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________________ ( २१२ प्रतिसे ना कुंशोश के उत्तर गुण में कुछ न्यूनता रहतो है । पर शेष को प्रतिसेवना नहीं है। तीर्थको अपेक्षा सभी मुनि सभी तीर्थकरों के समय होते हैं । द्रा भाव विकल्प से लिङ्ग में दो भेद हैं । जितने भावलिंगी हैं वे सभी निम्रन्य लिंगी कहलाते हैं और द्रयलिंग में कुछ विकल्प होता है । लेल्या में पुलाक को 2 की : नेस्यायें होती हैं। प्रतिसेवना कुशील को ६ लेझ्यायें होती हैं । कपा माल को परिहार विशुद्धि और संयत को ३ लेश्यायें होती हैं । सुध्मसांपरराय बाल नया निर्ग्रन्थ स्नातक को शुक्ल लेश्या होती है । प्रयोगकेवली को लग्या नहीं होती। उपपाद में पुलाक को उत्कृष्ट उपपाद अठारह सागरोपम रिअनि गया र कला में होता है । अगरणअच्युतकल्प में बकुश व प्रतिसेवना वृशील का २२ मागरोपम स्थिति होती है । . . सर्वार्थ सिद्धि में वपाय कृत्रोल और निर्ग्रन्थ की ३३ सागरोपम स्थिति होती है । सौधर्म कप में जघन्य अपादकों को २ सागरोपम स्थिति होती है । स्नातक मक्ति पाने है । संघम की अपेक्षा कषाय के निमित्त से संख्यात में से सर्व जघन्य संयम किन्न स्थान प्रलाक और कषाय कुशील वाले को होती है। धे दोनों साथ साथ असंख्यात स्थान को प्राप्त होकर पुलाक रूप होते है । कषाय कुशील मुनि ऊपर के असंख्यात संयम स्थानों को अकेले ही प्राप्त होते हैं उसके ऊपर कषाय कुशील, प्रतिसेवना कुशील तथा बकुश ये तीनों असंख्यात मुरणे स्थानों को प्राप्त होकर पुनः बकुश को प्राप्त होता है । __ उसके ऊपर असंख्यात संयम स्थान को पहुंच कर प्रतिसेवना कुशील होता हैं। वहां से ऊपर चलकर प्रसंख्यात संयम स्थान में जाकर कषाय कुशील होता है । उसके ऊपर अकाषायास्थान हैं निर्ग्रन्थ मुनि समस्त कषाय त्याग करक सयम के असंत्यात स्थान प्राप्त करते है । पुनः उसके ऊपर एक स्थान स्नातक प्राप्त करते हैं वे निर्वाण पद को प्राप्त कर संयम लब्धि अर्थात् ६ लब्धि को प्राप्त कर लते हैं । आचारश्च ।६८। ___ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, तपाचार, वीर्याचार तथा चारित्राचार ये पाँच प्रकार के प्राचार है। पाँचो मानार काल शुद्धि विनय शुद्धि अवग्राहादि को कभी नहीं भूलते । शब्द और अर्थ ये दोनों आठ प्रकार के ज्ञानाचार तथा ८ प्रकार के निःशंकादि दर्शनाचार को बढ़ाने वाले हैं। जिस प्रकार संतप्त लोहे के ऊपर यदि भोड़ा सा जल डाल दिया जाय तो वह उसे तत्क्षण भस्म कर देने के पश्चात् भी गर्म बना रहता है उसी प्रकार
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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