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________________ ( २७० ) एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रियतक अवधि दर्शन के स्वामी असंयत सम्यग्दृष्टि से क्षीराकषाय तक होते है । और केवल दर्शन जिन तथा सिद्ध के होता है । षड्लेश्याः ।।४१।। लेश्या -- कषाय के उदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । वह अपनी आत्मा को पुण्य, पाप, प्रकृति, प्रदेश स्थिति तथा अनुभाग बन्ध का कारण हैं । इस प्रकार की यह लेश्या छः तरह की होती हैं उसके क्रमशः कृष्ण नील, कापोत, पीत पद्म तथा शुक्ल भेद होते है । इसमें की पहली तीन लेश्यायें अशुभ तथा नरक गति की कारण भूत हैं, किन्तु शेष तीन देव गति की कारण हैं । उनका लक्षरण इस प्रकार है ― भोरे के समान काला, नील के समान, कबूतर के समान, स्वर्ण के समान लाल कमल के समान और शंख के समान क्रम से कृष्ण, नील, कापोत, पति पदम शुक्ल लेश्या के शारीरिक रंग होते हैं इस प्रकार लेश्या छः हैं। इनके प्रत्येक में असंख्यात व संख्यात विकल्प होते हैं। इस प्रकार की जन्य लेक व भाव लेश्याओं से जो रहित हैं वे मुक्त कहलाते हैं । लेश्याओं के २६ अंश होते हैं। उनमें से मध्य के श्रंश आयु बन्ध: के कारण हैं, शेष १५ अंश चारों गतियों में गमन के कारण हैं । • कृष्ण, नील कापोत ये तीन प्रशुभ लेश्याएँ हैं इनमें से प्रत्येक के उत्तम्ब - मध्यम जघन्य तीन तीन भेद होते हैं। पोत पद्य शुक्ल लेश्या शुभ हैं इनमें से भी प्रत्येक के उत्तम मध्यम जघन्य तीन तीन भेद हैं, सब मिलकर १८ भेद हैं । इनमें से शुक्ल लेश्या के उत्तम भंश के साथ मरकर जोव सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न होता है, जघन्य अंश सहित रहनेवाला शतार सहस्रार विमान में उत्पन्न होता है। मध्यम अंशों से मरने वाला सर्वार्थसिद्धि और शतार सहस्रार के बीच के विमानों में जन्म लेता है । पदम लेश्या के उत्कृष्ट अंश से सहस्रार स्वर्ग में और जधन्य अंश के साथ मरकर सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग में तथा मध्यम अंश के साथ मरा जीव. सहस्रार सानत्कुमार माहेन्द्र के बीच के स्वर्गों में जाता है । पीत लेश्या के भ्रंश के साथ मरकर सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग के अंतिम - लेके श्रणीबद्ध विमानों में, या इन्द्रक विमान में, जघन्य अंश के साथ मरा हुआ जीव सौधर्म ऐशान स्वर्ग के ऋतु नामक इन्द्रक विमान या तत्सम्बन्धी श्र ेणीबद्ध 'विमान में जन्म लेता है । मध्यम अंश से मरकर दोनों के बीच में उत्पन्न होता है । 4. I
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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