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ऐसा विचार करना कि ये मर जावें, या इनका सम्बन्ध मुझसे छूट जावे ऐसा चिन्तन करना उत्पन्न-विनाशसंकल्पाध्यवसान है ।
प्रिय पदार्थ-धन धान्य, सुवर्ण, भवन, शयन ग्रासन, स्त्री आदि, हमें हीं मिले ।' इस प्रकार दुःखरूप चिन्तवन करना मनोज अप्रयोग-अनुत्पत्ति संकल्पाध्यवसान है।
जो प्रिय पदार्थ (धन मकान स्त्री आदि) मुझे मिल गये हैं वे कभी नष्ट न होने पावें, सदा मेरे पास बने रहें, इस प्रकार का चिन्तवन करना उत्पन्न-अविनाश-संकल्पा ध्यवसान पार्त ध्यान है ।
अन्य प्रकार से प्रार्तध्यानप्रार्तध्यानं चतुर्भदमिष्ट वस्तु वियोगजम् । अनिष्ट वस्तुयोगोत्थं, किंच दृष्ट्वा निदानजम् ॥ किंचपीड़ाधिके जाते चिन्तां कुर्वन्ति येज्जडाः ॥ तस्यात्य जन्तु पापस्य, मूलमार्त सुदूरतः ।।
अर्थ-प्राध्यान चार प्रकार का है १-इष्ट प्रिय पदार्थ के वियोग हो जाने पर दुख रूप चिन्तवन इष्ट वियोगज प्रार्तध्यान है। २-अनिष्ट अप्रिय पदार्थ का संयोग हो जाने पर उसके छूटने का चिन्तवन करना अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है । ३-शरीर में अधिक रोग पीडा होने पर दुख चिन्तवन करना वेदना आर्तध्यान है। ४- अागामीकाल में सांसारिक विषयभोगों के प्राप्त होने का - चिन्तवन करना निदान आतध्यान है।
इस भवन में जो अपने को स्त्री, पुत्र, धन, भवन आदि इष्ट प्रिय पदार्थ मिले हों उनके वियोग हो जाने पर मन व्याकुल दुखी हो जाता है, भगवान के दर्शन, पूजन, भक्ति, शास्त्र स्वाध्याय, सामायिक प्रादि में चित्त नहीं लगता, मन दुख में डुबा रहता है , इस का कारण यह इष्टवियोगजन्य प्रातध्यान है।
कुपुत्र, दुराचारिणो, कटुभाषिणी, प्रसुन्दरी स्त्री, प्राणग्राहक भाई, दुष्ट पड़ोसी, दुष्ट सम्बंधी, शत्रु आदि अप्रिय अनिष्ट पदार्थ के मिल जाने पर चित्त में दुख बना रहता है, मन क्लेश में डूबा रहता है, सदा उनसे छुटकारा पाने की चिन्ता रहती है, धर्म कर्म में चित्त नहीं लगता इस कारण यह अनिष्ट संयोगजन्य पार्तध्यान है।