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हो वहां भगवान को हाथ जोड़ कर अपने मुकुट सुशोभित शिर को झुकार नमस्कार कर लेते हैं।
देवों की आयु जब ६ मास अवशेष रहती है, तब देव अग्रिम भव का प्रायु का बंध किया करते हैं और आयु समाप्त करके कर्म भूमि में आकर जन्म लेते हैं। सम्यन्दृष्टि देव बल, बुद्धि वैभव, तेज, प्रोज, पराक्रम सौंदर्य-सम्पन्न, शुभ लक्षणधारक, भाग्यशाली मनुष्यों के रूप में जन्म लेते हैं।
कुतप, बालतप, शीलरहित, व्रतपालन आदि से भवन-निक में उत्पन्न हुये जो देव मिथ्या दृष्टि होते हैं वे अपनी अायु का समस्त समय दिव्य इन्द्रियसूखों के भोगने में ही व्यतीत करते हैं । जब उनकी आयु ६ मास अवशेष रह जाती है तब उनको अपने कल्पवृक्ष कांपते हुए , निस्तेज (फीके) दिखाई देने लगते हैं तथा उनके गले की पुष्पमाला भी मुरझा जाती है इससे उनको अपनी आयु छह मास पीछे समाप्त होने को सूचना मिल जाती है । दिव्य सुखों की समाप्ति होते जानकर उनको बहुत दुख होता है, अपने विभंग अवधि ज्ञान से गर्भवारा का दुख प्राप्त होता जानकर उन्हें बहुत विषाद होता है, वे अपनी देवियों के साथ वियोग होना जानकर सदन करते हैं । इस तरह असाता वेदनीय कर्म का वध कर क्लेशित परिणामों से स्थावर काय में जन्म लेने की भी
आयु बांध लेते हैं जिससे अपने दिव्य स्थान से च्युत होकर चन्दन, अगुरु धादि वृक्षों में तथा पृथ्वी आदि काय में जन्म ग्रहण करते हैं।
कुछ मिथ्यादृष्टि देव निदान बन्ध करके हाथी घोड़ा आदि पंचेन्द्रिय पशुओं में तथा कुछ मनुष्यों में जन्म ग्रहण करते हैं ।
जो सम्यग्दृष्टि देव होते हैं वे अपनी प्रायु समाप्त होती जानकर दुखी नहीं होते। उस समय उनका यह विचार होता है कि 'अब हम मनुष्य भव पाकर तत्पश्चरण करने की सुविधा प्राप्त कर लेंगे जिससे कर्मजाल छिन्न भिन्न करके मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे।' ऐसा विचार करके वे प्रसन्न होते हैं, उनको दिव्य सुखों को इटने का दुख नहीं होता क्योंकि वे इन्द्रिय-जन्य सुख और दुख को समान दृष्टि में देखते हैं । वे विचारते हैं कि हमने अब तक भेद अभेद रत्नत्रय न प्राप्त करने के कारण संसार में अनन्त भव धारण करके भ्रमण किया, अब हमको मनुष्य भव में इस भव-भ्रमण से छूटकर अनन्त अपार प्रयाबाध अविछिन्न सुख प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त होगा, ऐसा विचार करके वे त्रिलोकवर्ती ५५६६७४८६ प्रक्रत्रिम चैत्यालयों तथा भवन वासी व्यन्तर ज्योतिषियों के भवनवर्ती एवं विमानवर्ती तथा अन्य कृत्रिम जिन