________________
( १४६ )
कुमार का डेढ़ सागरोपम है । व्यंतर ज्योतिष्कों में डेवपल्य है । पूत श्रायुष्य वाले मिथ्यादृष्टि को सर्वत्र चतुर्निकायों में पल्य के प्रसंख्यातवें भाग से अधिक है, और देवियों की जघन्य प्रयु प्रथम युगल में साधिक पल्य है, उत्कृष्ट ५ ग्रायु पल्योपम
धर्म में है और ग्यारहवें रूप तक दो-दो पत्य की वृद्धि है । और चार कल्प तक सात तक वृद्धि होकर अच्युत कल्प देवियों की ५५ पल्योपम ग्रायु होती है । साहियपल्लं प्रवरं कप्पवृगित्थीरणपरपग पढमवरं । एक्कारसे चउनके कप्पे दो सत्त परिवड्ढी ॥ ३० ॥
भावार्थ- -सौधर्म कल्प में साधिक पल्य जघन्य स्थिति, सौधर्मादि कल्पों में उत्कृष्ट स्थिति ५, ७, ६, ११, १३, १५, १७, १६, २१, २३, २५, २७, ३४, ४१, ४८, ५५, पल्य है और उन देव दम्पतियों को
सहजांगांबर भूषरग ।
सहस्र किरगंगळ निजांगप्रभेय ॥ गृहभित्तियेमरिकुहिम । महियंशुगळ पळंचि पत्तु देशेयं ॥ ५५ ॥ पासिन पोरेल एनियिसि ।
भासुर सुषांबर प्रसूनतें जो ॥ दुभासि गोप्पिन तम्मा । वासिसि
सुख मनुबदियदो ॥५६॥
समचतुरस्र शरीर ।
समस्तमल धातु दोष रहित स्वेद || श्रमरोग वर्जितदि ।
व्यमूर्ति गळु दिव्यवोधरणिमादिगुणर् ॥५३॥ सासिर वर्षवकन |
तिशयानमं नेनेव रोमेंसुय्वसुं खदि ॥
मालार्धक्कें समस्त सु ।
रासुररभ्युपम जीविगळु सोरभम् ॥५८॥
अर्थ - इस प्रकार देव देवियों का आयुकाल ऊपर ऊपर बढ़ता गया है । तदनुसार उनका श्राहारकाल, श्वास निःश्वास काल अधिक होता जाता है । अधिक होते होते सर्वार्थ सिद्धि के देव ३३ हजार वर्ष में एक बार मानसिक सहार करते हैं । १६३ मास में एक बार श्वास लेते हैं । देवों का शरीर प्रति