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________________ (१५) देहे अविरणाभावी बंधणसंघाद इदि प्रबंधुदया। वण्ण चउक्के भिण्णे गहिवे चत्तारि बंधुदये ।४६। अर्थ-नाम कर्म की प्रकृतियों में ५ बंधन और ५ संघात शरीर नाम कर्म के अविनाभावी (शरीर के बिना न होने वाले) होने के कारण बंध मौर उदय के प्रकरण में पृथक् नहीं लिये जाते शरीर में ही सम्मिलित कर लिये गये हैं तथा वर्ण, रस, गंध स्पर्श के उत्तर भेदों (२०) को इन चार मूल भेदों में सम्मिलित किया गया है। इस कारण बन्धरूप तथा उदयरूप कर्म प्रकृतियां मेद एवं प्रभेद विवक्षा से निम्न प्रकार है भेदे छावालसयं इदरे बंधे हवंति वीससयं । भेवे सव्वे उदये वाधीससयं प्रभेदम्हि ॥५० यानी-भेद रूप से १४६ प्रकृतियों का बन्ध होता है ( सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृति पृथक नहीं गिनी जाती )। अभेद' रूप से १२० प्रकृतियों का बन्ध माना गया है-१० बन्धन संघात, १६ वर्ण रस प्रादि-२६ प्रकृति नहीं गिनी जातीं । उदय में भेद रूप से १४८ प्रकृति और प्रभेदरूप से १२२ प्रकृतियां कही जाती हैं । उक्त २६ अलग नहीं गिनी जातीं। पंच एव दोण्णि छव्योसमवि य चउरो कमेण सत्तट्टो । दोणिय पंचय भरिणाया एदानो बंध पयडीयो ॥५१॥ अर्थ-प्रतः बन्ध के योग्य ज्ञानावरण की ५, दर्शनावरण की , वेदनीय की २, मोहनीय की २६, आयु की ४, नामकर्म की ६७, गोत्र कर्म की २ और अन्तराय को ५ प्रकृतियां हैं। पंचरणवदोणि अट्ठावीसं चरो कमेरा सत्तट्ठी। दोणिय पंचय भणिया एवाप्रो उदयपयडीयो ॥५२॥ अर्थ--- उदय योग्य प्रकृतियां ज्ञानावरण की ५, दर्शनावरण को है, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, प्रायु की ४, नाम की ६७, गोत्र को २ और अन्तराय की ५ हैं। सम्मेव तित्थबंधो माहारदुर्ग पमावरहिदेसु। मिस्सूणे पाउस्स य मिच्छादिसु सेस बंधोदु ॥५३॥ अर्थ-तीर्थंकर प्रकृति का बंध सम्यग्दृष्टि के ही (चौथे गुणस्थान से सातवें
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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