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भवनों में जाकर जिनेन्द्र देव का पूजन, स्तुति करते हैं, तोर्थ करों के कल्यापकों में भाग लेते हैं, केवलियों की, मुनियों की वन्दना करते हुये पुण्य-उपार्जन करते हैं । अन्त में वे दीपक बुझ जाने के समान अदृश्य होकर अपना दिव्य शरीर छोड़ते हैं जो चक्रवर्ती तीर्थकर होने वाले होते हैं उनके वस्त्र प्राभरए फीके नहीं होते, न उनके गले की माला मुरझाली है। जो देव चक्रवर्ती, नारायणा, बलभद्र होने वाले होते हैं उनकी माला भी नहीं मुरझाती, शेप सभी देवों के गले की माला ६ मास पहले मुरझा जाती है ।)।
नव अनुदिश या निजयत, जगात भाजित इस स्थानों के देव मर कर अधिक से अधिक दो गनुष्य भब पाकर मुक्त होते हैं और सर्वार्थ सिद्धि के देव केवल एक महद्धिक मनुष्य भय पाकर ही मुक्त होते हैं।
__सर्वार्थ सिद्धि से १२ योजन ऊपर 'ईपत् प्राग्मार' नामक आठवीं भूमि है जो कि उत्तर से दक्षिण ७ राजू मोटी और पूर्व से पश्चिम एक राजू चौड़ी है उसी पर १४५ लाख योजन विस्तार वालो ८ योजन मोटी शुद्धस्फटिक मरिग की प्राधे गोले के प्राकार सिद्धशिला है जिसे सिताबनी (स्वच्छ सफेद पृथ्वी) भी कहते हैं।
उस सिद्धिशिला से ऊपर ४२५ धनुष, कम एक कोश मोटा घनोदधि वातवलय, उतना ही मोटा बनवातवलय तथा उसी के समान तनुवातवलय है। उस तनुवालवलय के ६००००० भाग करने पर एक भाग प्रमाण में जघन्य अवगाहना वाले सिद्ध हैं । तनुवातवलय के एक हजार पांच सौ १५०० भाग करने पर एक भाग में उत्कृष्ट प्रवगाहना वाले सिद्धों का निवास है।
सिद्धों की जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ प्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष प्रमाण है। सिखों की मध्यम प्रवगाहना के अनेक
मध्यलोकवी सम्यग्दृष्टि मनुष्य कर्मकल क समूल नष्ट करके उस सिद्धि स्थान में विराजमान होते हैं । सिद्ध स्व-अनन्त अव्याबाध, अक्षय, असीम, अभव्य' जोबों को प्राप्य, अनुपम सुख का सदा अनुभव करते हैं ।
वरमध्यापर जिनम-। विरमर्वार्द्ध क्रम विमानद नंदी-॥ श्वरद भवशाल नेदन। दर जिनहर्म्यमंतु उस्कृष्टंगळ ॥५३॥ कुळ रुचक नगोत्तर कु.। उल वक्षाराचलं गळिष्वाकारं ॥