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________________ प्राप्त प्रागम तथा परम तपस्वी गुरु जन अज्ञान का नाश करके भी अपने स्व स्वरूप में स्थित रहते हैं। उनके विष में शंका न करना निःशंका है। निःकाक्षा--अस्थिर तथा अत्यन्त बाधक कर्मास्रव मार्ग, को बढ़ाने वाले विषय सुखों की क्रांक्षा न रखकर अपने स्वरूप में स्थित रहना निःकांक्षा है । सुकाल में, सुक्षेत्र में बीज बोकर जिस प्रकार किसान अन्य चीज की इच्छा म रखकर उसकी रक्षा करते हुये वृद्धि करता है और फसल को बढ़ाता जाता है उसी प्रकार मुनिजन पापभीर हो कर सदाचरण तथा ग्रात्मोन्नति को बढ़ाते हुये इन्द्रादि काभोगोपभोगों की आकांक्षा से रहित रहकर अपने प्रात्म स्वरूप में लीन रहते हैं धन, धान्य, महल मकान, इन्द्र नरेन्द्र तथा चक्रवर्ती पद प्रादि दिन, मुख कामिक हैं तथा मोक्षश्री की कामना करते रहने से वे स्वयमेव प्रा जाते हैं, अतः सम्यग्दृष्टी जीव उनकी लालसा न करके केवल शुद्धात्मा को ही आराधना करते हैं। __ जिस प्रकार कुशल किसान केवल धान यानी फसल मात्र की कामना करके सुकाल, सुक्षेत्र में उत्तम बीज बोकर धान के साथ २ भूसा, पुपाल तथा इंठल आदि अनायास ही प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार भव्य जीव केवल मोक्ष की सिद्धि के लिए प्रयत्न करते हैं पर इन्द्र धरणीन्द्र तथा नरेन्द्रादिक पद वे अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं। अतः इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक और मोक्ष सुख शाश्वत है, ऐसा समझकर सम्यग्दृष्टि सदा शाश्वत सुख की ही इच्छा करते हैं । और नि:काक्ष भावना से सर्वदा आत्मस्वरूप में लीन रहते हैं। निविचिकित्सानविदमोप्पे रत्न-। यदि कविगेपसि शोभि सुतिर्त । शरीर दोळितुजुगु- । सेयनागि सदिप रुचिये निर्विचिकित्सं ॥ ___ संगति से गुणहीन वस्तु भी गुणवान मानी जाती है जैसे गुणहीन मिट्टी के वर्तन में घी या अमृत रहने से उसको भी गुणवान माना जाता है। उसी तरह यह शरीर अमंगल होने पर भी पवित्र शुद्ध रत्नत्रयात्मक शुचिभूत मात्मा के संसर्ग में रहने के कारण शुचि (पवित्र) माना गया है। अगर इस शरीर से घृणा की जाय तो शुद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती यदि शरीर के प्रति घृणा को जाय तो उसके साथ प्रात्मा की भी धृपा होती है। क्योंकि शरीर प्रात्म-प्राप्तिके लिए मूल साधन है । ऐसा समझकर रोगग्रस्त किसी धर्मात्मा या चतुः संघ के किसी महात्मा आदि को देखकर वृणा न करके शरीर से भिन्न केवल प्रात्मस्वरूप का विचार करना निर्विचिकित्सा अंग कहलाता है।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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