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होते हैं । उसमें मिथ्यादृष्टि को उत्पन्न होने वाला प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन है तब वेदक सम्यग्दृष्टि को होनेवाला सम्यग्दर्शन द्वितीयोपशमिक है, किसी धाचार्य के मत से उपशम श्रेणी चढ़नेवाले का उपशम सम्यक्त्व द्वितीय उपशम होता है, शेष प्रथम उपशम
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वह सम्यक्त्व कहां-कहां होता है, सो बतलाते हैं मिथ्यादृष्टि भव्य संज्ञी पर्याप्तक गर्भेज जीव लब्धि चतुष्टय इत्यादि सामग्री को प्राप्त करने के बाद त्रिकरण लब्धि को प्राप्त करके प्रथमोपशम सम्यक्त्व को धारण करता है । और उसी समय अणुव्रत से युक्त होकर महाव्रत को धारण कर सकता है । भोगभूमिज, देव और नारकी को एक ही सम्यक्त्व होता है । तिर्यञ्च भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है । कर्मभूमि के मनुष्य को दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय होने के कारण क्षायिक सम्यग्दर्शन भी होता हूँ । क्षायिक सम्यक्त्वी जन्म-मरण के अधीन नहीं होते, अधिक से अधिक तीन भव वारण कर मुक्त हो जाते हैं । उपशम सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त होती है । और उपशम भाववाला जीव उपशम सम्यक्त्व के काल में अनन्ताarat चारों कषायों में से किसी एक के उदय में आते ही सम्यक्त्व रूपी शिखर से पतित होकर मिध्यात्वरूपी भूमि. को जबतक प्राप्त नहीं होता है । उस अन्तरालवर्ती समय में उसको सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं । उसका जघन्य काल एक समय होता है और उत्कृष्ट काल छह श्रावली प्रमारा होता है । तत्पश्चात् यंत्र में डाले हुए तार के समान दर्शन मोहनीय कर्म में से मिथ्यात्व का उदय होता है तब वह मिध्यात्व को प्राप्त होता है उसमें वह जघन्य से अमुहूर्त' तक रहकर गुणान्तर को प्राप्त होता है । और उत्कुष्ट से श्रद्ध पुद्गल परावर्तन काल तक संसार सागर में परिभ्रमण किया करता है । दुर्मति को लेजाने का मूल कारण केवल मिथ्यात्व होता है । पुनः सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होते हुए उसमें रहने के पश्चात् मिथ्या दृष्टि अथवा असंयत सम्यग्दृष्टि होते हैं । सम्यग्मिथ्यात्व मिश्रित श्रद्धान भाव होता है । इस गुणस्थान में मरण नहीं होता।
सम्यक् प्रकृति के उदय होने के बाद गंदे पानी में फिटकरी मिलनेसे जैसे कुछ मैल नीचे बैठ जाता है उसी प्रकार सम्यक् प्रकृति के उदय के कारण चल, मलिन तथा प्रगाढ़ परिणाम रूप वेदक सम्यग्दृष्टि होता है । यह क्षयोपशम सम्यक्त्व जघन्य से प्रन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से ६६ सागरोपम है। तदनुसार इस सम्यक्त्व वाला देवगति और मनुष्य गति में जन्म लेकर अभ्युदय सुख का प्रतुभव करके ६६ सागरोपम काल प्रमित श्रायु व्यतीत करता है ।