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________________ ( २१.) अर्थ-भव्यात्मा रूप कमलों को विकसित करनेवाले सूर्य के समान जिनेन्द्र भगवान ने ध्यान के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये चार भेद भो बतलाये हैं। पवस्थं मन्त्रवाक्यस्थं, पिण्डस्थं, स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं, रूपातीतं निरनम् ॥३६॥ शुद्धस्फटिकसंकाशं, स्फुरन्तं ज्ञानतेजसम् । पविशभियुक्तं ध्यायेदर्हन्त मक्षयम् ॥३७॥ अर्थ-मन्त्र वाक्य में चित्तस्थिर करके ध्यान करना पदस्थध्यान है, .अपने प्रात्मा का चित्तन करना पिण्डस्थध्यान है, अहंत भगवान रूप चिद्रूप रूपस्थध्यान है गौर शरीर रहित सिद्ध स्वरूप का चिन्तन रूपातीत ध्यान है । शुद्ध ( निर्मल ) स्फटिक मरिण के समान निर्मल परमौदारिक शरीरधारी स्फुरायमान (पूर्णविकसित) ज्ञान तेज वाले, १२ गणों (समवशरण के १२ प्रकार के श्रोताओं ) से सहित अविनाशी अर्हत भगवान का ध्यान करना चाहिए। तारेगेयं क्षीराब्धिय । वारियोळिरदोरासि कचिदंते योळे सेवा ॥ कारद पंचपरंगळ । नारदात्ति शुद्धमनदोळिरिसे पदस्थं ॥२०१॥ __ अर्थ-निर्मल क्षीर सागर में जिस तरह चन्द्रमा का निर्मल प्रतिविम्ब होता है उसी प्रकार अपने निर्मल मनमें पंच परमेष्ठी के मन्त्र को शुख धारण करना पदस्थ घ्यान है। पळ किन कोडदोळ सहजं । बेळगुवशशिकान्तदेसेव विषाकृतितं-।। मोलगोळगे तोळगि बेळगुन । बेळगं निजमागि कंडोडदु पिंडस्थं ॥ ॥२०२॥ अर्थ-जिस तरह निर्मल स्फटिक मरिण के पात्र में निर्मल चन्द्र की कान्ति दिखाई देती है उसी प्रकार अपने निर्मल हृदय में शुद्ध प्रात्म-स्वरूप का प्रतिभासित होना पिण्ड स्थध्यान है । द्वावशगणपरिवृतनं । द्वादशकोट्यिकतेज विभाजितनं । प्राददि मनवोळ निळिसु-। बंदमेरूपस्थमप्प परमध्याने ॥ अर्थ-बारह कोठों में बैठे हुए श्रोताओंवाले समवशरण में विराजमान, १२ करोड़ सूर्य चन्द्रों की प्रभा से भी अधिक प्रभाधारक प्रहंत भगवान का अपने हृदय में चिन्तन करना रूपस्थध्यान है।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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