते हैं :-- जलकर विदारे हुए प्रदेश रूप कन्दर, पल के मध्य में जलरहित प्रदेश रूप पुलिन, पर्पत के पसवाडे छेदा गुमा इत्यादि निजन्तु स्थानों में प्रवेश करने के समय निषेधिका करे । और निकलने के समय प्रासिका करे। . प्रश्न- कैसे स्थान पर करना चाहिए ? उसे कहते हैं: व्रतपूर्वक उष्णता का सहनारूप आतापनादि ग्रहण में, आहारादि की इच्छा में तथा अन्य प्रामादिक को जाने में नमस्कार पूर्वक प्राचार्यादिकों से पूछना तथा उनके कथनानुसार करना प्रापृच्छा है। आगे प्रतिपृच्छा को कहते हैं ; किसी भी महान कार्य को अपने गुरु, प्रर्वतक, स्थविरादिक से पूछकर करना चाहिए उस कार्य को करने के लिए दूसरी वार उनसे तथा अन्य साधर्मों साधुओं से पूछना प्रतिपृच्छा है। - आगे छन्दन को कहते हैं : प्राचार्यादिकों द्वारा दिये गये पुस्तकादिक उपकरणों में, वन्दना सूत्र के छन्दन का अभिप्राय, अस्पष्ट अर्थ को पूछना प्राचार्यादि की इच्छा के अमुकूल आचरण करना छन्दन है। आगे निमंत्रणा सूत्र को कहते है :-- गुरु अथवा साधर्मी से पुस्तक व कमंडलु आदि द्रव्य को लेना चाहे तो उनसे नम्रीभूत होकर याचना करे। उसे निमंत्रणा कहते हैं। अब उपसम्पत् के भेद कहते हैं : गुरुजनों के लिए मैं आपका हूँ, ऐसा आत्मसमर्पण करना उपसम्पत्, है । उसके पांच प्रकार हैं विनय में, क्षेत्र में, मार्ग में, सुखदुःख में और सूत्र में करना चाहिए। अब विनय में उपसम्पत को कहते हैं: Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : .. .. अन्यसंघ के 'पाये हुए मुनियों का अंगमर्दनःप्रियवन्त्रत रूप विनय करना, पासनादि पर बैठाना इत्यादि उपचार करना, गुरु के : विराजने का स्थाने पूछना, पागमन का रास्ता पछनासंस्तर पुस्तक आदि उपकरणों का देना और उनके अनुकूल प्राचरणादिक करना विसयोपसम्मत है !! ...... :::आगे. क्षेत्रोपसम्पत् कहते हैं: F.', ": : । ...... ..:: : संयम तप ':उपशमादि शुग का सरक्षारूप: शील तथा जीवनपर्यन्त त्यागरूप यम, काल नियम से त्याग कारमेन रूप नियम इत्यादिक जिस स्थान में रहने से बढ़ें उत्कृष्ट में उस क्षेत्र में रहता क्षेत्रोपसंपतु. है..... . . ..पाये मार्गोपसंपत् कहते हैं : ....... ... . .. अन्य संघ के आये हुये मुनि तथा अपने स्थान में रहने वाले मुनियों से . आपस में ग्राने जाने के विषय में कुशल का पुछना कि 'आप अानन्द से प्राये. व सुख से पहुंचे, इस तरह पूछना संयमतपज्ञान योग गुणों से सहित मुनिराजों के । मार्गोपसंपत् होता है। . आगे सुखदुःखोपसंपत् को कहते हैं:-.. सुख दुःख युक्त पुरुषों को वसतिका आहार औषधि प्रादि से उपकार करना अर्थात् शिष्यादि का लाभ होने पर कमंडलु आदि देना व्याधि से पीड़ित हुये को सुखरूप सोने का स्थान बैठने का स्थान बताना, ग्रीषध अन्नपान मिलने का प्रकार बताना, अंग मलना तथा 'मैं अपका हूं आप अाज्ञा करें, वह करूं, मेरे पुस्तक शिष्यादि अापके ही हैं, ऐसा वचन कहना सुखदुःखोपसंपत् है ! आगे सूत्रोपसंपत् का स्वरूप कहते हैं:- ..... .... सूत्रोपसंपत् के तीन, भेद हैं । सूत्र, अर्थ और उभय । सूत्र के लिये यत्न करना सूत्रोपसंपत्, अर्थ के लिए यत्न करना अर्थोपसंपत् तथा दोनों के लिए यल करना सूत्रार्थोपसंपत् है । यह एक एक भी तीन तरह है-लौकिक, वैदिक और सामाजिक । इस प्रकार नौ भेद हैं । व्याकरण गरिणत आदि लौकिक शास्त्र हैं, सिद्धांत शास्त्र वैदिक कहे जाते हैं, रूद्वादन्यायशास्त्र व अध्यात्मशास्त्र सामाजिक शास्त्र जानना । . . . आगे पदविभागिक समाचार को कहते हैं: --- . . .:....: ...... वीर्य, धैर्यः, विद्याचल उत्साह आदि से समर्थ कोई : मुनिराज आपने गुरु से सीखे हुए सभी शास्त्रों को जानकर मन बचन काय से विनय सहित. प्रणाम करके प्रमादरहित हुन्या पुद्रे और याज्ञा मांगे तो वह पदविभागिक समाचार है। गुरु से कसे पूछे, यह बतलाते हैं ? ..! ! . . : 1 ::: Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२१) हे गुरुदेव ! मैं आपके चरण कमलों के प्रसाद से सभी शास्त्रों में अन्य आचार्य की अपेक्षा पारगामी होना चाहता हूँ | इस प्रकार गुरु से ३-५ या ७ बार पूछना चाहिए। ऐसा करने से उत्साह और विनय मालूम पड़ता है। इस प्रकार अपने गुरुजनों से प्राज्ञा लेकर साथ में तीन या दो मुनियों को लेकर जाना चाहिए । इस प्रकार दस प्रकार के समाचारों का प्रतिपादन किया गया । जो व्यक्ति इन दश प्रकार समाचारों का पालन करते हुये अपने गुरु के प्रति श्रद्धा रखते हैं उनके विनय ज्ञान व वैराग्य की वृद्धि होती है तथा संसार, शरीर और भोग से निवेग व विकार रहित हेयोपादेय तत्त्वों में प्रवीणता प्राप्त हुआ करती हैं । अन व आदि बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं में उनकी सदा भावना बनी रहती है और इसी के द्वारा उनके ऊपर आने वाले उपसर्गों को सहन करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार मुनियों के समाचार का संक्षिप्त वर्णन किया है आर्यिकाओं का समाचार: आर्यिकायें परस्पर में अनुकूल रहती हैं । ईर्ष्याभाव नहीं करती, प्रापस में प्रतिपालन में तत्पर रहती हैं, क्रोध, वैर, मायाचारी इन तीनों से रहित होती हैं । लोकापवाद से, भयरूप लज्जा परिणाम व न्याय मार्ग में प्रवर्तने रूप मर्यादा, दोनों कुल के योग्य आचरण इन गुणों से सहित होती हैं । शास्त्र पढ़ने में, पढ़े शास्त्र के पाठ करने में, शास्त्र सुनने में, श्रुत के चितवन में अथवा अनित्यादि भावनाओं में और तप विनय संयम इन सबमें प्रायिकायें तत्पर रहती हैं तथा ज्ञानाभ्यास शुभयोग में सदा संलग्न रहती हैं। जिनके वस्त्र विकार रहित होते हैं, शरीर का प्राकार भी विकार रहित होता है, शरीर पसेव व मल से लिप्त है तथा संस्कार (सजावट) रहित है । क्षमादि धर्म, गुरु आदि की संतान रूप कुल, यश, व्रत के समान जिनका प्राचरण परम विशुद्ध हो, ऐसी प्रायिकायें होती हैं। जहां असंयमी न रहें, ऐसे स्थान में, बाधा रहित स्थान में, क्लेश रहित गमन योग्य स्थान में दो तीन अथवा बहुत प्रायिकाएं एक साथ रह सकती हैं। यायिकाओं को बिना प्रयोजन पराये स्थान पर नहीं जाना चाहिये 1 यदि अवश्य जाना हो तो भिक्षा आदि काल में बड़ी आग्निका से पूछकर अन्य ग्रायिकाओं को साथ में लेकर ही जाना चाहिए। प्रागे आयिकाओं को इतनी क्रियायें नहीं करनी चाहिये:-- आर्यिकाओं को अपनी बसतिका तथा अन्य घर में रोना नहीं चाहिये, TRA Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२ ) बालकदि को स्नान और भोजन नहीं कराना चाहिये । रसोई करना सूत कातना, सेना, प्रसि, मषि आदि छह कर्म करना, संयमी जनों के पैर धोना, साफ करना "या राग-पूर्वक गीत इत्यादि क्रियायें नहीं करनी चाहिये । वामक्षा के लिए श्रथवा श्राचार्यादिकों की वंदना के लिए तीन, पांच व सात मिलकर जावं । श्रापस में एक दूसरे की रक्षा करें तथा वृद्धा श्रामिका के साथ जावें । आगे संदा करने की रीति बतलाते हैं: आर्यिकायें आचार्यों को पांच हाथ दूर से, उपाध्याय को छह हाथ दूर से और साधुओं को सात हाथ दूर से गौ के आसन से बैठकर वंदना करती हैं आलोचना अध्ययन स्तुति भी करती है । जो साधु अथवा आर्यिका इस प्रकार आचरण करते हैं वे जगत में पूजा, यश व सुख को पाकर सप्त परम स्थान को प्राप्त करते हैं:-- अब आगे सप्त परमस्थान का वर्णन करते हैं । सप्त परमस्थानानि ॥७०॥ १ सज्जा २ सद्गृहस्थत्व, ३ पारिव्राज्यत्व, ४ देवेन्द्रत्व, ५ चक्रवर्तित्व, ६ परमार्हन्त्य, ७ निर्वाणत्व ऐसे सात परम स्थान हैं । देश, कुल, उत्तम जाति इत्यादि शुद्धि से युक्त उत्तम कुलमें जन्म लेकर सम्यग्दृष्टि होना सज्जातित्व है । इसी तरह क्रम से वृद्धि को प्राप्त होकर सत्पद में आवरण करते हुए भगवान जिनेश्वर के कहे हुए उपासकाचार में निष्णात होकर श्रावकों में शिरोमणि होकर श्रावक धर्म के आचरण में उत्तरोत्तर वृद्धि करते रहना सद्गृहस्थत्व है । उस गृहस्थ अवस्था से उदासीन होकर तथा संसार शरीर और भोग की निविग्नता में परायण होकर अपनी संतान को समस्त गृहभार देकर के दिव्य तपस्वी के चरण कमलों में जाकर जातरूप धारण करना, बाह्याभ्यन्तर उत्कृष्ट तप का आचारण करते हुये ११ अंग का पाठो होकर षोडश भावनाओं को भाता हुआ तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके बुद्धि ऋद्धि, तपांऋद्धि, वैऋियिक ऋद्धि श्रौषधि ऋद्धि, बल ऋद्धि, रस ऋद्धि तथा अक्षीण ऋद्धि इन सात ऋद्धियों को प्राप्त करके दीक्षा, शिक्षा, गरण-पोषण श्रात्म संसार - संलेखना में काल को व्यतीत करते हुए उत्तमार्य काल में चतुविधि श्राराधना पुरस्कार पूर्वक समाधि fafe के साथ प्राणोत्सर्ग करना परिव्राजकत्व कहलाता है। इस फल से देव लोक में इन्द्ररूप में जन्म लेकर निजाम्बर भूषण माला श्रादि से सुशोभित J Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१३ ) अत्यन्त दिव्य शरीर सहित, अमित जीवित मानसिक ग्राहारी, शुभ लक्षणों से समन्वित होकर विविध भांति के लोगों को भोगना देवन्द्र कहलाता है। वहां से चयकर मृत्युलोक में जन्म लेकर तीन ज्ञान के धारी होकर सुरेन्द्रबंध गर्भावतरण, जन्माभिषेक कल्याण को प्राप्त होकर स्वाभाविक अतिशय सहित कुमार काल व्यतीत होने के अनन्तर पट्खण्ड पृथ्वी का अधिपति होना चक्रतत्त्व है । उस चक्रवर्ती पद से जब विरक्त होते हैं तब लोकान्तिक देव श्राकर उन्हें सम्बोधित करते हैं। तत्पश्चात् सम्बोधन करते ही देवों द्वारा निर्मित शिविका में श्रारूढ़ होकर वन में जाकर दीक्षा धारण करते हैं । मूल और उत्तर गुणों में अपने छमस्थ काल को बिता कर शुक्ल ध्यान से चारों घातिया कर्मों को नष्ट करके अनन्त चतुष्टय को प्राप्त करके समवशरण लक्ष्मी से युक्त होना परमार्हन्त्य पद कहलाता है । पहले के चारों घातिया कर्मों को नष्ट करने से दोष चार अघाति कर्म दग्ध रज्जु के समान हो जाते हैं प्रघाति चतुष्टय अनासुष्य में समान न होने के कारण उसे समान करने के लिए दंड, कपाट, प्रतर तथा लोक पूर्ण समुदघात करके योग निरोध करके निःशेष कर्मों को नाश करके सम्यक्त्वादि आठ गुणों से युक्त होकर सिद्ध पद को प्राप्त करना, निर्वा ग्रात्व परम स्थान कहलाता है। जो मनुष्य उपर्युक्त परम स्थानों की पूजाधाराधना करता है वह तीनों लोकों में बंदनीय होकर अन्त में शुद्ध रत्नत्रय का धारण करके शुद्धात्म यानी मोक्ष पद की प्राप्ति कर लेता है । 7 ग्रागे चूलिका का वर्णन करते हैं। — कीरिंगका वार्ता वाक्यानामुक्तिरुक्त' प्रकीर्णकम् । उक्ता उक्ता मृतास्यन्विविन्दुसाधनको विधैः ॥ आगे आचार्य का लक्षण कहते हैं: प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः । प्रास्ताश: प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः ॥ प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारो परानिन्दया । पाकाग्रणी गुणनिधिः प्रस्पष्ट सृष्टाक्षरः ॥५२॥ श्रतमधिकलं शुद्धा वृत्तिः पर प्रतिबोधने । परपरिणतिरुरुद्योगो मार्गप्रवर्तनसद्विधा ॥ बुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुता स्पृहा । प्रतिपतिमुरगा यस्मिन्नन्ये च सस्तु गुरुः सप्ताम् ॥५३॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२४ ) प्रणम्य प गुरून्भक्त्या तस्यात्मानं समर्प्य सः। द्रव्यलिङ्ग प्रगृल्लोथाद् भापलिङ्गाभिवृद्धये ॥५४॥ दीक्षायोग्यास्त्रयो वरणश्चिातुर्वविधोचिताः । मनोवाक्कायचेष्टाभिर्मताः सर्वेऽपि जन्तवः ॥५५॥ सकलं विकलञ्चेति द्वयं व्रतमुदीरितम् । तवर्य हि विधर्थिः शूद्राणां विकलं व्रतम् ॥५६॥ अणुव्रतं पुरा धृत्वा परावतमहोग्रताः ।। द्विजातयस्त्रिवाः शूद्रायेऽवतोचिताः ॥५७।। सर्वशदीक्षरणे योग्या विप्रक्षत्रियवाणिजाः । कुलजातिविहीनानांन दीक्षा जिनशासने ॥५॥ वित्रो वा क्षत्रियो विड़ वा सम्पूर्णाक्षः शरीरकः । नाति:लो न वृद्धोऽयं नियाधिश्च तपःक्षमः ॥५६॥ केवलज्ञानसंभूते अर्हत्सकलसंयमः । तस्योत्पत्तिस्त्रिवर्णोऽपि क्रियोच्छर्गोत्रकर्मसु ॥६०॥ प्राझो लोकव्यवहृतमतिना तेन मोहोज्झितेन । प्रागविज्ञातसुदेशो द्विजनृपतिवरिणग्वरणी: वर्णाङ्गपूर्णः । भूमिर्लोकाविरुद्धः स्वजनपरिजनोन्मोचितो वोतमोतः। चित्रापस्माररोगाद्यपगत इति च ज्ञानसंकीर्तनाद्यः ॥६॥ देशकुलजाइसुद्धो विसुद्धमणवयनकायसंजुत्ता ।। लोगजुगुच्छारहिदो पुरिसो जिनरूपधारणे जोग्गो ॥६२॥ पाचेलक्यतं यच्च नीचानां मुनिपुङ्गवः । जिनाज्ञाया कृति कृत्वा पर्येति भवसागरम् ॥६३॥ द्रव्य लिङ्गी का लक्षणयस्य चोत्पाटितश्मन केशो हिसादिवजितः । सद पं निःप्रतीकारं यथाजातः स भुञ्चयेत् । . भाव लिगीनान्यादिनोप्याहं नानिशुमेदिनायतिः वृषा सन्मतिविलिङ्गः स्यात् नाग्न्याक्षजयधारिणा । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) लिंगद्वयमिदं चैव ज्ञानदृक्ताम्य संयतम् । मोक्षहेतुर्भवेत् पुंसां मूर्च्छारम्भादिवजितः ॥ स्त्री के संयम की पूर्णता - लोकद्वयापेक्षो हि धर्मः सर्वज्ञभाषितः । २ अतस्तस्मिन् कृतस्त्रीणां लिङ्गः सप्रन्थमिष्यते ॥ कर्मभूद्रव्यनारीला नाद्य संहननत्रयम् । वस्त्रादानचरित्रं च तासां मुक्तिकथा वृथा । तेनैव जन्मना नास्ति मुक्तिः स्त्रीणां हि निश्चयात् । तासां योग्यतपश्चिन्हं पृथक् वस्त्रत्योपलक्षितम् ॥ एकमप्येषु दोषेषु विना नारी न वर्तते । संवाहित संदरणं ततः ॥ चित्तस्रवोऽल्पशक्तिश्च रजःप्रस्खलनं तथा । स्त्रीत्पत्तिश्च सूक्ष्माणामपर्याप्तिनूरखां भवेत् ॥ कक्षस्तनान्तदेशे नाभी गुह्यं च संभवः । सूक्ष्मारणां च तथा स्त्रीणां संयमो नास्ति तत्वतः ॥ दर्शनं निर्मलं ज्ञानं सूत्रपाठेन बोधितम् । यद्यप्युत्राञ्चरेच्चर्या तथापि स्त्री न सिध्यति ॥ यदि त्रिरत्नमात्रेण सा पुंसां नग्नता वृथा । तिरश्वामपि दुर्वारा निवासीप्तिलिंगता ॥ मुक्तेश्चेदस्ति किं तासां प्रतिमास्तवनान्यपि । क्रियन्ते पूज्यते तासां मुक्तेरस्तु जलांजलिः ॥ ततस्तद्योग्यमेवोक्तं लिंगं स्त्रीरणाँ जिनात्तमैः । तल्लिंगयोग्यचारित्रं सज्जातिप्रकटाप्तता ॥ देशव्रतानि तैस्तासां श्रारोप्यन्ते बुधैस्ततः । महाव्रतानि सज्जातिज्ञप्त्यर्थमुपचारतः ॥ पुरुवेयं वेयंता जे पुरिसा खवगसेढिमारूढा । सोदयेन वि तहा भाणवजुत्ता हु सिज्यंति || जे जो अर्थात् कोई, पुरिसा - पुरुष पुग्वेयंवेयंता - भाव पुरुष वेद को Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) र अनुभव करनेवाले, खवगसे ढिमारूढा-क्षपक श्रेणी चढे हुए, भागवताहनिज शुद्ध निश्चयात्म-ध्यानोपयोग युक्त होकर, तेह-वे, सिज्झन्ति सिद्ध पर को प्राप्त होते हैं, तहा-उसी तरह द्रव्य से पुरुष, सेसोदयेरण-विभाव से स्त्री बेद नपुंसक वेद के उदय से युवत परमात्मध्यानोपयोग में रत रहनेवाले मोक्षसिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। सफल विमल केवल ज्ञानी दर्शनानन्त-सुख · वीर्यादिक के अधिपति ऐसे भगवान' जिनेश्वर घाति कर्म के निरवशेष क्षय से प्राप्त हए शुभ और शुद्ध ऐसे कर्म और नोकर्म के विशिष्ट वर्गणाओं के द्वारा होनेवाला कर्म नोकर्म आहार करते हैं, इसके अलावा जो चार प्रकार के आहार हैं वे केवली भगवान के नहीं हैं 1 द्रव्य स्त्री के तद्भव मोक्ष की माप्ति का अभाव है। ऐसा समझकर कभो इसके प्रति विवाद नहीं करना चाहिए। ऐसा ससझकर सर्व संग परिग्रहसे रहित निग्रंथ लिंग ही मोक्ष के लिए कारण है और स्वरूपोपलब्धि ही मुक्ति है और निज नित्यानन्दामृत सेवन ही मोक्ष फल है ऐसा निश्चय करना चाहिए। नाना जीवो नाना कम्मं नाना विहोह बेलदि । तम्हामयनविबादं सगपर समयेषु बज्जज्जो ॥१६॥ जं अण्णाणी कम्मं खवेइ भवसहस्सकोडोहि । तपणाणोतिय गुत्तो खयेइ उस्सासमेत न ॥२०॥ कुशलस्सतसोणि उरणसस्स संजमो समपरस्सविरग्यो। सुदभावरणस्स तिणि सुदभवाणं कुरणहं ॥२१॥ समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुःखो पसंसरिंगदसमो। समलेरण वकंच गाविय जीवियमरणे समो समरणो २२१ एअग्गगदो समणा ए एण्णानित्तिदेसू अट्ठसु। -रगस्थित्ती प्रागमदो पागम चेत्तो तदो छट्ठो ॥२३॥ श्रमरण उत्तम पात्र है। तथाहि श्रमणाः सर्वेभ्यः ज्येष्ठा: वरिष्ठाः, शुद्धातिसमाधिनिष्ठत्वात् नित्यानित्यवस्तुविवेकित्वात् समसमाधिसंपन्नत्वात् अत्रामुत्र भोगकांक्षारहितत्वात् तत्वयाथोल्पैकवदित्वात् युक्त्या विचारवत्त्वात् तत्त्वाध्यात्म-श्रवणाधिमत्वात् अनुक्त साबनं तदुक्त साधनं यथा संप्रतिपन्ने पोगी तदा चैते श्रमणाः । तस्मात्सर्वेभ्यः श्रेष्ठाः भवन्ति तथा श्रमसः सर्वेभ्यः उत्कृष्टाः विशिष्टाश्च तत्त्वाध्यात्म्यप्रतिपादकत्वात् । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७) आगमचक्खू साहू इदियचक्खूरिण सव्वभूदानि । देवा य योहिचक्खू सिद्धा पुरण संघदो चक्खू ॥२४॥ शास्त्रहीनश्च यो भिक्षुर्न चान्यश्च भवेदसौ । तस्थाज्ञानस्य न ध्यानं ध्यानाभावान्न निर्वृतिः 1७६।। मृच्छालिनीमहिषहंससुखस्वभावाः मारिकङ्गमलकाजलौकसाम्याः ॥ सच्छिद्रकुम्भपशुसर्पशिलोपमानाः । हे भाका भूति गराधा अति ॥२३३॥ आलस्यो मंदबुदिश्चसुखिनो व्याधिपीडिताः ।.. निद्रालुः कामुकश्चेति, षडेते शास्त्रयजिताः ।७७। असूयकत्वं सतताविचारो दुराग्रहः शक्तिविमाननंच । पुसामिमे पंच भवन्ति दोषास्तत्त्वावबोधप्रतिबंधहेतुः १७८। अर्जनत्वं विनयो विवेकः , परीक्षणं तत्त्वविनिश्चयश्च ।। एते गुणा पंच भवंति तत्त्य , स्वात्मत्ववान्धर्म यथा पर:स्यात् ७६। प्राचार्यपुस्तकसहायनिवासवल्भः , वाहास्थिताः पठनपंचगुणा भवन्ति । प्रारोग्यबुद्धिविनयोद्यमशास्त्ररागः , तेभ्यंतरा पठनपंचगुणा भवंति ।।१०।। प्राचार्योपासनं श्रद्धा शास्त्रार्थस्य विवेचनम् । तत्त्रयाणामनुष्ठान श्रेयःप्राप्त्यै परे गुरगाः ।।१।। पल्यङ्कासनगं सरि-पावं नत्वा कृताञ्जलिः । सूत्रस्याध्ययनं कुर्यात् कक्षादिस्वांगमस्पृशत् ॥२॥ क्रियाकलापमल्पाल्पसूत्रमाचार्यवर्णनम् । पठेदय पुराणानि त्रैलोकस्थितिवर्णनम् ॥३॥ सिद्धांततर्कमनाङ्गवाह्म देवार्थदेशनम् । स्वीयशक्त्यनुसारेण भक्त्या स्वर्मोक्षकांक्षया ।।६४॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८ ) वारसविहस्य नंतर बाहिरे कुशलविट्टि । रविविरण वियहोहदि सज्जायसम्मत्तमोक्कम्मं ॥ २५ ॥ दयादिकलो पठेदि पुत्तंथ सिक्खलोये । - लसमाहि प्रसभायं कलहं वा इंदियोगंच ॥ २६ ॥ अष्टम्यामध्ययनं गुरुशिष्यद्वयवियोगमाहेति । कलह्स्तु पौरिंगमास्यां करोति विघ्नं चतुर्दश्यां ॥८५॥ कृष्णाचतुर्दश्यां यदि श्रधीयते साधवोध्यमावास्यां । विद्योपसविभयो विवासवृत्ति प्रयांति सर्वेप्यचिरात् ॥ ८६ ॥ मध्याह्न जिनरूपं नाशयति संध्ययोश्च व्याधिदं । मध्यमरात्रौ पठिते तुष्य तोपप्रियत्वमुपयान्ति ॥ ८७ श्रष्टमी त्युपाध्यायं शिष्यं हंति चतुर्दशी । विद्यां पंचदशी हंति सर्वहि प्रतिपद्धरेत् ॥ ८८ ॥ इन इलोकों का ग्रथं सरल होने के कारण तथा ग्रन्थ बढ़ जाने के भ से छोड़ दिया गया है । इति श्री माघनंद्याचार्य विरचित शास्त्र सारसमुच्चय अन्तर्गत चरण । - तुयोग का कथन समाप्त हुआ । द्रव्यानुयोग सिद्धान्नत्वा प्रवक्ष्यामि द्रव्यानुयोगसंज्ञकम् । मङ्गलादिप्रसिद्ध्यर्थं स्वात्मोत्थसुखसिद्धये ॥ अब इसके पश्चात् मंगलादि - प्रसिद्ध आत्म-सुख - सिद्धि के लिए सिद्धों को नमस्कार करके में द्रव्यानुयोग को कहूँगा । गम्भीरं मधुरं मनोहरतरं दोषव्यपेतं हितम् । कण्ठोष्ठादिवचोनिमित्तरहितं नो वातरोधोद्गतम् ॥ स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथकं निःशेष भाषात्मकमे । बूरासन्नसम निरुपम जैनं वचः पातु वः || श्री जितेन्द्र भगवान को वाणी गम्भीर, मधुर अत्यन्त मनोहर दोषरहित, हितकारी, कण्ठ श्रोष्ठ तथा तालु आदि की क्रिया से रहित, वायु से न रुकनेवाणी स्पष्ट, अभीष्ट वस्तु को कहने वाली और संसार की समस्त भाषाओं से परिपूर्ण १ * 4 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६) है। तथा दूर और समीप से ठीक सुनाई देनी वाली होती है, अतः ऐसी अनुपम - जिन वाणी हम सबकी रक्षा करे । सिद्धि बुद्धिर्जयो वृद्धिज्ञिः पुष्टिस्तथं व च। ओंकारश्चाथ शब्दश्च नान्दी मंगलवाचकः ॥ सिखि, बुद्धि, जय, वृद्धि, राजपुष्टि, ओंकार, अथ शब्द तथा नान्दी ये पाठ मंगल-वाचक कहलाते हैं। हेतौ निदर्शने प्रश्ने स्तुतौ कण्ठसमीकृते। अनन्तर्योऽषिकारस्ते मांगल्येतयिष्यते ।। इस शास्त्र में कथित जो मंगलार्थ शब्द है वह अन्तराधिकाकार्थ निमित्त कहने से तथा मंगल निमित्त फल का परिणाम कर्ता है प्रादि अधिकारों को कहने के पश्चात् प्राचार्य को शास्त्र का व्याख्यान करना चाहिए । इस न्याय के अनुसार मंगलाचरण करने के बाद न्याय और नय को न जाननेवाले अज्ञानी जीवों के हितार्थ हेयोपादेय तत्वों का परिज्ञान कराने के लिए द्रव्यानुयोग को कहते हैं ।। अथ षड् द्रव्यारिंग ॥१॥ अर्थ-चरणानुयोग कथन के पश्चात् जीव, अजीव, धर्म; अधर्म द्रव्य, माकाश और काल ये छः द्रव्य हैं। यहां प्रश्न उठता है कि इन छहों का नाम 'द्रव्य' क्यों पड़ा ? उसका उत्तर यह है कि "द्रवतीति द्रव्यम्, त्यति गच्छति परिणामं इति यानी-प्रतीत अनन्तकाल में इन्होंने परिणमन किया है और. वर्तमान तथा अनागत काल में परिणाम करते हुए भी सत्ता लक्षण वाले हैं, तथा रहेंगे उत्पाद व्यय प्रीश्य से युक्त हैं, एवं गुण-पर्याय सहित होने के कारण इन्हें द्रव्य कहते हैं । उपयुक तीनों बातों से पृथक द्रव्य कभी नहीं रहता। अब द्रव्यों का लक्षण कहते हैं: १-ज्ञान दर्शन उपयोगी जीव द्रव्य है । २... वर्ण रस गंध स्पर्श से गमन पूरण स्वरूप होने के कारण पुद्गल द्रव्य है। ३-धर्म द्रव्य प्रमूर्त, अनादिनिधन, अगुरुल घुमय तथा लोकाकार है । अन्तरंग गमन शक्ति से युक्त जीव पुद्गलों के गमनागमन में बहिरंग सहकारी है। जैसे पानी मछली प्रावि जलचर जीवों के गमनागमन के लिए सहकारी कारण होता है उसी प्रकार धर्म द्रव्य बहिरंग सहकारी कारण होता है । वह अपना निज स्वरूप छोड़कर कभी पर-रूप नहीं होता । यह प्रर्थपर्याय है, व्यम्जन पर्याय नहीं । 'अर्थ-पर्याय Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३० ) एक ही समय में उत्पत्ति विनाश वाला है, द्रव्य स्वरूप से नित्य है । भव अर्थ - पर्याय के स्वरूप को कहते हैं : ܀ लघु हुरा के कारण परिणमनात्मक जो षडवृद्धि एक ही हानि वृद्धि होती है सो अर्थ पर्याय है १- अनन्त भाग वृद्धि, २ - असंख्यात भाग वृद्धि ३ - संख्यात भाग वृद्धि, ४ संख्यात गुण वृद्धि, ५ - प्रसंख्यात गुण वृद्धि तथा ६ - अनन्त गुण वृद्धि ये ६ प्रकार की षड् वृद्धि कहलाती हैं । १ - अनन्तभाग हानि, २ - प्रसंख्यात भाग हानि, ३ - संख्यात भाग हानि, ४- संख्यात गुण हानि, ५ - प्रसंख्यातगुण हानि तथा अनंत गुण हानि, ये षडहानियां हैं प्रनाद्यनिधने द्रव्ये स्वपर्याया: प्रतिक्षणम् + उन्मज्जन्तिनिमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जले ॥ इनिदरसतत्वरूचियि । दिनिदिक्कु तत्व निर्नयं वळिकदरि ॥ दिनिदात्मोत्थिक सुखमि । तिनिनिदे से बिसलुकि दरिनयसार तेवं |२| - इस प्रकार द्रव्य गुण पर्याय से धर्मद्रव्य को कहा गया है । और इसी तरह अधर्म द्रव्य का भी कथन किया जाता है । गुणों से अन्तरंग स्थिति परिणत हुए जीव पुद्गल की स्थिति का अधर्म द्रव्य बहिरंग सहकारी कारण होता है जैसे अन्तरंग स्थिति परिगत होकर मार्ग में चलनेवाले मनुष्यों के लिए वृक्षादि अपनी छाया देकर उन्हें ठहराने में बहिरंग सहकारी होते हैं । गतिग स्थितिकारण । मतिशयद देरडुमल्ले धर्माधर्म || मतिवंतररिषु भाविसे । अतम दुसंवित्तियागविवकु मेवगेयं ॥ अब आगे श्राकाश द्रव्य का लक्षण कहते हैं:- श्राकाश एक प्रखण्ड द्रव्य है, किन्तु यदि उसे परमाणुओं के द्वारा नापा जाय तो वह फैले हुए श्रनन्त परमाणुओं के बराबर होता है और सभी द्रश्यों को अवकाश देना श्राकाश द्रव्य का उपकार है । यहां पर शंका होती है कि एक ही प्रकाश में अनेक द्रव्य कैसे समा जाते हैं लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में अनन्त परमाणुत्रों तथा सूक्ष्म स्कन्धों का आवास होता है। यह कैसे है, इसे दृष्टान्त देकर समाधान किया जाता है । जिस प्रकार मिट्टी के तीन घड़ों में से क्रमशः पृथक पृथक, एक को राख Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१ ) से, दूसरे को पानी से और तीसरे को सुई से भर दिया जाय इसके बाद वे तोना घड़े केवल एक राष्ट्र के घड़े में ही समा जाते है, अंडी के दूध से भरे हुए घड़े में शहद से परिपूर्ण दूसरा घड़ा भी समाविष्ट हो सकता है, चावल से भरे घड़े में दही का भरा हुआ घट सभा सकता है तथा नागगद्यान श्रर्थात् तराजू में हजारों तोले स्वर्ण समाजाता है उसी प्रकार आकाश द्रव्य में अवगाहन शक्ति विद्यमान रहने के कारण वह अपने अन्दर असंख्यात प्रदेशी धर्माधर्म द्रव्यों को, अनन्त परमाणु वाले पुद्गल द्रव्य को तथा लोकाकाश प्रमारण गणना वाले काला को गूढ़ रूप से अवकाश देने में समर्थ रहता है । प्रदेश का लक्षणः - पुद्गल का परमाणु जितने प्रकाश में रहता है वह प्रदेश है | वह प्रदेश न तो अग्नि से जलने वाला, न पानी से भीगनेवाला, न वायु से सूखनेवाला तथा न कीचड़ में पड़कर सड़नेवाला है। न वज्र से टूटनेवाला हूँ तथा प्रत्येक द्रव्य भी कभी नाश न होकर सदा स्थिर रहनेवाला है । श्रवगहन शक्तिपुळ्ळ दु । भुवनवोळारय् दुनोळ हडाकाशयेन । सविशेष विदमशम- दवकाशंगोट्टडेदु द्रव्यं गलिगं |४| और तात्पर्य यह है कि आकाश की पर्याय होती है, व्यञ्जन पर्याय नहीं, पर्याय से वह एक ही समय में उत्पत्ति व विनाश सहित है । द्रव्यार्थिक नय से वह नित्य है । तथा धर्म श्रधर्म ग्राकाश अपने में समान होकर काल से प्रवर्तते हैं । धर्मधर्मं तो केवल वाह्य उपचार वर्तते हैं । अर्थात् सभी द्रव्य आकाश द्रव्य में समाविष्ट हो जाते हैं आकाश अपने को स्वयमेव आधारभूत है । धर्म द्रव्य और अधर्मं द्रव्य समस्त लोकाकाश में पूर्ण व्याप्त हैं । जैसे मकान के एक कोने में घड़ा रक्खा जाता है उस तरह धर्मप्रधमं द्रव्य नहीं रहते, पर जैसे तिल में तेल पाया जाता है उसी प्रकार दोनों द्रव्य समस्त लोकाकाश में पाये जाते हैं । . शंका-यदि धर्मादि द्रव्यों का प्रकाश द्रव्य आधार हूं तो आकाश द्रव्य का आधार क्या है ? समाधान - प्रकाश का आधार अन्य कोई नहीं, वह स्वयं ही अपना श्राधार है । वह सब से बड़ा है । शंका- यदि श्राकाश अपना हो आधार है तो धर्मादि द्रव्यों को भी अपने आधार होना चाहिए, पर यदि धर्मादि द्रव्यों का ग्राधार कोई अन्य द्रव्य है तो प्रकाश का भी कोई अन्य आधार होना चाहिए Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५) समाधान-अाकाश द्रव्य का प्राधार अन्य कोई नहीं वह स्वयमेव अपना प्राधार है । प्राकाश के अन्दर अवगाहन देने की शक्ति है और वह सबसे बड़ा हैं। क्योंकि उसमें कभी किसी प्रकार की न्यूनता नहीं पाती। शंका-लोक केवल १४ रज्जू प्रमाण है, परन्तु उसमें अनन्तानन्त अप्रमाणिस जीव आ जाकर कैसे समाविष्ट हो जाते हैं। क्योंकि इस लोकाकाश में जीव द्रव्य, पुद्गल द्रव्य तथा सिद्धादि अनंत गभित हैं समाधान-ग्राकाश द्रव्य गमनागमन का कारग नहीं, बल्कि केवल अवगाहन का कारण है, अतः इसमें चाहे जितने द्रष्य आजायें पर इसमें कभी हानि वृद्धि नहीं होती (वैसे द्रव्य कम अधिक होते नहीं हैं ।) इसका उदाहरण ऊपर दे चुके हैं। अब कालद्रव्य के गुएरा पर्याय को कहते हैं: काल के दो भेद हैं-एक व्यवहार और दूसरा निश्चय । मुख्यकाल द्रव्यस्वरूप से अमूर्त अक्षय, अनादिनिधन है और अगुरुलघुत्व गुण से अनन्त है। प्रकृत्रिम, अविभागी, परमाणु रूप है, प्रदेश प्रमाण से एक प्रदेशी है। अपने अन्दर अन्य प्रतिपक्षी नहीं, किन्तु वह स्वयमेव प्रदेशी है। भावार्थ-प्रति समय छः द्रव्यों में जो उत्पाद और व्यय होता रहता है उसका नाम वर्तना है। यद्यपि सभी द्रव्य अपने अपने पर्याय रूप से स्वयमेव परिणमन करते रहते हैं, किन्तु उनका बाह्य निमित काल है। अतः वर्तना को काल का उपकार कहते हैं। अपने निज स्वभाव को न छोड़कर द्रव्यों की पर्यायों को बदलने को परिणाम कहते हैं। जैसे जीव के परिणाम क्रोधादि हैं और पुद्गल के परिणाम रूप रसादि हैं । एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन करने को क्रिया कहते हैं। यह क्रिया जीव और पुद्गल में ही पाई जातो है । जो बहुत समय का होता है उसे 'पर' कहते हैं और जो थोड़े दिनों का होता है उसे अपर कहते हैं । यद्यपि परिणाम प्रादि वर्तना के भेद हैं किंतु काल के दो मेद बतलाने के लिये उन सबका ग्रहण किया गया है । काल द्रव्य दो प्रकार का है-एक निश्चय और दूसरा व्यवहार काल । निश्चय काल का लक्षण वर्तना है और व्यवहार काल का लक्षण परिणाम आदि हैं। जीव पुद्गलों में होनेवाले परिणामों में ही व्यवहार काल घड़ी घंटा आदि से जाना जाता है। उसके तीन भेद है-भूत वर्तमान और भविष्य । इस घड़ी मुहर्त दिन रात आदि काल के व्यवहार से निश्चयकाल का अस्तित्व जाना जाता है। क्योंकि मुख्य के होने से ही गौए का व्यवहार होता है । अतः लोकाकाश के प्रत्येक Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२३ ) प्रदेश में जो एक एक कालारण स्थित है वही निश्चयकाल है और उसों के निमित्त से वर्तना आदि होते हैं । एकप्रदेशियप्पुद-। नेकरिवमुख्य काल मंलोकदोळि -1 दोकाशवप्रदेशदो। कतिसदो रलराशियतेरदि ॥५॥ जीव आदि सभी द्रव्यों की उत्पत्ति विनाश रूप अर्थ-पर्याय उत्पन्न करना अगुरुलघु गुरण है । अन्य वादी कहता है कि यदि ऐसा कहोगे तो बीय प्रादि द्रव्य रूप न होकर सदा पर्याय ही समझने चाहिए । किन्तु ऐसा नहीं है। जैसे पानी के अन्दर लहर उत्पन्न करने के लिए हवा निमित्त कारण है उसी प्रकार द्रव्य में पर्याय को उत्पन्न करने के लिए अन्य निमित्त कारण अपेक्षित है। इसीलिये वह अर्थ-पर्याय है, व्यञ्जन-पर्याय नहीं । अर्थ-पर्याय एक ही समय में उत्पत्ति व विनाश वाला है । द्रव्य रूप से नित्य है और विशेष रूप से वह परमार्थकाल कहलाता है। पुद्गल का परमाणु अपने प्रदेश पर मन्दगति से जितने काल में जाता है उतने काल को समय कहते हैं । परमाणु एक गाय में दाम मे ? - जुमला है यह व्यवहार काल है । जैसे कोई मनुष्य मन्दगति से दिन में एक कोश जाता है कोई दूसरा व्यक्ति विद्या के प्रभाव से एक ही दिन में १०० (सौं) कोश जाता है यद्यपि पहले की अपेक्षा दूसरे की गति १०० दिन की है, किन्तु वह १०० दिन न कहकर १ ही दिन कहलाता है । निश्चय काल जैसे वास्तविक सिंह के होने पर ही मिट्टी पत्थर आदि का व्यावहारिक (नकली)सिंह (मूर्ति चित्र) बनाया जाता है। असली इन्द्र (देवों का राजा) है तभी उसका व्यवहार मनुष्यों में भी नाम आदि रखकर किया जाता है, इसी प्रकार सूर्य चन्द्र आदि के उदय अस्त आदि की अपेक्षा से जो व्यवहार काल प्रयोग में लाया जाता है, उस व्यवहार काल का प्राश्रयभूत जो पृथक पृथक अणु रूप लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित कालाणु है वह निश्चय काल है। वह निश्चय काल ही प्रत्येक द्रव्य के प्रति-समय के पर्याय के परिवर्तन में सहायक कारण है । वह यद्यपि लोकाकाश में है किन्तु अलोकाकाश के पर्याय परिवर्तन में भी सहायक है जैसे कि कुम्हारके चक्र (चाक) के नीचे केवल मध्यभाग में रहने वाली कीली समस्त चक्र को चलाने में कहायक होती है। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर ( ३३४ ) निमित्तम तरं तत्र योग्यता वस्तुनिश्चिता ।। बहिनिश्चयकालस्तु निश्चितं तत्त्वशिभिः ।२१ किप्पवियेण बहुणा चे सिद्धागर परागये कावे ।१। प्रत्येक द्रव्य अपने परिणामन में उपादान रूपसे अप ही अंतरंग उपादान कारण होता है । उस परिणमन में बहिरंग सहकारी कारण काल द्रव्य बसलाया है। . पंचास्तिकायाः ॥२॥ जीव, २ पुद्गल, ३ धर्म, ४ अधर्म, और ५ आकाश इन पांचों द्रव्यों को अस्तिकाय कहते हैं । ये द्रव्य सदा विद्यमान (मौजूद) रहने के कारण 'अस्ति' कहलाते हैं और शरीर के समान बहुप्रदेशी होने के कारण 'काय' कहलाते हैं । अतः इन्हें अस्तिकाय कहते हैं । एवं छन्वेयमिदं जीवाजीवप्पभेदवो दव्यं । उत्तं कालविजुत्तं गायव्वा पंच अस्थिकाया दू ॥ प्रत्येक जीव के, धर्म द्रव्य के तथा अधर्म द्रव्य के और लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश होते हैं । अलोकाकाश के अनन्त प्रदेश हैं। पुद्गल' द्रव्य के संख्यात, असंख्यात, अनन्त प्रदेश हैं । काल द्रव्य पृथक पृथक अणु रूप होने से . एक प्रदेशी है, अत: उसको 'काम नहीं कहा गया । एक प्रदेशी पुद्गल परमाणु के अस्तिकायरब का अर्थ यह है कि स्निग्ध रूक्ष गुण के कारण बहु-प्रदेशी होने की शक्ति उसमें रहने से यह उपचार से अस्तिकाय कहलाता है । षड़ द्रव्य पंचास्तिकाय की चूलिका को कहते हैंपरिणामजीवमुत्तं सपदेसं एयखेतकिरियाय । रिणच्चं कारगतक्कं तासम्बगदमिद रम्ह्यिपदेण ॥७॥ अर्थ:--परिणाम स्वभाव विभाव पर्यायापेक्षा से जीव पुद्गल द्रव्य परिणामी हैं, शेष चार द्रव्य विभाव व्यंजन पर्याय भाव की मुखवृत्ति से अपरिरणामी हैं। व्यंजन पर्याय का लक्षण बताते है: जो स्थूल, कुछकाल के स्थायी, वचन के विषय भूत तथा इन्द्रियज्ञानगोचर है वह व्यंजन पर्याय है जीव शुद्ध निश्चयनय से अनंत ज्ञान दर्शन भाव. शुद्ध चैतन्य प्रारण सहित है । अशुद्ध निश्चयनय से रागादि विभाव प्राणों से और अनुपरित सद्भुत व्यवहारनय से इन्द्रिय, बल, आयु उच्छ्वास इन चार प्राणों से प्रात्मा Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीता है, जो रहा है और जीवेगा । यह व्यवहारनयसे जीव का लक्षण कहा है पुद्गलादि अजीव द्रव्य है । स्पर्श, रस, गंध; वर्ण वाला होने के कारण पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है। अनुपचारित असद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा जीव मूर्तिक है, शुद्ध निश्चय नय से भमूत है। धर्म अधर्म प्रकाश काल द्रव्य ये प्रमूर्तिक हैं। जीवादि पांच द्रव्य पंचास्तिकाय होने से सप्रदेशो हैं। बहप्रदेशि लक्षण कायत्व स्वभाव से काल द्रव्य अंप्रदेशी है। द्रव्याथिक नय से धर्म अधर्म आकाश ये एक एक हैं और गोम पुद्गला काल बने हैं। खेत्त-समस्त द्रव्य एक दूसरे को अवगाह देती हैं अतः समस्त द्रव्यों का क्षेत्र एक ही लोकाकाश है । किरियाय-क्षेत्र से क्षेत्रांतर गमन वाले होने के कारण जीव और पुद्गल क्रियावान हैं, धर्म, अधर्म, आकाश काल द्रव्य परिस्पंद के प्रभाव से निष्क्रिय हैं । रिगच्चं-धर्म अधर्म आकाश निश्चय काल द्रव्य अर्थपर्याय की अपेक्षा से अनित्य तथा द्रव्याथिक नय से नित्य है । जीव और पुद्गल द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से नित्य हैं और अर्थपर्याय के अपेक्षा से अनित्य हैं । उपकार की अपेक्षा पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और वाल ये द्रव्य व्यव. हार नय से तथा जीव शरीर, वचन, मन और प्राणापनादि अस्तित्व अवगाहना वर्तना आदि से एक दूसरे को कारण हैं, तथा' आपस में स्व-पर सहायता करना जीवों का उपकार है। स्वामी धन प्रादि के द्वारा अपने सेवक का उपकार करता है, सेवक हित की बात कह कर और अहित से बचाकर स्वामी का उपकार करता है। इसी तरह गुरु उचित उपदेश देकर शिष्य का उपकार करता है और शिष्य गुरु की आज्ञा के अनुसार आचरण करके गुरु का उपकार करता है। ___अनुपचारित असद्भुत व्यवहार नय से पांचों द्रव्यों को परस्पर उपकारी माना है। परन्तु शुद्ध द्रव्याथिक नय से जीव पाप, पुण्य बंघ मोक्ष और घट पटादिक का कर्ता नहीं है । अशुद्ध निश्चय नय से शुभाशुभ उपयोग में परिणत होकर पुण्य पाप बंध का कर्ता होकर उसका भोक्ता है। इसके सिवाय विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव वाला विशुद्ध प्रात्मद्रव्य सम्यक् 'श्रद्धान' ज्ञानानुष्ठान रूप अभेद रत्नत्रयात्मक शुद्ध उपयोग में परिणत होकर निज परमात्म-अवलम्बन स्वरूप मोक्ष का कर्ता है तथा उस स्व शुद्ध परमानन्द "का भोका है। शुभाशुभ और शुद्ध उपयोग में परिणमन करने वाली वस्तु का कर्तृत्व पोर भोक्तृत्व इसी प्रकार समझना चाहिये । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) पुद्गलादि पाँच द्रव्यों को अपने अपने परिणामों में परिणमन होने से हो उन परिणमनों का कर्तृत्व माना गया है। - सव्वगदं-- लोक व्याप्ति की अपेक्षा से घर्म अधर्म द्रव्य सर्वगत हैं। एक जीव की अपेक्षा से लोक-पूर्ण अवस्था के अलावा सर्वगत नहीं है, नाना जोव अपेक्षासे सर्वगत है । पुद्गल द्रव्य लोक व्यापी मद्रास्कन्ध के अपेक्षासे सर्वगत है। शेष पुद्गल की नपेक्षा से सर्वगत नहीं है । नाना कालाणु द्रव्य की अपेक्षा से लोक में काल द्रव्य सर्वगत है । एक कालाण द्रव्य की अपेक्षा से काल द्रव्य असर्वगत है। इय्यररियपय पयसो:-व्यवहार नय से सभी द्रव्य एक क्षेत्रावगाह से अन्योन्य प्रदेश में रहने वाले हैं । निश्चयनय से सब द्रव्य अपने अपने स्वरूप में रहते हैं। अरणोपरणं पक्सिंता दिताउम्गासमरणमण्णस्स। मेलंतावि य पिच्चं सगसगभाव ए विजहंति ॥४॥ इन छह द्रव्यों में शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध बुद्धक स्वभाव गुण से समस्त जीव राशियां उपादेय हैं अर्थात् उसमें जितने भी भव्य जीवों का समूह है वे सभी उपादेय हैं और परम शुद्ध निश्चय नय से शुभ मन वचन काम तथा व्यापार रहित वीतराग चिदानन्दादि गुण सहित जिन सिद्ध सहश निज परमात्मतत्त्व वीतराग निर्विकल्प समाधि काल में साक्षात् उपादेय है। शेष न्य हेय हैं। खाविपंचकनिमुक्तं कर्माष्टकविवर्जितम् । सिवात्मकं परंज्योति बन्दे बेवेन्द्रबंवितम् ॥ ___ सप्ततस्वानि ॥३॥ १ जीव, २ अजीव, ३ आस्रव, ४ बन्ध, ५ संवर, ६ निर्जरा तथा ७ मोक्ष इन सातों को तत्त्व कहते हैं । वस्तु के स्वभाव को तत्त्व कहते है है । जीव-तत्त्व अनुपरित सद्भुत व्यवहार नय की अपेक्षा से द्रव्य-प्राणों से, अशुद्ध निश्चय नय से रागादि अशुद्ध भाव प्राणों से और शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से शुद्ध भाव-प्राण से त्रिकाल में जीने वाला जीव है । एकेन्द्रियादि में कर्मफल का अनुभव करने वाली फर्म फल-सना; सकाय में अनुभव करने वाले जीवों के कर्म चेतना कहते हैं। और सिद्ध भगवान् के समान प्रात्मा को शुद्ध अनुभव करने वाली ज्ञान-चेतना है। इस सरह चेतना तीन प्रकार की हैं। अथवा भवादि समय रूपोपपाद योग, पपिप्ति Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३७ ) -.-: IML तथा अपर्याप्ति ऐसे एकान्तानुवृद्धि योगरूप, भन्त्र का अन्त करने योग, परिणा योग, ऐसे योग के तीन भेद हैं। विकल्प रूप मनो वचन काय रूप योगत्रय पुनः बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा के भेद से प्रात्मा तीन प्रकार का है जीव समास, मार्गणा और गुणस्थान की अपेक्षा से भी तीन प्रकार है। जीव सत्व, २ पुद्गलादि पंचध्य अजीव तत्त्व, ३ शुभाशुभ कर्माग द्वार रूप प्रास्रब तत्व, ४ जीव और कर्म इन दोनों के अन्योन्यानुप्रवेशात्म बंध तत्त्व. ५ व्रत समिति गुप्ति आदि द्वारा कर्मास्त्रब रोकने वाला संवर तत्र ६ मविपाक रूप से कममल को पिघलाने वाला निर्जरा तत्त्व, ७ स्व-शुद्धार तत्त्व भावना से सकल कर्मों से निर्मुक्त होना मोक्षतत्व है । । इन सभी फलों का कारणभूत होने के कारण सर्व प्रथम जीव तर का ग्रहण किया गया है । उसका उपकारी होने के कारण तत्पश्चात् अजी का विधान किया है । तद्भव विषय होने के कारण उसके बाद पात्रय व ग्रहण किया गया है। उसी के अनुसार कर्मों द्वारा बन्ध होने के कारण उस बाद बन्ध का ग्रहण किया गया है । आस्रव का निरोध होने के कारण बंध बाद संबर कहा गया है और संवर के निकट ही निर्जरा का विधान किया गर है जोकि बन्ध की विरोधी है तथा अंत में सकल कर्म मलों का नाश होक कर्मों से मुक्त हो जाने के कारण अंत में मोक्षतत्त्व को कहा गया है। इस का नाम निज निरंजन शुद्धात्म उपादेय मोक्ष है । . नव पवार्थाः ॥४॥ उपर्युक्त सात तत्त्वों में यदि पाप और पुण्य' इन दोनों को मिला दिय जाय तो नौ पदार्थ हो जाते हैं, सो इस प्रकार हैं: १जीव पदार्थ, २ अजीव पदार्थ, ३ प्रास्रव पदार्थ, . ४ बंध पदार्थ, पुण्य पदार्थ, ६ पाप पदार्थ, ७ संबर पदार्थ, ८ निर्जरा पदार्थ और 8 वां मो पदार्थ है । इनका पदार्थ नाम इसलिए पड़ा कि ये ज्ञान के द्वारा परिच्छेद हो में समर्थ हैं। जीव, पुद्गल के संयोग से होने वाले प्रास्रव, बंध, पुण्य और पाप चार पदार्थ हेय होते हैं । उन दोनों के अलग होने से संवर, निर्जरा तथा मो ये तीन पदार्थ उपादेय होते हैं । चतुर्विधो न्यास ।। नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव ऐसे न्यास (निक्षेप) के चार भेद हैं । इन निमिन्न से जीवादि को जाना जाला है । जास्यादि निमित्तान्तर निरपेक्ष न - Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३८ ) रखनेको नाम कहते हैं । काष्ठ, पाषाण, पुस्तक, चित्र कर्मादि में यह अमुक वस्तु है, ऐसा निश्चय करना स्थापना है । गुण पर्याय से युक्त को द्रव्य कहते हैं। वर्तमान पर्यायोपलक्षित द्रव्य को भाव कहते हैं। इसका भेद इस प्रकार है। १-नाम जीव, २-स्थापना जीव, ३-द्रव्य जीव, तथा ४-भाव जीव, यै चार प्रकार के हैं। संज्ञा रूप से जीव का व्यवहार नाम जीव है। सद्भाव तथा असद्भाव भेदों में प्राकार सहित काष्ठ पाषाण प्रतिमा में यह हाथी आदि है, इस प्रकार स्थापना करना सद्भाव स्थापना है तथा शतरंज के गोटे प्रादि में यह हाथी प्रादि है, ऐसा कहकर स्थापना करना असद्भाव स्थापना जीव है। द्रव्य जीव दो प्रकार है, आगम द्रव्य जीव और नो आगम द्रव्य जीव । जीव पर्याय में उपयोग रहित जीव पागम द्रव्य जीव है। नो पागम द्रव्य जीव तीन प्रकार का है। जाननेवाले का (ज्ञायक) शरीर, न जाननेवाला शरीर, इन दोनों से रहित । उसमें जाननेवाला शरीर प्रागत, अनागत तथा वर्तमान से तीन प्रकार का है। भाव जीव दो प्रकार का है नो-पागम भाव जीव और पागम भाव जीव इसमें नो पागमभाव जीव को समझकर उपयोग से युक्त प्रात्मा प्रागम-भाव जीव है, नो भागम भाव जीव के दो भेद हैं । उपयुक्त और तत्परिणत । उसमें जीव आगम के अर्थ में उपयोग सहित जीव उपयुक्त कहलाता है ! केवल ज्ञानी को तत्परिपात कहते हैं। इसी तरह अन्य पदार्थो में भी नाम निक्षेप विधि से योजना की गई है। विविध प्रमाणम् ॥६।।। प्रमाण दो प्रकार है परोक्ष और प्रत्यक्ष । शरीर इन्द्रिय प्रकाश आदि के अवलम्बन से पदार्थों को अस्पष्ट जानना परोक्ष प्रमाण है। स्व-प्रात्मशक्ति से स्पष्ट जानना प्रत्यक्ष प्रमाण है। पंच सज्ज्ञानि ७॥ ___ मति, श्रत, अवधि, मन पर्यय ज्ञान तथा केवल ये पांच सम्यग्ज्ञान हैं। इन्हीं के द्वारा सामान्य विशेषात्मकः वस्तु को संशय, विमोह, विभ्रम रहित होकर ठीक जानने के कारण तथा निरंजन सिद्धात्म निज तत्व, सम्यक श्रद्धान जनित होने के कारण इसे सम्यग्ज्ञान कहा गया है। त्रीणिकुज्ञानानि ॥६॥ कुमति, कुन त, विभंग ऐसे तीन कुज्ञान हैं । कड़वी तुम्बी के पात्र में रखते हुए दूध को बिगाड़ने के समान होने के कारण मिथ्या दृष्टि के उपर्यत शान मिथ्याज्ञान कहलाते हैं। पहले के कहे हुए ३ सम्यग्ज्ञानो कोमिथ्य तत्व Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६) अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, तथा लोभ कषाय के निमित्त होने से अज्ञान कहते हैं। इन पाठ ज्ञानों में मति, श्रुत, कुमति, तथा कुश्रुत, ये ४ परोक्ष प्रमाण हैं। अवधि, मन:--पर्यय, विभंग-अवधि ये तीन एक देश प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष प्रमाण है और आत्मस्वभाव' गुण है। शेष ज्ञान विभात्र गुण है । उसमें तीनों अज्ञान हेय हैं । क्षायोपशमिक सम्यग्ज्ञान चतुष्टय परम्परा से उपादेय हैं, क्षायिक केवल ज्ञान ज्ञान साक्षात उपादेय है। मतिज्ञानं त्रिशतषत्रिशभेदम् ।। मति ज्ञान के तीन सौ छत्तीस (३३६) भेद हैं । मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध, ये मतिज्ञान के ही नामान्तर हैं, क्योंकि ये पांचों ही मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। विशेषार्थ-इन्द्रिय और मन की सहायता से जो अवग्रह आदि रूप ज्ञान होता है उसे मति कहते हैं । न्याय शास्त्र में इस ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है, क्योंकि लोक व्यवहार में इन्द्रिय से होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष माना जाता है। परन्तु वास्तव में वो पराधीन होने से यह ज्ञान परोक्ष ही है। पहले जानी हुई वस्तु को कालान्तर में स्मरण करना स्मृति है । जैसे पहले देखे हुए देवदत्त का स्मरण करना 'यह देवदत्त' यह स्मृति है । संज्ञा का दूसरा नाग प्रत्यभिज्ञान है । वर्तमान में किसी वस्तु को देखकर पहले देखी हुई वस्तु का और वर्तमान वस्तु का जोड़ रूप ज्ञान होना प्रत्यभिज्ञान है । न्याय शास्त्र में प्रत्यभिज्ञान के अनेक भेद बतलाये हैं, जिनमें चार मुख्य हैं--एकत्व प्रत्यभिज्ञान, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान, तद्विलक्षण प्रत्यभिज्ञान और तत्प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान । किसी पुरुष को देखकर 'यह वही पुरुष है जिसे पहले देखा था ऐसा जोड़ रूप ज्ञान होना एकत्व प्रत्यभिज्ञान है । वन में गवय ( रोझ) नामक पशु को देखकर ऐसा ज्ञान होना कि यह गवय मेरीगौ के समान है, यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है। भैस को देखकर 'यह भैस मेरी गौ से विलक्षण है' ऐसा जोड़ रूप ज्ञान होना तद्विलक्षण प्रत्यभिज्ञान है । निकट को वस्तु को देखकर पहले देखी हुई बस्तु के स्मरण-पूर्वक ऐसा जोड़ रूप ज्ञान होना कि इससे वह दूर है. ऊँची है या नीची है, इत्यादि ज्ञान को तत्प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। चिन्ता का दूसरा नाम तर्क है । 'जहां अमुक चिन्ह होता है वहां उस उस चिन्हवाला भी होता हैं ऐसे ज्ञान को चिन्ता या तक कहते हैं। न्यायशास्त्र में व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं और साध्य के अभाव में साधन के Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४० ) प्रभाव को तथा साधन के सद्भाव में साध्य के सद्भाव को व्याप्ति कहते हैं । जैसे, 'अग्नि के न होने पर घुमां नहीं होता और मां के होने पर अग्नि अवश्य होती है' यह व्याप्ति है और इसको जाननेवाले ज्ञान को तर्क प्रमारण कहते हैं । और जिस बात को सिद्ध किया जाता है उसे साध्य कहते हैं और जिसके द्वारा सिद्ध किया जाता है उसे साधन कहते हैं । साधन से साध्य के ज्ञान को अभिनिवोध कहते हैं । इसका दूसरा नाम अनुमान है। जैसे कहीं धुमां उठता देखकर यह जान लेना कि वहां भाग है, क्योंकि वहां मां उठ रहा है, यह अभिनिबोध है । ये सब ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं । वह मतिज्ञान पाँचों इन्द्रियों और प्रनिन्द्रिय ( मन ) की सहायता से होता है । I आगे मतिज्ञान के भेद बतलाते हैं - अवग्रह, ईहा, प्रवाच और धारणा ये चार मतिज्ञान के भेद है। इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध होते हो जो सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं । दर्शन के अनन्तर ही जो पदार्थ का ग्रहण होता है वह अवग्रह है । जैसे चक्षु से सफेद रूप को जानना श्रवग्रह है । अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा होना ईहा है । जैसे यह सफेद रूप वाली वस्तु क्या है ? यह तो बगुलों की पंक्ति सी प्रतीत होती है, यह ईहा है । विशेष चिन्हों के द्वारा यथार्थ वस्तु का निर्णय कर लेना वाय है । जैसे, पखों के हिलाने से तथा ऊपर नीचे होने से यह निर्णय करलेना कि यह बगुलों की पंक्ति ही है, यह अवाय है । अवाय से जानी हुई वस्तु को कालान्तर में भी नहीं भूलना धारणा है । आगे इन अवग्रह आदि ज्ञानों के और भेद बतलाने के लिए उनके विषय बतलाते हैं: बहु, बहुविध, क्षित्र, श्रनिःसूत, अनुक्त, ध्रुव, और इनके प्रतिपक्षी अल्प, अपविध, अक्षि, निःसृत, उक्त अध्र ुव, इन १२ पदार्थो का मतिज्ञान होते है । अथवा अवग्रह आदिसे इन बारहों का ज्ञान होता है । बहुत वस्तुओं के ग्रहण करने को बहुज्ञान कहते हैं । जैसे सेना या वनको एक समूह रूप में जानना बहुज्ञान है । और हाथी घोड़े आदि या ग्राम महुआ आदि अनेक भेदों को जानना बहुबिध है । वस्तु के एक भाग को देखकर पूर्ण वस्तु को जान लेना श्रनिःसृत ज्ञान है । जैसे ताल में डूबे हुए हाथी की सूड़ को देखकर हाथी को जान लेना । शीघ्रता से जाती हुई वस्तु को जानना क्षित्र ज्ञान है । जैसे, तेजी से चलती हुई रेलगाड़ी को या उसमें बैठकर बाहर की वस्तुओंों को जानना । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिना कहे भी अभिप्राय को जान लेना अनुक्त ज्ञान है। बहुत फाल तक जैसा का तसा निश्चल ज्ञान होना या पर्वत इत्यादि स्थिर पदार्थ को जानना घ्रय ज्ञान है । अल्पका अथवा एकका ज्ञान होना अल्प ज्ञान है। एक प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान होना एकविधज्ञान है। धीरे धीरे चलते हुए घोड़े वगैरह को जानना अक्षिा ज्ञान है। सामने विद्यमान पूरी वस्तु को जानना निहित ज्ञान है। कहने पर जानना उक्त ज्ञान है। चंचल बिजली इत्यादि को आमना अध्र व ज्ञान है। इस तरह बारह प्रकार का प्रयग्रह, बारह प्रकार का ईहा, बारह प्रकार का अवाय और बारह प्रकार का धारणा ज्ञान होता है। ये सब मिलकर ज्ञान के ४८ भेद होते हैं। तथा इनमें से प्रत्येक ज्ञान पांच इन्द्रियों और मन के द्वारा होता है। अतः ४८ को इसे गुणा करने पर मतिज्ञान के २८८ भेद होते हैं। ये २८८ मेद अर्थावग्रह की अपेक्षा से हैं। पदार्थ को ऐसा स्पष्ट जानना, जिस के बाद ईहा, अबाय, धारणा शान हो सके वह 'अर्थावग्रह, है। जो अवग्रह अस्पष्ट रूप हो जिस पर ईहा अवाय धारणा शान न हो सके वह व्यञ्जनाग्रह है । व्यञ्जनावग्रह चक्षु इन्द्रिय तथा मनके द्वारा नहीं होता है, शेष चार इन्द्रियों (स्पर्शन, रसना, घ्राण और करणं) से १२ प्रकार के पदार्थों का होता है, अत: व्यञ्जनावग्रह के १२४४ = ४८ भेद हैं। इस तरह अर्थावग्रह की अपेक्षा मतिज्ञान के २८८ और व्यजनावग्रह की अपेक्षा ४८ भेद होते हैं, दोनों मिलकर (२८८+४८=३३६) ३३६ भेद भतिज्ञान के होते हैं। व्यञ्जनावग्रह यदि बार बार होता रहे तो वह प्रविग्रह हो जाता है फिर उसके ऊपर ईहा अवाय धारणा ज्ञान हो जाते हैं। जैसे मिट्टी के कोरे प्याले में पहले १०-५ बूद जल डाला जावे तो वह तत्काल सूख जाता है किन्तु लगातार जल बू'दें पड़ती रहें तो वह प्याला गीला हो जाता है। द्विविधं श्रुतम् ॥१०॥ श्रुतज्ञान मतिज्ञान-पूर्वक होता है, मतिज्ञान के बिना श्रुतशान नहीं होता । श्रतज्ञान के दो भेद हैं अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक । सूक्ष्म लब्धि-अपर्याप्तक निगोदिया जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय ___ में स्पर्शन इन्द्रिय मतिज्ञान पूर्वक जो श्रुतशान होता है वह 'पर्याय' नामक श्रुत ज्ञान है, उससे कम अ तज्ञान किसी जीव को नहीं होता, श्रु तज्ञान का क्षयोपशम भी इससे कम नहीं होता, अतः यह 'पर्याय' अतज्ञान निस्य-उद्घाटित Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) (सदा निरावरण रहने वाला) है । यदि इस ज्ञान पर भी कर्म का आवरण होता तो वह निगोदिया जीव ज्ञान--शून्य जड़ हो विशेष इतना है कि सूक्ष्म लब्धिश्रपर्याप्त अम्भव अपने ६०१२ भवों में भ्रमण करके अन्तिम द्वारा ग्रहण करने वाले जीव के प्रथम मोड़े के नामक तज्ञान होता है। इसको 'लध्ध्यक्षर' श्रुतज्ञान और प्रक्षर का अर्थ 'अविनश्वर' है। कभी नष्ट नहीं होता । जाता । निगोदिया जीव अन्तर्मुहूर्त में पर्याप्त शरीर को तीन मोड़ों समय वह सर्व - जघन्य पर्याय भी कहते हैं । लब्धिका श्रर्थं यानी यह जघन्य श्रु तान इस जघन्य श्रुतज्ञान ( पर्याय ज्ञान ) के ऊपर अनन्न भाग वृद्धि, श्रसंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, श्रसंख्यात गुणवृद्धि, अनन्त गुण वृद्धि रूप ६ प्रकार की वृद्धियां असंख्यात वार (श्रसंख्यात लोक प्रभाग ) होने पर 'क्षर' श्रुतज्ञान होता है। पर्याय श्रुतज्ञान से अधिक और अक्षर श्रुत ज्ञान से कम जी श्र ुतज्ञान के बीच के असंख्यात मेद हैं वे सब 'पर्यासमास' कहलाते हैं । इस तरह पर्याय और पर्याय समास ये दो श्रुतज्ञान अनक्षरात्मक हैं । शेष ऊपर के सब ज्ञान अक्षरात्मक हैं। पर्यायज्ञान अक्षर ज्ञान के अनन्त भाग प्रमाण है । अक्षर श्रुतज्ञान सम्पूर्ण अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का मूल है । अक्षर ज्ञान के ऊपर एक एक अक्षर ज्ञान की वृद्धि होते होते जब संख्यात अक्षर रूप वृद्धि हो जाती है तब 'पद' नामक श्रुतज्ञान होता है। अक्षर ज्ञान से ऊपर और पद ज्ञान से कम बीच के सख्यात भेद 'प्रक्षर समास' नामक श्रुतज्ञान है । पद शब्द के तीन अर्थ है- १ अर्धपद, २-प्रमाण पद, ३ मध्यम पद । 'पुस्तक पढ़ो, भोजन करो' आदि अनियत प्रक्षरों के समूह रूप किसी अभिप्राय विशेष को बतलाने वाला 'अर्थ पद' होता है । क्रिया रूप ( तिन्हत ) और अक्षर समूह तथा संज्ञारूप ( सुबन्त ) अक्षर समूह पद भी इसी भर्थपद में गर्भित हैं। विभिन्न छन्दों के प्रादि नियत अक्षर समूह रूप प्रमाण पद होता है जैसे 'नमः श्री वर्द्धमानाय' । तथा १६३४८३०७८८६ सोलह अरब चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी ग्रक्षरों का एक मध्यम पद होता है। श्रुतज्ञान में इसी मध्यम पद को लिया गया है। · Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४३ ) एक पद के ऊपर एक एक अक्षर की वृद्धि होते होते जब संख्यात हजार पदों की वृद्धि हो जावे तब 'संघात' नामक श्रु तज्ञान होता है। संघात सज्ञान से कम और पद से अधिक जितने श्र तज्ञान हैं वे 'पद समास' कहलाते हैं । संघात श्रुत शान चारों गति में से किसी एक गतिका निरूपण करने वाले अपुनरुक्त मध्यम पदों का समूह रूप होता है। संघात श्रु तज्ञान के ऊपर एक एक अक्षर की वृद्धि होते होते अब संख्यात हजार संघास की वृद्धि हो जाये तब चारों गतियों का विस्तार से वर्णन करने वाला 'प्रतिपत्ति' नामक श्रु तज्ञान होता है। सांघात और प्रतिपत्ति ज्ञान के बीच के भेद' 'संघातसमास' कहलाते हैं । प्रतिपत्ति अत ज्ञान के ऊपर अक्षर अक्षर की वृद्धि होते होते जब संख्यात हजार प्रतिपत्ति की वृद्धि हो जाती है तब चौदह मार्गणाओं का विस्तृत विवेचन करने वाला 'अनुयोग' नामक श्रुतज्ञान होता है । प्रतिपत्ति और अनुयोग के बीच के जितने भेद हैं ने 'सिसि गर' दहलगे हैं। अनुयोग ज्ञान के ऊपर पूर्वोक्त रूप से वृद्धि होते होते जब संख्यात. हजार अनुयोगों की वृद्धि हो जाती है तब 'प्राभूत प्राभृतक' नामक श्रुतज्ञान होता है । अनुयोग और प्राभृत प्राभुतक ज्ञान के बीच के मेद अनुयोग समास कहलाते हैं। इसी प्रकार अक्षर अक्षर की वृद्धि होते होते बब चौबीस प्राभृत प्राभृतक की वृद्धि हो जाय तब 'प्राभूत' ज्ञान होता है। दोनों के बीच के . भेद प्राभूत प्राभूतक समास हैं । बीस प्राभूतप्रमाण 'वस्तु' नामक श्रु तज्ञान होता है । प्राभूत और वस्तु के बीघ के भेद प्राभूत समास हैं। वस्तु ज्ञान में पूर्वोक्त रूप से वृद्धि होते होते दश प्रादि १६५ एक सौ पिचानवै वस्तु रूप वृद्धि होती है तब पूर्व नामक श्रुतज्ञान होता है। वस्तु और पूर्व के मध्यवर्ती श्रु तज्ञान वस्तु समास कहलाते हैं । पूर्व ज्ञान से वृद्धि होते होते पूर्ण श्रुतज्ञान के मध्यवर्ती भेद पूर्वसमास कहलाते हैं । इस तरह अक्षरात्मक श्रु तज्ञान के १८ भेद हैं। इसको ही भावश्रुत भी कहते हैं। प्रक्षरात्मक श्रुतज्ञान द्वादश ( बारह ) भंग रूप है उसमें समस्त एक.. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरब बारह करोड़ तिरासी लाख अदावन हजार पांच ११२८३५८००५ मध्यम पद है। जिसका विवरण निम्नलिखित है - १-प्राचारंग में १८००० अठारह हजार पद हैं, इसमें मुनिचर्या का वर्णन ovie २-सूत्रकृतांग में ३६००० छत्तीस हजार पद हैं, इसमें सूत्र रूप यवहार क्रिया, स्वसमय आदि का विवेचन है। ३- स्थानांग में ४२००० पद हैं, इसमें समस्त द्रव्यों के एक से लेकर समस्त संभव विकल्पों का वर्णन है। ४-समवायाङ्ग में १६४००० पद हैं. इसमें समस्त द्रव्यों के पारस्परिक साहश्य का विवरण है। ५-व्याख्या प्रज्ञप्ति में २२८००० पद हैं, इसमें ६० हजार प्रश्नों के उत्तर है। ६-ज्ञातृ कथा में ५५६०० पद हैं इसमें गणधर आदि को कथाएँ तथा तार्थंकरों का महत्व प्रादि बतलाया गया है । ७-उपासकाध्ययन में ११७०००० पद हैं, इसमें श्रावकाचार का वर्णन है। —अन्तःकृतदशांग में २३२८००० पद हैं, इसमें प्रत्येक तीर्थंकर के समय के १०-१० मुनियों के तीन उपसर्ग सहन करके मुक्त होने का कथन है । E-अनुत्तरौपपादिक दशांग में ६२४४००० पद हैं इसमें प्रत्येक तीर्षकर के समय में १०-१० मुनियों के घोर उपसर्ग सहन कर विजय आदि अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने का कथन है । १०-प्रश्न व्याकरण में ६३१६००० पद है, इसमें नष्ट मुष्टि चिन्ता मादि प्रश्नों के अनुसार हानि लाभ आदि बतलाने का विवरण है। ११–विपाक सूत्र में १८४००००० पद है इसमें कर्मों के फल देने का विशद विवेचन है। १२-दृष्टिवाद में १०८६८५६००५ पद हैं इसमें ३६३ मिथ्यामतों का वर्णन तथा उनका निराकरण का वर्णन है। इसके पांच भेद हैं, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । परिकर्म में गणित के करण सुत्र है, इसके पांच भेद हैं-१ चन्द्रप्रज्ञप्ति, २-सूर्यप्रप्ति, ३-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ४-चन्द्रसागर प्रज्ञप्ति, ५---व्याख्या प्रशप्ति । चन्द्रसम्बन्धी समस्त विवरण चन्द्रप्रज्ञप्ति में है, उसके ३६०५००० पतीस लाख पांच हजार पट हैं । सूर्य प्राप्ति में सूर्य विमान सम्बन्धी समस्त Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) विवरण है उसमें ५०३०१० पांच लाख तीन हजार पद हैं। जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति में जम्बू द्वीप- सम्बन्धी समस्त वर्णन है इसमें ३२५००० तीन लाख पच्चीस हजार पद हैं। दीपसागर प्रज्ञप्ति में अन्य द्वीपों तथा सागरों का विवेचन है इसमें ५२३६००० पद हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति में भव्य अभध्य, अनन्तर सिद्ध, परम्परा सिद्ध प्रादि का कथन है उसमें ८४३६००० पद हैं। दृष्टिवाद के दूसरे भेद सूत्र में ३६३ मिथ्या मतों का पक्ष प्रतिपक्ष रूप से वर्णन है, इस ८८००००० पद हैं। प्रथमानुयोग में वेसळ शलाका पुरुषों का वर्णन है। इसमें १०० पद हैं। पूर्व में भय है, उसमें समस्त ६५५०००००५ पचानवें करोड़ पचास लाख पांच पद हैं। जिनका विवरण नीचे लिखे अनुसार है। १-उत्पाद पूर्व में एक करोड़ पद हैं, इसमें प्रत्येक द्रव्य के उत्पाद ध्यय प्रौव्य का वर्णन है । २-प्रप्रायणी पूर्व में ७०० नय सथा दुर्नय, पंचास्तिकाय आदि का वर्णन है, इसमें ६६ लाख पद हैं। ३-वीर्य प्रवाद में ७० सत्तर लाल पद हैं, इसमें मात्म वीर्य, पर वीर्य गुरणवीयं आदि का विवेचन है। ४-अस्तिनास्ति प्रधाद में सप्त भंगी का कथन है इसमें ६० लाख ५--झान प्रवाद में एक कम एक करोड़ पद हैं, इसमें समस्त ज्ञानों का समस्त विवरण है। ६-सत्य प्रबाद पूर्व में शब्द उच्चारण, दस प्रकार का सत्य वचन, असत्यवचन, भाषा प्रादि का वर्णन है, इसमें एक करोड़ छः पद हैं । ७-भात्मप्रवाद' में २६ करोड़ पद हैं, इसमें प्रात्मा का समस्त विवरण ____E-कर्म प्रवाद में एक करोड़ अस्सी लाख पद है, इसमें कर्मों से सम्बन्धित समस्त कथन है। -प्रत्याख्यान पूर्व में द्रव्य क्षेत्र काल संहनन आदि की अपेक्षा त्याग समिति गप्ति मादि का विवेचन है । इसमें ८४ लाख पद हैं। १०-विद्यानुवाद पूर्व में एक करोड़ दसलाख पद हैं। इसमें अंगुष्ठ सेना आदि ७०० अल्प विद्याओं तथा रोहिणी प्रावि ५०० महाविद्यानों, मन्त्रसन्द पारि विषय है। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-कल्याणवाद पूर्व में तीर्थंकरों के ५ कल्याणकों, षोडश भावना आदि का वर्णन है, इसमें २६ करोड़ पर हैं। १२-प्राणवाद में १३ करोड़ पद हैं, इसमें आठ प्रकार के आयुर्वेद प्रादि वैद्यक आदि का विवरण है। १३-क्रिया विशाल पूर्व में संगीत छन्द प्रादि पुरुषों को ७२ कसा, स्त्रियों के ६४ गुण आदि का वर्णन है। इसमें ६ करोड़ पद हैं। .. १४-त्रिलोक बिन्दु सार में १२ करोड ५७ लाख पद हैं । इसमें लोक का, मोक्ष का स्वरूप, ३६ परिकमं आदि का वर्णन है । दसचोइस अठारस बारस सयं दोंस पुग्वेस । सोलसवीसतोसपण्णरस बत्थु ।।५।। एएमि पुग्वारणं एवदियो बत्थुसग हो भणियो। गाणं तुम्वासेरणं दसवस वत्थू परिणयकारिण ॥६॥ एक्केक्कम्मिय वत्यू वीस फीस पाहुडा भणिया । विसमसमाहिय वत्थू पुग्वे पुरण पाहु.हि समा ॥७ पुवारण वत्थुसयं पंचारपउदि हवंति पत्थूरिण । पाहुड तिपिण सहस्सा नवयसया चोद्दसारणं तु ॥६॥ अर्थ-चौदह पूर्षों की कमशः १०-१४-८-१८-१२-१६-२०-३०-१५१०.१०-१०-१०-१२ वस्तु (अधिकापूर) यानी समस्त १६५ वस्तु होती हैं एक एक वस्तु के २०-२० प्रामृत (प्रकरण) होते हैं, अतः १४ पूर्वो के समस्त प्राभूत ३६०० होते हैं। दृष्टिवाद का पांचवां भेद धूलिका है उसके ५ भेद हैं-बलगता, २स्थलगता, ३ मायागता, ४ आकाशगता मोर ५ रूपगता । जलगता में जल में गमन, जल स्तम्भन के मंत्र तंत्र प्रादि का वर्णन है। स्थलगता में मेरु कुलाचल, भूमि आदि में प्रवेश करने, शीघ्र गमन, प्रादिक सम्बन्धी मन्त्र तन्त्र प्रादि का वर्णन है। भाकाशगता में प्राकाश गमन पादि के मन्त्र तन्त्र आदि का कथन है । मायागता में इन्द्रजाल सम्बन्धी मन्त्र तन्त्र मादि का कथन है। रूपगता में सिंह प्रादि के अनेक प्रकार के रूप बनाने का वर्णन है । इन पांचों चूलिकाओं के १०४६४६००० पद हैं। चतुर्दश प्रकीर्णकानि ॥१२॥ प्रयं-प्रवाह भतशान के १४ भद।१-सामायिक, २--- Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (-- ३४० ) चतुविशतिस्तव, ३ - वन्दना, ४ प्रतिक्रमण, ५-- वेनयिक, ६ -- कृतिक्रम ७- दशकालिक, ८-- उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, १०-कल्पाकल्प, ११महाकल्प, १२ - पुण्डरीक, १३ - महापुण्डरीक और १४ - तिषिद्धिका । १ साधुओं के समताभाव रूप सामायिक का कथन करनेवाला सामायिक प्रकीक है । २ चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन की विधि विधान बतलाने वाला प्रकरण के चतुविशतिस्तव है । ३ पंचपरमेष्ठी की वन्दना करनेवाला शास्त्र 'यन्दना' प्रकोण क ४ देवसिक, पाक्षिक, मासिक श्रादि प्रतिक्रमण का विधान करनेवाला प्रतिक्रमण प्रकीर्णक है । ५ दर्शन, ज्ञान, चारित्र, और उपचार विनय का विस्तार से विवेचन करनेवाला धिक प्रकीर्णक है । ६क्षास्त्र में हो वह कृतिकर्म ७ द्रव, पुष्पित श्रादि १० अधिकारों द्वारा मुनि के भोज्य पदार्थों का विवरण जिसमें पाया जाता है वह दशकालिक है । ត उपसर्ग तथा परिषह सहन करने आदि का विधान उत्तराध्ययन प्रकीरण क में है । ९ जिसमें दोषों के प्रायश्चित्त आदि का समस्त विवरणं हूँ वह कल्पव्यवहार है 1 T १० सागर अनागार के योग्य अयोग्य आचार का जिसमें विवेचन पाया जाता है वह कल्पकल्प प्रकीरण के है । ११ दीक्षा, शिक्षा, गरणपोषण, संलेखना श्रादि ६ काल का जिसमें कथन पाया जाता है वह महाकल्प है। १२ भवनवासी ग्रादि देवों में उत्पन्न होने योग्य तपश्चरण आदि कारण जिसमें है वह पुण्डरीक है । १३ भवनवासी आदि देवों की देवियों की उत्पत्ति के योग्य तपश्चर्या आदि की विधिविधान महापुण्ड रोक में है । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ स्थूल सूक्ष्म दोपों का संहनन शरीर बल आदि के अनुसार प्रायश्चित्त आदि का विधान जिसमें है वह निविधिका है । त्रिविधमयधिज्ञानम् ॥१३॥ देशावधि, परमावधि तथा सर्वावधि ये अवधि ज्ञान के तीन भेद हैं । रूपो द्रव्यके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा से जानना अवधिज्ञान है। यह प्रवि ज्ञानावरण, बीयन्तिराय के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है । इसमें देशावधि के भवप्रत्यय तथा गुरा प्रत्यय ये दो भेद होते हैं। उसमें देव और नारकी के उत्पन्न होने वाला अवधि ज्ञान भव-प्रत्यय है तथा तीर्थंकर परम देव के सर्वाङ्ग से प्रगट होने वाला गुण-प्रत्यय ज्ञान है । विशुद्धि के कारण गुणवान मनुष्य और तिर्यश्च की नाभि के ऊपर रहने वाले शंखादि चिन्हों में उत्पन्न होता है। उसके छ भेद हैं-अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित । सूर्य के प्रकाश ने समान अवधिज्ञानी के साथ जाने वाला अनुगामी है, जो ज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न हुआ हो, वहां से चले जाने पर टूट जावे, साथ न जावे, इसे अननुगामी कहते हैं। शुक्ल पक्ष की चन्द्रमा के समान सम्यकदर्शनादि विशुद्ध परिणामों से उत्पन्न होकर यहां से प्रागे असंख्यात लोक तक निरन्तर बढ़ने वाला बर्द्धमान है । कृष्ण पक्ष की चन्द्रमा के समान सम्यग्दर्शनप्रादि में संक्लेश परिणामों की वृद्धि के योग से असंख्यात भाग कम होते जाना हीयमान कहलाता है। जैसे सूर्य समयानुसार घटता बढ़ता रहता है उसी प्रकार ज्ञानमें घटती बढ़ती होना अनवस्थित कहलाता है । परमावधि तथा सर्वावधि मे दो अवधि ज्ञान चरम शरीर देहधारी उत्कृष्ट संयमीके होते हैं वह जघन्य मध्यम * उत्कृष्ट से युक्त होता है और एकदेक्ष प्रत्यक्ष से जानता है । द्विविधो मनःपर्ययश्च ॥१४॥ - ऋजुमति और विपुलमति ये मनःपर्याय ज्ञान के दो भेद हैं। मनःपर्यय ज्ञान ज्ञानावरगके क्षयोपशम से और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम से उत्पन्न होने के कारण अपने मन के अवलम्बन से होने वाले ईहामति-ज्ञानपूर्वक अन्य के मन में रहने वाले मूर्त वस्तु को ही एक देश प्रत्यक्ष से विकल्प रूप से जानता है। जो ऋजुमति है वह ऋजु अर्थात् मन, वचन काय के अर्थ को सरलता से जानने वाला है, वह कालान्तर में छूट जाता है। वक्रावक्र अन्य मनुष्य के मन, वचन, काय के प्रति अर्थ को जानना विपुलमति ज्ञान है जो कि सदा स्थिर रहता है। यह ज्ञान परम संयमी मुनि के होता है । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) सायिकमेकमनन्तं शिकालसर्वार्थयुगपदवभासम् । सकल सुखधाम सततं वंदेऽहं केवलज्ञानम ॥४॥ . सुदकेवलं च गाणं दोणिवि सरिसारित होंति बोधादो। सुदरगाणं तु परोक्खं पच्चक्खं केवलं गाणं ।। कुञान-अनुपचारित अशुद्ध सद्भ तव्यबहारनय से मिथ्याश्रद्धान वाले जोय के कुमति, कुश्रुत विभंग ज्ञान ये तीनों कुशान होते हैं। जगत्रय व कालत्रयवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् अवलोकन समर्थ केवल ज्ञान उपादेय है, अन्य ज्ञान हेय हैं। नय नयाः ॥१५॥ अर्थ-नय नी होती हैं । १ द्रव्याथिक, २ पर्यायार्थिक, ३ नंगम, ४ संग्रह ५. व्यवहार, ६ जुसूत्र, ७ शब्द; ८ समभिरूढ और ६ एवंभूत। प्रमाण द्वारा जाने गये पदार्थ के एक अंश को जानने वाला ज्ञान 'नय' है। जिस तरह समुद्र में से भरे हुए घड़े के जल को न तो समुद्र कह सकते हैं क्योंकि समुद्र का समस्त जल धड़े के जलसे बहुत अधिक है और न उस पड़े के जल को 'प्रसमुद्र' कह सकते हैं क्योंकि वह जल है तो समुन्द्र का ही। इसी प्रकार नय को न तो प्रमाण कह सकते हैं क्यों कि वह प्रमाण के विषयभूत पदार्थ के एक अंश को जानता है और न उसे अप्रमाण ही कह सकते हैं क्योंकि वह है तो प्रमाण का ही एक अंश । द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्याथिक नय है और पर्याय को जानने वाला पर्यायाथिक नय है । __याथिक नय के १० भेद हैं-१ पर-उपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय । जैसे-संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्ध हैं। २ सत्ताग्नाहक शुद्ध द्रव्याधिक नय, जैसे जीव नित्य है । ३ मेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यापिक नय, · जैसे द्रव्य अपने गुणपर्याय स्वरूप होने से अभिन्न है , ४ पर उपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय; जैसे-आत्मा कर्मोदय से क्रोध मान आदि भावरूप है। ५ उत्पाद व्यय सपिक्ष शुद्ध द्रव्याथिक नय, जैसे- एक ही समय में द्रव्य उत्पाद व्यय धौथ्य रूप है। ६ भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय, असे प्रात्मा के ज्ञान दर्शन प्रादि गुण है । ७ अन्वय द्रव्याथिक नय-जैसे द्रव्य गुरणपर्याय-स्वभाव है। ८ स्वचतुष्टय ग्राहक द्रव्यार्षिक - जैसे स्वद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा द्रव्य है । ६ पर चतुष्टय ग्राहक द्रव्यार्षिक-जैसे पर द्रश्य क्षेत्र काल भाव की __ अपेक्षा द्रव्य नहीं है। १० परमभाव ग्राहक द्रव्याथिक . जैसे आत्मा ज्ञान स्वरूप है। ....... Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पर्याय मात्र को ग्रहण करने वाले पर्यायाथिक नय के ६ भेद हैं १ अनादि नित्य पर्यायांथिक -जैसे सुमेरु पर्वत प्रादि पुद्गल पर्याय निस्य हैं । २ सादिनित्य पर्यायाथिक नय-जैसे सिद्ध पर्याय नित्य है । ३ उत्पाद व्यय ग्राहक पर्यायार्थिक नय -जैसे पर्याय क्षरण क्षण में नष्ट होती है । ४ सत्तासापेक्ष पर्यायार्थिक नय-जैसे पर्याय एक ही समय में उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप है। पर उपाधि निरपेक्ष शुद्ध पर्यायार्थिक नय-जैसे संसारी जीवों की पर्याय सिद्ध भगवान के समान शुद्ध है । ६ पर उपाधि सापेक्ष अशुद्ध पर्यायाथिक नय-जैसे संसारी जीवों के जन्म, मरण होते हैं । संकल्प मात्र से पदार्थ को जानने वाला नंगम नय है। उसके तीन भेद हैं १ भूत, २ भावी और ३ वर्तमान । भूत काल में वर्तमान का प्रारोपण करना भूत नेगम नय है जैसे दीपावली के दिन कहना कि 'प्राज भगवान महावीर मुक्त हुए हैं। भविष्य का वर्तमान में प्रारोपण करना भावी नंगम है जैसे अन्त भगवान को सिद्ध कहना। प्रारम्भ किये हुए कार्य को सम्पन्न हुना कहना वर्तमान नेगम है जैसे--चूल्हे में अग्नि जलाते समय यों कहना कि मैं चावल बना रहा हूं। पदार्थों को संगृहीत (इकट्ठ) रूप से जानने वाला संग्रह नय है। इस के दो भेद हैं.-१ सामान्य संग्रह-जैसे समात पदार्थ द्रव्यत्व की अपेक्षा समान हैं परस्पर विरोधी हैं । २ विशेष संग्रह जैसे-समस्त जीव जीवत्व की अपेक्षा समान हैं-परस्पर विरोधी हैं। ___ संग्रह नय के द्वारा जाने गये विषय को विधि-पूर्वक भेदं करके जानना - व्यवहार नय है । इसके दो भेद है १ सामान्य व्यवहार-जैसे पदार्थ दो प्रकार के हैं १ जीव, २ अजीव । २ विशेष व्यवहार नय-जैसे जीव दो प्रकार. के . हैं । .१..संसारी, २ मुक्त । वर्तमान काल को ग्रहण करने वाला ऋजसत्र नय है । इसके भी दो भेद हैं- सूक्ष्म ऋजुसूत्र, जैसे पर्याय एक समयवर्ती है 1 २-स्थल ऋणुसूत्र जैसे . मनुष्य पशु-यादि पर्याय को जन्म से मरण तक आयु भर जानना। संख्या, लिंग आदि का व्यभिचार दुर करके शब्द के द्वारा पदार्थ को अहण करना, जैसे विभिन्न लिंगवाची दार, (पु.), भार्या (स्त्री), कलत्र (न..) शब्दों के द्वारा स्त्री का ग्रहण होना। एक शब्द के अनेक अर्थ होने पर भी किसी प्रसिद्ध एक रूढ अर्थ को ही शब्द द्वारा ग्रहण करना । जैसे गो शब्द के (संस्कृत भाषा में) पृथ्वी, वाणी Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५१ ) कटाक्ष, किरण, गाय श्रादि अनेक अर्थ हैं फिर भी गो शब्द से गाय को ही जानना । शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार उसी क्रिया में परिणत पदार्थ को उस शब्द द्वारा ग्रहण करना एवंभूत नय है । जैसे गच्छति इति गौः (जो चलती हो सो गाय है) इस व्युत्पत्ति के अनुसार चलते समय ही गाय को गो शब्द द्वारा जानना एवंभूत नय है । 1 नय की शाखा को उपनय कहते हैं । उपनय के ३ भेद हैं - १ सद्भूत व्यवहार नय, २ असदुद्भुत व्यवहार नय, ३ उपचरित प्रसद्भूत व्यवहार नय । सद्भूत व्यवहार नय के दो भेद है - १ शुद्ध सद्भूत व्यवहार - जो शुद्ध गुण गुणी, शुद्ध पर्याय पर्यायी का भेद कथन करे, जैसे सिद्धों के केवल ज्ञान दर्शन आदि गुण हैं । २ प्रशुद्ध सद्भूत व्यवहार — जो अशुद्ध गुण गुणी तथा अशुद्ध पर्याय पर्यायी का भेद वर्णन करे, जैसे -- संसारी आत्मा की मनुष्य श्रादि पर्याय हैं । प्रसद्भूत व्यवहार नय के ३ भेद है -१ स्वजाति असद्भूत व्यवहारजैसे परमाणु बहु प्रदेशी है । २ विजाति प्रसद्भूत व्यवहार जैसे मूर्ति मतिज्ञान भूर्ति पदार्थ से उत्पन्न होता है, ऐसा कहना । ३ स्वजाति विजाति प्रसद्भूत व्यवहार - जैसे ज्ञेय (ज्ञान के विषय भूत ) जीव प्रजीव (शरीर ) में ज्ञान है, क्योंकि यह ज्ञान का विषय है, ऐसा कहना | उपचरित प्रसद्भूत व्यवहार नय के भी ३ भेद हैं -१ स्वजाति उपचरित श्रसद्भूत व्यवहार - जैसे पुत्र स्त्री आदि मेरे है । २ विजाति उपचरित असदभूत व्यवहार नय - जैसे मकान वस्त्र आदि पदार्थ मेरे हैं । ३ स्वजाति विजाति उपचरित अद्भुत व्यवहार नय - जैसे नगर, देश मेरा है। नगर में रहने वाले मनुष्य स्वजाति (चेतन) है, मकान वस्त्र आदि विजाति (अचेतन) हैं । नय के दो भेद और भी किये हैं- १ निश्चय, २ व्यवहार | जो प्रभेदोपचार से पदार्थ को जानता है वह निश्चय नय है । जैसे श्रात्मा शुद्ध बुद्ध निरञ्जन है । जो भेदोपचार से पदार्थ को जानता है वह व्यवहार नय है। जैसे जीव के ज्ञान आदि गुण हैं । प्रकाशरान्तर से इन दोनों नयों का स्वरूप यों भी बताया गया है— • जो पदार्थ के शुद्ध अंश का प्रतिपादन करता है वह निश्चय तय है, जैसे जो अपने चेतना प्राणसे सदा जीवित रहता है वह जीव है । + Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) . जो पदार्थ के मिश्रित रूप का प्रतिपादन करता है वह व्यवहार नय है । जैसे जिसमें इन्द्रिय (५) बल (३) आयु और श्वास उच्छवास ये यथायोग्य १० प्राण पाये जाते हैं या जो इन प्रारणों से जीता है वह जीव है। नय प्राँशिक ज्ञानरूप हैं, अतः वे तभी सत्य होती है जबकि वे अन्य नयों की अपेक्षा रखती हैं। यदि वे अन्य नय की अपेक्षा न रक्खें तो वे मिथ्या नय हो जाती हैं। कहा भी हैनिरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तुतीर्थकृत । यानी.--अन्य नयों की अपेक्षा न रखने वाली नय मिथ्या होती हैं, जो नय अन्य नयों की अपेक्षा रखती हैं वे सत्य नय होती हैं, उनसे ही पदार्थ की सस्य सिद्धि होती है। नयानां लक्षणं भेलं वक्ष्ये नत्वा जिनेश्वरम् । खुर्नयारितमोनाशं मार्तण्डं जगदीश्वरम् ॥५॥ नयो वक्तुविवक्षा स्याद् वस्त्वशेष प्रवर्तते । द्विधासौ भिद्यते मूलाद् द्रव्यपर्यायभेदतः ॥६॥ नंगमः संग्रहश्चेति व्यवहार सूत्रको । शब्दसमभिरूढवंभूता नव नयाः स्मृताः ॥७॥ सद्भूतासभूतौ स्यातामुपचारतोऽप्यसद्भूताः। .. इत्युपनयास्त्रिभेदाः प्रोक्तास्तथैव तत्त्वज्ञैः ॥८॥ द्रव्याथि दशविध स्यात्पर्यायार्थी च षड्विधः। नैगमस्त्रिविधस्तत्र संग्रहश्च द्विधा मतः ॥६॥ व्यवहारर्जुसूत्रौ च प्रत्येको द्विविधात्मकः । शब्दसमभिरूद्वैवंभूतानां नास्ति कल्पना ॥१०॥ सद्भतश्च नयो द्वधाऽसद्भूतस्त्रिविधो मतः । उपचारात् सत्भूतः प्रोक्तः सोपित्रविध्यमाभजेत् ॥११॥ सर्वपारनयभेवानां भेदाः षट्त्रिंशदीरिताः। एतन्निगद्यते तेषां स्वरूपव्याप्तिलक्षणम् ॥१२॥ पुनरध्यात्मभाषयानयावभ्यरन्त्य तत्र तावस्मालनयोद्योनिश्चयो व्यवहारश्च बामेसोपचारतया वस्तुनिश्चेता इति निश्चयः । भेदोपचारतया वस्तुव्यवह Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५३) तमिति । यः सोपाधिविषर्याऽशुद्ध-निश्चयः, यथा मतिज्ञानादयो जोयिते । व्यवहासे द्विविधः-सद्भूतव्यवहार असद्भूतव्यवहारस्तव वस्तुविषयः सद्भूतव्यवहारोऽभिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहारो द्विविध उपचारितानुपरितभेदात् तत्र सोधाधिकारिणविषय उपचरित सद्भूत व्यवहारः । यथा जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः । निरुपाधिगुरागुणिभेदविषयानुपचरित . सद्भूतव्यवहारः। यथा जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणाः । असद्भूतो व्यवहारोद्विविधाः उपचरितानुपचरितभेदास्त्तत्र संक्लेशरहितवस्तु सम्बन्ध - विषय-उपर्चारतासद्भूतव्यवहारः । यथा शीय पासायनित्यादि । शंक्लेशरहित वस्तु-सम्बन्ध-विषयः अनुपचरितसद्भुतव्यवहारः । यथा जोबस्य शरीरमिति । एवमध्यात्मभाषया षपण्या : । समस्त जीव शुद्ध बुद्ध कस्वभाव वाले हैं ऐसा कहना शुद्ध निश्चय नय है । केवलज्ञानादि शुद्ध गुण जीव सम्बन्धी कहना अनुपचारित सद्भूतव्यवहार नय है। मतिज्ञानादि विभावगुण जीवसम्बन्धी हैं, उपचरित सद्भूत व्यवहार नयसे शरीरादि जोवसम्बन्धी कहे जाते हैं, अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नयसे । ग्रामप्रादि उपरित सद्भूत नयसे जीव-सम्बन्धी कहे जाते हैं। - - -- - - - गाथा जावदिया धयरणविहा ताबदिया चेव होंति एयवादा जावदिया रपयवादा तायरिया चेव होंति परसमया ॥१२॥ प्रमाणनयनिक्षेपर्योऽर्थानभिसमीक्ष्यते । पुक्त्यम्भायुक्तिवदाति तस्यायुक्तच युक्तिवत् ॥१३॥ ज्ञानं प्रमाणमित्याह रूपयो न्यासमुच्यते । नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थःपरिग्रहः ॥१४॥ स्वास्मोपलब्धि के विरूद्ध अनात्मोपलब्धि है। इसको यहां संक्षेप से दिग्दर्शन कराते हैं। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव यह अन्तरङ्ग स्वचतुष्टय है । पर (अन्य) द्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव ये बहिरंग हेतु है। इसको यहां दृष्टान्त से बतलाते हैं। हेमपाषाण ( खान से निकला हुआ पत्थर से मिला हमा सोना ) स्वद्रव्य है । उस हेमपाषाण के अपने प्रदेश उसका स्वक्षेत्र है । उसको प्रतीत अनागत पर्याय उसका स्वकाल है। उसके क्रिया-परिणत वर्तमान निजी परिगमन स्वभाव है । इसमूलिका ( जिसके द्वारा उसको शुद्ध किया जाता है ) धनस्पति Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका परद्रव्य है । मूस (कुठाली-जिसमें डालकर उसे शुख सुवर्ण बनाया जाता है। उस हेमपाषाण का पर-क्षेत्र है। रात दिन अादि परकाल है। रसवादी (नियारिया-सोना शुद्ध करने वाला सुनार आदि ) की परिणति हेमपावारण का पर-भाव है। - इसी प्रकार अनानिधन चैतन्य-स्वभाव जीव स्वद्रव्य है। लोकप्रमारण उसके प्रदेश प्रात्मा के स्वक्षेत्र हैं । आत्मा के प्रतीत अनागत पर्याय स्वकाल हैं। विशुद्ध प्रतिशय से युक्त वर्तमान पर्याय आत्मा का स्वभाब है। उतम संहनन, (शरीर) प्रात्मा का पर-द्रव्य है । १५ कमभूमियाँ इस आत्मा ( कर्मभूमिंजमनुष्य) का परक्षेत्र हैं | यह दुःषमा पंचमकाल पारमा का पर.काल है। और तस्वोपदेश से परिणत प्राचार्य प्रादि पर-भाव हैं। इस प्रकार स्वचतुष्टय, परचतुष्टय का यह संक्षेप विवरण है। सप्तभङ्गी ॥१६॥ अर्थ-वस्तु कथन करने की सात भंग (तरह) होते हैं उसीको सप्त भंगी कहते हैं। उनके नाम ये हैं-१-स्यात्अस्ति, २-स्यान्नास्ति, ३--स्यादस्तिनास्ति ४-स्यादवक्तव्य, ५-स्यादस्ति प्रवक्तव्य, ६-स्यान्नास्ति प्रवक्तव्य, ७-स्यादस्तिनास्ति अवताव्य । __ कहा भी है एकस्मिन्नविरोधेन प्रमाण नयवाक्यतः । सदादिकपना या च सप्तभंगीति सा मता ॥१५॥ यानो-एक पदार्थ में परस्पर अविराध ( विरोध न करके ) रूप से प्रमाण अथवा नय के वाक्य से सत् ( है } श्रादि को जो कल्पना को जाती है वह सप्तभंगी है। "स्यात् अव्यय पद है इसका अर्थ कथंचित् यानी किसी अपेक्षा से' है। प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य क्षेत्र काल भात्र की अपेक्षा है, यह स्यादस्ति ( स्यात् अस्ति ) है । जैसे-दिल्ली नगर अपने स्वरूप से है। प्रत्येक पदार्थ अन्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं है, यह स्यान्नास्ति ( स्यात.. नास्ति ) भंग है। जैसे-दिल्ली. नगर बम्बई की अपेक्षा नहीं है। .. प्रत्येक पदार्थ एक ही समय में क्रम से अपनी अपेक्षा है और अन्य की अपेक्षा नहीं है। यह स्यादस्तिनास्ति भंग है। जैसे-दिल्ली नगर अपनी अपेक्षा से है. प्रोर बम्बई की अपेक्षा नहीं है। . . . . . .......: . * Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ का स्वरूप अपनी तथा अन्य की अपेक्षा से एक साथ कहना चाहें तो किसी भी शब्द द्वारा नहीं कह सकते, इस कारण पदार्थ युगपत् (एक (साथ) अस्तिनास्ति रूप न कहे जाने के कारण स्थात् प्रवक्तव्य (न कहे जा सकने योग्य.) है। जैसे दिल्ली मुगपत् अपनी तथा बम्बई को अपेक्षा किसी .भी शब्द से नहीं कही जा सकती। पदार्थ अपने रूप से है और अपने तथा अन्य की अपेक्षा युगपत् कहा भी नहीं जा सकता यह स्यादस्ति प्रवक्तब्ध है। जैसे दिल्ली-अपने रूप से तो है परन्तु इसके साथ युगपत् स्व-पररूप से प्रवक्तव्य भी है। पदार्थ अन्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं है इसके साथ ही युगपत् स्वभर की अपेक्षा प्रवक्तव्य है, यह स्यात् नास्ति अक्तव्य भंग है । जैसे दिल्ली नगर बम्बई की अपेक्षा नहीं है और युगपत् अपनी तथा बम्बई को अपेक्षा न कहे जा सकने के कारण प्रवक्तव्य भी है। पदार्थ क्रम से अपनी अपेक्षा से है तथा अन्य की अपेक्षा से नहीं हैं एवं मुगपत् स्व-पर की अपेक्षा से प्रवक्तव्य है । जैसे दिल्ली अपनी अपेक्षा से है, बम्बई की अपेक्षा से नहीं है तथा युगपत् स्व-पर की अपेक्षा प्रवक्तव्य है। सप्तभड़ी की ये सातों भंगें कथंचित ( किसी एक दृष्टिकोण से) की अपेक्षा तो सत्य प्रमाणित होती है इसी कारण इनके साथ स्यात् पर लगाया जाता है, यदि इनको स्यात् न लगाकर सर्वथा (पूर्ण रूप से) माना जावे तो ये भगें मिथ्या होती हैं। कहा भी है। सवेकनित्यवत्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः। सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यावितीह ते ॥ इसका अर्थ ऊपर लिखे अनुसार ही है । इस प्रकार स्यात् पद लगाकर सात भंगों के कहने के सिद्धान्त को ही 'स्याद्वाद' कहते हैं। पंच भावा: ॥१७॥ अर्थ-जीव के असाधारण (जीव के सिवाय अन्य किसी द्रष्य में न पाये जाने वाले ) भाव पांच हैं। १-ौपशमिक, २-सायिक, ३-क्षायोपशमिक ४-प्रौदयिक और ५-पारिणामिक । प्रौपशमिको द्विविधः ||१|| अर्थ-जो भाव कर्मो के उपशम होने से (सत्ता में वठ जाने से) जो कुछ . . Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २५६) समय के लिए निर्मल होते हैं सो प्रौपशमिक भाव हैं। उनके दो भेद है १ सम्यक्त्व, २ चारित्र ।। अनादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधोक्रोध, मान माया लोभ इन पांच प्रकृतियों तथा सादि मिथ्या-दृष्टि के मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यक प्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ इन सात फर्मों के उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ के सिवाय चारित्र मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के उपशम होने से उपशम चारित्र (ग्यारहवें गुणस्थान में) होता है। क्षायिको नवविधः ॥१६॥ कर्मों के सर्वथा क्षय हो जाने पर जो प्रात्मा के पूर्ण शुद्ध भाव होते हैं वे क्षायिक भाव हैं । क्षायिक भाव के भेद हैं । १ ज्ञान (केवल ज्ञान), २ दर्शन (केवल दर्शन), ३ क्षायिक दान, ४ क्षायिक लाभ, ५ क्षायिक भोग, ६ क्षायिक उपभोग, ७ क्षायिक वीर्य (अनन्त बल), क्षायिक सम्यक्त्व और ६ क्षायिक चारित्र। . ये क्रम से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय (५ तरह का) तथा दर्शन, चारित्र मोहनाय के क्षय हो जाने से प्रगट हो जाते हैं। अष्टादशविधः क्षायोपशमिकः ॥२०॥ अर्थ-कर्म के सर्वधातो स्पद्धकों के उदयाभाव रूप क्षय (उदय होते हुए भी फल न देना) , अन्य बद्ध सर्वधाती स्पर्द्धकों का सत्ता में उपशम तथा देशघातीस्पर्द्धकों के उदय होने पर जो भाव होते हैं उन्हें क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । उनके १८ भेद हैं १-मतिज्ञान, २-श्रुतज्ञान, ३–अवधिज्ञान, ४-मनपर्यय ज्ञान, ५फुमति ६-कुश्रुत, ७-कुअवधि, 5-चक्षुदर्शन, ६-प्रचक्ष दर्शन, १०अवधिदर्शन, ११-दान, १२-लाभ, १३-भोग, १४-उपभोग, १५-वीर्य, १६-सम्परव, १७-चारित्र और १५-संयमासंयम ।। पहले के ७ भेद ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से, उसके बाद के ३ भेद दर्शनावरण के क्षयोपशम से, फिर आगे के ५ भाव अन्तराय के क्षयोपशम से और अन्तिम तीन भेद क्रम से दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय (प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानाचरण) के क्ष योपशम से होते हैं। . .. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ כי ( ३५७ ) श्रवयिकमेकविंशतिर्भेदः ||२१|| जो भाव कर्मों के उदय से होते हैं वे प्रदयिक भाव है, संक्षेप से उनके २१ भेद हैं । १ - मनुष्यगति, २ - देवगति, ३ – तिर्यञ्चगति, ४ – नरकगति, ५-क्रोध, ६ - मान, ७ - माया, ८ – लोभ, ६ - पुरुषवेद, १०- स्त्री वेद, ११नपुंसक वेद १२ - मिथ्यात्व १३, अज्ञान, १४ - असंयम, १४ प्रसिद्ध, १६ कृष्ण, १७ – नील, १८ कापोत, १६-पीत २० - पद्म, २१ - शुक्ल ( लेश्या) ये नाम कर्म, मोहनीय, कर्म ज्ञानावरण, तथा सर्व सामान्य कर्मों (प्रसिद्ध ) के उदय होने से होते हैं । पारिणामिक स्त्रिविध : ॥२२॥ श्रात्मा के जो स्वाधीन स्वाभाविक ( कर्म-निरपेक्ष ) भाव होते हैं वे पारिणामिक भाव हैं । उसके ३ भेद हैं । १ - जीवत्व, २ – भव्यत्व, ३अभव्यत्व | चेतनामयत्व जीवत्व है। मुक्त हो सकने की योग्यता भव्यत्व है और मुक्ति प्राप्त न हो सकने योग्य की योग्यता श्रभव्यत्व है । गुणजी मार्गणस्थानानि प्रत्येकं चतुर्दशः ||२३|| अर्थ – गुरणस्थान, जीवस्थान और मार्गणा ये तीनों प्रत्येक १४-१४ प्रकार के हैं । मिन्छोसासण मिस्सो अबिरदसम्मो य देसविरदो य । विरता पमस इदरो अपुष्य प्रालियट्ट सुमो य जवसंतीणमोहो सजोगकेवलिजिणो प्रजोगो य । चउदस ओवसमासा कमेण सिद्धा य णावया || " अर्थ - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्त, श्रप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय उपशान्तमोह, क्षोरामोह, सयोगकेवली, श्रयोग केवली, ये १४ गुणस्थान हैं। मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम से तथा योगों के कारण जो जीव के भाव होते हैं उनको गुरणस्थान कहते हैं । शुद्ध बुद्ध अखण्ड अमूर्तिक, अनन्तगुरण-सम्पन्न श्रात्मा का तथा वीतराग सर्वज्ञ अर्हत भगवान प्ररूपित तत्व, द्रव्य पदार्थ, महंत देव, निर्ग्रन्थ गुरु तथा जिनवाणी की श्रद्धा न होना, मिथ्यात्व गुणस्थान है । यह मिध्यास्व कर्म के उदय से होता है। एकान्त, विपरीत, विनय, संशय, अज्ञान रूप भाव इस गुणस्थानवर्ती के होते हैं। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५८ ) अनन्तानुबन्धी • सम्बन्धी क्रोध पत्थर पर पड़ी हुई लकीर के समान दौर्घकाल तक रहनेवाला, मान पत्थर के स्तम्भ के समान न झुकनेवाला, एक दूसरे में गुयी हुई बांस की जड़ों के समान कुटिल माया और मजीठ के रंग के समान अमिट लोभ होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व - वाले व्यक्ति के जब इनमें से किसी भी कषाय का उदय हो जावे तब उसका सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है किन्तु (कम से कम) एक समय और अधिक से अधिक ६ प्रावली काल प्रमाण जबतक मिथ्यात्व का उदय नहीं हो पाता उस बीच की दशा में जो प्रात्मा के परिणाम होते हैं वह सासादन गुणस्थान है। जैसे कोई मनुष्य पर्वत से गिर पड़ा हो किन्तु जब तक पृथ्वी पर न पहुंच पाया हो। सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से जो सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के मिले हुए मिश्रित परिणाम होते हैं जैसे दही और खांड मिला देने पर एक विलक्षण स्वाद होता है जिसमें न दही का स्वाद प्राता है, न केवल खांड का ऐसे ही मित्रगुणस्थान वाले के न तो मिथ्यात्व रूप ही परिणाम होते हैं, न केवल सम्यक्त्व रूप' परिणाम होते हैं किन्तु दोनों भावों के मिले हुए विलक्षण परिणाम हुआ करते हैं । इस गुणस्थान में न तो कोई प्रायु बन्धती है और न मरण होता है; जो प्रायु पहले बांध ली हो उसो के अनुसार सम्यक्त्व या मिथ्यात्व भाव प्राप्त करके मरण होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व “मोर सम्यक् प्रकृति इन सात प्रकृतियों के उपशम होने से, क्षय होने से था क्षयोपशम होने से जो उपशम, क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है किन्तु अप्रत्याख्यानावरण के उदय से जिसको अणुव्रत भी नहीं होता वह अविरत सम्पग्दृष्टि गुणस्थान है। यानी-प्रत 'रहित सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान वाला होता है । इस गुणस्थान-वाला सांसारिक भोगों को विरक्ति के साथ भोगता है। सम्यग्दृष्टि जीव को जब अप्रत्याख्यानावरण कषाय, जिसका कोष पृथ्वी की रेखा के समान होता है, के क्षयोपशम से अणुब्रत धारण करने के परिगाम होते हैं तब उसके देशविरत नामक पांचवां गुरास्थान होता है । यह पांच पापों का एक देश त्याग करके ११ प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा का वारिष पालन करता है। दंणवय सामाइय पोसह सचित्तराइभत्तं य । बम्भारम्भपरिग्गह अणुमणमुद्दिष्ट देसविरदो य ॥ 211, Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यानी-दर्शन, अत, सामायिक, प्रोषव, सचित्तविरक, रात्रि-भोजन-त्याग, ब्रह्मचर्य, प्रारम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति स्याग और उद्दिष्ट त्याग ये पांचवें गुणस्थान वाले की ११ प्रतिमाएं (श्रेणियां) हैं, इनका स्वरूप पीछे चरणानुयोग में लिख चुके हैं । धूलिकी रेखा के समान प्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि का क्षयोपशम हो जाने पर जब महाव्रत का आचरण होता है किन्तु जल रेखाके समान क्रोधादि वाली संज्वलन कषाय तथा नोकषायों के उदय से चारित्र में मैल रूप प्रमाद भी होता रहता है, तब छठा प्रमत्त गुणस्थान होता है । ४ विकथा (स्त्रीकथा भोजन कथा, राष्ट्र कथा, अवनिपाल कथा ), चार कषाय [क्रोध मान माया लोभ], ५ इन्द्रिय तथा नींद और स्नेह ये १५ प्रमाद हैं । महाप्रती मुनि जब संज्वलन कषाय तथा नोकषाय के मंद उदय से प्रमाद रहित होकर प्रात्मनिमग्न ध्यानस्थ होता है तब अप्रमत्त नामक सातवां गुणस्थान होता है। इसके दो भेद हैं । १- स्वस्थान अप्रमत्त [ जो सातवें गुणस्थान में ही रहता है, ऊपर के गुणस्थानों में नहीं जाता, २-सातिशयजो ऊपर के गुणस्थानों से चढ़ता है ! अनन्तानुबन्ध गोध मान II लोग लियाम आरित्र बोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के उपशम करने के लिए अथवा क्षय करने के लिए श्रेणी चढ़ते समय जो प्रथम शुक्लध्यान के कारण प्रतिसमय अपूर्व परिणाम होते हैं वह अपूर्वकरण नामक पाठवां गुणस्थान है। अपूर्वकरण गुणस्थान में कुछ देर [ अन्तर्मुहूर्त ] ठहरकर अधिक विशुद्ध परिणामोंवाला नौवां अनिवृत्ति गुणस्थान होता है। इसमें समान समयवर्ती मुनियों के एक समान ही परिणाम होते हैं । इस गुरणस्थान में है नोकषायों का तथा अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान-प्रावरण कषाय सम्बन्धी क्रोध मान माया लोभ और संज्वलन क्रोध मान माया, इन २० चारित्र मोहनीय कर्म प्रकृतियों का उपशम था क्षय होकर केवल स्थूल संज्वलन लोभ रह जाता है। इस गुणस्थान का समय भी अन्तमुहर्त है। तदनन्तर उससे अधिक विशुद्ध परिणामोंबाला सूक्ष्मसाम्पराय नामक १० वां गुणस्थान होता है, इसमें स्थूल संज्वलन लोभ सूक्ष्म हो जाता है। उपशम श्रेणी चढ़ने वाले मुनि १०३ गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रहकर तदनन्तर संज्वलन सूक्ष्म लोभ को भी उपशम करके ११वें गुणस्थान उपशान्त मोह में पहुंच जाते हैं। यहां पर उनके विशुद्ध यथास्यात चारित्र हो जाता है, Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६० ) राग द्वेष क्रोध यादि विकार नहीं रहते, बीतराग हो जाते हैं। परन्तु मुहूर्त पीछे ही उपशम हुश्रा सूक्ष्म लोभ फिर उदय हो जाता है तब उपशांत मोहवाले मुनि उस ११ वें गुणस्थान से भ्रष्ट होकर क्रम से १० वें, हमें, वें आदि गुणस्थानों में आजाते हैं । जो मूर्ति क्षपक श्रेणी पर खड़ते हैं वे १० वें गुणस्थान से सूक्ष्म लोभ का भी क्षय करके क्षीणमोह नामक १२ गुणस्थान में पहुँच जाते हैं। वहां उन्हें वीतराग पद, विशुद्ध यथाख्यात चारित्र सदा के लिए प्राप्त हो जाता । उन्हें उस गुणस्थान से भ्रष्ट नहीं होना पड़ता । ८वें से ११ वें गुणस्थान तक बाली उपशम श्रेणी तथा ८वें गुरास्थान से १२वें गुणस्थान तक [ ११ गुणस्थान के सिवाय ] क्षपकश्रेणी का काल अन्तर्मुहूर्त है और उन प्रत्येक गुणस्थान का काल भी समुहूर्त है ! तमुहूर्त के छोटे बड़े अनेक भेद होते हैं । दूसरे शुक्लध्यान एकत्ववितकें प्रवीचार के बल से १२ वें गुरंग स्थान वाला वीतराग मुनि जब ज्ञानावरण और दर्शनावरण अन्तराय कर्म का भी समूल क्षय कर देता है तब श्रनन्तज्ञान [ केबल ज्ञान ], अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य प्रगट होता है, वह सयोग केवली नामक तेरहवां गुणस्थान हैं। मोहनीय कर्म के नष्ट होने / से 'अनन्तसुख होता है। इस तरह केवली अर्हन्त भगवान श्रनन्त चतुष्टय- धारक सर्वश वीतराग होते हैं। उनके भाव मन योग नहीं रहता। कार्ययोग के कारण उनका विहार होता है और वचन योग के कारण उनका दिव्य उपदेश होता है । दोनों कार्य इच्छा बिना स्वयं होते हैं । श्रायु कर्म समाप्त होने से कुछ समय पहले जब योग का निरोध भी हो जाता है तब १४ वां प्रयोग केवली गुणस्थान होता है। अ इ उ ऋ लृ इन पांच ह्रस्व प्रक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना समय इस . गुणस्थान का काल है। इस गुणस्थान में शेष समस्त प्रघाति कर्मों का नाश 1. करके मुक्त हो जाते हैं । मुक्त हो जाने पर द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से रहित होकर सिद्ध अन्तिम शरीर से कुछ कम प्रकार [ अमूर्ति 1 में हो जाते हैं। और आरमा के समस्त गुण विकसित हो जाते हैं। तदनन्तर एक ही समय में ऊर्ध्वं गमन के लोक के भाग में पहुंचकर ठहर जाते हैं। फिर उनको जन्म मरण श्रादि नहीं होता । श्रनन्तकाल तक अपने परम विशुद्ध स्वाधीच सुखानुभव में निम्न रहते हैं । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त संसारी जीवों को जी संक्षेप से बतलाने की विधि है उसको 'मीवसमास' कहते हैं । (समस्यन्ते संक्षिप्यन्ते जीवाः येषु यैर्वा ते जीवसमासाः) जीवसमास के १४ भेद हैं १ एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्त, २ एकेन्द्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त, ३ एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त, ४ एकेन्द्रिय बादर अपर्याप्त, ५ दोइन्द्रिय पर्याप्त, ६ दोइन्द्रिय अपर्याप्त, ७ तीनइन्द्रिय पर्याप्त, ८ तीन इन्द्रिय अपर्याप्त, ६ चार इन्द्रिय पर्याप्त, १० चार इन्द्रिय अपर्याप्त, ११ पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त, १२ पंचेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्त, १३ पंचेन्द्रिय असंशी पर्याप्त, १४ पंचेन्द्रिय प्रसंगी अपर्याप्त । पर्याप्त अपर्याप्त जीवों का स्वरूप आदि प्रागे कहा आयगा, अतः यहां पर नहीं देते। जिनके द्वारा समस्त जीवों को ढूंढा जावे, उनकी खोज की जावे [ मृग्यन्ते जीवाः यासु याभिर्वा ताः मार्गणाः ] उनको मार्गणा कहते हैं, वे गई ईदियं च काये जोए वैए कषायणाणे य। संजभदेसरलेस्सा मधिया सम्भरा सांण पाहारे ।। यानी-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेब, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार ये १४ मार्गणाएँ हैं। विविधमेकेन्द्रियम् ॥२४॥ प्रथ-एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं-१ भादर, २ सूक्ष्म । बादरसुहुमुदयेण य बावरसुहुमा हवंति तद्दे हा । घादसरीरं शूलं अघावदेहं हवे सुहम ॥१३॥ तद्दे हम गुलरस्स य प्रसंखभागस्स विदमारणं तु। प्राधारे थूलाम्रो सन्वस्थ पिरंतरा सुहुमा ॥१४॥ पानी-बार नाम कर्म के उदय से मादर और सूक्ष्म नाम कर्म के उदय से सूक्ष्म शरीर होता है। जो शरीर दूसरे को रोके तथा दूसरे द्वारा रुके वह बादर शरीर है। जो शरीर दूसरे से न रुके तथा स्वयं दूसरे को न रोके वह मुक्ष्म शरीर है । अंगुल के असंख्यात, भाग प्रमाण उन बादर सूक्ष्म जीवों का शरोर होता है। बादर एकेन्द्रिय जीव किसी के आधार से रहते हैं किन्तु सूक्ष्म जीव सब जगह हैं, विना आधार के रहते हैं। विकामयम् ॥१५॥ . . . Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६२) अर्थ-विकलेन्द्रिय जीवों के ३ भेद हैं १-दोइन्द्रिय, २-तीन इन्द्रिय, ३-चार इन्द्रिय । जिनके स्पर्शन रसना इन्द्रिय होती हैं वे दो इन्द्रिय जीव हैं जैसे जोंक शंख सीपी । जिनके स्पर्शन रसना, प्रारण होती है वे तीन इन्द्रिय जीव हैं जैसे खटमल जू आदि। जिनके स्पर्शन रसना घ्राण और चक्ष होती है वे चार इन्द्रिय जीव हैं जैसे-मक्खी मच्छर आदि। एकेन्द्रिय जीव स्पर्शनइन्द्रिय से अधिकसे अधिक चार सौ धनुष (४ हाम का एक धनुष) दूरवर्ती पदार्थ को जान सकता है। दो इन्द्रिय ८०० धनुष, तीन इन्द्रिय १६०० धनुष और चार इन्द्रिय जीव ३२०० धनुष दूर के पदार्थ को स्पर्शन इन्द्रिय से जान सकते हैं। दो इन्द्रिय जीव रसना इन्द्रिय द्वारा ६४ धनुष दूरवर्ती पदार्थ को जान सकता है, तीन इन्द्रिय जीव १२८ धनुष और चार इन्द्रिय जीव २५६ धनुष दूर तक रसना इन्द्रिय से जान सकता है । तीन इन्द्रिय जीव सौ धनुष दुरवर्ती पदार्थ को घ्राण से जान सकता है, चारइन्द्रिय जीव २०० दी सी धनुष दूर के "दार्थ को ब्राण से जान सकता है । चार इन्द्रिय जीव चक्षु इन्द्रिय से अधिक से अधिक २६५४ योजन दूरवर्ती पदार्थ को देख सकता है। पंचेन्द्रिया द्विविधाः ॥२६॥ अर्थ-पंचेन्द्रिय जीवों के दो भेद हैं-१ संज्ञी, २ असंज्ञी । जो मन द्वारा शिक्षा, क्रिया; पालाप (शब्द का संकेत) ग्रहण कर सकें वे संज्ञी हैं । जैसे देव मनुष्य नारको, हाथी घोड़ा, सिंह, कुता बिल्ली आदि । जो शिक्षा क्रिया पालाप ग्रहण करने योग्य मन से रहित होते हैं वे असंही हैं। चार इन्द्रिय तक सब असंही होते हैं पंचेन्द्रियों में जलका सर्प और कोई कोई तोता असंज्ञी होता है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपनी स्पर्शन, रसना, प्राण और चक्षु इन्द्रिय द्वारा चार इन्द्रिय जीव से दुगुनो दूरके पदार्थ को जान सकता है । उसको कर्णइन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय ८००० धनुष दूर का है। ___ संज्ञो पंचेन्द्रिय की स्पर्शन, रसना घ्राण इन्द्रियों का उत्कृष्ट विषय ९-६ थोजन दूरवर्ती है, कर्ण इन्द्रिय का १२ योजन का है और नेत्र इन्द्रिय का ४७२६३२ योजन है। षट् पर्याप्तयः ॥२७॥ मर्य-पर्याप्ति (शक्ति) ६ हैं। पाहारसरोरिदिय पज्जती मारणपारणभासमरणो। चत्तारि पंप छप्पिय .एइंचियनिमलसम्पारणं ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६५ ) 5 यानी - आहार शरीर, इति भाषा और मन ये ६ पर्याप्तियां हैं। एकेन्द्रिय जीव के पहली ४ और दो इन्द्रिय से श्रसैनी पंचेन्द्रिय तक के जीवों के मन के सिवाय शेष ५ तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय के ६ पर्याप्ति होती हैं । एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर जिन नोकर्म वर्गणाओं से बनता है (जैसे गर्भाशय में रजवीर्य ) उन वर्गणाओं को खल ( गाढ़ा कठोर ) तथा रस रूप कर देने की शक्ति को बाहार पर्याप्ति कहते हैं । खल भाग को हड्डी रूप करने तथा रस भाग को खून बनानेरूप शक्ति को शरीर पर्याप्ति कहा गया है । इन्द्रिय रूप रचना की शक्ति को इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वास लेने निकालने की शक्ति को श्वास- उश्वास पर्याप्ति वचन रूप शक्ति को भाषा पर्याप्ति, तथा द्रव्यमनरूप बनाने की शक्ति को मन पर्याप्ति कहते हैं । ये पर्याप्तियां अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण हो जाती हैं, जिन जीवों की पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं वे पर्याप्तक कहे जाते हैं। जिनकी पर्याप्तियां पूर्ण नहीं होतीं; प्रधूरी होती हैं वे अपर्याप्तक होते हैं । अपर्याप्तक जीव दो प्रकार के हैं- १ निवृत्यपर्याप्तक - जिनकी पर्याप्तियां अधूरी हों किन्तु अन्तर्मुहूर्त में अवश्य पूर्ण होने वाली हों । २ लब्ध्यपर्याप्तक- जिनकी सभी पर्याप्तियां अधूरी रहती हैं, पूर्ण होने से पहले ही जिनका मरण हो जाता है । शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो जाने पर जीव पर्याप्तक माना जाता है । सभी पर्याप्तियों का प्रारम्भ एक साथ होता है किन्तु पूर्णता क्रम से होती जाती है । दश प्रागाः ॥२८॥ अर्थ - प्राण १० होते हैं । पंचिवि इंदियपाणामरणवचिकाएसु तिथिष बलपारणा प्राणापाणप्पारणा आउगपाणेख होंति वसपारणा ||२३|| इंदियकायाकरिणम पुरषापुण्येसु पुण्गे श्रारणा । वोsदियादिपुण्ये बचो मरणो सणिपुण्य ॥ २४ ॥ दस सगीर पारणा से सागरांतिमस्स बेऊरगा । पज्जत्ते सिदरेसु यो सन्त बुगे सेसगेगूरखा ॥ २५ ॥ ल यानी - स्पर्शन, रसना, धारण, नेत्र, कर्ण ये पांच इन्द्रियां, मनबल, वचन काय बल, श्वासोश्वास और प्रायु ये १० प्राण होते हैं । इंद्रिय, काय श्रीर प्रायु ये तीन प्रारण सभी पर्याप्त, अपर्याप्त जीवों के होते हैं, स्वासोश्वास पर्याप्त जीव के ही होता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के १० प्राण होते हैं, प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय I Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मन के विना प्राण होते हैं । चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और दो इन्द्रिय जीवों के क्रम से एक-एक इन्द्रिय कम होते जाने से 5, ७,६ प्राण होते हैं। एकेन्द्रिय जीवके रसना इन्द्रिय और बचन बल न होनेसे चार प्राण ही होते हैं । अपर्याप्तक संज्ञी असंज्ञी पंचेन्द्रिय के मन बल, वचन बल और श्वासोश्वास के बिना शेष ७ प्राण होते हैं। शेष चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, वो इन्द्रिय, एकेन्द्रिय जोवों के ए-एक इन्द्रिय कम होते जाने से क्रम से ६-५-४-३ प्रारा होते हैं। __ चतुरस्रः सज्ञाः ।।२।। अर्थ-जिनसे व्याकुल होवार जीव दोनों भवों में दुख पाते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं । संज्ञा ४ हैं.-१आहार (भोजन करने की इच्छा) २ भय, ३ मैथुन (काम वासना) ४ सांसारिक पदार्थो से ममता रूप परिग्रह । रगट्ठपमाए पढमा सणगा गहि तत्थ कारणभावा । सेसा कम्मत्थित्ते गुवयारेगस्थि राहि कज्जे ॥२६॥ यानी–असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा से होने वाली पाहार संज्ञा छठे गुणस्थान तक होती है, उसके आगे अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में आहार संज्ञा नहीं होती। शेष तीन संज्ञाएं वहां उनके कारण-भूत कर्मों की सत्ता होने से उपचार से मानी गई हैं, कार्यरूप नहीं होती है, अन्यथा उन अप्रमत्तादि गुण* स्थानों में शुक्लध्यान नहीं हो सकता । गतिश्चतुविधा ॥३०॥ अर्थ—गति चार प्रकार की है-१ नरकगति, २ तिर्यञ्च गति, ३ मनुष्य गति और ४ देव गति । गति नाम कर्म के उदय से होने वाली पर्याय को तथा चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते हैं। जीव एक शरीर छोड़ कर दूसरे शरीर में गति नाम कर्मके उदय से जाता है, वहां पहुंचने पर गति नाम कर्म प्रात्मा को उस पर्याय रूपमें रखता है। ___ पंचेन्द्रियाणि ॥३१॥ अर्थ--इन्द्रिय पांच हैं-१ स्पर्शन (चमड़ा त्वचा), २ रसना (जीभ), ३ घ्राण (नाक), ४ नेत्र (प्रखि) और ५ कर्ण. (कान) ! आत्मा जिसके द्वारा मतिज्ञान से जानता है या जो आत्मा के चिन्ह हैं (इन्द्रः आत्मा, तस्य लिंग-चिन्ह-इन्द्रियम्)उसे इन्द्रिय कहते हैं। शरीर में जो भांख नाक कान जीभ आदि हैं वह द्रव्येन्द्रिय हैं, उन स्थानों पर जो आनने की शक्ति है यह भाव-इन्द्रिय है। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w ( ३६५) स्पर्शन इन्द्रिय अपने अपने शरीर के आकार होती है उससे हलका, भारी, रूखा, चिकना, कड़ा. नर्म, ठंडा गर्म ये ८ तरह के स्पर्श जाने जाते हैं। रसना इन्द्रिय से खट्टा, मोठा, कड़वा, कषायला चपरा ये पांच रस जाने जाते हैं उसका आकार खुरपा के समान है। प्राण इन्द्रिय से सुगन्ध दुर्गन्ध का ज्ञान होता है इसका आकार तिल के फूलके समान है। चक्ष इन्द्रिय से काला पोला नीला लाल सफेद तथा मिश्रित रंगों का ज्ञान होता है इसका प्राकार मसूर की दाल के समान है । कर्ण इन्द्रिय से अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक शब्द सुने जाते हैं इसका प्राकार गेहे की नाली के समान है। षड् जीवनिकायाः ॥३२॥ अर्थ-संसारी जीब छह निकाय (समुदाय) रूप हैं-१पृथ्वी कायिक, २ जलकायिक, ३ अग्निकायिक, ४ वायुकायिक, ५ वनस्पतिकायिक और ६ अस काय । पृथ्वी रूप शरीर वाले पृथ्वीकायिक जीव हैं जैसे पर्वत आदि, खनिज पदार्थ (सोना चांदी प्रादि) पृथ्वीकायिक हैं । इनका आकार मसूर की दाल के समान है। जलरूप शरीर वाले जलकायिक जीव हैं जैसे जल, अोला, वर्फ आदि । इनका प्राकार जल की चूद के समान है। अग्नि रूप शरीर वाले जीव अग्निकायिक होते हैं। जैसे आग, बिजली आदि इनका प्राकार खड़ी हुई सुइयों के समान है। वायु रूप जीव वायुकायिक हैं जैसे हवा। इसका प्राकार ध्वजा के समान है। वनस्पति रूप शरीर जिनका होता है वे बनस्पतिकायिक हैं जैसे पेड़पौवे, बेल आदि । इनके आकार अनेक प्रकार के हैं। दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जीव त्रम होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में सबसे बड़ी अवगाहना कमल की है जो कि एक हजार योजन का है। दो इन्द्रिय जीवों में बारह योजन का शंख, तीन इन्द्रियों में तीन कोश की ग्रंष्मी (चींटी), चार इन्द्रियों में एक योजन का भोंरा और पंचेन्द्रियों एक हजार योजन का स्वयम्भूरमरण समुद्रवर्ती राघव मत्स्य सबसे बड़ी Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६ ) श्रवगाहना वाला है । ये उत्कृष्ट अवगाहना वाले पहले चार जीव स्वयम्भूरमण [अंतिम] द्वीप में होते हैं । किन्हीं आचार्य के मत से पृथ्वीकायिक वनस्पतिकाधिक तथा विकलत्रय जीवों के सासादन गुण-स्थान भी होता है । सासादन गुणस्थान में भी मरण होता है । त्रिविधो योगः ॥ ३३॥ अर्थ-मन वचनं तथा शरीर को क्रिया से जो आत्मा में हलन चलन होती है जिससे कि कार्मण वर्गरणाओं का ग्राकर्षण [ श्रास्रव ] होता है वह योग है, उसके तीन भेद हैं-१ मन, २ वचन, ३ काय 1 मनयोग के ४ भेद हैं-१ सत्य, २ असत्य मिश्रित रूप ] ४ श्रनुभय [ जिसे न सत्य कह सकें, न वचन योग भी चार प्रकार का है—१ सत्य, ३ उभय [सत्य असत्य सत्य ] | २ असत्य ३ उभय, ४ अनुभय । काय योग [शारीरिक योग] ७ प्रकार हैं- १ ग्रौदारिक [ मनुष्य पशुओं का शरीर ], २ औदारिक मिश्र [ अधून- अपर्याप्त प्रदारिक शरीर ] ३ वैकिक [देव नारकी शरोर] ४ वैकियिक मिश्र [ अधूरा वैकियिक शरोर], ५ आहारक [ श्राहारक ऋद्धिधारक मुनि के मस्तक से प्रगट होने वाला शरीर ] ६ आहारक मिश्र [ पर्याप्त आहारक शरीर ] ७ कार्मारण काययोग [ विग्रह गति में ] । इस तरह योग के भेद हैं । पंचदशविधाः || ३४॥ अर्थ-योग १५ तरह के हैं । सत्य मन, प्रसत्य मन, उभयमन, अनुभय मन ऐसे मनोयोग के चार भेद है। सत्य वचन, असत्य वचन, सत्यासत्य वचन, और अनुभव ये वचन के चार भेद हैं। श्रदारिक, श्रदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैrियिक मिश्र, श्राहारक आहारक मिश्र, और कार्मारण काययोग ये काय योग के सात भेद हैं । ये सब मिलकर १५ योग होते हैं। इनमें असत्य उभय वचन सैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर क्षीण - कषाय पर्यन्त होते हैं । सत्य मन, सत्य वचन, अनुभय मन अनुभव वचन संज्ञो पर्याप्तक से लेकर संयोग केवली तक होता है । आदारिक काय योग स्थावर काय से लेकर संयोग केवलो तक होता है । श्रीदारिक मिश्र योग मिथ्यादृष्टि, सासादन पुंवेद, असंयत, कपाट सयोगो इन चार गुणस्थानों में होता है । वैकियिक में पहले चार गुणस्थान, वैऋियिक मिश्र में तीन (मिश्र 1 4. I Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६७) के सिवाय पहले चार) गुणस्थान होते हैं। माहारक तथा प्रामार मिश्र के अन्तर्मुहूर्त काल प्रमत्त गुणस्थान होता है। कार्माणयोग के औदारिक मिश्र के समान चार गुणस्थान होते हैं। वेदस्त्रिविधः ॥३५॥ पुवेद, स्त्री वेद तथा नपुंसक वेद ये तीन प्रकार के वेद होते हैं । नवविधो वा ॥३६।। १-द्रव्य पुरुष-भाव पुरुष, २-द्रव्य पुरुष-भाव स्त्री, ३-द्रव्य पुरुषभाव मघुसक, ४-द्रव्य स्त्री-भाव स्त्री, ५-द्रव्य स्त्री-भाव पुरुष, ६-द्रव्य स्त्रीभाव नसक, ७-द्रव्य नपुसकभाव-नसक, ६-द्रव्य नपुंसक भाव- पुरुष तथा ६ वां द्रव्य नपुसक भाव स्त्री ये ६ भेद होते हैं । इनमें से प्रथम के तीन भेद वाले को कर्म क्षय की अपेक्षा से घटित करना चाहिए। पुरिसिच्छिसण्डवेदोदयेन पुरिसिन्छिसंण्ढनो भावे । पामोदयेन सन्चे पायेण समा कहि विसमा ।। वेद्यते इति वेदः, अथवा आत्मप्रवृत्तः संमोहात्पादो देवः । प्रात्मप्रवृत्तगिधुदुबन सम्मोहोत्पादो वेदः ।। घास की अग्नि के समान पुवेद है, उपले (कडे) को अग्नि के समान स्त्री वेद है तथा तपी हुई ईटों के भट्ट की आग के समान नपुंसक वेद है। नारको तथा सम्मू छन जोवों के नपुसक वेद होता है। देवों में नपुसक नहीं होते । शेष सब जोबों में तीनों वेद होते हैं और मिथ्यात्व गुणस्थान से अनिवृत्ति करण गुणस्थान तक वेद रहता है। चतुःकषायाः ॥३७॥ क्रोष, मान, माया तथा लोभ ये चार प्रकार के कषाय होते हैं। और विशेष के भेद से अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानाबरण क्रोध, मान, माया लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया लोभ तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया लोभ ये १६ कषाय होते हैं। सम्मत्तवेससयलचरित्त जहखादचरणपरिणामे । घावंति वा कसाया चउसोल असंखलोगभिदा ॥२८॥ सिलनमिक उदरेखा सित अस्थिवारुलता दबास्सेमे । सस्सलेयरिण मुसिलक्ख कुसुभ हरिहसमा ॥२६॥ . पानी-मानसासुबन्धी काम स्वरूपाचरण धारिप तथा सम्पत्य का, Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८) अप्रत्याख्यानाचरण देश चारित्र का, प्रत्याख्यानावरण सकल चारित्र का और . संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र का घात करता है । तीव्र मन्द मध्यम' आदि भेदों से कषायों के असंख्यात भेद हैं। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान आदि का क्रोध कम से पत्थर को रेखा समान, पृथ्वी की रेखा समान, धूल की रेखा समान और पानी की रेखा समान है। अनन्ताबन्धी आदि चारों कषायों का मान क्रम से पत्थर, हड्डी, लकड़ी तथा बंश के समान है। वारा कमायों की भाया क्रम से बांस की जड़ के समान, मेंढे के सींग के समान, गाय के भूत्र समान तथा खुरपे के समान है। अनन्ताबन्धी आदि का लोभ क्रम से मजीठ के रंग समान, गाड़ी के पहिये के मैल (ओंगन) के समान, कुसुम के रंग समान तथा हल्दी के रंग के समान होता है । अष्टज्ञानानि ॥३॥ मतिज्ञान, श्रृतिज्ञान, अवधिज्ञान तथा मनः पर्ययज्ञान ये चार शान क्षोयपशम के निमित्त से होते हैं । केवल ज्ञान ज्ञानावरण के क्षय से होता है। ये पांचों ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं। कुमति कुश्रुत और विभंग ये तीन ज्ञान अज्ञान कहलाते हैं । इस प्रकार ज्ञान मार्गणा के पाठ भेद होते हैं सैनीपंचेन्द्रिय पर्याप्त को विभंग ज्ञान मिथ्यात्व तथा सासादन गुणस्थान में होता है। मिश्र गुणस्थान में सत्ज्ञान अज्ञान मिश्रितरूप में तीन ज्ञान होते हैं। मति श्रुत तथा अवधिज्ञान असंयत सम्यग्दृष्टि को होता है। मनःपर्यय ज्ञान प्रमत्तसंयत से क्षीण कषाय गुणस्थान तक होता है। केवल ज्ञान केवलो तथा सिद्ध भगवान में होता है । सप्त संयमाः ॥३६॥ १ सामायिक, २ छेदोपस्थापना, ३ परिहार विशुद्धि, ४ सूक्ष्मसापराय, ५ यथाख्यात, ६ देशसंयत ७ असंयम ये संयम सात प्रकार के हैं। किस कषाय से कौन सा संयम होता है सो बतलाते हैं -बादर संज्वलन कषाय के उदय से पहले के तीन बादर संयम होते हैं। सूक्ष्म संज्वलन लोभ से सूक्ष्म सामराय संयम होता है। समस्त मोहनीय कर्म के उपशम तथा क्षय से यथाख्यात संयम होता है । समस्त सावध योग का एक देश रूप से त्याग करना सामायिक चारित्र है। सामायिक चारित्र से डिगने पर प्रायश्चित्त के द्वारा सावध व्यापार में लगे हुए दोषों को छेद कर पुनः संयम धारण करना छेदोप स्थापना नामक चारित्र है। अथवा समस्त साबध योग का भेद रूप से त्याग करना छेदोपस्थापना चारित्र Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! ३६) है । अर्थात् मैंने समस्त पाप कार्यों का त्याग किया यह सामायिक चारित्र रूप है और मैंने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, और परिग्रह का त्याग किया वह शेपस्थ, कामदारे का स है । जिस काररम में प्राणी हिंसा की पूर्ण निवृत्ति होने से विशिष्ट विशुद्धि पायी जाती है उसे परिहार विशुद्धि कहते हैं । जिसने अपने जन्म से तीस वर्ष की अवस्था तक सुख पूर्वक जीवन बिताया हो और फिर जिन दीक्षा लेकर आठ वर्ष तक तीर्थकर के निकट प्रत्याख्यान नाम के नौवें पूर्व को पढ़ा हो । उस महामुनि को परिहार विशुद्धि चारित्र होता है। उसके शरीर से किसी जीव को वाधा नहीं होती, अत: वह वर्षा काल में भी गमन कर सकता है रात को गमन नहीं करता। संध्या काल को छोड़कर दो कोस गमन करता है । इस चारित्र वाले के शरीर से जीवों का घात नहीं होता इसी से इसका नाम परिहारविशुद्धि है । अत्यन्त सूक्ष्म कषाय के होने से सांपराय नाम के दशवें गुरास्थान में जो चारित्र होता है उसे सूक्ष्म साम्पराय चारित्र कहते हैं । समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से अथवा क्षय से जैसा प्रात्मा का निर्विकार स्वभाव है वैसा ही स्वभाव हो जाना यथाख्यात चारित्र है । इस चारित्र को प्रथाख्यात भी कहते हैं 'प्रथ' शब्द का अर्थ अनन्तर है। यह समस्त मोहनीय के क्षय अथवा उपशम होने के अनन्तर होता है अतः इसका नाम अथाख्यात. है तथा इसे तथाख्यात भी कहते हैं क्योंकि जैसा आत्मा का स्वभाव है वैसा ही इस चारित्र का स्वरूप है। चत्वारि दर्शनानि ॥४॥ सामान्य विशेषात्मक वस्तु के सामान्य रूप को विकल्प-रहित होकर ज्ञान से पहले प्रतिभास करने को दर्शन कहते हैं। इसके चक्ष दर्शन और प्रचक्ष दर्शन अवधिदर्शन केवल दर्शन ऐसे चार भेद हैं। १ चक्ष रिद्रिय मतिज्ञान के पहले होनेवाला चक्ष दर्शन, २ शेष इन्द्रिय मतिज्ञान से पहले होनेवाला अचक्ष दर्शन है. ६ अवधिज्ञान से पहले उत्पन्न होनेवाला अधिक दर्शन कहते हैं । जैसे सूर्य निकलते ही सम्पूर्ण वस्तु एक साथ दीखने लगती हैं उसी तरह केवल दर्शनावरण कर्म का सम्पूर्ण क्षय होने के कारण सम्पूर्ण पदार्थ एक साथ प्रतिभासित होना केवल दर्शन है । दर्शनोपयोग का काल अन्तर्मुहर्त होता है। यह क्रम से छदमस्थों में मोर युगपत अहंत भगवान और सिद्ध भगवान में होता है। चक्ष दर्शन के स्वामी चौन्द्रिय पंचेन्द्रिय हैं, अचक्ष इन्द्रिय के स्वामो Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७० ) एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रियतक अवधि दर्शन के स्वामी असंयत सम्यग्दृष्टि से क्षीराकषाय तक होते है । और केवल दर्शन जिन तथा सिद्ध के होता है । षड्लेश्याः ।।४१।। लेश्या -- कषाय के उदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । वह अपनी आत्मा को पुण्य, पाप, प्रकृति, प्रदेश स्थिति तथा अनुभाग बन्ध का कारण हैं । इस प्रकार की यह लेश्या छः तरह की होती हैं उसके क्रमशः कृष्ण नील, कापोत, पीत पद्म तथा शुक्ल भेद होते है । इसमें की पहली तीन लेश्यायें अशुभ तथा नरक गति की कारण भूत हैं, किन्तु शेष तीन देव गति की कारण हैं । उनका लक्षरण इस प्रकार है ― भोरे के समान काला, नील के समान, कबूतर के समान, स्वर्ण के समान लाल कमल के समान और शंख के समान क्रम से कृष्ण, नील, कापोत, पति पदम शुक्ल लेश्या के शारीरिक रंग होते हैं इस प्रकार लेश्या छः हैं। इनके प्रत्येक में असंख्यात व संख्यात विकल्प होते हैं। इस प्रकार की जन्य लेक व भाव लेश्याओं से जो रहित हैं वे मुक्त कहलाते हैं । लेश्याओं के २६ अंश होते हैं। उनमें से मध्य के श्रंश आयु बन्ध: के कारण हैं, शेष १५ अंश चारों गतियों में गमन के कारण हैं । • कृष्ण, नील कापोत ये तीन प्रशुभ लेश्याएँ हैं इनमें से प्रत्येक के उत्तम्ब - मध्यम जघन्य तीन तीन भेद होते हैं। पोत पद्य शुक्ल लेश्या शुभ हैं इनमें से भी प्रत्येक के उत्तम मध्यम जघन्य तीन तीन भेद हैं, सब मिलकर १८ भेद हैं । इनमें से शुक्ल लेश्या के उत्तम भंश के साथ मरकर जोव सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न होता है, जघन्य अंश सहित रहनेवाला शतार सहस्रार विमान में उत्पन्न होता है। मध्यम अंशों से मरने वाला सर्वार्थसिद्धि और शतार सहस्रार के बीच के विमानों में जन्म लेता है । पदम लेश्या के उत्कृष्ट अंश से सहस्रार स्वर्ग में और जधन्य अंश के साथ मरकर सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग में तथा मध्यम अंश के साथ मरा जीव. सहस्रार सानत्कुमार माहेन्द्र के बीच के स्वर्गों में जाता है । पीत लेश्या के भ्रंश के साथ मरकर सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग के अंतिम - लेके श्रणीबद्ध विमानों में, या इन्द्रक विमान में, जघन्य अंश के साथ मरा हुआ जीव सौधर्म ऐशान स्वर्ग के ऋतु नामक इन्द्रक विमान या तत्सम्बन्धी श्र ेणीबद्ध 'विमान में जन्म लेता है । मध्यम अंश से मरकर दोनों के बीच में उत्पन्न होता है । 4. I Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "कृष्ण लेश्या के उत्कृष्ट अंश से सातवें नरक के अधि स्थान नामक इन्द्रक विल में, जघन्य अंश से पांचवें नरक के तिमिश्र विलमें, मध्यम मंश से मरा हुमा बीच के नरकों में उत्पन्न होता है। नील लेश्या के उत्कृष्ट अंश से पांचवें नरक के अन्न नामक इन्द्रक दिल में, जघन्य अंश से मरकर तीसरे नरक के अन्तिम पटल के संप्रज्वलित 'इन्द्रक दिल में और मध्यम प्रश से बीच के नरकों में उत्पन्न होता है । कापोत लेश्या के उत्कृष्ट प्रश से भरा हुआ जीव सीसरे नरक के -विचरम पटल संज्वलित इन्द्रक बिल में, जघन्य अश से मरकर पहले नरक के सीमन्त इन्द्रक बिल में और मध्य म अंशों से मरा हा जीव इनके बीच के “मरक स्थानों में उत्पन्न होता है । इसके सिवाय अशुभ लेश्यानों के मध्यम अंश के साथ मरे "हए जीव ''पूर्वबद्ध आयु अनुसार कर्मभूमिज मिथ्यादृष्टि मनुष्य तियंञ्च होते हैं । पीत लेण्या के मध्यम अश पूर्वबद्ध प्रायु अनुसार भोग-भूभिज मिथ्याइष्टि मनुष्य तिर्यञ्च तथा भवनवासी ब्यन्तर ज्योतिषी देव होते हैं । कृष्ण नील कापोत पीत लेश्या के मध्यम अंशों से मरे हुए जीव मनुष्य तिर्यञ्च, भवनत्रिक, सौ. 'धर्म ऐशान के मिथ्यादृष्टि देव होते हैं। कृष्ण नीष कापोत के मध्यम "प्रेशों से मरने वाले तिर्यंच, मनुष्य, अग्निकायिक, वायुकायिक, साधारण वनस्पति विकलत्रय में से किसी में उत्पन्न होते हैं। प्रयदोत्ति छलेस्सायो सुहतियलेस्सा ह देशविरवत्ति । एतत्तो सुक्कलेस्सा अजोगिरणं अलेस्सं तु ।३०। द्विविधं भव्यत्वं ॥४२॥ भव्य और प्रभव्य ये भव्य मार्गणा के दो भेद हैं। उसमें सम्यादर्शन ज्ञानचारित्र प्राप्त करके अनन्त चतुष्टय स्वरूप में परिणमन करने योग्य भव्य जीव होते हैं। सम्यक्त्वादि सामग्री को न प्राप्त करके मोक्ष न जाने योग्य प्रभव्य जीव होते हैं। स्थावर काय से लेकर अयोगी केवली तक १४ गुरणस्थानों में भव्य होते हैं। अभव्य मिथ्या-दृष्टि गुण-स्थानी होते हैं। सिद्ध भगवान में भव्य और प्रभव्य की कल्पना नहीं है। षड्विधा सम्यक्त्वमार्गरणा ॥४३॥ उपशम, वेदक और क्षायिक ऐसे तीन तथा मिथ्यात्व, सासावन एवं मिश्र ये तीन प्रतिपक्षी मिलकर सम्यक्त्व मार्गणा के छह भेद होते हैं। औपशमिक सम्पत्व के उत्पत्ति निमित्त से प्रथम उपशम व द्वितीयः उपशम ये दो भेद Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२ ) होते हैं । उसमें मिथ्यादृष्टि को उत्पन्न होने वाला प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन है तब वेदक सम्यग्दृष्टि को होनेवाला सम्यग्दर्शन द्वितीयोपशमिक है, किसी धाचार्य के मत से उपशम श्रेणी चढ़नेवाले का उपशम सम्यक्त्व द्वितीय उपशम होता है, शेष प्रथम उपशम -- वह सम्यक्त्व कहां-कहां होता है, सो बतलाते हैं मिथ्यादृष्टि भव्य संज्ञी पर्याप्तक गर्भेज जीव लब्धि चतुष्टय इत्यादि सामग्री को प्राप्त करने के बाद त्रिकरण लब्धि को प्राप्त करके प्रथमोपशम सम्यक्त्व को धारण करता है । और उसी समय अणुव्रत से युक्त होकर महाव्रत को धारण कर सकता है । भोगभूमिज, देव और नारकी को एक ही सम्यक्त्व होता है । तिर्यञ्च भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है । कर्मभूमि के मनुष्य को दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय होने के कारण क्षायिक सम्यग्दर्शन भी होता हूँ । क्षायिक सम्यक्त्वी जन्म-मरण के अधीन नहीं होते, अधिक से अधिक तीन भव वारण कर मुक्त हो जाते हैं । उपशम सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त होती है । और उपशम भाववाला जीव उपशम सम्यक्त्व के काल में अनन्ताarat चारों कषायों में से किसी एक के उदय में आते ही सम्यक्त्व रूपी शिखर से पतित होकर मिध्यात्वरूपी भूमि. को जबतक प्राप्त नहीं होता है । उस अन्तरालवर्ती समय में उसको सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं । उसका जघन्य काल एक समय होता है और उत्कृष्ट काल छह श्रावली प्रमारा होता है । तत्पश्चात् यंत्र में डाले हुए तार के समान दर्शन मोहनीय कर्म में से मिथ्यात्व का उदय होता है तब वह मिध्यात्व को प्राप्त होता है उसमें वह जघन्य से अमुहूर्त' तक रहकर गुणान्तर को प्राप्त होता है । और उत्कुष्ट से श्रद्ध पुद्गल परावर्तन काल तक संसार सागर में परिभ्रमण किया करता है । दुर्मति को लेजाने का मूल कारण केवल मिथ्यात्व होता है । पुनः सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होते हुए उसमें रहने के पश्चात् मिथ्या दृष्टि अथवा असंयत सम्यग्दृष्टि होते हैं । सम्यग्मिथ्यात्व मिश्रित श्रद्धान भाव होता है । इस गुणस्थान में मरण नहीं होता। सम्यक् प्रकृति के उदय होने के बाद गंदे पानी में फिटकरी मिलनेसे जैसे कुछ मैल नीचे बैठ जाता है उसी प्रकार सम्यक् प्रकृति के उदय के कारण चल, मलिन तथा प्रगाढ़ परिणाम रूप वेदक सम्यग्दृष्टि होता है । यह क्षयोपशम सम्यक्त्व जघन्य से प्रन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से ६६ सागरोपम है। तदनुसार इस सम्यक्त्व वाला देवगति और मनुष्य गति में जन्म लेकर अभ्युदय सुख का प्रतुभव करके ६६ सागरोपम काल प्रमित श्रायु व्यतीत करता है । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किस-किस कल्प में कितनी-कितनी प्रायु होती है सो कहते हैं:लान्तव कल्प में १४, अच्युतकल्प में २२, उपरिममे वैयक में ३१ सागरोपम प्राघु है। पर फिर भी वेदक सम्यग्दृष्टि अपनी अपनी आयु में हीन होते हैं। इसके बश्चात् वेदक सम्यग्दृष्टि उपशम घेणो चढ़ने के योग्य होने के कारण पहले अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करते हैं । पुनः अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण द्वारा दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों को उपशम करते हुए द्वितीयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं, तब उपशम एपारूढ होकर ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंच जाते हैं परन्तु उनके कषाय फिर उदय हो जाते हैं अतः के ग्यारहवें गुरणस्थान से नीचे के १०९ में पाये गुणस्थानों में क्रमश: आ जाते है। कोई कोई अंगोवाला प्रायु न होने के कारण लेश्या के वश मरण को भी प्राप्त होता है। परिहार विशुद्धि , मनः पर्ययज्ञान, प्रथमोपशमक को नहीं होते, बल्कि द्वितीयोपशम में होता है । और दर्शन मोहनीय क्षपण का प्रारम्भ कर्म भूमि के मनुष्यों को चौथे असंयत गुणस्थान में होता है । वे तीर्थंकर के पादमूल में अथवा श्रुत केवली के पादमूल में रहकर अनन्तानुबन्धी तथा दर्शन-मोहनीय-त्रिक का क्षय करते हैं । सो इस प्रकार है : योग्य निर्वाण क्षेत्र, काल, भव, पायु इन सबके साथ-साथ शुभलेश्या की वृद्धि, कषाय को हानि इत्यादि युक्त होने के निमित्त से अनंतानुवन्धी को अप्रत्याख्यान प्रकृति रूप करते हैं फिर सम्यग्मिथ्यात्व पश्चात् सम्यक्त्व प्रकृति को नि:शेष क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं । क्षायिक सम्यक्त्व असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर सिद्ध भगवान तक रहता है। उपशम-सम्यक्त्व उपशांत कषाय गुणस्थान तक होता है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-मिधा, सासादन सम्यक्त्व अपने अपने गुरणस्थान में ही होते हैं । क्षायिक सम्यहष्टि जन उसी भव तक अथवा तीन भव तक अथवा ज्यादा से ज्यादा चार भव तक ही संसार में रह सकते हैं । उनकी संसार की अपेक्षा से स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट से उत्कृष्ट मंतमुहूर्त तथा आठ वर्ष कम दो कोटि पूर्व सहित ३३ सामरोपम होती हैं। सिद्ध भगवान के क्षायिक सम्यक्त्व का अन्त नहीं होता है । वेदक उपशम सम्यक्त्वी ज्यादा से ज्यादा अर्ध पुद्गल तक संसार निवास करता है। देवस देव मणुवे स रणर तिरिये चदुग्गदि । ‘पिकद करगिज्जुप्पत्ति कमसी अंत मुहस्तेग ।।३।। दर्शन मोहनीय कर्स की तीन प्रकृति का क्षय करने के बाद सम्यक्त्व Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४४) प्रकृति को पूर्ण रूप से क्षय करके यदि प्रामु एक अन्तर्मुहत शेष रहें तो देव गति में जाकर जन्म लेता है। दो अन्तर्मुहूर्त शेष हो तो देव और मनुष्य गति में उत्पन्न होता है। तीन अन्तर्मुहूर्त दोष रहने पर देव, मनुष्य तथा तिर्यग्गति में उत्पन्न होता है । चार अन्त मुहूंत शेष रहने पर क्रमश: चतुर्गतियों में उत्पन्न होता है। यदि उसे वेदक सम्यक्त्व प्राप्त हो जाय तो अधिक से अधिक प्रर्द्ध पुद्गल परावर्तन पर्यन्त संसार में रहता है। द्विविधं सजिस्वम् ॥४४॥ __अर्थ -संगी और असंझी, ये दो प्रकार के जीव होते हैं। इनमें मन सहित जीवों को संज्ञो और मन रहित जीवों को असंज्ञी कहते हैं। एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय जोव प्रसंशी होते हैं। पंचेन्द्रियों में देव नारकी और मनुष्य संज्ञो होते है । शंका-मन का काम हिताहित की परीक्षा करके हित को ग्रहण करके अहित को छोड़ देना है, इसको संज्ञा कहते है । अत: जब संजा और मन दोनों का एक ही अभिप्राय है तो संजी और समनस्क का मतलब एक ही है.सो फिर सूत्र में "संज्ञि" क्यों कहा ? समाधान—संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ है । संशा नाम को भी कहते हैं। अतः जितने नामवाले पदार्थ हैं के सभी संज्ञी कहलायेंगे । संज्ञा ज्ञान को भी कहते हैं और ज्ञान सभी जीवों में पाया जाता है, अतः सभी संजी कहे जायेंगे ! भोजन इत्यादि की इच्छा का नाम भी संशा है, जोकि सभी जीवों में पाई जाती है, अतः सभी संज्ञी हो जायगे । इसलिए जिसके मन है उसी को संशी कहना उचित है । दूसरे गर्भअवस्था में, मूच्छित अवस्था में, हित -अहित का विचार नहीं होता। अतः उस अवस्था में संज्ञी जीष भी प्रसंज्ञी कहे जायेगे । किन्तु मन के होने से उस समय भी वे मंशी हैं, अतः संशी समनस्क दोनों पदों को रखना ही उचित है। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सभी बीव असंही हैं। संशी 'मिथ्या दृष्टि से लेकर भोणकषाय पर्यन्त सभी जीव संशी हैं और केवली भगवान समनस्क हैं, द्रव्य मन की अपेक्षा अमनस्क नहीं हैं। पाहारोपपोगश्चेति ॥४५॥ पाहार के दो भेद हैं । १-पाहारक, २-अनाहारक । प्रौदारिक वैक्रियिक प्राहारक इन तीन शरीरों तथा ६ पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करता आहार है। गर्म लोहे का बोला जैसे Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( * ) पानी में रख देने से अपने चारों ओर के पानी को खींच लेता है, उसी प्रकार आत्मा अपने चारों ओर की नोकर्म पुद्गल वर्गणाओं को खींच लेता है । यही आहार कहलाता है । उस नोकर्म वर्गरगा का श्राहार मिध्यादृष्टि से लेकर सयोग केवली भगवान तक होता है। कुछ लोग इसका अर्थ विपरीत समझकर सर्वश भगवान "कवलाहार करते हैं" ऐसा कहते हैं, सो गलत है। आहार के भेद बतलाते है: -- दि नोकम्मकरमहारो कवलाहारो य लेप्यमाहारो । श्रोजमरतोव य कमसो श्राहारो छबिहो पोयो ॥ ३२ ॥ मोकम्मकम्महारो जोवारणं होदि चउमइगयारणं । फलाहारो नरपसु रुक्खे तु य लेप्पमाहारो ॥३३॥ पवीण प्रोजहारो अंडयमज्भेसु बड्ढमानारणं । बेवेस मनोहारो चविसारपट्टिदी केवलिरणो ॥ ३४ ॥ नोकम्मकरमहारो उदियारेण तस्स प्रायामे । भणियानह णिच्चयेन सो विहुलिया वापारो जम्हा | ३५ | 'अर्थ प्रहार छह प्रकार का होता है - १ - नोकर्यं श्राहार, २ कर्माहार, ई-कलाहार, ४ - लेप्याहार, ५ - श्रीजाहार, ६ - मानसिक शाहार | इनमें से नोकर्मधाहार ( शरीर के लिये नोकर्म वर्गरणाओं का ग्रहण) तथा कर्माहर ( कर्म का प्राव) तो छारों गतियों के जीवों के होता है । कबलाहार (मुख मिटाने के लिए अन्न फल आदि का भोजन) मनुष्य और पशुओं के होता है । वृक्षों के लेप्याहार (जल मिट्टी का लेप रूप खाद ) होता है । अण्डे में रहनेवाले पक्षी आदि का भोजाहार ( अपनी माता के शरीर की गर्मी-सेना ) होता है । देवों के मानसिक प्रहार ( भूख लगने पर मन में भोजन करने का विचार करते ही गले में से अमृत भरता है और भूख शान्त हो जाती है ) होता है अनाहारक ( शरीर और पर्याप्तियों के लिए श्राहार वर्गरणा ग्रहण न करने वाले जीव ) कौन से होते हैं सो बतलाते हैं - — विग्गगमावण्णा केवलिणो समुग्धदो प्रजोगी य। सिद्धा य प्रणाहारा सेसा श्राहारया जीवा । " यानी एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करने के लिए जाने वाले विग्रहगति वाले चारों गति के जीव, प्रतर और लोकपूर्ण समुद्घात वाले केवली तथा (सिद्ध परमेष्ठी अनाहारक होते हैं, शेष ग: जीव आहारक होते हैं ! Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६ ) उपयोगश्चेति ।।४७॥ अर्थ-उपयोग के भी १२ भेद हैं । उवमोगो दुवियण्यो दसरणगाणं व बंसरणं चदुधा । चपखुपचक्कल प्रोही दंसरणमध केवलं गेयं ॥३७।। रणारणं अद्रुवियप्यं मविसुर श्रोही प्रसारणगाणाणि । मणपज्जय केवलमयि पञ्चहल परोक्ख भेयंच ॥३८॥ • यानी-उपयोग के मुल दो भेद हैं-दर्शन और तान । इनमें से दर्शन पयोग के ४ भेद है-१-चक्षु दर्शन (नेत्रद्वारा होनेवाला गान से पहले पदार्थ को सत्तामात्र का प्रतिभास होना), २–प्रचक्ष दर्शन ( नेत्र इन्द्रिय के सिवाय शेष चार इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान के पहले पदार्थों की सत्तामात्र का प्रतिभास होना). अवधिदर्शन (अवधिज्ञान के पहले पदार्थों की सत्तामात्र का प्रतिभास होना), ४-केवल दर्शन (केवल ज्ञान के साथ-साथ त्रिलोक त्रिकालवर्ती पदार्थों की सत्तामात्र का प्रतिभास होना) । शान उपयोग आठ प्रकार का है। १-मतिज्ञान, २-श्रुतज्ञान, ३अवधिज्ञान, ४-कुमति, ५-कुश्रत, ६-कुअवधि, ७-मनपर्यय, ८-केवल ज्ञान । इनमें से मति, श्रुत, कुमति, कुश्रुत ये ४ ज्ञान परोक्ष हैं क्योंकि इन्द्रिय मन आदि के सहारे से होते हैं-अस्पष्ट होते हैं । अवधि, कुअवधि और मनपर्यय भग्न एक देश प्रत्यक्ष है और केवल ज्ञान पूर्ण प्रत्यक्ष है। ___पहले गुणस्थान में कुमति, कुश्रुत, कुअवधि (विभंग अवधि) ज्ञान, चक्षु, अचक्ष दर्शन ये पांच उपयोग होते हैं । मिश्र गुणस्थान में मिश्रित पहले तीनों ज्ञान उपयोग होते हैं। चौथे पांचवें गुणस्थान में मति, श्रुत, अवधिज्ञान, चक्ष , अचक्ष , अवधिदर्शन ये ६ उपयोग होते हैं। छठे गुणस्थान से १२वें गुणस्थान तक केवल ज्ञान के सिवाय ४ ज्ञान और केवल दर्शन के सिवाय ३ दर्शन ये ७ उपयोग होते हैं । १३३, १४३ गुणस्थान में केवल ज्ञान, केवल दर्शन ये २ उपयोग होते हैं। इनमें से केवल ज्ञान केक्स दर्शन साक्षात् उपादेय हैं । गुणाजीवापज्जत्ती पाणा सण्णागइंदिया काया । जोगावेदकसाया जाणजमा सणालेस्सा ॥३६ भन्धा सम्मत्ताविय सण्णी पाहारगाय उखजोगा जोग्गा परूविदवा भोघादेसेसु समुदायं ।।४।। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( -) यानी-गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, संज्ञा, गति, इन्द्रिय, काय, योग, येद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेण्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संशी, आहार, उपयोग इनको यथायोग्य गुणस्थानों तथा मार्गणाओं में प्ररूपण करना चाहिए। पुद्गलाकाशकालध्यास्रवाश्च प्रत्येकं द्विविधाः ॥४॥ अर्थ-पुद्गल, भाकाश, कालद्रव्य, और पानव प्रत्येक दो दो प्रकार के हैं । पूरण और गलन स्वभाव वाला पुद्गल द्रव्य है इसके परमाणु और स्कन्ध ये दो भेद हैं । पुद्गल का सबसे छोटा टुकड़ा ( जिसका मोर टुकड़ा न हो सके ) परमारण है । परमाए में कोई एक रस, कोई एक गन्ध, कोई एक रंग और मखा, चिकना में से एक नन्दा दंडा, गर्म में से एक, इस तरह दो स्पर्श ये पांच गुण होते हैं । अनेक परमाणु प्रों का मिला हुमा पिण्ड स्कन्ध' कहलाता कहा भी है .. एयरसवण्णगंधा दो फासा खंध कारणमखंषं । संधतरिदं दव्ये परमाणु तं वियागाहि । पानी-एक रस, एक वर्ण, एक गंध, दो स्पर्श घाला परमाणु होता है वह स्वयं स्कन्ध नहीं है किन्तु स्कन्ध का मूल कारण है। दो परमारणओं का स्कन्ध नि-अणुक कहलाता है । अनन्त परमारण मों का पिण्ड प्रवसनासन्न होता है । ८ अबसन्नासन्न का एक सन्नासन, ८ सन्नासन्न का एक प्रसरेणु, ८ त्रसरेणु का एक रथरेणु, ८ रभरेणु का एक उत्तमभोगभूमिज के बाल का प्रमभाग, उन पाठ बालाग्र भागों का एक मध्यम भोगभूमिजका एक बालाग्र भाग, उन ८ बालान भागों का जघन्य भोगभूमिज का बालान भाग, उन ८ बालाग्र भागों का एक कर्मभूमिज का बालाग्र भाग होता है। उन आठ बालाग्र भागों की एक लोख होती है, पाठ लीखों को एक सरसों, ८ सरसों का एक जौ, ८ जो का एक उत्सेधांगुल होता है । जीवों के शरीर को अचाई, देवों के नगर; मन्दिर प्रादि का परिमाण इसी अंगुल के अनुसार होता है । ५०० उत्सेधांगुल का एक प्रमाणागुल (भरत क्षेत्र के प्रथम चक्रवर्ती का नगुल) होता है । प्रमाणीगुल के अनुसार महापर्वत, नदी, द्वीप, समुद्र आदि का परिमाण बतलाया गया है । अपने अपने काल के अनुसार भरत ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों का जो मंगुल होता है, उसे आत्मागुल कहते हैं । इस अंगुल से झारी, कलश, धनुष, ढोल, छत्र आदि का परिमारण बतलाया जाता है। ६ अंगुन का एक पाद, २ पाद को एक बालिस्त, २ मालिस्त का एक हाथ, ४ हाथ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का एक धनुष, २००० धनुष का एक कोश, और ४ कोश का एक बोजन होत। है। २००० कोश का एक महायोजन होता है। स्कन्ध के भेद... स्कन्ध ६ प्रकार का है-वादर बादर, २-बादर, ३-चादर सूक्ष्म, ४-सूक्ष्मबादर, ५-सूक्ष्म, ६-सूक्ष्म सूक्ष्म । जिन वस्तुओं के अलग अलग टुकड़े हो सके जैसे लकड़ी पत्थर आदि पार्थिव (पृथ्वी जन्य) पदार्थ बादर वादर हैं । जल दूध आदि पदार्थ अलग करने पर भी जो फिर मिल जाते हैं वे बादर हैं। जो नेत्रों से दिखाई दे किन्तु जिसे पकड़ न सके, जिसके टुकड़े न किये जा सकें , वे बादर सूक्ष्म हैं जैसे छाया । नेत्र के सिवाय चार इन्द्रियों को निगा ( ध, ६, का माद : स्पर्श ) जो दिखाई नहीं न दे सकें वे सूक्ष्म बादर है, जैसे शब्द, वायु, सुगन्ध दुर्गन्ध । जो स्कन्ध किसी भी इन्द्रिय से न जाने जा सके वे सक्षम है जैसे कार्माण स्कन्ध ! परमाणु को सूक्ष्म सूक्ष्म कहते हैं। परमाणु को सर्वावधिज्ञान तथा केवल ज्ञान जान सकता है। स्निग्ध ( चिकना ) तथा रूक्ष गुण के कारण परमाणुओं का परस्पर में बन्ध होकर स्कन्ध बनता है । बन्ध होनेवाले दो परमाणुमों में से एक में स्निग्ध था स्या गुण के दो अविभाग प्रतिच्छेद अधिक होने चाहिए । पुद्गल द्रव्य की १० पर्यायें होती हैं--१-शब्द, २-अन्ध, ३-सूक्ष्मता, ४-स्पूलता, ५-संस्थान (प्राकार), ६-भेद (टूटना टुकड़े होना), ७-अन्धकार, ८-छाया, ह-उद्योत (शीत प्रकाश) १०-प्रातप (उष्ण प्रकाश)। प्राफाश के दो भेद हैं-१-लोकाकाश, २-अलोकाकाश । प्राकाश के बीच में लोक ३४३ धनराजु प्रमाण, १४ राजु कंचा है, उत्तर से दक्षिण को सब जगह ७ राजु मोटा है, पूर्व से पश्चिम को नीचे ७ राजु चौड़ा, फिर घटते घटते ७ राजु की ऊंचाई पर एक राशु चौड़ा, उससे ऊपर कम से बढ़ते हुए साढ़े तीन राजु की ऊंचाई पर पांच राजु चौना, फिर वहां से घटते हुए ३।। राजु की ऊंचाई पर एक राजु चौड़ा रह गया है। मीचे के सात राजु में अधोलोक है। उसके ऊपर सुमेरु पर्वत की ऊंचाई (६ हजार योजन ) तक मध्य लोक है उसके ऊपर ऊर्ध्व लोक है। लोकाकाश में १४ राजु ऊंची, एक राजु लम्बी चौड़ी त्रस नाली या अस नाड़ी है, इसमें त्रस स्थावर जीव रहते हैं उससे बाहर केवल स्थावर जीव रहते हैं, स जीव नहीं रहते । पुदगल, धर्म, अधर्म, काल, जीव द्रव्य लोकाफाश में ही रहते हैं Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " (204) (लोक्यन्ते जीवादयो यत्र स लोकः) । लोकाकाश के बाहर सब और अनन्त sterकाकाश है । वहाँ प्राकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नहीं होता । काल द्रव्य निश्चयकाल और व्यवहार काल से काल के दो भेद हैं। निश्चय काल-प्रादि मध्य अन्त से रहित यानी अनादि श्रनन्त है । और अमूर्त श्रवस्थित है, अगुरुलघु गुणवाला है। जीवादि पदार्थों की वर्तना का निमित्त कारण है । लोकाकाक्ष के एक एक प्रदेश पर एक एक काला रत्न की राशि के समान रहता है। जो प्रदेश है वह परमाणु का क्षेत्र है । कालद्रव्य लोकाकाश के प्रदेश जितना है, उतना ही रहता है। उस परमार्थकाल के माश्रय से समय ग्रावली उपवास, स्तोक, लब, घड़ी, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु प्रयन, संघस्सरादि मेव से व्यवहार कालता है । परमाणु लोकाकाश में अपने साथ वाले दूसरे प्रदेश पर मन्द गति से जितने काल में जाता है वह समय है । समय घंटा, घड़ी दिन इत्यादि व्यवहार काल है । श्रसंख्यात समय की एक ग्राबली, श्रसंख्यात प्रावली का एक उच्छवास, सात उच्छ्वास से एक स्तोक होता है । सात स्तोक का एक लव ३८ ॥ साडे अड़तीस लव की एक घड़ी, दो घड़ी का एक मुहूर्त, तीस मुहंत का एक दिन, पन्द्रह दिन का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अन, दो अथन का एक संवत्सर, पांच संवत्सर का एक युग, दो युग के दश वर्ष, इस प्रकार आगे आगे दश गुणे करते जायें तो १००, १००० प्रयुत, लक्ष, प्रयुत, करोड़, श्र, पद्म, खर्ग, शंख, समुद्र, मद्य, अंत्य, परमान्त्य, परम करोड़ ऐसी संख्या आती है। उससे आगे बढ़ते बढ़ते संख्यात असंख्यात और अनन्त होते हैं। वहां श्रुत केवली का विषय उत्कृष्ट संख्यात है, उससे ऊपर बढ़ते २ जो प्रसंख्यात है वह अवधि ज्ञान विषय है । सर्वावधि ज्ञान के विषय से आगे अनन्त है । वह अनन्त प्रमाण केवल ज्ञान का विषय है । कादांग, कुमुदांग, कुमुद, बौरासी लाख वर्ष का एक पूर्वाङ्ग औौर चौरासी लाख पूर्वाङ्ग का एक पूर्व होता है । निखर्व तथा महापद्म, J के साथ पदुर्भाग, पद्म, नलिनांग, नलिन, कमलोग, कमल, शुद्योग त्रुदय, टांग, टट, अममांग, श्रमम, हाहांग, हाहा, हू हू अंग, हू हू, लतांग, महात्मता इस प्रकार संख्यायें हैं । उपयुक्त कही हुई संख्या को चौरासी लाख, प्रक्रम से गुणाकार करते जाने से लुत्पल लुत्पल राशियों को सीप, प्रकंपित, Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तपोलिस, अचला संक्षा में कहा गया काल वर्ष गणना से संख्यात होता है । यह गणना प्रमाण संख्या है। ___ जो गणनातीत है वह पल्योपम आदि असंख्यात है । पल्योपम सागरोपम सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगतश्रेणी, लोकप्रतर, लोकपूरण ये पाठ प्रमाण होते हैं । यह समस्त केवल प्रत्यक्ष ज्ञान गोचर हैं इनको कोई उपमा देने योग्य वस्तु न होने से उपमातीत कहा है । अथवा उपमा प्रमाण भी कहा है । पल्यों का प्रमाण पल्य के तीन भेद हैं-१-व्यवहार पल्य, २-उद्धार पल्य, 1- . प्रदापल्य। प्रमाणांगुल के अनुसार एक योजन गहरा तथा एक योजन लम्बा घोड़ा गोल एक खड्डा खोदा जावे, फिर उत्तम भोगभूमि की मेड़ के ७ दिन के बच्चे के कोमल बाल काट कर, उनके.इतने बारीक टुकड़े किये जावे कि उन का दूसरा टुकड़ा न हो सके, उन रोम खंडों (बालों के बारीक टुकड़ों) से उस खाड़े को अच्छी तरह ठूस कर भर दिया जावे। फिर प्रत्येक रोम खंड को १००-१०० वर्ष पीछे उस गड्ढे में से निकाला जावे, जितने समय में वह गड्ढा खाली हो जाये उतने समय को व्यबहार पल्य कहते हैं। यदि उन रोम खंडों को उस गड्ढे में फिर भर दें और प्रत्येक रोमांस को संख्यात कोटि वर्ष पीछे निकालते जावें तो वह खड्डा जिलने समय में खाली हो जाये उतने समय को उद्धार पल्य कहते हैं । उद्धार पल्य के समयों को २५ कोड़ा कोड़ी (करोड़ x करोड़ = कोड़ा कोड़ी) से गुणा करने पर जितने समय पावें उतने द्वीप सागर मध्य लोक में हैं। उद्धार पल्य के समयों को प्रसंख्यात वर्ष के समयों से गुणा करने पर जितने समय आवे उतना एक प्रज्ञा पल्य होता है। कर्मों की स्थिति इसी प्रद्धा पल्य के अनुसार होती है। दश कोड़ा कोड़ी व्यवहार पल्पों का एक व्यवहार सागर होता है । दश कोड़ा कोड़ी उद्धार पस्यों का एक उद्धार सागर होता है। दश कोड़ा फोड़ी प्रज्ञा पल्यों का एक अद्धा सागर होता है। प्रद्धापल्य की अचच्छेद रशिका विरलन करके प्रत्येक पर प्रद्धापल्य रख कर सब का परस्पर गुणा करने से जो राशि होती है उसे सूच्यंगुल कहते हैं। सूच्यंगुल के वर्ग को प्रतरांगुल कहते हैं । सूच्यंगुल को तीन बार गुणा करने से जो राशि भावे वह घनांगुल है। पत्यकी अर्द्धच्छेद राशि के असंख्यातवें Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८१) भाग का विरलन करके प्रत्येक के ऊपर धनौगुल रखकर परस्पर गुरणा करने से जो राशि प्रावे वह जगत्प्रेणी है। जगत्श्रेणी का सातवा भाग राष्ट्र है। जगश्रेणी का जगत्श्रेणी से गुणा करने पर जगत्प्रतर होता है। जगररेणी के घन को लोक कहते हैं। दंश कोड़ा कोड़ी सागरों का एक उत्सर्पिणी काल होता है। अवसपिणी काल का भी उतना ही प्रमाण होता है। उन दोनों को मिलाने से कल्प नामक काल होता है। बेवळखिळ भोगवायुध । कळेवरोछोति धुद्धियुपिरिणयोळ । बलमु भोगमुमायुं । कळेवरोछोतियुमिळिगुभवसपिणीयोळ ॥१३॥ ... प्रासद के दो भेद हैं-१ भावालव, २ द्रव्यासद । जो शुभाशुभ परिणाम हैं वह भावास्रव हैं । उस भाषास्रव के निमित्त से प्रति समय कार्माण स्कन्ध रूप समय-प्रबद्ध का आना द्रव्यास्रव है। इस द्रव्यास्रव को परिहार करने के लिये परम अत्यन्त सुखमूर्ति रूप निरास्रव सहजास्म-भावना को भाना चाहिए । बंधहेतवः पंचविधाः ॥४८॥ अर्थ-पांच मिथ्यात्व, पांच अविरत, पंद्रह प्रमाद, चार कषाय, और ३ योग ये पांच भावासद के कारण हैं । स्त्री कथा, भोजन कथा, राष्ट्र कथा, अवनिपाल कथा ये चार विकथा, क्रोध आदि चार कषाय, स्पर्शनादि इन्द्रिय पांच, स्नेह, निद्रा ये पंन्द्रह प्रमाद हैं। विकथाश्च कषायाल्यस्नेहनिद्राश्चतुश्चतुः । पंसककाक्षसंचारे प्रमावाशीतिबंधकाः ।१७। - योनी-स्त्री कथा, भोजन कथा, अयं कथा, राज कथा, चोर कथा, वैर कया, पर-पाखंडि कथा, देश कथा, भाषा कथा, गुण वध कथा, विकथा, निष्ठुर कथा, पैशून्य कथा, कंदर्प कथा, देश कालानुचित कथा, भंड कथा, मूर्ख कथा, प्रात्मप्रशंसा कथा, पर-परिवाद कथा, पर जुगुप्सा कथा, पर पीड़ा कथा, भंड कथा कलह कथा, परिग्रह कथा, कृष्यादि व्यापार--कथा, संगीत कथा, वाद कथा, इस प्रकार पच्चीस विकथायें हैं। सोलह कषाय,हास्यादि नव नोकषाय इस प्रकार ये पच्चीस कषायें हैं। स्पर्शनादि छह इन्द्रिय, स्त्यानगृध्यादि पांच निद्रा स्नेह मोह, प्रणय दो इस प्रकार ये सब मिलकर श्रेषट प्रमाद होते हैं। उसके अक्षसंचार से ३७५०० भेद होते हैं । अथवा पन्द्रह प्रमाद के अन्तर्भाव होकर चार भेद वाले होते हैं। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिच्छतं अविरमणं कषायजोगा य पासवा होति । परणबारस पणवीसा पाणरसा होति तब्भेको ।४१ . मिथ्यात्व के भेद-एकांत मिथ्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व, विनय मिथ्यात्व, प्रधान सिध्यात्व, संशय मिथ्यात्व ये पाँच मिथ्यात्व के भेद होते हैं । उसमें उत्पाद व्यय, प्रौव्यात्मक जीव अजीवादि,द्रव्य,शरीर इन्द्रिय प्रादि ये एक समय के बाद अनेक प्रकार से भिन्न भिन्न रूप में उत्पन्न होते हैं, इन सभी को नित्य हो कहना या इनको क्षणिक ही कहना, या किसी पात्र में या किसी भोजनादि में पड़े तो उसे पवित्र मानना इत्यादि एकांत पक्ष को लेकर मानने वाले बौद्धादिक के दुर्नयाभास एकांत मिथ्यात्व है। सदोष देव को सत्य देव कहना, बाल, उन्मत्त तथा पिशाच-गृहीत के समान पाचारण करने वाले योगी के प्राचरण को ही योगीका लक्षण मानना सथा 'हिंसाविक से होने वाले पशु के मांस खाने में दोष नहीं हैं' कहना या इसको हिसा नहीं मानना ये सभी विपरीत मिथ्यात्व है। देव, राजा, माता, पिता, तपस्वी, शास्त्रज्ञ, वृस बालक इत्यादि सभाको गुरुत्व भाव का भेद न करके सुवर्ण दान देकर इन सभी को समान भाव से अर्थात् गुरु की रष्टि रखकर मन,वचन, और काय से विनय करना विनय मिथ्यात्व है । बंध,मोक्ष, बंध कारण, मोक्ष कारण, ये संसार के कारण हैं या मोक्ष के कारण हैं इत्यादि शंका करना इसको संशय मिथ्यात्व कहते हैं। अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर निर्जरा बंध मोक्ष ये नए पदार्थ इन सबको किसने देखा है, इस तरह अपने मन में मिथ्याविश्वास करके अपने माने हुए अज्ञान दर्शन को ही प्रमाण मानना इसका नाम अज्ञान मिथ्यात्व है। एयंत बुद्धदरसी विवरीयो बम्हतावसो विरणयो। इंवोदि य संसडियोम ककडियो चेव अण्णाणी ।४२॥ अर्थ – बुद्ध दर्शन एकान्त, ब्राह्म बिपरीत, तापारी विनय, इन्द्र संशय और मस्करी प्रज्ञान मिथ्यात्वी है। षड् जीव निकाय-संयम, षड इंद्रिय-संयम, ये संयम के १२ भेद होते और सोलह कषाय नी नोकषाय, ये सभी मिलकर पच्चीस कषाय होते है। पन्द्रह प्रकार के योग होते हैं । ये सभी मिलकर ५७ भावानव होते हैं । अब ये किस २ गुणस्थान में होते हैं सो बतलाते है पणवरणं पण्णासं तिदाल छादाल सत्ततिसाया। चवीसदुबाचीसा सोलस रागाजावरणव सत्ता ४३। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) पणवणं-५७ में प्राहारक के २ घटाने से मिथ्यादृष्टी में ५५ शेष रहते है। मारणा- मिया मागे से साझाद में ५० शेष रहते हैं । तिदाल अनन्तानुबन्धी के ४ तथा श्रीदारिकमिश्र,क्रियिक मिश्न, कार्माण योगत्रय इन सातों को घटाने से सम्यग्यिध्यादृष्टि के ४३ शेष रहते हैं। पहले में घटाये हुए घोटारिक मिश्र, वैक्रियिक मिश्र, कार्माण काय, ये योगत्रय, ऊपर के ४३ सेतालीस में मिलाने से असंयतके ४६ भेद होते हैं। सत्ततिसाय-उनमें, प्रत्याख्यान, चतुष्क, वैश्विक मिश्र, कार्माण का ययोगत्रय, तीन असंयम इन नौ को घटाने से देश संमत में ३७ बच जाते हैं। चवीसं बचे हुए शेष ग्यारह संयम तथा प्रत्याख्यान चतुष्क, इन पंद्रह को घटाकर तथा ग्राहारक दो को मिला देने से प्रमत्त संयम में २४ चौवीस शेष रहते हैं। दुवाबीसं-- आहारक तथा पाहारक मिश्र दो को घटाने से अप्रमत्त, अपूर्व गुरणस्थान में २२ बानीस शेष रहते हैं। सोलस-हास्यादि छह नोकषायों को २२ बावीस में घटा देने से अनिवृत्ति करण के पूर्व भाग मैं १६ सोलह शेष रहते हैं । जावमा नौवें में षो पहले कहे हुए १६ सोलहमें नपुंसक वेद, स्त्री वेद, पुरुष वेद, क्रोध, मान, माया के अनिवृत्ति करण के शेष भाग में सूक्ष्म लोभ नाष के नवम में क्रम से घटाने से शेष १५ पंद्रह रहते हैं । १५, १३, १२, ११; १०, ६, ऊपर के गुणस्थान में मन के चार वचन के चार प्रौदारिक योग के नौ, सत्यानुभय मनोयोग, सत्यानुभय, वाक्योग, मौदारिक, प्रौदारिक मिश्र, कार्मण काययोग ऐसे सात सयोग केवली में होते हैं । बंधश्चतुर्विधः ।४६। प्रत्येक पात्म-प्रदेश में सिद्ध राशिके अनन्तवें भाग प्रमाण तथा अभव्य वाशि के अनन्तगुणे प्रमित मनन्त कार्माण परमाणु प्रतिक्षरण बंध में प्राने वाला प्रदेवा बंध है, वह योगसे होता है। स्थिति और अनुभाग-बंध कषायों से होते हैं। प्रष्ट कर्माणि ॥५०॥ कम तीन प्रकार का है-द्रव्य कर्म, भाव कर्म और नो कर्म । पोद्गलिक काणि पर्गणाएं जो प्रात्मा से संबद्ध हो जाती हैं वह द्रव्य-कर्म है । उस द्रव्य कर्म के निमित्त-कारणभूत आत्मा के शुभ अशुम परिणाम भाव कम है। पोवारिक आदि सीन शरीर और ६ पर्याप्तियों को बनाने वाला नोकर्म है। द्रष्य कर्म के मूल-प्रकृति, उत्तर-प्रकृति और उत्तरोत्तर प्रकृति इस तरह तीन प्रकार के भेद है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८४ ) मूल प्रकृति शानावरण; दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अंतराय इस तरह प्रकृति बंधन प्रकार का है। उसमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घाति कर्म हैं । वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार अधाति कर्म हैं। ज्ञानावरण कर्म ज्ञान को ढकने वाला है जिस तरह दीपक को घड़े से ढक दिया जावे उसके समान है। दर्शनावरण कर्म प्रात्मदर्शन नहीं होने देता । जैसे सूर्य के ऊपर मेघ पाच्छादित होने से सुरज दिखाई नहीं देता। वेदनीय कर्म सुख दुःख दोनों को कराता है। जैसे खड्ग धारा में लगी हुई शहदकी बूद को चाटते हुए जीभ कटकर सुख दुःस्त्र दोनों ही होते हैं । मोहनीय कर्म संसार में मोहित कर देता है । असे शराब पीने वाला माय ! प्राणु कार्य जीव को शरीरमें रोक देता है लोह की जंजीर से दोनों पांव फंसे हुए बैठे मनुष्य के समान । माम कर्म अनेक तरह शरीर बना देता है । जैसे चित्रकार अनेक तरह के चित्र तैयार करता है । गोत्र कर्म उच्च और नीच कुल में उत्पन्न करा देता है। जैसे कुम्भकार वर्तनों का। अन्तराय कर्म अनेक विघ्नों को करता है । जैसे भंडारी दानमें विश्न करता है। जानावरणीयं पंचविधम् ॥५॥ मति ज्ञानावरण, श्रुत ज्ञानावरण, अवधि ज्ञानावरण, मनः पर्यय ज्ञानावरण तथा केवल झानावरण ये ज्ञानावरण के पांच भेद हैं। इसमें इन्द्रियों तथा मन से अपने २ विषयों को जानना मतिज्ञान है । उसको विस्मृत करने वाला मतिज्ञानावरण है । मतिज्ञान से जाने हुए अर्थ के आधार से अन्यार्थ को जानना श्रुत ज्ञान है। इसको विस्मृत करने वाला श्रुत ज्ञानावरण है । रूपी द्रव्य को प्रत्यक्ष रूप से जानना अवधि ज्ञान है और उसको विस्मरण करने वाला अवधि ज्ञानावरण है। किसी अन्य के मन में रहने वाले विषय को जानना मन: पर्यय ज्ञान है और उसको विस्मरण करने वाला मनः पर्यय ज्ञानावरस है । त्रिकाल गोचर अनन्त पदार्थों को युगपत जान लेना केवल ज्ञान है। इसको विस्मृत करने वाला केवल ज्ञानावरण है । इस प्रकार ज्ञानावरण के पांच भेद हैं। वर्शनावरणीयं नवविधम ।५२१ दर्शनावरण के ६ भेद हैं-चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधि दर्शनावरण, केवल दर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धि । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T (15x) जो चक्षुदर्शन को ढके यह चक्षुदर्शनावरण है, जो अचक्षुदर्शन को न होने दे वह अचक्षुदर्शनावरण है । जो अवधि दर्शन को ढक देता है वह प्रवधि दर्शनावरण है । केवल दर्शन को जो प्रगट नहीं होने देता वह केवल दर्शनावरण हैं । 1 जिसके उदय से नींद श्राती है वह निद्रा कर्म है। जिसके उदय से जागकर तत्काल फिर सो जावे वह निद्रानिद्रा कर्म है । जिसके कारण बैठे-बैठे नींद श्रा जावे, कुछ सोता रहे, कुछ जागता सा रहे वह प्रचला है । जिसके उदय से सोते हुए मुख से लार बहती रहे. हाथ पैर भी चलते रहें व प्रचलाप्रचला है। जिसके उदय से ऐसी भारी बुरी नींद प्राती है कि सोते सोते अनेक कार्य कर लेता है, सोते हुए दौड़ भाग भी लेता है, किन्तु जागने पर उसको कुछ स्मरण नहीं रहता । aarti द्विविधम् ॥ ५३॥ वेदनीय कर्म के दो भेद हैं- साता, असाता । साता वेदनीय कर्म के उदय से इन्द्रियजन्य सुख के साधन प्राप्त होते हैं और साता वेदनीय कर्म के उदय से दुःखजनक सामग्री मिलती है । मोहनीयम विशंति विधम् ॥५४॥ मोहनीय कर्म के मूल दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय | दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं- मिध्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति | चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं कषाय, नोकषाय । श्रनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ मे १६ कषाय हैं । Ε तो कषाय मोहनीय के भेद हैं- हास्य, रति, प्ररति, शोक, भय तथा जुगुप्सा स्त्री वेद, पुवेद, नपुंसक वेद । मिथ्यात्व के उदय से अदेवों में देवत्व भाव, प्रधर्म में, धर्म भावना, तत्व में प्रतत्व भाव होता है, यह सभी मिथ्यात्व भावना | सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से तत्वों में तथा अतत्व में समान भाव होता है, मिले हुए भाव होते हैं । यह सम्यग्मिथ्यात्व है । सम्यक् प्रकृति के उदय से आगम, पदार्थ का श्रद्धान होता है किन्तु सम्यक्त्व में चल मल दोष होते हैं । Eh अनंतानुबंधी कोष पत्थर की रेखा के समान, मान पत्थर के स्तम्भ के समान, माया बांस की जड़ के समान, लोभ तिमि रंग के कंबल के समान होकर Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ( 3 ) ये सभी सम्यक्स्य को नाश करने वाले रेखाके समान, मान हड्डी के खंभके समान । अप्रस्यानख्यान कोष, काली पृथ्वी को माया मेंढे के सींग के समान, लोभ नील कपड़े के समान, ये सभी अणुव्रत का घात करते हैं। प्रत्याख्यान क्रोध लि रेखाके समान है। मान बांस समान है । माया गोसूत्रके समान है । लोभ मलीन अर्थात् कीचड़ में रंगी हुए साड़ी के समान है । ये महाव्रतों को नही होने देते हैं । संज्वलन फोध जल रेखा के समान है। मान बेंत की लकड़ी के समान है। माया चमरी बाल के समान है। लोभ हलके रंग की साड़ी के समान है, ये यथाख्यात चारित्र को उत्पन्न नहीं होने देते हैं । इस प्रकार ये सोलह भेद कषाय कर्म # के हैं । स्त्री वेद-पुरुष के साथ रमने की इच्छा को उत्पन्न करता है । वेद - स्त्री के साथ रमने की इच्छा की उत्पन्न करता है । नपुंसक वेद - स्त्री श्रीर पुरुष दोनों से रमने की इच्छा करे उत्पन्न करता है । ✓ हास्य - हास्य (हंसी) को उत्पन्न करता है । रति - प्रेम को उत्पन्न करता है । अरति - प्रनीति को उत्पन्न करता है। शोक - दुःख को उत्पन्न करता है । अय-अनेक प्रकार के भय को उत्पन्न करता है । 1 जुगुप्सा - ग्लानि को उत्पन्न कर देता है । इस तरह ये नोकषाय हैं । दर्शन मोहनीय में से मिध्यात्व का उदय पहले सम्यक् मिथ्यात्व का उदय तीसरे गुणस्थान में और (वेदक सम्यक्त्व की अपेक्षा ) चौथे से सातवें गुणस्थान तक होता है । गुसास्थान में होता है, सम्यक् प्रकृति का उदय अनन्तानुबन्धी आदि सभी कषाय पहले गुणस्थान में, दूसरे गुणस्थान में अनन्तानुबंधी अव्यक्त होती है। चौथे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी का उदय नहीं होता, प्रत्याख्यानावरण का उदय पांचवें गुरणस्थान में नहीं होता, प्रत्याख्यानावर का उदय छठे गुणस्थान में नहीं होता, नोकषाय नौवें गुणस्थान तक रहती है । संज्वलन कषाय दशवें गुरपस्थान तक रहती है । आयुष्यं चतुविधं । ५५ । आयु कर्म के ४ भेद हैं नरक श्रासु, तिर्यञ्च श्रायु, मनुष्य आयु भीर देवायु । जो जीव को नारकी भय में रोके रखता है वह नश्कान है । तिर्यञ्चों के शरीर में रोके रखने वाला तिर्यञ्च आयु है, मनुष्य के शरीर में आत्मा की Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोके रखने वाला मनुष्य प्रायु है और देव पर्याय में रोक रखने वाला देवायु कर्म है। द्विचत्वारिंशद्विधं नाम ।५६। नाम कर्म के ४२ भेद हैं । जैसे-गति, जाति, शरीर, बंधन, संघात, संस्थान, अंगोपांग, संहनन, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, प्रानुपूर्वी, प्रगुरुलघु, उपधात परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास निःश्वास, विहायोगति, बस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्तक अपर्याप्तक प्रत्येक शरोर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, प्रादेय, अनानेय, यशकीर्ति, प्रयशकोति, निर्माण तथा तीर्थंकर नाम से पिंडापिड प्रकृति भेद रूप नाम कम के ४२ भेद है। विशेषार्थ-जिसके उदय से जीव दूसरे भव में जाता है उसे गति कहते हैं । अगले चार लेन -रस गति, साति, मनुष्य गति और देव गति । जिसके उदय से जीव के नारक भाव हों वह नरक गति है। ऐसा ही अन्य गतियों का भी स्वरूप जानना। उन नरकादि गतियों में अव्यभिचारी समानता के आधार पर जीवों का एकीकरण जिसके उदय से हो वह जाति नाम कर्म है। उसके पांच भेव हैं--एकेन्द्रिय जाति नाम, दो इन्द्रिय जाति नाम, तेइन्द्रिय जाति नाम, चौ इन्द्रिय जाति नाम और पंचेन्द्रिय जाति नाम । जिसके उदय से जीव एकेन्द्रिय कहा जाता है यह एकेन्द्रिय जाति नाम है। इसी तरह शेष में भी लगा लेना। जिसके उदय से जीव के शरीर की रचना होती है वह शरीर नाम है। उसके पांच भेद हैं- औदारिक शरीर नाम, वैऋियिक शरीर झाम, आहारक शरीर नाम नाम, तेजस शरीर नाम भौर कामरा शरीर नाम । जिसके उदय से औदारिक शरीर की रपमा होती है वह मादारिक शारीर नाम है, इस तरह शेष को भी समझ लेना। जिसके उदय से अंग तथा उपांग का भेद प्रकट हो वह अंगोपांग नाम कर्म है। उसके तीन भेद हैं-प्रौदारिक शरीर मगापांग नाम; वैक्रियिक शरीर अंगोपांग नाम, पाहारक शरीर अंगोपांग नाम। जिसके उदय मे अंग उपांग की रचना हो वह निर्माण है । इसके दो भेद हैं-स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण | निर्माण भाम कर्म जाति के उदय के अनुसार चक्षु प्रादि की रचना नाम कर्म के उदय से ग्रहण किये हुये पुद्गलों का परस्पर में मिलना जिस कर्म के उदय से होता है वह बम्बन नाम है। जिसके उदय से प्रौदारिक पाधि पारीरों की प्राकृति बनती है वह संस्थान नाम है। उसके छ: मेव हैंजिसके उदय से ऊपर, नीचे तथा मध्य में शरीर के अवयवों की समान विभाग Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप से रचना होती है उसे समचतुरस्र संस्थान नाम कहते हैं। जिसके उदय से नाभि के ऊपर का भाग भारी और नीचे का पतला होता है जैसे बट का वृक्ष, उसे न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान नाम कहते हैं। स्वाति यानी बाम्बी की तरह नाभि से नीचे का भाग भारी और ऊपर दुबला जिस कर्म के उदय से हो वह स्वाति संस्थान नाम है ! जिसके उदय से कुबड़ा शरीर हो वह कुब्जक संस्थान नाम है। जिसके उदय से बीना शरीर हो वह वामन संस्थान नाम है। जिसके उदय से विरूप अंगोपांग हों वह हंडक संस्थान नाम है । जिसके उदय से हड्डियों के बन्धन में विशेषता हो वह सहनन नाम है। उसके भी छै भेद हैं-वन मृषभ नाराच संहनन, वजनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्ध नाराच संहनन, कीलित संहनन और प्रसंप्राप्तासपाटिका संहनन नाम। जिसके उदय से ऋषभ यानी वेष्टन, नाराच यानी कीलें और संहनन यानी हड्डियां वच्च की तरह अमेद्य हों वह वज ऋषभ नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से कील और हड्डियाँ वष की तरह हों और वेष्टन सामान्य हो वह वन नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ों में कीलें हों वह नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ों की सन्धियां अर्ध कीलित हों वह अर्घ नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ परस्पर में ही कीलित हों अलग से कील न हो, वह कोलित संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ केबल नस, स्नायु वगैरह से बंधे हों वह असंप्राप्तासपाटिका संहनन है। जिसके उदय से शरीर में स्पर्श प्रकट हो वह स्पर्श नाम है। उसके पाठ भेद हैं-कर्कशनाम, मृदुनाम, गुरुनाम, लघुनाम, स्निग्ध नाम, रूक्षनाम, शीतनाम, उष्णनाम ! जिसके उदय से शरीर में रस प्रगट हो वह रस नाम है । उसके पांच भेद है--तिक्तनाम, कटुकनाम, कषाय नाम, प्राम्लनाम, मधुरनाम । जिसके उदय से शरीर में गन्ध प्रकट हो वह गन्धनाम है। उसके दो भेद हैं-सुगन्धनाम और दुर्गन्ध नाम । जिसके उदय से शरीर में वर्ण यानी रंग प्रकट हो वह वर्ण नाम है । उसके पाच भेद हैं-कृष्ण वर्ण नाम, शुक्ल वर्णनाम नोल वर्णनाम, रक्तवर्ण नाम और पीत वर्णनाम । जिसके उदय से पूर्व शरीर का आकार बना रहे वह आनुपूर्य नाम कर्म है। उसके चार भेद हैं-नरक गति प्रायोग्यानुपूर्यनाम, तिर्यगति प्रायोग्यानुपूयं नाम, मनुष्य गति प्रायोग्यानुपूय॑नाम और देवगति प्रायोग्यानुपूज्यनाम । जिस तरह मनुष्य या तियंच मर करके नरक गति की ओर जाता है तो मार्ग में उसकी आत्मा के प्रदेशों का प्राकार वैसा ही बना रहता है जैसा उसके पूर्व शरीर का प्राकार था जिसे वह छोड़कर पाया है, यह नरकगति प्रायोग्यापूर्यनाम कर्म का कार्य है। इसी तरह अन्य मानुपूर्वियों का कार्य जानना । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २) - - - - - प्रानुपूर्वी कर्म का उदय विग्रह-गति में होता है । जिसके उदय से शरीर न तो लोहे के गोले की तरह भारी हो और न आक की रुई की तरह हल्का हो वह अगुरुलघु नाम है । जिसके उदय से जीव के अंगोपांग अपना घात करने वाले बनें वह उपधात नाम है। जिसके उदय से दूसरे के घात करने वाले सींग आदि अंगोपांग बनें वह परघात नाम है। जिसके उदय से आतपकारी शरीर हो वह भातप नाम है । इसका-उदय सूर्य के बिम्ब में जो बादर पर्याप्त पृथिवी कायिक जीव होते हैं उन्हीं के होता है। जिसके उदय से उद्योतरूप शरीर हो वह उद्योत नाम है । इसका उदय चन्द्रमा के विम्ब में रहने वाले जीवों के तथा जुगुनु वर्गरह के होता है। जिसके उदय से उच्छवास हो यह उच्छवास नाम है । विहाय यानी आकाश में गमन जिस कर्म के उदय से होता है वह विहायोगति नाम है । हाथी बैल वगैरह की सुन्दर गति के कारण भूत कर्म को प्रशस्त विहायोगति नाम कहते हैं और ऊंट, गधे वगैरह की खराब गति के कारण भूत कर्म को अप्रशस्त विहायोगति नाम कहते हैं। यहां ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए कि पक्षियों की ही गति आकाश में होती है। प्राकाश द्रव्य सर्वत्र है अतः सभी जीव आकाश में ही गमन करते रहते हैं। सिद्ध जीव और पुद्गलों की गति स्वाभाविक है फर्म के उदय से नहीं है। ___ जिसके उदय से शरीर एक जीव के ही भोगने योग्य होता है वह प्रत्येक शरीर नाम है। जिसके उदय से बहुत-से जीवोंके भोगने योग्य एक साधारण शरीर होता है वह साधारण शरीर नाम है। अर्थात् साधारण शरीर नाम कर्म के उदय से एक शरीर में अनन्त जीव एक अवगाहना-रूप होकर रहते हैं। वे सब एक साथ ही जन्म लेते हैं, एक साथ ही मरते हैं और एक साथ ही श्वास वगैरह लेते हैं उन्हें साधारण वनस्पति कहते हैं। जिसके उदय से दोइन्द्रिय आदि में जन्म हो वह असनाम है। जिसके उदय से एकेन्द्रियों में जन्म हो वह स्थावर नाम है । जिसके उदय से दूसरे जीव अपने से प्रीति करें वह सुभगनाम है। जिसके उदय से सुन्दर सुरूप होने पर भी दूसरे अपने से प्रीति न करें अथवा घृरणा करें वह दुभगनाम है। जिसके उदय से स्वर मनोश हो जो दूसरों को प्रिय लगे यह सुस्वर नाम है। जिसके उदय से अप्रिय स्वर हो वह दुःस्वर नाम है । जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर हों वह शुभ नाम है । जिसके सदय से शरीर के अवयव सुन्दर न हों वह अशुभ नाम है । जिसके उदय से सूक्ष्म शरीर हो जो किसी से न रुके वह सूक्ष्म नाम है । जिसके उदय से स्थूल शरीर हो वह बादर नाम है । जिसके उदय से आहार आदि पर्याप्तियों को पूर्णता हो Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३० ) होती वह पर्याप्त नाम कर्म है । जिसके उदय से पर्याप्तियों को पूर्णता नहीं अपर्याप्त नाम है। जिसके उदय से शरीर के धातु उपधातु स्थिर होते है जिससे कठिन श्रम करने पर भी शरीर शिथिल नहीं होता वढ स्थिर नाम है जिसके उदय से धातु उपधातु स्थिर नहीं होते, जिससे थोड़ा सा श्रम करने से ही या जरा-सी गर्मी सर्दी लगने से ही शरीर म्लान हो जाता है वह प्रस्थिर नाम है । जिसके उदय से शरीर प्रभासहित हो वह आय नाम है। जिसके उदय से प्रभा रहित शरीर हों वह प्रनादेय नाम कर्म है । जिसके उदय से संसार में अपयश फैले वह प्रयशस्कीर्ति नाम है। जिसके उदय से अपूर्व प्रभावशाली अर्हन्त पद के साथ धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन होता है वह तीर्थंकर नाम है । इस तरह नाम कर्म की बयालीस प्रकृतियों के ही तिरानवे भेद हो जाते हैं । 1 द्विविधं गोत्रम् ॥ ५७॥ उच्च गोत्र तथा नीच गोत्र ये गोत्र के दो भेद हैं। उसमें उत्तम कुल में पैदा करने वाला उच्च गोत्र तथा नीच कुल में पैदा करने वाला नीच गोत्र कहलाता है । पंचविधमन्तरायम् ॥१५८ ।। दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और बीयन्तिराय ये अन्तराय कर्म के पांच भेद हैं । जिसके उदय से मनुष्य दान न कर सके या जो दान में विघ्न करदे बह दानान्तराय कर्म है | लाभ की इच्छा होते हुये भी तथा प्रयत्न करने पर भी जिस के उदय से लाभ नहीं होता वह लाभान्तराय कर्म है । भोग और उपभोग की इच्छा होने पर भी जिसके उदय से भोग उपभोग नहीं कर सकता वह भोगान्तराय तथा उपभोगान्तराय कर्म है । शक्ति प्राप्त होने में विघ्न करने वाला कर्म वीर्यान्तराय कर्म है । ये पांच अंतराय कर्म तथा श्रम्य उपरिउक्त कर्म मिलकर कर्मों के कुल १४८ एक सौ अड़तालीस भेद होते हैं । इन कर्म प्रकृति के उत्तरोत्तर भेद असंख्यात होते हैं । उनमें ज्ञानावरण कर्मकी, दर्शनावरण की, वेदनीयको, अंतराय इन वार कमी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ो सागरोपम है। मोहनीय कर्मकी सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर, नाम और गोत्र की २० बीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम है । श्रायु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ३३ तेतीस सागर की है । वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति १२ बारह मुहूर्त है, नाम और गोत्र के आठ मुहूर्त है। शेष की अंतर मुहूर्त स्थिति होती है। घाति कर्मोंमें लता, काठ, अस्थि, शैलरूम चार प्रकार की " Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभाग शक्ति होती हैं। अघाति कर्मों की अशुभ प्रकृतियोंमें नीम, कांजी, विष, हलाहल समान अनुभाग शक्ति होती है । शुभ अघाति कर्मों में गुड़, खांड, मिश्री और अमृत के समान अनुभाग शक्ति होती है। ये कर्म आत्माके साथ एक क्षेत्रावगाह रूपमें दोनों एक रूप मालूम होने पर भी प्रात्म-अनुभवो जीब अपनी बिबेक शक्ति द्वारा इस आत्मा को उन कर्मो से अलग निकाल कर प्रात्म-स्वरुप को भिन्न कर सकते हैं। अब कर्मों को बन्ध-सत्व-उदय त्रिभंगी का निरूपण करते हैं-- रामिऊरण नेमिचन्दं असहायपरक्कम महावीर। बंधुदयसत्तजुत्तं प्रोपावेसे सयं बोच्छं ।४५। अर्थ-मैं असहाय पराक्रम वाले महावीर; चन्द्र समान शीतल प्रकाशमान भगवान नेमिनाथ को नमस्कार करके कर्मों के बंध, उदय, सत्ता को गुणस्थानों, तथा मानणाओं को बतलाता हूँ। - वेहोदयेम सहिमो जीवो माहरदि कम्मनोकर्म । । पडिसमयं सम्वग्गं तत्तासयपिउनोच जलं ।४६। अर्थ-जिस तरह लोहे का गर्म गोला पानी में रख दिया जावे तो वह वारों ओर से पानी को अपनी और खींचता रहता है इसी प्रकार देह-धारों आत्मा प्रति समय सब ओर से कार्माण नोकार्माण वर्गणाओं को ग्रहण करता रहता है। . सिद्धाणंतिमभागो अभवसिद्धादर्णतगुणमेव । समयपधखं बंधवि जोगवसादो दु विसरित्यं ।४७। अर्थ संसारी जीव प्रति समय एक समय-प्रबद्ध { एक समय में बंधने वाले कर्म वर्गणाओं) को बांधता है, उस समय:प्रबद्ध में सिद्ध राशि के अनन्त वें भाग तथा अभव्य राशि से अनन्तगुरणे प्रमाए। परमाणु होते हैं । समय-प्रबद्ध केउन परमाणुओं की संख्या में कमीवेशी तीव, मंद योगों के अनुसार होती रहती है। . एक्कं समयपबद्धं बंधवि एक्कं उदि कम्माणि । गुगहागीण विबड्दसमयपबद्ध हवे ससं ।४८। मानी-संसारी जीव प्रति समय एक समय-प्रबद्ध प्रमाण कम बन्ध करता है और एक समय-प्रबद्ध प्रमाण हो कर्म प्रति समय उदय पाता है (झरता है) फिर भी खेढ गुणहानि प्रमाण कर्म सत्तामें रह जाता है । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) देहे अविरणाभावी बंधणसंघाद इदि प्रबंधुदया। वण्ण चउक्के भिण्णे गहिवे चत्तारि बंधुदये ।४६। अर्थ-नाम कर्म की प्रकृतियों में ५ बंधन और ५ संघात शरीर नाम कर्म के अविनाभावी (शरीर के बिना न होने वाले) होने के कारण बंध मौर उदय के प्रकरण में पृथक् नहीं लिये जाते शरीर में ही सम्मिलित कर लिये गये हैं तथा वर्ण, रस, गंध स्पर्श के उत्तर भेदों (२०) को इन चार मूल भेदों में सम्मिलित किया गया है। इस कारण बन्धरूप तथा उदयरूप कर्म प्रकृतियां मेद एवं प्रभेद विवक्षा से निम्न प्रकार है भेदे छावालसयं इदरे बंधे हवंति वीससयं । भेवे सव्वे उदये वाधीससयं प्रभेदम्हि ॥५० यानी-भेद रूप से १४६ प्रकृतियों का बन्ध होता है ( सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृति पृथक नहीं गिनी जाती )। अभेद' रूप से १२० प्रकृतियों का बन्ध माना गया है-१० बन्धन संघात, १६ वर्ण रस प्रादि-२६ प्रकृति नहीं गिनी जातीं । उदय में भेद रूप से १४८ प्रकृति और प्रभेदरूप से १२२ प्रकृतियां कही जाती हैं । उक्त २६ अलग नहीं गिनी जातीं। पंच एव दोण्णि छव्योसमवि य चउरो कमेण सत्तट्टो । दोणिय पंचय भरिणाया एदानो बंध पयडीयो ॥५१॥ अर्थ-प्रतः बन्ध के योग्य ज्ञानावरण की ५, दर्शनावरण की , वेदनीय की २, मोहनीय की २६, आयु की ४, नामकर्म की ६७, गोत्र कर्म की २ और अन्तराय को ५ प्रकृतियां हैं। पंचरणवदोणि अट्ठावीसं चरो कमेरा सत्तट्ठी। दोणिय पंचय भणिया एवाप्रो उदयपयडीयो ॥५२॥ अर्थ--- उदय योग्य प्रकृतियां ज्ञानावरण की ५, दर्शनावरण को है, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, प्रायु की ४, नाम की ६७, गोत्र को २ और अन्तराय की ५ हैं। सम्मेव तित्थबंधो माहारदुर्ग पमावरहिदेसु। मिस्सूणे पाउस्स य मिच्छादिसु सेस बंधोदु ॥५३॥ अर्थ-तीर्थंकर प्रकृति का बंध सम्यग्दृष्टि के ही (चौथे गुणस्थान से सातवें Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) गुणस्थान तक) होता है । पाहारक शरीर और आहारक अंगोपांग का सातवें तथा पाठवें गुणस्थान के छठे भाग तक होता है । मिश्र गुणस्थान के सिवाय पहले गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक आयु कर्म का बन्ध होता है । शेष प्रकृतिप्रों का बन्ध पहले प्रादि गुणस्थानों में हुआ करता है। बन्ध व्युच्छित्तिसोलस पणवीसणभं दस चर छक्केक्क बन्धवोमिछण्णा । दुगतिगचतुरं पुग्वे पण सोलस जोगियो एपको ॥५४॥ यानी--कर्म प्रकृतियों की बन्ध व्युच्छित्ति (वहां तक बन्ध होना, आगे न होना) मिथ्यात्व आदि १४ गुणस्थानों में क्रम से यों है-१६-२५-०-१०-४. ६-१ अपूर्व करण के विभिन्न भागों में २-३-४ प्रकृतियों को फिर नौवें आदि गुणस्थानों में क्रम से ५-१६-०-०-१-० प्रकृतियों को बन्ध व्युच्छित्ति होती है । मिच्छत्तहुंउसंढाऽसंपत्तेयक्खथावरावावं। ... सुहमतियं विलिंदी पिरयदुरिंगरयाउगं मिच्छे ॥५५॥ अर्थ-मिच्याब गुणस्थान में मिथ्यात्व, हुण्डक संस्थान, नपुंसक वेद प्रसंप्राप्तासृपाटिका संहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, पातप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चारइन्द्रिय नरक गति, नरक गत्यातुपूर्वी और नरक आयु ये १६ प्रकृतियां बन्ध व्युच्छिन्न होती हैं यानी-इन १६ प्रकृतियों का इससे प्रागे के गुणस्थानों में बन्ध नहीं होता। विवियगुणे प्रणथोणति दुभगतिसंठाणसं हवि चउक। हुग्गामरिणस्मीणीचं तिरिय(गुज्जोव तिरियाऊ ॥५६॥ . यानी-दूसरे सासादन गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोष परिमण्डल, स्वाति, वामन कुब्जक संस्थान, बज्रनाराच, नाराच, भर्द्धनाराच, कोलक संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्त्रो वेद, नीच गोत्र, तियंच गति, तिथंच. गत्यानुपूर्वी, तिर्यंचायु और उद्योगत इन २५ प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। प्रयदे बिदियकसाया बज्ज अोराल मणुकुमशु पाऊ। । वेसे तक्यिकसाया नियमेरिणह बन्धवोच्छिष्णा ५७॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४४) अर्थ- असयत सम्यदृष्टि नामक चौथे गुणस्थान में अप्रत्याख्यामावरण क्रोध, मान माया लोभ, बऋषभनाराच सहनन, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, मनुष्य गति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और मतुल्य प्रायु ये १० प्रकृतियां बन्धव्युग्छिन्न होतो हैं 1 पांचवें देशसयत गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कोष, मान, माया, लोभ इन ४ चार कषायों की बन्धव्युच्छित्ति होती है। छ8 प्रथिरं असुहं असावमजसंच अरविसोगच । ___ अपमसे देवाऊरिणवणं चेव प्रस्थिति ॥५॥ यानी-छठे गुणस्थान में अस्थिर, अशुभ, असाता वेदनीय, अयशकीर्ति, परति और शोक इन ६ प्रकृतियों को बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। अप्रमत्त गुणस्थान में देवायुको बन्ध व्युच्छित्ति होती है। मरागम्मिरिण यट्ठी पढमे गिद्दा तहेव पयला य । छ8 भागे तित्यं रिणमिणं सगमणपंधिदी ॥५६॥ तेजदुहारदुसमचउ सुरवण्ण गुरुगचउक्कतसरणवयं । घरमे हस्स च रदो भयं जुगुच्छाय बन्धदोच्छिण्णा ॥६॥ अर्थ-प्रपूर्वकरण नामक पाठवें गुणस्थान के मरणरहित प्रथम भाग में निद्रा, प्रचला, छठे भाग के अंत में तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्त पिहायोगति, पंचेन्द्रिय जाति, तेजस, कार्माण, आहारक शरीर, ग्राहारक अंगोपांग समचतुरस्र संस्थान, देवगति देवगत्यानुपूर्वी, बैंक्रियिक शरीर, वैयिक अंगोपांग वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपधात-परघात उच्छ वास, त्रस आदि ६, इन ३० प्रकृतियों की और अंत में हास्य, रति, भय, जुगुप्सा इन ४ प्रकृतियों को म्युन्नित्ति होती है। पुरिस चदुस जलणं कमेण अणियट्टिपंचभागेस । पढम विग्धं दंसण चउजसउच्चं च स हुमंते ।।६१॥ अर्थ नौवें गुणस्थान के पांच भागों में क्रम से पुरुष वेद. सज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ इन ५ प्रकृतियों में से एक एक को व्युच्छिति होतो रहती है । सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरण की ५, अन्तराय को ५, दर्शनावरण को ४ ( चक्षु, अचक्ष , अवधि, केवल ), यशकोति और उच्चगोत्र इन १६ प्रकृतियों की व्युग्छित्ति हो जाती है । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) वसंत खीलमोहे जोगिम्हि य समधियट्टिवी सांद | गायध्वो पयडी बंधस्स तो श्रांतो य ॥६२॥ अर्थ-यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान में केवल साता वेदनोव कर्म का एक समय स्थिति बाला बन्ध होता है, अतः सयोगकेवली नामक तेरहव गुणस्थान में केवल साता वेदनीय की व्युच्छित्ति होती है। चौदहवें गुणस्थान में न किसी प्रकृति का बन्त्र होता है, न किसी की व्युच्छित्ति होती है। अब बन्ध होने योग्य प्रकृतियों की संख्या बतलाते हैंसत्तरसेकग्गतयं चउ सत्तत्तरि सगट्टि तेथट्ठी । बन्धाणवट्टवा दुवोस सत्तारसेकोघे ॥ ६३॥ प्रात्वं आदि १३ गुणस्थानों में बन्ध होने योग्य प्रकृतियों को संख्या क्रम से ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५६, ५८, २२, १७, १, १ १ है । बन्ध योग्य प्रकृति पहले १२० बतलाई थीं उनमें से तीर्थंकर, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग का बन्ध चौथे से सातवें गुरुस्थान तक होता है अतः १२० में से इन ३ प्रकृतियों को कम कर देने पर शेष ११७ प्रकृति पहले गुणस्थान में बन्धती हैं, फिर आगे आगे के गुणस्थानों में व्युच्छित वाली प्रकृतियां घटा देने से गुणस्थानों में बन्ध योग्य प्रकृतियों की संख्या निकल श्राती है । अब बन्ध न होनेवाली प्रकृतियों की संख्या बतलाते हैंतियउबोलं छतिय तालं तेव सत्तवण्णंच । sagसट्ठीविरहि सपतियउणवीससहिय बीससयं ॥ ६४ ॥ यानो - मिथ्यात्व प्रादि १४ गुणस्थानों में बन्ध न होने योग्य प्रकृतियों की संख्या कम से ३, १६, ४६, ४३, ५३, ५७, ६१, ६२, ६८, १०२, ११६, ११९ और १२० है । श्राहारयं पमी तित्यं केवलिखि मिस्समं मिस्से । सम्मं वेदगसम्मे मिच्छदुगपदेव श्राश्र ॥ ६५ ॥ अर्थ - श्राहारक शरीर, आहारक अंगोपांग का उदय छठे गुणस्थान में तोर्थंकर प्रकृति का उदय सयोग केवली गुरणस्थान में, सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) का उदय मिश्र गुणस्थान में और सम्यक् प्रकृति का उदय क्षयोपशम सम्पदृष्टि के चौबे से सातवें गुररास्थान तक ही होता है । प्रानुपूर्वी का उदय पहले दूसरे तथा चीये गुणस्थान में होता है । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) पिरयं सासण सम्मो ण गच्चदित्ति य तस्स रिसरयाए । • मिच्छाविस सेस दो सगसगचरमोति पायध्वो ॥६६॥ अर्थ-सासादन गुणस्थान वाला नरक को नहीं जाता है इस कारण उसके नरक गत्यानुपूर्वी का उदय नहीं होता। शेष समस्त प्रकृतियों का उदय मिथ्यात्व प्रादि गुणस्थानों में अपने अन्त समय तक होता है । अब उदय न्युच्छित्ति बतलाते हैं - परगरणय इगिसत्तरस अड पंच च चउर छक्क छच्चेव । इगि बुग सोलस तीस वारस उदये प्रजोगंता ॥६॥ प्रार्थ-मिथ्यात्व प्रादि १४ गुणस्थानों में उदय ब्युच्छित्ति यानी-मागे के गुणस्थानों में उदय न होनेवाली प्रकृतियों की संख्या कम से ५, ६, १, १७, ८, ५, ४, ६,६, १, २, १६, ३० और १२ है । मिच्छे मिच्छादाब सहुमतियं सासणे प्रणेइंदी। थावरवियलं मिस्से मिस्स च य उदयवोछिपणा ॥६॥ अर्थ-मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व, पातप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, अस्थिर इम ५ प्रकृतियों की उदय युच्छित्ति होती है। सासादन में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, एकेन्द्रिय, स्थावर, दोइन्द्रिय, तीन-इनद्रिय, चार इन्द्रिय (विकलत्रय) ये ६ प्रकृतियां तथा मिश्र गुणस्थान में सम्यक-मिथ्यात्व की उदय-ज्युच्छित्ति होती है। अयदे विवियकसाया बेगुश्वियछक्क रिसरयदेवाऊ । मण्यतिरियाणपुश्वी दुब्भगपादेज्ज प्रज्जसयं ॥६॥ अर्थ-चौथे गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया व लोभ, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अगोपांग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी नरकगति, नरकगल्यानुपूर्वी, नरकायु, देवायु, मनुष्यगत्यानुपूर्वी तिर्यग्गल्यानुपूर्वी, दुभंग, अनादेय और अयशकीति इन १७ प्रकृतियों को उदय व्युच्छित्ति होती है। से सवियकसाया तिरियाउज्जोव चितिरियगवी - छुढे पाहारदुगं थीणतियं उदयवोच्छिण्णा ॥७०।। यानी-पांचवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण क्रोध भान माया लोभ तिर्थयमायु, उद्योत, नोच गोत्र, तिर्यंचगति इन ८ प्रकृतियों की तथा छठे गुणस्थान में प्राहारक शरीर आहारक अंगोपांग निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला स्त्यानगृद्धि इन ५ प्रकृतियों की उदय-व्युच्छित्ति होती है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) अपमत्ते सम्मत्तं प्रतिमतिय संहदोऽपुयम्हि । छच्चेवणोकसाया प्रषियट्टी भागभागेसु ॥७१॥ मर्थ सातवें गुणस्थान में सम्यक प्रकृति तथा अद्धं नाराच कोलका अस प्राप्ता सपाटिका सहनन ये ४ प्रकृतियां उदय युच्छित होती हैं। पार्व करण में तीन वेदों के सिवाय हास्य प्रादि ६ नोकषायों की युग्छित्ति होती है। वेदतिय कोहमाणमाया संजलणमेव सुहुमंते । सुहुमोलोहोसते वज्जनारायणारामं ॥१॥ पानी–नौवें गुणस्थान के सवेद भागों में स्त्री पुरुष नपुंसक वेद सथा प्रवेद भाग में संज्वलन क्रोध मान माया की व्युच्छित्ति होती है। सूक्ष्म साम्पराय के अंत में संज्वलन की तथा हमें गुस्सा में बनमाराम पौर नाराच सहनन की उदय व्युच्छित्ति होती है। क्षोएकसायचारमेणिछापयलाम उदयवोच्छिण्ण । गाांतरायव सयं दंसपचलारि चरिमम्हि ॥७२॥ अर्थ-क्षीणकषाय के अंतिम समय से एक समय पहले निद्रा मोर प्रचला तथा अंतिम समय में ज्ञानावरण को ५ दर्शनावरण की ४ एवं अन्तराय की ५ कुल १४+२-१६ प्रकृत्तियों की व्युच्छित्ति होती है। तरियेवक वज्जणिमिणं थिरसृहसवगविउरालते जदुगं । सठाणकरणागुरुच उक्क पत्तेय जाणिम्मि ॥७३॥ अर्थ-सयोग केवली गुणस्थान में साता या असाता, बच ऋभ नाराच संहनन, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ अशुभ सुस्पर, दुःस्वर, प्रशस्त, अप्रशस्त, विहायोगति, प्रौदारिक शरीर प्रौदारिक अगोपाग तंजस कार्माण छहों संस्थान, वरणं, रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु आदि चार ओर प्रत्येक शरीर ये ३० प्रकृतियां व्युच्छिन्न होती हैं। तदियेक्कं मणुबगदो पंचिदियसुभगतसतिगादेज्ज । जसतित्यं मणुवाऊ उच्च च अजोगवरिमम्हि ।।७४॥ अर्थ-प्रयोग केवलो गुणस्थान के अन्त में साता या असाता मनुष्य गति, पंरेन्द्रिय जाति, सुभग, त्रत प्रादि ३ आदेव, यशकोति, तीर्थंकर प्रकृति मनुष्य प्रायु, ऊच गोत्र इन १२ प्रकृतियों को उदय ब्युच्छित्ति होती है । . Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३६ ) पट्टापरामदोसा इंदिणाणपांच केवलिम्हि जदो। तेग सादासादजणहदुधलं पत्थि इंचियजं ॥७॥ अर्थ-केवली भगवान के मोहनीय कर्म न रहने से रागवेष नहीं है, .. ज्ञानावरण का क्षय हो जाने से उनके इन्द्रिय जन्म ज्ञान नहीं है इस कारण उनके माता प्रसाता के उदय से होनेवाला इन्द्रिय जन्य सुख दुख भी नहीं है । समयढिदिगो बंधो सावस्सुवाणि गो जदो तस्स । तण प्रसादस्सुको सादस वेगपरिणमदि ।।७६।। अर्थ-फेवली भगवान के एक समय की स्थिति वाला साता वेदनीय कर्म का बन्ध होता है मत: बह उदय रूप ही होता है ! इस कारण असाता बेदनीय कर्म का भी उदय साता के रूप में परिणत हो जाया करता है । एवेण कारपोण सुसादस्सेव दुणिरतरो उदयो। तेरणासावरिण कित्ता परीसहा जिराबरे गस्थि ।।७७॥ अर्थ-इस कारण केवली भगवान के निरन्तर साता वेदनीय कर्म का उदय रहता है । अतएव असाता वेदनीय के उदय से परिषह केवली को होने पाली नहीं होती। उदय रूप प्रकृति-संख्यासत्तरसेक्कारखचटुसहियसयं सगिगिसीदि छदुसदरो। छायट्टिसट्टिरावसग वण्णास दुदालवारुदरा ॥७८ अर्थ-मिथ्यात्व प्रादि गुणस्थानों में क्रम से ११७, १११, १००, १०४, २७, ८१,७६, ७२, ६६, ६०, ५६ ५७ ४२ और १२ प्रकृतियां उदय होती हैं। अनुदय प्रकृतियांपंचक्कारसयावीसट्ठारसपंतीस इगिछादालं। पणं छप्पण्णं विति पणसदिछ असीदि दुगुण पणघण्णं ॥७६॥ अर्थ-मिथ्यात्व आदि मुरणस्थानों में क्रम से ५ ११ २२ १८ ३५ ४१. ४६ ५० ५६ ६२ ६३ ६५ ८० और ११० प्रकृतियों का उदय नहीं । होता। उवयस्सदीरणस्स य सामित्तादो स विज्जवि विसेसो । मेस्तूण तिम्णि ठाणं पमत जोगी अजोगी य ६०॥ | ....... Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( L) तीसं बारस उदयुच्छवं केवलि मेकदं किम्चा । सानमसनं च तहि मणुवाउगमवरिण किच्चा ॥१॥ प्रवरिणतिप्पयडीरण पमत्त विरदे उदीरमा होदि । एस्थिति नजोगिजिण उदीरखा उदय पयडीए ।।८२॥ अर्थ-कर्म प्रकृतियों की उदीरणा प्रमत्त सयोग केवली प्रयोग केवली इन तीन गुणस्थानों के सिवाय शेष समस्त गुणस्थानों में उदय के ही समान है। सयोग के ३० और प्रयोग केवली के १२ प्रकृतियों की [कुल ४२ की] उदयध्युच्छित्ति होती है। परन्तु इनमें से साता असाता वेदनीय और मनुष्य प्रायु की उदीरणावहां नहीं होती है इसकारण सयोग केवली के ३६ प्रकृतियों की उदोरणा होती है। साता, असाता, मनुष्य प्रायु को उदोरणा ( समय से पहले उदय पाना) छठे गुणस्थान में होती है । प्रयोग केवली के उदीरणा नहीं लोती । उदीरण अनियन्ति... पण एवइगि ससरस अट्ठट्ठ य चदुर छक्क छच्चेव । इगिद्गु सोलुगवलं उनोरणा होति जोगंता॥३॥ अर्थ-मिथ्यात्व प्रादि १३ गुणस्थानों में कम से ५६ ११७८ ४६६२२१६ ३६ प्रकृतियों की उदीरणा व्युच्छित्ति होती है। उदोरणा अनुदौरणासत्तर सेक्कारख चदुसहियसयं सगिगिसोदि तियसवरी । रणवतिसिछि सगछक्कवण चउवम्णमुगुवालं ॥४॥ पंचेक्कारसवावीसट्ठारस पंचतीस इगिरणवदालं। तेवोक्कुरणसट्टो पणछक्कडसट्ठि तेसोदो ॥८॥ पानी-पहले से १३वें गुणस्थान तक में क्रम से ११७, १११, १००, १०७, ७, ८१, ७३ ६६ ६३ ५७ ५६ ५४ १६ प्रकृतियों की उदीरणा होती है। तथा इन ही गुणस्थानों में क्रम से ५, ११, २२,१८ ३५, ४१, ४६, ५३, ५६, ७५, ६५, ६६, ६८, ६३ प्रकृतियों की उदोरणा नहीं, अनुदोरणा है। सस्त्र विवरणतिस्थाहारा लुगवं तित्थं णमिच्चगादितिये । तत्सत्रकम्मियाण तःगुणठाण ए संभवदि ।।६।। मर्थ-मिथ्यात्व गुणस्थान में नाना जीवों की अपेक्षा से १४८ प्रकृतियों को सता है परन्तु तीर्थकर तथा प्राहारक द्विक ( पाहारक शरीर माहारक Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४ ) अंगोपांग ) एक साथ (एक काल में) नहीं होते। सासादन में तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता नहीं। चत्तारि वि खेत्ताई अगुगबंधेरा होय सम्पत्तं । प्रएवरमहव्वदाई लहइ देवाउगं मोत्तु ।। - अर्थ-पागें आयुओं में से किसी भी प्रायु का बंध हो जाने के पश्चात् सम्यक्त्व हो सकता है, परन्तु प्रणुव्रत महानत का घारण देवायु का बन्ध करने वाले के ही होता है । अन्य किसी प्रायुवा बन्ध कर लेने वाले के नहीं होता। शिरयतिरक्खसुराउग सत्ते एहि दसमयलवदखवगा । • प्रयदचक्कंतु अणं परिणयट्ठी करणबहुभागं !! जुगवं संजोगित्ता पुरणोखि परिणयट्टिकरणबहुभागं । घोलिय कमसो मिच्छ मिस्सं सम्भं खेरि कमे ॥ पर्थ--नरक पायु को सत्तामें देशवत, तियेच पा की सत्ता में महावत पोर देवायु को सत्ता में क्षपकवणी नहीं होती। अनंतानुमन्धो क्रोचमान पापा लोभ का विसंयोजन 1 अप्रत्याख्याननावरण प्रादि रूप करना ) चौपे से सातवें गुणस्थान में से कहीं भी अनिवृत्ति कर परिणाम के अन्त में कर देता है। फिर मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक् प्रकृतिका क्षय करता है। सेल? किदधक्क चदुसेक्कं बादरे प्रदोएक्कं । खोणे सोलसङ जोगे वायत्तरि तेरुवत्तते। गिरयतिरिक्खदु वियलं धीरगतिगुज्जोनतावएइंद्री । साहमणहमथम्बर सोल मज्भूिम कसायट्ठ॥ संढिस्थिधक्कसाया पुरिसो कोहोय मारण मायं च । .. पूले सुहभे लोहो उदयं वाहोदि खोरिएहि ॥ अर्थ-निवृत्तिकरण गुणस्थान के पहले भाग में नरकगति, नरकगस्यानपूर्वी, तिर्यंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, ३ विकलेन्द्रिय, निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला, स्त्यानगृद्धि, उद्योत, पातप, एकेन्द्रिय, साधारण, सुक्ष्म, स्थावर इन १६ प्रकृतियों को सत्वन्युनिहात्ति होतो है । दूसरे भाग में प्रत्याख्यान की ४, प्रत्यास्यान को ४ ये ८ प्रकृतियां, तीसरे भाग में नपुसक वेद, चौथे भाग में स्त्री वेद, पांचवें भाग में हास्य श्रादि ६ नो कषाय, छठे में पुरुष वेद, सातवें में संज्वलन क्रोध, प्रांठवें में मान, नौवें में माया की ( कुल ३६ प्रकृतियों को) सरकन्युच्छित्ति होती है। दशवें गुपस्थान में संज्वलन लोभ की व्युग्छिति Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है । क्षीण कषाय गुणस्थान में ५ शानावरण, दर्शनावरण को ४ (चक्षु पक्ष आदि), निद्रा, प्रचला, अन्तराय की ५ इस तरह कुल १६ प्रकृतियों की सत्वन्युच्छित्ति होती है। " वहादीफ़स्संता थिरसुहसरसुरविहायगसुभगं । . गिमिणाजसऽरणादेज्ज पत्तेयापुण्ण अगुरुचऊ । अणुदयतदियं णीचमजोगिदुचरिमम्मि सत्तवोच्छिण्णा। . उदयगवा राराणु सेरम चरिमन्हि. वोच्छिण्णा ! अर्थ--(तेरहवें गुणस्थान में किसी भी प्रकृति की सत्वव्युच्छित्ति नहीं है) प्रयोग केवली गुण स्थान में औदारिक शरीर आदि स्पर्श तक को ५० प्रक्तिया, स्थिर अस्थिर, शुभ अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर. देव गति देवगत्यानुपूर्वी प्रशस्त, भप्रशस्त विहायोगति, दुर्भाग, निर्माण, अयशस्कीर्ति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, प्रमुरुलघु मादि ४, साता पा असाता वेदनीय, नीचगोत्र ये ७२ प्रफतियां अंत के प्रथम समय में सरवट्युच्छित्ति होती हैं । अन्तिम समय में इसी गुए स्थान की उदयरूप १२ प्रकृतियां भौर मनुष्यगत्यानुपूर्वी ये १३ प्रकृतियां सत्ता से व्युसिछन्न होती हैं। सत्व असस्व प्रकृतियां-- . . . . णमतिगिणभइगि दोद्दो दसदस सोलट्ठगादिहीणेस। सत्ता हकति एवं असहाय परक्कमुद्दिछे ।। पर्थ-मिथ्यात्व गुणस्थान से अपूर्वकरण तक के पाठ गुणस्थानों में कम से ., ३, १, 0, १, २, २, १०, प्रकृतियों का प्रसत्व है। नौवें गुण स्थान के पहले भाग में १०, दूसरे में १६, तीसरे प्रादि भाग ८ प्रकृतियों का मसत्व है । असख प्रकृतियों को १४८ प्रकृतियों में से घटा देने पर शेष प्रकृतिमा अपने अपने गुणस्थान में सत्वरूप हैं। , यामी सय तिगेग सम्णे चेगं छसु दोषिण चउस छदसय दुगे। अस्सगदाल दोस तिसट्ठी परिहोण पडिसतं जाणे ।। .. पर्थ-मिथ्यात्व गुणस्थान में १४८ प्रकृतियों की सत्ता है, दूसरे में ३ कम, तीसरे में १ कम, पौधे में सब, पांचवें में १ कम, प्रमत्त, अप्रमत्त में २ कम, उपएी को अपेक्षा पूर्वकरण प्रादि गुणस्थानों में ६ कम, क्षपक श्रेणी को अपेक्षा अपूर्व करण प्रादि दो गुणस्थानों में १० कम, सूक्ष्म साम्पराय में ४६ कम, सयोम केवली प्रयोग केवली में ६३ प्रकृतियां कम का सत्व है.। .. . Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ धर्म एवं आवार शास्त्र ४३२ प्रति नं० ४ । पत्र ० ११२ | साइज - १०x३६ इन्च | लेखनकाल । पूर्ण एवं सामान्य शुद्ध । दशा - सामान्य | वेष्टन नं० १९८४ | विशेष – संस्कृत में टीका भी हैं। १६ ४३३ प्रति नं० ५ | पत्र सं० २२६-४३१ | साह - ११४५ इ लेखनकाल । पूर्ण एवं शुद्ध । दशासामान्य | वेष्टन नं० १२८५ | विशेष – प्रति सटीक है। टीकाकार अपराजितसूर हैं। टीका संस्कृत में हैं। टीका का नाम विजयोदया है। - ४३४ भगवती आराधना भाषा पं० सदासुखजी कासलीवाल | पत्र [सं० ८०४ | साइज - ११३४५६ इन्च | भाषा - हिन्दी | विषय-धर्म भाषाकाल - १६०= भादवा सुदी २ | लेखनकाल - सं० १९०८ सामान्य | वेष्टन नं ० .१२७६ । पूर्ण एवं शुद्ध दशा विशेष – प्रति स्वयं भाषाकार के हाथ की लिखी हुई प्रथम प्रति है । ४३५ प्रति नं० २ । पत्र [सं० ४७५ | साइज - ११ इन्च । लेखनकाल - सं० १६१० । अपूर्ण प्रारम्भ के ३३१ पत्र नहीं है | सामान्य शुद्ध दशा-सामान्य | बेटन नं० १२७७ | ४३६ प्रति नं ३ | पत्र सं० ४८३ १११ से १२० तक के पत्र नहीं हैं। सामान्य शुद्ध साइज - १२०-१ : | लेखनकाल - सं० देशा- सामान्य । वेष्टन नं० १२७८ । १०० = ! अपूर्ण - ४३७ प्रति नः ४ पत्र सं० २०९ | साइज - ११७३ इव । लेखनकाल । अपूण प्रारम्भ के १ से १०० तथा २=१ से आगे के पत्र नहीं है। सामान्य शुद्ध । दशा-सामान्य । वेष्टन नं० १२७२ | ४३५ प्रति नं० ५ । पत्र सं० २३२ साइज - ११८ इव । लेखनकाल । श्रपूर्ण अन्तिम पत्र नहीं है । सामान्य शुद्ध दशा - सामान्य । वेष्टन नं० १२०० । ४३६ भावदीपक - जोधराज गोदी का पत्र सं० १५ | साइज - १x६ इव । माषा - हिन्दी-गद्य | विषय - धर्म । रचनाकाल-सं० १८१७ | लेखनकाल - सं० १८५७ | पूर्ण एवं शुद्ध । दशा- जी ! वेष्टन नं० ११५ । ४४० प्रति नं २ | पत्र सं० ४६ | साइज - १०३३ इस । लेखनकाल X | अपूर्ण श्रन्तिम पत्र नहीं | दशा - सामान्य । वेष्टन नं० १३३६ | ४४२ प्रति नं० २ । पत्र ०६ | साइज सामान्य | वेष्टन नं० १३४३ । ४४१ भावसंग्रह - वामदेव | पत्र [सं० ३६ | साइज - १०४४३ इन्च । भाषा-संस्कृत । विषय-धर्म | रचनाकाल x | लेखनकाल | पूर्ण एवं शुद्ध । दशा- सामान्य । वेष्टन नं० १३४२ । ४३ | लेखनकाल । पूर्ण एवं सामान्य शुद्ध । दशा ४४३ प्रति नं० ३ | पत्र सं० १६-४३ | साइज - १०३x४३ इश्व । लेखनकाल X | यपूर्ण फुटकर पत्र है । सामान्य शुद्ध । दशा - सामान्य | वेष्टन नं० १३४४ । ४४४ प्रति नं० ४ | पत्र सं० ४३ | साइज - ११४५ इस । लेखनकाल- सं० १६४३ मादवा सुदी Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म एवं आचार शास्त्र ] पूर्ण एवं सामान्य शुद्ध । दशा- सामान्य । वेष्टन नं० १३४= | ४४५ प्रति नं० ५ । पत्र सं० ४ एवं शुद्ध | दशा - सामान्य । वेष्टन नं० १३५३। ४४६ भावसंग्रह - देवसेन । पत्र सं० ४६ | साइज - १०३४४३ इञ्च मात्रा - प्राकृत । विषय-धर्मं । रचनाकाल × । लेखनकाल-सं० १५८२ | पूर्ण एवं सामान्य शुद्ध । दशा-सामान्य । लिपि - त्रिकृत | वेष्टन नं० १३४५ । त्रिशेष -- खंडेला नगर में प्रतिलिपि हुई थी । प्रशस्ति पूर्ण है । साइज - ६x४ इञ्च । लेखनकाल- सं० १७२५ भादवा बुदी ७ । पूर्ण ४४७ प्रति नं० २ । पत्र सं० ३१ | साइज - ११४५ इव । लेखनकाल - सं० १५६१ कार्त्तिक दी । पूर्ण एवं सामान्य शुद्ध । वेष्टन नं० १३४६ । ४४= प्रति नं० ३ । पत्र सं० ३६ | साइज - ११३४३ इन्च | लेखन काल - सं० १५७१ माघ सुदी १ । पूर्ण एवं शुद्ध । दशा-जीयं । वेष्टन नं० १३४७ | I १६५ ४४६ प्रति नं० ४ । पत्र सं० २८ | साइज - १०५ इ | लेखनकाल - सं० १६२२ कार्त्तिक बुदी | पूर्ण एवं शुद्ध दशा - सामान्य । वेन नं० १३५८ ४५० प्रति नं ५ | पत्र सं० ४६ | साइज - १०३x४३ इन्च । लेखनकाल - २० १६१६ श्रासोज बुढी २ । पूर्ण एवं शुद्ध | दशा - सामान्य । वेष्टन नं० १३४६ | ४५२ प्रति नं० ६ | पत्र स० ४६ । साइज - ११३४५३ इ । लेखनकाल x | पूर्ण एवं शुद्ध । दशासामान्य | वेष्टन नं ० १३४६ । ४५३ भावसंग्रह - श्रुतमुनि । पत्र सं० काल X। लेखन काल - सं० १७१६ भादवा बुदी ६ ४५२ प्रति नं० ७ । पत्र [सं० ६७ ] साइज - ६३५ इव । लेखनकाल - सं० १६२९ । पूर्ण एवं सामान्य शुद्ध दशा- सामान्य | वेष्टन नं० १३५० | दिशा - सामान्य । वेष्टन नं० १३५२ । ५४ | साइज - १०३x६३ । भाषा - प्राकृत । विषय-धर्म | रचनापूर्ण एवं शुद्ध दशा - सामान्य । वेष्टन नं० १३५१ । ४५४ प्रति नं० २ । पत्र सं० ४६ | साइज - १०x४३ इञ्च । लेखनकात । पूर्ण एवं सामान्य शुद्ध । ४५५ प्रति नं० ३ । पत्र सं० २७ | साइज - १०x४३ इन्च | लेखनकाल - सं० १६०६ कार्त्तिक सुदी २ | पूर्व पूर्व सामान्य शुद्ध । दशा - सामान्य | वेष्टन नं. १३५४ ॥ ४५६ मिध्यात्वखंडन - बखतराम | पत्र सं० ११० । रचनाकाल सं० १८२१ | लेखनकाल - सं० १८५२ पूर्ण पूर्व शुद्ध विशेष -- सदासुख भविसा ने जयपुर में प्रतिलिपि की थी । ४५७ मिध्यात्वनिषेध अथ x | लेखनकाल- गं० १८५२ | पूर्ण एवं शुद्ध | दशा उत्तम । वेष्टन नं० १३६५ । साइज - ११४५ इञ्च । भाषा - हिन्दी | विषय- धर्मं । दशा - सामान्य । वेष्टन नं० १३६४ । | पत्र सं० २६ | साइज - १२४८ इन्च | भाषा - हिन्दी | विषय- धर्मं । रचना - Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [धर्म एवं आचार शास्त्र ४५८ प्रति ० २ । पत्र सं० २४ । साइज-१०१x६ । लेखनकाल-सं. १८५२ । पूर्ण एवं शुद। दशा-सामान्य । वेष्टन नं० १३६६ । ४५६ मूलकर्मप्रकृतिवर्णन..."। पत्र सं० १ । साइज-१२४५३ इन्च । भाषा-हिन्दी | विषय-धर्म । रचनाकाल x | लेखनकाल X । पूर्ण एवं शुद्ध । दशा-उत्तम । वेष्टन २० १४०५ । ४६० मूलाचार-श्रीमद्वहेरकाचार्य । पत्र सं० २४ । साइज-33x५ इन्च | माषा-प्राकृत । विषय-धर्म।। रचनाकाल ४। टीकाकाल - सं० १६०५ । लेखन काल ४ । पूर्ण एवं शुद्ध | दशा-सामान्य । वेष्टन नं. १४०७ । विशेष-या वसुनन्दि कृत संस्कृत टीका सहित है । ४६१ प्रति नं० २। पत्र सं० ११ । साइज-६३४४ इञ्च । लेखनकाल x। अपूर्ण एवं सामान्य शुद्ध। दशा-मामान्य । वेष्टन नं० १४०६ ।। ४६२ प्रति न. ३। पत्र सं० १६७ । साइज-११६४५ हश्च । लेखनकाल X| अपूरी-अन्तिम पत्र नहीं है। दशा-सामान्य | वेष्टन नं० १४०४ । विशेष-श्रा वसुनंदि कृत संस्कृत टीका सहित है। ४६३ मूलाचारप्रदीप-म• सकलकीर्ति । पत्र सं० १२० । साइज-१२४५ इश्च। भाषा-संस्कृत । विषयश्राचार धर्म का वर्णन | रचनाकाल x । लेखनकाल–सं. १८२० मंगसिर सुदी ५. | अपूर्ण-प्रारम्भ के २ पत्र नहीं है। सामान्य शुद्ध । दशा-सामान्य । वेष्टन नं. १४०८ । . विशेष-बसत्रा (जयपुर) में प्रतिलिपि हुई थी। ४६४ मोक्षमार्गनिरूपण.."| पत्र सं० १ । साइज-१२४५६ इश्च । भाषा-हिन्दी । विषय-धर्म । रचनाकाल ४ । लेखनकाल x | पूर्ण एवं शुध्द । दशा-जीर्ण । वेष्टन नं० १४२४ । विशेष- भाषा प्रालंकारक है। ४६५ मूलाचार भाषा..."| पत्र सं० ४६४ । साइज-१०४८ इञ्च ! भाषा-प्राकृत-हिन्दी-(गद्य) । विषयधर्म । रचनाकाल x | लेखनकाल x | अपूर्ण-५१-१०० तथा ३४६ से ४६ ४ तक के पत्र नहीं है । सामान्य शुद्ध | दशासामान्य । वेष्टन नं० १४१० । ४६६ मोक्षमार्गप्रकाश-महापंडित टोडरमलजी ! पत्र सं० २८३ । साइज-१०३४७ इञ्च । भाषा-हिन्दी विषय-सिद्धान्त । रचनाकाल x | लेखनकाल-सं० १८७३ । पूर्ण एवं शुद्ध । दशा-जीर्ण प्रथम तथा अन्तिम पत्र कटे हुये हैं। वेष्टन नं. १४२.१। . . विशेष--सवाई जयपुर में लालू महात्मा ने प्रतिलिपि की थी। ४६७ प्रति नं० २। पत्र सं० ६७ । साइज-१३४६३ इञ्च । लेखनकाल ४ । पूर्ण एवं सामान्य शुद्ध । दशा सामान्य । वेष्टन नं० १४२२] ४६८ प्रति न० ३। पत्र २० १६६ । साइज-११४५३ इञ्च । लेखनकाल x | अपूर्ण-प्रथम पत्र तथा अन्तिम पत्र नहीं है। सामान्य शुद्ध | दशा-सामान्य । वेष्टन नं ०.१४२३ । NAMAK.H Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं प्राचार शास्त्र Res ४६६ यत्याचार-वसुनन्दि । पत्र सं० ६६ । साइज-१५४६३ इश्व । भाषा-प्राकृत । विषय-साधु धर्म का न । रचनाकाल X । लेखनकाल X । पूर्ण एवं शुद्ध । दशा-उत्तम । वेष्टन ने ० १४३२ । विशेष-संस्कृत में टीका है। ४७० यतिप्रतिक्रमण-गौतमस्त्रामो । पत्र सं० ७८ ! साइज-१३४४३ सम्छ । माषा-प्रकृत | विषय-धर्म । . रचनाकाल X | लेखनकाल–सं० १७९६ श्रासोज सुदी १ | अपूर्ण एवं शुद्ध । दशा-सामान्य । वेष्टन नं० १४३१ । विशेष-संस्कृत में टीका सहित है ! ४७१ याज्ञवल्कीयधर्मशास्त्रग्रंथ-अपरादित्यदेव । पत्र सं० ४५६ । साइज-१३४८३ इन्च । भाषासंस्कृत | विषय-धर्म । रचनाकाल x | लेखन काल X । अपूर्ण-तीसरे अध्याय तक समाप्त । सामान्य शुद्ध | दशा-सामान्य । वेष्टन नं ० १४६७ । ४७२ रनकरण्डशास्त्र-40 श्रीचन्द्र । पत्र सं० १३६ । साइज-10१४५ इञ्च । माषा-अपभ्रश विषय-धर्म । रचनाकाल | लेखनकाल x | अपूर्ण एवं शुद्ध । दशा-जीर्ण-शीर्ण । वेष्टन नं० १४६० । ४७३ प्रति न०२ | पत्र सं० १२२ । साइज-११४५ इन्च । लेखनकाल x | अपूर्ण एवं शुद्ध । दशाजीर्ण । वेष्टन नं० १४६० । ४७४ प्रति नं० ३ । पत्र सं० १४१-२४२ ! साहज-१०६x४३ । लेखनकाल ४ । अपूर्ण एवं शुद्ध । दशा-सामान्य । वेष्टन नं. १४११। ४७५ रनकरएखश्रावकाचार-पा० समन्तभद्र | पत्र सं० = | साइज-१२४५ इञ्च 1 भाषा-संस्कृत | विषय* श्रावक धर्म वर्णन | रचनाकाल x | लेखनकाल X । पूर्ण एवं शुद्ध | दशा-उत्तम ! श्रेष्टनं नं० १४६२ । ४७६ प्रति नं० २१ पत्र सं० १ । साइज-१२४५ इञ्च । लेखनकाल X 1 पूर्ण एवं शुद्ध । दशा-सामान्य । वेष्टन नं० १४६२ । ४७७ प्रति नं. ३ । पत्र सं० १-२५ । साइज-१२४५ इन्च । लेखनकाल X| अपूर्ण एवं शुध्द । दशासामान्य । वेष्टन नं. १४६३ । विशेष-प्रति सटीक है । टीका संस्कृत में है । ४७८ प्रति नं०४ । पत्र सं० ४ । साइज-११४ इञ्च । लेखनकाल ४ । अपूर्ण एवं शुभद | दशा-सामान्य । बेटन नं० १४६३ । ४७६ प्रति नं०५१ पत्र सं० ५६ । साइज-११६४५ इञ्च । लेखनकाल-सं० १८७६ प्रथम चैत्र दुदी। ।दशा-सामान्य । वेष्टन नं० १४६४। __ विशेष—प्रति सटीक है । टीकाकार प्रभाचन्द्र हैं । जयपुर में संपतिराम छाबडा ने प्रतिलिपि की भी। ४८० प्रति न० ६ । पत्र सं० १५ । साइज-११४४३ इञ्च । लेखनकाल-सं० १८०७पूर्ण एवं शुद्ध । दशासामान्य । वेष्टन नं. १४६५ । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ धर्म एवं आचार शाख ४८१ प्रति नं० ७ पत्र ०८ साह १०३x४ इन्द लेखनकाल x अपूर्ण एवं शुद्ध दशासामान्य वेष्टन नं० १४६५ १६= ।. ४८२ प्रति नं०० १४१०४ लेखनका सं. १६५६ । पूर्ण एवं शुद्ध दशा- उत्तम | वेष्टन नं ० १४३६ । ४८३ प्रति मं० सं० ४१-० लेखनकाल x पूर्ण एवं सामान्य शुद्ध दशउत्तम । वेष्टन नं० १४९३ । विशेष – हिन्दी धर्म भी दिया - हु I ४८४ प्रति नं० १० परसाई लेखनकाल पूर्व एवं युद्ध | दशा सामान्य वेष्टन नं. २४६० विशेष-- हिन्दी अर्थ सहित है। ४२५ प्रति नं ११ पत्र [सं० ७६ ६५ लेखनात पूर्व एवं शुद्ध दशा- सामान्य वेष्टन नं १४९८ । विशेष-- हिन्दी अर्थ सहित है। ४८६ प्रति नं० १२ पत्र १२-१२ | लेखन X पूर्व एवं शुद्ध दशा- सामान्य । बेटन नं १४९८ । ४८७ प्रति नं० १३ । ० १२-१४५ इन लेखन । पूर्वं एवं शुद्ध दशा-सामान्य वेष्टन नं० १४९० । प्रतिनं० १४० १२ १२ । लेखन घल । पूर्ण एवं सामान्य शुद्ध दशासामान्य । वेष्टन नं०. १४६८ | ४८६ प्रति नं० १५१ पत्र सं० ६३ । साइज - ३X२ च । लेखनकाल x | पूर्ण एवं शुद्ध । दशा - सामान्य | वेष्टन नं० १४६= | विशेष -- हिन्दी अर्थ सहित है । I ४६० प्रति नं० १६ । पत्र सं०६६ साइज - १४६ इन्च लेखनकाल x पूर्ण एवं शुद्ध दशा-सामान्य बेटन नं० १४६८ विशेष- हिन्दी अर्थ सहित है। ! ४६१ प्रति नं० १७ मंत्र सं० २४ साइज १२० लेखनात X अपूर्ण एवं सामान्य शुद्ध दशा- जी वेष्टन नं० १५०८ | विशेष- हिन्दी अर्थ सहित है। ४६२ प्रति नं० १८ पत्र सं ११-११xx इन् । लेखनकाल- ०११०६ जेठ सुदी १४ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म एवं प्राचार शास्त्र] 166 पूर्ण एव शुध्द / दशा-उत्तम / वेष्टन नं 0 1506 / 463 प्रति न०१६ / पत्र सं० 31 / साइज-१२x६ इन्च / लेखनकाल-सं० 1634 वैशाख बुदी 4 / पूर्ण एवं शुद्ध / दशा-सामान्य / वेष्टन नं० 1510 / विशेष - हिन्दी अर्थ पनलालजी कृत है / ग्रन्थ की प्रतिलिपि में 1- खर्च हुई धे ऐसा भी लेख हैं। 464 प्रति नं० 20 / पत्र सं० 22-11 / साइज-१०३४५ इञ्च / लेखनकाल x / अपूर्ण एवं सामान्य शब्द / दशा-सामान्य / वेष्टन नं० 1416 / 465 प्रति नं० 21 / पत्र सं० 66 / साइज-xk इञ्च / लेखनकाल–सं. 1620 फाल्गुन बुदी 13 / मपूर्ण एवं सामान्य शुद्ध | दशा-जीर्ण-शीर्ण / वेष्टन नं० 1500 / विशेष—प्रभाचन्द्र कृत संस्कृत टीका सहित है। 466 रत्नकरण्डश्रावकाचार भाषा-4. सदासुखजी कासलीवाल / पत्र सं० 618 1 साइज-१२४५ इञ्च | की माषा--हिन्दी / विषय-श्रावक धर्म वर्णन / रचनाकाल-सं० 1620 / लेखनकाल--सं० 16.1 पूर्ण एवं शुद्ध | दशासामान्य / वेष्टन नं. 1501 / विशेष-प्रति स्वयं भाषाकार के हाथ से लिखी गई है। 467 प्रति न०२। पत्र सं० 374 / साइज-१२४८ इन्च / लेखनकाल-सं० 1933 | पूर्ण एवं सामान्य शुद्ध / दशा-सामान्य / वेष्टन नं. 1502 / 468 प्रति नं०३पत्र सं० 452 / साइज-१११४५३ इन्च | लेखनकाल-सं० 1926 श्रासोज खुदी 15 / पपूर्ण-पत्र 185 से 222 तथा 301 से 386 तक के पत्र नहीं है / शुद्ध / दशा-सामान्य / वेष्टन नं० 1504 / 466 प्रति नं. 4 / पत्र सं० 323 / साइज-१२६x४. हश्च / लेखनकाल x 1 अपूर्ण-५१ से 86 तक के पत्र नहीं हैं / सामान्य शुद्ध / दशा--जीर्ण / वेप्टन नं. 1903 / विशेष-नीले कागज पर है। 500 प्रति नं०५। पत्र सं० 515 / साइज-११४५३ इञ्च / लेखनकाल x / अपूर्ण र 26 से 633 तक के पत्र नहीं हैं। शुद्ध सामान्य ! दशा-सामान्य / वेष्टन नं० 1505 / - 501 प्रति नं०६। पत्र सं० 522 / साइज-११४७६ इन्च / लेखनकाल-स० 1939 / पूर्ण एवं शुद्ध / दशा-उत्तम / वेष्टन नं० 1506 / ....... . 502 प्रति नं०७। पत्र सं० 432 | साइज-११४७६ इन्च / रचनाकाल-सं० 1920 / लेखनकालसं० 1625 / पूर्ण एवं शुद्ध | दशा-सामान्य / वेष्टन नं० 1507 | 503 रयणसार-कुन्दकुन्दाचार्य / पत्र सं. 6 | साइज-१.३५ इन्च 1 माषा--प्राकत / विषय-धर्म / रचनाकाल 4 ! लेखनकाल 4 / पूर्ण एवं सामान्य शुद्ध / दशा-सामान्य / वेष्टन नं० 1521 /