SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २०० ) अतिथि संविभाग व्रत शुद्धात्मा की एकत्व भावना में लीन रहने वाले, राग, द्वेष विषयों से विरक्त, ऋद्धि से गर्द रहित नीरस आहार करने वाले, चारों पुरुषार्थो के ज्ञाता, मोक्ष पुरुषार्थ करने वाले, चुल्हा, चक्की, ओखली, (स्खण्डिनी) बुहारी (प्रर्माजनी) तथा उदक कुम्भ ( पानी भरना आदि ) इन ५ सूना कार्यों के त्यागी इहलोक भय, परलोक भय वारणभय, अगुणिभय, मरणभय, वेदनाभय, आकस्मिक भय, इन सात प्रकार के भयों से रहित, पल्य, सागर, सूच्यङ्गल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगत्श्रेणी, लोक प्रतर, लोक पूर्ण ऐसे प्रकार के प्रभाग के निपुण ज्ञाता, € प्रकार के ब्रह्मचर्य सहित १० प्रकार संयम से युक्त तपस्वी को निर्दोष, आहार श्रीषधि, उपकरण, ग्रावास ऐसे चार प्रकार के दान देना वैयावृत्य हैं । उन पर श्रामी हुई आपत्ति को दूर करना, उनकी थकावट दूर करना, उनके पांव दबाना, पर धोना, ये सब वैयावृत्य हैं । ये सब किया श्रावकों के गृहस्थाश्रम के होने वाले पापों को धोने वाली हैं । "गृहकर्मरण पिनिचित कर्म विमष्टि खलु गृहविमुक्तानां प्रतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमल धावते वारि" श्रर्थात्- गृहमुक्त अतिथियों की पूजा भक्ति गृहस्थों के गृह कर्म से बंधने वाले कर्म को नष्ट कर देती है । जैसे जल रुधिर को धो देता है । विधि द्रव्यदातृपात्रभेदाराद्विशेषः । 1 यानी — दान करने की विधि, दान देने योग्य द्रव्य दाता तथा पात्र (जिसको दान दिया जावे ) इन चारों की विशेषता से दान तथा दान के फल में विशेषता आजाती हैं | दान करने से साक्षात् पुण्य कर्म का बन्ध होता है और परम्परा से मुक्ति की प्राप्ति होती है। चाहिये । कनडी श्लोक मनेगेळ्तरे सत्पात्रमि देन गभिमत फलमनोयले तंदुदुस -1 मुनिरूपदीकल्पा | afroहमेनासिदंदु रागरस संभ्रमवि ।। १३५ ।। नवधा भक्ति मुनि यदि पात्रों को दान नवधा ( नौ प्रकार को ) भक्ति से देन .
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy