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( २०२) बेविगे परिद नीरिन । पाविगार्तरद पालपय चुलिगिब। भार्वािस मानपुपकृति । यथोलेदा पात्र दानदाविषमतेयं ॥११७॥
अर्थ--इन अपात्रों को दान देने से जैसे नीम के पेड़ को मोठे पानी से सींचा जावे तो भी वह फल कडुवा देता है इसी तरह कुपात्रों को दिया हुआ दान संसार-भ्रमण का कारण होता है । इसलिये दयालु सम्यग्दृष्टीश्रावकों को अपने हित के लिये सत्पात्र को दान देना चाहिये।
कुपात्र दान से कुभोगभूमि में उत्पन्न होकर कुत्सित भोगों के अनुभव करने वाले होते हैं। अतः कुपात्र को त्यागकर सत्पात्र को दान देना ही इहलोक व परलोक में आत्म-कल्याण का कारण है । बालवृद्ध, गूगा, बहरा व्याधि-पीड़ित दीन जीव को यथोचित वस्तु देना कम्णा दान कहलता है। सत्पात्र को दान देने वाला सम्यग्दृष्टि जीव कल्पवासी देवों में जन्म लेकर संसार के भोगों को असुभव कर कुछ समय के बाद मुक्त होता हैं। कुछ मार्दव प्रार्जव गुण-रहित मिश्याष्टि जीव सत्पात्र को दान देने के कारण उत्तम, मध्यम,जघन्य भोग भूमि में उत्पन्न होकर और बहाँ के सुखानुभवकर पूर्व विदेह को जाते हैं ।
पूर्व विदेह के पुष्करावतो विषय सम्बन्धी सविय सरोवर के किनारे पर श्रीमती तथा बज्र जन्ध दोनों ने श्री सागररोन मुनि को आहार दान दिया और उस समय पाहार दान की अनुमोदना करने वाले वाघ सूकर, बन्दर और नेवला यह चार जीव भोगभूमि के सुख को प्राप्त हुये तथा उस बज्रजघकी परम्परा से मादिनाथ भगवान के भव में उनके पुत्र होकर मुक्त होगये और श्रीमती का जीव अभ्युदय सुख-परम्परा को प्राप्त होकर राजा श्रेयांसकुमार हुआ उसने भगवान आदिनाथ को दान देकर दानतीर्थ की प्रवृत्ति की तथा सिद्धपद प्राप्त किया
इस भरत क्षेत्र सम्बन्धी आर्यखण्ड में मलयदेश के रत्न संचय पुर के शासक श्री सेए राजा ब उनकी रानी सिंहह्नन्दिता, आनंदिता सत्यभामा ब्राह्मणी इन चारों ने अनंतगति और अदिजय नामक दो चारण मुनियों को दान दिया तथा उस दान का अनुमोदना की, जिसके फल से वे अनुपम सुख भोगी हो गई।
सत्पात्र वान का फलई दोरे युत्तम पात्र-। फादर दिदित्त दान फलमेगेयुवा ॥... नोवयमिल्लिद नरपशु -। चाविनोळे बगेदुनोडेकुरिगळभावं.॥११॥