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( ३१५) जन्म, मरण, जरा, मरण, शोक, भय, इत्यादिक दुःखों को उत्पन्न करने वाला संसार नाश नहीं हो सकता।
जैसे मंत्रबादी के मंत्र में से यदि एक भी अक्षर कम हो जाय तो उस मंत्र से सर्प का काटा हुमा विष नहीं उतरता उसी तरह पाठों अंगों में से यदि एक भी अंग कम हो जाय तो इह परलोक की सिद्धि को प्राप्त कर देने वाले पूर्ण सम्यग्दर्शन की सिद्धि नहीं हो सकती ॥२२४॥
अष्टांग दर्शवम-। मष्टदिय नष्ट गुण मनधिक स्थाना-। वृाष्टातिशय विशेषम- । नष्ट महासिद्धि गुणमरणी गुभ मोघं ।२२५३
इस कुल में जन्म लेने के पश्चात् उत्तम गुण ही प्रधान हैं । संसार में आत्मा को मनुष्य, तिर्यन, नारक गति, जाति, शरीर, रत्री, पु, नपुंसक बेद तथा नीच श्रादि कहना व्यवहार नय से कर्म की अपेक्षा है। शक्ति-निष्ठ निश्चयनय से आत्मा शुद्ध तथा सिद्ध भगवान के समान है । अत: वास्तव में शुद्ध भावी नय की अपेक्षा से अनागत सिद्ध है। परन्तु सम्यक्त्व-पूर्वक ज्ञान चारिमादि को प्राप्त करके यहाँ जीवात्मा सांसारिक बन्धनों को नाश करके पुनः सप्यक्त्यपूर्वक ज्ञान चारित्रादि को प्राप्त करके सिद्ध हो जाता है अर्थात् सांसारिफ कीचड़ से मुक्त होकर ऊपर या जाता है ॥२२५।। ।
दुरित दुपशम दिनायु-। सुर नक्कु धर्मदळिविनिनायवकु॥ सुरनुमेने धर्म दिदं । दोरकोळळदुदेन धर्म दिवळिपदुदें ॥२२६॥
इस लिए समस्त सांसारिक जीवों को केवल एक प्रमं ही निःश्रेयस परम अभ्युदयकारक आत्मिक सुख को देने वाला है और उस प्रात्मा को कर्मक्षय के निमित्त अर्थात् अपनी आत्मसिद्धि के लिये जब तक पूर्ण रूप से सामग्री प्राप्त न हो तब तक उन्हें उपर्युक्त गुणस्थानों पर चढ़ने की शक्ति नहीं प्राप्त हो सकती अर्थात् सम्यक्त्व के बिना ऊपर के गुणस्थान नहीं प्राप्त कर सकता और जहां चौथा गुणस्थान भी नहीं वहां दर्शन मोहनीय का उपशम भी नहीं है। तो ऐसा गृहस्थ व्रती भी नहीं हो सकता और व्रत के प्रभाव से वह मोक्ष मार्ग से भी अधिक दूर रहता है । तथाच जो व्रत ध सम्यक्त्व रहित बाह्य तप करने वाले साधु हैं उन्हें मोक्ष मार्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती। सम्यग्दृष्टि उत्तम गृहस्थ श्रावक सम्यक्त्व-रहित मुनि की अपेक्षा अणुव्रती दृष्टिगोचर होने पर भी क्रमशः शुद्धात्मा की प्राप्ति कर सकता है। जबकि सम्यक्त्व रहित महादतधारी मुनिगण बाह्य लप के कारण अमसिद्धि की प्राप्ति न कर सकने के कारण दीर्घ संसारी होते हैं । अर्थात् विकलता सहित अणुव्रती व महादती चाहे