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सिवाय वे कठोर वचन बोलने वाले देवों को अपने मन में गाला भो देते है ।
देव उपपाद भवन में, उपपाद शय्या पर अन्तमुहूर्त में अपनी छहों पर्याप्ति पूर्ण करके नवयौवन शरीर को दिव्य वस्त्र प्राभूषण सहित प्राप्त कर लेते हैं और जैसे मनुष्य सोकर उठते हैं, उसी प्रकार वे उपपाद शय्या से परिपूर्ण शरीर पाकर उठ बैठते हैं।
नेरेयदे मुन्नकेत्त पउिगळु नवसौरुभ मुण्मे नोक्कळ । नेरेदत्रु रत्नतोरणगणं गर्छ वविमानराशियो- ॥
नरेदत्रु ओवा या धुपिय बांगुडिळडिदाडुचंतेसु- । तिरुदबु भोंकनातन पुरातन पुण्य फल प्रभादि ॥५६॥
अर्थः-उपपाद शय्या से उठने वाले देव को उसके पुण्य प्रताप से सुन्दर तोरण-शोभित विमान तथा जीवन का भोग उपभोग आदि सुख सामग्रो उसके चारों ओर उपस्थित मिलती है । तथा उसके परिवार के देव उस उत्पन्न हुए देव के सामने आकर जय जयकार बोलते हुये, स्वागत करने के लिये हर्ष प्रानन्द मनाते हैं, उसके सामने सुन्दर गान नृत्य करते हैं, सिर झुकाकर नमस्कार करते हैं, मानों जंगम लता ही उसके सामने झुक रही हो । रत्न दर्पण भृगार, चमर, छन्त्र, कनक कलश आदि सामग्री लाते हैं, नियोगिनो सुन्दरी देवांगनायें बड़े हाव भाव विलास विभ्रम आदि द्वारा उस नये देव का चित्त अपनी ओर आकर्षित करती हैं । देव उसके शिर पर अक्षत रखते हैं । उस दिव्य सामग्री को अपने सामने उपस्थित देखकर वह हर्ष से फूला नहीं समाता तथा अनिन्द्य-सुन्दरी देवांगनाओं को देखकर वह कामातुर हो उठता है। अपनी देवियों के मिष्ट चातर्य-पूर्ण शब्द सुनकर, उनके चरणों के नूपुरों के शब्द सुन कर तथा उनके कटाक्ष को देखकर वह विचार करने लगता है कि मैं यहां कहां आगया है, यह सब क्या है ? ऐसा बिचार होते ही उसे अवधि ज्ञान से उस स्वर्ग का वैभव जान पड़ता है पीर पुण्ण कर्म के उदय से वहां पर अपने उत्पन्न होने का कारण ज्ञात हो जाता है । धर्म की महिमा की प्रशंसा करता है। तदनन्तर सरोवर में स्नान करके सम्पष्टि देव जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते हैं और मिथ्याइष्टि देवों को पूजा करने को प्रेरणा करते हैं।
देव निरन्तर सुख मानर में निमग्न रहते हैं अतः वे अपने प्रायु के दीर्घकाल को व्यतीत करते हुये भी नहीं जान पाते । जब कहीं पर किसी तीर्थ कर का कल्याणाक होता है अथवा किसी मुनि को केवल ज्ञान होता है तब चारों निकाय के देव उनका उत्सव करने जाते हैं । परन्तु अहमिंद्र देव अपने स्थान पर रहकर