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चक्रवर्ती का विशाल कटक भी आराम से रह जावे, यह अक्षीणमहालयत्व ऋद्धि है। गाथा--बुद्धितवादिय अथिपियं वरणलखितहेव प्रोसहिया ।
रसबल अक्खिगविपलछिनो सत्त पणणसा ।। १६ ।।
. पंचविधानिर्ग्रन्थाः ॥ ६७ ।। पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रंथ, और स्नातक ऐसे निग्रंथ के पांच भेद हैं । उत्तर गुग की भावना से रहित मूल गुरगों में कुछ न्यूनता रखने वाले को पूलाक कहते हैं । अखंडित ब्रह्मचर्य के धारी होते हुये भी शरीर तथा उपकरण संस्कार तथा यश विभूति में आसक्त तथा शबल चारित्र से युक्त रहने वाले मुनि को बकुश कहते हैं। संपूर्ण मूल गुणों से युक्त तथा अपने उपकरणादि में ममत्व बुद्धि रखकर उत्तर गुगा से रहित मुनि को प्रतिसेवना कुशील कहते हैं । शेष कषायों को जीतकर संज्वलन कषाय मात्र से युक्त रहने वाले कषाय कुशील हैं। ये कुशील के दो भेद हैं। अन्तमुहर्त के बाद केवल ज्ञानादि में रहने वाले क्षीरणकषाय को निग्रन्थ कहते हैं । ज्ञानावरणादि धाति कर्म क्षय से उत्पश्न हुई नव केवल लब्धि से युक्त सयोग केवली स्नातक होते हैं । ये पांचों मुनि जघन्य, मध्यम, उत्तम, उत्कृष्ट चारित्र भेदबाले होकर नंगम नयापेक्षा से पांच निर्गन्ध कहलाले हैं । असे अनेक वर्ण के सुवर्ण सोना ही कहलाते हैं । वैसे ही उपयुक्त पांचों मुनि सम्यग्दर्शन भूषणदि से न्यूनाधिकता के कारण सर्व सामान्य होने से निर्ग्रन्थ कहलाते हैं।
पुलाक, वकुश, प्रतिसेवना कुशील इन तीनों को सामायिक और छे दोपस्थापना संयम होता है। कषाय कुशील को सामायिक, छेदोपस्थापना; परिहार विशुद्धि तथा सूक्ष्म-सापराय ये चार संयम होते हैं । निम्रन्थ तथा स्नातक को यथास्यात गुद्ध संयम एक ही होता है। श्रुतों में पुलाफ बकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनि उत्कृष्ट से अभिन्नाक्षर दश पूर्व के धारी होते हैं । कषाय कुशील और निर्ग्रन्थ चतुर्दश पूर्व के धारो होते हैं । जघन्य रूप से पुलाक का श्रुत और आचार वस्तु प्रमाण होता है । बकुश, कुशील और निम्रन्थ का श्रुत कम से कम प्रष्ट प्रावनमातका मात्र होता है। स्नातक अपगतश्रु त यानी केवली होते हैं। चारित्र की विराधना करना विराधना है । पुलाक मुनि दूसरों की जबर्दस्ती से पाँच मूलगुण तथा रात्रिभोजन त्याग में से किसी एक की प्रतिसेवना करता है । वकुश मुनि कोई तो अपने उपकरणोंकी तथा शरीर स्वच्छता सुन्दरता में रुचि रखते हैं और दूसरे वकुश मूलगुणी को सुरक्षित रखते हुए उसर गुणों की विराधना करते हैं।