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( २८६) असंयत सम्यग्दृष्टि, देश संयत, प्रमत्त तथा अप्रमत्तइन चार गुण स्थानों में होते
अर्थ-जिनेन्द्र भगवान ने १-पाजाविचय [जिनेन्द्र भगवान को प्राशा या उनकी बारणी प्रामारिणक है, ऐसा चिन्तवन ], २-कल्मष अपायविषय [पाप कर्म तथा सभी कर्म किस प्रकार नष्ट हो ऐसा चिन्तवन करना] ३विपाकविचय ( कर्मों के उदय फल आदि का चिन्तवन करना) और ४संस्थानविचय' ( लोकाकाश का स्वरूप चिन्तवन करना ) धर्मध्यान के ये ४ भेद भी बतलाये हैं।
धर्मध्यान दो प्रकार का भी है १- बाह्य, २-अंतरङ्ग। ब्रत, तप, संयम, समिति प्रादि धारण करना, सामायिक, स्वाध्याय प्रादि करना बाधधर्मध्यान है क्योंकि इस प्रकार के आचरण रूप धर्म ध्यान को बाहर से अन्य व्यक्ति भी जान सकते हैं।
स्वयं अन्तरङ्ग में शुद्धि लाकर धर्म आचरण करना अन्तरङ्ग धर्मध्यान है । अन्तरङ्ग शुद्धि के लिए माया, मिथ्यात्व और निदान ये तीन शल्य नहीं होनी चाहिए।
परस्त्री बांछारूप रागविकार तथा पर-वध, बन्धादि रूप द्वेष विकार जब हृदय में उत्पन्न हो जावें तब उन विकार भावों को दूर न करते हुए बाहरी आचरण को बनाये रखना, मन में यों विचार कर 'कि मेरा मन विकार किसी अन्य व्यक्ति को मालूम नहीं' उस विकार को मन में बनाये रखना माया शल्य है।
शुद्ध प्रात्म-स्वरूप को न जानकर आत्मस्वरूप में रुचि न करना तथा मिथ्यात्व भंवर में पड़कर सांसारिक सुख में रुचि करना मिथ्याशल्य है।
निज शुद्ध प्रात्मा से उत्पन्न हुए परम आनन्द अमृत का पान न करते हुए, दृष्ट (देखे) श्रत (सुने) और अनुभूत (भोगे हुए) सांसारिक सुख का स्मरण करना, भविष्य में उसके मिलने की अभिलाषा करना निदानशल्प
इस प्रकार तीन शल्य रहित निर्विकार प्रात्म' स्वरूप अमृत का अनुभव करना अात्मस्वरूप में रत रहना अन्तरङ्ग निश्चय धर्म ध्यान है। .
प्रकारान्तर से धर्मध्यान का स्वरूपपिण्डस्थंच पदस्थंच रूपस्थं रूपजितम्। चतुर्धाध्यानमाम्नातं भव्यराजीव भास्करैः ॥३५॥