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काल में सातवें बलभद्र नन्दिमित्र, नारायण दत्त और बलि नामक प्रनिनारायण हुआ है ।१६।
श्री मुनिसुव्रतनाथ अंग देश के चम्पापुर का प्रतापी राजा हरिवर्मा राज्य करता था। एक बार उसने अपने उद्यान में पधारे हुए अनन्त वीर्य से संसार की असारतासूचक धर्म-उपदेश सुना । उसके प्रभाव से उसे प्रात्म-रुचि हुई और वह सब परिग्रह त्याग कर मुनि बन गया । मुनि चर्या का निर्दोष पालन करते हुए उसने सोलह भावनाओं का चिन्तवन करके सर्वोत्तम तीर्थकर प्रकृति का बंध किया । अन्त में वीरमरण करके वह प्रारणत स्वर्ग का इन्द्र हुमा । वहां पर २० सागर की दिव्य सम्पदानों का उपभोग किया तदनन्तर मगध देश के राजग्रह नगर के शासक हरिवंशी राजा समित्र की महारानी सोमा के गर्भ से बीसवें तीर्थकर श्री मुनिसुव्रतनाथ के रूप में जन्म लिया । भगवान मल्लिनाथ के मुक्ति समय से ५३ लाख ७० हजार वर्ष का समय बीत जाने पर श्री मुनि सुयतनाथ का जन्म हुमा था। शरीर का वर्ण नीला था, ऊंचाई २० धनुष थी और प्रायु ३० हजार वर्ष की थो । दाहिने पैर में कछुए का चिन्ह था।
भगवान मुनिसुव्रतनाथ के साढ़े सात हजार वर्ष कुमार काल में व्यतीत हुए और साढ़े सात हजार वर्ष तक राज्य किया। फिर उनको संसार से वैराग्य हुआ, उनके साथ एक हजार राजाओं ने भी मुनि दीक्षा ग्रहण की। ११ मास तक तपश्चरण करने के पश्चात उनको केवल ज्ञान हो । तष लगभग ३० हजार वर्ष तक समवशरण द्वारा विभिन्न देशों में विहार करके धर्म प्रचार करते रहे । इनके मल्लि आदि १८ गराधर थे। केवल-ज्ञानी, अवधिज्ञानी आदि सब तरह के ३० हजार मुनि और पुष्पदन्ता आदि ५० हजार प्रायिकायें उनके साथ थीं। वरुण यक्ष बहु, रूपिणी यक्षी, कच्छप चिन्ह था अन्त में सम्मेद शिखर से उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।
भगवान मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ काल में हरिषेण चक्रवर्ती हुआ है सथा पाठवें बलभद्र राम, नारायण लक्ष्मण और प्रति नारायण रावण हुआ है ।२०।
भगवान नमिनाथ वत्स देव के कौशाम्बी नगर में सिद्धार्थ नामक इक्ष्वाकुवंशी राजा राज्य करता था । एक दिन उसने महाबल कवली से धर्म-उपदेश सुना जिससे