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________________ वस्तुस्तक्न, रूपस्तबन, गुणस्तवनादिक से अरहंत परमेश्वर की स्तुति करना, यह स्तवन नामका १७ यां मूल गुण है। देवता स्तुति करने में अपनी शक्ति का न छिपाते हुए खड़े होकर या बैठकर त्रिकरण-शुद्धिपूर्वका दोनों हाथ जोड़कर जो क्रिया करते हैं उस तरह करना स्तवन है । उस प्रिया का नाम लेकर कायोत्सर्ग पूर्वक सामायिक दंडक का उच्चारण करे, तीन बार पावर्त और एक शिरोनति करके दंडक के अन्त में कायोत्सर्ग कर पंच गुरुचरण कमल का स्मरण करके द्वितीय दंडक के आदि और अंत में भी इसी प्रकार करे । इस तरह बारह आवर्त और चार शिरोनति होते हैं। इसी तरह चैत्यालय प्रदक्षिणा में भी तीन-तीन आवर्त एक एक शिरोनति होकर चारों दिशा-सम्बन्धी ब्राम्ह आवर्त चार शिरोनति होते हैं। जिन प्रतिमांक सामने इस प्रकार करने से दोष नहीं है। बुबोग दंज हाजादं बारसा वदमेवयं । चदुस्सिर तिसुद्धि च किरिय कंमपउज्जये । नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ये कम से पुण्य तथा पापास्रव के कारण हैं । तो भी सम्यग्दृष्टि के लिये चैत्य चैत्यालय, गुरू के निषिधिकादि संस्थान क्रियाकांड करने योग्य है, ऐसा कहा गया है । शंका-नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव ये पुण्यासूत्र तथा पापास्रव के कारण हैं। जिन मंदिर, गुरु निपिधिका ग्रादि बनवाने में, जिनेन्द्र-बिम्बनिर्माण तथा पूजन आदि करने में प्रारम्भ करना पड़ता है, इस कारण ये क्रियाएं करने योग्य नहीं हैं। समाधान-जिस कार्य में थोड़े से सावद्य (दोष) के साथ महान पुण्य लाभ हो वह कार्य करना उचित है । जैसे क्षीर सागर में दो चार बूद विष कुछ हानि नहीं करता, उसका अवगुण स्वयं नष्ट हो जाता है इसी प्रकार मंदिर प्रतिमा बनवाने, पूजन आदि करने में जो थोड़ा सा प्रारम्भ होता है वह मंदिर में असंख्य जीवों द्वारा धर्म साधन करने से वीतराग प्रतिमा के दर्शन पूजन से असंख्य स्त्री पुरुषों द्वारा भावशुद्धि, विशाल पुण्य उपार्जन करने में स्वयं विलीन हो जाता है, पुण्य रूप हो जाता है, अतः दोष नहीं है, थोड़ी सी हानि की अपेक्षा महान लाभ है। जिस तरह कल्पवृक्ष, चिन्तामणि रत्न, गरुड, मुद्रा आदि अचेतन जड़ पदार्थ मनुष्यों को महान सुख सम्पत्ति प्रदान करते हैं, तथैव जिनमंदिर, भिमप्रतिमा भी अचेतन होकर दर्शन भत्ति प्रादि करनेवाले को वीतरागता, भाव शुद्धि, शान्ति प्रादि प्रात्मनिधि (निमित्त रूप से) प्रदान करते हैं,
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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