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उपयोगश्चेति ।।४७॥ अर्थ-उपयोग के भी १२ भेद हैं । उवमोगो दुवियण्यो दसरणगाणं व बंसरणं चदुधा । चपखुपचक्कल प्रोही दंसरणमध केवलं गेयं ॥३७।। रणारणं अद्रुवियप्यं मविसुर श्रोही प्रसारणगाणाणि ।
मणपज्जय केवलमयि पञ्चहल परोक्ख भेयंच ॥३८॥ • यानी-उपयोग के मुल दो भेद हैं-दर्शन और तान । इनमें से दर्शन पयोग के ४ भेद है-१-चक्षु दर्शन (नेत्रद्वारा होनेवाला गान से पहले पदार्थ को सत्तामात्र का प्रतिभास होना), २–प्रचक्ष दर्शन ( नेत्र इन्द्रिय के सिवाय शेष चार इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान के पहले पदार्थों की सत्तामात्र का प्रतिभास होना). अवधिदर्शन (अवधिज्ञान के पहले पदार्थों की सत्तामात्र का प्रतिभास होना), ४-केवल दर्शन (केवल ज्ञान के साथ-साथ त्रिलोक त्रिकालवर्ती पदार्थों की सत्तामात्र का प्रतिभास होना) ।
शान उपयोग आठ प्रकार का है। १-मतिज्ञान, २-श्रुतज्ञान, ३अवधिज्ञान, ४-कुमति, ५-कुश्रत, ६-कुअवधि, ७-मनपर्यय, ८-केवल ज्ञान । इनमें से मति, श्रुत, कुमति, कुश्रुत ये ४ ज्ञान परोक्ष हैं क्योंकि इन्द्रिय मन आदि के सहारे से होते हैं-अस्पष्ट होते हैं । अवधि, कुअवधि और मनपर्यय भग्न एक देश प्रत्यक्ष है और केवल ज्ञान पूर्ण प्रत्यक्ष है।
___पहले गुणस्थान में कुमति, कुश्रुत, कुअवधि (विभंग अवधि) ज्ञान, चक्षु, अचक्ष दर्शन ये पांच उपयोग होते हैं । मिश्र गुणस्थान में मिश्रित पहले तीनों ज्ञान उपयोग होते हैं। चौथे पांचवें गुणस्थान में मति, श्रुत, अवधिज्ञान, चक्ष , अचक्ष , अवधिदर्शन ये ६ उपयोग होते हैं। छठे गुणस्थान से १२वें गुणस्थान तक केवल ज्ञान के सिवाय ४ ज्ञान और केवल दर्शन के सिवाय ३ दर्शन ये ७ उपयोग होते हैं । १३३, १४३ गुणस्थान में केवल ज्ञान, केवल दर्शन ये २ उपयोग होते हैं।
इनमें से केवल ज्ञान केक्स दर्शन साक्षात् उपादेय हैं । गुणाजीवापज्जत्ती पाणा सण्णागइंदिया काया । जोगावेदकसाया जाणजमा सणालेस्सा ॥३६ भन्धा सम्मत्ताविय सण्णी पाहारगाय उखजोगा जोग्गा परूविदवा भोघादेसेसु समुदायं ।।४।।