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समस्त बाह्य पदार्थो को जानकर उनमें भ्रान्तिवश लीन न होना, अन्तमुख होकर प्रात्म-अनुभूति में लगना ही सम्यत्रत्व है ।।३४॥
पंच परमेष्ठी के भेद (रहस्य) को जानकर, पाप मल दूर करने के लिए निरन्तर आत्मस्वरूप का अनुभव करना सम्यक्त्व है ।।१५।।
प्रात्मा ग्रादि पदार्थो का स्वरूप ऐसा है कि नहीं ? इत्यादि भ्रामक या सन्देहयुक्त वाग्जाल में न फंसना, करण-लब्धि होने के पश्चात् आत्मा का साक्षास्कार होना ही सम्यक्त्व है ।।३६॥
निज प्रात्मा की चि ही बोध चारित्र आदि की भेदभावना मिटाकर अद्वैत भाव प्रगट करती है, निजतत्व की रुचि ही जिनेश्वर की स्तुति है, निज तत्व को रुचि ही संयम है और अन्य कुछ नहीं है ।।३७||
निज तत्व (आत्म स्वरूप) ही सत् दैव (भाग्य) है, निज तत्व ही तप है, निज तत्व ही चारित्र है और निज तत्व ही शील हैं। ऐसा श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ॥३८॥
____निज तत्व ही नय-समुदाय है, निज तत्व ही प्रमाण है, निज तत्व ही निक्षेप है, इस प्रकार आत्मा का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है |॥३६॥
__ निज आत्मा ही सिद्धत्व है, निज तत्व ही शान्ति (क्षमा) है, ऐसी भावना करना सम्यक्त्व है ।।४।।
निज तत्व (आत्मा) ही गुणों का भंडार है, निज तत्व ही गुप्ति, समिति, मार्दय, शौच और आकिंचन्य है इस कारण निजतत्व ही तत्व है, ऐसी भावना करना ही सम्यक्त्व है ।।४१॥
निज तत्व ही आर्जव है, निज तत्व ही संयम और महाजत है, निज तत्व ही जिनेन्द्र देव का स्तोत्र है एवं निज तत्व ही हमारा कार्य है, ऐसा चिन्तवन करना सम्यक्त्व है ।।४२॥
निज तस्व ही पापहारी है, निज तत्व ही मुनियों का षट् आवश्यक कर्म है, निजतत्व ही उपादेय है, ऐसी भावना करना सम्यक्त्व है ॥४३॥
नीर क्षीर का विवेक न करने वाले, मुख्य गौण, ग्राह्य (ग्रहण करने पोग्य) अग्नाा (न ग्रहण करने योग्य) का विचार न करने बाले मनुष्य को सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता ।।४४॥
रागद्वेष प्रादि दोषों से रहित ही आप्त (पूज्य देव) है, प्राप्त की वारणी ही पागम है, जिनेन्द्र द्वारा कहे गये पदार्थ ही यथार्थ हैं, ऐसा श्रद्धान करना ही सम्यक्त्व है ॥४५॥