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________________ ( १६५ ) वसंत खीलमोहे जोगिम्हि य समधियट्टिवी सांद | गायध्वो पयडी बंधस्स तो श्रांतो य ॥६२॥ अर्थ-यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान में केवल साता वेदनोव कर्म का एक समय स्थिति बाला बन्ध होता है, अतः सयोगकेवली नामक तेरहव गुणस्थान में केवल साता वेदनीय की व्युच्छित्ति होती है। चौदहवें गुणस्थान में न किसी प्रकृति का बन्त्र होता है, न किसी की व्युच्छित्ति होती है। अब बन्ध होने योग्य प्रकृतियों की संख्या बतलाते हैंसत्तरसेकग्गतयं चउ सत्तत्तरि सगट्टि तेथट्ठी । बन्धाणवट्टवा दुवोस सत्तारसेकोघे ॥ ६३॥ प्रात्वं आदि १३ गुणस्थानों में बन्ध होने योग्य प्रकृतियों को संख्या क्रम से ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५६, ५८, २२, १७, १, १ १ है । बन्ध योग्य प्रकृति पहले १२० बतलाई थीं उनमें से तीर्थंकर, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग का बन्ध चौथे से सातवें गुरुस्थान तक होता है अतः १२० में से इन ३ प्रकृतियों को कम कर देने पर शेष ११७ प्रकृति पहले गुणस्थान में बन्धती हैं, फिर आगे आगे के गुणस्थानों में व्युच्छित वाली प्रकृतियां घटा देने से गुणस्थानों में बन्ध योग्य प्रकृतियों की संख्या निकल श्राती है । अब बन्ध न होनेवाली प्रकृतियों की संख्या बतलाते हैंतियउबोलं छतिय तालं तेव सत्तवण्णंच । sagसट्ठीविरहि सपतियउणवीससहिय बीससयं ॥ ६४ ॥ यानो - मिथ्यात्व प्रादि १४ गुणस्थानों में बन्ध न होने योग्य प्रकृतियों की संख्या कम से ३, १६, ४६, ४३, ५३, ५७, ६१, ६२, ६८, १०२, ११६, ११९ और १२० है । श्राहारयं पमी तित्यं केवलिखि मिस्समं मिस्से । सम्मं वेदगसम्मे मिच्छदुगपदेव श्राश्र ॥ ६५ ॥ अर्थ - श्राहारक शरीर, आहारक अंगोपांग का उदय छठे गुणस्थान में तोर्थंकर प्रकृति का उदय सयोग केवली गुरणस्थान में, सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) का उदय मिश्र गुणस्थान में और सम्यक् प्रकृति का उदय क्षयोपशम सम्पदृष्टि के चौबे से सातवें गुररास्थान तक ही होता है । प्रानुपूर्वी का उदय पहले दूसरे तथा चीये गुणस्थान में होता है ।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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