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________________ { २८५) गेहूं आदि धान्य, सोना चांदी प्रादि पदार्थ संग्रह कर रक्खे हों। उनको मंहगा भाय हो जाने पर बेचने का, नकाल दुर्भिक्ष आदि होने का विचार करना, जिससे अधिक लाभ हो सके, वैद्य विचार करे कि रोग फैल जावें तो मुझे बहुत धन मिले, इत्यादि स्वार्थ साधन के बुरे विचार जब मन में पाते हैं उस समय दान, पूजा, ब्रत, स्वाध्याय सामायिक प्रादि धर्म कार्य में मन नहीं लगता इस कारण यह निवान पार्तध्यान है। असाता वेदनीय कर्म के उदय से शिर, मुख, नाक, कान, गले, छाती, पेट, पेट, अण्डकोश, पर टांग प्रादि अंग उपांगों में ५६८९६५८४ तरह के रोग हो जाते हैं. जो पारीर में ही पीड़ा (वेदना) होती है उस समय मन किसी धर्म कार्य में नहीं लगता, सदा दुखी बना रहता है, इस कारण यह वेदना नामक प्रार्तध्यान है। रौद्रमपिचतुर्विधञ्च ॥५५॥ अर्थ-और रौद्रध्यान भी चार प्रकार का है। प्राणिनां रोवनाद्रौद्रः क र सत्वेषुनिषूणः । पुस्तित्र भयं रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम् ॥ हिंसानन्दान्मृषानन्दात्स्तेयानन्दात्प्रजायते । परिग्रहारणा मानन्दात्त्याज्यं रौद्रञ्च दूरतः ॥३२॥ अर्थ-अन्य जीवों को निर्दयता से रुलानेवाला, रुद्रता-करता रूप जो ध्यान होता है वह रौद्रध्यान है। वह चार तरह का है १-हिंसा में आनन्द मानने से होनेवाला हिसानन्द, २--असत्य बोलने में आनन्द मानने से होनेवाला मषानन्द, २-चोरी करनेमें आनन्द मानने से होने वाला स्तयानन्द ४–परिग्रह संचय करने में आनन्द मानने से होनेवाला परिग्रहानन्द या 'विषय संरक्षणानन्द रौद्रध्यान होता है, ये ही उसके चार भेद हैं। ___र परिणाम से किसी को क्रोधित होकर गाली देना, निग्रह करता, मारना या जान से मार डालकर प्रानन्द मानना हिंसानन्द कहलाता है । अपने ऊपर यदि कोई विश्वास करता हो तो भी उसके साथ विश्वासघात करके भूठ बोलकर आनन्द मानना मषानन्द नामक रौद्रध्यान कहलाता है । बलवान होने से किसी निर्बल निर्दोषो व्यक्ति को मिथ्या दोषी ठहराकर ऊससे दण्ड वसूल करना या दूसरे के द्रव्य को चुराकर प्रानन्द मनाना स्तेयानन्द रौद्रध्यान कहलाता है ।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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