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सुन्दर, समाचतुरस्त्र संस्थान वाला, पसीना रहित होता है उनका शरीर बैंक्रियिक होता है, अतः उनको मलमूत्रः नहीं होता, रक्त प्रादि धातु उसमें नहीं होते ! वे बहुत सुन्दर दिव्या वरून आभूषण पहनते हैं । उनके रहने के स्थान बहुत सुन्दर होते हैं. उनको कभी कोई रोग नहीं होता। प्रादि भोग उपभोगः सुख उन्हें प्राप्त होते हैं।
ब्रह्मलोकान्तालयाश्चतुविशतिलौकान्तिकाः ॥१४॥
अर्थ-ब्रह्मलोक के अन्तिम भाग में रहने वाले लौकान्तिका देव होते हैं, वे २४ हैं।
___ व्याख्या-ब्रह्मलोक के अन्त में ईशान आदि दिशाओं में रहने वाले १सारस्वत, २ अग्न्याभ, ३ सूर्याभ, ४ ग्रादित्य, ५ चन्द्राभ, ६ सत्याभ, ७ वन्हि ८ श्रेयस्कर, ६ क्षेमकर, १० ग्ररुरग, ११ वृषभेष्ट, १२ कामधर, १३ गदेतोय १४ निर्माण राजस्क, १५ दिगन्त रक्षक, १६ तुषित, १७ प्रात्मरक्षित, १८ सर्वरक्षित, १६ अव्यायाध, २० मस्त, २१ अरिष्ट, २२ वसु, २३ अश्व, २४ विश्व नामक लोकान्तिक देव हैं।
___ सारस्वत ७०७, अग्न्याभ ४००७, सूर्याभः ६००६, आदित्य ७०७, 'चन्द्राभ ११०११, सत्याभ, १३०१.३, वन्हि ७. ०७, श्रीयकर १५०१५, क्षेमकर १७०१७, अरुण ७००७, वृषभेष्ट १६०१६, कामधर २१.०२१, गर्दलोय ६००६ निर्माण राजस्क २३०२३, दिगन्तरक्षक २.५०२५, तुषित ६००६, आत्मरक्षित २७०२७, सर्वरक्षित २६०२६, अव्यावधि ११०११, मरुत् ३१०३६, बसु ३३०३३, अरिष्ट ११०११, अश्व ३५०३५, और विश्व ३७०३७, है। इस प्रकार समस्त लोकास्तिक देव ४०७८२० होते हैं ।
__ निरंजन परम ब्रह्मस्वरूप अभेद भावना के द्वारा चिन्तवन करने वाले लौकान्तिक देवों के रहने के कारण इस पंचम स्वर्ग का नाम 'ब्रह्मलोक' सार्थक है। तथा संसार का अन्त करने वाले एवं स्वर्ग के अन्त में रहने के कारण उन देवों का नाम 'लौकान्तिफ' यथार्थ है, लौकान्तिक देवों में परस्पर होनअधिक भेद भावना नहीं होती, काम-वासना से रहित वे ब्रह्मचारी होते हैं, बारह भावनाओं के चितवन में सदा लगे रहते हैं, १४ पूर्व के पाठी होते हैं, समस्त. देवों, इन्द्रों द्वारा पूज्य होते हैं और तीर्थंकर के तय कल्याणक के समय ही उनकी वैराग्य भावना को बढ़ाने लिए तथा प्रशंसा करने के लिये आते हैं। उनकी, प्रायु, ८ सागर की होती है। वे सत्र चतुर्थ गुणस्थानवर्ती एवं शुक्ल बेश्या. वाले होते हैं। उन देयों में से अरिष्ट देषों की आयु. हा सागर की होली