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यक्ष विजया यक्षी थी। सर्वत्र विहार करते हुए महान धर्म प्रचार किया और अन्त में सम्मेद शिखर पर्वत से मोक्ष प्राप्त की।
भगवान् अरनाथ के पीछे किन्तु उनके तीर्थ समय में ही परशुराम का घातक किन्तु स्वयं लोभ-वश समुद्र में अपने पूर्व जन्म के शत्रु ( रसोइया ) देव द्वारा मरने वाला सुभौम चक्रवर्ती हुया है। प्रथा उनके ही तीर्थ काल में नन्दिषेण नामक छठा बलभद्र, पुण्डरीक नाराबरण और निशुम्भ नामक प्रति नारायण हुआ है ।११
श्री मल्लिनाथ . जम्बू द्वीप-वर्ती सुमेरू पर्वत के पूर्व में कच्छकावतो देशान्तर्गत बीतशाक नामक सुन्दर नगर है उसका शासक लैंथ वग नामक राजा राज्य करता था। एक दिन उसने बनविहार के समय बिजली से एक बट वृक्ष को गिरते देखा इससे उसे वैराग्य हो गया और वह अपने पुत्र को राज्य देकर मुनि हो गया । मुनि अवस्था में उसने तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्ध किया। तपश्चरण करते हुए समाधि के साथ प्राण त्याग किया और अपराजित नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुआ, तेतीस सागर की आयु जब वहां समाप्त हो गई तब बंग देश की मिथिला नगरी में इक्ष्वाकुवंशी राजा कुम्भ की रानी प्रजावती के गर्भ में आया और मास पश्चात् श्री मल्लिनाथ तीर्थ कर के रूप में जन्म लिया। भगवान अरनाय की मुक्ति के ५५ हजार वर्ष कम एक हजार करोड़ वर्ष व्यतीत हो जाने पर श्री मल्लिनाथ भगवान का जन्म हुआ।
आप सुबर्ण वर्ण के थे, २५ घनुष ऊंचा शरीर था, पचपन हजार वर्ष को आयु थी दाहिने पैर में कलश का चिन्ह था। जब उन्होंने यौवन अवस्था में पर रक्खा तो उनके विवाह की तैयारी हुई । अपने नगर को सजा हुआ देखकर उन्हें पूर्व भव के अपराजित विमान का स्मरण हो पाया, अतः संसार की विभूति अस्थिर जानकर विरक्त हो गये और अपना विवाह न कराकर कुमार काल में उसी समय उन्होंने मुनि दीक्षा ले ली। छः दिन तक तपश्चरण करने के अनन्तर ही उनको केवल ज्ञान हो गया। फिर अच्छा धर्म प्रचार किया । उनके विशाख अादि १२८ गणधर थे । केवल ज्ञानी आदि विविध ऋद्धिधारक ४० हजार मुनि और बन्दुषणा आदि आर्यिकायें उनके संघ में थीं। कुवेर यक्ष अपराजिता यक्षी थी कलश चिन्ह था अन्त में वे सम्मेदशिखर से मुक्त हुए।
इनके तीर्थ काल से पद्म नामक चक्रवर्ती हुआ है तथा इनके ही तीर्थ