SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३४४) अर्थ- असयत सम्यदृष्टि नामक चौथे गुणस्थान में अप्रत्याख्यामावरण क्रोध, मान माया लोभ, बऋषभनाराच सहनन, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, मनुष्य गति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और मतुल्य प्रायु ये १० प्रकृतियां बन्धव्युग्छिन्न होतो हैं 1 पांचवें देशसयत गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कोष, मान, माया, लोभ इन ४ चार कषायों की बन्धव्युच्छित्ति होती है। छ8 प्रथिरं असुहं असावमजसंच अरविसोगच । ___ अपमसे देवाऊरिणवणं चेव प्रस्थिति ॥५॥ यानी-छठे गुणस्थान में अस्थिर, अशुभ, असाता वेदनीय, अयशकीर्ति, परति और शोक इन ६ प्रकृतियों को बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। अप्रमत्त गुणस्थान में देवायुको बन्ध व्युच्छित्ति होती है। मरागम्मिरिण यट्ठी पढमे गिद्दा तहेव पयला य । छ8 भागे तित्यं रिणमिणं सगमणपंधिदी ॥५६॥ तेजदुहारदुसमचउ सुरवण्ण गुरुगचउक्कतसरणवयं । घरमे हस्स च रदो भयं जुगुच्छाय बन्धदोच्छिण्णा ॥६॥ अर्थ-प्रपूर्वकरण नामक पाठवें गुणस्थान के मरणरहित प्रथम भाग में निद्रा, प्रचला, छठे भाग के अंत में तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्त पिहायोगति, पंचेन्द्रिय जाति, तेजस, कार्माण, आहारक शरीर, ग्राहारक अंगोपांग समचतुरस्र संस्थान, देवगति देवगत्यानुपूर्वी, बैंक्रियिक शरीर, वैयिक अंगोपांग वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपधात-परघात उच्छ वास, त्रस आदि ६, इन ३० प्रकृतियों की और अंत में हास्य, रति, भय, जुगुप्सा इन ४ प्रकृतियों को म्युन्नित्ति होती है। पुरिस चदुस जलणं कमेण अणियट्टिपंचभागेस । पढम विग्धं दंसण चउजसउच्चं च स हुमंते ।।६१॥ अर्थ नौवें गुणस्थान के पांच भागों में क्रम से पुरुष वेद. सज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ इन ५ प्रकृतियों में से एक एक को व्युच्छिति होतो रहती है । सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरण की ५, अन्तराय को ५, दर्शनावरण को ४ ( चक्षु, अचक्ष , अवधि, केवल ), यशकोति और उच्चगोत्र इन १६ प्रकृतियों की व्युग्छित्ति हो जाती है ।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy