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________________ (१५) गुणस्थान तक) होता है । पाहारक शरीर और आहारक अंगोपांग का सातवें तथा पाठवें गुणस्थान के छठे भाग तक होता है । मिश्र गुणस्थान के सिवाय पहले गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक आयु कर्म का बन्ध होता है । शेष प्रकृतिप्रों का बन्ध पहले प्रादि गुणस्थानों में हुआ करता है। बन्ध व्युच्छित्तिसोलस पणवीसणभं दस चर छक्केक्क बन्धवोमिछण्णा । दुगतिगचतुरं पुग्वे पण सोलस जोगियो एपको ॥५४॥ यानी--कर्म प्रकृतियों की बन्ध व्युच्छित्ति (वहां तक बन्ध होना, आगे न होना) मिथ्यात्व आदि १४ गुणस्थानों में क्रम से यों है-१६-२५-०-१०-४. ६-१ अपूर्व करण के विभिन्न भागों में २-३-४ प्रकृतियों को फिर नौवें आदि गुणस्थानों में क्रम से ५-१६-०-०-१-० प्रकृतियों को बन्ध व्युच्छित्ति होती है । मिच्छत्तहुंउसंढाऽसंपत्तेयक्खथावरावावं। ... सुहमतियं विलिंदी पिरयदुरिंगरयाउगं मिच्छे ॥५५॥ अर्थ-मिच्याब गुणस्थान में मिथ्यात्व, हुण्डक संस्थान, नपुंसक वेद प्रसंप्राप्तासृपाटिका संहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, पातप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चारइन्द्रिय नरक गति, नरक गत्यातुपूर्वी और नरक आयु ये १६ प्रकृतियां बन्ध व्युच्छिन्न होती हैं यानी-इन १६ प्रकृतियों का इससे प्रागे के गुणस्थानों में बन्ध नहीं होता। विवियगुणे प्रणथोणति दुभगतिसंठाणसं हवि चउक। हुग्गामरिणस्मीणीचं तिरिय(गुज्जोव तिरियाऊ ॥५६॥ . यानी-दूसरे सासादन गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोष परिमण्डल, स्वाति, वामन कुब्जक संस्थान, बज्रनाराच, नाराच, भर्द्धनाराच, कोलक संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्त्रो वेद, नीच गोत्र, तियंच गति, तिथंच. गत्यानुपूर्वी, तिर्यंचायु और उद्योगत इन २५ प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। प्रयदे बिदियकसाया बज्ज अोराल मणुकुमशु पाऊ। । वेसे तक्यिकसाया नियमेरिणह बन्धवोच्छिष्णा ५७॥
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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