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________________ (१७) पढमुषसमिये सम्मे सेसातिये अविरवादिचत्तारि तित्थयरबंधपारंभया परा केवलिदुगंते ॥६॥ यानि-प्रथम उपशम सम्यक्त्व अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्तत्व, क्षायोपशम या क्षायिक सम्यक्त्व वाला पुरुष चौथे गुण स्थान से सातवें गुरगस्थान तक के किसी भी गुणस्थान में केवलो या श्रुत केथलो के निकट तोर्थकर प्रकृति के बंध का प्रारम्भ करता है। जिस व्यक्ति की ऐसी प्रबल शुभ भावना हो कि (मैं समस्त जगतवर्ती जोबों का उद्धार करू, समस्त जीवों को संसार से छुडाकर मुक्त कर दूं ) उस किसी एक बिरले मनुष्य के ऊपर युक्त दशा में निम्न लिखित सोलह भावनामों के निमित्त से तीर्थकर प्रकृति का बंध होना है ! १ दर्शन विशुद्धि २ विनय संपन्नता ३ अतिचार रहित शीलवत ४ अभी. क्षण ज्ञानोपयोग ५ संवेग ६ शक्ति अनुसार त्याग ७ शक्ति अनुसार तप साधु समाधि ६ वैय्यावत करण १० अरहत भक्ति ११ प्राचार्य भक्ति १२ बहु श्रुत भक्ति १३ प्रवचन भक्ति १४ प्रावश्यक का परिहारणि १५ मार्ग प्रभावना १६ प्रवचन वात्सरय ।। विषेश विवेचन- शंका, काक्ष, बिचिकित्सा, सूढदृष्टि, अनुपगहन, अस्थिति करण, अप्रभावना, अवात्सल्य, ये आठ दोष, कुल मद जातिमद, बलगर, ज्ञानमद, तपमद, रूपमद, धनमद, अधिकारमद, ये पाठ मद, देवमूढ़ता, मुरूमूढ़ता, लोकमूढ़ता ये मूढ़ताए हैं । तथा छः अनायतन, बुगुरू, कुगुरू भक्ति, कुदेव, कुदेव भक्ति, कुधर्म, कुधर्म, सेवक, ऐसे सम्यग्दर्शन के ये पच्चीस दोष हैं इन दोषों से रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन का होना सो दर्शनविशुद्धि भावना है । देव शास्त्र, गुरू, तथा रत्नत्रय का हृदय से सन्मान करना विनय करना विनय संपन्नता है । व्रतों तथा व्रतों के रक्षक नियमों (शीलों) में अतीचार रहित होना शील व्रत भावना है। सदाज्ञान प्रभ्यास में लगे रहना अभीक्षण ज्ञानोपयोग है। धर्म और धर्म के फल से अनुराग होना संवेग भावना है। अपनो शक्ति को न छिपाकर अंतरंग बहिरंग तप करना शक्तितम त्याग है। अपनी शक्ति के अनुसार आहार, अभय, औषध और ज्ञान दान करना शक्ति तम् त्याग है। साधुओं का उपसर्ग दूर करना, अथवा समाधि सहित वीर मरण. करना साधु समाधि है। ती त्यागी साधर्मों की सेवा करना, दुःखी का दुःख दूर करमा वैययावत
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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