________________
कितना भी शास्त्र स्वाध्याय करके ज्ञानोपार्जन करें, या धर्माराधन करें, पर वे द्रव्यश्रुती अथवा मिथ्याज्ञानी ही कहलाते हैं । क्योंकि अभव्य भी अनेक शास्त्रों में पारंगत होकर ११ अंगशास्त्र के पाठी होकर वहुन त कहलाते हैं और दुर्द्धर कायक्लेशादि तप करके उपरिम नवनवेयफ विमान तक भी जाते हैं; किन्तु पुनः वे वहां से लौटकर संसार की चतुर्गति में भ्रमण किया करते हैं। अर्थात् सम्यग्दर्शन से रहित होने के कारण उन्हें आत्मसिद्धि नहीं हो सकती। सम्यक्त्व रहित ज्ञान चारित्र की उत्पत्ति उसी प्रकार नहीं हो सकती जैसे कि-जहां पर बीज नहीं है वहां पर वृक्ष तथा फल पुष्पादि की उत्पत्ति त्रिकाल व त्रिलोक में कदापि नहीं हो सकती। अतः सम्यक्त्व को ही परम बन्धु तथा मिथ्यात्त्र को परम शत्रु समझकर प्रशम, संवेग, अनुकम्पा तथा आस्तिक्याभिव्यक्त लक्षण सहित संसार-लता मूल से विच्छेद करने वाले, त्रिकाल शान को प्राप्त करने वाले सम्यग्दर्शन की आराधना सर्व प्रथम करनी चाहिए। तब यह सम्यग्दर्शन मोक्ष प्रासाद में प्रारोहण करने के लिए प्रथम सोपान के समान है, ऐसा समझकर दर्शन सहित सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञान चारित्र तथा तपाराधना करने के कारण पूज्य हो जाता है और संसार में रहकर भी वे भव्य जीव श्रुत भगवान के आठ गुणों के समान निजात्म युद्धात्मा की आराधना करते हुए मापन की जाने की इच्छा से चारित्ररूपी यान-पात्र पर चढ़कर मोक्ष स्थान को शीघ्रातिशीघ्र सिद्धि कर लेते हैं ।।२२६॥
नेगळ दमल वर्शनये कठि कु निर्वाणणायिक राजलक्ष्यि मनलुनं । युगये निमत्तं प्रभृति गळ गल्केयम्युदय दोळि पनेसुवेयदु-।। गगतलेयूरि तपंगेयदेयमलसाग रोक्त धर्म दोळ ने गळ देमदृम्भलमिल्ल मुक्ति श्रीललनेयु अमरेंद्लक्ष्मियु कडुइरं ।।
इस सम्यक्त्व की महिमा से चतुर्गति के कारण बद्धायु को असंयत सम्यग्दृष्टि अप्रत्याख्यान कषाय के उदय होने पर नियमानुष्ठान से रहित होने पर भी इन्द्रिय-जन्य विषयों से सदासीन रहता है । तथा अग्निम भव में इन्द्र धरणीन्द्र, चक्रवर्ती आदि पद प्राप्त करके मुक्ति लक्ष्मी का पति होता है । २२६।।
विकलेंद्रिय जाति भावनधन ज्योतिष्कतिर्यग्नपुसकनारीनटविन द्वःकुलसरुग्मुखानिर्भाग्यना--11 रक होनायुषकिषादि पदमकैको ळ ळरदुमह-। धिक सस्थानमल्लद प्रति गलु सम्यक्त्व सामयदि ॥२२७॥