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निकालने के उपाय का उपदेश दिया ।। १३ ॥
प्रशेनजित के स्वर्ग चले जाने पर । (८०, ०००००, ०००००००) वे भाग पल्य बीत जाने पर चौदहवें कलंकर नाभिराग जग्पन्न दुपा ! उनका शरीर ५२५ धनुष्य ऊंचा था और उनकी आयु एक करोड़ पूर्व (१, ०००००००) की थी। उनकी महादेवी का नाम मरुदेवी था ||१४||
नाभिराय के समय उत्पन्न होने वाले बच्चों का नाभी में लगा हुआ नाल आने लगा। उस नाल को काटने की विधी बतलाई। सिवाय इनके समझ में भोजनाग कल्प वृक्ष नष्ट हो गये जिससे जनता भूख से व्याकुल हुई तब नाभि राय ने उनको उगे हुए पेड़ों के स्वादिष्ट फल खाने तथा धान्य को पकाकर खाने की एवं ईख को पेल कर उसका रस पीने की उपाय बताई। इसलिए उस समय के लोक उन्हें हक्ष्वाकुहस सार्थक नाम से भी कहने लगे। ताकी इक्ष्वाकु वंश चालु हुा । इन्हीं के पुत्र प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभनाथ हुए। जो की १५ वे कुलकर तथा ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती सोलहवें मनु हुए।
हादंडमय्वरोळ् हा । मादंड मनुगलय्वरोळ् हामादिग्भेद ।। प्रदंडमपवरोळादुदु । भरतावनीश सनुवंडं ॥१॥
अर्थ-प्रथम कुलकर से लेकर आंठवे कुलकर तक प्रजा को रक्षार्थ 'हा' यह दंड नियत्त हुआ, इसके बाद के पांच मनुनों में यानि दशवे कुलकर तक 'हा' और 'मा' ये दो दंड तथा इसके बाद पांच मनुबो तक-यानी ऋषम देव भगवान तक की प्रजा में हा, मा और धिक् ये तीन दंड चले फिर भरत चक्रवर्ती के समय में तनु दंड भी चालू हो गया था । इसी प्रकार १ कनक २ कनकप्रम ३ कनकराज ४ कनकध्वज ५ कनक पुगव ६ नलिन ७ नलिनप्रभ ८ नलिन राज इ नलिनध्वज १० नलिनपुगव ११ पद्म १२ पद्म प्रभ १३ पदम राज १४ पद्मध्वेज १५ पद्मपुगव और सोलहवे महापड़ । यह सोलह कुलकर भविष्य काल में उत्सर्पिणी के दूसरे काल में जब एक हजार वर्ष वाकी रहेगे तब पैदा होगे। ___ अब आगे नौ सूत्रों के द्वारा तीर्थकरो की विभूति और उनकी वलीका वर्णन करेगे।
षोडशभावनाः॥१६॥ कर्म प्रकृतियों में सबसे अधिक पुण्य प्रकृति (तीर्थ कर) प्रकृति के बंध कराने को कारण रूप सोलह भावनायें हैं।
तीर्थकर प्रकृति का बंध करने वाले के विषय में गोमटसार कर्मकांड में बतालाया है।