________________
( २८० )
भी आप ही है, कर्मों का क्षय करके मोक्ष जानेवाला भी प्राप ही हैं, प्रशुद्धमन से चौदह पद मारियान तथा चौदह जीव समास बाला भी आप ही है और ग्राप ही मूर्त स्वभाववाला भी है, इत्यादि प्रकार से जीव का चिन्तन करना जीवविचय धर्म ध्यान है ।
४ - यचेतन - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन पांचों के स्वरूप को निःशंकित भाव से अजीव जानकर हृढ़ विश्वास रखकर चिन्तवन करन जीवविचय धर्म ध्यान है ।
योग और कषायों से जो कामरण वर्गरणाएं आत्मा के प्रदेशों के साथ सम्बद्ध हो जाती हैं, उन्हें कर्म कहते हैं । कर्म ज्ञानावरण आदि हैं। उन कर्मों का स्थापना, द्रव्य, भाव, मूल प्रकृति, उत्तर प्रकृति रूप से विचार करना अशुभ कर्मों का रस नीम, कांजीर, विष, हालाहल के समान उत्तरोत्तर अधिक दुखदायी तथा शुभ कर्मो का रस गुड़, खांड, और मिश्री अमृत के समान उत्तरोत्तर अधिक सुखदायी होता है, कर्म प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश रूप से जीव के साथ रहते हैं। कषायों की मन्दता तीव्रता लता (बेल), दारु ( लकड़ी), अस्थि (हड्डी) और शैल पत्थर के समान होती है, जिस-जिस योनि में यह जीव जाता है उस उस योनि के उदय योग्य कर्म उदय में आकर अपना फल देते हैं, इस प्रकार कर्मों के विपाक ( फल देने ) का विचार करना fare विचय है |
६ – यह शरीर अनित्य है, अशरण ( अरक्षित ) है, वातपित्त कफ दोषमय है, रस, रक्त, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा तथा वीर्य इन सात धातुओं से भरा हुआ है, सूत्र, पुरीश ( टट्टी ) आदि दुर्गन्धित पदार्थों का घर है, इसके & छेदों से सदा मैल निकलता रहता है, इस शरीर का पोषण करने से श्रात्मा का अहित होता है, जिन विषय भोगों को यह शरीर भोगता है वे अंत में नीरस हो जाते हैं, विष, शत्रु, ग्रग्नि, चोर श्रादि से भी बढ़कर शरीर के विषय भोग आत्मा को दुख देते हैं। इस तरह शरीर राग करने योग्य नहीं है, इससे विरक्त होकर इस शरीर से तप ध्यान संयम करना उचित है । इस प्रकार चित्तवन करना विरागविचय है ।
J
७ – सचित्त, चित्त सचित्ताचित मिश्र योनि, शीत, उष्ण, शींत उष्ण मिश्र योनि, संवृत, विवृत, संवृत विवृत मिश्र योनि में ( उत्पन्न होने के स्थान में ) गर्भज जीव ( मनुष्य, तिर्यच ) जरा नाल [र] के साथ या जरा माल के बिना [ पोत ] तथा अण्डे द्वारा उत्पन्न होते हैं, देव उपपाद शय्या पर उत्पश्न