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________________ ( ३४६ ) उपयोगश्चेति ।।४७॥ अर्थ-उपयोग के भी १२ भेद हैं । उवमोगो दुवियण्यो दसरणगाणं व बंसरणं चदुधा । चपखुपचक्कल प्रोही दंसरणमध केवलं गेयं ॥३७।। रणारणं अद्रुवियप्यं मविसुर श्रोही प्रसारणगाणाणि । मणपज्जय केवलमयि पञ्चहल परोक्ख भेयंच ॥३८॥ • यानी-उपयोग के मुल दो भेद हैं-दर्शन और तान । इनमें से दर्शन पयोग के ४ भेद है-१-चक्षु दर्शन (नेत्रद्वारा होनेवाला गान से पहले पदार्थ को सत्तामात्र का प्रतिभास होना), २–प्रचक्ष दर्शन ( नेत्र इन्द्रिय के सिवाय शेष चार इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान के पहले पदार्थों की सत्तामात्र का प्रतिभास होना). अवधिदर्शन (अवधिज्ञान के पहले पदार्थों की सत्तामात्र का प्रतिभास होना), ४-केवल दर्शन (केवल ज्ञान के साथ-साथ त्रिलोक त्रिकालवर्ती पदार्थों की सत्तामात्र का प्रतिभास होना) । शान उपयोग आठ प्रकार का है। १-मतिज्ञान, २-श्रुतज्ञान, ३अवधिज्ञान, ४-कुमति, ५-कुश्रत, ६-कुअवधि, ७-मनपर्यय, ८-केवल ज्ञान । इनमें से मति, श्रुत, कुमति, कुश्रुत ये ४ ज्ञान परोक्ष हैं क्योंकि इन्द्रिय मन आदि के सहारे से होते हैं-अस्पष्ट होते हैं । अवधि, कुअवधि और मनपर्यय भग्न एक देश प्रत्यक्ष है और केवल ज्ञान पूर्ण प्रत्यक्ष है। ___पहले गुणस्थान में कुमति, कुश्रुत, कुअवधि (विभंग अवधि) ज्ञान, चक्षु, अचक्ष दर्शन ये पांच उपयोग होते हैं । मिश्र गुणस्थान में मिश्रित पहले तीनों ज्ञान उपयोग होते हैं। चौथे पांचवें गुणस्थान में मति, श्रुत, अवधिज्ञान, चक्ष , अचक्ष , अवधिदर्शन ये ६ उपयोग होते हैं। छठे गुणस्थान से १२वें गुणस्थान तक केवल ज्ञान के सिवाय ४ ज्ञान और केवल दर्शन के सिवाय ३ दर्शन ये ७ उपयोग होते हैं । १३३, १४३ गुणस्थान में केवल ज्ञान, केवल दर्शन ये २ उपयोग होते हैं। इनमें से केवल ज्ञान केक्स दर्शन साक्षात् उपादेय हैं । गुणाजीवापज्जत्ती पाणा सण्णागइंदिया काया । जोगावेदकसाया जाणजमा सणालेस्सा ॥३६ भन्धा सम्मत्ताविय सण्णी पाहारगाय उखजोगा जोग्गा परूविदवा भोघादेसेसु समुदायं ।।४।।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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