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अतः जिन मंदिर बनवाना, प्रतिमा बनवाना, पूजन आदि क्रिया में हानिकारक न होकर लाभदायक है, एक बार का बनवाया हुअा मंदिर तथा प्रतिमा दोर्घकाल तक अगणित स्त्री पुरुषों को प्राध्यात्मिक शुद्धि, पुण्य कर्म-संचय करने में सहायक हुआ करते हैं । अतः जिन मंदिर, जिन चैत्य, गुरु निषिधिका, शास्त्र निर्माण, पूजन, प्रक्षाल तीर्थ यात्रा प्रादि बहुत लाभदायक हैं।
___ इस कारण स्वाधीनता तथा प्रसन्नता के साथ दर्शन, पूजन प्रादि क्रिया करनी चाहिए, पराधीनता से दर्शन पूजन प्रादि धर्म-क्रिया नहीं करनी चाहिये तथा पूजन प्रक्षाल भो स्वयं करना चाहिए, अन्य मनुष्य के द्वारा न कराना चाहिए । एवं स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहन करके मंदिर में भाना चाहिये। जल से अपने पैर धोकर मंदिर में निःमहि नि राहि किन नहीं हुचे गोमा करना चाहिए।
तत्पश्चात् तीन प्रदक्षिणा देकर भगवान के सामने खड़े होकर ईयापथस्तुति बोलना चाहिए । उसके बाद कायोत्सर्ग करके अालोचना करे। तदनन्तर 'चैत्य-भक्ति-कायोत्सर्म करोमि' ऐसी प्रतिज्ञा करके चैत्य भक्ति पहनी चाहिए।
चैत्य भक्ति इस प्रकार है:-- मानस्तंभाः सरांसि प्रमिलजललसत्खातिका पुष्पवाडी। प्राकारो नाट्यशाला द्वितयमुपवनं येदिकांत जामाः।। मासः कल्पद्र मारणा सुपरिवृतवनं स्तूपहाबली च। . प्राकारः स्फाटिकोतर्नु सुरमुनिसभाः पीठिकाने स्वाभः॥ वर्षेषु वर्षान्तरपर्वतेषु नदीश्वरे यानि च मंबरेषु । यावंति चैत्यायतनानि लोके सर्वारिग वंदे जिनपुगवानाम् ।। अवनितलगतानां कृत्रिमाकृत्रिमाणां, वनभवनगतानां दिव्यत्रैमानिकानां ॥ इह मनुजकृतानां देवराजाचितानां, जिनवर निलयानां भावतोहं स्मरामि ।। जंबूधातकिपुष्कराद्ध वसुधाक्षेत्रत्रये ये भवाः, चंद्रांभोजशिखंडिकंठकनकप्रावृधनाभा जिनाः सम्यग्ज्ञानचरित्रलक्षगधरा ग्धाष्टकर्मेन्धनाः, भूतानागतवर्तमानसमये तेभ्यो जिनेभ्यो नमः ॥