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________________ (३४४) प्रकृति को पूर्ण रूप से क्षय करके यदि प्रामु एक अन्तर्मुहत शेष रहें तो देव गति में जाकर जन्म लेता है। दो अन्तर्मुहूर्त शेष हो तो देव और मनुष्य गति में उत्पन्न होता है। तीन अन्तर्मुहूर्त दोष रहने पर देव, मनुष्य तथा तिर्यग्गति में उत्पन्न होता है । चार अन्त मुहूंत शेष रहने पर क्रमश: चतुर्गतियों में उत्पन्न होता है। यदि उसे वेदक सम्यक्त्व प्राप्त हो जाय तो अधिक से अधिक प्रर्द्ध पुद्गल परावर्तन पर्यन्त संसार में रहता है। द्विविधं सजिस्वम् ॥४४॥ __अर्थ -संगी और असंझी, ये दो प्रकार के जीव होते हैं। इनमें मन सहित जीवों को संज्ञो और मन रहित जीवों को असंज्ञी कहते हैं। एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय जोव प्रसंशी होते हैं। पंचेन्द्रियों में देव नारकी और मनुष्य संज्ञो होते है । शंका-मन का काम हिताहित की परीक्षा करके हित को ग्रहण करके अहित को छोड़ देना है, इसको संज्ञा कहते है । अत: जब संजा और मन दोनों का एक ही अभिप्राय है तो संजी और समनस्क का मतलब एक ही है.सो फिर सूत्र में "संज्ञि" क्यों कहा ? समाधान—संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ है । संशा नाम को भी कहते हैं। अतः जितने नामवाले पदार्थ हैं के सभी संज्ञी कहलायेंगे । संज्ञा ज्ञान को भी कहते हैं और ज्ञान सभी जीवों में पाया जाता है, अतः सभी संजी कहे जायेंगे ! भोजन इत्यादि की इच्छा का नाम भी संशा है, जोकि सभी जीवों में पाई जाती है, अतः सभी संज्ञी हो जायगे । इसलिए जिसके मन है उसी को संशी कहना उचित है । दूसरे गर्भअवस्था में, मूच्छित अवस्था में, हित -अहित का विचार नहीं होता। अतः उस अवस्था में संज्ञी जीष भी प्रसंज्ञी कहे जायेगे । किन्तु मन के होने से उस समय भी वे मंशी हैं, अतः संशी समनस्क दोनों पदों को रखना ही उचित है। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सभी बीव असंही हैं। संशी 'मिथ्या दृष्टि से लेकर भोणकषाय पर्यन्त सभी जीव संशी हैं और केवली भगवान समनस्क हैं, द्रव्य मन की अपेक्षा अमनस्क नहीं हैं। पाहारोपपोगश्चेति ॥४५॥ पाहार के दो भेद हैं । १-पाहारक, २-अनाहारक । प्रौदारिक वैक्रियिक प्राहारक इन तीन शरीरों तथा ६ पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करता आहार है। गर्म लोहे का बोला जैसे
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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