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( २०१) १-प्रतिग्रह ( अपने द्वार पर आये हुए मुनि को ' प्राइये, ठहरिये, अन्न, जल शुद्ध हैं, कहकर पडगाहना, ठहराना). २उच्च स्थान (घर में लेजाकर उन्हें ऊच्चे स्थान कुर्सी तख्त आदि पर बिठाना ), ३-पादोदक (उनकं चरण धोना ४--उनकी अष्ट द्रव्य से पूजा करना. ५- उनको प्रणाम करना, ६-मनशुद्धि बतलाना, ७- बचन-शुब्धि बतलाना, ८-काय-शुद्धि बतलाना, और हैभोजन शुद्धि बतलाना, ये नवधा भक्ति हैं।
मुनियों को ऐसा निर्दोष आहार पान आदि देना चाहिये जिससे उनके स्वाध्याय, ध्यान आदि में विघ्न न पाने पावें ।
पांच पाश्चर्य तीर्थकर आदि विशेष पात्र को विधि पूर्वक आहार दान करने से पांच प्रकार के आश्चर्य होते हैं--१-रत्न वर्षा २- पुष्पवर्षा ३-सुगन्धित वायु चलना, ४–देव दुन्दुभि बजना, ५-आकाश में देवों द्वारा जय जयकार होना।
दाता के गुरण सद्धाभक्तोतुट्ठीविण्णाणमलुद्धयाखमासन्ती,
जत्थेदे सन्तगुरणा तं दायारं पसंसति । अर्थ-जिस दान करने वाले दाता में १-श्रद्धा, २-भक्ति, ३-संतोष, ४-विज्ञान ५-निर्लोभता, ६-क्षमा, ७--शक्ति, ये सात गुण होते हैं, उस दाता की सभी लोग प्रशंसा करते हैं।
नेरद त्रिशक्ति भक्तिद। लरिवौदार्य दयागुरणं क्षमे एंबि॥ तुरगिद गुणवेळ रोळं। मेरेविदुद दाबुददुवे दातृ विशेषं ॥११६।।
अर्थ--भेदाभेद रलत्रय के आराधक मुनि सुपात्र उत्तम पात्र कहलाते हैं। देशसंयत श्रावक मध्यम पात्र कहलाते हैं । असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। इस तरह पात्र के तीन भेद हैं । चारित्राभास कुचारित्र वाले स्वभाव से पापी और मार्दव आदि गुणों से रहित, अपने मनमाने धर्म के अनुसार चलने वाले कुपात्र हैं 1 सप्त व्यसन में प्रासक्त, दम्भी हासप्रयुक्त कथा तथा प्रलाप करने वाले, हमेशा माया प्रपञ्च युक्त ये सभी अपात्र हैं। इनको दिया हुआ दान निष्फल तथा संसार का कारण है ऐसा जिनेंद्र भगवान ने कहा है। इसलिये कमी भी ऐसे अपात्रों को दान न देना चाहिये ।