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संसार में पर-पदार्थ छोड़ने योग्य हैं और निज पदार्थ प्रहण करने योग्य है । यात्म-वैभव पाने के लिए अर्हन्त भगवान के चरणों का निश्चलता से प्राश्रय लेना ही सम्यक्त्व है ॥६१।।
___ जिनेन्द्र भगवान ने जो कुछ कहा है वही सत्य और हितकर है, अन्य वचन सत्य और कल्याणकारक नहीं, ऐसा निश्चय करना अमूल्य सम्यक्त्व 'रत्न है ।।६।।
पृथ्वी पर हाथ का आघात करने से पृथ्वी पर चिन्ह पड़ता है, वह कदाचित् चूक जाय या विफल हो जाय परन्तु जिनेन्द्र भगवान का उपदेश कभी निष्फल नहीं हो सकता, एसी श्रद्धा रखने वाले ही भव्य जीव हैं ॥६३||
यदि अर्हन्त भगवान की बारणी निष्फल हो जायगी तो समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ देगा, अचल सुमेरु चलायमान हो जायगा तथा सूर्य के उदय अस्त होने का क्रम भी भंग हो जावेगा ।।६४।।
जिनेन्द्र भगवान ने अर्हन्त अवस्था पाने से पहले अनन्त भव धारण किए किन्तु अन्तिम एक भव में ही उस अनन्त जन्म-परम्परा का अन्त करके अनन्तानन्त सुख प्रार दिला. जगत में यह एक आदी निमित्राल है ।।६।।
इस प्रकार बोतराग देव, जिनवाणी तथा निम्रन्थ गुरु का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है । अब सकषाय जीव को सम्यक्त्व के प्रतिबन्धक कारण हट जाने पर निश्चय सम्यक्त्व किस तरह प्राप्त होता है, यह बतलाते हैं...
- परिणामों की कलुषता से द्रव्य मोह (मोहनीय कर्म या दर्शन मोहनीय कर्म) होता है। वह भाव-कलुषता अब मुझ में नहीं है । भाव कलुषता से बिरुद्ध भाव-विशुद्धता अब प्रगट हो गई, यह पवित्र सम्यक्त्व है, यही निज प्रात्मअनुभव-गम्य है ॥६६॥
जिस प्रकार कालिमा प्रादि दूर हो पर जाने सुवर्ण अपने स्वाभाविक स्वच्छ रूप में प्रगट हो जाता है ॥६७॥
जिनेन्द्र देव के वचन रसामृत का प्रास्वादन करना, उसको श्रेयस्कर मानना, उसमें ही निमग्न होना, उसी में प्रानन्द अनुभव करना, अनुपम सुख का बीज है ॥६॥
सम्यक्त्व ही परम पद है, सम्यक्त्व ही सुख का घर है, सम्यक्त्व ही मुक्ति का मार्ग है, सम्यक व-सहित तप ही सफल है ॥६६।।।
हे भव्य जीवो ! सुनो, सम्यक्त्व में प्रवृत्ति करना, प्रात्म-श्रद्धा करना, जिन-भक्ति करना, तत्वों में रुचि करना, प्रात्म-ज्ञान होना, यह सब सम्यग्दर्शन के पर्याय नाम हैं ॥७॥