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शुद्ध सुवर्ण के समान निर्मल जिनेन्द्र भगवान हैं और मैं कालिमा-मिश्रित अशुद्ध सवर्ण के समान हैं। जब मेरी कर्म-कालिमा दूर हो जायगी तन्त्र मैं जिनेन्द्र भगवान के समान शुद्ध निर्मल बन जाऊंगा। ऐसा श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ॥५३॥
अनादि काल से मैंने निज प्रात्मा को नहीं समझा, मैं आत्मा से भिन्न पर-पदार्थ शरीर आदि को अपना तत्वे समझ कर पथ-भ्रष्ट रहा पाया। सर्वोस्कृष्ट आत्मलब्धि को मैंने आई दुलभ से प्राप्त किया है ॥५४॥
पशु, पक्षी, कीड़े मकोड़े आदि जीव जन्तुओं की पर्यायमें ज्ञान की कमी से प्रात्म-बोध होता ही नहीं, इस कारण अनेक कष्ट सहन करते हुए मैने कठिनाई रो मनुष्य शरीर पाया है, एवं स्व-प्रात्म-बोध प्राप्त करके में अपने आत्मा का भी अनुभव करने लगा, ऐसा हो जाने पर क्या मैं पशु-योनि में जा सकता हूँ ? कदापि नहीं। मेरा ज्ञानधन रूप है । श्री जिनेन्द्र देव का परमोपदेश गुरु द्वारा सुनने का यह लाभ मुझे प्राप्त हुआ है । ऐसी भावना करना श्रेष्ठ है ॥५५॥
_ मैं न तो हरि हूं, न शिव हूँ, न ब्रह्मा हूँ, न बुद्ध हूं, मैं तो चैतन्य-स्वरूप आत्मा है, इस प्रकार चिन्तवन करना सम्यक्त्व है ।५६॥
हे भब्य जीव ! तु इस संसार में अनादि समय से भटक रहा है इस लोकाकाश का कोई भी ऐसा प्रदेश शेष नहीं रहा जहां तू उत्पन्न नहीं हुआ, कोई ऐसा पदार्थ नहीं बचा जिस को तूने भक्षण नहीं किया, तू जगत के समस्त प्रदेशों में घूम आया, कम-बन्धन के समस्त भाव भी तूने प्राप्त किये, संसार की समस्त पर्याय तू प्राप्त कर चुका है । इतना सब कुछ होकर भी दुर्मोह से तू फिर उन्हीं पदार्थों की भिक्षा मांगता है यह तुझे शोभा नहीं देता, तू अपने स्वरूप को प्रत्यक्ष अवलोकन कर, यही श्रेष्ठ है और अन्त में नित्य निरअन मोक्ष-वैभव को इसी से प्राप्त करेगा ॥७॥
जिनेन्द्र भगवान का, जिन वाणी का तथा निम्रन्थ गुरु का पक्ष लेकर मोह को रंचमात्र भी हृदय में स्थान नहीं देना, ऐसी हार्दिक प्रबल भावना और गुणानुराग ही सम्यक्त्व है ।।५८॥
__ जो त्याज्य, अति विषम और विषमय है, वह अधर्म है । जो धर्म है वह श्रेयस्कर है, उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, अमृत-तुल्य है, सुखदायक है। ऐसी श्रद्धा करना सम्यक्त्व है ॥५६॥
श्री जिनेन्द्र भगवान पर सन्देह-रहित विश्वास करने का एक गुण ही - यदि प्राप्त हो जावे तो प्रात्मा के अन्य समस्त गुण स्वयं प्राप्त हो जाते हैं।
ऐसी अचल श्रद्धा ही पाप-निवारक है ॥६॥