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________________ ( २०४ ) प्रदरिंदी निरति चारा । स्पद मागिर लन्नदानमं माळ केमहा। . भ्युदय सुखमूलम शिव- प्रवमहिनिक्षिप्त वीज भन्यजन ।१२८। अर्थ-इस तरह राजा और रानी ने दान देकर उसका उत्तम फल प्राप्त किया, जो मनुष्य दान नहीं करते उन मनुष्यों का जीवन बकरे के समान है, जो सदा घास पत्तो खाया करता है और किसी दिन बधिक ( कसाई ) की छुरी से मारा जाता है ॥११॥ राजा श्रीषेण पात्रदान करने की भावना से वन को नहीं गया था, उसको तो अकस्मात् चारण मुनि सौभाग्य से प्राप्त हो गये, उनको दान देकर उसने जब श्रष्ट फल प्राप्त किया तो जो व्यक्ति पात्र दान के लिये सत्पात्रों • को ढूंढने का श्रम करते हैं सत्पात्र मिल जाने पर उन्हें दान देकर सन्तुष्ट होते हैं, उनके फल के विषय में तो कहना ही क्या है ॥११६।। जिस तरह भूमि को पत्थर आदि हटाकर शुद्ध कर लेने पर, उसमें खाद झालने के अनन्तर ठीक रीति से यदि बीज बोया जावे और आवश्यकतानुसार उसमें जल सींना जावे तो कामह भी लिना फा दिये रोगी ? अर्थात् नहीं । इसी तरह सत्पात्र को दिया हुया दान अवश्य फल प्रदान करता है ।।१२० भरत आदि चक्रवर्ती सम्राट लोभ कषाय या कंजूस होने के कारण नहीं हुए, वे उदारता से दान देने के कारण इतने बड़े बैभवशाली हुए। भिखारी ने पहले भव में किसी को कुछ नहीं दिया, इसी कारण उसका जीवन भीख मांगते मांगते ही समाप्त हो जाता है । पुण्य कर्म के उदय से धन वैभव प्राप्त होता है और बह वैभव स्थिर रहता है तथा बढ़ता रहता है। इस कारण सत्पात्र को दान करते रहो ।।१२१॥ राजा बनर्जच और श्रीमती ने बड़ी भक्ति से मुनियों को दान किया जिसके फल से वे उत्तोरत्तर उन्नति करते हुए मुक्तिगामी हुए । उनके उस पात्रदान को देख कर बन्दर, सिंह, शूकर और न्यौले ने उस दान की अनुमोदना की। उस अनुमोदना से वे पशु भी भोगभूमि में गये तथा अन्त में मुक्तिगामी हुए ।।१२२॥ पात्र को दान करने से भोग भूमि में जन्म होता है जहां पर गहांग, भोजनांग, वस्त्रांग, माल्यांग, भूषणांग, तुओंग, भाजनांग,ज्योतिरंग, दीप्तिअंग पानांन इन १० प्रकार कल्पवृक्षों के द्वारा समस्त भोग उपभोग की सामग्री प्राप्त होती है तथा सुन्दर गुणवती स्त्रियां प्राप्त होती हैं ॥१२३॥ रतिवर तथा रतिकेगा नामक कबूतर कबूतरी ने सत्पात्र को दान देते
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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