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है, ५ हाथ ऊंचा शरीर होता है । सभी लौकान्तिक संसार दुख से भयभीन, निरजन वीतराग भावना में सदा लीन रहते हैं ।
अणिमाद्यष्टगुणाः ॥१५॥ अर्थ-शिमा, हिमा, लामा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, ये बाट गुण देवों के वक्रियिक शरीर में होते हैं। उस देव गति मैं भेद प्रभेद रत्नत्रय-अाराधन सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, अतः सम्यक्त्व गुरण देवों में होता है। इन्द्र अहमन्द्रि प्रादि महृतिक देव सम्यक्त्व गुरु के भी कारणा निरतिशय आध्यात्मिक सुख का अनुभव करते हैं।
देवगति में उत्पत्ति के कारण
प्रसैनी पर्याप्तक व्यन्तर देवों में, तापसी भोगभूमि के मिथ्याष्टि भवन त्रिक में, भोगभूमि के सम्यग्दृष्टि सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। परवश रहकर ब्रह्मचर्य पालन करने वाले, जेल आदि में पराधीनता से कार्यक्लेश आदि शान्ति से सहन करने वाले, बालतप करने वाले नीच देव प्रायु का बन्ध करते हैं। देवायु का बध हो जाने के पश्चात् यदि अग्नि में जलकर अथवा जल में डूब कर अथना पर्वत से गिरकर आदि ढग से शरीर त्याग करें तो वे नीच देवों में उत्पन्न होते हैं । आत्म आराधक परिव्राजक पंचवें स्वर्ग तक होते हैं । शान्त परिणामी परम हंस साधु १६ वें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं । पशु तथा मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि, देश संयमी महान तप करने वाली द्रष्यस्त्रियो सोलहवें स्वगं तक मद्धिक देव होती हैं। द्रव्य से महावती किन्तु भाव से देशाती तथा असंयत सम्यग्दृष्टि, भद्र परिणामो मिथ्यादष्टि नौवें ग्रेवेयक तक जाते हैं। द्रव्य एवं भाव से महानती, उपशम श्रेणी में प्रारूद, शुक्लध्यानी मुथि सर्वार्थ सिद्धि तक उत्पन्न होते हैं।
ईशान कल्प वाले कन्दर्प देव, अच्युतस्वर्ग तक के अाभियोग्य देव अपने अपने कला की जघन्य आयु का बन्ध करके दुख का अनुभव किया करते हैं।
कर युगमं मुगिदीकि-। करवाहनदेव नप्पे में पापियेनो-॥ स्करकरमेंदा वाहन। सुरादिगळ नोंदु बे वुतिमन दोळ् ॥५५॥
अर्थ-वाहन देबों को उनके स्वामी देब कठोर शब्दों का व्यवहार करते हैं। तब वाहन देव अपने मन में बहुत दुखी होते हैं और विचारते हैं कि मैं पूर्व जन्म में कुतप करने आदि से ऐसा नीच देव हुआ हूं। इसके