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________________ ! ३६) है । अर्थात् मैंने समस्त पाप कार्यों का त्याग किया यह सामायिक चारित्र रूप है और मैंने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, और परिग्रह का त्याग किया वह शेपस्थ, कामदारे का स है । जिस काररम में प्राणी हिंसा की पूर्ण निवृत्ति होने से विशिष्ट विशुद्धि पायी जाती है उसे परिहार विशुद्धि कहते हैं । जिसने अपने जन्म से तीस वर्ष की अवस्था तक सुख पूर्वक जीवन बिताया हो और फिर जिन दीक्षा लेकर आठ वर्ष तक तीर्थकर के निकट प्रत्याख्यान नाम के नौवें पूर्व को पढ़ा हो । उस महामुनि को परिहार विशुद्धि चारित्र होता है। उसके शरीर से किसी जीव को वाधा नहीं होती, अत: वह वर्षा काल में भी गमन कर सकता है रात को गमन नहीं करता। संध्या काल को छोड़कर दो कोस गमन करता है । इस चारित्र वाले के शरीर से जीवों का घात नहीं होता इसी से इसका नाम परिहारविशुद्धि है । अत्यन्त सूक्ष्म कषाय के होने से सांपराय नाम के दशवें गुरास्थान में जो चारित्र होता है उसे सूक्ष्म साम्पराय चारित्र कहते हैं । समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से अथवा क्षय से जैसा प्रात्मा का निर्विकार स्वभाव है वैसा ही स्वभाव हो जाना यथाख्यात चारित्र है । इस चारित्र को प्रथाख्यात भी कहते हैं 'प्रथ' शब्द का अर्थ अनन्तर है। यह समस्त मोहनीय के क्षय अथवा उपशम होने के अनन्तर होता है अतः इसका नाम अथाख्यात. है तथा इसे तथाख्यात भी कहते हैं क्योंकि जैसा आत्मा का स्वभाव है वैसा ही इस चारित्र का स्वरूप है। चत्वारि दर्शनानि ॥४॥ सामान्य विशेषात्मक वस्तु के सामान्य रूप को विकल्प-रहित होकर ज्ञान से पहले प्रतिभास करने को दर्शन कहते हैं। इसके चक्ष दर्शन और प्रचक्ष दर्शन अवधिदर्शन केवल दर्शन ऐसे चार भेद हैं। १ चक्ष रिद्रिय मतिज्ञान के पहले होनेवाला चक्ष दर्शन, २ शेष इन्द्रिय मतिज्ञान से पहले होनेवाला अचक्ष दर्शन है. ६ अवधिज्ञान से पहले उत्पन्न होनेवाला अधिक दर्शन कहते हैं । जैसे सूर्य निकलते ही सम्पूर्ण वस्तु एक साथ दीखने लगती हैं उसी तरह केवल दर्शनावरण कर्म का सम्पूर्ण क्षय होने के कारण सम्पूर्ण पदार्थ एक साथ प्रतिभासित होना केवल दर्शन है । दर्शनोपयोग का काल अन्तर्मुहर्त होता है। यह क्रम से छदमस्थों में मोर युगपत अहंत भगवान और सिद्ध भगवान में होता है। चक्ष दर्शन के स्वामी चौन्द्रिय पंचेन्द्रिय हैं, अचक्ष इन्द्रिय के स्वामो
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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