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________________ अनादि काल से आत्मा विकल्प रूप से भी दृष्टिगोचर नहीं हुआ, वही प्रात्मा अब निर्विकल्प रूपसे प्रतीत हो रहा है,ऐसा परिणाम ही शुद्ध दर्शन का है ॥४६॥ मौन भाव से प्रात्मा को देखना (अनुभव करना) और उसे उलट पलट कर विचारना तथा अपने ग्रात्मा में ही लीन रहना, ऐसी परिणति पापनाशक है ऐसा चिन्तवन करने वाला शुद्ध सभ्यष्टि हैं ॥४७॥ बहुत कहने से क्या प्रयोजन, बाह्य क्रियाओं को छोड़ दो, सद्गुरु के उपदेश रूपी रत्न-ज्योति से मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को हटा कर अन्तर्मुख हो जामो, निश्चल चित्त बन जाओ, स्वाधीन सुखामृत में मग्न हो जाओ। ऐसी वृत्ति रखने वाला शुद्ध सम्यग्दृष्टि है और संसार-सागर के पार पहुंचने वाला है ॥४८॥ सम्यक्त्व का नष्ट होना मिट्टी के घड़े के टूटने के समान है और चारित्र का नष्ट होना सुवर्ण घड़े के टूटने के समान है। यानी-मिट्टी का घड़ा टूट जाने पर फिर नहीं जुड़ सकता किन्तु सोने का घड़ा टूट जाने के बाद भी फिर जुड़ जाता है, इसी प्रकार सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर आत्मा का सुधार नहीं हो सकता, चारित्र नष्ट हो जाने पर फिर भी प्रात्मा सुधर जाती है ॥४६॥ जहां पर जिनेन्द्र देव का पूजन महोत्सव होता है वहां जाकर हर्ष मनाना, जिनेन्द्र भगवान की महिमा सुन कर और देखकर प्रानन्द मनाना, जैन शास्त्रों के महान विस्तार को देखकर हर्ष मनाना, जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करने में आनन्दित होना, जिनागम में सारतत्व का विवेचन देखकर प्रसन्न होना जिन-चैत्यालय को देखकर हर्षित होना, इस प्रकार की प्रवृत्ति वाला शुद्ध सम्यक्त्वी है ॥५०।1 यह मन एक है जब सम्यक्त्व का अनुभव करता है संब सम्यग्दृष्टि होता है, जब मिथ्यात्व में जाता है तब प्रात्मा मिथ्यादृष्टि होता है, परिणाम बदलने से एक ही समय में बदल जाता है। इन सब रहस्यों का ज्ञाता सर्वज्ञ है। ऐसा समझ कर मेधावी जो पूर्वोक्त रीति से श्रद्धान करता है वह उत्तम सम्यर दृष्टि है ।।५।। परमगुरू के उपदेश से जैसा है वैसा समस्त पदार्थों को अच्छी तरह जानकर अपने आपमें स्थिर होकर, "हमने अद्भुत पदार्थ पा लिया” इस प्रकार अपने आन्मा से उत्पन्न हुए निश्चल, निर्मल, दिव्य सुखसागर में निरन्तर मग्न रहने वाला शुद्ध सम्यक्त्वी और उत्तम है ॥५२।।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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