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हुए देखा, उस दान की दोनों ने अनुमोदना की। उस दान अनुमोदना के फल से वे दोनों भवान्तर में विद्याधर विद्याधरी हुए ।। १२४ ॥
राजा श्रीषेण तथा उनकी रानियों ने बहुत मानन्द से जीवन व्यतीत किया तथा सत्पात्र दान के कारण वे उत्तरोत्तर श्रेष्ठ फल प्राप्त करते रहे ॥ १२५ ॥
सत्पात्रों को जिन्होंने दान किया, पहले तो उनकी कीर्ति समस्त दिशाओं में फैली, तदनन्तर दूसरे भव में उन्होंने भोगभूमि के सुखों का अनुभव किया । फिर वहां से स्वर्ग में जन्म पाकर दिव्य सुखों का देवांगनाओं के साथ बहुत समय अनुभव किया । तदनन्तर मनुष्य भव पाकर मुक्ति प्राप्त की ।। १२६ ।।
पहले तो शुभकर्म के प्रभाव में धन नहीं मिलता, यदि धन मिल जावे तो सत्पात्र नहीं मिलता, यादि सत्पात्र मिल जाये तो पात्र दान करने की प्रेरणा करने वाले सहायक व्यक्ति नहीं मिलते। यदि पुत्र, स्त्री, मित्र आदि दान करने में अनुकूल सहायक भी मिल जायें तो फिर सत्याओं को दान करने से अनन्त चतुष्टय प्राप्त होने में क्या सन्देह है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥ १२७ ॥
सत्पात्रों को आहार दान करने से महान अभ्युदय प्राप्त होता है। जिस तरह निर्दोष भूमि में बीज डालने से फल प्रवश्य मिलता है, इसी तरह भव्य द्वारा सत्पात्र को दिया हुआ दान अवश्य मोक्ष फल देता है || १२८॥
इस प्रकार जिनको संसार रूपी दुख से जल्दी निकल कर निश्चित सुख पाना हो तो दाता के गुरण सहित चार प्रकार का दान सदा देना चाहिये ।
संक्षेप में दाता के सात गुणों का खुलासा किया जाता है। दान-शासन तथा रयणसार आदि ग्रन्थों में दाता के सप्त गुरणों का निम्न प्रकार वर्णन किया है
कनड़ी श्लोक
दाता का लक्षण
सदा मनः खेदनिदानमाना, न्वितोपरोधं गुरण सप्तयुक्तः । त्रिकालदातृप्रसुवैहिकार्थी, नतंच दातारमुशन्ति सतः ॥
अर्थ- जो व्यक्ति दान कार्य में 'हाय ! जन्म भर कमाया हुआ धर्म मेरे हाथ से जाता है, इस प्रकार मन में खेद नहीं करता है, जो दान के बदले में कुछ चाहता नहीं, श्रभिमान व पर- प्रेरणा से रहित होकर दान देता है और दाता के लिये सिद्धांत शास्त्र में कहे गये सप्तगुणों से युक्त है, जिसे भूत भविष्यत घर्तमान काल सम्बन्धी दाताओं के प्रति श्रद्धा है और जिसे ऐहिक सुख की इच्छा नहीं है श्राचार्यों ने उसी बाता की प्रशंसा की है।