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( २८३) . परमानन्द स्वरूप मुक्ति की प्राप्ति सच्चिदानन्द स्वरूप प्रात्मध्यान के बिना नहीं होती, इस कारण ध्यान का विवरण देते हैं: ध्यानं चतुर्विधम् ॥५३॥
अर्थ- मन का एक ही विषय पर रुके रहना ध्यान है। उत्तम संहनन धारक बलवान पुरुष को उत्तम ध्याता कहते हैं । वह एक ही विषय का ध्यान अधिक से अधिक अन्तमुहर्त तक कर सकता है तदनन्तर मन अन्य विषय के चिन्तन पर चला जाता है। आत्मा, अजीव प्रादि पदार्थ ध्येय [ध्यान के विषय] हैं । स्वर्ग मोक्ष आदि की प्राप्ति होना ध्यान का फल है।
ध्यान चार प्रकार का है [१] आर्त, [२] रौद्र, [३] धर्म, [४] शुक्ल।
आत रौद्र तथा धर्म, शुक्लञ्चेतिचतुर्विधम् । तत्राद्य संसृतेःहेतू, द्वयंमोक्षस्य तत्परम् ॥१॥
अर्थ--ध्यान चार प्रकार का है-पात, रौद्र, धर्म और शुक्ल । इनमें से पात रौद्र ध्यान संसार भ्रमण के कारण हैं, धर्म ध्यान औरशुक्ल ध्यान मोक्ष के कारण हैं।
प्रार्तञ्च ॥५४॥ ___ अर्थ-प्रार्तध्यान भी चार प्रकार का है-(१) इष्टवियोगज, (२) अनिष्ट संयोगज, (३) निदान (४) वेदना ।
. अमनोज्ञ असंप्रयोग, अनुत्यत्ति संकल्पाध्यवसान --यानी अनिष्ट पदार्थ का संयोग न हो, अनिष्ट पदार्थ मेरे लिए उत्पन्न न हो, इस प्रकार संकल्प तथा चिन्तवन करना । उत्पन्न विनाश संकल्पाध्यवसान-यानी-उत्पन्न हुए अनिष्ट पदार्थ के नाश होने का संकल्प वारना तथा चिन्तवन करना । मनोश-भविप्रयोग अनुत्पत्ति-संकलपाध्यवसान-यानी-अपने इष्ट पदार्थ का वियोग न होने पावे, ऐसा संकल्प तथा चिन्तन करना । उत्पन्न-अविनाश संकल्पाध्यवसान-यानी-इष्ट पदार्थ के मिलजाने (उत्पन्न होने पर उसके विनाश न होने का संकल्प का चिन्तन करना ।
दुखदायक पशुओं तथा शत्र मनुष्य एवं ५६८६६५८४ प्रकार के शारीरिक रोगों में से मुझे कोई भी रोग न हो इस प्रकार का चिन्तवन करना अमनोज प्रसंप्रयोग अनुत्पति-संकल्पाध्यवसान है।
अपने आपको अप्रिय-शत्र, स्त्री, पुत्र, आदि के सम्बन्ध हो जाने पर