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________________ ( २३१ ) सहज सुख सहजबोधं । सहजात्मकवेनिप का एंबोनवि || सहजमेने नेलसिनिंवी । वहळतेविवदविनाश रूपातीतं ॥२०४॥ प्रर्थ- सहज ( स्वाभाविक) सुख, सहजज्ञान सहज आत्मदर्शन स्वभाव से ही मेरे पास है, इस प्रकार श्रात्मरत होकर पाप नाशक श्रात्मस्वरूप का चिन्तवन करना रूपातीतध्यान है । श्रीकरमभिष्ट सकल । सुखाकर मपवर्गकारणं भवहरणं ॥ लोकहितं मन्मनदो। काग्रतेनिल्के निरूपमं पंचपदं ॥२०५॥ | अर्थ- सम्पत्तिशाली, समस्त इष्ट पदार्थ प्रदान करनेवाला मोक्ष का कारण, चतुर्गति भ्रमण संसार दुख को नाश करनेवाला, तथा लोक का हितकारी पंच परमेष्ठी का मन्त्र सदा मेरे हृदय में रहे । पंचपदं भवभवदोछ । संचितपापमने केडिसलाक्कुमोक्षं ॥ पंचम गतिगिरवोय्गु | पंचपदाक्षरदमहिमे साधारण | २०६ | अर्थ-पंच परमेष्ठी का पद अनन्तानन्तकाल से संचित पापों को नष्ट करता है तथा पंचमगति मोक्ष को शीघ्र बुलाकर देनेवाला है । इस पंचपरमेष्ठी की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ? मारिरिपुन्हि जलनृप । चोर रुजाघोर दुःखमं पिंगिसुवो || सारायद पंचपद -1 नोरिदमक्केमोमुक्ति यप्पनेवरं ॥ २०७ ॥ अर्थ - भयानक रोग, चोर, शत्रु, अग्नि, जल, राजरोग श्रादि भयंकर दुखों का नाश करनेवाला सार भूत पंच नमस्कार मन्त्र कल्प वृक्ष के समान मेरे हृदय में विराजमान रहे । भोंकने फळं गु भवदुःख पंकमनुग्राहि शाकिनीग्रह भूता ॥ तंकमनसुरपिशाचा | शंकेनखिक मंगळं पंचपक्षं ॥ २०८ ॥ अर्थ - यह पंचरणमोकार मन्त्र सागर रूपी कीचड़ की, नाश कर देता है, शाकिनी डाकिनी भूत पिशाच आदि को भगा देता है । समस्त मङ्गलों में उत्तम है । प्रापोत सद्भक्तियो । ळीपंचपदाक्षरंगळ अपितियसुवं ॥ गापोतं भवतापं । पापमुनेरे केटटुमतियक्कु ममोघं ॥ २०६॥ अर्थ — इसएमोकार मन्त्र को शुद्ध हृदय से जपनेवाले भक्त भब्य
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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