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होते हैं, नारको मधु मक्खियों के छत्ते में छेदों के समान नरकों में उत्पन्न होते हैं, शरीर बनने योग्य पुद्गल वर्गणाओं का अनियत स्थान पर बन जानेवाले शरीर में जन्म लेनेवाले सम्मूर्छन जीव हैं। एक शरीर छोड़कर अन्य शरीर लेने के लिए एक समयवाली विग्रहगति छूटे हुए वारण के समान इषुगति होती है, एक मोड़े वाली दो समयक पारिणमुक्त गति, दो मोड़ तथा तीन समय वालो हल गति और तीन मोड़ वाली चार समय की विग्रह गति गोमूत्रिका गति होती है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के बिना यह जीव अनन्त संसार से भव धारण किया करता है, ऐसा चिन्तवन करना भव वित्तय धर्म ध्यान है ।
८- प्रनित्य, शरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व अशुचि, प्रत्रय, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ और धर्म, इन बारह भावनाओं का चिन्तवन करना संस्थानविचय है ।
श्रध्युवमसरगमेकत्तमण्प संसार लोकमसुचित्तं । श्रसवसंवरखिज्जर धम्मंबोहिच्च चितेज्जो ॥ ७॥
इस गाथा का अर्थ ऊपर लिखे अनुसार हैं ।
ह-जीव आदि पदार्थ प्रतिसूक्ष्म हैं उन्हें क्षायोपशमिक ज्ञान द्वारा स्पष्ट नहीं जाना जा सकता । उन सूक्ष्म पदार्थों को केवली भगवान ही यथार्थ जानते हैं । अतः केवली भगवान की आज्ञा ही प्रभाग रूप है, ऐसा विचार करना प्रज्ञावि है । कहा भी है
सूक्ष्म जिनोदितं तत्वं हेतुभिर्नैव हन्यते ।
श्राज्ञासिद्ध तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनों जिनाः ॥
अर्थ - जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया जीव जीव आदि तात्विक बहुत सूक्ष्म है। उस कथन को हेतुत्रों [ दलीलों ] से खण्डित नहीं किया जा सकता । उस जिनवाणी को भगवान की आज्ञा रूप समझकर मान्य करना चाहिए क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग स्वरूप जिनेन्द्र भगवान अन्यथा [ गलत ] नहीं कहते हैं ।
१० - सूक्ष्म परमागम में यदि कहीं भेद प्रतीत हो तो उसे प्रमारण, नय निक्षेप, सुयुक्ति से दूर करना, स्वसमय भूषण [ मण्डन ], पर समय दूषण [ खण्डन] रूप से चिन्तवन करना कारणविचय धर्म ध्यान है ।
ये दश प्रकार के धर्म ध्यान पीत, पद्म तथा शुक्ल लेश्या वाले के होते हैं,