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किस-किस कल्प में कितनी-कितनी प्रायु होती है सो कहते हैं:लान्तव कल्प में १४, अच्युतकल्प में २२, उपरिममे वैयक में ३१ सागरोपम प्राघु है। पर फिर भी वेदक सम्यग्दृष्टि अपनी अपनी आयु में हीन होते हैं। इसके बश्चात् वेदक सम्यग्दृष्टि उपशम घेणो चढ़ने के योग्य होने के कारण पहले अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करते हैं । पुनः अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण द्वारा दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों को उपशम करते हुए द्वितीयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं, तब उपशम एपारूढ होकर ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंच जाते हैं परन्तु उनके कषाय फिर उदय हो जाते हैं अतः के ग्यारहवें गुरणस्थान से नीचे के १०९ में पाये गुणस्थानों में क्रमश: आ जाते है। कोई कोई अंगोवाला प्रायु न होने के कारण लेश्या के वश मरण को भी प्राप्त होता है।
परिहार विशुद्धि , मनः पर्ययज्ञान, प्रथमोपशमक को नहीं होते, बल्कि द्वितीयोपशम में होता है । और दर्शन मोहनीय क्षपण का प्रारम्भ कर्म भूमि के मनुष्यों को चौथे असंयत गुणस्थान में होता है । वे तीर्थंकर के पादमूल में अथवा श्रुत केवली के पादमूल में रहकर अनन्तानुबन्धी तथा दर्शन-मोहनीय-त्रिक का क्षय करते हैं । सो इस प्रकार है :
योग्य निर्वाण क्षेत्र, काल, भव, पायु इन सबके साथ-साथ शुभलेश्या की वृद्धि, कषाय को हानि इत्यादि युक्त होने के निमित्त से अनंतानुवन्धी को अप्रत्याख्यान प्रकृति रूप करते हैं फिर सम्यग्मिथ्यात्व पश्चात् सम्यक्त्व प्रकृति को नि:शेष क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं । क्षायिक सम्यक्त्व असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर सिद्ध भगवान तक रहता है। उपशम-सम्यक्त्व उपशांत कषाय गुणस्थान तक होता है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-मिधा, सासादन सम्यक्त्व अपने अपने गुरणस्थान में ही होते हैं । क्षायिक सम्यहष्टि जन उसी भव तक अथवा तीन भव तक अथवा ज्यादा से ज्यादा चार भव तक ही संसार में रह सकते हैं । उनकी संसार की अपेक्षा से स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट से उत्कृष्ट मंतमुहूर्त तथा आठ वर्ष कम दो कोटि पूर्व सहित ३३ सामरोपम होती हैं। सिद्ध भगवान के क्षायिक सम्यक्त्व का अन्त नहीं होता है । वेदक उपशम सम्यक्त्वी ज्यादा से ज्यादा अर्ध पुद्गल तक संसार निवास करता है।
देवस देव मणुवे स रणर तिरिये चदुग्गदि ।
‘पिकद करगिज्जुप्पत्ति कमसी अंत मुहस्तेग ।।३।। दर्शन मोहनीय कर्स की तीन प्रकृति का क्षय करने के बाद सम्यक्त्व