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चौथे असूढदृष्टि अंग का लक्षण:
सच्चे देव, गुरु व शास्त्र के विपरीत पांचों पापों को बढ़ाने वाले एकान्त विपरीत, संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय ये पांच प्रकार के मिथ्यात्व है। इन्हीं पांचों मिथ्यात्वों में से स्वर्ग या मोक्ष का कारण मानकर जो कुदेवों के समक्ष मूक पशुओं का बलिदान किया जाता है वह पाप पंक में फंसाकर संसार वर्द्धन का कारण होता है । अत: उन पांचों पापों की मूढ़ता से रहित होकर वीतराग भगवान के द्वारा कहा हुआ मार्ग ही प्रात्मा का स्वभाव है तथा वहीं संसार से मुक्त करने वाला है, ऐसा निश्चय करके उसी में रत रहना अमूढ़दृष्टि है।
वात्सल्य-- चातुर्वरणंगळोळं- । प्रोति योळिदिरेईं कंडु धर्म सहायं । माता पितर निमेमगेवुदु । भूतलदोळ् नेगळ्द धर्मवात्सल्य गुरणं
॥२२२॥ गरीब-श्रीमन्त श्रादि का भेद-भाव न रखकर जिस प्रकार गाय व बछड़े का परस्पर में प्रेम रहता है उसी प्रकार चातुर्वर्ण्य धर्मात्माओं के साथ प्रेम करना वात्सल्य अंग है।
धर्म प्रभावना-- जिन शासन ताहात्म्य- । मनन वरतं तन्न शक्तियि वेळगिकरें । मनव तमम कळ्चुवु- । दनुदिनमिदु शासन प्रभावनेयक्कु॥२२३॥
भगवान जिनेश्वर की वाणी तथा आगम के द्वारा मिथ्या हिंसामयो अधर्म रूपी गर-समय के प्रावरण को दूर वर भगवान के शासन का प्रकाश करना, अपने तप के द्वारा देवेन्द्र के आसन को प्रकंपित कर देने वाले महातपस्थी के स्वसमय तथा उनके तप के महत्व को प्रकट कर जैन धर्म के महत्व को प्रकट करना, या समय समय पर भगवान जिनेन्द्र की पूजा, रथ यात्रा, कल्प वृक्ष पूजा, अष्ट पूजा या भगवान जिनेन्द्र देव का जन्मोत्सव, वीर जयन्ती
आदि उत्सव करके धर्म की प्रभावना से मिथ्या प्रावरण को दूर करना, प्रभावना अंग है।
पूनांग दृष्टि भवसं- । सानाळरलुकदार देंतेने मन्त्र । तानक्षर मोंदिल्लबो-। डेनवु केडेसुगमें विषम विषवेदनेयं ॥२२४॥
इन अंगों में से एक भी अंग कम होने पर अनन्त दुःख तथा पशुगति में होने वाले छेदन, भेदन, ताडन, त्रासन, तापन, वियोग, संयोग, रोग, दुःख,